मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते और वे व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ विश्वासघात तक कर देते हैं (भाग तीन) खंड पाँच
कलीसिया में क्या ऐसे लोग होते हैं, जो कई वर्षों से परमेश्वर पर विश्वास करते हैं और फिर भी सत्य का बिल्कुल भी अनुसरण नहीं करते और हमेशा रुतबे और प्रतिष्ठा के पीछे दौड़ते हैं? ऐसे लोगों की अभिव्यक्तियाँ क्या होती हैं? क्या तुम लोग कहोगे कि जो लोग हमेशा खुद का प्रदर्शन करते हैं, जो मौलिक विचार रखने और ऊँचे लगने वाले विचार उगलने की ओर प्रवृत्त होते हैं, वे ऐसे लोग हैं? ऐसे लोग अक्सर किस तरह की चीजें करते हैं? (कोई अपना दृष्टिकोण व्यक्त करता है, जो बाकी सभी को यह सही लगता है, लेकिन यह दिखाने के लिए कि वह कितना प्रतिभाशाली है, यह व्यक्ति एक अलग दृष्टिकोण सामने रखता है, जिसे लोग और भी सही समझें और जो पहले व्यक्ति के दृष्टिकोण को नकार दे और इस प्रकार यह दर्शाए कि वह कितना प्रतिभाशाली है।) इसे दिखावा करना कहा जाता है। वे अन्य लोगों के विचार अस्वीकार कर देते हैं और फिर अपने अनूठे दृष्टिकोण सामने रखते हैं, जो खुद उन्हें यथार्थपरक या मान्य नहीं लगता—मात्र एक नारा लगता है—फिर भी उन्हें लोगों को दिखाना होता है कि वे कितने प्रतिभाशाली हैं और सभी को अपनी बात सुनने के लिए बाध्य करना होता है। उन्हें हमेशा अलग होना होता है, उन्हें हमेशा मौलिक विचार सामने रखने होते हैं, वे हमेशा ऊँचे लगने वाले विचार उगलते हैं और दूसरे लोगों की बात कितनी भी संभव और व्यावहारिक क्यों न हो, उन्हें उसके खिलाफ वोट देना होता है और दूसरे लोगों के दृष्टिकोण नकारने के लिए विभिन्न कारण और बहाने खोजने होते हैं। ये उन लोगों के सबसे आम व्यवहार हैं जो मौलिक विचार सामने रखने और ऊँचे लगने वाले विचार उगलने की कोशिश करते हैं। किसी व्यक्ति के क्रियाकलाप चाहे कितने भी सही या उचित क्यों न हों, वे उन्हें खारिज कर देंगे और अनदेखा कर देंगे। भले ही वे स्पष्ट रूप से जानते हों कि इस व्यक्ति ने उचित तरीके से काम किया है, फिर भी वे कहते हैं कि उसके क्रियाकलाप उचित नहीं थे और ऐसा जताते हैं जैसे कि वे बेहतर काम कर सकते थे और वे उस व्यक्ति से बिल्कुल भी कमतर नहीं हैं। इस तरह के लोगों को लगता है कि उनसे अच्छा और कोई नहीं है, वे सभी मामलों में दूसरे लोगों से बेहतर हैं। उनके लिए दूसरे लोग जो कुछ भी कहते हैं वह गलत है; दूसरे लोग बेकार हैं और वे खुद हर तरह से अच्छे हैं। भले ही कुछ गलत करने पर उन्हें काट-छाँट दिया जाए तो भी वे समर्पण करने के लिए तैयार नहीं होंगे, वे सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करेंगे और हो सकता है कि वे अनेक बहाने भी बनाएँ, जिससे दूसरों को लगे कि उन्होंने कोई गलती नहीं की है और उनकी काट-छाँट नहीं की जानी चाहिए थी। जो लोग मौलिक विचार सामने रखना और ऊँचे लगने वाले विचार उगलना पसंद करते हैं, वे इस तरह से अभिमानी और आत्मतुष्ट होते हैं। दरअसल इनमें से ज्यादातर लोगों के पास कोई वास्तविक प्रतिभा नहीं होती और वे कुछ भी अच्छी तरह से नहीं कर सकते, वे जो भी करते हैं वह सब पूरी तरह से गड़बड़ हो जाता है। मगर उनके पास कोई आत्म-जागरूकता नहीं है, वे खुद को दूसरों से बेहतर समझते हैं और दूसरे लोगों के काम में दखल देने और शामिल होने की हिम्मत करते हैं और ऊँचे लगने वाले विचार उगलते रहते हैं, हमेशा यही चाहते हैं कि लोग उनका सम्मान करें और उनकी बात सुनें। परिस्थिति चाहे कैसी भी हो या वे किसी भी समूह में हों, वे केवल यही चाहते हैं कि दूसरे लोग उनकी सेवा करें और उनकी बात सुनें; वे खुद किसी और की सेवा करना या किसी और की बात सुनना नहीं चाहते। क्या ये मसीह-विरोधी नहीं हैं? इससे पता चलता है कि मसीह-विरोधी कितने अभिमानी और आत्मतुष्ट होते हैं; उनमें विवेक की कितनी कमी होती है। वे केवल दिखावटी धर्म-सिद्धांतों के बारे में बोलते हैं और जब दूसरे लोग उनकी गलतियाँ निकालते हैं तो वे शब्दों और तर्क को तोड़-मरोड़ कर एक झूठे और अच्छे लगने वाले तरीके से बोलते हैं, ताकि लोगों को ऐसा लगे कि वे सही हैं। चाहे किसी और की राय कितनी भी सही क्यों न हो, मसीह-विरोधी इसे गलत साबित करने के लिए वाक्पटुता से बातें करके सभी को अपनी राय स्वीकारने के लिए मजबूर करेंगे। मसीह-विरोधी इसी प्रकार के लोग होते हैं—वे दूसरों को गुमराह करने में बेहद सक्षम होते हैं, वे उन्हें इस हद तक गुमराह कर सकते हैं कि वे भ्रमित हो जाएँ, भटक जाएँ और सही-गलत में अंतर न कर पाएँ। अंत में, जिन लोगों में भेद पहचानने की कमी होती है, वे इन मसीह-विरोधियों द्वारा पूरी तरह से गुमराह किए जाएँगे और काबू में कर लिए जाएँगे। ज्यादातर कलीसियाओं में ऐसे लोग हैं जो दूसरों को इसी तरह गुमराह करते हैं। जब परमेश्वर के चुने हुए लोग सत्य पर संगति कर रहे होते हैं या अपनी अनुभवजन्य गवाही साझा कर रहे होते हैं तो मसीह-विरोधी हमेशा खड़े होकर अपने दृष्टिकोण व्यक्त करते हैं। वे अपने अनुभवजन्य ज्ञान पर खुलकर संगति करने के लिए दिल खोलकर नहीं बोलते; बल्कि वे हमेशा दूसरे लोगों के अनुभवजन्य ज्ञान के बारे में आलोचनात्मक, गैर-जिम्मेदाराना टिप्पणियाँ करते हैं, ताकि यह दिखा सकें कि वे कितने चतुर हैं और दूसरों से अपना सम्मान करवाने का उद्देश्य पूरा कर सकें। मसीह-विरोधी शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के बारे में बोलने में सबसे ज्यादा कुशल होते हैं; वे कभी भी सच्ची अनुभवजन्य गवाही नहीं साझा कर सकते और वे कभी आत्म-ज्ञान की बात नहीं करते। इसके बजाय वे हमेशा दूसरों में समस्याएँ खोजते रहते हैं और उनके बारे में काफी बखेड़ा खड़ा करते रहते हैं। तुम कभी भी मसीह-विरोधियों को दूसरों की राय खुले दिमाग से स्वीकार करते या अपने भ्रष्ट स्वभावों पर सक्रियता से संगति करते और दूसरों के सामने खुद को उजागर करते नहीं देखोगे। तुम उन्हें इस बात पर संगति करते हुए तो निश्चित रूप से नहीं देखोगे कि उनके मन में कौन-से गलत और बेतुके दृष्टिकोण थे और उन्होंने उन्हें कैसे बदला और न ही तुम कभी उन्हें अपनी गलतियों या अपनी कमियों को स्वीकारते हुए सुनोगे...। मसीह-विरोधी लोग चाहे कितने भी लंबे समय तक दूसरों के साथ बातचीत करें, वे हमेशा दूसरे लोगों को यह महसूस कराते हैं कि उनमें कोई भ्रष्टता नहीं है, वे जन्म से ही संत और पूर्ण लोग हैं और दूसरों को उनकी आराधना करनी चाहिए। जिनके पास वास्तव में विवेक है, वे यह नहीं चाहते कि दूसरे उनका सम्मान या उनकी आराधना करें। अगर दूसरे लोग वाकई उनका सम्मान और उनकी आराधना करते हैं तो उन्हें यह शर्मनाक लगता है, क्योंकि वे जानते हैं कि वे भ्रष्ट स्वभावों वाले भ्रष्ट इंसान हैं और उनके पास सत्य वास्तविकताएँ नहीं हैं। वे खुद की असलियत जानते हैं, इसलिए वे जो भी भ्रष्टता प्रकट करते हैं और उनके जो भी गलत दृष्टिकोण होते हैं, उनके बारे में वे खुलकर संगति करके दूसरों को उनके बारे में बता सकते हैं और ऐसा करने से उन्हें बहुत आराम, मुक्ति और खुशी महसूस होती है। उन्हें ऐसा करना बिल्कुल भी मुश्किल नहीं लगता। भले ही दूसरे लोग उनकी आलोचना करें, उन्हें नीची नजरों से देखें, उन्हें बेवकूफ कहें या उनका तिरस्कार करें, उन्हें ज्यादा दुख नहीं होता। इसके विपरीत उन्हें यह बहुत आम बात लगती है और वे इसके प्रति सही रवैया अपना सकते हैं। क्योंकि लोगों के पास भ्रष्ट स्वभाव हैं, इसलिए उनके लिए भ्रष्टता प्रकट करना स्वाभाविक है। तुम चाहे इसे स्वीकार करो या न करो, यह एक तथ्य है। अगर तुम अपनी खुद की भ्रष्टता को पहचान सकते हो तो यह अच्छी बात है और अगर दूसरे लोग इसे स्पष्ट देख सकते हैं तो यह और भी बेहतर है, इस तरह वे तुम्हारी आराधना या तुम्हारा सम्मान नहीं करेंगे। जो लोग सत्य समझते हैं और जिनके पास थोड़ा-बहुत विवेक है, वे खुद को पहचानने के बारे में दिल खोलकर संगति कर सकते हैं; उन्हें यह मुश्किल नहीं लगता। मगर मसीह-विरोधियों के लिए यह बहुत मुश्किल है। वे पूरी तरह से खुलकर बात करने वालों को बेवकूफ समझते हैं और जो लोग अपने आत्म-ज्ञान के बारे में बात करते हैं और ईमानदारी से बोलते हैं उन्हें मूर्ख मानते हैं। इसलिए मसीह-विरोधी ऐसे लोगों को पूरी तरह से नीची नजरों से देखते हैं। अगर कोई व्यक्ति सत्य समझ सकता है और हर कोई उसे विशेष रूप से स्वीकार करता है तो मसीह-विरोधी उस व्यक्ति को अपनी आँखों की किरकिरी और अपने रास्ते का काँटा समझेंगे और वे उसकी आलोचना और निंदा करेंगे। वे उस व्यक्ति के सही अभ्यासों और उसके पास मौजूद सकारात्मक चीजों का खंडन करेंगे और उसे गलत और विकृत समझ वाले लोगों की तरह पेश करेंगे। चाहे कोई भी व्यक्ति ऐसा काम करे, जिससे कलीसिया या भाई-बहनों को फायदा हो, मसीह-विरोधी उसे नीचा दिखाने, उसका मजाक उड़ाने और उपहास करने के तरीके सोचेंगे; चाहे उसने जो काम किया हो वह कितना भी अच्छा हो या इससे लोगों को कितना भी फायदा हुआ हो, मसीह-विरोधी इसे जिक्र करने लायक नहीं समझेंगे और वे इसे इस हद तक महत्वहीन और कमतर दिखाएँगे कि यह पूरी तरह से बेकार लगने लगेगा। जबकि, अगर मसीह-विरोधी कुछ अच्छा करते हैं तो वे इसे बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने और बड़ा दिखाने की भरसक कोशिश करेंगे, ताकि हर कोई इसे देखे और जाने कि यह काम उन्होंने किया है और यह उनकी सराहनीय सेवा थी, ताकि भाई-बहन उन्हें विशेष सम्मान दें, उन्हें हमेशा याद रखें, उनके प्रति बहुत आभारी महसूस करें और उनकी अच्छाई को याद रखें। सभी मसीह-विरोधी और साथ ही मसीह-विरोधियों जैसा स्वभाव रखने वाले लोग इस तरह से काम करने में सक्षम हैं। इस मामले में मसीह-विरोधी पाखंडी फरीसियों से अलग नहीं हैं; वास्तव में वे उनसे भी बदतर हैं। ये मसीह-विरोधियों की सबसे आम और स्पष्ट सामान्य अभिव्यक्तियाँ हैं।
मसीह-विरोधी जब कुछ करते हैं तो उनका रवैया कैसा होता है? वे दूसरों के सामने अच्छे काम करना और चोरी-छिपे बुरे काम करना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि हर कोई उनके अच्छे कामों के बारे में जाने और वे सभी बुरे कामों को इस तरह से छिपाना चाहते हैं कि इनके बारे में किसी को कानों-कान खबर न हो, यहाँ तक कि इनके बारे में एक शब्द भी बाहर न आए और वे उन्हें छिपाने की अपनी हर मुमकिन कोशिश करने के लिए मजबूर दिखते हैं। मसीह-विरोधियों का यह स्वभाव घिनौना है, है न? इस तरह से काम करने के पीछे मसीह-विरोधियों का क्या मकसद होता है? (अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की रक्षा करना।) यह सही है। देखने में ऐसा लगता है कि वे रुतबे के लिए प्रतिस्पर्धा नहीं कर रहे हैं या रुतबे के लिए कुछ नहीं कह रहे हैं, मगर वे जो कुछ भी करते और कहते हैं वह अपने रुतबे की रक्षा करने और उसे बनाए रखने की खातिर और ऊँची प्रतिष्ठा और अच्छा नाम पाने की खातिर होता है। कभी-कभी वे समूह में भी रुतबा पाने की कोशिश करते हैं, बिना किसी को यह भनक लगे कि वे ऐसा कर रहे हैं। यहाँ तक कि जब वे किसी की सिफारिश करते हैं यानी कुछ ऐसे काम करते हैं जो उन्हें करने चाहिए तो वे उस व्यक्ति को बहुत आभारी महसूस कराना चाहते हैं जिसकी उन्होंने सिफारिश की है और यह जताना चाहते हैं कि उसे यह कर्तव्य निभाने का अवसर केवल उनकी सिफारिश के कारण मिला है। मसीह-विरोधी इस तरह के अवसर को कभी नहीं गँवाएँगे। वे सोचते हैं, “भले ही मैंने तुम्हारी सिफारिश की हो, फिर भी मैं तुम्हारा अगुआ हूँ, इसलिए तुम मुझसे आगे नहीं निकल सकते।” रुतबे और प्रतिष्ठा के लिए मसीह-विरोधियों का जुनून काफी स्पष्ट है। रुतबे के लिए प्रतिस्पर्धा करने और उसकी रक्षा करने के लिए वे किसी की एक नजर को या अनजाने में कही गई बात को भी अनदेखा नहीं करते, किसी कोने में होने वाली किसी बात को तो बिल्कुल भी अनदेखा नहीं करते। मसीह-विरोधी इन सभी छोटी-बड़ी चीजों पर ध्यान देते हैं और दूसरे लोगों की कही गई बातें उनके मन में घूमती रहती हैं। ऐसा करने का उनका क्या मकसद है? क्या उन्हें चुगली करना अच्छा लगता है? नहीं; बात यह है कि वे इन सबमें अपने रुतबे की रक्षा करने का एक तरीका और अवसर ढूँढ़ना चाहते हैं। वे नहीं चाहते कि किसी क्षणिक लापरवाही या असावधानी के कारण उनके रुतबे या नाम को नुकसान हो। रुतबे की खातिर, उन्होंने हर चीज के बारे में “अंतर्दृष्टि” पाना सीख लिया है; जब भी कोई भाई या बहन कुछ ऐसा कहते हैं जो उन्हें अपमानजनक लगता है या कोई ऐसी राय व्यक्त करते हैं जो उनकी अपनी राय से अलग है तो वे इसे अनदेखा नहीं करते; वे इसे गंभीरता से लेते हैं, विस्तार से खोजबीन और गहराई से विश्लेषण करते हैं और फिर जो कुछ उन्होंने कहा है उससे इस तरह से निपटने के लिए जवाब ढूँढ़ते हैं कि उनका रुतबा सभी के मन में दृढ़ता से स्थापित हो जाए और वह बिल्कुल भी न डगमगाए। जैसे ही उनका नाम खराब होता है या कुछ ऐसा सुनने में आता है जो उनके नाम के लिए नुकसानदेह हो तो वे जल्दी से उसके स्रोत का पता लगाएँगे और खुद को बचाने के लिए बहाने और तर्क खोजने की कोशिश करेंगे। इसलिए चाहे मसीह-विरोधी कोई भी कर्तव्य कर रहे हों, चाहे वे अगुआओं और कार्यकर्ताओं के रूप में काम कर रहे हों या नहीं, वे जिस किसी भी चीज में व्यस्त रहते हैं और जो भी शब्द बोलते हैं वह उनके रुतबे की खातिर होता है और उसे अपने हितों की रक्षा करने की उनकी इच्छा से अलग नहीं किया जा सकता। मसीह-विरोधियों के दिलों की गहराई में सत्य का अभ्यास करने या परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करने जैसी कोई अवधारणा नहीं होती है। इसलिए मसीह-विरोधियों के सार को सटीक रूप से इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है : वे परमेश्वर के दुश्मन हैं; वे दानवों और शैतानों का एक समूह हैं जो परमेश्वर के घर के कार्य में विघ्न-बाधा और गड़बड़ी पैदा करने और उसे नष्ट करने आए हैं। वे शैतान के सेवक हैं; वे परमेश्वर का अनुसरण करने वाले लोग नहीं हैं, न तो वे परमेश्वर के घर के सदस्य हैं और न ही परमेश्वर के उद्धार के प्राप्तकर्ता हैं।
आज हमने जिन चीजों के बारे में संगति की है, क्या तुम लोग उनमें से किसी से भी प्रभावित हुए हो? तुम लोग किस हिस्से से प्रभावित हुए? (आखिरी हिस्से से यानी जब परमेश्वर ने मसीह-विरोधियों की प्रतिस्पर्धी प्रकृति का गहन-विश्लेषण किया।) हमेशा प्रतिस्पर्धा करते रहना अच्छी बात नहीं है। यह व्यवहार मसीह-विरोधियों और विनाश से जुड़ा हुआ है। यह अच्छा मार्ग नहीं है। जब लोगों में ये अभिव्यक्तियाँ और खुलासे हों तो उन्हें क्या करना चाहिए? उन्हें क्या विकल्प चुनना चाहिए? उन्हें इन चीजों से कैसे बचना चाहिए? ये वे समस्याएँ हैं जिनके बारे में लोगों को अभी सबसे ज्यादा सोचना और विचार करना चाहिए और ये वे समस्याएँ भी हैं जिनका लोग हर दिन सामना करते हैं। जब चीजें घटित होती हैं तो वे प्रतिस्पर्धा से कैसे दूर रह सकते हैं और प्रतिस्पर्धा के बाद उन्हें अपने दिल की पीड़ा और बेचैनी कैसे दूर करनी चाहिए—यह ऐसी समस्या है जिसका सामना हर व्यक्ति को करना होगा। लोगों में भ्रष्ट स्वभाव होते हैं, इसलिए वे सभी प्रतिष्ठा, लाभ और नाम के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं और उनके लिए प्रतिस्पर्धा से दूर रहना मुश्किल होता है। तो अगर कोई व्यक्ति प्रतिस्पर्धा नहीं करता है तो क्या इसका मतलब यह है कि उसने मसीह-विरोधियों के स्वभाव और सार से छुटकारा पा लिया है? (नहीं, यह केवल सतही स्तर की घटना है। अगर उनके अंदर का स्वभाव ठीक नहीं होता है तो उनके मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलने की समस्या का समाधान नहीं किया जा सकता है।) तो उनके मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलने की समस्या का समाधान कैसे किया जा सकता है? (एक ओर उन्हें इस मामले को समझना होगा और जब वे रुतबा पाने की कोशिश करने वाले विचार प्रकट करें तो उन्हें प्रार्थना के लिए परमेश्वर के सामने आना होगा। इसके अलावा उन्हें भाई-बहनों के सामने दिल खोलकर अपनी बात कहनी होगी और होशोहवास में इन गलत विचारों के खिलाफ विद्रोह करना होगा। उन्हें परमेश्वर से उनका न्याय करने, ताड़ना देने, उनकी काट-छाँट करने और अनुशासित करने के लिए भी कहना होगा। तभी वे सही मार्ग पर चल पाएँगे।) यह काफी अच्छा जवाब है। हालाँकि ऐसा करना आसान नहीं है और यह उन लोगों के लिए और भी ज्यादा कठिन है जो प्रतिष्ठा और रुतबे से बेहद प्यार करते हैं। प्रतिष्ठा और रुतबे को त्यागना आसान नहीं है—लोग इसे केवल सत्य का अनुसरण करके हासिल कर सकते हैं। केवल सत्य समझकर ही व्यक्ति खुद को जान सकता है, शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे दौड़ने का खोखलापन स्पष्ट रूप से देख सकता है और मानवजाति की भ्रष्टता का सत्य साफ तौर पर देख सकता है। जब व्यक्ति वास्तव में खुद को जान लेता है केवल तभी वह रुतबे और प्रतिष्ठा को त्याग सकता है। अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्याग पाना आसान नहीं है। अगर तुम पहचान गए हो कि तुम में सत्य की कमी है, तुम कमियों से घिरे हो और बहुत अधिक भ्रष्टता प्रकट करते हो, फिर भी तुम सत्य का अनुसरण करने का कोई प्रयास नहीं करते और छद्मवेश धारण करके पाखंड में लिप्त होते हो, इससे लोगों को विश्वास दिलाते हो कि तुम कुछ भी कर सकते हो तो यह तुम्हें खतरे में डाल देगा और देर-सवेर एक ऐसा समय आएगा जब तुम्हारे आगे का रास्ता बंद हो जाएगा और तुम गिर जाओगे। तुम्हें स्वीकारना चाहिए कि तुम्हारे पास सत्य नहीं है और पर्याप्त बहादुरी से वास्तविकता का सामना करना चाहिए। तुममें कमजोरी है, तुम भ्रष्टता प्रकट करते हो और हर तरह की कमियों से घिरे हो। यह सामान्य है, क्योंकि तुम एक सामान्य व्यक्ति हो, तुम अलौकिक या सर्वशक्तिमान नहीं हो और तुम्हें यह पहचानना चाहिए। जब दूसरे लोग तुम्हारा तिरस्कार या उपहास करें तो इसलिए तुरंत चिढ़कर प्रतिक्रिया मत दो, क्योंकि वे जो कहते हैं वह अप्रिय है या इसलिए इसका प्रतिरोध मत करो क्योंकि तुम खुद को सक्षम और परिपूर्ण मानते हो—ऐसी बातों के प्रति तुम्हारा रवैया ऐसा नहीं होना चाहिए। तुम्हारा रवैया कैसा होना चाहिए? तुम्हें अपने आपसे कहना चाहिए, “मेरे अंदर दोष हैं, मेरी हर चीज भ्रष्ट और दोषपूर्ण है और मैं एक साधारण-सा व्यक्ति हूँ। उनके द्वारा मेरा तिरस्कार और उपहास किए जाने के बावजूद क्या इसमें कोई सच्चाई है? अगर वे जो कहते हैं उसका थोड़ा-सा हिस्सा भी सच है तो मुझे इसे परमेश्वर से आया मानकर स्वीकार कर लेना चाहिए।” अगर तुम्हारा ऐसा रवैया है तो यह इस बात का प्रमाण है कि तुम रुतबे, प्रतिष्ठा और अपने बारे में दूसरे लोगों की राय को सही तरीके से सँभालने में सक्षम हो। रुतबे और प्रतिष्ठा को आसानी से दरकिनार नहीं किया जाता। उन लोगों के लिए तो इन चीजों को अलग रखना और भी मुश्किल है, जो कुछ हद तक प्रतिभाशाली होते हैं, जिनमें थोड़ी-बहुत काबिलियत होती है या जो कुछ कार्य-अनुभव रखते हैं। भले ही वे कभी-कभी उन्हें दरकिनार करने का दावा करें, मगर वे अपने दिलों में ऐसा नहीं कर सकते। जैसे ही अनुकूल परिस्थिति आएगी और उन्हें अवसर मिलेगा, वे पहले की तरह शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे दौड़ने लगेंगे, क्योंकि सभी भ्रष्ट मनुष्य इन चीजों से प्यार करते हैं, बस जिनके पास खूबियाँ या प्रतिभाएँ नहीं हैं, उनमें रुतबे के पीछे दौड़ने की थोड़ी कम इच्छा होती है। जिनके पास भी ज्ञान, प्रतिभा, सुंदरता और विशेष पूंजी है, उनमें प्रतिष्ठा और रुतबे के लिए विशेष रूप से तीव्र इच्छा होती है, इस हद तक कि वे इस महत्वाकांक्षा और इच्छा से भरे होते हैं। इसे दरकिनार करना उनके लिए सबसे ज्यादा कठिन काम है। जब उनके पास कोई रुतबा नहीं होता तो उनकी इच्छा प्रारंभिक अवस्था में होती है। एक बार जब वे रुतबा पा लेते हैं, जब परमेश्वर का घर उन्हें कोई महत्वपूर्ण कार्य सौंप देता है और विशेष रूप से जब वे बरसों तक काम कर चुके होते हैं और उनके पास बहुत अनुभव और पूँजी होती है, तब उनकी इच्छा प्रारंभिक अवस्था में नहीं रहती, बल्कि गहरी जड़ जमा चुकी होती है, खिल चुकी होती है और उस पर फल लगने वाले होते हैं। अगर किसी व्यक्ति में महान कार्य करने, प्रसिद्ध होने, कोई महान व्यक्ति बनने की निरंतर इच्छा और महत्वाकांक्षा रहती है तो जैसे ही वह कोई बड़ा कुकर्म करता है और इसके परिणाम सामने आते हैं, वह पूरी तरह से समाप्त हो जाता है और उसे हटा दिया जाता है। और इसलिए इससे पहले कि यह बड़ी विपदा की ओर ले जाए, उसे फौरन और समय रहते स्थिति को पलट देना चाहिए। जब भी तुम कुछ करते हो और चाहे उसका जो भी संदर्भ हो, तुम्हें सत्य की खोज करनी चाहिए, ऐसा व्यक्ति बनने का अभ्यास करना चाहिए जो परमेश्वर के प्रति ईमानदार और आज्ञाकारी हो और रुतबे और प्रतिष्ठा के अनुसरण को दरकिनार कर देना चाहिए। जब तुममें रुतबे के लिए प्रतिस्पर्धा करने की निरंतर सोच और इच्छा होती है तो तुम्हें पता होना चाहिए कि अगर इस तरह की मनोदशा को अनसुलझा छोड़ दिया जाए तो कैसे बुरे परिणाम हो सकते हैं। इसलिए समय बर्बाद न करते हुए सत्य खोजो, रुतबे के लिए प्रतिस्पर्धा करने की इच्छा पर प्रारंभिक अवस्था में ही काबू पा लो और इसके स्थान पर सत्य का अभ्यास करो। जब तुम सत्य का अभ्यास करने लगोगे तो रुतबे के लिए प्रतिस्पर्धा करने की तुम्हारी इच्छा और महत्वाकांक्षा कम हो जाएगी और तुम कलीसिया के काम में बाधा नहीं डालोगे। इस तरह परमेश्वर तुम्हारे क्रियाकलापों को याद रखेगा और उन्हें स्वीकृति देगा। तो मैं किस बात पर जोर दे रहा हूँ? वह बात यह है : इससे पहले कि तुम्हारी इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ पुष्पित और फलीभूत होकर बड़ी विपत्ति लाएँ, तुम्हें उनसे छुटकारा पा लेना चाहिए। यदि तुम उन्हें शुरुआत में ही काबू नहीं करोगे तो तुम एक बड़े अवसर से चूक जाओगे; अगर वे बड़ी विपत्ति का कारण बन गईं तो उनका समाधान करने में बहुत देर हो जाएगी। यदि तुममें दैहिक इच्छाओं के खिलाफ विद्रोह करने का संकल्प तक नहीं है तो तुम्हारे लिए सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलना बहुत मुश्किल हो जाएगा; यदि तुम शोहरत, लाभ और रुतबा पाने के प्रयास में असफलताओं और नाकामयाबियों का सामना करने पर होश में नहीं आते तो यह स्थिति बहुत खतरनाक होगी : इस बात की संभावना है कि तुम्हें हटा दिया जाए। जब सत्य से प्रेम करने वालों को अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को लेकर एक-दो असफलताओं और नाकामियों का सामना करना पड़ता है तो वे स्पष्ट रूप से देख सकते हैं कि शोहरत, लाभ और रुतबे का कोई मूल्य नहीं है। वे रुतबे और प्रतिष्ठा को पूरी तरह त्यागने में सक्षम होते हैं और यह संकल्प लेते हैं कि भले ही उनके पास कभी भी रुतबा न हो, फिर भी वे सत्य का अनुसरण करते हुए अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना जारी रखेंगे और अपनी अनुभवजन्य गवाही साझा करते रहेंगे और इस तरह परमेश्वर की गवाही देने का नतीजा हासिल करेंगे। वे साधारण अनुयायी होकर भी, अंत तक अनुसरण करने में सक्षम बने रहते हैं। उनकी बस एक ही चाहत होती है कि उन्हें परमेश्वर की स्वीकृति मिले। ऐसे लोग ही वास्तव में सत्य से प्रेम करते हैं और उनमें संकल्प होता है। परमेश्वर के घर ने बहुत-से मसीह-विरोधियों और दुष्ट लोगों को हटाया है और सत्य का अनुसरण करने वाले कुछ लोग मसीह-विरोधियों की विफलता देखकर उनके अपनाए गए मार्ग के बारे में चिंतन करते हैं और आत्मचिंतन कर खुद को भी जानते हैं। इससे वे परमेश्वर के इरादे की समझ प्राप्त करते हैं, सामान्य अनुयायी बनने का संकल्प लेते हैं और सत्य का अनुसरण करके अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने पर ध्यान देते हैं। भले ही परमेश्वर उन्हें सेवाकर्ता या तुच्छ नाचीज कह दे तो भी वे इसे सिर माथे लेते हैं। वे परमेश्वर की नजर में बस नीच लोग और तुच्छ, महत्वहीन अनुयायी बनने का प्रयास करेंगे जो अंततः परमेश्वर द्वारा मानक-स्तर के सृजित प्राणी कहलाए जाएँगे। इस तरह के लोग ही नेक होते हैं और वे ऐसे लोग होते हैं जिन्हें परमेश्वर स्वीकृति देता है।
परमेश्वर सत्य का अनुसरण करने वाले लोगों को पसंद करता है और वह लोगों के जिस काम से सबसे ज्यादा घृणा करता है वह है शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे दौड़ना। कुछ लोग वाकई रुतबे और प्रतिष्ठा को सँजोते हैं, उन्हें उनसे गहरा लगाव होता है, वे उन्हें छोड़ना सहन नहीं कर सकते। उन्हें हमेशा यही लगता है कि रुतबे और प्रतिष्ठा के बिना जीने में कोई खुशी या आशा नहीं है; उनके लिए इस जीवन में आशा केवल तब ही होती है जब वे रुतबे और प्रतिष्ठा के लिए जीते हैं और अगर उन्हें थोड़ी-सी प्रसिद्धि मिल भी जाती है तो वे अपनी लड़ाई जारी रखेंगे, कभी हार नहीं मानेंगे। अगर तुम्हारी सोच और दृष्टिकोण यही है, यदि तुम्हारा हृदय ऐसी बातों से भरा है तो तुम न तो सत्य से प्रेम कर सकते हो और न ही उसका अनुसरण कर सकते हो, परमेश्वर के प्रति तुम्हारी आस्था में सही दिशा और लक्ष्यों की कमी है, तुम आत्म-ज्ञान का अनुसरण नहीं कर सकते, अपनी भ्रष्टता दूर कर एक इंसान की छवि में नहीं जी सकते; तुम अपना कर्तव्य करते समय चीजों को अनदेखा करते हो, तुममें जिम्मेदारी की भावना नहीं होती, तुम बस इस बात से संतुष्ट हो जाते हो कि तुम कोई बुराई नहीं कर रहे, कोई विघ्न-बाधा खड़ी नहीं कर रहे और तुम्हें निकाला नहीं जा रहा है। क्या ऐसे लोग मानक-स्तर के तरीके से अपना कर्तव्य कर सकते हैं? और क्या उन्हें परमेश्वर के द्वारा बचाया जा सकता है? असंभव। तुम प्रतिष्ठा और रुतबे की खातिर कार्य करते समय यह भी सोचते हो, “जब तक मैं कोई बुरा काम नहीं कर रहा और उससे कोई अशांति पैदा नहीं होती तो फिर भले ही मेरी मंशा गलत हो, कोई उसे न तो देख सकता है और न ही मेरी निंदा कर सकता है।” तुम्हें पता नहीं कि परमेश्वर सबकी पड़ताल करता है। यदि तुम सत्य नहीं स्वीकारते या उसका अभ्यास नहीं करते और अगर परमेश्वर तुम्हें ठुकरा दे तो समझो तुम्हारे लिए सब खत्म हो गया है। जिन लोगों में परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं होता, वे सभी खुद को चतुर समझते हैं; वास्तव में उन्हें पता भी नहीं चलता कि उन्होंने कब उसे ठेस पहुँचा दी। कुछ लोग इन बातों को स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते; उन्हें लगता है, “मैं तो केवल अधिक कार्य करने और अधिक जिम्मेदारियाँ लेने के लिए ही प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे पड़ा हूँ। इससे कलीसिया के कार्य में कोई विघ्न-बाधा या गड़बड़ी तो नहीं हो रही है और निश्चित रूप से परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान नहीं पहुँच रहा है। यह कोई बड़ी समस्या नहीं है। मुझे बस रुतबे से प्रेम है और मैं उसकी रक्षा करता हूँ, लेकिन यह कोई बुरा काम नहीं है।” हो सकता है कि देखने में इस तरह का मकसद बुरा कार्य न लगे, लेकिन अंत में इसका नतीजा क्या होता है? क्या ऐसे लोगों को सत्य प्राप्त होता है? क्या वे उद्धार प्राप्त कर पाएँगे? बिल्कुल नहीं। इसलिए प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागना सही मार्ग नहीं है—यह मार्ग सत्य की खोज के बिल्कुल विपरीत दिशा में है। संक्षेप में, तुम्हारी खोज की दिशा या उद्देश्य चाहे जो भी हो, यदि तुम रुतबे और प्रतिष्ठा के पीछे दौड़ने पर विचार नहीं करते और अगर तुम्हें इसे दरकिनार करना बहुत मुश्किल लगता है तो वह तुम्हारे जीवन प्रवेश को प्रभावित करेगा। जब तक तुम्हारे दिल में रुतबा बसा हुआ है, तब तक यह तुम्हारे जीवन की दिशा और अनुसरण के लक्ष्य को नियंत्रित और प्रभावित करने में पूरी तरह से सक्षम होगा; ऐसी स्थिति में अपने स्वभाव में बदलाव लाने की बात तो तुम भूल ही जाओ, तुम्हारे लिए सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना भी बहुत मुश्किल होगा; तुम अंततः परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त कर पाओगे या नहीं, यह बेशक स्पष्ट है। इसके अलावा यदि तुम रुतबे के पीछे भागना कभी नहीं त्याग पाते तो इससे तुम्हारे मानक स्तर के अनुरूप कर्तव्य करने की क्षमता पर भी असर पड़ेगा। तब तुम्हारे लिए मानक स्तर का सृजित प्राणी बनना बहुत मुश्किल हो जाएगा। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? जब लोग रुतबे के पीछे भागते हैं तो परमेश्वर को इससे बेहद घृणा होती है, क्योंकि रुतबे के पीछे भागना शैतानी स्वभाव है, यह एक गलत मार्ग है, यह शैतान की भ्रष्टता से पैदा होता है, परमेश्वर इसका तिरस्कार करता है और परमेश्वर इसी चीज का न्याय और शुद्धिकरण करता है। लोगों के रुतबे के पीछे भागने से परमेश्वर को सबसे ज्यादा घृणा है और फिर भी तुम अड़ियल बनकर रुतबे के लिए होड़ करते हो, उसे हमेशा सँजोए और संरक्षित किए रहते हो, उसे हासिल करने की कोशिश करते रहते हो। क्या इन सभी में थोड़ा-सा परमेश्वर-विरोधी होने का गुण नहीं है? लोगों के लिए रुतबे को परमेश्वर ने नियत नहीं किया है; परमेश्वर लोगों को सत्य, मार्ग और जीवन प्रदान करता है, ताकि वे अंततः मानक स्तर के सृजित प्राणी, एक छोटा और नगण्य सृजित प्राणी बन जाएँ—वह इंसान को ऐसा व्यक्ति नहीं बनाता जिसके पास रुतबा और प्रतिष्ठा हो और जिस पर हजारों लोग श्रद्धा रखें। और इसलिए इसे चाहे किसी भी दृष्टिकोण से देखा जाए, रुतबे के पीछे भागने का मतलब एक अंधी गली में पहुँचना है। रुतबे के पीछे भागने का तुम्हारा बहाना चाहे जितना भी उचित हो, यह मार्ग फिर भी गलत है और परमेश्वर इसे स्वीकृति नहीं देता। तुम चाहे कितना भी प्रयास करो या कितनी बड़ी कीमत चुकाओ, अगर तुम रुतबा चाहते हो तो परमेश्वर तुम्हें वह नहीं देगा; अगर परमेश्वर तुम्हें रुतबा नहीं देता तो तुम उसे पाने की लड़ाई में नाकाम रहोगे और अगर तुम लड़ाई करते ही रहोगे तो उसका केवल एक ही परिणाम होगा : बेनकाब करके तुम्हें हटा दिया जाएगा और तुम्हारे सारे रास्ते बंद हो जाएँगे। तुम इसे समझते हो, है न?
7 मार्च 2020
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