मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते और वे व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ विश्वासघात तक कर देते हैं (भाग सात) खंड दो
मसीह-विरोधियों की सबसे स्पष्ट अभिव्यक्ति क्या है? पहली बात, वे सत्य स्वीकार नहीं करते, जिसे हर कोई देख सकता है। न केवल वे दूसरों के सुझाव स्वीकार नहीं करते, बल्कि सबसे जरूरी बात यह है कि वे अपनी काट-छाँट होना भी स्वीकार नहीं करते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि मसीह-विरोधी सत्य स्वीकार नहीं करते; अगर वे सत्य स्वीकार सकते तो वे मसीह-विरोधी नहीं होते। तो फिर मसीह-विरोधी अभी भी अपने कर्तव्य क्यों निभाते हैं? अपने कर्तव्यों को निभाने के पीछे वास्तव में उनका इरादा क्या होता है? उनका इरादा है, “इस जीवन में सौ गुना और आने वाली दुनिया में अनंत जीवन पाना।” वे अपने कर्तव्यों में पूरी तरह से इस कहावत का पालन कर रहे हैं। क्या यह एक लेन-देन नहीं है? यह बिल्कुल एक लेन-देन है। इस लेन-देन की प्रकृति को देखते हुए क्या यह दुष्ट स्वभाव नहीं है? (है।) तो वे किस तरह से दुष्ट हैं? क्या कोई मुझे बता सकता है? (भले ही मसीह-विरोधी परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए गए बहुत-से सत्य सुनते हैं, मगर वे कभी उनका अनुसरण नहीं करते। वे अपने रुतबे को मजबूती से पकड़े रहते हैं और उसे छोड़ते नहीं हैं, केवल अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए और दूसरों पर अपनी शक्ति का प्रयोग करने के लिए अपना कर्तव्य निभाते हैं।) यह जवाब कुछ हद तक सही है, तुमने इसे लगभग समझ लिया है, मगर यह उतना विशिष्ट नहीं है। अगर वे अच्छी तरह से जानते हैं कि परमेश्वर के साथ लेन-देन करना गलत है, मगर फिर भी अंत तक दृढ़ रहते हैं और पश्चात्ताप करने से इनकार करते हैं तो यह समस्या गंभीर है। आजकल, ज्यादातर लोग आशीष पाने के इरादे से अपने कर्तव्य निभाते हैं। वे सभी अपने कर्तव्यों के निर्वहन का इस्तेमाल इनाम और मुकुट पाने के लिए करना चाहते हैं और वे अपने कर्तव्य निर्वहन की सार्थकता नहीं समझते। इस समस्या पर स्पष्ट रूप से संगति करने की जरूरत है। तो आओ, पहले बात करते हैं कि लोगों का कर्तव्य कैसे अस्तित्व में आया। परमेश्वर मानवजाति का प्रबंधन करने और बचाने का कार्य करता है। बेशक परमेश्वर की लोगों से अपेक्षाएँ होती हैं और ये अपेक्षाएँ ही उनका कर्तव्य हैं। यह स्पष्ट है कि लोगों का कर्तव्य परमेश्वर के कार्य और मानवजाति से उसकी अपेक्षाओं से उत्पन्न होता है। इससे फर्क नहीं पड़ता कि कोई व्यक्ति क्या कर्तव्य निभाता है, यह सबसे उचित काम है जो वह कर सकता है, मानवजाति के बीच सबसे सुंदर और सबसे न्यायपूर्ण काम है। सृजित प्राणियों के रूप में लोगों को अपना कर्तव्य निभाना चाहिए, केवल तभी वे सृष्टिकर्ता की स्वीकृति प्राप्त कर सकते हैं। सृजित प्राणी सृष्टिकर्ता के प्रभुत्व में जीते हैं और वे वह सब जो परमेश्वर द्वारा प्रदान किया जाता है और हर वह चीज जो परमेश्वर से आती है, स्वीकार करते हैं, इसलिए उन्हें अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे करने चाहिए। यह पूरी तरह से स्वाभाविक और न्यायोचित है और यह परमेश्वर का आदेश है। इससे यह देखा जा सकता है कि लोगों के लिए सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना धरती पर रहते हुए किए गए किसी भी अन्य काम से कहीं अधिक उचित, सुंदर और भद्र होता है; मानवजाति के बीच इससे अधिक सार्थक या योग्य कुछ भी नहीं होता और सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने की तुलना में किसी सृजित व्यक्ति के जीवन के लिए अधिक अर्थपूर्ण और मूल्यवान अन्य कुछ भी नहीं है। पृथ्वी पर सच्चाई और ईमानदारी से सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने वाले लोगों का समूह ही सृष्टिकर्ता के प्रति समर्पण करने वाला होता है। यह समूह सांसारिक प्रवृत्तियों का अनुसरण नहीं करता; वे परमेश्वर की अगुआई और मार्गदर्शन के प्रति समर्पण करते हैं, केवल सृष्टिकर्ता के वचन सुनते हैं, सृष्टिकर्ता द्वारा व्यक्त किए गए सत्य स्वीकारते हैं और सृष्टिकर्ता के वचनों के अनुसार जीते हैं। यह सबसे सच्ची, सबसे गूँजती हुई गवाही होती है और यह परमेश्वर में विश्वास की सबसे अच्छी गवाही होती है। सृजित प्राणी के लिए एक सृजित प्राणी का कर्तव्य पूरा कर पाना, सृष्टिकर्ता को संतुष्ट कर पाना मानवजाति के बीच सबसे सुंदर चीज होती है और यह कुछ ऐसा है जिसे उनके बीच प्रशंसा की कथा के रूप में फैलाया जाना चाहिए। सृजित प्राणियों को सृष्टिकर्ता जो कुछ भी सौंपता है उसे बिना शर्त स्वीकार कर लेना चाहिए; मानवजाति के लिए यह खुशी और विशेषाधिकार दोनों की बात है और उन सबके लिए जो एक सृजित प्राणी का कर्तव्य पूरा करते हैं, कुछ भी इससे अधिक सुंदर या याद किए जाने लायक नहीं होता—यह एक सकारात्मक चीज है। और जहाँ तक प्रश्न यह है कि सृष्टिकर्ता उन लोगों के साथ कैसा व्यवहार करता है जो सृजित प्राणी का कर्तव्य पूरा कर सकते हैं और वह उनसे क्या वादा करता है, यह सृष्टिकर्ता का मामला है; सृजित मानवजाति का इससे कोई सरोकार नहीं है। इसे थोड़ा और सरल तरीके से कहूँ तो यह परमेश्वर पर निर्भर है और लोगों को इसमें हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है। तुम्हें वही मिलेगा जो परमेश्वर तुम्हें देता है, यदि वह तुम्हें कुछ भी नहीं देता है तो तुम इसके बारे में कुछ भी नहीं कह सकते। जब कोई सृजित प्राणी परमेश्वर के आदेश को स्वीकार करता है और अपना कर्तव्य निभाने और जो वह कर सकता है उसे करने में सृष्टिकर्ता के साथ सहयोग करता है तो यह कोई लेन-देन या व्यापार नहीं होता है; लोगों को परमेश्वर से कोई वादा या आशीष पाने के लिए रवैयों की अभिव्यक्तियों या क्रियाकलापों और व्यवहारों का सौदा करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। जब सृष्टिकर्ता तुम लोगों को यह काम सौंपता है तो यह सही और उचित है कि सृजित प्राणियों के रूप में, तुम इस कर्तव्य और आदेश को स्वीकार करो। क्या इसमें कोई लेन-देन शामिल है? (नहीं।) सृष्टिकर्ता की ओर से, वह तुम लोगों में से हर एक को वे कर्तव्य सौंपने का इच्छुक है जो लोगों को निभाने चाहिए; और सृजित मानवजाति की ओर से, लोगों को यह कर्तव्य सहर्ष स्वीकार करना चाहिए, इससे अपने जीवन के दायित्व के रूप में पेश आना चाहिए, उस मूल्य के रूप में पेश आना चाहिए जिसे उन्हें इस जीवन में जीना है। यहाँ कोई लेन-देन नहीं है, यह एक सामान्य आदान-प्रदान नहीं है, इसमें ऐसा कोई भी इनाम या अन्य कथन तो और भी शामिल नहीं हैं जिनकी लोग कल्पना करते हैं। यह किसी भी तरह से एक व्यापार नहीं है; इसका मतलब लोगों के अपने कर्तव्य निभाते हुए चुकाई जाने वाली कीमत या की जाने वाली कड़ी मेहनत के बदले किसी चीज के आदान-प्रदान से नहीं है। परमेश्वर ने कभी भी यह नहीं कहा है, न ही लोगों को इसे इस तरीके से समझना चाहिए। सृष्टिकर्ता मानवजाति को एक आदेश देता है और सृष्टिकर्ता से परमेश्वर द्वारा दिया गया आदेश प्राप्त करने के बाद सृजित प्राणी अपना कर्तव्य निभाने का बीड़ा उठाता है। इस मामले में, इस प्रक्रिया में, कोई लेन-देन नहीं है; यह एकदम सरल और उचित है। यह वैसा ही है जैसे माता-पिता के साथ होता है, जो अपने बच्चे को जन्म देने के बाद, बिना किसी शर्त या शिकायत के उसका पालन-पोषण करते हैं। जहाँ तक यह सवाल है कि क्या बच्चा बड़ा होकर संतानोचित कर्तव्य निभाता है या नहीं, उसके माता-पिता ने उसके जन्म से ही ऐसी कोई अपेक्षाएँ नहीं रखी थीं। ऐसे एक भी माता-पिता नहीं हैं जो बच्चे को जन्म देने के बाद कहें, “मैं उसे सिर्फ इसलिए पाल रहा हूँ ताकि वह भविष्य में मेरी सेवा करे और मेरा सम्मान करे। अगर वह मेरा सम्मान नहीं करेगा तो मैं उसे अभी गला घोंटकर मार डालूँगा।” ऐसे एक भी माता-पिता नहीं हैं। तो, जिस तरह से माता-पिता अपने बच्चों का पालन-पोषण करते हैं, उससे यह पता चलता है कि यह एक दायित्व है, एक जिम्मेदारी है, है ना? (बिल्कुल है।) माता-पिता अपने बच्चे का पालन-पोषण करते रहेंगे, चाहे वे अपना संतानोचित कर्तव्य निभाएँ या नहीं, चाहे कितनी भी कठिनाइयाँ क्यों न हों वे उन्हें तब तक पालेंगे जब तक वे बालिग नहीं हो जाते, और वे उनके लिए सिर्फ अच्छा ही चाहते हैं। माता-पिता की अपने बच्चे के प्रति इस जिम्मेदारी और दायित्व में कोई शर्त या लेन-देन नहीं है। जिनके पास इससे संबंधित अनुभव है वे लोग इसे समझ सकते हैं। ज्यादातर माता-पिता के पास इस बात के कोई अपेक्षित मानक नहीं होते कि उनका बच्चा संतानोचित है या नहीं। अगर उनका बच्चा संतानोचित है तो वे सामान्य से थोड़े ज्यादा हंसमुख रहेंगे और अपने बुढ़ापे में वे थोड़े ज्यादा खुश रहेंगे। अगर उनका बच्चा संतानोचित नहीं है तो वे कुछ नहीं करेंगे। ज्यादातर माता-पिता जो अपेक्षाकृत खुले विचारों वाले होते हैं, इसी तरह सोचते हैं। कुल मिलाकर, चाहे माता-पिता अपने बच्चों का पालन-पोषण कर रहे हों या बच्चे अपने माता-पिता की मदद कर रहे हों, मामला जिम्मेदारी का है, दायित्व का है और यह व्यक्ति की अपेक्षित भूमिका के दायरे में आता है। बेशक, ये सभी सृजित प्राणी द्वारा अपना कर्तव्य निभाने की तुलना में तुच्छ मामले हैं, मगर इंसानी दुनिया के मामलों में, ये ज्यादा सुंदर और न्यायपूर्ण मामलों में से हैं। जाहिर है कि यह सृजित प्राणी द्वारा अपना कर्तव्य निभाने पर और भी अधिक लागू होता है। एक सृजित प्राणी के रूप में व्यक्ति जब सृष्टिकर्ता के सामने आता है तो उसे अपना कर्तव्य निभाना ही चाहिए। यह करना बहुत उचित चीज है और उसे यह जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए। इस शर्त पर कि सृजित प्राणी अपने कर्तव्य निभाएँ, सृष्टिकर्ता ने मानवजाति के बीच और भी बड़ा कार्य किया है, उसने लोगों पर कार्य का एक और चरण पूरा किया है। और वह कौन-सा कार्य है? वह मानवजाति को सत्य प्रदान करता है जिससे उन्हें अपने कर्तव्य निर्वहन करते हुए परमेश्वर से सत्य हासिल करने और इस प्रकार अपने भ्रष्ट स्वभाव त्यागने और शुद्ध होने, परमेश्वर के इरादे पूरा कर पाने और जीवन में सही मार्ग अपना पाने और अंततः परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में सक्षम होने, पूर्ण उद्धार हासिल कर पाने और शैतान द्वारा दी जाने वाली पीड़ाओं का शिकार न बनने का मौका मिलता है। यही वह अंतिम प्रभाव है जिसे परमेश्वर मानवजाति से कर्तव्य निर्वहन करवाने के माध्यम से हासिल करने की मंशा रखता है। इसलिए परमेश्वर तुम्हें अपना कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया के दौरान महज एक चीज स्पष्ट रूप से देखने और थोड़ा-सा सत्य समझने नहीं देता, वह तुम्हें महज उस अनुग्रह और उन आशीषों का आनंद नहीं लेने देता है जो तुम एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने से प्राप्त करते हो। बल्कि वह तुम्हें शुद्ध होने और बचाए जाने और अंततः सृष्टिकर्ता के मुखमंडल के प्रकाश में रहने का अवसर भी देता है। सृष्टिकर्ता के इस “मुखमंडल के प्रकाश” में बड़ी मात्रा में विस्तारित अर्थ और विषयवस्तु शामिल है—आज हम इस पर चर्चा नहीं करेंगे। निस्संदेह, परमेश्वर निश्चित रूप से ऐसे लोगों के लिए वादे और आशीष जारी करेगा और उनके बारे में अलग वक्तव्य देगा—यह आगे का मामला है। अभी की बात करें तो हर वह इंसान जो परमेश्वर के सामने आता है और एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाता है, परमेश्वर से क्या पाता है? सत्य और जीवन, जो मानवजाति के बीच सबसे मूल्यवान और सुंदर चीजें हैं। मानवजाति का कोई भी सृजित प्राणी आसानी से सृष्टिकर्ता के हाथों से ऐसे आशीष प्राप्त नहीं कर सकता। ऐसी खूबसूरत और बड़ी चीज को मसीह-विरोधियों की किस्म के लोग एक लेन-देन के रूप में विकृत कर देते हैं, जिसमें वे परमेश्वर के हाथों से मुकुटों और पुरस्कारों की माँग करते हैं। इस प्रकार का लेन-देन सबसे सुंदर और उचित चीज को सबसे बदसूरत और दुष्ट चीज में बदल देता है। क्या मसीह-विरोधी ऐसा ही नहीं करते? इस हिसाब से देखें तो क्या मसीह-विरोधी दुष्ट नहीं हैं? वे वास्तव में काफी दुष्ट हैं! यह उनकी दुष्टता की एक अभिव्यक्ति है।
अंत के दिनों में परमेश्वर कार्य करने के लिए देहधारण करता है, कई सत्य व्यक्त करता है, मानवजाति के सामने परमेश्वर की प्रबंधन-योजना के सभी रहस्य खोलता है और उन सभी सत्यों की आपूर्ति करता है जिन्हें लोगों को समझना और जिनमें प्रवेश करना चाहिए ताकि वे बचाए जा सकें। ये सत्य और परमेश्वर के ये वचन उन सभी के लिए खजाने हैं, जो सकारात्मक चीजों से प्रेम करते हैं। भ्रष्ट मानवजाति को इन सत्यों की जरूरत है और ये मानवजाति के लिए अमूल्य निधि भी हैं। परमेश्वर का प्रत्येक वचन, उसकी प्रत्येक अपेक्षा और प्रत्येक इरादा ऐसी चीजें हैं, जिन्हें लोगों को समझना और बूझना चाहिए, वे ऐसी चीजें हैं जिनका लोगों को उद्धार प्राप्त करने के लिए पालन करना चाहिए और वे ऐसे सत्य हैं जिन्हें मनुष्यों को प्राप्त करना चाहिए। लेकिन मसीह-विरोधी इन वचनों को सिद्धांत और नारे समझते हैं, वे इन पर ध्यान तक नहीं देते, इससे भी बढ़कर वे इसका तिरस्कार करते हैं और इन्हें नकार देते हैं। मसीह-विरोधी मनुष्यों के बीच की सबसे कीमती चीजों को कपटियों के झूठ मानते हैं। मसीह-विरोधी अपने दिलों में यह मानते हैं कि दुनिया में कोई उद्धारकर्ता नहीं है, सत्य या सकारात्मक चीजों की तो बात ही छोड़ दो। उन्हें लगता है कि इंसानी हाथों को हर सुंदर चीज या लाभ प्राप्त होना चाहिए और इसे इंसानी संघर्ष द्वारा जबरन हासिल किया जाना चाहिए। मसीह-विरोधियों को लगता है कि बिना महत्वाकांक्षाओं और सपनों के लोग कभी सफल नहीं होंगे और उनके हृदय परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए गए सत्य के प्रति बेरुखी और नफरत से भरे हुए हैं। वे परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए गए सत्यों को सिद्धांत और नारे मानते हैं और सत्ता, हितों, महत्वाकांक्षा और इच्छा को ऐसे उचित मकसद मानते हैं जिनका प्रबंधन करना चाहिए और जिनके पीछे भागना चाहिए। स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने, मुकुट प्राप्त करने और अधिक बड़े आशीषों का आनंद लेने के प्रयास में वे अपने गुणों के माध्यम से की गई सेवा का उपयोग परमेश्वर के साथ लेन-देन करने के साधन के रूप में भी करते हैं। क्या यह दुष्टता नहीं है? वे परमेश्वर के इरादों की व्याख्या कैसे करते हैं? वे कहते हैं, “मालिक कौन है, इसका फैसला परमेश्वर यह देखकर करता है कि कौन उसके लिए सबसे अधिक खपता और कष्ट उठाता है और कौन सबसे अधिक कीमत चुकाता है। कौन राज्य में प्रवेश कर सकता है और कौन मुकुट प्राप्त करता है, इसका निर्धारण वह यह देखकर करता है कि कौन दौड़-धूप कर सकता है, कौन वाक्पटुता से बोल सकता है और कौन है जिसमें किसी डाकू की आत्मा है और जो बलपूर्वक चीजें छीन सकता है। जैसा कि पौलुस ने कहा था, ‘मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूँ, मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्वास की रखवाली की है। भविष्य में मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है’ (2 तीमुथियुस 4:7-8)।” वे पौलुस के इन शब्दों का अनुसरण करते हैं और मानते हैं कि उसकी बातें सत्य हैं, लेकिन मानवजाति से परमेश्वर की सभी अपेक्षाओं और मानवजाति के लिए उसके सभी कथनों की यह सोचते हुए उपेक्षा करते हैं, “ये चीजें बेमानी हैं। बस इतना ही मायने रखता है कि अपनी कुश्ती लड़ लेने और अपनी दौड़ पूरी कर लेने के बाद, अंत में मुझे एक मुकुट मिल जाएगा। यह सच है। क्या परमेश्वर का यही मतलब नहीं है? परमेश्वर ने हजारों-हजार वचन बोले हैं और अनगिनत उपदेश दिए हैं। अंततः लोगों से वह यही कहना चाहता है कि अगर तुम मुकुट और पुरस्कार चाहते हो तो यह तुम पर है कि तुम लड़ो, संघर्ष करो, छीनो और ले लो।” क्या यह मसीह-विरोधियों का तर्क नहीं है? अपने दिलों की गहराई में मसीह-विरोधी परमेश्वर के कार्य को हमेशा इसी प्रकार देखते हैं और परमेश्वर के वचन और प्रबंधन-योजना की वे इसी प्रकार व्याख्या करते हैं। उनका स्वभाव दुष्टतापूर्ण है, है न? वे परमेश्वर के इरादों, सत्य और सभी सकारात्मक चीजों को तोड़-मरोड़कर पेश करते हैं। वे मानवजाति को बचाने की परमेश्वर की प्रबंधन-योजना को एक नग्न लेन-देन के रूप में देखते हैं, परमेश्वर मानवजाति से जिस कर्तव्य को पूरा करने की अपेक्षा करता है, उसे वे एक नग्न जब्ती, आक्रामकता, धोखा और लेन-देन समझते हैं। क्या यह मसीह-विरोधियों का दुष्ट स्वभाव नहीं है? मसीह-विरोधियों का मानना है कि आशीषों की प्राप्ति और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश, उन्हें लेन-देन के माध्यम से ही प्राप्त करना होगा और यह उचित, तर्कसंगत और सबसे वैध है। क्या यह दुष्टतापूर्ण तर्क नहीं है? क्या यह शैतानी तर्क नहीं है? मसीह-विरोधी हमेशा अपने दिलों की गहराई में ऐसे ही विचार और रवैया रखते हैं, जो साबित करता है कि मसीह-विरोधियों का स्वभाव बेहद दुष्टतापूर्ण है।
अभी इस विषयवस्तु की जिन मदों पर संगति की गई, क्या उनसे तुम मसीह-विरोधियों के दुष्ट स्वभाव को देख पाए हो? (बिल्कुल।) पहली मद थी कि मसीह-विरोधी अपने कर्तव्य को कैसे लेते हैं, है ना? तो मसीह-विरोधी अपने कर्तव्य को कैसे लेते हैं? (मसीह-विरोधी अपने कर्तव्य को एक लेन-देन की तरह लेते हैं जिसके बदले में वे अपनी मंजिल और अपने हितों का सौदा करते हैं। भले ही परमेश्वर ने लोगों पर कितना भी काम किया हो, उसने उनसे कितने भी वचन कहे हों और उसने उनके लिए कितने भी सत्य व्यक्त किए हों, वे इन सबको महत्वहीन मानकर खारिज करते हुए अभी भी परमेश्वर से लेन-देन करने के इरादे के साथ अपना कर्तव्य करते हैं।) मसीह-विरोधी अपने कर्तव्य को एक लेन-देन मानते हैं। वे लेन-देन करने और आशीष पाने के इरादे के साथ अपना कर्तव्य करते हैं। वे सोचते हैं कि परमेश्वर पर विश्वास आशीष पाने की खातिर किया जाना चाहिए और अपना कर्तव्य करने के जरिए आशीष पाना उचित है। वे अपना कर्तव्य निभाने जैसी सकारात्मक चीज को विकृत करते हैं और एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने के मूल्य और महत्व को कलंकित करते हैं; साथ ही, वे ऐसा करने की वैधता को भी कलंकित करते हैं; जो कर्तव्य सृजित प्राणियों को स्वाभाविक रूप से निभाना चाहिए, वे उसे एक लेन-देन में बदल देते हैं। यह मसीह-विरोधियों की दुष्टता है; यह पहली मद है। दूसरी मद यह है कि मसीह-विरोधी सकारात्मक चीजों या सत्य के अस्तित्व पर विश्वास नहीं करते, न ही यह मानते और स्वीकारते हैं कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं। क्या यह दुष्टता नहीं है? (हाँ, बिल्कुल है।) इसमें दुष्टता क्या है? परमेश्वर के वचन सभी सकारात्मक चीजों की वास्तविकता हैं, फिर भी मसीह-विरोधी इसे नहीं देख सकते हैं और इसे स्वीकार नहीं करते हैं। वे परमेश्वर के वचनों को नारे और एक प्रकार का सिद्धांत मानते हैं, वे इस तथ्य को विकृत करते हैं कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं। यहाँ सबसे बड़ी और मुख्य समस्या क्या है? परमेश्वर मानवजाति को बचाने के लिए इन वचनों का उपयोग करना चाहता है और मनुष्य को शुद्ध होने और उद्धार पाने से पहले परमेश्वर के वचनों को अवश्य स्वीकारना चाहिए—यह एक तथ्य है और यही सत्य है। मसीह-विरोधी मानवजाति से किए गए परमेश्वर के इस वादे को स्वीकार नहीं करते। वे कहते हैं, “बचाया जाना? शुद्ध किया जाना? इसका क्या फायदा है? यह बेकार है! अगर मैं शुद्ध हो गया तो क्या मैं वास्तव में बचाया जा सकता हूँ और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सकता हूँ? मुझे तो नहीं लगता!” वे इस मामले पर कोई ध्यान नहीं देते और इसमें कोई दिलचस्पी नहीं रखते। इसका अव्यक्त निहितार्थ क्या है? यही कि वे इस बात पर विश्वास ही नहीं करते कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं; वे मानते हैं कि वे केवल कहावतें और धर्म-सिद्धांत हैं। वे विश्वास नहीं करते या यह स्वीकार नहीं करते कि परमेश्वर के वचन लोगों को शुद्ध कर सकते हैं या उन्हें बचा सकते हैं। इसकी तुलना उस समय से की जा सकती है जब परमेश्वर ने अय्यूब को ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित किया था जो परमेश्वर का भय मानता था और बुराई से दूर रहता था, और वह एक पूर्ण व्यक्ति था। क्या परमेश्वर द्वारा कहे गए ये वचन सत्य थे? (बिल्कुल।) तो परमेश्वर ने ऐसा क्यों कहा? इसका आधार क्या है? परमेश्वर लोगों के व्यवहार को देखता है, उनके दिलों की जाँच-पड़ताल करता है और उनके सार को देखता है, इसी आधार पर उसने कहा कि अय्यूब परमेश्वर का भय मानता था, बुराई से दूर रहता था और वह एक पूर्ण व्यक्ति था। परमेश्वर ने अय्यूब पर सिर्फ एक या दो दिन ही नहीं बल्कि ज्यादा समय तक नजर रखी और परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने की अय्यूब की अभिव्यक्तियाँ भी सिर्फ एक या दो दिन ही नहीं बल्कि ज्यादा समय के लिए रहीं और निश्चित रूप से ये केवल एक या दो बातों को लेकर नहीं थीं। तो शैतान ने इस तथ्य के प्रति क्या रवैया अपनाया था? (शक और संदेह करने का रवैया।) शैतान को सिर्फ शक ही नहीं था, उसने इसे नकार दिया था। साफ-साफ कहूँ तो उसके शब्द ये थे, “तूने अय्यूब को गाय, भेड़ और अनगिनत संपत्ति सहित बहुत कुछ दिया। उसके पास तेरी आराधना करने के कारण हैं। तू कहता है कि अय्यूब एक पूर्ण व्यक्ति है, मगर तेरे शब्दों में दम नहीं है। तेरे शब्द सत्य नहीं हैं, वे वास्तविक नहीं हैं, वे गलत हैं और मैं तेरी बातों का खंडन करता हूँ।” क्या शैतान का यही मतलब नहीं था? (हाँ, बिल्कुल यही मतलब था।) परमेश्वर ने कहा, “अय्यूब परमेश्वर का भय मानता है और बुराई से दूर रहता है, वह एक पूर्ण व्यक्ति है।” शैतान ने क्या कहा? (क्या वह बिना किसी कारण के परमेश्वर की आराधना करेगा?) शैतान ने कहा, “गलत, वह एक पूर्ण व्यक्ति नहीं है! उसने तुझसे लाभ और आशीष प्राप्त किए हैं, इसलिए वह तेरा भय मानता है। अगर तू इन लाभों और आशीषों को छीन ले तो वह तेरा भय नहीं मानेगा—वह एक पूर्ण मनुष्य नहीं है।” परमेश्वर द्वारा बोले गए हरेक वाक्य के सामने शैतान एक प्रश्नचिह्न लगाएगा और उसका खंडन करेगा। शैतान परमेश्वर के वचनों को और किसी भी चीज के बारे में परमेश्वर की परिभाषाओं या कथनों को नकारता है। क्या हम यह कह सकते हैं कि शैतान सत्य को नकारता है? (बिल्कुल।) यह तथ्य है। तो मानवजाति को उजागर करने, उसका न्याय करने, उसे ताड़ना देने वाले और मानवजाति के सामने विभिन्न प्रकार की विशिष्ट अपेक्षाएँ रखने वाले परमेश्वर के वचनों के प्रति मसीह-विरोधियों का क्या रवैया है? क्या वे उन्हें स्वीकार करके “आमीन” कहते हैं? क्या वे उनका पालन कर सकते हैं? (नहीं, वे नहीं कर सकते।) तुम कह सकते हो कि मसीह-विरोधियों के दिलों में परमेश्वर के सभी प्रकार के वचनों को लेकर यह तत्काल प्रतिक्रिया होती है, “गलत! क्या यह वास्तव में ऐसा है? तुम जो कहते हो वह सही कैसे है? यह सही नहीं है—मैं इस पर विश्वास नहीं करता। तुम जो कहते हो वह इतना अप्रिय क्यों है? परमेश्वर इस तरह से बात नहीं करेगा! अगर मैं इसे कहता तो इसे इस तरह से कहता।” परमेश्वर के प्रति मसीह-विरोधियों के इन रवैयों को देखें तो क्या वे परमेश्वर के वचनों को सत्य मानकर उनका पालन कर सकते हैं? बिल्कुल नहीं। यही उनकी दुष्टता है; यह दूसरी मद है। तीसरी मद यह है कि मसीह-विरोधी परमेश्वर की प्रबंधन योजना के उद्देश्य के बारे में क्या सोचते हैं, जो यह है कि परमेश्वर मानवजाति को बचाना चाहता है और शैतान के भ्रष्ट स्वभावों और उसकी अँधेरी शक्तियों से मुक्त होने और उद्धार पाने में मानवजाति की मदद करना चाहता है। उनके स्वभाव को दुष्ट क्यों कहते हैं? उनका मानना है कि यह एक लेन-देन है, और वे इसे एक खेल मानते हैं। किनके बीच का खेल? पौराणिक कथाओं के किसी परमेश्वर और अज्ञानी और मूर्ख लोगों के समूह के बीच एक खेल, जो स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करना चाहते हैं और दुख के संसार से मुक्त होना चाहते हैं। यह एक लेन-देन भी है जिसमें दोनों पक्ष अपनी इच्छा से भागीदार हैं, जहाँ एक पक्ष देने को तैयार है और दूसरा प्राप्त करने को तैयार है। यह इस तरह का खेल है। वे परमेश्वर की प्रबंधन योजना को इसी तरह देखते हैं—क्या यह मसीह-विरोधियों के दुष्ट स्वभाव का खुलासा नहीं है? क्योंकि मसीह-विरोधी महत्वाकांक्षाओं से भरे हुए हैं और क्योंकि वे एक मंजिल और आशीष पाना चाहते हैं, इसलिए वे मानवजाति के सबसे सुंदर काम और मानवजाति को बचाने के लिए परमेश्वर के प्रबंधन कार्य को एक खेल में, एक लेन-देन में बदल देते हैं—यह मसीह-विरोधियों का दुष्ट स्वभाव है। इसके अलावा, मसीह-विरोधियों की एक और अभिव्यक्ति है, जो काफी हास्यास्पद और बेतुकी लगती है। यह बेतुकी क्यों है? मसीह-विरोधी परमेश्वर द्वारा किए गए सभी कार्यों पर विश्वास नहीं करते, न ही वे यह मानते हैं कि परमेश्वर की कही हरेक बात सत्य है और मानवजाति को बचा सकती है, मगर वे कष्ट सहने, कीमत चुकाने और इस लेन-देन को करने और उसे सुगम बनाने की अटूट इच्छा रखते हैं। क्या यह हास्यकर नहीं है? बेशक, यह मसीह-विरोधियों की दुष्टता नहीं, बल्कि उनकी बेवकूफी है। एक ओर, वे यह विश्वास नहीं करते कि परमेश्वर का अस्तित्व है, यह नहीं मानते कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, यहाँ तक कि परमेश्वर की प्रबंधन योजना को विकृत कर देते हैं, वहीं दूसरी ओर, वे अभी भी परमेश्वर के वचनों और उसकी प्रबंधन योजना से व्यक्तिगत लाभ पाना चाहते हैं। दूसरे शब्दों में, एक ओर तो वे इन सभी तथ्यों के अस्तित्व पर विश्वास नहीं करते, उनकी प्रामाणिकता पर विश्वास करना तो दूर की बात है, वहीं दूसरी ओर, वे अभी भी लाभ पाने के लिए प्रयास करना चाहते हैं और हर तरह का लाभ उठाना चाहते हैं, अवसरवादी बनकर ऐसी चीजें हासिल करना चाहते हैं जो वे संसार में हासिल नहीं कर सकते, जबकि वे अभी भी सोचते हैं कि वे बेहद चतुर हैं। क्या यह बेतुका नहीं है? वे खुद को धोखा दे रहे हैं और हद से ज्यादा बेवकूफ हैं।
हमने अभी तीन अभिव्यक्तियों का इस्तेमाल करके मसीह-विरोधियों के दुष्ट स्वभाव का गहन-विश्लेषण किया और उनकी एक और अभिव्यक्ति को जोड़ा : मसीह-विरोधी इतने बेवकूफ होते हैं कि व्यक्ति समझ नहीं पाता कि उन पर हँसे या रोए। वे तीन अभिव्यक्तियाँ कौन-सी हैं? (पहली, मसीह-विरोधी अपने कर्तव्य निभाने को एक लेन-देन मानते हैं; दूसरी, मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचन नहीं स्वीकारते, यह विश्वास नहीं करते कि परमेश्वर का वचन कोई सकारात्मक चीज है और यह नहीं मानते कि परमेश्वर का वचन लोगों को बचा सकता है, इसके बजाय वे परमेश्वर के वचन को सिद्धांत और नारे मानते हैं; तीसरी, मसीह-विरोधी मानवजाति को बचाने के परमेश्वर के प्रबंधन कार्य को एक खुला लेन-देन और खेल मानते हैं।) और एक और अभिव्यक्ति? (मसीह-विरोधियों की हास्यास्पदता और निहायत मूर्खता।) क्या ये काफी विशिष्ट नहीं हैं? (हाँ।) क्या तुम लोग कहोगे कि इस तरह के स्वभाव वाले व्यक्ति की मानसिक स्थिति और विवेक कुछ हद तक असामान्य है? (हाँ।) वे किस तरह से असामान्य हैं? (मसीह-विरोधी परमेश्वर से लेन-देन करना चाहते हैं और परमेश्वर से संभावनाएँ और मंजिल पाना चाहते हैं, लेकिन वे अभी भी परमेश्वर की प्रबंधन योजना पर विश्वास नहीं करते या यह नहीं मानते कि परमेश्वर मानवजाति को बचा सकता है। उनकी सोच विरोधाभाषी है, जो चीजें वे चाहते हैं वे वही चीजें हैं जिन्हें वे नकारते हैं। बुनियादी तौर पर इसका कोई अर्थ नहीं है, इसलिए उनका विवेक असामान्य है और उनकी मानसिक स्थिति में कुछ गड़बड़ है।) इससे पता चलता है कि उनमें सामान्य मानवता का अभाव है। वे यह नहीं जानते कि सोचने और हिसाब लगाने के इन तरीकों से वे अपनी ही बात का खंडन कर रहे हैं। यह कैसे होता है? (वे हमेशा गलत मार्ग पर चलते हैं क्योंकि वे कभी सत्य नहीं स्वीकारते या सत्य का अभ्यास नहीं करते।) और क्या वे जानते हैं कि जिस मार्ग पर वे चल रहे हैं वह गलत मार्ग है? निश्चित रूप से वे नहीं जानते। अगर वे यह जानते कि ऐसा करने से नुकसान उठाना पड़ेगा तो यकीनन वे ऐसा नहीं करते। वे सोचते हैं कि ऐसा करने से उन्हें फायदा मिलेगा : “देखो, मैं कितना होशियार हूँ। तुम लोगों में से कोई भी चीजों की असलियत नहीं देख सकता; तुम सब मूर्ख हो। तुम इतने भोले कैसे हो सकते हो? कहाँ है परमेश्वर? मैं उसे देख या छू नहीं सकता और इस बात की भी कोई गारंटी नहीं है कि परमेश्वर के वादे पूरे हो सकते हैं! देखो मैं कितना चालाक हूँ—जब मैं एक कदम आगे बढ़ाता हूँ तो दस कदम आगे की सोचता हूँ, लेकिन तुम लोग एक कदम आगे का भी कोई हिसाब नहीं करते।” उन्हें लगता है कि वे बहुत चालाक हैं। इसलिए, दो-तीन साल तक अपना कर्तव्य निभाने के बाद कुछ लोग सोचते हैं : “मैं कई सालों से अपना कर्तव्य निभा रहा हूँ मगर अभी भी कुछ हासिल नहीं किया, कोई चमत्कार नहीं देखा या कोई असामान्य घटना नहीं देखी है। पहले मैं दिन में तीन बार खाना खाता था, अभी भी तीन बार खाना खाता हूँ। अगर मैं एक बार का खाना छोड़ देता हूँ तो मुझे भूख लगती है। अगर मैं रात में एक या दो घंटे कम सोता हूँ तो मुझे दिन में भी नींद आती है। मैंने कोई विशेष शक्तियाँ विकसित नहीं की हैं! हर कोई कहता है कि परमेश्वर सर्वशक्तिसंपन्न है और अगर तुम अपना कर्तव्य निभाते हो तो तुम्हें बड़े आशीष मिल सकते हैं। मैं कई सालों से अपना कर्तव्य निभा रहा हूँ मगर कुछ भी अलग नहीं हुआ। क्या सब कुछ अभी भी वैसा ही नहीं है? मुझे अक्सर कमजोरी, नकारात्मकता और शिकायतें होती हैं। हर कोई कहता है कि सत्य लोगों को बदल सकता है और परमेश्वर का वचन लोगों को बदल सकता है, लेकिन मैं तो बिल्कुल नहीं बदला हूँ। मेरे दिल में मुझे अभी भी अक्सर अपने माता-पिता, अपने बच्चों की याद आती है, यहाँ तक कि मैं दुनिया में अपने बीते दिनों को भी याद करता हूँ। तो फिर परमेश्वर लोगों पर आखिर क्या करता है? मुझे क्या हासिल हुआ है? हर कोई कहता है कि जब लोग परमेश्वर में विश्वास करके सत्य प्राप्त करते हैं तो उन्हें कुछ हासिल होता है, लेकिन अगर ऐसा होता तो क्या वे बाकी लोगों से अलग नहीं होते? अब मैं बूढ़ा हो रहा हूँ और मेरी सेहत पहले जैसी नहीं रही। मेरे चेहरे पर झुर्रियाँ बहुत बढ़ गई हैं। क्या वे यह नहीं कहते कि परमेश्वर में विश्वास रखने वाले लोग जितने लंबे समय तक जीते हैं, उतने ही जवान होते जाते हैं? मैं जवान होने के बजाय बूढ़ा क्यों हो गया? वैसे भी परमेश्वर के वचन सटीक नहीं हैं, मुझे अपने लिए योजनाएँ बनाने की जरूरत है। मैं समझ गया हूँ कि परमेश्वर में विश्वास करने का मतलब बस इतना ही है कि हर दिन परमेश्वर के वचन पढ़ने, सभाओं में हिस्सा लेने, भजन गाने और अपना कर्तव्य निभाने में व्यस्त रहो। यह उबाऊ लगता है और मुझे पहले से कुछ भी अलग महसूस नहीं होता।” ऐसा सोचते ही वे मुसीबत में पड़ जाएँगे, है ना? वे सोचते रहते हैं, “अब मैं अपना कर्तव्य निभाते हुए वाकई कष्ट झेल रहा हूँ, परमेश्वर के वादे और आशीष बहुत दूर नजर आते हैं। इसके अलावा, परमेश्वर में विश्वास करने वाले कुछ लोग आपदाओं में मर जाते हैं तो क्या परमेश्वर द्वारा मनुष्य की सुरक्षा जैसी कोई चीज है भी? अगर नहीं है तो कुछ लोगों ने जो गवाही के लेख लिखे हैं, जिनमें कहा गया है कि परमेश्वर ने सबसे खतरनाक पलों में उनका जीवन बचाने के लिए चमत्कार किए, वे सच हैं या झूठ?” वे इस पर सोच-विचार करते हैं और अपने दिलों में वे अनिश्चित होते हैं, जब वे अपना कर्तव्य निभाना जारी रखते हैं तो वे उदासीन और उत्साहहीन महसूस करते हैं और अब सक्रिय नहीं रह पाते। वे पीछे हटते रहते हैं और आधे-अधूरे मन से और अनमने ढंग से काम करने लगते हैं। वे अपने मन में क्या हिसाब लगाते रहते हैं? “अगर मुझे आशीष नहीं मिलता है, अगर हमेशा ऐसा ही चलता रहता है, तो मुझे दूसरी योजनाएँ बनाने की जरूरत है। मुझे फिर से योजना बनानी चाहिए कि मैं अपना कर्तव्य निभाना जारी रखूँ या नहीं और मैं इसे भविष्य में कैसे करूँ। मुझे फिर से इतना मूर्ख नहीं बनना चाहिए। नहीं तो भविष्य में मुझे अपनी संभावनाएँ और भाग्य या मेरा मुकुट नहीं मिलेगा और मैं सांसारिक सुख का आनंद भी नहीं भोग पाऊँगा। तो क्या यह सब प्रयास व्यर्थ और बेकार नहीं हो जाएगा? अगर मुझे अभी की तरह ही आगे भी कुछ नहीं मिला, तो मैं पहले ही बेहतर स्थिति में था जब नाममात्र को परमेश्वर में विश्वास रखकर काम करते हुए सांसारिक चीजों के पीछे भाग रहा था। अगर परमेश्वर कभी नहीं कहता कि कार्य कब समाप्त होगा, कब वह लोगों को इनाम देगा, यह कर्तव्य कब पूरा होगा और कब परमेश्वर मानवजाति के सामने खुले तौर पर प्रकट होगा; अगर परमेश्वर लोगों को कभी सटीक स्पष्टीकरण नहीं देता तो यहाँ अपना समय बर्बाद करने का क्या मतलब है? मेरे लिए यही बेहतर होगा कि मैं वापस संसार में जाकर पैसा कमाऊँ और सांसारिक सुख का आनंद उठाऊँ। कम से कम मैंने अपना जीवन बर्बाद तो नहीं किया होगा। आने वाली दुनिया के बारे में कौन जानता है? यह सब अज्ञात है, अभी तो मैं बस इस जीवन को अच्छे से जिऊँगा।” क्या उनके मन में कोई बदलाव नहीं आया है? जब वे इस तरह से हिसाब करते हुए गलत रास्ता अपना रहे हैं तो क्या वे अभी भी अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से निभा सकते हैं? (नहीं, वे नहीं निभा सकते।) कुछ लोग कहते हैं : “मसीह-विरोधियों को रुतबा पसंद है, है ना? अगर तुम उन्हें कोई पद देते हो तो क्या वे परमेश्वर के घर में नहीं रहेंगे?” क्या मसीह-विरोधियों को इस समय रुतबे की जरूरत है? शायद इस समय उनके लिए रुतबा सबसे महत्वपूर्ण चीज नहीं है। उन्हें किस चीज की जरूरत है? उन्हें बस इतना चाहिए कि परमेश्वर उन्हें एक सटीक स्पष्टीकरण दे। अगर वे आशीष प्राप्त नहीं कर सकते तो वे छोड़कर चले जाएँगे। एक ओर, अगर उन्हें अपने कर्तव्य के दौरान किसी महत्वपूर्ण पद पर नहीं रखा जा सकता तो उन्हें लगता है कि उनकी संभावनाएँ अनिश्चित, धुंधली और आशाहीन हैं। दूसरी ओर, अगर अपने कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया में, चीजें कभी वैसी नहीं होतीं जैसी वे आशा करते हैं—अगर वे व्यक्तिगत तौर पर परमेश्वर को अपना महान कार्य पूरा होने के दिन अपनी महिमा के साथ उतरते हुए नहीं देखते हैं, या अगर परमेश्वर उन्हें स्पष्ट भाषा में नहीं बताता है कि वह किस वर्ष, किस महीने, किस दिन, किस घंटे और मिनट में मानवजाति के सामने खुले तौर पर प्रकट होगा, कब परमेश्वर का कार्य समाप्त हो जाएगा और कब महा विनाश आएँगे, अगर वह उन्हें ये बातें स्पष्ट भाषा में नहीं बताता है तो उनके दिल बेचैन हो जाएँगे। वे अपने उचित स्थान पर रहकर अपने कर्तव्य पूरे करने में सक्षम नहीं हैं और वे इस स्थिति से संतुष्ट नहीं हो सकते। वे बस एक परिणाम चाहते हैं, वे चाहते हैं कि परमेश्वर उन्हें स्पष्ट भाषा में वक्तव्य देकर बताए और उन्हें सटीक रूप से यह जानने में सक्षम बनाए कि वे जो भी चीजें चाहते हैं वे सभी उन्हें प्राप्त हो सकती हैं या नहीं। अगर वे इस वक्तव्य के लिए बहुत लंबे समय से व्यर्थ ही प्रतीक्षा कर रहे हैं तो वे अपने मन में एक और हिसाब लगाएँगे। कौन-सा हिसाब? वे हिसाब लगाएँगे कि कौन उन्हें खुशी दे सकता है, कौन उन्हें वे चीजें दे सकता है जो वे चाहते हैं और अगर वे आने वाली दुनिया में उन चीजों को नहीं पा सकते हैं तो उन्हें इस जीवन में ही वह सब कुछ मिलना चाहिए जो वे चाहते हैं। अगर यह दुनिया और मानवजाति उन्हें इस जीवन में आशीष, आराम, देह-सुख, प्रतिष्ठा और रुतबा दे सकती है तो वे किसी भी समय, किसी भी परिस्थिति में परमेश्वर को त्याग देंगे और अपना अच्छा जीवन जिएँगे। ये मसीह-विरोधियों के हिसाब हैं। सांसारिक सुख और संभावनाओं के पीछे भागने के लिए वे परमेश्वर के घर में किसी भी समय, किसी भी परिस्थिति में, अपने कर्तव्य त्याग सकते हैं और अपना मौजूदा काम छोड़ सकते हैं। कुछ लोग सांसारिक लाभ और संभावनाएँ प्राप्त करने के लिए भाई-बहनों से विश्वासघात भी कर सकते हैं, परमेश्वर के घर के हितों का सौदा कर सकते हैं और परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं। इसलिए, चाहे मसीह-विरोधी अपने कर्तव्य निर्वहन में कितने भी उत्कृष्ट क्यों न दिखें, चाहे वे कितने ही प्रतिस्पर्धी क्यों न हों, वे सभी अपने कर्तव्यों को छोड़ सकते हैं, किसी भी समय, किसी भी परिस्थिति में परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं और परमेश्वर के घर को छोड़ सकते हैं। वे किसी भी समय, किसी भी परिस्थिति में, यहूदा बनकर परमेश्वर के घर का सौदा कर सकते हैं। अगर मसीह-विरोधी अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं तो वे निश्चित रूप से इसे सौदेबाजी के साधन के तौर पर इस्तेमाल करेंगे। वे निश्चित रूप से थोड़े ही समय में आशीष प्राप्त करने की अपनी इच्छा पूरी करने का प्रयास करेंगे—कम से कम पहले रुतबे के लाभों की अपनी इच्छा को पूरा करने और दूसरों की प्रशंसा प्राप्त करने की कोशिश करेंगे और फिर स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने और अपना इनाम पाने का प्रयास करेंगे। अपने कर्तव्य निर्वहन के लिए उनकी समय सीमा तीन साल हो सकती है, या यह पाँच साल और यहाँ तक कि दस या बीस साल भी हो सकती है। यही वह समय है जो वे परमेश्वर को देते हैं और यह सबसे लंबा समय है जो वे अपने कर्तव्य निर्वहन के लिए खुद को देते हैं। जब यह समय सीमा समाप्त हो जाती है तो उनका धीरज भी अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाता है। हालाँकि वे आशीष, एक सुंदर मंजिल, एक मुकुट और इनाम पाने की अपनी इच्छा के लिए थोड़ी रियायतें दे सकते हैं, कठिनाई झेल सकते हैं और परमेश्वर के घर में कीमत चुका सकते हैं, लेकिन समय बीतने के बावजूद वे कभी भी अपनी संभावनाओं और सौभाग्य, या अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं को भूल या छोड़ नहीं पाएँगे और समय बीतने के साथ ये चीजें न तो बदलेंगी या न ही कमजोर होंगी। इसलिए, मसीह-विरोधियों के इस सार को देखा जाए तो वे पूरी तरह से छद्म-विश्वासी और अवसरवादी हैं, जो सकारात्मक चीजों को नापसंद करते हैं और केवल नकारात्मक चीजों से प्यार करते हैं; वे नीच लोगों का एक समूह हैं जो परमेश्वर के घर में घुसपैठ करने के लिए रास्ता बनाना चाहते हैं, ये लोग बेशर्म हैं।
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