मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते और वे व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ विश्वासघात तक कर देते हैं (भाग चार) खंड तीन
2. अपनी सेवा में और अपने लिए काम करवाने में भाई-बहनों का इस्तेमाल करना
अपना कर्तव्य निभाते हुए मसीह-विरोधी जिन लाभों को पाने की कोशिश करते हैं वे उन चीजों तक ही सीमित नहीं हैं जिनकी चर्चा हम पहले कर चुके हैं—पैसा, भौतिक वस्तुएँ, भोजन और इस्तेमाल की चीजें—इन लाभों का दायरा बहुत बड़ा है। उदाहरण के लिए, जब मसीह-विरोधी कोई कर्तव्य निभाते हैं तो वे वह कर्तव्य निभाने के नाम पर भाई-बहनों का शोषण करते हैं, अपनी सेवा में और अपने लिए काम करवाने में भाई-बहनों का इस्तेमाल करते हैं और उन्हें आदेश देते हैं—क्या यह वो लाभ नहीं है जिसे पाने की कोशिश मसीह-विरोधी करते हैं? (है।) कुछ लोग कलीसिया के अगुआ बनने से पहले घर पर हमेशा अपना हर काम खुद ही करते हैं और ऐसा प्रतीत होता है कि उनकी कोई महत्वाकांक्षाएँ या बुरे इरादे नहीं हैं। लेकिन एक बार कलीसिया के अगुआ चुने जाने और रुतबा पाने के बाद क्या वे अभी भी सारा काम खुद ही करते हैं? एक बार रुतबा मिल जाने के बाद उन्हें लगता है कि वे अलग तरह के लोग हैं, परमेश्वर के घर में उनके साथ विशेष व्यवहार किया जाना चाहिए और उन्हें अपना “कर्तव्य” मिल-जुलकर पूरा करने के लिए “आम लोगों की शक्ति” का लाभ उठाना सीखना चाहिए; उनके घर का हर काम कलीसिया के कार्यक्षेत्र में आने वाला काम बन जाता है और वे अपने घर-परिवार के कामकाज और रोजमर्रा के काम भाई-बहनों के बीच बाँट देते हैं। उदाहरण के लिए, जब उनके पास अपने घर में कोई ऐसा काम होता है जिसे करने की जरूरत होती है तो वे भाई-बहनों से कहते हैं, “इन दिनों मैं कलीसिया के काम में काफी व्यस्त रहा। क्या तुम लोगों में से किसी के पास एक काम में मेरी मदद करने के लिए समय है?” चार-पाँच लोग स्वेच्छा से सहमति देते हैं और कुछ समय के बाद काम पूरा हो जाता है। ये अगुआ सोचते हैं, “कई लोग मिलकर काम को आसान बना देते हैं। अगुआ होना अच्छा है, मुझे बस कहना होता है और काम पूरा हो जाता है। आगे से जब कभी मेरे पास घर पर कोई ऐसा काम होगा जिसे करना जरूरी है तो मैं भाई-बहनों की मदद ले लूँगा।” यह इसी तरह चलता रहता है, वे कलीसिया के अगुआओं का ज्यादातर काम नहीं कराते, मगर वे अपने घर का काम कराने के लिए बड़ी संख्या में लोगों की व्यवस्था कर लेते हैं और वे इसके लिए कार्यसूची भी बना लेते हैं—वे कलीसिया के कितने “व्यस्त” अगुआ हैं! अगुआ बनने से पहले उनके पास घर पर करने के लिए उतना काम कभी नहीं होता था, मगर अगुआ बनने के बाद घर पर करने के लिए इतने सारे काम निकल आते हैं। कुछ भाई-बहन उनके लिए फसलें उगाते हैं, कुछ उनके खेतों में पानी देते हैं, कुछ उनके लिए सब्जियाँ उगाते हैं, कुछ निराई-छँटाई करते हैं, कुछ खाद डालते हैं और कुछ उनकी सब्जियाँ बेचकर उनकी मदद करते हैं और फिर एक भी पैसा अपने लिए रखे बगैर सारा पैसा उन्हें दे देते हैं। कलीसिया के अगुआ बनने के बाद उनका गृहस्थ जीवन फलने-फूलने लगता है; वे चाहे कुछ भी करें, लोग हमेशा उनका सहयोग और उनकी मदद करते हैं, और उनका हर एक शब्द बहुत प्रभावशाली होता है। वे बेहद खुश और संतुष्ट महसूस करते हैं और यही ज्यादा से ज्यादा सोचते हैं, “कलीसिया में अगुआ का यह ओहदा बहुत बढ़िया है और रुतबा होना शानदार बात है। अगर मेरे घर में कभी भोजन की कमी हुई तो मुझे बस कहने की देर है और लोग मुझे भोजन दे देंगे और इसके बदले में पैसे भी नहीं माँगेंगे। कितना आरामदायक जीवन है! मेरे विश्वास के कारण मुझे वाकई परमेश्वर का आशीष मिल रहा है। यह एक महान आशीष है और यह वास्तव में परमेश्वर का अनुग्रह है! परमेश्वर बहुत महान है; परमेश्वर का धन्यवाद!” जब भी कोई उनके लिए सेवा करता है या उनसे आदेश पाता है तो हमेशा “परमेश्वर का धन्यवाद करते हैं” और “इसे परमेश्वर से आया मानकर स्वीकारते हैं।” ये कलीसिया के मामूली अगुआ इस हद तक अपने पद का इस्तेमाल करते हैं—क्या तुम लोग ऐसा कर सकते हो? क्या तुम लोग ऐसा कुछ करने में सक्षम हो? लोग अगुआ बनने के लिए प्रतिस्पर्धा क्यों करते हैं? वे रुतबे के लिए प्रतिस्पर्धा क्यों करते हैं? अगर कोई लाभ प्राप्त न होना हो तो क्या कोई रुतबे के लिए प्रतिस्पर्धा करेगा? जिस रुतबे के लिए उन्होंने प्रतिस्पर्धा की अगर उसका मतलब कड़ी मेहनत करना और कोल्हू के बैल की तरह काम करना हो तो कोई इसकी परवाह नहीं करेगा। यह साफ तौर पर इसलिए है क्योंकि रुतबा होने पर इतने सारे लाभ प्राप्त होते हैं कि इसे पाने के लिए लोग जी-जान लगा देते हैं और प्रतिस्पर्धा करते हैं। कलीसिया का एक मामूली अगुआ बनने से उन्हें इतने बड़े फायदे मिलते हैं और यह उनके जीवन में बहुत बड़ी सुविधाएँ और बहुत से लाभ लेकर आता है—किस तरह का इंसान ऐसा व्यवहार करता है? क्या वे सत्य का अनुसरण करने वाले लोग हैं? क्या वे ऐसे लोग हैं जिनमें मानवता और जमीर है? क्या वे ऐसे लोग हैं जिनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय है? (नहीं।) उनका मानना है कि वे सभी के लिए और परमेश्वर के घर के लिए कलीसिया के अगुआ के तौर पर काम करते हैं और वे इसे कर्तव्य नहीं मानते हैं। उनका मानना है कि कलीसिया के अगुआ के रूप में वे जो भी काम करते हैं वह उनके घरेलू जीवन का त्याग करने के आधार पर ही किया जाता है, इसलिए भाई-बहनों को उनके द्वारा चुकाई गई कीमत की भरपाई करनी चाहिए। अगर उनके पास घर का काम करने के लिए समय नहीं है तो भाई-बहनों को उसे पूरा करने में मदद करनी चाहिए; अगर उनके पास खेतों में काम करने का समय नहीं है तो भाई-बहनों को उनके खेतों में जाकर उनके लिए इस तरह काम करना चाहिए मानो इसके लिए वे अपने कर्तव्य से बँधे हों। कलीसिया का अगुआ होने के नाते उन्होंने चाहे जो भी त्याग किया हो, भाई-बहनों को उसकी दोगुनी भरपाई करनी चाहिए। ये कुछ चीजें हैं जिनमें मसीह-विरोधी अपनी सेवा करवाने के लिए भाई-बहनों का उपयोग करते हैं और अपना कर्तव्य निभाने के दौरान उनके निजी जीवन में जिन्हें करने के लिए वे भाई-बहनों को आदेश देते हैं। एक बार जब मसीह-विरोधी अगुआ बन जाते हैं तो वे ऐसा अवसर बिल्कुल भी हाथ से नहीं जाने देंगे और खड़े होकर इन लाभों को अपनी उँगलियों से फिसलते हुए बिल्कुल भी नहीं देखेंगे। बल्कि वे एकदम इसके उलट काम करेंगे : वे अपने लिए काम करवाने में भाई-बहनों का इस्तेमाल करने के लिए हर पल का उपयोग करते हैं और हर अवसर का लाभ उठाते हैं और उनसे बोझ उठाने वाले जानवरों की तरह काम करवाते हैं। वे भाई-बहनों की मूर्खता और ईमानदारी का लाभ उठाते हैं और वे स्वेच्छा से अपना कर्तव्य निभाने और परमेश्वर के लिए कीमत चुकाने की भाई-बहनों की मानसिकता का लाभ उठाते हैं और उनसे अपनी सेवा करवाते हैं। इस बीच वे यह ढोंग भी करते हैं कि कुछ शब्द सत्य हैं और भाई-बहनों को शिक्षित करने के लिए उनका इस्तेमाल भी करते हैं, ताकि वे इस विचार को सीख सकें : अगुआ भी इंसान हैं, अगुआओं के भी परिवार हैं, अगुआओं को भी अपना जीवन जीना चाहिए और अगर किसी अगुआ के पास अपने घरेलू मामलों को देखने का समय नहीं है तो भाई-बहनों को इन मामलों को अपना कर्तव्य मानना चाहिए; इन कामों को करने के लिए अगुआ को उन्हें कहने की जरूरत नहीं होनी चाहिए, बल्कि अगुआ जिन कामों को करने में सक्षम नहीं है, उन्हें सक्रिय होकर और स्वेच्छा से वे काम करने चाहिए। कई भाई-बहन इस तरह की जादूगरी और प्रलोभन में आकर स्वेच्छा से इन अगुआओं की सेवा करते हैं। सत्ता और रुतबा पाकर मसीह-विरोधी अपना यही लक्ष्य हासिल करना चाहते हैं और यह उन कामों में से एक है जिसे वे करना चाहते हैं और यह उन लाभों में से एक है जिसे वे सत्ता और रुतबा पाकर हासिल करने की कोशिश करना चाहते हैं। क्या ऐसे बहुत-से लोग हैं? (हाँ।) ये लोग शैतान हैं। जो लोग सत्य से रहित हैं और जो सही मार्ग पर नहीं चलते, अगर उनके पास रुतबे का जरा-सा भी अंश हो तो वे ऐसी चीजें करने में सक्षम होते हैं। क्या ये लोग दयनीय हैं? उनके चरित्र के बारे में तुम क्या सोचते हो? क्या उनमें कोई जमीर या विवेक होता है?
कुछ कलीसियाओं में कुछ ऐसे भाई बहन होते हैं जो आम तौर पर अपने घरों में नहीं रहते, बल्कि लंबे समय तक अपनी कलीसिया के अगुआ के घर में ही रहते हैं। वे अक्सर कलीसिया के अगुआ के घर में ही क्यों रहते हैं? क्योंकि जब से इस अगुआ ने “अगुआ” का पदभार सँभाला है, उसके घर को एक दीर्घकालिक हाउसकीपर की जरूरत पड़ गई है। वे किसी बहन को चुनते हैं और वह बहन अगुआ के घर के लिए समर्पित हाउसकीपर बन जाती है। यह बहन हाउसकीपर बन जाती है तो फिर उसका कर्तव्य क्या होता है? वह अपने हिस्से का काम या कलीसिया से संबंधित काम नहीं कर पाती है, इसके बजाय अगुआ के परिवार की सभी पीढ़ियों की उनके रोजमर्रा के जीवन में सेवा करने में जुटी रहती है, और उसे लगता है कि अगुआ के परिवार के कामकाज की देखरेख करना उसके लिए पूरी तरह से न्यायोचित है और इस बारे में उसे कोई शिकायत या उसकी कोई धारणाएँ नहीं होतीं। यहाँ समस्या किसमें है? कलीसिया के अगुआओं के पास चाहे जितना भी काम हो या वे चाहे कितने भी लोगों की अगुआई करें, क्या वे वाकई इतने ज्यादा व्यस्त हैं? क्या वे वाकई अपने रोजमर्रा के कामकाज नहीं कर पाते हैं? अगर वे नहीं कर पाते हैं तो भी यह उनका अपना काम है। इसका किसी और से क्या लेना-देना है? अगर भाई-बहन लापरवाह या सुस्त हैं तो ऐसे अगुआ अपना रौब दिखाकर उनके साथ “सत्य पर संगति” करने के लिए इस मौके का लाभ उठाते हैं और इसी बात के कारण भाई-बहनों की काट-छाँट की जाती है—यहाँ चल क्या रहा है? जब उनके घर के बिस्तर गंदे हो जाते हैं तो भाई-बहनों को उन्हें धोना पड़ता है; जब उनका घर गंदा हो जाता है तो भाई-बहनों को उसे साफ करना पड़ता है और खाने के समय भाई-बहनों को खाना पकाना पड़ता है; ये अगुआ कामचोर बन जाते हैं और अगुआ के तौर पर ऐसे ही काम करते हैं। जब ऐसे लोगों में ये अभिव्यक्तियाँ और इस तरह की मानवता होती है तो क्या वे सत्य का अनुसरण करने में सक्षम होते हैं? (नहीं।) क्यों नहीं? (ऐसे लोगों में रत्ती भर भी मानवता नहीं होती और वे बेहद नीच होते हैं। सत्य में उनकी कोई रुचि नहीं होती।) अगर वे सत्य में रुचि नहीं रखते तो वे अगुआ ही क्यों बनते हैं? (वे प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागने और अपनी खूबियाँ दिखाने के लिए ऐसा करते हैं।) तुम इसे साफ तौर पर नहीं समझा सकते, है ना? किस तरह के लोग अपने लिए काम और अपनी सेवा करवाने के लिए भाई-बहनों का शोषण कर सकते हैं? क्या यह मसीह-विरोधियों के स्पष्ट लक्षणों में से एक नहीं है? सभी चीजों में सिर्फ अपना फायदा खोजना, केवल अपने नफे-नुकसान की चिंता करना और इस बात पर विचार न करना कि क्या इस तरह से काम करना सत्य के अनुरूप है, क्या इसमें मानवता है, क्या इससे परमेश्वर प्रसन्न होता है, क्या इससे भाई-बहनों को कोई लाभ या शिक्षा मिल सकती है—वे इन चीजों पर विचार नहीं करते, बल्कि सिर्फ अपने नफे-नुकसान के बारे में सोचते हैं और यह सोचते हैं कि क्या उन्हें मूर्त लाभ प्राप्त हो सकते हैं। मसीह-विरोधी इसी रास्ते पर चलते हैं और यही मसीह-विरोधियों का चरित्र है। यह एक किस्म का व्यक्ति है जिसके पास रुतबा है। कुछ लोगों के पास कोई रुतबा नहीं होता और वे साधारण काम करते हैं और जब वे कुछ योग्यताएँ हासिल कर लेते हैं तो वे भी दूसरों से अपनी सेवा करवाना चाहते हैं। कुछ लोग थोड़े जोखिम भरे काम करते हैं और वे भी अपनी सेवा करवाने के लिए दूसरों को आदेश देना चाहते हैं। कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो विशेष कर्तव्य निभाते हैं और जो अपने कर्तव्यों को बुनियादी शर्त, मोलभाव करने का साधन और ऐसी पूँजी मानते हैं जिसकी मदद से वे भाई-बहनों से अपनी सेवा करवाते हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोग ऐसे विशेष व्यावसायिक कौशल जानते हैं जिन्हें दूसरों ने सीखा या समझा नहीं है। जब वे परमेश्वर के घर में इन व्यावसायिक कौशलों से संबंधित कोई कर्तव्य निभाना शुरू करते हैं तो उन्हें लगता है कि वे दूसरे लोगों से अलग हैं, उन्हें परमेश्वर के घर में एक महत्वपूर्ण पद पर रखा जा रहा है, वे अब उच्च पदों पर हैं और खास तौर पर उन्हें लगता है कि उनका मूल्य दोगुना हो गया है और अब वे सम्माननीय हैं। नतीजतन, उन्हें लगता है कि कुछ ऐसे काम हैं जो उन्हें खुद करने की जरूरत नहीं है, जब उनके लिए खाना लाने या उनके कपड़े धोने जैसे रोजमर्रा के कामों की बात आती है तो दूसरों को बिना मेहनताने के उनकी सेवा करने का आदेश देना स्वाभाविक है। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो भाई-बहनों से अपना कोई न कोई काम करवाने के लिए यह बहाना बनाते हैं कि वे अपने कर्तव्य में व्यस्त हैं। उन कार्यों के अलावा जो नितांत रूप से उन्हें खुद ही करने चाहिए, बाकी सब काम जो वे दूसरों से करवा सकते हैं या दूसरों से करवाने का आदेश दे सकते हैं, वे दूसरों से ही करवाते हैं। ऐसा क्यों है? वे सोचते हैं, “मेरे पास पूँजी है, मैं सम्माननीय हूँ, मैं परमेश्वर के घर में एक दुर्लभ प्रतिभा हूँ, मैं एक विशेष कर्तव्य निभाता हूँ और मैं मुख्य रूप से परमेश्वर के घर द्वारा विकसित किया जाने वाला व्यक्ति हूँ। तुम लोगों में से कोई भी मेरे जितना अच्छा नहीं है, तुम सब मुझसे निचले स्तर पर हो। मैं परमेश्वर के घर में विशेष योगदान दे सकता हूँ, जबकि तुम लोग नहीं दे सकते। इसलिए तुम लोगों को मेरी सेवा करनी चाहिए।” क्या ये अतिशय और बेशर्म माँगें नहीं हैं? हर कोई अपने दिल में इन माँगों को पालता है, लेकिन बेशक मसीह-विरोधी बेरुखी और बेशर्मी से इन चीजों की और भी ज्यादा माँग करते हैं, और चाहे तुम उनके साथ सत्य पर कितनी भी संगति करो, वे उन्हें नहीं छोड़ेंगे। आम लोगों में भी मसीह-विरोधियों की ये अभिव्यक्तियाँ होती हैं और अगर उनमें थोड़ी-सी प्रतिभा है या वे थोड़ा-बहुत योगदान देते हैं तो उन्हें लगता है कि वे कुछ विशेष व्यवहार का आनंद लेने के हकदार हैं। वे अपने कपड़े और मोजे खुद नहीं धोते, बल्कि दूसरों से यह काम करवाते हैं और वे कुछ अनुचित माँगें रखते हैं जो मानवता के विरुद्ध होती हैं—उनमें विवेक की बहुत कमी होती है! लोगों के ये विचार और माँगें तर्कसंगतता के दायरे में नहीं आती हैं; पहले, पैमाने के निचले छोर पर देखें तो वे मानवता और जमीर के मानकों के अनुरूप नहीं हैं और पैमाने के ऊपरी छोर पर देखें तो वे सत्य के अनुरूप नहीं हैं। इन सभी अभिव्यक्तियों को अपने खुद के फायदों के लिए प्रयास करने वाले मसीह-विरोधियों की श्रेणी में रखा जा सकता है। भ्रष्ट स्वभावों वाला हर व्यक्ति इन चीजों को करने में सक्षम है और वे इन्हें करने की हिम्मत भी करते हैं। अगर किसी व्यक्ति के पास थोड़ी-सी प्रतिभा और पूँजी है और वह कुछ योगदान देता है तो वह दूसरों का शोषण करना चाहता है, वह अपने कर्तव्य निर्वहन के अवसर का उपयोग अपने खुद के फायदों के लिए करना चाहता है, वह अपने लिए बनी-बनाई चीजें चाहता है और दूसरों को अपनी सेवा करने का आदेश देने से मिलने वाली खुशी और व्यवहार का आनंद लेना चाहता है। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो अपना कर्तव्य निभाने के लिए अपना परिवार और नौकरी छोड़ देते हैं और इस दौरान उन्हें कोई छोटी-मोटी बीमारी हो जाती है तो इसी वजह से वे भावुक हो जाते हैं और शिकायत करते हैं कि कोई भी उनकी चिंता या देखभाल नहीं करता है। तुम अपने लिए अपना कर्तव्य निभा रहे हो, तुम अपना खुद का कर्तव्य निभा रहे हो और अपनी खुद की जिम्मेदारी पूरी कर रहे हो—इसका दूसरे लोगों से क्या लेना-देना है? कोई व्यक्ति जो भी कर्तव्य निभाता है, वह कभी किसी और के लिए या किसी और की सेवा में नहीं किया जाता है, और इसलिए किसी पर भी बिना किसी मेहनताने के दूसरों की सेवा करने या दूसरों का आदेश मानने का कोई दायित्व नहीं है। क्या यह सत्य नहीं है? (सत्य है।) भले ही परमेश्वर यह चाहता है कि लोग प्रेमपूर्ण हों और दूसरों के प्रति धैर्यवान और सहनशील हों, लेकिन कोई व्यक्ति दूसरों से व्यक्तिगत रूप से ऐसा करने की माँग नहीं कर सकता और ऐसा करना अनुचित है। अगर कोई व्यक्ति तुम्हारे प्रति सहनशील और धैर्यवान हो सकता है और तुम्हारी अपेक्षा के बिना ही तुम्हारे प्रति प्यार दिखा सकता है तो यह उस व्यक्ति पर निर्भर है। लेकिन अगर भाई-बहन तुम्हारी सेवा इसलिए करते हैं क्योंकि तुम उनसे इसकी माँग करते हो, अगर तुम उनको जबरन आदेश देते हो और उनका शोषण करते हो या तुम उनकी आँखों में धूल झोंक कर उनसे तुम्हारी सेवा करवा रहे हो तो समस्या तुम्हीं में है। कुछ लोग अपना कर्तव्य निभाने के अवसर का लाभ उठाते हैं और अक्सर कुछ धनवान भाई-बहनों से चीजें ऐंठने के लिए इसका बहाना बनाते हैं, उनसे अपने लिए कोई न कोई चीज खरीदने और सेवाएँ प्रदान करने को कहते हैं। उदाहरण के लिए, अगर उन्हें कुछ और कपड़ों की जरूरत होती है तो वे किसी भाई या बहन से कहते हैं, “तुम कपड़े बना सकते हो, है ना? जाओ, मेरे पहनने के लिए कुछ बना लाओ।” वह भाई या बहन कहती है, “तो फिर अपना बटुआ निकालो। तुम वस्त्र सामग्री खरीदो और मैं तुम्हारे लिए कुछ बना दूँगी।” वे अपना पैसा नहीं निकालते, बल्कि भाई या बहन को अपने लिए सामग्री खरीदने के लिए मजबूर करते हैं—क्या इस कृत्य की प्रकृति भ्रामक नहीं है? भाई-बहनों के बीच संबंधों का लाभ उठाना, उनकी पूँजी का शोषण करना, भाई-बहनों से सभी प्रकार की सेवाओं और व्यवहार की माँग करने के लिए अपने कर्तव्य निर्वहन के अवसर का लाभ उठाना, भाई-बहनों को अपने लिए काम करने का आदेश देना—ये सभी मसीह-विरोधियों के घटिया चरित्र की अभिव्यक्तियाँ हैं। क्या ऐसे लोग सत्य का अनुसरण कर सकते हैं? क्या वे बिल्कुल भी बदल सकते हैं? (नहीं।) इस तरह से मेरी संगति सुनकर शायद कुछ लोगों को यह एहसास होगा कि ये चीजें करना बुरी बात है और वे खुद पर थोड़ा लगाम लगाने में सक्षम होंगे, लेकिन क्या खुद पर लगाम लगाना सत्य खोजने और इसका अभ्यास करने के बराबर है? खुद पर लगाम लगाना सिर्फ एक एहसास पर पहुँचना है और अपनी छवि और झूठे अभिमान के प्रति विचारशील होना है। मुझसे यह गहन-विश्लेषण सुनने के बाद ये लोग समस्या की गंभीरता को देख पाते हैं और यह एहसास कर पाते हैं कि वे दोबारा नहीं फिसल सकते और अगर उन्होंने अपना भेद भाई-बहनों को पहचानने दिया तो उन्हें उजागर कर दिया जाएगा और ठुकरा दिया जाएगा। उनका एहसास केवल इस बिंदु तक ही होता है, लेकिन उनकी इच्छाओं और लालच को उनके दिलों से नहीं निकाला जा सकता।
कुछ लोग सोचते हैं, “मैं परमेश्वर के घर के लिए प्रयास कर रहा हूँ, मैंने परमेश्वर के घर के लिए बहुत-से योगदान दिए हैं, मैं वह कर्तव्य निभाता हूँ जिसमें कोई भी मेरी जगह नहीं ले सकता। जब मुझे कोई जरूरत होती है तो मेरी जरूरतों को पूरा करने में मेरी मदद करने के लिए भाई-बहन और परमेश्वर का घर अपने कर्तव्य से बँधे हैं। उन्हें हर समय बिना शर्त और बिना मेहनताने के मेरी सेवा करनी चाहिए।” क्या यह सोचने का शर्मनाक तरीका नहीं है? क्या यह एक नीच चरित्र की अभिव्यक्ति नहीं है? उदाहरण के लिए, हर कोई कभी न कभी बीमार पड़ता है, लेकिन जब कुछ लोग बीमार होते हैं तो वे दूसरे लोगों को इस बारे में बताते नहीं फिरते हैं, बल्कि अपना कर्तव्य निभाना जारी रखते हैं। कोई भी उनके बारे में नहीं जानता या उनकी परवाह नहीं करता और वे निजी तौर पर शिकायत नहीं करते या अपने कर्तव्य निर्वहन में देरी नहीं करते। फिर कुछ लोग बीमार न होकर भी बीमार होने का बहाना करते हैं, वे महारानियों या रईसों जैसा व्यवहार करते हैं, लोगों से अपनी सेवा करवाने के लिए हर तरीका अपनाते हैं और विशेष व्यवहार पाने के लिए हर मुमकिन कोशिश करते हैं। वे बीमार न होने पर भी बीमार होने का बहाना करते हैं और जब वे वास्तव में बीमार पड़ते हैं तो यह और भी अधिक परेशानी का सबब बन जाता है क्योंकि क्या पता कितने लोग उनके हाथों से कष्ट उठाएँगे और न जाने कितने लोगों को उनके द्वारा आदेश दिया जाएगा। यह ऐसे व्यक्ति के बीमार पड़ने पर सभी लोगों पर टूटने वाला दुर्भाग्य है; कुछ लोग उनके लिए चिकन सूप बनाते हैं, कुछ लोग उनकी मालिश करते हैं, कुछ उन्हें खिलाते हैं तो कुछ लोग उन्हें टहलाने में मदद करते हैं—क्या बहुत-से लोग कष्ट नहीं उठाते हैं? (उठाते हैं।) शुरुआत में यह बस एक साधारण-सी, मामूली बीमारी थी, लेकिन उन्हें इसे एक गंभीर, जानलेवा बीमारी होने का ढोंग करना है—उन्हें ढोंग करने की जरूरत क्यों है? वे भाई-बहनों की आँखों में धूल झोंककर उनसे अपनी सेवा करवाने के लिए ऐसा करते हैं, ताकि वे उनके लिए किसी भी तरह की सेवा-टहल कर सकें। क्या ये लोग बेशर्म नहीं हैं? (हैं।) क्या इस तरह के बहुत-से लोग होते हैं? क्या तुम सभी लोग ऐसे नहीं हो? (मैंने अभी तक खुद में इसे नहीं पहचाना है।) अगर तुमने इसे नहीं पहचाना है तो इससे साबित होता है कि तुम लोग अपने रोजमर्रा के जीवन में आम तौर पर अपने व्यवहार को नहीं परखते, तुम लोग अपने विचारों और प्रकृति सार को नहीं परखते और तुम परमेश्वर की जाँच-पड़ताल को स्वीकार नहीं करते। कुछ लोग अपने कर्तव्य निभाने के दौरान थोड़े ज्यादा थक जाते हैं और रात की नींद भी गँवा देते हैं और वे इसे एक भयानक स्थिति तक पहुँचा देते हैं। अगली सुबह जब वे सोकर उठते हैं तो कराहते हैं, “बीती रात मैं एक पल भी नहीं सो पाया। बीते दिनों मैं अपने कर्तव्य में इतना अधिक व्यस्त रहा कि ठीक से नींद भी नहीं पूरी कर सका। जरा कोई जल्दी से मेरी मालिश कर दो!” वास्तव में उन्होंने पूरी छह घंटे की नींद ली थी। उनकी जो भी समस्याएँ होती हैं, वे हमेशा इसका दोष अपने कर्तव्य पर मढ़ देते हैं; चाहे वे थके हुए हों, पीड़ा झेल रहे हों या बीमार हों और असहज महसूस कर रहे हों, वे हमेशा इन बातों का दोष अपने कर्तव्य पर मढ़ देते हैं। वे अपने कर्तव्य पर दोष क्यों मढ़ते हैं? यह सिर्फ थोड़े लाभ पाने और सभी की सहानुभूति पाने के लिए किया जाता है, ताकि वे लोगों से सेवा करवाने की अपनी माँग को सही ठहरा सकें। ये किस तरह के लोग हैं जो हमेशा महाराजाओं और महारानियों जैसा व्यवहार पाना चाहते हैं और दूसरों से अपनी सेवा करवाना चाहते हैं? ये नीच चरित्र वाले और घृणित लोग हैं। जब कुछ लोग थोड़े बीमार महसूस करते हैं और कभी-कभार खाना भी नहीं खा पाते हैं तो वे ऐसा दिखाते हैं मानो यह बहुत गंभीर समस्या हो, वे काफी बखेड़ा खड़ा कर देते हैं और फौरन किसी से अपनी मालिश करने के लिए कहते हैं। जब मालिश से उन्हें थोड़ा दर्द होता है तो जोर से चिल्ला उठते हैं, जिसका अर्थ होता है : “मालिश कराने में भी मुझे काफी पीड़ा हो रही है। अगर परमेश्वर मुझे कोई इनाम नहीं देता और मुझे पूर्ण नहीं बनाता तो मैं वाकई बहुत कुछ खो दूँगा!” जब वे थोड़ा कष्ट सहते हैं और कीमत चुकाते हैं तो पूरी दुनिया के सामने इसका ऐलान करना चाहते हैं ताकि धरती पर सभी को इसका पता चल जाए। क्या तुम अपना कर्तव्य अपने लिए नहीं निभाते? क्या तुम परमेश्वर के समक्ष अपना कर्तव्य नहीं निभाते? तो फिर किसलिए लोगों के बीच अपनी पीड़ा का ऐलान करते हो? क्या यह सतही नहीं है? ऐसे लोग नीच चरित्र वाले और बेहद घृणित होते हैं। ये लोग और किन तरीकों से नीच होते हैं? इस उम्मीद में कि लोग यह जान सकें कि वे दूसरों से अलग और बहुत कीमती हैं और उन्हें काफी देखभाल और सुरक्षा की जरूरत है, वे कुछ विशेष आदतें और तरकीबें भी दिखाते हैं। उदाहरण के लिए, जब कोई कहता है कि उसे भूख नहीं लगती है और वह कुछ भी नहीं खा सकता है तो ऐसा व्यक्ति अपना पेट पकड़कर कहेगा कि उसका पेट भी खराब है, लेकिन वह अपना कर्तव्य निभाने में लगा रहता है और किसी को जल्दी से पेट ठीक करने की कोई दवा लाने का आदेश देता है। एक और व्यक्ति था जिससे मैंने कहा, “देखो, मैं केवल थोड़ा-थोड़ा ही खा सकता हूँ और मेरा पेट ठंडा खाना और ठंडे पेय पदार्थ बरदाश्त नहीं कर पाता है।” इस व्यक्ति ने मेरी बात सुनकर जवाब दिया, “तुम्हारा पेट ठंडी चीजें बरदाश्त नहीं कर पाता है? मेरे पेट की भी यही हालत है।” मैंने पूछा, “तुम्हारा पेट ठंडी चीजें कैसे नहीं बरदाश्त कर पाता है?” तो उसने कहा, “जैसे ही मुझे ठंड लगती है, मेरे पेट में दर्द होने लगता है; यह ठंडी चीजें बरदाश्त नहीं कर पाता है।” ऐसा कहते हुए, उसने एक केला छीला और उसे कुछ ही निवालों में खा गया। मैंने कहा, “तुम्हारा पेट वाकई ठंडी चीजें बिल्कुल भी बरदाश्त नहीं कर पाता होगा, क्योंकि तुम उस केले को कुछ ही निवालों में खा गए। क्या तुम्हारा पेट वास्तव में ठंडी चीजें बरदाश्त नहीं कर पाता है?” क्या ऐसे लोग बेशर्म और तर्कहीन नहीं हैं? अगर किसी व्यक्ति की सामान्य मानवता में तार्किकता का और शर्म की भावना का अभाव है तो वह बिल्कुल भी इंसान नहीं है, बल्कि एक जानवर है। जानवर सत्य को नहीं समझ सकते और उनमें सामान्य मानवता की सत्यनिष्ठा, गरिमा, जमीर और विवेक नहीं होता। चूँकि इन लोगों में कोई शर्म या गरिमा नहीं होती, इसलिए जब वे थोड़ा-बहुत कर्तव्य निभाते हैं और थोड़ी-बहुत कठिनाई झेलते हैं तो वे पूरी दुनिया में इसका ऐलान करना चाहते हैं, ताकि हर कोई उनके प्रयासों को स्वीकार करे, उन्हें प्रशंसा की भावना से देखे और ताकि परमेश्वर उन्हें विशेष व्यवहार दे, उनके साथ दयालुता से पेश आए और उन्हें आशीष दे। साथ ही, किसी को तुरंत उनकी सेवा करनी चाहिए, उनकी माँगों पर प्रतिक्रिया देनी चाहिए और उनके लिए हमेशा मौजूद रहना चाहिए। जब उन्हें प्यास लगती है तो किसी को उनके लिए चाय बनानी चाहिए; जब उन्हें भूख लगती है तो किसी को उन्हें खाना परोसना चाहिए। उन्हें हमेशा कोई न कोई चाहिए जो उनकी सेवा करे, जो वे कहते हैं वो करे और उनकी जरूरतों को पूरा करे। यह ऐसा है जैसे उनका शरीर किसी और के लिए पैदा हुआ हो और उन्हें स्वाभाविक रूप से किसी की जरूरत होती है जो उनकी सेवा करे; ऐसा लगता है कि अगर कोई उनकी सेवा न करे तो वे खुद की देखभाल करने में असमर्थ और अक्षम हैं। जब उनके पास कोई नहीं होता जिसे कह सकें कि क्या करना है या जिसे अपने लिए काम और अपनी सेवा करने का आदेश दे सकें तो वे अकेलापन और खालीपन महसूस करते हैं और उन्हें लगता है कि जीवन का कोई अर्थ या उम्मीद नहीं है। जब उन्हें दूसरों से अपनी सेवा करवाने का अवसर और बहाना मिल जाता है तो वे संतुष्ट और खुश महसूस करते हैं, मानो वे सातवें आसमान पर जी रहे हों। उन्हें लगता है कि जीवन इतना अद्भुत है, परमेश्वर में आस्था इतनी अद्भुत है, परमेश्वर में आस्था का यही अर्थ है और एक विश्वासी को इसी प्रकार परमेश्वर में विश्वास रखना चाहिए। कर्तव्य के बारे में उनकी समझ यह है कि इसका अर्थ दूसरों से सेवा करवाने और दूसरों को स्वतंत्र रूप से आदेश देने में सक्षम होने के आधार पर प्रयास करना और अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करना है—यही उनका कर्तव्य है। उनका मानना है कि उन्हें अपने कर्तव्य के लिए हमेशा इनाम मिलना चाहिए, उन्हें हमेशा कुछ न कुछ प्राप्त होना चाहिए और कुछ न कुछ पाने की कोशिश करनी चाहिए। अगर वे पैसा या भौतिक चीजें पाने की कोशिश नहीं कर रहे हैं तो वे दैहिक सुख और खुशियाँ पाने की कोशिश कर रहे होते हैं और कम से कम उनका शरीर आनंद और आराम की स्थिति में होना चाहिए, तभी वे खुशी महसूस करेंगे, तभी उनके पास अपना कर्तव्य निभाने की ऊर्जा होगी और वे इसे थोड़ी निष्ठा के साथ कर पाएँगे। क्या ऐसे लोगों को सत्य की विकृत समझ है या वे अपने घटिया चरित्र के कारण सत्य स्वीकार नहीं करते हैं? (उनका चरित्र घटिया है, इसलिए वे सत्य स्वीकार नहीं करते हैं।) ये लोग पूरी तरह से छद्म-विश्वासी हैं, वे मसीह-विरोधियों के पक्के अनुयायी हैं और मसीह-विरोधियों का मूर्त रूप हैं।
परमेश्वर के घर में कुछ ऐसे अभिनेता हैं जिन्हें बाहर की दुनिया में रहकर अभिनय करने में आनंद आता था और उन्हें अभिनय का पेशा पसंद था, लेकिन वे वहाँ अपनी महत्वाकांक्षाएँ पूरी नहीं कर पाए। अब वे परमेश्वर के घर में आए हैं और आखिरकार उनकी इच्छाएँ पूरी हुई हैं : वे उस पेशे में काम कर सकते हैं जो उन्हें पसंद है, उनके दिल अवर्णनीय खुशी से भरे हुए हैं और साथ ही यह अवसर देने के लिए वे परमेश्वर का धन्यवाद करते हैं। इनमें से एक व्यक्ति को मुख्य किरदार की भूमिका निभाने का सौभाग्य मिला, फिर उसे लगा कि वह एक प्रतिष्ठित और योग्य व्यक्ति है और उसे अपनी प्रतिष्ठा और योग्यता की खातिर कुछ करना चाहिए। उसने देखा कि दुनिया में बड़ी हस्तियाँ और सितारे क्या करते थे, उन्होंने कैसे अभिनय किया, उनकी अभिनय-शैली क्या थी और उनकी जीवनशैली कैसी थी, और वह उन लोगों की नकल उतारने लगा, उसका मानना था कि गुणवत्ता और कुलीनता वाला जीवन जीना इसी को कहते हैं। तो जिस पल से उसे मुख्य किरदार की भूमिका मिली और वह एक “सितारा” बन गया, वह रौब दिखाने लगा। वह किस हद तक रौब दिखाने लगा? एक बार एक छोटी-सी घटना घटी जिससे इस समस्या को समझा जा सकता है। जब टीम के सभी लोग फिल्मांकन शुरू करने को तैयार थे, इस विशेष “सितारे” की एक भौंह अच्छे से नहीं बन पाई थी और सब लोगों को उसका इंतजार करना पड़ा, उसके आसपास घूमना पड़ा और उसकी सेवा करनी पड़ी। दस मिनट बीत गए, फिर बीस मिनट बीत गए और उस सितारे को लगा कि उसकी भौंह बहुत अच्छे से नहीं बनी है तो उसने मेकअप आर्टिस्ट को इसे साफ करके फिर से बनाने को कहा। एक घंटा बीत गया, सभी कलाकार और टीम के लोग इस “सितारे” का इंतजार कर रहे थे कि उसकी भौंह अच्छे से बनकर तैयार हो जाए तो वे लोग फिल्मांकन शुरू करें—हर किसी को इस व्यक्ति की सेवा करते हुए उसके आसपास घूमते रहना पड़ा। यह किस किस्म का व्यक्ति है? क्या वह सामान्य इंसान है? क्या वह मानवता वाला इंसान है? नहीं, वह शैतान के शिविर का इंसान है, वह शैतान का है और वह परमेश्वर के घर का सदस्य नहीं है। क्या परमेश्वर के घर में सितारे होते हैं? परमेश्वर के घर में सितारे नहीं होते, केवल भाई-बहन होते हैं; वहाँ केवल अलग-अलग कर्तव्य होते हैं, उच्च और निम्न पदों का अंतर नहीं होता। तो फिर इस व्यक्ति ने किस आधार पर भाई-बहनों से अपने लिए इंतजार करवाया? एक बात तो पक्की है, उसे लगा कि वह दूसरे लोगों से अधिक महत्वपूर्ण है और उसका कर्तव्य दूसरे लोगों के कर्तव्यों से अधिक वजनदार है, उसके बिना अभिनय को फिल्माया नहीं जा सकता और उसके बिना दूसरे लोगों का कर्तव्य निभाना व्यर्थ है। इसलिए सभी को उसकी सेवा करनी होगी, कीमत चुकानी होगी और उसके इंतजार में धैर्य बरतना होगा और इसके लिए किसी को शिकायत नहीं करनी चाहिए। मानवता का अभाव होने के अलावा, ऐसे लोग इस तरह का व्यवहार करने के सिद्धांत कहाँ से प्राप्त करते हैं? क्या उनके सिद्धांत सत्य से और परमेश्वर के वचनों से आते हैं या वे मनुष्य के भ्रष्ट स्वभावों से आते हैं? (मनुष्य के भ्रष्ट स्वभावों से।) शैतान के शिविर से आए लोगों के पास न केवल शैतान के भ्रष्ट स्वभाव होते हैं, बल्कि लोगों के समूह के भीतर उनके क्रियाकलाप, व्यवहार और अभिव्यक्तियाँ भी घिनौनी होती हैं। वे घिनौनी क्यों होती हैं? वे हमेशा स्थिति पर अपनी पकड़ बनाए रखना चाहते हैं, दूसरे लोगों को प्रभावित करना चाहते हैं और अन्य लोगों को अपने इर्द-गिर्द घुमाना चाहते हैं और खुद को सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति बनाना चाहते हैं। ऐसा करके वे साफ तौर पर खुद को बाकी सबसे ऊँचे स्थान पर रखते हैं; वे दूसरों से ऊपर उठना और सभी पर नियंत्रण करना चाहते हैं। क्या लोगों को यह सब करना चाहिए? (नहीं।) ऐसा कौन करता है? (शैतान।) यह शैतान का ही काम है। उन सत्यों में जहाँ परमेश्वर लोगों से अपने कर्तव्य निभाने की अपेक्षा करता है, क्या ऐसी कोई अपेक्षा है कि लोग अपने कर्तव्य निभाते हुए स्थिति पर अपनी पकड़ बनाएँ और सभी के विचारों और व्यवहार को नियंत्रित करें? (नहीं।) तो फिर यह कहाँ से आता है? यह एक शैतानी प्रकृति है जिसके साथ लोग पैदा होते हैं। लोग शैतान के हैं और उनके पास यह प्रकृति जन्म से ही मौजूद है। उन्हें इसे सीखने की कोई जरूरत नहीं है, उन्हें ऐसे व्यक्ति की जरूरत नहीं है जो यह सब सिखाए और उनके साथ सत्य पर तुम्हारी संगति चाहे जैसी भी हो, वे इस चीज को नहीं छोड़ेंगे। एक और व्यक्ति था जिसके कुछ रूखे और बेतरतीब बाल थे और मंच पर प्रस्तुति देने के लिए आने से पहले इन्हें ठीक से सँवारा नहीं गया था। रूप-रंग के मामले में वह ठीक ही लगता था, फिर भी समय पर प्रस्तुति देने के लिए वह मंच पर नहीं उतरा; भाई-बहनों ने उससे बहुत अनुनय-विनय की, पर कोई फायदा नहीं हुआ। वह खुद को सितारा मानता था, प्रभावशाली व्यक्ति मानता था; उसने इन थोड़े से रूखे और बेतरतीब बालों की खातिर हर किसी को कीमत चुकाने और अपना समय खपाने पर मजबूर कर दिया और हर किसी को अकेले उसकी सेवा करनी पड़ी। क्या सामान्य मानवता वाले व्यक्ति की यह अभिव्यक्ति होनी चाहिए? इस तरह के व्यवहार की प्रकृति क्या है? क्या वह रौब नहीं दिखा रहा था? वह जिम्मेदार नहीं था और सभी तर्कों को अनदेखा कर रहा था। जहाँ तक इस व्यक्ति की बात है, किसी का भी कर्तव्य उसके जितना महत्वपूर्ण नहीं था और हर किसी को उसकी सेवा करनी पड़ी। उसने सोचा, “अगर इन दो लटों को सँवारने में पूरा दिन भी लग जाता है तो तुम लोगों को दिन भर मेरे लिए इंतजार करना होगा; अगर इसमें दो दिन लगते हैं तो तुम लोगों को दो दिन तक इंतजार करना होगा; और अगर इसमें पूरा जीवन लग जाता है तो तुम लोगों को जीवन भर इंतजार करना होगा। परमेश्वर के घर के कार्य और उसके हितों का क्या—मेरे हित सबसे पहले आते हैं। अगर मैं अपने बालों को सँवार नहीं सकता तो क्या कैमरे के सामने जाने पर मेरी छवि खराब नहीं होगी? मेरी छवि बहुत महत्वपूर्ण है। परमेश्वर के घर के हित कोई मायने नहीं रखते!” यह व्यक्ति किस तरह की चीज है? इस तरह का व्यक्ति यह भी कहेगा, “मैं परमेश्वर से प्रेम करता हूँ, मैं परमेश्वर की गवाही देता हूँ, मैं परमेश्वर के लिए अपना कर्तव्य निभाता हूँ, और मैं सब कुछ त्याग देता हूँ।” क्या यह सरासर झूठ नहीं है? वे एक या दो लटों को सँवारने जैसी मामूली चीज नहीं छोड़ सकते तो वे क्या छोड़ सकते हैं? वे क्या त्याग सकते हैं? उनका सारा त्याग झूठा है! ऐसे लोग पूरी तरह से तर्कहीन हैं, उनमें जमीर नहीं है, वे घटिया चरित्र के लोग हैं और वे सत्य से प्रेम करने में और भी पीछे हैं। चूँकि उनकी मानवता स्तरीय नहीं है, इसलिए कोई भी उनके साथ सत्य की बात नहीं करेगा, वे इसके लायक नहीं हैं और उनका चरित्र स्तरीय नहीं है। और ऐसी नीच मानवता के साथ क्या उनके साथ सत्य की बात करना सूअर या कुत्ते के साथ सत्य की बात करने जैसा नहीं होगा? जब उनमें कुछ मानव के समान होगा और वे मनुष्य की तरह बोल सकेंगे, तभी लोग उनके साथ सत्य की बात करेंगे, लेकिन अभी वे इसके लायक नहीं हैं। ऐसे बहुत से लोग हैं, काफी संख्या में हैं। तो कुछ लोग इन चीजों को अभिव्यक्त क्यों नहीं करते? ऐसा इसलिए है क्योंकि उन्होंने अभी तक किसी अवसर का लाभ नहीं उठाया है; ऐसा केवल इसलिए है क्योंकि उनकी काबिलियत और प्रतिभा बहुत ही साधारण है और उन्हें सुर्खियों में आने का मौका नहीं मिला है और उन्होंने कुछ पूँजी प्राप्त नहीं की है, लेकिन अपने दिलों में वे योजनाएँ बना रहे हैं, उनकी योजनाएँ अभी भी प्रारंभिक अवस्था में हैं। इसीलिए उन्होंने इस तरह का खुलासा नहीं किया है। हालाँकि, ऐसा खुलासा न होने का मतलब यह नहीं है कि उनमें ऐसी प्रकृति नहीं है। यदि तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते और मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलते हो तो देर-सवेर एक दिन ऐसा आएगा जब तुमसे यह खुलासा होगा। तुम तुम ही हो और मानवता रहित होना मानवता रहित होना ही है; तुम ढोंग करके या क्योंकि तुममें कोई प्रतिभा नहीं है और तुम्हारी काबिलियत अच्छी नहीं है, इस वजह से तुम मानवता वाले व्यक्ति नहीं बन सकते। इसलिए केवल एक ही रास्ता है : जब कोई व्यक्ति सत्य स्वीकार सकता है और काट-छाँट किए जाने को स्वीकार सकता है तो उसके चरित्र में कुछ हद तक सुधार हो सकता है। जब वह इन तथ्यों का सामना कर सकता है, इन तथ्यों को सही तरीके से समझ सकता है और फिर अपने व्यवहार और अंतरतम हृदय की बार-बार जाँच-परख करने में सक्षम है तो वह बेहतर बन सकता है और खुद को थोड़ा संयमित कर सकता है। खुद को थोड़ा संयमित करके क्या उद्देश्य हासिल किया जा सकता है? तुम खुद को इतना अधिक शर्मिंदा नहीं करोगे, तुम्हारी प्रतिष्ठा थोड़ी बेहतर हो जाएगी, लोग तुमसे घृणा नहीं करेंगे, परमेश्वर तुमसे घृणा नहीं करेगा और इस तरह तुम्हें अभी भी परमेश्वर द्वारा बचाए जाने का मौका मिल सकता है। क्या यह वो न्यूनतम विवेक नहीं है जो एक मनुष्य के पास होना चाहिए? क्या किसी ऐसे व्यक्ति के लिए जिसके पास थोड़ा भी जमीर और विवेक हो, इस तरह से अभ्यास करना और प्रवेश करना आसान नहीं है?
जब तुम लोग मुझे इस तरह के लोगों के बारे में बात करते हुए सुनते हो तो तुम काफी सहज महसूस करते हो, लेकिन अगर मैं तुममें से कुछ लोगों के बारे में बात करूँ तो तुम लोग कैसा महसूस करोगे? क्या तुम सामान्य प्रतिक्रिया दोगे? मैं तुम लोगों को बता दूँ, अगर तुम स्वभावगत बदलाव प्राप्त करना चाहते हो और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना चाहते हो तो तुम्हें एक के बाद एक परीक्षा पास करनी होगी। इन मामलों को कम मत आँको; अगर तुम्हारी मानवता स्तरीय नहीं है तो न केवल भाई-बहन तुमसे घृणा करेंगे, बल्कि परमेश्वर भी तुम्हें पूर्ण नहीं करेगा या बचाएगा नहीं। परमेश्वर द्वारा किसी को बचाए जाने की सबसे बुनियादी शर्तें हैं कि उस व्यक्ति में मानवता, विवेक और जमीर होना चाहिए और उसमें शर्मो-हया होनी चाहिए। जब ऐसा कोई व्यक्ति परमेश्वर के सामने आकर उसके वचन सुनता है तो परमेश्वर उसे रोशन करेगा, उसकी अगुआई करेगा और उसका मार्गदर्शन करेगा। जिन लोगों में मानवता, जमीर, विवेक या शर्म की भावना नहीं होती है, वे हमेशा परमेश्वर के सामने आने के अयोग्य रहेंगे। भले ही तुम धर्मोपदेश सुनो और कुछ धर्म-सिद्धांतों को जान लो, फिर भी तुम प्रबुद्ध नहीं होगे और इसलिए तुम हमेशा के लिए सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने में असमर्थ रहोगे। अगर तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने में सक्षम नहीं हो तो यह एहसास करने में अधिक समय नहीं लगता कि उद्धार पाने की तुम्हारी उम्मीदें शून्य हैं। अगर तुममें केवल मसीह-विरोधियों की ये अभिव्यक्तियाँ और मसीह-विरोधियों का स्वभाव और सार है और तुममें सामान्य मानवता की कोई भी अभिव्यक्ति नहीं है जिसकी परमेश्वर तुम्हारे पास होने की अपेक्षा करता है तो तुम बहुत बड़े खतरे में हो। अगर तुम मसीह-विरोधियों की इन अभिव्यक्तियों और सारों से, जिन्हें मैं उजागर कर रहा हूँ, एक-एक करके खुद की तुलना कर सकते हो और साथ ही खुद की तुलना उनके क्रियाकलापों और खुलासों से कर सकते हो, अगर तुममें ये सभी चीजें अधिक या कम मात्रा में मौजूद हैं तो यह तुम्हारे लिए बहुत खतरनाक है। अगर तुम अभी भी सत्य का अनुसरण नहीं करते हो और मसीह-विरोधी के रूप में निरूपित किए जाने तक प्रतीक्षा करते हो तो तुम पूरी तरह से समाप्त हो जाओगे। घातक बीमारी कौन-सी है : मसीह-विरोधी का सार होना या मसीह-विरोधी का स्वभाव होना? (मसीह-विरोधी का सार होना।) सच में? (हाँ।) इस बारे में ध्यान से सोचो और फिर दोबारा जवाब दो। (मसीह-विरोधी का सार होना और मसीह-विरोधी का स्वभाव होना, दोनों ही घातक बीमारियाँ हैं।) ऐसा क्यों है? (क्योंकि मसीह-विरोधी के सार वाले लोग सत्य का अनुसरण नहीं करेंगे और यही बात मसीह-विरोधी के स्वभाव वाले लोगों पर भी लागू होती है। चाहे वे किसी भी समस्या का सामना करें, मसीह-विरोधी के स्वभाव वाले लोग कभी भी सत्य का अनुसरण करने पर ध्यान नहीं देते हैं और उनमें न्यूनतम मानवता और विवेक भी नहीं होता है; इस तरह के लोग सत्य प्राप्त करने में असमर्थ होते हैं और वे उद्धार भी प्राप्त नहीं कर सकते हैं—यह भी एक घातक बीमारी है।) और कौन बोलना चाहेगा? (मेरी समझ यह है कि इनमें से कोई भी घातक बीमारी नहीं है, लेकिन अगर कोई सत्य का अनुसरण नहीं करता है तो यह घातक बीमारी है।) यह इस मामले में एक अच्छा नजरिया है। लेकिन इसके लिए एक पूर्व-शर्त है, वह है मसीह-विरोधी का सार—जिन लोगों में मसीह-विरोधी का सार होता है, वे सत्य का अनुसरण करते ही नहीं हैं, वे छद्म-विश्वासी हैं—मसीह-विरोधी का सार होना सबसे खतरनाक चीज है। मसीह-विरोधी के सार का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि ये लोग सत्य का अनुसरण करते ही नहीं; वे केवल रुतबे के पीछे भागते हैं, वे अंतर्निहित रूप से परमेश्वर के शत्रु हैं, वे मसीह-विरोधी हैं, वे शैतान के प्रतिरूप हैं, वे जन्मजात दानव हैं, उनमें रत्ती भर भी मानवता नहीं है, वे भौतिकतावादी हैं, वे मानक छद्म-विश्वासी हैं और ऐसे लोग सत्य से विमुख होते हैं। “सत्य से विमुख” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर सत्य है, वे इस तथ्य को स्वीकार नहीं करते कि परमेश्वर सृष्टिकर्ता है और इस तथ्य को तो वे और भी कम स्वीकारते हैं कि परमेश्वर सभी चीजों पर और हर एक चीज पर संप्रभुता रखता है। इसलिए जब ऐसे लोगों को सत्य का अनुसरण करने का अवसर दिया जाता है तो क्या वे ऐसा कर सकते हैं? (नहीं।) क्योंकि वे सत्य का अनुसरण नहीं कर सकते, और क्योंकि वे हमेशा के लिए सत्य के शत्रु और परमेश्वर के शत्रु हैं, वे कभी भी सत्य प्राप्त नहीं कर पाएँगे। हमेशा के लिए सत्य प्राप्त करने में असमर्थ रहना एक घातक बीमारी है। और जिन लोगों में मसीह-विरोधी स्वभाव होता है वे सब स्वभाव के मामले में उन लोगों जैसे होते हैं जिनके पास मसीह-विरोधी सार है : वे एक जैसी अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित करते हैं, एक जैसे खुलासे करते हैं और उनका इन अभिव्यक्तियों और खुलासों को प्रदर्शित करने का तरीका, उनके सोचने का तरीका और परमेश्वर के बारे में उनकी धारणाएँ और कल्पनाएँ सभी एक जैसी होती हैं। हालाँकि, जिन लोगों के पास मसीह-विरोधी स्वभाव होता है, चाहे वे सत्य स्वीकार कर सकें या नहीं और यह तथ्य स्वीकार सकें या नहीं कि परमेश्वर सृष्टिकर्ता है, जब तक वे सत्य का अनुसरण नहीं करते, तब तक उनका मसीह-विरोधी स्वभाव एक घातक बीमारी बन जाता है और यही वजह है कि उनका परिणाम भी मसीह-विरोधी सार वाले लोगों के परिणाम जैसा ही होगा। फिर भी सौभाग्य से मसीह-विरोधी स्वभाव वाले लोगों में कुछ ऐसे भी हैं जिनमें मानवता, विवेक, जमीर और शर्मो-हया है, जो सकारात्मक चीजों से प्यार करते हैं और जिनके पास परमेश्वर द्वारा बचाए जाने की स्थितियाँ हैं। चूँकि वे सत्य का अनुसरण करते हैं, इसलिए ये लोग स्वभाव में बदलाव प्राप्त करते हैं, अपने भ्रष्ट स्वभाव त्याग देते हैं और अपने मसीह-विरोधी स्वभाव त्याग देते हैं, ताकि उनका मसीह-विरोधी स्वभाव अब उनके लिए कोई घातक बीमारी न रहे और तब उनके बचाए जाने की संभावना बनी रहती है। किस परिस्थिति में ऐसा कहा जा सकता है कि मसीह-विरोधी का स्वभाव होना एक घातक बीमारी है? इसके लिए एक पूर्व-शर्त है, जो यह है कि भले ही ये लोग परमेश्वर का अस्तित्व स्वीकारते हैं, परमेश्वर की संप्रभुता में विश्वास रखते हैं, परमेश्वर द्वारा कही गई हर एक बात पर विश्वास करते हैं और उसे स्वीकारते हैं, और अपने कर्तव्य निभा सकते हैं, लेकिन एक गड़बड़ है : वे कभी भी सत्य का अभ्यास या सत्य का अनुसरण नहीं करते। इसलिए उनका मसीह-विरोधी स्वभाव उनके लिए घातक बन जाता है और यह उनकी जान ले सकता है। जब मसीह-विरोधी सार वाले लोगों की बात आती है तो परिस्थितियाँ चाहे जैसी भी हों, इन लोगों के लिए सत्य से प्रेम करना या सत्य स्वीकारना संभव नहीं होता है और वे कभी भी सत्य प्राप्त नहीं कर सकते। क्या तुम समझते हो? (हाँ।) तुम समझते हो। तो इसे मेरे सामने दोहराओ। (मसीह-विरोधी सार वाले लोग अंतर्निहित रूप से परमेश्वर के शत्रु होते हैं। वे निश्चित रूप से ऐसे लोग नहीं हैं जो सत्य से प्रेम करते हैं और उसे स्वीकार सकते हैं, और उनके लिए कभी भी सत्य प्राप्त करना संभव नहीं है, और यही वजह है कि उनके लिए उनका मसीह-विरोधी स्वभाव एक घातक बीमारी है। जहाँ कुछ लोग जिनके पास मसीह-विरोधी स्वभाव है, इस पूर्व-शर्त के साथ कि उनमें मानवता, विवेक, जमीर और शर्मो-हया है, जो सकारात्मक चीजों से प्रेम करते हैं, सत्य का अनुसरण करते हैं, और फिर सत्य का अनुसरण करके स्वभाव में बदलाव लाते हैं, वे सही मार्ग पर चल रहे हैं और उनके लिए उनका मसीह-विरोधी स्वभाव घातक बीमारी नहीं है। यह सब इन लोगों के सार और जिस मार्ग पर वे चलते हैं उससे निर्धारित होता है।) यानी मसीह-विरोधी सार वाले लोगों के लिए कभी भी सत्य का अनुसरण करना संभव नहीं है और वे कभी भी उद्धार प्राप्त नहीं कर सकते हैं, जबकि मसीह-विरोधी स्वभाव वाले लोगों को दो प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है : एक प्रकार सत्य का अनुसरण करता है और उद्धार प्राप्त कर सकता है और दूसरा प्रकार सत्य का अनुसरण बिल्कुल भी नहीं करता है और उद्धार प्राप्त नहीं कर सकता है। जो लोग उद्धार प्राप्त नहीं कर सकते हैं वे सभी श्रमिक हैं; कुछ निष्ठावान श्रमिक बच सकते हैं और यह भी संभव है कि उन्हें एक अलग नतीजा मिले।
मसीह-विरोधी सार वाले लोग उद्धार क्यों नहीं प्राप्त कर सकते? क्योंकि ये लोग सत्य स्वीकार नहीं करते, न ही वे यह स्वीकारते हैं कि परमेश्वर सत्य है। ये लोग यह नहीं मानते कि सकारात्मक चीजें होती हैं और वे सकारात्मक चीजों से प्रेम नहीं करते। इसके बजाय वे दुष्ट चीजों और नकारात्मक चीजों से प्रेम करते हैं; वे सभी दुष्ट और नकारात्मक चीजों के मूर्त रूप हैं और वे सभी नकारात्मक और दुष्ट चीजें अभिव्यक्त करते हैं, यही वजह है कि वे सत्य से विमुख हैं, सत्य से शत्रुता रखते हैं और सत्य से घृणा करते हैं। क्या ऐसे सार के साथ वे सत्य का अनुसरण कर सकते हैं? (नहीं।) इसलिए इन लोगों से सत्य का अनुसरण करवाना असंभव है। क्या किसी जानवर को दूसरी तरह के जानवर में बदलना संभव है? उदाहरण के लिए, क्या किसी बिल्ली को कुत्ते या चूहे में बदलना संभव है? (नहीं।) एक चूहा हमेशा चूहा ही रहेगा, अक्सर बिलों में छिपता फिरेगा और छाया में ही रहेगा। बिल्ली हमेशा चूहे की कुदरती दुश्मन रहेगी और यह बदल नहीं सकता—यह कभी भी नहीं बदल सकता है। फिर भी मसीह-विरोधी स्वभाव वाले लोगों में कुछ ऐसे लोग हैं जो सत्य और सकारात्मक चीजों से प्रेम करते हैं, जो सत्य का अभ्यास और अनुसरण करने के लिए हर प्रयास करने को तैयार रहते हैं; परमेश्वर जो कुछ भी कहता है वे उसका अभ्यास करते हैं, चाहे परमेश्वर कैसे भी उनकी अगुआई करे वे उसका अनुसरण करते हैं, परमेश्वर जो भी करने को कहता है उसे करते हैं, वे जिस मार्ग पर चलते हैं वह पूरी तरह से परमेश्वर की अपेक्षा के अनुरूप होता है और वे परमेश्वर द्वारा दिए गए दिशानिर्देश और उद्देश्यों के अनुसार अनुसरण करते हैं। जहाँ तक दूसरे लोगों की बात है, वे सत्य का अनुसरण न करने के तथ्य के अलावा मसीह-विरोधी के मार्ग पर भी चलते हैं और यह समझने में अधिक समय नहीं लगता है कि इन लोगों का परिणाम क्या होगा। वे न केवल सत्य प्राप्त नहीं करेंगे, बल्कि बचाए जाने का अवसर भी खो देंगे—ये लोग कितने दयनीय हैं! परमेश्वर उन्हें अवसर देता है और उन्हें सत्य और जीवन की आपूर्ति भी करता है, लेकिन वे इन चीजों को सँजोते नहीं हैं और वे पूर्ण बनाए जाने के मार्ग पर नहीं चलते हैं। ऐसा नहीं है कि परमेश्वर कुछ लोगों के बजाय दूसरों को तरजीह देता है और उन्हें अवसर नहीं देता है, बल्कि ऐसा इसलिए है क्योंकि वे इन अवसरों को सँजोते नहीं हैं या परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार कार्य नहीं करते हैं, इसलिए वे बचाए जाने का अवसर खो देते हैं। इसलिए उनका मसीह-विरोधी स्वभाव घातक बन जाता है और उन्हें अपनी जान गँवानी पड़ती है। वे सोचते हैं कि कुछ धर्म-सिद्धांतों को समझने और कुछ बाहरी क्रियाकलाप और अच्छे व्यवहार प्रदर्शित करने का मतलब है कि परमेश्वर उनके मसीह-विरोधी स्वभाव के मामले को नहीं देखेगा और वे इसे छिपा सकते हैं, नतीजतन उन्हें स्वाभाविक रूप से सत्य का अभ्यास करने की आवश्यकता नहीं है और वे जो चाहे कर सकते हैं और अपनी समझ, तरीकों और इच्छाओं के अनुसार कार्य कर सकते हैं। अंत में परमेश्वर चाहे उन्हें कितने भी अवसर क्यों न दे, वे अपने ही मार्ग से चिपके रहते हैं, वे मसीह-विरोधी के मार्ग पर चलते हैं और परमेश्वर के शत्रु बन जाते हैं। वे परमेश्वर के शत्रु इसलिए नहीं बन जाते हैं कि परमेश्वर ने शुरू से ही उन्हें इस तरह परिभाषित किया था—परमेश्वर ने शुरू में उन्हें कोई परिभाषा नहीं दी थी, क्योंकि परमेश्वर की नजरों में वे उसके शत्रु या मसीह-विरोधी सार वाले लोग नहीं थे, बल्कि वे केवल शैतानी, भ्रष्ट स्वभाव वाले लोग थे। परमेश्वर चाहे कितने भी सत्य व्यक्त करे, वे फिर भी अपने अनुसरण में सत्य के लिए प्रयास नहीं करते। वे उद्धार के मार्ग पर कदम नहीं रख सकते और इसके बजाय वे मसीह-विरोधी के मार्ग पर चलते हैं और आखिरकार बचाए जाने का अपना अवसर खो देते हैं। क्या यह शर्मनाक नहीं है? यह बहुत शर्मनाक है! ये लोग बहुत ही दयनीय हैं। वे दयनीय क्यों हैं? वे कुछ शब्द और धर्म-सिद्धांत समझते हैं और सोचते हैं कि वे सत्य समझते हैं; वे थोड़ी कीमत चुकाते हैं और अपने कर्तव्य करते हुए कुछ अच्छा व्यवहार प्रदर्शित करते हैं और सोचते हैं कि वे सत्य पर अमल कर रहे हैं; उनके पास थोड़ी प्रतिभा, काबिलियत और गुण हैं और वे कुछ शब्द और धर्म-सिद्धांत बोल सकते हैं, कुछ काम कर सकते हैं, कुछ विशेष कर्तव्य निभा सकते हैं और उन्हें लगता है कि उन्होंने जीवन प्राप्त कर लिया है; वे थोड़ा कष्ट सह सकते हैं और थोड़ी कीमत चुका सकते हैं और गलती से यह सोचते हैं कि वे परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकते हैं और परमेश्वर के लिए सब कुछ त्याग सकते हैं। वे अपने बाहरी अच्छे व्यवहार, अपने गुणों और उन शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का उपयोग करते हैं जिनसे उन्होंने खुद को लैस किया है ताकि ये सत्य का अभ्यास करने की जगह ले सकें—यह उनकी सबसे बड़ी समस्या है, उनका घातक दोष है। यह उन्हें गलत तरीके से विश्वास दिलाता है कि वे पहले से ही उद्धार के मार्ग पर चल पड़े हैं और उनके पास पहले से ही आध्यात्मिक कद और जीवन है। कुछ भी हो, अगर ये लोग अंत में उद्धार प्राप्त नहीं कर पाते हैं तो इसके लिए वे अपने सिवाय किसी और को दोषी नहीं ठहरा सकते; ऐसा इसलिए है क्योंकि वे खुद ही सत्य पर ध्यान केंद्रित नहीं कर रहे हैं, सत्य का अनुसरण नहीं कर रहे हैं और मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलने के अत्यंत इच्छुक हैं।
अब कुछ ऐसे लोग हैं जो 30 सालों से धर्मोपदेश सुनने के बाद भी यह नहीं जानते कि सत्य क्या है या धर्म-सिद्धांत क्या है। जब वे अपने मुँह खोलते हैं तो केवल खोखले सिद्धांत, दूसरों को उपदेश देने वाले शब्द और खोखले नारे बोलते हैं और वे हमेशा केवल इस बारे में बात करते हैं कि उन्होंने अतीत में कैसे-कैसे कष्ट सहे और कितनी कीमत चुकाई; इस प्रकार वे अपनी वरिष्ठता दिखाते हैं। वे कभी भी अपने आत्म-ज्ञान के बारे में बात नहीं करते, यह नहीं बताते कि वे काट-छाँट किए जाने को कैसे स्वीकारते हैं, कैसे भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं, कैसे शोहरत और लाभ के लिए होड़ करते हैं या उनके पास मसीह-विरोधी स्वभाव के कौन-से खुलासे हैं। वे इन चीजों के बारे में कभी बात नहीं करते; वे केवल अपने योगदान के बारे में बात करते हैं और अपने अपराधों के बारे में नहीं बोलते। क्या ये लोग बहुत बड़े खतरे में नहीं हैं? कुछ लोग 20-30 साल से धर्मोपदेश सुन रहे हैं और अभी भी नहीं जानते कि सत्य वास्तविकता क्या है या परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने का क्या अर्थ है और इसलिए मुझे संदेह है कि इन लोगों में शायद परमेश्वर के वचनों को समझने की क्षमता नहीं है। 30 साल से धर्मोपदेश सुनने के बाद उन्हें लगता है कि उनके पास आध्यात्मिक कद है, लेकिन जब उनके पास कोई रुतबा नहीं होता तो वे अब भी नकारात्मक हो सकते हैं और वे अकेले में रोएँगे और शिकायत करेंगे और शायद अपना काम भी छोड़ दें। 30 साल से धर्मोपदेश सुनने के बाद जब उन्हें बर्खास्त कर दिया जाता है तो वे अब भी चिड़चिड़े और विवेकहीन हो सकते हैं और खुद को परमेश्वर के खिलाफ खड़ा कर सकते हैं। इतने सालों से धर्मोपदेश सुनने के बाद उन्होंने क्या समझा है? अगर इतने सारे धर्मोपदेश सुनने के बाद भी उन्हें यह समझ में नहीं आया कि सत्य क्या है तो क्या उन्होंने व्यर्थ में ही विश्वास नहीं किया? इसे ही भ्रमित आस्था कहते हैं!
14 मार्च 2020
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