मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते और वे व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ विश्वासघात तक कर देते हैं (भाग पाँच) खंड दो
मामला दो : विदेश न जा पाने पर नाराजगी
जब मैं चीन की मुख्यभूमि में काम कर रहा था, वहाँ एक अगुआ था जिसे लगा कि वह हमारे साथ विदेश जा सकता है, और इस बात से बहुत खुश था। उसने सोचा, “आखिर मैंने यह कर दिखाया। अब मैं परमेश्वर के महान आशीषों का आनंद ले सकता हूँ! पहले, मैंने परमेश्वर के साथ कठिनाई झेली। आज मुझे आखिरकार इनाम मिल गया है। मैं इसका हकदार हूँ। कम से कम, मैं एक अगुआ हूँ, और मैंने बहुत-से क्लेशों का अनुभव किया है, इसलिए जब यह अच्छी चीज मेरे सामने आयी है तो मुझे इसमें हिस्सा लेना ही चाहिए—मुझे इस वांछनीय चीज का आनंद लेना ही चाहिए।” वह ऐसा सोचता था। लेकिन, उसके करीब रहकर लंबा समय बिताने के बाद, मैंने देखा कि वह अपनी कथनी और करनी में सिद्धांतहीन था, उसके पास अच्छी मानवता नहीं थी, आशीष पाने की उसकी मंशा और इच्छा काफी मजबूत थी, और कभी-कभी उसकी काट-छाँट करनी पड़ती थी। कई बार काट-छाँट किए जाने के बाद, उसने सोचा, “अब मेरा खेल खत्म है। ऊपरवाले ने मेरी असलियत देख ली है और उसने फिर से विदेश जाने का जिक्र नहीं किया है। ऐसा लगता है कि मेरे विदेश जाने की कोई उम्मीद नहीं है।” वह लगातार अपने मन में इन सबके बारे में विचार कर रहा था। वास्तव में, हम देख सकते थे कि वह सत्य का अनुसरण करने वाला व्यक्ति नहीं था, विदेश जाने के लिए बुनियादी तौर पर अनुपयुक्त था, और अगर वह विदेश जाता भी तो कोई काम नहीं कर पाता, इसलिए हमने उससे इस बारे में कोई बात नहीं की। उसे लगा कि उसके पास विदेश जाने की कोई उम्मीद नहीं है, इसलिए उसने दूसरी योजनाएँ बनानी शुरू कर दी। एक दिन वह बाहर गया और कभी वापस नहीं आया। उसने बस एक चिट्ठी छोड़ी, जिसमें लिखा था, “मैंने इतने सालों से परमेश्वर में विश्वास किया और कुछ काम किया। अब तुम लोग विदेश जा रहे हो, मगर मैं तुम लोगों के साथ जाने लायक नहीं हूँ। आने वाले दिनों में, मैं इसकी भरपाई करने में समय बिताऊँगा। परमेश्वर मुझसे घृणा करता है, इसलिए मैं उसे छोड़ दूँगा। मैं उसे किसी ऐसे व्यक्ति की ओर देखने नहीं दूँगा जिससे वह घृणा करता है। मैं छिप जाऊँगा।” ये शब्द सुनने में ठीक लग रहे थे, और इनमें कोई बड़ी दिक्कत भी नहीं थी। इसके बाद, उसने लिखा, “जब से मैं पैदा हुआ हूँ, तब से ऐसा ही चल रहा है। चाहे मैं किसी के साथ भी रहूँ, मेरा इस्तेमाल ही किया जाता है। मैं दूसरों के साथ कठिनाई तो झेल सकता हूँ, मगर उनके साथ आशीषों का आनंद नहीं ले सकता।” इससे उसका क्या मतलब था? (उसे लगा कि परमेश्वर ने उसका इस्तेमाल किया है।) उसका बिल्कुल यही मतलब था। खास तौर पर जब उसने कहा, “मैं चाहे किसी के भी साथ रहूँ, मैं हमेशा उनके साथ कठिनाई ही झेल सकता हूँ, मैं उनके साथ आशीषों का आनंद नहीं ले सकता,” उसका मतलब था, “मैंने तुम लोगों के साथ बहुत कठिनाई झेली और बहुत अधिक जोखिम उठाए हैं, मगर जब आशीषों का आनंद लेने की बारी आई, तो तुम लोग तैयार नहीं हो।” ये बातें कहकर वह शिकायत कर रहा था, और इस वजह से उसके अंदर नाराजगी पैदा हो गई थी। उसने अपने मुँह से कहा, “परमेश्वर मुझसे घृणा करता है। मैं परमेश्वर को छोड़ दूँगा। मैं उसे घृणा महसूस नहीं करवाऊँगा,” मगर वास्तव में उसके दिल में नाराजगी थी : “तुम लोग आशीषों का आनंद लेने के लिए विदेश जा रहे हो और मुझसे छुटकारा पाना चाहते हो!” क्या वास्तव में ऐसा ही हुआ था? (नहीं।) तो क्या हुआ? उसे लगा कि हमने उससे छुटकारा पाने के लिए उसके साथ काट-छाँट की, इसलिए नहीं कि उसने सत्य का अनुसरण नहीं किया या वह अपनी कथनी और करनी में सिद्धांतहीन था। वह नहीं समझ पाया कि उसमें कोई समस्या थी। इसके बजाय उसने सोचा, “मैंने तुम्हारे साथ कठिनाई झेली, इसलिए मुझे तुम्हारे साथ आशीषों का आनंद लेना चाहिए। तुम्हें अवश्य ही मुझे राज्य में प्रवेश करने देना चाहिए और राज्य के लोगों में से एक बनने देना चाहिए। चाहे मैं कुछ भी करूँ, तुम्हें कभी मुझे छोड़ना नहीं चाहिए।” क्या उसने ऐसा नहीं सोचा? (बिल्कुल सोचा।) इस तरह की सोच का सार क्या है? (यह वही सार है जो पौलुस का था, जब उसने मुकुट के लिए परमेश्वर के साथ सौदा करने की कोशिश की थी।) यह सही है, यह पौलुस का सार है। उसने मुकुट और आशीष पाने के लिए परमेश्वर में विश्वास किया, परमेश्वर का अनुसरण किया, कठिनाई झेली और कीमत चुकाई। उसके पास सच्ची आस्था नहीं थी, न ही वह सत्य का अनुसरण करता था। उसने बस परमेश्वर के साथ सौदा करने की कोशिश की। जब सौदा विफल हो गया, उसे आशीष नहीं मिला और उसे लगा कि उसका नुकसान हुआ है, तो वह गुस्सा हो गया, उसे लगा कि यह सब बेकार है, और वह पूर्णतः लापरवाही से काम करने लगा, उसके दिल में नाराजगी पैदा हो गई। उसने बोलते समय इन चीजों को अभिव्यक्त किया। इसके बाद इस व्यक्ति ने क्या किया? वह व्यापार करने चला गया और उसके चारों ओर कई युवतियाँ मंडराती रहती थीं। भले ही उसने यह नहीं कहा कि वह परमेश्वर में विश्वास नहीं करता, मगर उसने अपना कर्तव्य नहीं निभाया और वह परमेश्वर का अनुयायी नहीं था। किसी ने कभी नहीं सोचा था कि जरा-सी काट-छाँट के कारण वह परमेश्वर का अनुसरण करने का अपना मौका छोड़ देगा और फिर व्यापार करने चला जाएगा। उसका उग्र व्यवहार और जिस तरह से उसने खुद को पहले अभिव्यक्त किया था, वह दो अलग-अलग लोगों की तरह था। यह उसकी प्रकृति थी जो खुद को उजागर कर रही थी। इससे पहले उसने ऐसा विशुद्ध रूप से इसलिए नहीं किया क्योंकि अभी तक सही परिस्थिति सामने नहीं आई थी। यह एक पहलू है। दूसरा पहलू यह है कि उसने अपनी असलियत छिपाई, दिखावा किया कि असल में वह ऐसा नहीं है और खुद को ऐसा करने से रोक लिया। अगर तुम वास्तव में अच्छे व्यक्ति हो, तो चाहे किसी भी परिस्थिति से तुम्हारा सामना हो, तुम्हें सबसे पहले अपनी जगह पर दृढ़ रहना चाहिए और खुद को पहचानना चाहिए। इसके अलावा, जिन लोगों के पास वाकई थोड़ी-सी भी मानवता है, क्या वे ऐसे काम और ऐसे कुकर्म कर सकते हैं जो मानवता से रहित हों? (नहीं।) वे बिल्कुल नहीं कर सकते। इस मामले से यह स्पष्ट है कि जब लोग सत्य स्वीकारने में असमर्थ होते हैं तो यह सबसे विद्रोही बात होती है, और वे सबसे ज्यादा खतरे में होते हैं। अगर वे कभी सत्य स्वीकार नहीं पाते, तो वे छद्म-विश्वासी हैं। अगर ऐसे व्यक्ति की आशीष पाने की इच्छा टूट जाती है, तो वह परमेश्वर को छोड़ देगा। ऐसा क्यों? (क्योंकि वह आशीष पाने और अनुग्रह का आनंद लेने का अनुसरण करता है।) ऐसे लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं मगर सत्य का अनुसरण नहीं करते। उनके लिए, उद्धार एक आभूषण और एक अच्छा लगने वाला शब्द है। उनका दिल इनाम, मुकुट और वांछनीय चीजों का अनुसरण करता है—वे इस जीवन में सौ गुना पाना चाहते हैं, और आने वाली दुनिया में शाश्वत जीवन पाना चाहते हैं। अगर उन्हें ये चीजें नहीं मिलती हैं, तो वे विश्वास नहीं करेंगे; उनका असली चेहरा सामने आ जाएगा, और वे परमेश्वर को छोड़ देंगे। वे अपने दिल में परमेश्वर के काम पर विश्वास नहीं करते, न ही परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्यों पर विश्वास करते हैं, और वे उद्धार का अनुसरण नहीं करते, सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना तो दूर की बात है; बल्कि यह पौलुस की तरह है—वे बहुत ज्यादा आशीष पाना, बड़ी ताकत पाना, बड़ा मुकुट पाना, और परमेश्वर के समान स्तर पर होना चाहते हैं। ये उनकी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ हैं। इसलिए, जब भी परमेश्वर के घर में कोई लाभ या वांछनीय चीज होती है, तो वे उसे पाने के लिए संघर्ष करते हैं, लोगों को उनकी योग्यता और वरिष्ठता के अनुसार श्रेणीबद्ध करने लगते हैं, और सोचते हैं, “मैं योग्य हूँ। मुझे इसका हिस्सा मिलना चाहिए। मुझे इसे पाने के लिए संघर्ष करना ही होगा।” वे परमेश्वर के घर में खुद को सबसे आगे रखते हैं, फिर सोचते हैं कि उनके लिए परमेश्वर के घर के लाभों का आनंद उठाना सही है। उदाहरण के लिए, विदेश जाने के मामले में, उस व्यक्ति का पहला विचार यह था कि उसे हिस्सा लेने में सक्षम होना चाहिए, ज्यादातर लोग उसके जितने अच्छे नहीं हैं, उन्होंने उसके जितने कष्ट नहीं झेले, वे उसके जितने योग्य नहीं हैं, उन्होंने उतने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास नहीं किया जितना कि उसने किया, और वे उसकी तरह लंबे समय से अगुआ नहीं रहे। उसने खुद को श्रेणीबद्ध करने के लिए सभी तरह के बहाने बनाए और मूल्यांकन के तरीके इस्तेमाल किए। चाहे वह लोगों को कैसे भी श्रेणीबद्ध करे, वह हमेशा खुद को सबसे आगे और योग्य लोगों की श्रेणी में रखता था। आखिरकार, उसे लगा कि उसके लिए इस व्यवहार का आनंद उठाना सही है। जैसे ही उसे यह नहीं मिला, और जैसे ही आशीष और अपनी पसंद की चीजें पाने का उसका सपना टूटा, वह इस बारे में कुछ करने लगा, वह बौखला गया, और समर्पण करने और सत्य खोजने के बजाय वह परमेश्वर से बहस करने लगा। यह स्पष्ट है कि उसका दिल पहले से ही इन चीजों से भरा हुआ था जिनका वह अनुसरण करता था, और यह दिखाने के लिए काफी है कि जिन चीजों का उसने अनुसरण किया वे सत्य से पूरी तरह से असंगत हैं। चाहे उसने कितना भी काम किया हो, उसका लक्ष्य और इरादा सिर्फ मुकुट पाना था—जैसे पौलुस का लक्ष्य और इरादा था—वह उससे कसकर चिपका रहा और कभी हार नहीं मानी। उसके साथ चाहे कैसे भी सत्य के बारे में संगति की गई हो, चाहे उसे कैसे भी काटा-छाँटा गया हो, उजागर किया गया हो और उसका गहन-विश्लेषण किया गया हो, वह फिर भी आशीष पाने के इरादे पर हठपूर्वक अड़ा रहा और उसने हार नहीं मानी। जब उसे परमेश्वर की स्वीकृति नहीं मिली और उसने देखा कि आशीष पाने की उसकी इच्छा चकनाचूर हो गई है, तो वह नकारात्मक होकर पीछे हट गया और अपना कर्तव्य त्यागकर भाग गया। उसने वास्तव में अपना कर्तव्य पूरा नहीं किया या राज्य का सुसमाचार फैलाने में अच्छी सेवा नहीं की, और यह पूरी तरह दिखाता है कि परमेश्वर में उसकी सच्ची आस्था नहीं थी, वह वास्तव में समर्पित नहीं था, और उसके पास जरा-सी भी सच्ची अनुभवजन्य गवाही नहीं थी—वह केवल भेड़ की खाल में भेड़िया था, जो भेड़ों के झुंड में दुबका हुआ था। अंत में, वह व्यक्ति जो अंदर से छद्म-विश्वासी था, उसे पूरी तरह से बेनकाब करके हटा दिया गया, और एक विश्वासी के रूप में उसका जीवन यहीं समाप्त हो गया। यह एक मामला है।
ऐसा अकेला मामला नहीं था। यह अकेला व्यक्ति नहीं था जिसने ठोकर खाई और विदेश जाने के मामले से जिसका खुलासा हुआ। अभी-अभी हमने एक पुरुष का उदाहरण दिया, मगर ऐसी एक महिला भी थी। शुरू में विचार यही था कि इस महिला को भी हमारे साथ विदेश आने दिया जाए। जब ऐसा हुआ, तो वह अंदर से बहुत खुश हुई, और इसके लिए योजना बनाने और तैयारी करने लगी, मगर अंत में कई कारणों से वह हमारे साथ नहीं जा सकी। उस समय, उसे सूचित नहीं किया गया क्योंकि स्थिति बहुत खतरनाक थी। सहकर्मियों की एक बैठक में, उसे इस फैसले के बारे में पता चला। इसका विश्लेषण करो : जब इस महिला को पता चला तो परिणाम क्या रहा होगा? (अगर उसकी सोच सामान्य व्यक्ति की तरह होती, तो पता चलने के बाद वह बात का बतंगड़ नहीं बनाती। वह सोचती कि वह विदेश इसलिए नहीं जा सकी क्योंकि परिस्थिति बहुत खतरनाक थी, और वह इस मामले को सही तरीके से सँभाल पाती। लेकिन जब इस महिला को पता चला होगा, तो वह गुस्सा हुई होगी और उसने परमेश्वर से बहस करने की कोशिश की होगी।) यह सही है, तुम लोगों ने इस तरह के लोगों के चरित्र को कुछ हद तक समझ लिया है। इस तरह के लोग ऐसे ही होते हैं—मामला चाहे कुछ भी हो, वे अपना नुकसान नहीं होने देंगे, बल्कि इसका लाभ उठाएँगे। हर चीज में उन्हें बाकी सबसे आगे निकलना है, और सबसे बेहतर होना है। हर चीज में उन्हें सर्वश्रेष्ठ होना है; उन्हें हरेक वांछनीय चीज चाहिए, और किसी चीज में उनका हिस्सा नहीं होना उनके लिए अस्वीकार्य है। इस मामले के बारे में पता चलते ही वह महिला गुस्सा हो गई और गुस्सा दिखाते हुए जमीन पर लोटने लगी। उसका राक्षसी पक्ष सामने आ गया, और उसने अपने सहकर्मियों को लताड़ा और अपना गुस्सा उन पर निकाला। उसका गुस्सा कहाँ से आया? ऐसा लग रहा था कि वह भाई-बहनों पर गुस्सा थी, मगर वास्तव में वह किस पर गुस्सा थी? (वह परमेश्वर पर गुस्सा थी।) यही चल रहा था। तो फिर उसके गुस्से का कारण क्या था? इसकी जड़ क्या थी? (क्योंकि उसकी इच्छाएँ पूरी नहीं हुईं।) यही कि उसे वांछनीय चीज नहीं मिली, और उसका लक्ष्य हासिल नहीं हुआ। वह इस बार लाभ उठाने में सफल नहीं हुई; बल्कि, दूसरे लोगों को लाभ मिला और वह हिस्सा नहीं ले पाई, इसलिए वह बौखला गई; वह अब और दिखावा नहीं कर सकती थी; वह फूट पड़ी और उसने अपने दिल की सारी असंतुष्टि और नाराजगी बाहर निकाल दी। अतीत में, ऊपरवाला क्या कर रहा है यह हमेशा सबसे पहले उसे जानना होता था। वह हमेशा ऊपरवाले से संपर्क रखना चाहती थी, और भाई-बहनों से मेलजोल नहीं रखती थी। वह हमेशा खुद को औसत सदस्य नहीं, बल्कि ऊँचे दर्जे का व्यक्ति मानती थी, इसलिए उसने सोचा कि उसे इस बार विदेश भी जाना चाहिए—अगर कोई और नहीं, तो उसे जरूर जाना चाहिए। वह प्राथमिक उम्मीदवार थी, और उसे इस तरह से व्यवहार किए जाने का आनंद मिलना चाहिए। उसके दिल में वास्तव में यही था। अब उसने देखा कि उसे इस तरह से व्यवहार किए जाने का आनंद नहीं मिलेगा, इन वर्षों में उसने जो भी कष्ट सहे, वे सब बेकार थे; उसके पास वह रुतबा नहीं था जिसे उसने कड़ी मेहनत से सँभाला था और उसके साथ वैसा व्यवहार नहीं हुआ जैसा वह चाहती थी। इस पल में ये सभी चीजें बिखर कर नष्ट हो गईं। हैरानी की बात है कि वह इतनी बड़ी वांछनीय चीज पाने में सफल नहीं हो सकी; हैरानी की बात यह भी है कि उसे छोड़ दिया गया था, इसलिए उसने सोचा कि वह परमेश्वर के दिल में ऊँचा स्थान नहीं रखती, और एक औसत व्यक्ति है। उसके दिल में रक्षा-पंक्ति पूरी तरह से ध्वस्त हो गई थी, और उसने अब दिखावा करना और चीजों को छिपाना छोड़ दिया। वह गुस्सा दिखाने लगी, लोगों पर चिल्लाने लगी, भड़ास निकालने लगी, क्रोधित होने लगी, और जो उसके लिए स्वाभाविक था उसे उजागर करने लगी, बिना इस बात की परवाह किए कि दूसरे क्या कहते हैं या इसे कैसे देखते हैं। इसके बाद, कर्तव्य निभाने के लिए उसे एक टीम में भेजा गया। अपना कर्तव्य निभाते हुए उसने कई बुरे काम किए, और टीम के भाई-बहनों ने आखिरकार मिलकर एक चिट्ठी लिखी जिसमें उसे निष्कासित करने की माँग की गई। उसे निष्कासित किए जाने का कारण क्या था? भाई-बहनों ने बताया कि उसके कुकर्मों को सिर्फ एक वाक्यांश में वर्णित किया जा सकता है : उन सबको तो लिखा तक नहीं जा सकता! दूसरे शब्दों में, उसने बहुत सी बुराइयाँ कीं, और उसने जो किया उसकी प्रकृति बहुत गंभीर थी—इसे केवल एक या दो वाक्यों में स्पष्ट रूप से व्यक्त नहीं किया जा सकता था, न ही इसे केवल एक या दो कहानियों में सुनाया जा सकता था। उसने अनगिनत बुरे काम किए जिससे लोग नाराज हो गए, इसलिए कलीसिया ने उसे निष्कासित कर दिया। उसने जो बुरे काम किए, वे विदेश जाने का मुद्दा उठने से पहले नहीं किए गए थे, तो फिर यह मुद्दा उठने के बाद वह ये सब क्यों कर पाई? क्योंकि विदेश जाने के मुद्दे का अंत वह नहीं हुआ जो वह चाहती थी। यह स्पष्ट है कि उसने जो बुरे काम किए और जो कुरूपता प्रकट की, वह विशुद्ध रूप से एक तरह का बदला लेना और भड़ास निकालना था, क्योंकि उसे यह वांछनीय चीज नहीं मिली। मुझे बताओ, ऐसी स्थिति का सामना करते हुए भले ही कोई व्यक्ति कई सत्यों को न समझता हो, लेकिन जब वह वास्तव में सत्य का अनुसरण करता है और उसके पास मानवता है, तो क्या वह ये अभिव्यक्तियाँ दिखाने में समर्थ होगा? क्या वह इन चीजों को प्रदर्शित करने में समर्थ हो सकता है? जिस किसी में थोड़ी-सी भी मानवता, थोड़ा-सा भी जमीर और थोड़ी-सी भी शर्म की भावना है, वह ये काम नहीं करेगा, बल्कि खुद को रोक लेगा। भले ही उसका दिल खुश नहीं है, वह असंतुष्ट और थोड़ा-सा दुखी भी है, लेकिन वह यही सोचता है कि वह एक औसत व्यक्ति है, उसे इस चीज को पाने के लिए लड़ाई नहीं करनी चाहिए, जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं उन्हें सत्य का अनुसरण करना चाहिए, हर चीज में परमेश्वर के आयोजनों के प्रति समर्पण करना चाहिए, उनकी कोई पसंद-नापसंद नहीं होनी चाहिए, और लोग सृजित प्राणी हैं और वे बिल्कुल भी प्रभावशाली नहीं हैं। ऐसे लोग कुछ दिनों के लिए दुखी होंगे, मगर फिर यह भूली-बिसरी बात हो जाएगी। वे अभी भी पहले की तरह विश्वास करेंगे जैसा उन्हें करना चाहिए, और इस मामले के कारण बुरे कर्म नहीं करेंगे या बदला नहीं लेंगे, न ही वे इस मामले के कारण अपनी भड़ास निकालेंगे। इसके विपरीत, जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते और जिनका चरित्र घृणित है, वे एक छोटी-सी बात के कारण ये सभी बुरे कर्म उजागर कर सकते हैं जो उन्होंने पहले कभी नहीं किए हैं। यह समस्या को स्पष्ट करता है। यह इस तरह के लोगों के मानवता सार को स्पष्ट करता है, और इस तरह के लोगों के सच्चे अनुसरण को स्पष्ट करता है, यानी कि इस मुद्दे का खुलासा होने से उनका असली चेहरा पूरी तरह से सामने आ जाता है। पहली बात, उनका सार पूरी तरह से मसीह-विरोधी का है। दूसरी बात, उन्होंने कभी भी सत्य का अनुसरण नहीं किया है, न कभी खुद को उद्धार का पात्र समझा है और न कभी उन्होंने परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण किया है। वे परमेश्वर के प्रति समर्पण का अनुसरण नहीं करते; वे केवल रुतबे और आनंद का अनुसरण करते हैं; वे केवल अच्छे व्यवहार का अनुसरण करते हैं, और केवल परमेश्वर के समान स्तर पर रहने का अनुसरण करते हैं। परमेश्वर जिसका आनंद लेता है, वे भी उसका आनंद लेते हैं। इस तरह, वे व्यर्थ में परमेश्वर का अनुसरण नहीं कर रहे होंगे। ये वे चीजें हैं जिनका वे अनुसरण करते हैं। यह इस तरह के लोगों का प्रकृति सार है; यह उनका असली चेहरा है, और यही उनके दिल का आंतरिक परिदृश्य है। इस मुद्दे ने इस महिला की बीस साल की आस्था को समाप्त कर दिया—सब कुछ व्यर्थ हो गया।
मुझे बताओ, इन दोनों को अभी कहाँ होना चाहिए? कलीसिया में या कहीं और? (अविश्वासी संसार में।) तुमने ऐसा क्यों कहा? तुम लोगों ने यह फैसला कैसे कर लिया? तुम्हारे शब्दों का आधार क्या है? (क्योंकि वे छद्म-विश्वासी हैं, और परमेश्वर में उनका विश्वास सृजित प्राणियों के रूप में अपने कर्तव्य निभाने का अनुसरण करने के उद्देश्य से नहीं है। अंत में, इस तरह के लोग अपनी आस्था में दृढ़ नहीं रह सकते, और सिर्फ संसार में वापस आ सकते हैं।) अंत में, वे अपनी आस्था में दृढ़ नहीं रह सकते, मगर अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है, तो वे कैसे गायब हो गए? तुम्हें यह देखना होगा कि उनके मन में क्या था। वे इस तरह की चीजें तभी कर सकते हैं और इस तरह के विकल्प तभी चुन सकते हैं जब उनके दिल में कुछ गतिविधि चल रही हो। उन्होंने इस मामले का किस तरह से विश्लेषण और आकलन किया जिसने उन्हें ऐसा रास्ता चुनने पर मजबूर किया? अपने दिल में उन्होंने सोचा, “मैंने इतने सालों से परमेश्वर में विश्वास किया है और बहुत कठिनाई झेली है। मैं हमेशा उस दिन के लिए तरसती रही हूँ जब मैं अपना नाम कमा सकूँ। ऊपरवाले के साथ रहकर, मैं अपना नाम कमा सकती हूँ और अपना चेहरा दिखा सकती हूँ। अब आखिरकार मेरे पास विदेश जाने का मौका है। यह बहुत बड़ी बात है! परमेश्वर पर विश्वास करने से पहले मैंने कभी यह सोचने की हिम्मत नहीं की थी। यह परमेश्वर में विश्वास करके मुकुट पाने जैसा ही है, मगर पता चला है कि मैं इतनी बड़ी वांछनीय चीज का हिस्सा नहीं बन पाऊँगी। मैं इसे पाने में सक्षम नहीं हूँ। पहले, मुझे लगता था कि परमेश्वर के दिल में मेरा एक निश्चित स्थान है, मगर अब मैं देख सकती हूँ कि ऐसा नहीं है। लगता है मैं परमेश्वर का अनुसरण करके कोई वांछनीय चीज नहीं पा सकती। जब विदेश जाने जैसी बड़ी बात आई तो उन्होंने मेरे बारे में नहीं सोचा, ऐसे में क्या भविष्य में मुझे मुकुट मिलने की संभावना और भी कम नहीं है? यह पक्का नहीं है कि यह किसे मिलेगा, और ऐसा लगता है कि मुझे मिलने की कोई उम्मीद नहीं है।” क्या वे तब भी परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए तैयार थे जब उन्हें लगा कि कोई उम्मीद नहीं बची है? पहले कठिनाई झेलने और कीमत चुकाने के पीछे उनका उद्देश्य क्या था? उन्होंने केवल उस थोड़ी-सी उम्मीद के कारण, उन छोटे विचारों के कारण जो उन्होंने अपने दिलों में पाल रखे थे, उस तरह से काम किया और खुद को उस तरह से अभिव्यक्त किया। अब जब उनकी उम्मीदें चकनाचूर हो गई हैं और उनके विचार व्यर्थ हो गए हैं, तो क्या वे विश्वास करना जारी रख सकते हैं? क्या वे परमेश्वर के घर में रहकर और अपना कर्तव्य निभाकर संतुष्ट रह सकते हैं? क्या वे कुछ भी हासिल न करके परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण कर सकते हैं? मसीह-विरोधियों की महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ इतनी बड़ी हैं कि उन्हें अपनी कोशिशों और चुकाई गई कीमत का यह परिणाम बिल्कुल भी मंजूर नहीं होगा। वे यह सपना देखते हैं कि उन्होंने जो कीमत चुकाई और जितनी कोशिशें कीं उसके बदले उन्हें एक मुकुट और वांछनीय चीजें मिले, चाहे परमेश्वर के घर में कोई भी वांछनीय चीज क्यों न हो, उन्हें उनका हिस्सा मिलना ही चाहिए—अगर दूसरे लोगों को हिस्सा न मिले तो कोई बात नहीं, मगर उन्हें जरूर मिलना चाहिए। क्या ऐसी प्रबल महत्वाकांक्षाओं और लालच वाले लोग बदले में कुछ पाए बिना अपना कर्तव्य निभा सकते हैं और मेहनत कर सकते हैं? वे ऐसा बिल्कुल भी नहीं कर सकते। कुछ लोग कहते हैं, “उन्हें सत्य का अनुसरण करने दो। जब वे बहुत सारे सत्य सुन लेंगे, तो क्या इसे हासिल नहीं कर सकेंगे?” कुछ अन्य लोग कहते हैं, “अगर परमेश्वर उन्हें ताड़ना देता है और उनका न्याय करता है, तो क्या वे नहीं बदलेंगे?” क्या ऐसा है? परमेश्वर इस तरह से लोगों को ताड़ना नहीं देता और उनका न्याय नहीं करता, न ही ऐसे लोगों को बचाता है। ये बिल्कुल ऐसे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर हटा देगा। मैंने जो कहा उसके और तुम लोगों ने अभी जो कहा उसके बीच क्या अंतर है? तुम लोगों ने जो कहा, क्या वह उनके दिलों की सच्ची गतिविधि है? क्या यह इस तरह के लोगों के सार की अभिव्यक्ति है? (नहीं।) तो फिर तुम लोगों ने क्या कहा? (भावनाएँ और खोखले सिद्धांत।) तुम लोगों ने जो कहा उसकी प्रकृति विश्लेषण और आकलन की ओर थोड़ी झुकी हुई है, और यह सिद्धांत के आधार पर उनका आकलन और उन्हें परिभाषित करने की है। ये उनके सच्चे विचार और खुलासे नहीं हैं, न ही ये उनके सच्चे दृष्टिकोण हैं। यह इस तरह के लोगों की अभिव्यक्ति है जिनमें मसीह-विरोधी का सार है। अगर ऐसी कोई वांछनीय चीज उन्हें नहीं मिली, ऐसे किसी लाभ का आनंद उन्होंने नहीं लिया या ऐसा कोई फायदा उन्हें नहीं मिला, तो वे गुस्सा हो जाते हैं, परमेश्वर में विश्वास करने और सत्य का अनुसरण करने की अपनी आस्था खो देते हैं, परमेश्वर में विश्वास नहीं करना चाहते, भाग जाना चाहते हैं, और बुरे काम करना चाहते हैं। वे भड़ास निकालने और बदला लेने के लिए बुरे काम करते हैं—परमेश्वर के बारे में अपनी गलतफहमियों और परमेश्वर के प्रति अपनी नाराजगी को बाहर निकालते हैं। क्या इन लोगों से निपटा जाना चाहिए? क्या उन्हें कलीसिया में अपना कर्तव्य निभाते रहने देना चाहिए? (नहीं।) तो फिर इन लोगों से कैसे निपटा जाना चाहिए? (उन्हें निष्कासित कर दिया जाना चाहिए।) क्या कोई ऐसा है जिसने विदेश नहीं जा पाने के कारण विश्वास करना छोड़ दिया हो? (हाँ, है।) इस तरह के लोग क्या हैं? (छद्म-विश्वासी। वे केवल आशीष पाने के प्रयास में परमेश्वर में विश्वास करते हैं, और जब उनकी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ संतुष्ट नहीं होती तो वे परमेश्वर से विश्वासघात करते हैं।) वे ऐसी छोटी-सी बात पर परमेश्वर में विश्वास करना बंद कर सकते हैं। इस तरह के लोगों के बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि उनका विश्वास सच्चा है या झूठा—उनका चरित्र बहुत घटिया होता है!
मामला तीन : ग्रामीण इलाकों में घर लौटने के बाद जीवन जीना मुश्किल लगना
कुछ लोग ग्रामीण इलाकों में पैदा होते हैं और उनके परिवारों के पास जीवन-यापन के लिए बहुत सारा पैसा नहीं होता। वे अपने दैनिक जीवन में साधारण चीजों का इस्तेमाल करते हैं; एक खाट, एक संदूक और एक मेज के अलावा, उनके घर में कोई और असबाब नहीं होता है। उनके घर का फर्श ईंटों या गारे का बना होता है—उनके घर में पक्का फर्श तक नहीं होता। वे बहुत साधारण परिस्थितियों में जीते हैं। परमेश्वर में विश्वास करने के बाद, वे सुसमाचार के प्रचार का अपना कर्तव्य निभाते हुए कुछ संपन्न इलाकों में जाते हैं। ऐसी ही एक महिला थी, उसने चारों ओर देखा तो पाया कि ज्यादातर भाई-बहनों के घरों में या तो मजबूत लकड़ी के फर्श थे या टाइलें बिछी थीं; दीवारों पर वॉलपेपर लगे हुए थे; उनके घर बहुत साफ-सुथरे थे, और वे हर दिन नहा सकते थे। उनके घरों में बहुत सारा फर्नीचर भी था : जैसे कि टेलीविजन स्टैंड और बड़ी अलमारियाँ थीं, साथ ही सोफे लगे थे और घर वातानुकूलित था। उनके शयनकक्ष में सिमंस ब्रांड के बेड थे, और उनके रसोईघर में हर तरह के उपकरण मौजूद थे : जैसे कि रेफ्रिजरेटर, माइक्रोवेव, ओवन, स्टोव, रेंज हुड वगैरह। यह चकरा देने वाला नजारा था। इसके अलावा, इस तरह के बड़े शहरों में, कुछ इमारतें ऐसी भी थीं जिनमें एक मंजिल से दूसरी मंजिल पर चढ़ने-उतरने के लिए वह लिफ्ट का प्रयोग कर सकती थी। इस जगह ने उसकी आँखें खोल दीं, और वहाँ कुछ समय तक काम करने और सुसमाचार का प्रचार करने के बाद वह वापस घर नहीं जाना चाहती थी। ऐसा क्यों था? उसने सोचा, “मेरे परिवार का कच्चा घर किसी भी तरह से इस जगह की बराबरी नहीं कर सकता। हम सभी परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तो इन लोगों का जीवन मेरे परिवार से इतना बेहतर कैसे है? इनका जीवन स्वर्ग जैसा है। जबकि मेरा परिवार सूअर के बाड़े में रहता है—वह इन लोगों के घर से बहुत खराब हालत में है!” यह तुलना करने के बाद, वह दुखी हो गई, उसे इस जगह से और भी ज्यादा लगाव हो गया और वह वापस नहीं जाना चाहती थी। उसने सोचा, “अगर मैं यहाँ लंबे समय तक काम कर सकूँ, तो मुझे घर वापस नहीं जाना पड़ेगा, है ना? वह गंदी झोपड़ी इंसानों के रहने की जगह नहीं है।” वह कुछ समय बड़े शहर में रही और उसने शहर के लोगों की तरह खाना, कपड़े पहनना और जीवन का आनंद लेना सीखा, और शहर के लोगों की तरह जीना सीखा। उसे लगा कि उन दिनों जीवन बहुत अच्छा था। पैसा होना अच्छा था। गरीब होने से लोगों का कोई भविष्य नहीं होता। गरीब लोगों को दूसरे लोग नीची नजरों से देखते थे, और गरीब लोग खुद को भी नीची नजरों से देखते थे। जितना ज्यादा वह इस बारे में सोचती, उतना ही कम वह वापस जाना चाहती थी, मगर उसके पास कोई और चारा नहीं था—उसे घर जाना ही था। घर पहुँचने के बाद, उसके दिल में अलग-अलग तरह की भावनाएँ उठीं और उसे सहना बहुत मुश्किल था। जैसे ही वह घर के अंदर गई, उसे गारे का फर्श दिखा, और जब वह खाट पर बैठी तो उसे बहुत कठोर और असहज महसूस हुआ। जब उसने दीवारों को छुआ तो उसका हाथ धूल-मिट्टी से सन गया। जब उसने कुछ स्वादिष्ट खाने का जिक्र किया तो कोई भी उस व्यंजन का नाम नहीं समझ पाया, और उसने सोने से पहले नहाना चाहा तो यहाँ नहाने की कोई सुविधा नहीं थी। उसे इस तरह से जीना बहुत ही घटिया लगा, और उसे अपने माता-पिता से बहुत शिकायतें थी क्योंकि वे इतने गरीब थे कि उसकी कोई भी मनचाही चीज नहीं खरीद सकते थे, और वह हमेशा उन पर गुस्सा करती थी। वापस आने के बाद से, ऐसा लग रहा था कि वह एक अलग इंसान बन गई है। वह अपने परिवार के लोगों और अपने घर की हर चीज को नापसंदगी की नजरों से देखती थी, सोचती थी कि यह बाबा आदम के जमाने का है कि वह अब वहाँ नहीं रह सकती, और अगर वह वहाँ रहती रही तो अन्याय की चिंताओं के कारण मर ही जाएगी। घर छोड़ने से उसकी आँखें खुल गईं, मगर यह एक बुरी बात हो गयी थी, जिससे उसके माता-पिता बहुत नाराज हो गए। उस समय, उसके मन में एक विचार आया : “अगर मेरे माता-पिता परमेश्वर में विश्वास नहीं करते, और अगर मैं परमेश्वर में विश्वास नहीं करती, तो हमारा जीवन निश्चित रूप से अभी के मुकाबले बेहतर होता। भले ही हम सिमंस के बिस्तर पर नहीं सो सकते, मगर हम कम से कम बेहतर खाना तो खा सकते थे, और फर्श पर टाइलें तो लगवा सकते थे।” उसने सोचा कि यह परमेश्वर में विश्वास करने का नतीजा है, परमेश्वर में विश्वास करने का मतलब है कि व्यक्ति को गरीबी में जीना होगा, अगर कोई परमेश्वर में विश्वास करता है तो उसका जीवन अच्छा नहीं हो सकता, और वह अच्छी चीजें नहीं खा सकता या अच्छे कपड़े नहीं पहन सकता। तब से, यह असाधारण साहसी महिला, जिसने कई प्रांतों में घूमकर कुछ हासिल किया था, वह अब अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो पाती थी और उसे पूरे दिन नींद आती रहती थी। उसे सुबह उठने के लिए संघर्ष करना पड़ता था, और उठने के बाद सबसे पहले वह तैयार होती और मेकअप करती थी, फिर ऐसे कपड़े पहनती थी जो अक्सर शहरी लोग पहनते हैं। फिर वह भौंहें सिकोड़ती और सोचती कि कब उसे इस देहाती जीवन से छुटकारा मिलेगा और वह शहरी लोगों की तरह जी सकेगी। वह जो धर्मोपदेश देती थी और जो संकल्प उसने लिया था, वह सब खत्म हो गया—वह सब कुछ भूल गई थी। वह तो यह भी नहीं जानती थी कि वह विश्वासी है या नहीं। वह इतनी जल्दी बदल गई। उसकी आँखें थोड़ी खुल जाने और उसका जीवन परिवेश और जीवन स्तर बदल जाने के कारण वह प्रकट हो गई।
पहले, यह महिला हर जगह जाकर धर्मोपदेश देती और काम करती थी। उसके पास दृढ़ संकल्प था और अपार शक्ति थी, मगर ये सब सिर्फ बाहरी दशाएँ थीं। यहाँ तक कि वह भी नहीं जानती थी कि वह अंदर से क्या चाहती है, उसे क्या पसंद है और वह किस तरह की इंसान है। शहर जाने के एक अनुभव ने उसके जीवन की दशा पूरी तरह से बदल दी, और कुछ समय तक समृद्ध जीवनशैली के एक अनुभव ने उसके जीवन की दिशा को भी पूरी तरह से बदल दिया था। असल में इसका कारण क्या था? उसे किसने बदला? यह परमेश्वर तो नहीं हो सकता, है ना? बिल्कुल नहीं। तो फिर कारण क्या था? ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि जीवन परिवेश ने उसे प्रकट किया, उसकी प्रकृति सार का खुलासा किया और उसके अनुसरण के साथ ही वह मार्ग प्रकट किया जिस पर वह चल रही थी। वह किस मार्ग पर चल रही थी? यह सत्य का अनुसरण करने का मार्ग नहीं था, न यह पतरस का मार्ग था, न ही यह उन लोगों का मार्ग था जिन्हें बचाया और पूर्ण किया जाता है, और न ही यह सृजित प्राणी के कर्तव्य को पूरा करने की कोशिश का मार्ग था; बल्कि, यह एक मसीह-विरोधी का मार्ग था। विशेष रूप से, एक मसीह-विरोधी का मार्ग प्रतिष्ठा का अनुसरण करने का, रुतबे का अनुसरण करने का और भौतिक सुखों का अनुसरण करने का मार्ग होता है। यही ऐसे लोगों का सार है। अगर वह इन चीजों का अनुसरण नहीं कर रही होती और वह एक ऐसी व्यक्ति होती जो सत्य का अनुसरण करती तो वातावरण में इस तरह का एक छोटा सा परिवर्तन उसे बिल्कुल भी प्रकट नहीं कर पाता। ज्यादा से ज्यादा, उसका दिल थोड़ा कमजोर होता, वह थोड़ी दुखी होती, और यह उसके लिए थोड़ा दर्दनाक होता, या फिर वह कुछ मूर्खतापूर्ण अभिव्यक्तियाँ दिखाती, मगर इतनी स्पष्टता से नहीं जिससे कि वह बेनकाब हो जाती। ऐसे लोगों के अनुसरणों का सार क्या है? वे उन्हीं चीजों का अनुसरण करते हैं जिनका अनुसरण अविश्वासी और वे लोग करते हैं जो प्रसिद्धि, लाभ और बुरी प्रवृत्तियों का अनुसरण करते हैं। उन्हें अविश्वासियों के फैशनेबल पहनावे पसंद हैं, वे अविश्वासियों की तरह बुरी प्रवृत्तियों का अनुसरण करते हैं और यहाँ तक कि उन्हें अविश्वासियों का देह की असाधारण जीवनशैली के प्रति जुनून पसंद है। इसलिए, अपने परिवेश में एक बदलाव से, इस महिला का जीवन के प्रति दृष्टिकोण और इस संसार और जीवन के प्रति उसका रवैया पूरी तरह से बदल गया। उसने सोचा कि परमेश्वर में विश्वास करना और सत्य का अनुसरण करना सबसे महत्वपूर्ण नहीं है, और जब तक लोग इस संसार में जीवित हैं, उन्हें देह और जीवन का आनंद लेना चाहिए, सांसारिक प्रवृत्तियों का अनुसरण करना चाहिए, और समाज में करिश्माई और आकर्षक व्यक्तियों की तरह होना चाहिए जो जिधर से गुजर जाएँ उधर एक हलचल मचा देते हैं, जिनसे लोगों को ईर्ष्या होती है, और लोग जिन्हें अपना आदर्श बना लेते हैं। कुछ लोग ऐसे हैं जो कई परिवेशों का सामना करने के बाद, तमाम तरह के लोगों का सामना करने के बाद, और जब उनकी आँखें खुल जाती हैं, तो वे इन बुरी प्रवृत्तियों और मानवजाति की असलियत को देखने में ज्यादा सक्षम होते हैं क्योंकि वे सत्य का अनुसरण करते हैं और परमेश्वर के इरादों को समझते हैं। उनके दिल सांसारिक लोगों के मार्ग से घृणा करने में ज्यादा सक्षम होते हैं, और साथ ही वे इसका भेद पहचानते हैं और परमेश्वर के बताए मार्ग पर चलने के लिए इसे पूरी तरह से त्याग देते हैं। जहाँ तक उन लोगों का सवाल है जो सत्य का अनुसरण नहीं करते और जिनके पास मसीह-विरोधी का सार है, जैसे ही उनकी आँखें खुलती हैं और विभिन्न परिवेशों से उनका सामना होता है, उनकी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ कम नहीं होतीं, बल्कि बढ़ती ही जाती हैं। जब उनकी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ बढ़ जाती हैं, तो ये लोग संसार में उन लोगों के जीवन से और भी ज्यादा ईर्ष्या करने लगते हैं जो अच्छी चीजों का आनंद लेते हैं और जिनके पास पैसा और प्रभाव है, और उनके दिलों की गहराई में विश्वासियों के जीवन के प्रति हिकारत का भाव उत्पन्न हो जाता है। वे सोचते हैं कि ज्यादातर विश्वासी सांसारिक चीजों का अनुसरण नहीं करते, उनके पास पैसा नहीं है, कोई रुतबा नहीं है, कोई प्रभाव नहीं है और उन्होंने संसार को ज्यादा नहीं देखा है, वे अविश्वासियों जितने करिश्माई नहीं हैं, वे अविश्वासियों जितना जीवन का आनंद लेना नहीं जानते और उनके जितना दिखावा नहीं करते हैं। इस वजह से, परमेश्वर में विश्वास करने के प्रति उनके दिलों में विरोध और शत्रुता गहराती चली जाती है। इसलिए, मसीह-विरोधी के सार वाले कई लोगों के बारे में, जब से उन्होंने परमेश्वर में विश्वास करना शुरू किया था तब से लेकर अब तक, कोई यह नहीं बता सकता कि वे वास्तव में मसीह-विरोधी के सार वाले व्यक्ति हैं या नहीं, मगर एक दिन जब उचित परिवेश बनेगा तो यह उन्हें प्रकट कर देगा। इससे पहले, जब प्रकट किए गए लोग अभी तक प्रकट नहीं हुए थे, उन्होंने भी नियमों का पालन किया और जैसा उन्हें करना चाहिए वैसा ही किया। परमेश्वर का घर उनसे जो भी करने को कहता था, वे करते थे, वे कष्ट सहने और कीमत चुकाने में सक्षम थे। वे कर्तव्यनिष्ठ, सही मार्ग पर चलने वाले और परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोगों की तरह दिखते थे और वैसा ही आचरण करते प्रतीत होते थे। लेकिन, चाहे वे बाहर से कुछ भी करते हों, उनका सार और जिस मार्ग पर वे चल रहे थे वह समय की कसौटी पर या विभिन्न परिवेशों के परीक्षण में खरा नहीं उतरा। कोई व्यक्ति चाहे कितने भी वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करता हो, और किसी व्यक्ति के विश्वास का आधार चाहे कितना भी मजबूत हो, अगर उसमें मसीह-विरोधी का सार है और वह मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल रहा है, तो वह अनिवार्य रूप से भौतिक सुखों के पीछे भागेगा, विलासितापूर्ण जीवनशैली, समृद्ध भौतिक जीवन का अनुसरण करेगा, और इसके अलावा, तमाम तरह की वांछनीय चीजों के पीछे भागने के साथ-साथ सांसारिक लोगों के जीवन जीने के रवैये और दृष्टिकोण से ईर्ष्या करेगा। यह निश्चित है। इसलिए, भले ही अब हर कोई धर्मोपदेश सुन रहा है, परमेश्वर के वचनों को खा-पी रहा है और अपने कर्तव्य निभा रहा है, लेकिन जो लोग ये काम करते हैं मगर सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे अनिवार्य रूप से भौतिक चीजों का अनुसरण करेंगे। ये चीजें उनके दिलों में सबसे पहले होंगी, और जैसे ही उचित परिवेश या परिस्थिति आएगी, उनकी इच्छाएँ बढ़ेंगी और अपना असर दिखाने लगेंगी। जैसे ही ये चीजें इस मुकाम पर पहुँचेंगी, वैसे ही उनका खुलासा हो जाएगा। अगर लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो देर-सवेर यह दिन उनके लिए आ ही जाएगा। जहाँ तक उन लोगों का सवाल है जो सत्य का अनुसरण करते हैं, सत्य समझते हैं, और जिनके लिए सत्य ही उनका आधार है, जब ये प्रलोभन और परिवेश उनके सामने आते हैं, तो वे उनके प्रति सही रवैया अपनाने, उन्हें अस्वीकार करने और परमेश्वर के प्रति अपनी गवाही में दृढ़ रहने में सक्षम होते हैं। जब ये प्रलोभन आते हैं, तो वे सकारात्मक और नकारात्मक को पहचानने में भी सक्षम होते हैं, और जानते हैं कि क्या यह कुछ ऐसा है जो वे चाहते हैं। यह वैसा ही है जैसे कुछ महिलाओं को उन पुरुषों में कोई दिलचस्पी नहीं होती जो उनका पीछा करते हैं, फिर चाहे उनके पास कितना भी पैसा क्यों न हो। वे दिलचस्पी क्यों नहीं लेतीं? क्योंकि उन पुरुषों का चरित्र अच्छा नहीं होता। कुछ महिलाएँ अपने साथी की खोज इसलिए नहीं करतीं क्योंकि कोई अमीर पुरुष उनका पीछा नहीं कर रहा होता। अगर कोई पैसे वाला आदमी उनका पीछा करता है और उन्हें 20,000 युआन की डिजाइनर ड्रेस खरीद कर देता है, तो वे आकर्षित हो जाएँगी, और अगर वह उन्हें 100,000 युआन की मिंक कोट या एक बड़ा डायमंड, एक बड़ा सुंदर घर और एक कार खरीद कर दे, तो वे तुरंत उससे शादी करने को तैयार हो जाएँगी। ऐसे में, जब ये महिलाएँ कहती थीं कि वे शादी नहीं करेंगी, तो क्या यह सच था या झूठ? यह झूठ था। इसलिए, ऐसे कई लोग हैं जो कहते तो हैं कि वे संसार का और संसार की संभावनाओं और सुखों का अनुसरण नहीं करते, मगर ऐसा सिर्फ तब तक के लिए है जब उनके सामने कोई प्रलोभन नहीं होता; परिवेश इसके अनुकूल नहीं होता। जैसे ही अनुकूल परिवेश होता है, वे उसमें गहरे धंस जाते हैं और खुद को बाहर नहीं निकाल पाते। यह वैसा ही है जिसका उदाहरण हमने अभी दिया। उस महिला ने खुद को परिस्थिति से बाहर नहीं निकाला। कुछ समय तक शहरी जीवन का आनंद लेने के बाद, वह खुद को भूल गई और अपने मार्ग से भटक गई। अगर उसे किसी महल में रखा जाता, तो क्या वह अपने माता-पिता को जल्द से जल्द आत्महत्या करने पर मजबूर नहीं कर देती, ताकि उसका नाम खराब न हो? इस तरह के लोग अपने आनंद, प्रतिष्ठा, विलासितापूर्ण जीवनशैली और उच्च स्तरीय जीवन के लिए किसी भी तरह की मूर्खतापूर्ण हरकत करने में सक्षम हैं। वे बेकार हैं और उनके चरित्र बहुत घटिया हैं। क्या इस तरह के लोगों ने कभी सत्य का अनुसरण किया है? (नहीं।) तो फिर उसने जो उपदेश दिए, वे कहाँ से आए? क्या उसके पास प्रचार करने के लिए धर्मोपदेश थे? उसने जो उपदेश दिए, वे धर्मोपदेश नहीं थे, बल्कि धर्म-सिद्धांत थे। वह धर्मोपदेश नहीं दे रही थी, बल्कि नाटक करके लोगों को गुमराह कर रही थी। उसने इतने सारे धर्मोपदेश दिए, तो वह अपनी समस्याओं का समाधान कैसे नहीं कर पाई? क्या वह जानती थी कि वह इस मुकाम तक पहुँच सकती है? क्या उसने चीजों को स्पष्टता से देखा था? उसने इतने सारे धर्मोपदेश दिए, फिर भी शहर में कुछ समय तक जीवन का आनंद लेने के बाद ही वह ऐसे प्रलोभनों पर काबू नहीं पा सकी, और अपनी गवाही में दृढ़ नहीं रह सकी। तो क्या उसने जो उपदेश दिए, वे धर्मोपदेश थे? जाहिर है कि वे धर्मोपदेश नहीं थे। यह तीसरा मामला है।
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