मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते और वे व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ विश्वासघात तक कर देते हैं (भाग सात) खंड एक

II. मसीह-विरोधियों के हित

घ. उनकी संभावनाएँ और नियति

पिछली बार, हमने मसीह-विरोधियों के हितों की चौथी मद : उनकी संभावनाएँ और नियति पर संगति की थी, जिसे आगे पाँच अतिरिक्त मदों में बाँटा गया है। पहले, इन पाँच मदों की समीक्षा करो। (1. मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों को कैसे लेते हैं; 2. मसीह-विरोधी अपने कर्तव्य को कैसे लेते हैं; 3. मसीह-विरोधी काट-छाँट किए जाने से कैसे पेश आते हैं; 4. मसीह-विरोधी “सेवाकर्ता” की उपाधि से कैसे पेश आते हैं; 5. मसीह-विरोधी कलीसिया में अपने रुतबे को कैसे लेते हैं।) पिछली बार हमने इनमें से पहली मद, “मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों को कैसे लेते हैं” पर संगति की थी। सबसे पहले, परमेश्वर के वचनों के प्रति मसीह-विरोधियों के व्यवहार में हमने उनके कुछ प्राथमिक रवैयों में से एक को उजागर करने के लिए “अध्ययन” शब्द का इस्तेमाल किया था। परमेश्वर के वचनों के प्रति अपने व्यवहार में मसीह-विरोधियों का प्राथमिक और मौलिक रवैया “अध्ययन करना” होता है। वे परमेश्वर के वचनों को स्वीकार करने या समर्पण करने के रवैये से बिल्कुल नहीं लेते, बल्कि वे उनकी पड़ताल करते हैं। वे परमेश्वर के वचनों को सत्य के रूप में बिल्कुल भी नहीं स्वीकारते या उन्हें सत्य नहीं मानते या ऐसा मार्ग नहीं मानते जिस पर लोगों को दृढ़ता से चलना चाहिए, और वे परमेश्वर के वचनों को सत्य खोजने या सत्य स्वीकारने के रवैये से नहीं लेते। इसके बजाय, हर चीज में उनकी अपनी इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ, उनकी अपनी संभावनाएँ और नियति ही उनका उद्देश्य होती हैं और वे परमेश्वर के वचनों में वे मंजिलें, संभावनाएँ और नियति ढूँढ़ते हैं जिन्हें वे पाना चाहते हैं। परमेश्वर के वचनों के प्रति उनके व्यवहार में एक प्राथमिक रवैया यह है कि वे हर मामले में परमेश्वर के वचनों को अपनी संभावनाओं और नियति से जोड़ते हैं। परमेश्वर के वचनों के प्रति उनके व्यवहार के रवैये से देखें तो ऐसे लोगों का प्रकृति सार यह होता है कि वे परमेश्वर के वचनों पर वास्तव में विश्वास नहीं करते, उन्हें स्वीकार नहीं करते या उनके प्रति समर्पण नहीं करते, बल्कि उनकी पड़ताल और विश्लेषण करते हैं, उनमें आशीष और लाभ खोजते हैं ताकि बड़ा लाभ पा सकें। परमेश्वर के वचनों के प्रति उनके व्यवहार के रवैये से देखें तो वे परमेश्वर पर कितना विश्वास करते हैं? क्या उन्हें परमेश्वर में सच्ची आस्था है? उनके सार को देखा जाए तो उन्हें परमेश्वर में सच्ची आस्था नहीं है। तो फिर वे अभी भी परमेश्वर के वचनों पर दृढ़ होकर उन्हें कैसे पढ़ सकते हैं? उनके प्रकृति सार, इरादों और उनकी इच्छाओं को देखें तो वे परमेश्वर के वचनों से सत्य और अपने स्वभाव को बदलने का मार्ग नहीं पाना चाहते, जिससे उनका उद्धार हो सके। इसके बजाय, वे परमेश्वर के वचनों के अंदर वे सभी चीजें खोजना चाहते हैं जो वे उनमें देखना चाहते हैं। वे क्या खोजते हैं? वे रहस्य खोजते हैं, ऐसे गुप्त रहस्य खोजते हैं जो केवल स्वर्ग को पता है और वे कुछ ऊँचे धर्म-सिद्धांत और गहरा ज्ञान भी खोजते हैं। इसलिए, परमेश्वर के वचनों के प्रति ऐसे व्यक्ति के व्यवहार और उसके प्रकृति सार को देखें तो वे सभी पूरी तरह से छद्म-विश्वासी हैं। वे एक अच्छी मंजिल, अच्छी संभावनाएँ और एक अच्छी नियति से अधिक और कुछ नहीं चाहते। वे परमेश्वर के वचनों को ईमानदारी से स्वीकार नहीं करते, बल्कि उसके वचनों के अंदर विभिन्न अवसर और रास्ते खोजने की कोशिश करते हैं जिनके जरिये वे अपनी मनचाही चीजें पा सकें और आशीष पाने की अपनी इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं को पूरा कर सकें। इसलिए, इस तरह का व्यक्ति कभी भी परमेश्वर के वचनों को सत्य या उस मार्ग के रूप में नहीं मानेगा जिसका उसे पालन करना चाहिए। अगर मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों के प्रति इस तरह का रवैया रखते हैं, तो परमेश्वर के वचनों में मानवजाति से सबसे बुनियादी अपेक्षाओं में से एक—सृजित प्राणियों के रूप में अपना कर्तव्य निभाने—के प्रति उनका रवैया क्या है? आज हम दूसरी मद—मसीह-विरोधी अपने कर्तव्य को कैसे लेते हैं—पर संगति करेंगे और यह उजागर करेंगे कि अपना कर्तव्य करते हुए मसीह-विरोधी किस तरह की अभिव्यक्तियाँ और रवैया रखते हैं।

2. मसीह-विरोधी अपने कर्तव्य को कैसे लेते हैं

मसीह-विरोधी लोग परमेश्वर के वचनों को स्वीकारने और समर्पण करने के रवैये से नहीं लेते हैं, तो जाहिर है कि वे परमेश्वर के वचनों में निहित इस अपेक्षा को सत्य स्वीकारने के रवैये से नहीं ले सकते कि मानवजाति सृजित प्राणियों के रूप में अपना कर्तव्य निभाए। इसलिए, एक ओर तो वे परमेश्वर द्वारा मनुष्य को सौंपे गए कर्तव्य को लेकर प्रतिरोधी होते हैं और अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहते, वहीं दूसरी ओर वे आशीष पाने का अवसर खोने से डरते हैं। इससे एक तरह का लेन-देन उत्पन्न हो जाता है। वह कौन-सा लेन-देन है? उन्हें परमेश्वर के वचनों से पता चलता है कि अगर लोग अपने कर्तव्य नहीं निभाते हैं तो उन्हें हटाया जा सकता है, अगर वे सृजित प्राणियों के रूप में अपने कर्तव्य नहीं निभाते हैं तो उनके पास सत्य पाने का कोई अवसर नहीं होगा, और अगर वे सृजित प्राणियों के रूप में अपना कर्तव्य नहीं निभाते हैं तो भविष्य में स्वर्ग के राज्य में वे अपने आशीष गँवा सकते हैं। इसका क्या मतलब है? यही कि अगर कोई व्यक्ति अपना कर्तव्य नहीं निभाता है तो वह अनिवार्य रूप से आशीष पाने का अपना अवसर खो देगा। परमेश्वर के वचनों और कई संगतियों और धर्मोपदेशों से यह जानकारी पाने के बाद, मसीह-विरोधियों के दिलों की गहराई में सृजित प्राणियों के रूप में अपना कर्तव्य निभाने की इच्छा और रुचि जाग उठती है। क्या ऐसी इच्छा और रुचि उत्पन्न होने का मतलब यह है कि वे ईमानदारी से खुद को परमेश्वर के लिए खपा सकते हैं और ईमानदारी से अपना कर्तव्य निभा सकते हैं? मसीह-विरोधियों के प्रकृति सार को देखें तो इस मुकाम पर पहुँचना बहुत मुश्किल है। तो फिर वे अपना कर्तव्य क्यों निभाते हैं? हर व्यक्ति के दिल में इसका लेखा-जोखा होना चाहिए और इस लेखे-जोखे के अंदर कुछ विशेष कहानियाँ होनी चाहिए। तो, एक मसीह-विरोधी के दिल का यह रिकॉर्ड कैसा दिखता है? वे बहुत बढ़िया, स्पष्ट, सटीक और लगन से हिसाब लगाते हैं, इसलिए यह कोई भ्रमित लेखा-जोखा नहीं है। जब वे अपना कर्तव्य निभाने का फैसला करते हैं, तो पहले हिसाब लगाते हैं : “अगर मैं अभी अपना कर्तव्य निभाने जाऊँ तो मुझे परिवार के साथ रहने के सुख को त्यागना होगा और मुझे अपना करियर और अपनी सांसारिक संभावनाओं को छोड़ना होगा। अगर मैं अपना कर्तव्य निभाने के लिए इन चीजों को छोड़ दूँ तो मुझे क्या लाभ हो सकता है? परमेश्वर के वचन कहते हैं कि इस अंतिम युग में, जो लोग परमेश्वर से मिल सकते हैं, जो परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभा सकते हैं और जो अंत तक टिके रह सकते हैं, वे ही महान आशीष प्राप्त कर सकते हैं। अब जबकि परमेश्वर के वचन ऐसा कहते हैं तो मुझे लगता है कि परमेश्वर ऐसा कर सकता है और इन वचनों के अनुसार इसे पूरा कर सकता है। इसके अलावा, जो लोग परमेश्वर के लिए अपना कर्तव्य निभा सकते हैं और खुद को खपा सकते हैं, परमेश्वर इन लोगों से बहुत सारे वादे करता है!” मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों का अध्ययन करके, परमेश्वर द्वारा अपना कर्तव्य करने वाले लोगों से अंतिम युग में किए गए कई वादों का अर्थ निकालते हैं, यह और इसके साथ उनकी व्यक्तिगत कल्पनाएँ और इन वचनों के उनके अपने विश्लेषण और जाँच-पड़ताल से उपजी सभी धारणाएँ उनमें अपना कर्तव्य करने के प्रति गहरी रुचि और आवेग पैदा करती हैं। फिर वे परमेश्वर के समक्ष प्रार्थना करने जाते हैं, जहाँ वे गंभीर प्रतिज्ञाएँ करते हैं और शपथ लेते हैं, परमेश्वर के लिए सभी चीजों का त्याग करने और खुद को खपाने, इस जीवन को उसके लिए समर्पित करने और सभी दैहिक सुखों और संभावनाओं को त्यागने का संकल्प स्थापित करते हैं। भले ही वे इस तरह से प्रार्थना करते हैं और उनके सभी शब्द सही लगते हैं, मगर वे अपने अंतरतम में जो सोचते हैं वह केवल उन्हें और परमेश्वर को ही पता है। उनकी प्रार्थनाएँ और उनका संकल्प शुद्ध प्रतीत होता है, मानो वे केवल परमेश्वर के आदेश को पूरा करने, अपना कर्तव्य निभाने और परमेश्वर के इरादे पूरे करने के लिए ऐसा कर रहे हों, मगर अपने दिलों की गहराई में वे यही हिसाब लगाते हैं कि अपना कर्तव्य निभाकर आशीष और वाँछित चीजें कैसे पा सकते हैं और वे ऐसा क्या कर सकते हैं जिससे कि परमेश्वर को वह सब दिखाई दे जो उन्होंने चुकाया है, साथ ही जो कुछ उन्होंने चुकाया है और जो भी किया है उससे परमेश्वर बेहद प्रभावित हो, ताकि वह उनके द्वारा किए गए कामों को याद रखे और आखिरकार उन्हें वे संभावनाएँ और आशीष दे जो वे चाहते हैं। अपना कर्तव्य निभाने का फैसला लेने से पहले, अपने दिलों की गहराई में, मसीह-विरोधी अपनी संभावनाओं की उम्मीदों, आशीष पाने, अच्छी मंजिल पाने और यहाँ तक कि मुकुट पाने की उम्मीदों से भरे होते हैं और उन्हें इन चीजों को पाने का पूरा विश्वास होता है। वे ऐसे इरादों और आकांक्षाओं के साथ अपना कर्तव्य निभाने के लिए परमेश्वर के घर आते हैं। तो, क्या उनके कर्तव्य निर्वहन में वह ईमानदारी, सच्ची आस्था और निष्ठा है जिसकी परमेश्वर अपेक्षा करता है? इस मुकाम पर, अभी कोई भी उनकी सच्ची निष्ठा, आस्था या ईमानदारी को नहीं देख सकता, क्योंकि हर कोई अपना कर्तव्य करने से पहले पूरी तरह से लेन-देन की मानसिकता रखता है; हर कोई अपना कर्तव्य निभाने का फैसला अपने हितों से प्रेरित होकर और अपनी अतिशय महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं की पूर्ति की पूर्व-शर्त पर करता है। अपना कर्तव्य निभाने के पीछे मसीह-विरोधियों का इरादा क्या है? यह सौदा और लेन-देन करने का इरादा है। यह कहा जा सकता है कि यही वे शर्तें हैं जो वे कर्तव्य करने के लिए निर्धारित करते हैं : “अगर मैं अपना कर्तव्य करता हूँ, तो मुझे आशीष मिलने चाहिए और एक अच्छी मंजिल मिलनी चाहिए। मुझे वे सभी आशीष और लाभ मिलने चाहिए जो परमेश्वर ने कहा है कि वे मानवजाति के लिए बनाए गए हैं। अगर मैं उन्हें नहीं पा सकता तो मैं यह कर्तव्य नहीं करूँगा।” वे ऐसे इरादों, महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं के साथ अपना कर्तव्य निभाने के लिए परमेश्वर के घर आते हैं। ऐसा लगता है कि उनमें थोड़ी ईमानदारी है और बेशक जो नए विश्वासी हैं और अभी अपना कर्तव्य निभाना शुरू कर रहे हैं, उनके लिए इसे उत्साह भी कहा जा सकता है। मगर इसमें कोई सच्ची आस्था या निष्ठा नहीं है; केवल उस स्तर का उत्साह है। इसे ईमानदारी नहीं कहा जा सकता। अपना कर्तव्य निभाने के प्रति मसीह-विरोधियों के इस रवैये को देखें तो यह पूरी तरह से लेन-देन वाला है और आशीष पाने, स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने, मुकुट पाने और इनाम पाने जैसे लाभों की उनकी इच्छाओं से भरा हुआ है। इसलिए, बाहर से ऐसा लगता है कि निष्कासित किए जाने से पहले कई मसीह-विरोधी अपना कर्तव्य निभा रहे हैं और उन्होंने एक औसत व्यक्ति की तुलना में अधिक त्याग किया है और अधिक कष्ट झेला है। वे जो खुद को खपाते हैं और जो कीमत चुकाते हैं वह पौलुस के बराबर है और वे पौलुस जितनी ही भागदौड़ भी करते हैं। यह ऐसी चीज है जिसे हर कोई देख सकता है। उनके व्यवहार और कष्ट सहने के उनके संकल्प के संदर्भ में, उन्हें कुछ न कुछ तो मिलना ही चाहिए। लेकिन परमेश्वर किसी व्यक्ति को उसके बाहरी व्यवहार के आधार पर नहीं, बल्कि उसके सार, उसके स्वभाव, उसके खुलासे और उसके द्वारा की जाने वाली हर एक चीज की प्रकृति और सार के आधार पर देखता है। जब लोग दूसरों का मूल्यांकन करते हैं और उनके साथ पेश आते हैं तो वे कौन हैं इसका निर्धारण केवल उनके बाहरी व्यवहार के आधार पर, वे कितना कष्ट सहते हैं और वे क्या कीमत चुकाते हैं, इन बातों के आधार पर ही करते हैं और यह बहुत बड़ी गलती है।

अपने कर्तव्य से पेश आने के प्रति मसीह-विरोधियों का रवैया शुरू से ऐसा ही रहा है। वे महत्वाकांक्षाओं, इच्छाओं और लेन-देन करने की मानसिकता के साथ अपना कर्तव्य निभाने परमेश्वर के घर आते हैं। अपना कर्तव्य निभाने से पहले वे अपने दिलों की गहराई में यही हिसाब लगाते हैं और यही योजना बनाते हैं। उनकी योजना क्या है? उनके हिसाब-किताब का मूल और केंद्र बिंदु क्या है? वे आशीष पाना चाहते हैं, अच्छी मंजिल पाना चाहते हैं और कुछ लोग तो आपदाओं से बचना भी चाहते हैं। यही उनका इरादा है। वे बार-बार परमेश्वर के वचनों की पड़ताल करते हैं, मगर इतनी कोशिशों के बाद भी यह नहीं देख पाते कि परमेश्वर के वचन पूरे सत्य हैं, परमेश्वर के वचनों में अभ्यास का मार्ग है और परमेश्वर के वचनों के जरिये लोग शुद्ध हो सकते हैं, स्वभाव में बदलाव ला सकते हैं और उद्धार पा सकते हैं। वे चाहे कितनी भी कोशिश करें इन चीजों को नहीं देख सकते। चाहे वे परमेश्वर के वचनों को कैसे भी पढ़ें, वे जिस चीज की सबसे ज्यादा परवाह करते हैं और जिसे सबसे ज्यादा महत्व देते हैं, वह उन आशीषों और वादों के अलावा कुछ नहीं है जो परमेश्वर ऐसे लोगों को उपहार में देता है जो त्याग करते हैं, खुद को खपाते हैं, कठिनाई सहते हैं और उसके लिए कीमत चुकाते हैं। जब उन्हें परमेश्वर के वचनों में कुछ ऐसा मिलता है जो उनके अनुसार सबसे आवश्यक और सबसे महत्वपूर्ण है तो ऐसा लगता है जैसे उन्हें जीवन रेखा मिल गई हो। उन्हें लगता है कि उन्हें महान आशीष मिलेंगे और वे सोचते हैं कि वे इस युग में सबसे धन्य और भाग्यशाली लोग हैं। इसलिए, वे अपने दिलों में गहराई से आनंदित होते हैं : “मैंने इस जीवन में अच्छा समय देखा है; युगों-युगों में उन प्रेरितों और नबियों में से कोई भी अंत के दिनों के मसीह से नहीं मिला है। आज मैं अंत के दिनों के मसीह का अनुसरण कर रहा हूँ, इसलिए मैं महान आशीष पाने के इस अवसर को नहीं गँवा सकता। इनाम और मुकुट पाने का यही मौका है! अविश्वासियों को यह सौभाग्य नहीं मिलेगा, चाहे वे इस जीवन का कितने भी अच्छे से आनंद लें या उनका रुतबा कितना भी ऊँचा हो, महा विनाश आने पर वे सभी नष्ट हो जाएँगे। इसलिए, मुझे संसार के दैहिक सुखों को त्यागना होगा, क्योंकि मैं इन चीजों का कितना भी आनंद लूँ, वे अस्थायी और क्षणभंगुर हैं। मैं भविष्य की ओर देखूँगा और अधिक महान आशीष और महान इनाम और बड़ा मुकुट हासिल करूँगा!” और इसलिए, अपने दिलों में वे खुद को चेतावनी देते हैं : “अपना कर्तव्य निभाते हुए, चाहे मुझे कितना भी कष्ट उठाना पड़े या मुझे कितनी भी भाग-दौड़ करनी पड़े, चाहे मुझे जेल हो जाए या यातना दी जाए, चाहे मुझे कितनी भी कठिनाइयों का सामना करना पड़े, मुझे हर हाल में अधिक से अधिक दृढ़ रहना होगा! मैं हताश नहीं हो सकता, मुझे सभी तरह का अपमान सहना होगा और भारी बोझ उठाना होगा और अंतिम पल तक डटे रहना होगा। मेरा मानना है कि परमेश्वर ने जो कहा है, ‘वह जो अंत तक अनुसरण करता है, उसे निश्चित ही बचाया जाएगा,’ मेरे लिए सच होकर रहेगा।” क्या उनका कोई भी विचार और राय जिनके बारे में वे सोचते हैं और अपने दिल में मानते हैं, सत्य के अनुरूप है? (नहीं।) उनमें से कोई भी सत्य के अनुरूप नहीं है, और उनमें से कोई भी परमेश्वर के वचनों या परमेश्वर के इरादों के अनुरूप नहीं है—वे सभी उनकी व्यक्तिगत संभावनाओं और नियति के लिए गणनाएँ और योजनाएँ हैं। अपने दिलों की गहराई में, उन्हें परमेश्वर के वचनों में मानवजाति के लिए बताई गई किसी भी अपेक्षा में कोई रुचि नहीं होती; वे उन पर कोई ध्यान नहीं देते। अपने दिलों की गहराई में, वे परमेश्वर के वचनों में मानवता और उनसे की गई अपेक्षाओं के उजागर होने से घृणा करते हैं और इसके प्रति प्रतिरोधी हो जाते हैं, यहाँ तक कि धारणाएँ भी विकसित कर लेते हैं, इसलिए जब वे इन वचनों को देखते हैं तो वे उनके प्रति प्रतिरोधी और असहज महसूस करते हैं, फिर वे बिना पढ़े ही उन्हें छोड़ देते हैं। जब परमेश्वर के वचनों में मानवता के लिए प्रोत्साहनों, सांत्वना, चेतावनियों, दया और सहानुभूति की बात आती है, तो वे अधीरता दिखाते हैं और इन वचनों को झूठा मानकर इन्हें स्वीकारने या सुनने के लिए तैयार नहीं होते। अपने दिलों में, वे परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के वचनों और लोगों के बीच उसके परीक्षण के कार्य से पीछे हट जाते हैं और उनके प्रति प्रतिरोधी महसूस करते हैं, उन्हें स्वीकारने के लिए तैयार नहीं होते हैं और उनसे बचते फिरते हैं। इसके बजाय, वे केवल मानवता के लिए परमेश्वर के वादों या आशीषों से जुड़े वचनों में बहुत रुचि लेते हैं और आशीष पाने की अपने दिल की बेसब्र इच्छा को संतुष्ट करने के लिए अक्सर उन्हें पढ़ते हैं, वे तुरंत स्वर्ग के राज्य में उठा लिए जाने और सभी कष्टों से मुक्त होने के लिए उत्सुक रहते हैं। जब वे अपना कर्तव्य करने में और ज्यादा डटे नहीं रह पाते, और उन्हें इस बात पर संदेह होने लगता है कि वे आशीष पा सकते हैं या नहीं और उनकी “आस्था” डगमगा जाती है या जब उनकी इच्छाशक्ति दृढ़ नहीं होती और वे पीछे हटना चाहते हैं तो वे इन वचनों को पढ़ते हैं और उन्हें अपना कर्तव्य निभाने की प्रेरणा बना लेते हैं। वे परमेश्वर के वचनों के किसी भी अध्याय या अंश में कभी भी सत्य पर चिंतन-मनन करने की कोशिश नहीं करते, न ही वे परमेश्वर के वचनों के न्याय का जरा भी अनुभव करना चाहते हैं, खुद को जानने और परमेश्वर के उन वचनों के जरिये मानवजाति की गहरी भ्रष्टता की वास्तविकता को स्पष्ट रूप से देखने की बात तो दूर है, जो मानवजाति के भ्रष्ट सार को उजागर करते हैं। वे मानवजाति के लिए परमेश्वर के इरादों, अपेक्षाओं और उपदेशों को भी अनसुना कर देते हैं, उन पर कोई ध्यान नहीं देते और उनके प्रति अनादर और उदासीनता का रवैया रखते हैं। अपने दिलों की गहराई में, वे मानते हैं, “परमेश्वर जो कहता और करता है वह सिर्फ एक औपचारिकता है; इसे कौन स्वीकार सकता है? इसे कौन समझ सकता है? कौन वास्तव में परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास कर सकता है? परमेश्वर के ये सभी वचन निरर्थक हैं। लोगों के लिए सबसे यथार्थवादी है अपना कर्तव्य निभाने के बदले आशीष पाना—इससे ज्यादा यथार्थवादी कुछ भी नहीं है।” इसलिए, वे बार-बार परमेश्वर के वचनों में यह मार्ग ढूँढ़ते हैं और जैसे ही उन्हें यह मार्ग मिल जाता है तो वे अपना कर्तव्य निभाने को आशीष पाने का एकमात्र मार्ग मानते हैं। अपना कर्तव्य निभाते हुए मसीह-विरोधियों के इरादे, मकसद और उनके अंतरतम की गणनाएँ यही होती हैं। तो अपना कर्तव्य निभाने के दौरान वे ऐसी कौन-सी अभिव्यक्तियाँ और प्रकटन दिखाते हैं जिससे लोग यह देख पाते हैं कि ऐसे लोगों का सार पूरी तरह से मसीह-विरोधी है? यह कोई संयोग नहीं है कि मसीह-विरोधी अपना कर्तव्य निभाने में सक्षम हैं—वे निश्चित रूप से अपने इरादों और मकसद के साथ और आशीष पाने की इच्छा के साथ अपना कर्तव्य निभाते हैं। वे जो भी कर्तव्य करते हैं, उनका मकसद और रवैया बेशक आशीष पाने, अच्छी मंजिल पाने और अच्छी संभावनाएँ और नियति से जुड़ा होता है जिसके बारे में वे दिन-रात सोचते हैं और चिंतित रहते हैं। वे उन कारोबारियों की तरह हैं जो अपने काम के अलावा किसी और चीज के बारे में बात नहीं करते। मसीह-विरोधी जो कुछ भी करते हैं वह सब शोहरत, लाभ और रुतबे से जुड़ा होता है—यह सब आशीष पाने और संभावनाओं और नियति से जुड़ा होता है। उनके दिल अंदर तक ऐसी चीजों से भरे हुए हैं; यही मसीह-विरोधियों का प्रकृति सार है। ठीक इसी तरह के प्रकृति सार के कारण दूसरे लोग स्पष्ट रूप से यह देख पाते हैं कि उनका अंतिम परिणाम हटा दिया जाना ही है।

परमेश्वर के वचनों में, सभी किस्म के लोगों के लिए परमेश्वर की अपेक्षाएँ हैं और सभी प्रकार के कर्तव्यों और कार्यों को लेकर अपेक्षाएँ और स्पष्ट कथन हैं। ये सभी वचन मानवजाति से परमेश्वर की अपेक्षाएँ हैं, ये वे अपेक्षाएँ हैं जिनका लोगों को पालन करना चाहिए, जिनका उन्हें अभ्यास करना चाहिए और जिन्हें उन्हें हासिल करना चाहिए। परमेश्वर के वचनों और परमेश्वर की अपेक्षाओं के प्रति मसीह-विरोधियों का क्या रवैया होता है? क्या वे समर्पण का रवैया अपनाते हैं? क्या वे विनम्रता से स्वीकारने का रवैया अपनाते हैं? वे ऐसा बिल्कुल भी नहीं करते। उनके स्वभाव को देखा जाए तो जब मसीह-विरोधी अपना कर्तव्य करने के लिए परमेश्वर के घर आते हैं तो क्या वे परमेश्वर की अपेक्षाओं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं के अनुसार इसे अच्छी तरह से कर सकते हैं? (नहीं, वे ऐसा नहीं कर सकते।) वे बिल्कुल भी ऐसा नहीं कर सकते। जब मसीह-विरोधी अपना कर्तव्य कर रहे होते हैं, तो उनका पहला विचार उन सिद्धांतों की तलाश करना नहीं होता जो कर्तव्य करने के लिए आवश्यक होते हैं, उनका पहला विचार यह नहीं होता है कि परमेश्वर की अपेक्षाएँ क्या हैं, या परमेश्वर के घर के नियम क्या हैं। इसके बजाय, पहले वे यह पूछते हैं कि इस कर्तव्य को करने से उन्हें आशीष या इनाम मिलेगा या नहीं। अगर यह निश्चित नहीं है कि उन्हें आशीष या इनाम मिलेगा या नहीं तो वे यह कर्तव्य नहीं करना चाहते; और अगर करते भी हैं तो वे अनमने ढंग से करेंगे। मसीह-विरोधी आशीष पाने के लिए अपना कर्तव्य अनिच्छा से करते हैं। वे यह भी पूछते हैं कि क्या वे कर्तव्य करके खुद को प्रदर्शित करने और सम्मान पाने में सक्षम होंगे, अगर वे इस कर्तव्य को करते हैं तो क्या ऊपरवाले या परमेश्वर को इसका पता चलेगा। कर्तव्य करते समय वे इन्हीं सब चीजों पर विचार करते हैं। पहली चीज जो वे निश्चित कर लेना चाहते हैं, यह होती है कि कर्तव्य करने से उन्हें क्या-क्या लाभ मिल सकते हैं और क्या उन्हें आशीष मिल सकते हैं। यह उनके लिए सबसे महत्वपूर्ण चीज है। वे इस बारे में कभी नहीं सोचते कि कैसे परमेश्वर के इरादों का ध्यान रखा जाए और कैसे परमेश्वर के प्रेम को चुकाया जाए, सुसमाचार का प्रचार कर परमेश्वर की गवाही कैसे दी जाए ताकि लोग परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करें और उन्हें खुशी मिले; वे कभी सत्य समझने या अपने भ्रष्ट स्वभाव सुलझाने का तरीका जानने और मानव के समान जीने की कोशिश तो बिल्कुल नहीं करते। वे इन चीजों पर कभी विचार नहीं करते। वे केवल इस बारे में सोचते हैं कि उन्हें आशीष और लाभ मिल सकते हैं या नहीं, अपने पैर कैसे जमाएँ, रुतबा कैसे हासिल करें, कैसे लोगों से आदर पाया जाए और कैसे कलीसिया में और भीड़ में सबसे अलग दिखा और सर्वश्रेष्ठ बना जाए। वे साधारण अनुयायी बनने के इच्छुक बिल्कुल भी नहीं होते। वे कलीसिया में हमेशा अग्रणी होना चाहते हैं, अपनी चलाना चाहते हैं, अगुआ बनना चाहते हैं, चाहते हैं कि सभी उनकी बात सुनें। तभी वे संतुष्ट हो सकते हैं। तुम लोग देख सकते हो कि मसीह-विरोधियों के दिल इन्हीं बातों से भरे होते हैं। क्या वे वास्तव में परमेश्वर के लिए खपते हैं? क्या वे वास्तव में सृजित प्राणियों के रूप में अपना कर्तव्य करते हैं? (नहीं।) तो फिर वे क्या करना चाहते हैं? (सत्ता पाना चाहते हैं।) सही कहा। वे कहते हैं, “जहाँ तक मेरी बात है, लौकिक दुनिया में मैं बाकी सभी से आगे निकलना चाहता हूँ। मुझे हर समूह में प्रथम होना है। मैं दूसरे स्थान पर रहने से इनकार करता हूँ, मैं कभी भी पिछलग्गू नहीं बनूँगा। मैं अगुआ बनना चाहता हूँ और लोगों के जिस भी समूह में मैं रहूँ, उसमें अपनी चलाना चाहता हूँ। अगर आखिरी फैसला मेरा नहीं होगा तो मैं तुम लोगों को मनाने का हर संभव तरीका आजमाऊँगा और पूरी कोशिश करूँगा कि तुम सब मेरा आदर करो और मुझे अगुआ चुनो। जब मेरे पास रुतबा होगा तो मेरा निर्णय अंतिम होगा, सभी को मेरी बात सुननी होगी। तुम्हें मेरे तरीके से काम करना होगा और मेरे नियंत्रण में रहना होगा।” मसीह-विरोधी चाहे कोई भी कर्तव्य करें, वे खुद को ऊँचे स्थान पर यानी प्रमुखता के स्थान पर रखने की कोशिश करेंगे। वे एक साधारण अनुयायी के रूप में अपने स्थान से कभी संतुष्ट नहीं हो सकते। और उन्हें सबसे अधिक जुनून किस चीज का होता है? लोगों के सामने खड़े होकर उन्हें आदेश देने, उन्हें डाँटने, और लोगों से अपनी बात मनवाने का जुनून। वे इस बारे में सोचते तक नहीं कि अपना कर्तव्य ठीक तरह कैसे करें—इसे करते हुए सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए सत्य सिद्धांतों को खोजना तो दूर की बात है। इसके बजाय, वे विशिष्ट दिखने के तरीके खोजने के लिए दिमाग के घोड़े दौड़ाते हैं, ताकि अगुआ उनके बारे में अच्छा सोचें और उन्हें आगे बढ़ाएँ, ताकि वे खुद अगुआ या कार्यकर्ता बन सकें और दूसरे लोगों की अगुआई कर सकें। वे सारा दिन यही सोचते और इसी की उम्मीद करते रहते हैं। मसीह-विरोधी नहीं चाहते कि दूसरे उनकी अगुआई करें, न ही वे सामान्य अनुयायी बनना चाहते हैं, चुपचाप और बिना किसी तमाशे के अपने कर्तव्य करते रहना तो दूर की बात है। उनका कर्तव्य जो भी हो, यदि वे महत्वपूर्ण स्थान पर और आकर्षण का केंद्र नहीं हो सकते, यदि वे दूसरों से ऊपर नहीं हो सकते और दूसरे लोगों की अगुआई नहीं कर सकते तो उन्हें अपना कर्तव्य करना उबाऊ लगने लगता है, वे नकारात्मक हो जाते हैं और ढीले पड़ जाते हैं। दूसरों से प्रशंसा और आराधना पाए बिना उनके लिए अपना काम और भी कम दिलचस्प हो जाता है और उनमें अपना कर्तव्य करने की इच्छा और भी कम हो जाती है। लेकिन अगर अपना कर्तव्य करते हुए वे महत्वपूर्ण स्थान पर और आकर्षण का केंद्र हो सकते हों और अपनी बात मनवा सकते हों तो वे अपनी स्थिति को मजबूत महसूस करते हैं और कैसी भी कठिनाइयाँ झेल सकते हैं। अपने कर्तव्य निर्वहन में हमेशा उनके व्यक्तिगत इरादे होते हैं और वे हमेशा दूसरों को पराजित करने और अपनी इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं को संतुष्ट करने की अपनी जरूरत पूरी करने के एक साधन के रूप में खुद को दूसरों से अलग दिखाना चाहते हैं। अपने कर्तव्य करते हुए, अत्यधिक प्रतिस्पर्धी होने—हर मामले में होड़ करने, विशिष्ट दिखने, सबसे आगे रहने, दूसरों से ऊपर उठने—के साथ-साथ वे यह भी सोचते रहते हैं कि अपने मौजूदा रुतबे, नाम और प्रतिष्ठा को कैसे कायम रखें। अगर कोई ऐसा व्यक्ति है जो उनके रुतबे और प्रतिष्ठा के लिए खतरा है तो वे उसे नीचे गिराने और उससे छुटकारा पाने के लिए कुछ भी करने से बिल्कुल नहीं कतराते और इसमें कोई कोर कसर नहीं छोड़ते। वे सत्य का अनुसरण कर सकने वाले और अपना कर्तव्य वफादारी से और दायित्व की भावना से करने वाले लोगों को दबाने के लिए घृणित साधनों का इस्तेमाल करते हैं। वे उन भाई-बहनों के प्रति भी ईर्ष्या और घृणा से भरे होते हैं जो अपना कर्तव्य बहुत श्रेष्ठ ढंग से निभाते हैं। ऐसे लोगों से तो वे खासतौर से घृणा करते हैं जिनका दूसरे भाई-बहन अनुमोदन और समर्थन करते हैं; वे ऐसे लोगों को अपने प्रयासों, अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे के लिए गंभीर खतरा मानते हैं और वे दिल-ही-दिल में कसमें खाते हैं कि “या तो तुम रहोगे या मैं, मैं रहूँगा या तुम, हम दोनों के लिए यहाँ जगह नहीं है, अगर मैंने तुम्हें नीचे नहीं गिराया और तुम्हारा सफाया नहीं किया तो मुझे चैन नहीं पड़ेगा!” ऐसे भाई-बहन जो अलग राय व्यक्त करते हैं, जो उन्हें उजागर कर देते हैं, या उनके रुतबे के लिए खतरा बन जाते हैं, उनके प्रति वे पूरी तरह निर्मम हो जाते हैं : वे उनकी आलोचना और निंदा करने, उन्हें कलंकित करने और नीचे गिराने के लिए उनके खिलाफ फँसाने वाली जानकारी या साक्ष्य ढूँढ़ने के प्रयास में कुछ भी करने की सोचते रहते हैं और जब तक वे ऐसा नहीं कर देते उन्हें चैन नहीं पड़ता। किसी भी व्यक्ति के साथ पेश आते समय उनका एक ही रवैया होता है : अगर वह व्यक्ति उनके रुतबे के लिए खतरा है, तो वे उसे नीचे गिरा देंगे और उससे छुटकारा पा लेंगे। उनके सभी पक्के अनुयायी ऐसे लोग हैं जो उनकी चापलूसी करते हैं, ये लोग चाहे जो भी बुरे काम करें और कलीसिया के कार्य और परमेश्वर के घर के हितों को चाहे जितना भी नुकसान पहुँचाएँ, वे उन्हें छिपा लेंगे और उनकी रक्षा करेंगे। अपना कर्तव्य निभाते हुए, मसीह-विरोधी हमेशा अपनी शोहरत, लाभ और रुतबे का प्रबंधन करते रहते हैं और अपने स्वतंत्र राज्य का प्रबंधन करते रहते हैं। मसीह-विरोधियों के लिए अपना कर्तव्य निभाने का सार अपने स्वतंत्र राज्य के लिए और अपनी संभावनाओं और नियति के लिए लड़ना है।

कुछ मसीह-विरोधी एक छोटी-सी टीम में तकरीबन दर्जन भर लोगों की अगुआई करते हैं और कुछ तो पूरी कलीसिया के लोगों या उससे भी अधिक लोगों की अगुआई करते हैं। चाहे वे कितने भी लोगों की अगुआई करें, वे अपना कर्तव्य निभाते हुए पहले से ही उन पर काबू रख रहे होते हैं और वे एक राजा की तरह उन पर शासन करते हैं। उन्हें इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि परमेश्वर कैसे इन मामलों की निंदा और इनसे घृणा करता है, वे केवल अपनी शक्ति को बनाए रखने और अपने से नीचे के उन लोगों पर सख्त नियंत्रण रखने की परवाह करते हैं जिन्हें वे काबू में करने में सक्षम हैं। इसलिए, अपना कर्तव्य निभाने के पीछे मसीह-विरोधियों के इरादों और प्रेरणाओं को देखें तो उनका सार क्रूर और दुष्ट होता है। इसलिए अपने कर्तव्य निभाते समय उनके व्यवहार को देखें तो वे कैसा स्वभाव प्रकट करते हैं? उनका स्वभाव भी क्रूर है। इस क्रूर स्वभाव की क्या विशेषता है? जहाँ अपने कर्तव्य निभाते समय वे कठिनाइयाँ झेल सकते हैं और कीमत चुका सकते हैं, वहीं उनका एक भी कर्तव्य परमेश्वर के वचनों के अनुसार नहीं होता है। अपने कर्तव्य निभाने के दौरान, वे कार्य व्यवस्थाओं को बिल्कुल भी लागू नहीं करते, फिर हरेक काम के लिए परमेश्वर के घर द्वारा निर्धारित सिद्धांतों को खोजना तो दूर की बात है। वे केवल अपनी व्यक्तिगत पसंद और शक्ति पाने की इच्छा और साथ ही हमेशा कुछ करते रहने की व्यक्तिगत इच्छा को संतुष्ट करते हैं। ये सभी वे स्थितियाँ हैं जिनके लिए मसीह-विरोधी सोचते हैं कि उन्हें एक मुकुट मिल सकता है। वे मन में सोचते हैं : “अगर मैं इसी तरह से काम करता रहूँ, कीमत चुकाता रहूँ, खुद की इच्छाओं को त्यागता रहूँ और खुद को खपाता रहूँ तो परमेश्वर अंत में मुझे मुकुट और इनाम जरूर देगा!” वे कभी भी उन अपेक्षाओं और सिद्धांतों पर ध्यान नहीं देते या उन्हें गंभीरता से नहीं लेते जिन पर परमेश्वर के वचनों में जोर दिया गया है और जिन्हें बार-बार मानवजाति के सामने रखा गया है; वे उन्हें मात्र चंद कहावतें मानते हैं। उनकी मानसिकता यह है : “तुम्हारी जो भी अपेक्षाएँ हों, मैं अपनी शक्ति या अपने प्रयासों में ढिलाई नहीं कर सकता और न ही मैं अपनी इच्छाओं या महत्वाकांक्षाओं को छोड़ सकता हूँ। अगर मेरे पास ये चीजें न हों तो मेरे पास अपने कर्तव्य करने के लिए क्या प्रेरणा बचेगी?” ये कुछ अभिव्यक्तियाँ हैं जो मसीह-विरोधी अपने कर्तव्य निभाते समय प्रकट करते हैं। परमेश्वर के वचन चाहे जो भी कहें और विभिन्न कार्यों के लिए ऊपरवाले के पास जो भी आवश्यक मानक और सिद्धांत हों, मसीह-विरोधी न तो उन्हें सुनते हैं और न ही उन पर ध्यान देते हैं। ऊपरवाले के शब्द चाहे कितने भी विशिष्ट हों, काम के इस पहलू को लेकर अपेक्षाएँ चाहे कितनी भी सख्त क्यों न हों, वे न सुनने या न समझने का बहाना करते हैं और वे निचले स्तर पर अभी भी लापरवाही से और मनमाने ढंग से काम कर रहे होते हैं और अपने इरादों के अनुसार काम करते हुए निरंकुश व्यवहार कर रहे होते हैं। उनका मानना है कि अगर वे परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार और ऊपरवाले द्वारा अपेक्षित तरीकों से काम करते हैं तो वे अपना रुतबा खो देंगे, उनके पास जो शक्ति है वह किसी और के पास चली जाएगी और वह खत्म हो जाएगी। वे मानते हैं कि चीजों को सत्य के अनुसार और परमेश्वर के वचनों की अपेक्षाओं के अनुसार करना उनकी शक्ति पर एक अदृश्य हमला है और उन्हें उस शक्ति से वंचित करना है—यह उनकी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा पर एक हमला है। वे सोचते हैं : “मैं उतना बेवकूफ नहीं हूँ। अगर मैं तुम लोगों की राय स्वीकार लूँ तो क्या मैं नाकारा और अगुआई की प्रतिभा में कमतर नहीं दिखूँगा? अगर मैं तुम लोगों की राय स्वीकार लूँ, अगर मैं अपनी गलती मान लूँ तो क्या इसके बाद मेरे भाई-बहन अभी भी मेरी बात सुनेंगे? क्या अभी भी मेरे पास प्रतिष्ठा होगी? अगर मैं ऊपरवाले की अपेक्षाओं के अनुसार काम करूँ तो क्या मैं खुद का दिखावा करने का अवसर नहीं गँवा दूँगा? क्या तब भी मेरे भाई-बहन मेरी आराधना करेंगे? क्या वे तब भी मेरी बात सुनेंगे? अगर उनमें से कोई भी मेरी बात नहीं सुनता तो फिर इस कर्तव्य को करने का क्या मतलब है? मैं तब भी यह काम कैसे कर सकता हूँ? अगर समूह में मेरे पास कोई अधिकार नहीं है और मेरी प्रतिष्ठा कम हो जाती है, अगर वे सभी परमेश्वर के वचन सुनकर सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करते हैं, क्या तब मेरी अगुआई खोखली नहीं होगी? क्या तब मैं एक कठपुतली बनकर नहीं रह जाऊँगा? फिर इन चीजों को करने के लिए मेरे पास क्या उत्साह होगा? अगर मेरी अगुआई खोखली है और मैं जो कुछ भी कर रहा हूँ वह निरर्थक है, तो क्या तब भी मेरे पास भविष्य की कोई संभावना होगी?” मसीह-विरोधी चाहते हैं कि उन्हें किसी भी समूह में दूसरों से ऊपर रखा जाए जिससे बदले में उन्हें भविष्य में मुकुट और इनाम मिले। उनका मानना है कि अगर वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए एक उत्कृष्ट हस्ती और दूसरों के अगुआ बन जाते हैं तो वे बदले में भविष्य का मुकुट पाने के हकदार होंगे, और भविष्य में महान आशीष पाएँगे। इसलिए, मसीह-विरोधी किसी भी समय अपनी शक्ति में ढिलाई नहीं आने देंगे और किसी भी स्थिति में अपनी सतर्कता को लेकर ढीले नहीं पड़ेंगे। उन्हें डर है कि अगर उन्होंने जरा भी असावधानी बरती तो उनकी मौजूदा शक्ति छीन ली जाएगी या कमजोर हो जाएगी। अपने कर्तव्य करते समय, वे अपने पद पर रहकर उन्हें अपनी सर्वोत्तम क्षमताओं के अनुसार नहीं करते, अपने कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं करते और परमेश्वर के वचनों के सिद्धांतों और उसकी अपेक्षाओं के अनुसार परमेश्वर की गवाही नहीं देते हैं। इसके बजाय, वे ऐसे अवसरों का फायदा उस मुकुट को मजबूती से पकड़ने के लिए उठाते हैं जो उन्हें लगता है कि वे पाने वाले हैं। भले ही कुछ मसीह-विरोधी परमेश्वर के घर की अपेक्षाओं का पालन नियमों के एक सेट के रूप में करने में सक्षम हों, फिर भी इससे यह साबित नहीं होता कि वे सत्य स्वीकारने और परमेश्वर के वचनों के प्रति समर्पित होने वाले लोग हैं। इसके पीछे क्या कारण है? कुछ मसीह-विरोधी अपने कर्तव्यों को करने के दौरान, हमेशा सत्ता हथियाना चाहते हैं और अपनी इस इच्छा को पूरा करना चाहते हैं, वे हमेशा रुतबा पाना चाहते हैं और रुतबे वाले पद से लोगों को भाषण झाड़ना और आदेश देना चाहते हैं। मगर कुछ मसीह-विरोधी भिन्न होते हैं और उन्हें इस तरह की चिंता सताती है : “जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है। यानी जो कोई भी जोखिम उठाकर आगे बढ़ता है और गलती करता है वह कष्ट झेलेगा। मैं ऐसी बेवकूफी नहीं करूँगा। भले ही मैं कितना भी काबिल हूँ, मैं सिर्फ तीस प्रतिशत मेहनत करूँगा और बाकी सत्तर प्रतिशत अपने लिए रखूँगा, ताकि बाद में उसका इस्तेमाल कर सकूँ—मुझे थोड़ा संयम रखना होगा। परमेश्वर का घर मुझसे जो भी कहेगा या जो भी अपेक्षा करेगा, मैं सतही तौर पर उसे स्वीकार करूँगा और ऐसा व्यक्ति नहीं बनूँगा जो गड़बड़ी करता हो और बाधा डालता हो। जो कोई भी अगुआई करेगा मैं उसका अनुसरण करूँगा और वह जो भी कहेगा मैं उसे स्वीकार करूँगा। जब तक मैं ऊपरवाले के दिए गए नियमों का पालन करता हूँ और उनका उल्लंघन नहीं करता, तब तक मैं ठीक ही रहूँगा। जहाँ तक परमेश्वर के प्रति अपनी निष्ठा समर्पित करने और ईमानदारी से उसके लिए खुद को खपाने की बात है, इसकी कोई जरूरत नहीं है। मैं अपना कर्तव्य करने में थोड़ी-बहुत मेहनत करूँगा, बस इतना ही करना काफी है और मैं मूर्ख नहीं बनूँगा। चाहे मैं जो भी करूँ, मुझे थोड़ा संयम बरतना होगा ताकि मैं कुछ भी न पाने और अंत में मेरे पास दिखाने के लिए कुछ भी न होने की स्थिति से बच सकूँ।” इस तरह का मसीह-विरोधी मानता है कि जब दूसरे लोग अपने कर्तव्यों को करने की जिम्मेदारी लेते हैं और समस्याएँ हल करने के लिए हमेशा अपनी गर्दन को जोखिम में डालते हैं, तो यह बेवकूफी है और उसे खुद ऐसी बेवकूफी नहीं करनी चाहिए। अपने दिल में वह जानता है कि अगर कोई रुतबे के पीछे भागता है और अपनी खुद की शक्ति का प्रबंधन करता है, तो देर-सवेर उसे उजागर कर ही दिया जाएगा, मगर सत्य पर अमल करने के लिए उसे कीमत चुकानी होगी, मेहनत करनी होगी, अपनी ईमानदारी दिखानी होगी और वफादार होना होगा। उसे बहुत कष्ट सहना होगा, और वह ऐसा करने को तैयार नहीं है। वह समझौता करने का तरीका अपनाता है, न तो अपनी गर्दन आगे बढ़ाता है और न ही पीछे हटाता है, बल्कि बीच का रास्ता अपनाता है। उसका मानना है : “मुझे जो भी कहा जाएगा, मैं करूँगा। मैं सिर्फ आधे-अधूरे मन से करूँगा और जैसे-तैसे अपना काम निपटा दूँगा, अगर मुझे इसे बेहतर करने के लिए कहा जाएगा तो मैं इसे नहीं करूँगा। इसे बेहतर करने के लिए, मुझे ज्यादा कीमत चुकानी होगी और ज्यादा चीजों की जाँच करनी होगी—यह बहुत थकाऊ होगा! अगर परमेश्वर मुझे यह काम करने के लिए अतिरिक्त इनाम देता है तो ठीक है, मगर ऐसा प्रतीत होता है कि परमेश्वर के वचन अतिरिक्त इनाम के बारे में कुछ नहीं कहते। अगर ऐसी बात है तो मुझे कष्ट उठाने और खुद को थकाने की जरूरत नहीं है; आराम से काम करना ही बेहतर है।” क्या ऐसा व्यक्ति अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकता है? क्या वह सत्य प्राप्त कर सकता है? क्या जो लोग सत्य की ओर प्रयास नहीं करते, बल्कि अनमने या नकारात्मक होते हैं और अपने काम में ढिलाई बरतते हैं, वे परमेश्वर की स्वीकृति पा सकते हैं? बिल्कुल भी नहीं।

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