मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते और वे व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ विश्वासघात तक कर देते हैं (भाग तीन) खंड चार
2. मसीह-विरोधी अपने से अधिक शक्तिशाली लोगों के साथ कैसे पेश आते हैं
जब अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की रक्षा करने के संबंध में मसीह-विरोधियों की इच्छा की बात आती है तो वे काट-छाँट किए जाने के दौरान न केवल अपने प्रकृति सार को प्रदर्शित और प्रकट करते हैं, बल्कि मसीह-विरोधी लोग कई अन्य प्रकार की स्थितियों और मामलों का भी सामना करते हैं। इसलिए दूसरा विषय जिस पर हम संगति करेंगे, वह यह है कि मसीह-विरोधी लोगों के समूहों के बीच अपना रुतबा और प्रतिष्ठा कैसे बनाए रखते हैं। लोगों के समूह के बीच, मसीह-विरोधी ऐसे कौन से व्यवहार प्रदर्शित करते हैं जो यह दर्शा सकता है कि वे जो कुछ भी करते हैं उसमें अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की रक्षा करने की कोशिश कर रहे होते हैं? क्या यह विषय स्पष्ट है? इसका दायरा बड़ा है या छोटा? क्या यह किसी का प्रतिनिधित्व करता है? (यह प्रतिनिधित्व करता है।) यह विषय सीधे मसीह-विरोधियों के प्रकृति सार से संबंधित है। लोगों के समूहों के बीच रहते हुए मसीह-विरोधी कौन सी अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित करते हैं? अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की रक्षा के लिए वे किस तरह का रवैया अपनाते हैं और कौन-से क्रियाकलाप करते हैं? पहली बात, अगर मसीह-विरोधियों के पास कोई रुतबा नहीं है तो क्या वे फिर भी मसीह-विरोधी कहलाएँगे? (हाँ।) तुम्हें इस सिद्धांत की स्पष्ट समझ होनी चाहिए। ऐसा मत सोचो कि केवल रुतबे वाले लोगों में ही मसीह-विरोधियों का सार हो सकता है और वे ही मसीह-विरोधी हो सकते हैं या बिना रुतबे वाले साधारण लोग मसीह-विरोधी नहीं होते। इसका दायरा वास्तव में बहुत बड़ा है। जिस व्यक्ति में भी मसीह-विरोधियों का सार है, वह मसीह-विरोधी है, फिर चाहे उसके पास रुतबा हो या न हो और चाहे वह कोई अगुआ हो या कोई साधारण विश्वासी; यह उसके सार से निर्धारित होता है। तो, मसीह-विरोधी के सार वाले लोग साधारण विश्वासी होते हुए भी कौन-सी अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित करते हैं? उनके प्रकृति सार के कौन-से खुलासे इस बात का पर्याप्त सबूत हैं कि वे वास्तव में मसीह-विरोधी हैं? सबसे पहले, आओ देखें कि वे लोगों के समूहों के बीच कैसे रहते हैं, दूसरों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं और सत्य के प्रति उनका रवैया कैसा होता है। जिसके बारे में सबसे ज्यादा संगति करनी चाहिए, वह यह नहीं है कि मसीह-विरोधी क्या खाते हैं, क्या पहनते हैं, कहाँ रहते हैं या कैसे घूमते-फिरते हैं, बल्कि यह है कि वे समूहों में रहते हुए अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की रक्षा कैसे करते हैं। भले ही वे साधारण विश्वासी हों, फिर भी वे लगातार अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की रक्षा करने की कोशिश करते हैं, लगातार इस तरह के स्वभाव और सार को प्रकट करते हैं और इस तरह की चीजें करते हैं। इस तरह, इससे हमें मसीह-विरोधियों के स्वभाव और सार को बेहतर ढंग से समझने में मदद मिलती है। मसीह-विरोधियों के पास चाहे रुतबा हो या न हो और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे कब या कहाँ रहते हैं, मसीह-विरोधियों का स्वभाव और सार हमेशा उनमें प्रकट और अभिव्यक्त होता रहता है। यह किसी स्थान, भूगोल या लोगों, घटनाओं और चीजों तक सीमित नहीं है।
जब मसीह-विरोधी लोग कोई कर्तव्य निभाते हैं, चाहे वे कोई भी हों और जिस किसी भी समूह में हों, वे एक अलग तरह का आचरण प्रदर्शित करते हैं, जो यह है कि हर चीज में वे हमेशा अलग दिखना चाहते हैं और खुद को प्रदर्शित करना चाहते हैं, वे हमेशा लोगों को बेबस और काबू में करना चाहते हैं, हमेशा लोगों की अगुआई करना और सभी फैसले खुद लेना चाहते हैं, वे हमेशा सुर्खियों में बने रहना चाहते हैं, हमेशा लोगों की नजर और ध्यान अपनी ओर आकर्षित करना चाहते हैं और सभी से प्रशंसा पाना चाहते हैं। जब भी मसीह-विरोधी किसी समूह में शामिल होते हैं, चाहे उसमें कितने भी लोग हों या समूह के सदस्य कोई भी हों या उनका पेशा या पहचान चाहे कुछ भी हो, मसीह-विरोधी सबसे पहले यह देखने के लिए चीजों का जायजा लेते हैं कि कौन रोबदार और उत्कृष्ट है, कौन वाक्पटु है, कौन प्रभावशाली है और कौन सुयोग्य है या किसके पास प्रतिष्ठा है। वे मूल्यांकन करते हैं कि वे किसे हरा सकते हैं और किसे नहीं, साथ ही कौन उनसे बेहतर है और कौन कमतर है। सबसे पहले वे इन्हीं चीजों पर ध्यान देते हैं। स्थिति का तुरंत आकलन करने के बाद वे उन लोगों को अलग रखते हुए और नजरअंदाज करते हुए काम करना शुरू कर देते हैं जो फिलहाल उनके नीचे हैं। वे सबसे पहले उन लोगों के पास जाते हैं जिन्हें वे वरिष्ठ मानते हैं, जिनके पास थोड़ी प्रतिष्ठा और रुतबा है या जिनके पास खूबियाँ या प्रतिभा है। सबसे पहले वे इन लोगों से अपनी तुलना करते हैं। अगर इनमें से किसी का भी भाई-बहन सम्मान करते हैं या कोई लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास कर रहा है और अच्छे पद पर है तो वह मसीह-विरोधियों की ईर्ष्या का लक्ष्य बन जाता है और जाहिर है कि तब उसे प्रतिस्पर्धी की तरह देखा जाता है। फिर मसीह-विरोधी चुपचाप खुद की तुलना उन लोगों से करते हैं जिनके पास प्रतिष्ठा और रुतबा है और जो भाई-बहनों की प्रशंसा पाते हैं। वे ऐसे लोगों पर विचार करना शुरू कर देते हैं, पता लगाते हैं कि वे क्या कर सकते हैं और उन्होंने किस चीज में महारत हासिल की है और क्यों कुछ लोग उनका सम्मान करते हैं। निरीक्षण करते-करते मसीह-विरोधियों को पता चलता है कि ये लोग किसी खास पेशे के विशेषज्ञ हैं और साथ ही हर कोई उन्हें ऊँची नजरों से इसलिए देखता है क्योंकि वे लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास कर रहे हैं और वे कुछ अनुभवजन्य गवाही साझा कर सकते हैं। मसीह-विरोधी ऐसे लोगों को “शिकार” मानते हैं और उन्हें विरोधियों की तरह देखते हैं और फिर वे कार्य योजना बनाते हैं। कैसी कार्य योजना? वे उन पहलुओं को देखते हैं जहाँ वे अपने विरोधियों से मेल नहीं खाते और फिर उन पहलुओं पर काम करना शुरू करते हैं। जैसे कि अगर वे किसी पेशे में उनके जितने अच्छे नहीं हैं तो वे ज्यादा किताबें पढ़कर, सभी तरह की जानकारी ढूँढ़कर और दूसरों से विनम्रतापूर्वक ज्यादा निर्देश माँगकर उस पेशे का अध्ययन करेंगे। वे उस पेशे से संबंधित हर तरह के काम में भाग लेंगे, धीरे-धीरे अनुभव हासिल करेंगे और अपनी शक्ति विकसित करेंगे। और जब उन्हें लगता है कि उनके पास अपने विरोधियों से मुकाबला करने के लिए पर्याप्त पूँजी है तो वे अक्सर अपने “शानदार विचार” व्यक्त करने के लिए आगे आते हैं, जानबूझकर अपने विरोधियों का खंडन करते हैं, उन्हें नीचा दिखाते हैं, उन्हें शर्मिंदा करते हैं और उनका नाम खराब करते हैं; इस तरह वे दर्शाते हैं कि वे कितने चालाक और असाधारण हैं और साथ ही अपने विरोधियों को दबाते भी हैं। स्पष्ट दृष्टि वाले लोग इन सभी चीजों को देख सकते हैं, केवल वे लोग जो मूर्ख और अज्ञानी हैं और जिनमें भेद पहचानने की कमी है, वे नहीं देख सकते। ज्यादातर लोग केवल मसीह-विरोधियों के उत्साह, उनके अनुसरण, उनके कष्ट सहने, कीमत चुकाने और बाहरी अच्छे व्यवहार को देखते हैं, मगर असलियत मसीह-विरोधियों के दिलों की गहराई में छिपी होती है। उनका मूल उद्देश्य क्या है? रुतबा हासिल करना। उनका सारा काम, उनकी सारी मेहनत और वे जो भी कीमत चुकाते हैं वह सब, जिस लक्ष्य पर केंद्रित होता है, वह वही चीज है जिसकी वे अपने दिलों में सबसे अधिक आराधना करते हैं : यानी कि रुतबा और शक्ति।
शक्ति और रुतबा हासिल करने के लिए मसीह-विरोधी कलीसिया में सबसे पहले दूसरों का भरोसा और सम्मान जीतने की कोशिश करते हैं, ताकि वे ज्यादा लोगों को अपने पक्ष में कर सकें, ज्यादा लोग उन्हें ऊँची नजरों से देखें और उनकी आराधना करें और इस तरह कलीसिया में अंतिम फैसला लेने और शक्ति पाने का उनका लक्ष्य पूरा होता है। जब शक्ति हासिल करने की बात आती है, वे दूसरे लोगों से होड़ करने और लड़ने में माहिर होते हैं। जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं, कलीसिया में जिनकी प्रतिष्ठा है और जिनसे भाई-बहन प्रेम करते हैं, वे उनके मुख्य प्रतिस्पर्धी होते हैं। जो कोई भी उनके रुतबे के लिए खतरा है वह उनका प्रतिस्पर्धी है। वे अपने से शक्तिशाली लोगों से बिना किसी हिचकिचाहट के होड़ करते हैं; और अपने से कमजोर लोगों से भी बिना किसी दया भाव के प्रतिस्पर्धा करते हैं। उनके दिल संघर्ष के फलसफों से भरे हुए हैं। उनका मानना है कि अगर लोग लड़ेंगे नहीं और होड़ नहीं करेंगे तो उन्हें कोई लाभ नहीं मिल पाएगा और वे केवल लड़कर और प्रतिस्पर्धा करके ही अपनी मनचाही चीजें हासिल कर सकते हैं। प्रतिष्ठा हासिल करने और लोगों के समूह में एक प्रमुख स्थान पाने के लिए वे दूसरों से प्रतिस्पर्धा करने के लिए कुछ भी करते हैं और वे ऐसे किसी भी व्यक्ति को नहीं छोड़ते जो उनके रुतबे के लिए खतरा हो। चाहे वे किसी से भी बातचीत करें, वे संघर्ष करने की इच्छा से भरे होते हैं और यहाँ तक कि जब वे बुजुर्ग हो जाते हैं, तब भी लड़ते रहते हैं। वे अक्सर कहते हैं : “अगर मैं उस व्यक्ति से प्रतिस्पर्धा करूँ तो क्या उसे हरा पाऊँगा?” जो कोई भी वाक्पटु है और तर्कसंगत, संरचित और व्यवस्थित ढंग से बोल सकता है, वह उनकी ईर्ष्या और उनकी नकल का लक्ष्य बन जाता है। यहाँ तक कि वह उनका प्रतिस्पर्धी बन जाता है। जो कोई भी सत्य का अनुसरण करता है और आस्था रखता है, अक्सर भाई-बहनों की मदद करने और उन्हें सहारा देने में समर्थ है और उन्हें नकारात्मकता और कमजोरी से निकलने में सक्षम बना सकता है, वह भी उनकी प्रतिस्पर्धा का निशाना बन जाता है, उसी तरह कोई भी ऐसा व्यक्ति उनकी प्रतिस्पर्धा का निशाना बन जाता है जो किसी निश्चित पेशे में विशेषज्ञ है और जिसका भाई-बहन थोड़ा-बहुत सम्मान करते हैं। जो कोई भी अपने काम में नतीजा प्राप्त करता है और ऊपरवाले की स्वीकृति प्राप्त करता है, स्वाभाविक रूप से उनके लिए प्रतिस्पर्धा का एक बड़ा स्रोत बन जाता है। मसीह-विरोधी चाहे किसी भी समूह में हों, उनके आदर्श वाक्य क्या होते हैं? तुम लोग अपने विचार बताओ। (अन्य लोगों और स्वर्ग के साथ लड़कर बहुत मजा आता है।) क्या यह पागलपन नहीं है? यह पागलपन है। क्या कोई और भी है? (परमेश्वर, क्या वे यह नहीं सोचते कि : “सारे ब्रह्मांड का सर्वोच्च शासक बस मैं ही हूँ”? यानी कि वे सबसे ऊपर रहना चाहते हैं और चाहे वे किसी के भी साथ हों, हमेशा उनसे आगे निकलना चाहते हैं।) यह उनके कई विचारों में से एक है। कोई और विचार? (परमेश्वर, मुझे चार वचन याद आते हैं : “विजेता राजा होता है।” मुझे लगता है कि वे हमेशा दूसरों से बेहतर बनना चाहते हैं और अलग दिखना चाहते हैं, चाहे वे कहीं भी हों और वे सबसे ऊपर रहने की कोशिश करते हैं।) तुम लोगों ने जो कुछ भी कहा है उनमें से ज्यादातर विचारों के प्रकार हैं; किसी प्रकार के व्यवहार का इस्तेमाल करके उनका वर्णन करने की कोशिश करो। यह जरूरी नहीं कि मसीह-विरोधी जहाँ भी हों, वहाँ सबसे ऊँचा स्थान पाना चाहते हों। जब भी वे किसी स्थान पर जाते हैं तो उनके पास एक स्वभाव और एक मानसिकता होती है जो उन्हें इस तरह काम करने के लिए मजबूर करती है। वह मानसिकता क्या है? वह यह है, “मुझे प्रतिस्पर्धा करनी चाहिए! प्रतिस्पर्धा! प्रतिस्पर्धा!” तीन “प्रतिस्पर्धाएँ” क्यों, एक ही “प्रतिस्पर्धा” क्यों नहीं? (प्रतियोगिता उनका जीवन बन गई है, वे इसी के सहारे जीते हैं।) यह उनका स्वभाव है। वे ऐसे स्वभाव के साथ पैदा हुए थे, जो बेतहाशा अहंकारी है और जिसे नियंत्रित करना मुश्किल है; यानी वे खुद को किसी से भी कम नहीं समझते और बेहद अहंकारी होते हैं। कोई भी उनका यह बेहद अहंकारी स्वभाव कम नहीं कर सकता; वे खुद भी इसे नियंत्रित नहीं कर सकते। इसलिए उनका जीवन लड़ने और प्रतिस्पर्धा करने वाला होता है। वे किसके लिए लड़ते और प्रतिस्पर्धा करते हैं? स्वाभाविक रूप से, वे शोहरत, लाभ, रुतबे, नाम और अपने हितों के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं। चाहे उन्हें जिन भी तरीकों का इस्तेमाल करना पड़े, अगर हर कोई उनके प्रति समर्पण करता है और अगर उन्हें अपने लिए लाभ और प्रतिष्ठा मिलती है तो उन्होंने अपना लक्ष्य हासिल कर लिया होता है। प्रतिस्पर्धा करने की उनकी इच्छा कोई अस्थायी मनोरंजन नहीं होता; यह एक प्रकार का स्वभाव है, जो शैतानी प्रकृति से आता है। यह बड़े लाल अजगर के स्वभाव जैसा है, जो स्वर्ग से लड़ता है, पृथ्वी से लड़ता है और लोगों से लड़ता है। अब, जब मसीह-विरोधी कलीसिया में दूसरों से लड़ते और प्रतिस्पर्धा करते हैं तो वे क्या चाहते हैं? निस्संदेह, वे प्रतिष्ठा और रुतबे के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं। लेकिन अगर वे रुतबा हासिल कर लेते हैं तो इससे उन्हें क्या फायदा होता है? अगर दूसरे उनकी बात सुनते हैं, उनकी प्रशंसा और आराधना करते हैं तो इसमें उनकी क्या भलाई है? खुद मसीह-विरोधी भी इसे स्पष्ट नहीं कर सकते। वास्तव में उन्हें प्रतिष्ठा और रुतबे का आनंद लेना, हर एक का उन्हें देखकर मुस्कुराना और चापलूसी और खुशामद के साथ अपना स्वागत किया जाना पसंद है। इसलिए हर बार जब कोई मसीह-विरोधी कलीसिया जाता है तो वह एक काम करता है : दूसरों से लड़ना और प्रतिस्पर्धा करना। सत्ता और प्रतिष्ठा प्राप्त करने के बाद भी उनका काम पूरा नहीं होता। अपनी हैसियत बचाने और अपनी सत्ता सुरक्षित रखने के लिए वे दूसरों से लड़ते और प्रतिस्पर्धा करते रहते हैं। ऐसा वे मरते दम तक करते हैं। इसलिए मसीह-विरोधियों का फलसफा है, “जब तक तुम जीवित हो, लड़ना बंद मत करो।” अगर इस तरह का कोई बुरा व्यक्ति कलीसिया के भीतर मौजूद है तो क्या इससे भाई-बहन परेशान होंगे? उदाहरण के लिए, मान लो कि हर कोई चुपचाप परमेश्वर के वचन खा-पी रहा है और सत्य पर संगति कर रहा है और माहौल शांतिपूर्ण और मनोदशा खुशनुमा है। ऐसे वक्त पर मसीह-विरोधी असंतोष से उबल रहा होगा। वह सत्य पर संगति करने वालों से ईर्ष्या और घृणा करेगा। वह उन पर आक्रमण करना और उनकी आलोचना करना शुरू कर देगा। क्या इससे शांतिपूर्ण माहौल बिगड़ेगा नहीं? वह एक बुरा व्यक्ति है, जो दूसरों को परेशान करने और उनसे घृणा करने आया है। मसीह-विरोधी ऐसे ही होते हैं। कभी-कभी मसीह-विरोधी उन लोगों को नष्ट या पराजित करने की कोशिश नहीं करते, जिनके साथ वे प्रतिस्पर्धा करते और जिन्हें दबाते हैं; अगर वे प्रतिष्ठा, रुतबा, गौरव और नाम हासिल कर लेते हैं और लोगों से अपनी प्रशंसा करवा लेते हैं तो उन्होंने अपना लक्ष्य प्राप्त कर लिया होता है। प्रतिस्पर्धा करते हुए वे एक प्रकार का स्पष्ट शैतानी स्वभाव दिखाते हैं। यह कैसा स्वभाव है? यही कि चाहे वे किसी भी कलीसिया में क्यों न हों, वे हमेशा दूसरे लोगों के साथ प्रतिस्पर्धा और लड़ाई करना चाहते हैं, वे हमेशा शोहरत, लाभ और रुतबे के लिए प्रतिस्पर्धा करना चाहते हैं और जब कलीसिया में अव्यवस्था और उथल-पुथल मच जाती है, जब वे रुतबा हासिल कर लेते हैं और हर कोई उनके आगे झुकता है, केवल तभी उन्हें लगता है कि उन्होंने अपना लक्ष्य हासिल कर लिया है। यह मसीह-विरोधियों की प्रकृति है यानी वे अपने लक्ष्यों को हासिल करने के लिए प्रतिस्पर्धा और लड़ाई का रास्ता अपनाते हैं।
चाहे वे किसी भी समूह में क्यों न हों, मसीह-विरोधियों का आदर्श वाक्य क्या होता है? “मुझे प्रतिस्पर्धा करनी चाहिए! प्रतिस्पर्धा! प्रतिस्पर्धा! मुझे सर्वोच्च और सबसे बड़ा बनने के लिए प्रतिस्पर्धा करनी चाहिए!” यह मसीह-विरोधियों का स्वभाव है; वे जहाँ भी जाते हैं, प्रतिस्पर्धा करते हैं और अपने लक्ष्य हासिल करने का प्रयास करते हैं। वे शैतान के सेवक हैं और वे कलीसिया के काम में बाधा डालते हैं। मसीह-विरोधियों का स्वभाव ऐसा होता है : वे कलीसिया के चारों ओर यह देखने से शुरुआत करते हैं कि कौन लंबे समय से परमेश्वर पर विश्वास कर रहा है और किसके पास पूँजी है, किसके पास कुछ खूबियाँ या प्रतिभाएँ हैं, कौन भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश में लाभकारी रहा है, किसके पास अधिक प्रतिष्ठा है, किसमें वरिष्ठता है, किसका भाई-बहनों के बीच आदर से उल्लेख किया जाता है, किसमें अधिक सकारात्मक चीजें हैं। उन्हीं लोगों से उन्हें प्रतिस्पर्धा करनी है। संक्षेप में हर बार जब मसीह-विरोधी लोगों के समूह में होते हैं तो वे हमेशा यही करते हैं : वे रुतबे के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं, अच्छी प्रतिष्ठा के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं, मामलों पर अपना अंतिम फैसला देने और समूह में निर्णय लेने का अधिकार पाने के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं, जिनकी प्राप्ति उन्हें खुश कर देती है। मगर क्या वे इन चीजों को हासिल करने के बाद भी कोई वास्तविक कार्य कर पाते हैं? बिल्कुल नहीं, वे वास्तविक कार्य करने के लिए प्रतिस्पर्धा या संघर्ष नहीं करते; उनका लक्ष्य दूसरों को काबू में करना होता है। “मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम मेरे सामने झुकने को तैयार हो या नहीं; पूँजी के मामले में मैं सबसे बड़ा हूँ, जहाँ तक बोलने के कौशल की बात है, मैं सबसे अच्छा हूँ और मेरे पास सबसे अधिक खूबियाँ और प्रतिभाएँ हैं।” क्षेत्र चाहे कोई भी हो, वे हमेशा पहले स्थान पर रहने के लिए प्रतिस्पर्धा करना चाहते हैं। अगर भाई-बहन उन्हें पर्यवेक्षक बनाते हैं तो वे अपनी बात मनवाने और निर्णय लेने के अधिकार के लिए अपने साथियों से प्रतिस्पर्धा करेंगे। अगर कलीसिया उन्हें किसी खास कार्य का प्रभारी बनाती है तो वे इस पर जोर देंगे कि इसे कैसे किया जाए इसका निर्णय वे खुद लें। वे जो कुछ भी कहते हैं और जो भी फैसले लेते हैं, उसे पूरा करने और वास्तविकता में बदलने की कोशिश करना चाहेंगे। अगर भाई-बहन किसी और के विचार को अपनाते हैं तो क्या वे इसकी अनुमति देंगे? (नहीं।) यह मुसीबत वाली बात है। अगर तुम उनकी बात नहीं सुनते तो वे तुम्हें सबक सिखाएँगे, तुम्हें यह महसूस कराएँगे कि उनके बिना तुम्हारा काम नहीं चल सकता और तुम्हें यह भी दिखाएँगे कि उनकी बात न मानने के क्या परिणाम होंगे। मसीह-विरोधियों का स्वभाव इतना दंभी, घिनौना और अविवेकी होता है। उनके पास न तो जमीर होता है, न विवेक, न ही सत्य का कोई कण। मसीह-विरोधी के कार्यों और कर्मों में देखा जा सकता है कि वह जो कुछ करता है, उसमें सामान्य व्यक्ति का विवेक नहीं होता और भले ही कोई उनके साथ सत्य के बारे में संगति करे, वे उसे नहीं स्वीकारते। तुम्हारी बात कितनी भी सही हो, उन्हें स्वीकार्य नहीं होती। एकमात्र चीज, जिसका वे अनुसरण करना पसंद करते हैं, वह है प्रतिष्ठा और रुतबा, जिसके प्रति वे श्रद्धा रखते हैं। जब तक वे रुतबे के लाभ उठा सकते हैं, तब तक वे संतुष्ट रहते हैं। वे मानते हैं कि यह उनके अस्तित्व का मूल्य है। चाहे वे किसी भी समूह के लोगों के बीच हों, उन्हें लोगों को वह “प्रकाश” और “गर्मजोशी” दिखानी होती है जो वे प्रदान करते हैं, अपनी प्रतिभाएँ, अपनी विशिष्टता दिखानी होती है। चूँकि वे मानते हैं कि वे विशेष हैं, इसलिए वे स्वाभाविक रूप से सोचते हैं कि उनके साथ साधारण लोगों के मुकाबले बेहतर व्यवहार किया जाना चाहिए, कि उन्हें लोगों का समर्थन और प्रशंसा मिलनी चाहिए, कि लोगों को उन्हें सम्मान देना चाहिए, उनकी पूजा करनी चाहिए—उन्हें लगता है कि यह सब उनका हक है। क्या ऐसे लोग निर्लज्ज और बेशर्म नहीं होते? क्या ऐसे लोगों का कलीसिया में मौजूद रहना समस्या नहीं है? जब कुछ घटित होता है तो यह सामान्य समझ की बात है कि लोगों को उसकी सुननी चाहिए जो सही बोलता हो, उसकी बात माननी चाहिए जो परमेश्वर के घर के कार्य के लिए लाभकारी सुझाव देता हो और जिसका भी सुझाव सत्य सिद्धांतों के अनुरूप हो उन्हें उसे अपनाना चाहिए। अगर मसीह-विरोधी कुछ ऐसा कहते हैं जो सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है तो हो सकता है कि बाकी सभी लोग उनकी बात न सुनें या उनके सुझाव को न अपनाएँ। ऐसे में, मसीह-विरोधी क्या करेंगे? वे खुद का बचाव करने और अपने आपको सही ठहराने की कोशिश करते रहेंगे और दूसरों को समझाने के तरीके सोचेंगे और भाई-बहनों को उनकी बात सुनने और उनके सुझाव को अपनाने के लिए मजबूर करेंगे। वे इस बात पर विचार नहीं करेंगे कि अगर उनके सुझाव को अपनाया जाता है तो इसका कलीसिया के काम पर क्या प्रभाव पड़ सकता है। यह उनके विचार के दायरे में नहीं आता। वे केवल किस बात पर विचार करेंगे? “अगर मेरा सुझाव नहीं अपनाया जाता है तो मैं अपना चेहरा कहाँ दिखा पाऊँगा? इसलिए, मुझे प्रतिस्पर्धा करनी होगी और कोशिश करनी होगी ताकि मेरा सुझाव अपनाया जाए।” जब भी कुछ घटित होता है तो वे इसी तरह सोचते और काम करते हैं। वे कभी इस बात पर विचार नहीं करते कि यह सिद्धांतों के अनुरूप है या नहीं और न ही वे कभी भी सत्य को स्वीकारते हैं। यही मसीह-विरोधियों का स्वभाव है।
मसीह-विरोधियों में विवेक की पूर्णतः कमी की प्राथमिक अभिव्यक्ति क्या है? वे मानते हैं कि उनके पास खूबियाँ हैं, वे सक्षम हैं, उनमें अच्छी काबिलियत है और अन्य लोगों को उनकी आराधना और उनका समर्थन करना चाहिए और परमेश्वर के घर को चाहिए कि उन्हें किसी महत्वपूर्ण पद पर रखे। इसके अलावा, वे यह भी मानते हैं कि परमेश्वर के घर को उनके सभी सुझावों और विचारों को अपनाना और बढ़ावा देना चाहिए और अगर परमेश्वर का घर उन्हें नहीं अपनाता है तो वे बहुत गुस्सा हो जाते हैं, परमेश्वर के घर के खिलाफ हो जाते हैं और अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लेते हैं। क्या मसीह-विरोधियों के स्वभाव और सार के ऐसे खुलासे से कलीसिया में विघ्न-बाधाएँ और गड़बड़ियाँ पैदा नहीं होती हैं? यह कहा जा सकता है कि मसीह-विरोधियों के सभी क्रियाकलापों से कलीसिया के कार्य में और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश में बहुत सारी विघ्न-बाधाएँ और गड़बड़ियाँ पैदा होती हैं। जब मसीह-विरोधी लोग कलीसिया में अगुआ के पदों के लिए और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के बीच प्रतिष्ठा के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं तो वे दूसरों पर हमला करने और खुद को ऊपर उठाने के लिए हरसंभव तरीका अपनाते हैं। वे यह नहीं सोचते कि वे परमेश्वर के घर के कार्य और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन-प्रवेश को कितनी बुरी तरह नुकसान पहुँचा सकते हैं। वे सिर्फ इस बात पर विचार करते हैं कि क्या उनकी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ पूरी हो सकती हैं और क्या उनके अपने रुतबे और प्रतिष्ठा को बचाया जा सकता है। कलीसियाओं में और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के बीच उनकी भूमिका राक्षसों, कुकर्मियों और शैतान के सेवकों के रूप में होती है। वे ऐसे लोग बिल्कुल नहीं होते जो वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हैं, न ही वे परमेश्वर के अनुयायी होते हैं और ऐसे लोग तो वे बिल्कुल नहीं होते जो सत्य से प्रेम करते और उसे स्वीकारते हैं। जब उनके इरादे और लक्ष्य अभी पूरे नहीं हुए होते तो वे कभी आत्मचिंतन करके खुद को नहीं जानते, वे कभी इस बात पर विचार नहीं करते कि उनके इरादे और लक्ष्य सत्य के अनुरूप हैं या नहीं, वे कभी इस बात की खोज नहीं करते कि उद्धार प्राप्त करने के लिए सत्य के अनुसरण के मार्ग पर कैसे चलें। वे समर्पण वाली मनोदशा के साथ परमेश्वर में विश्वास नहीं करते और वह मार्ग नहीं चुनते जिस पर उन्हें चलना चाहिए। इसके बजाय वे यह सोचने में दिमाग खपाते हैं : “मुझे अगुआ या कार्यकर्ता का पद कैसे मिल सकता है? मैं कलीसिया के अगुआओं और कार्यकर्ताओं के साथ प्रतिस्पर्धा कैसे कर सकता हूँ? मैं परमेश्वर के चुने हुए लोगों को गुमराह और काबू में करके मसीह को महज एक पुतला कैसे बना सकता हूँ? कलीसिया में अपने लिए जगह कैसे सुरक्षित कर सकता हूँ? यह कैसे सुनिश्चित कर सकता हूँ कि कलीसिया में मेरी पकड़ मजबूत है और मुझे रुतबा हासिल है, यह गारंटी कैसे मिल सकती है कि मुझे सफलता मिले और मैं विफल न होऊँ और अंततः परमेश्वर के चुने हुए लोगों को काबू में करने और अपना राज्य स्थापित करने का मेरा लक्ष्य हासिल करूँ?” मसीह-विरोधी दिन-रात इन्हीं चीजों के बारे में सोचते रहते हैं। यह कैसा स्वभाव और प्रकृति है? उदाहरण के लिए, जब साधारण भाई-बहन गवाहियों के लेख लिखते हैं तो वे सोचते हैं कि अपने अनुभवों और समझ को लेख में ईमानदारी से कैसे व्यक्त किया जाए। इसलिए वे इस उम्मीद में परमेश्वर के सामने प्रार्थना करते हैं कि वह उन्हें सत्य के संबंध में और ज्यादा प्रबुद्ध बनाएगा और उन्हें इसकी बेहतर और ज्यादा गहरी समझ हासिल करने में सक्षम बनाएगा। वहीं दूसरी ओर जब मसीह-विरोधी लेख लिखते हैं तो वे इस बात पर विचार करने में अपना दिमाग खपाते हैं कि किस तरह से ऐसा लिखें जिससे ज्यादा लोग उन्हें समझें, उनके बारे में जानें और उनकी प्रशंसा करें और इस तरह ज्यादा लोगों के मन में उनका रुतबा बढ़े। वे अपनी शोहरत बढ़ाने के लिए इस सबसे साधारण, मामूली चीज का उपयोग करना चाहते हैं। वे इस तरह के अवसर को भी हाथ से नहीं जाने दे सकते। वे किस तरह के लोग हैं? कुछ मसीह-विरोधी, यह देखकर कि दूसरे लोग अनुभवजन्य गवाहियों के लेख लिख सकते हैं, रुतबे और प्रतिष्ठा के लिए उनसे प्रतिस्पर्धा करने के प्रयास में दूसरों की अनुभवजन्य गवाहियों से ज्यादा शानदार कुछ लिखने की इच्छा रखते हैं। और इसलिए, वे कहानियाँ गढ़ते और चुराते हैं। यहाँ तक कि वे झूठी गवाही देने जैसी हरकतें करने की भी जुर्रत करते हैं। खुद का नाम बनाने, ज्यादा से ज्यादा लोगों को अपने बारे में जानने देने और अपना नाम फैलाने के लिए, मसीह-विरोधी कोई भी शर्मनाक हरकत करने से नहीं हिचकिचाते हैं। वे मशहूर होने, रुतबा पाने और लोगों के समूह के बीच सम्मानित होने और विशेष सम्मान के साथ देखे जाने का मामूली-सा भी मौका नहीं गँवाते। वे ऐसा क्यों चाहते हैं कि लोग उन्हें विशेष सम्मान के साथ देखें? मसीह-विरोधी क्या परिणाम और लक्ष्य हासिल करना चाहते हैं? मसीह-विरोधी चाहते हैं कि दूसरे उन्हें असाधारण लोगों के रूप में देखें, जो दूसरों से ज्यादा महान हैं और जो कुछ क्षेत्रों में श्रेष्ठ हैं; वे दूसरों के मन में एक अच्छी और गहरी छाप छोड़ना चाहते हैं और यहाँ तक कि धीरे-धीरे दूसरे लोगों को उनसे ईर्ष्या, उनकी प्रशंसा और उनका सम्मान करने के लिए मजबूर करना चाहते हैं। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए अपनी पूरी ताकत से प्रयास करते हुए, वे उसी मार्ग पर चलते रहते हैं जिस पर वे पहले चलते थे।
मसीह-विरोधी चाहे लोगों के किसी भी समूह में हों, चाहे वे दिखावा कर रहे हों या मेहनत, उनके दिलों की गहराई में सिर्फ रुतबा पाने की इच्छा छिपी होती है। जो सार वे प्रकट और अभिव्यक्त करते हैं, वह लड़ाई और प्रतिस्पर्धा से बढ़कर कुछ नहीं है। मसीह-विरोधी चाहे जो कुछ भी करें, वे उसमें रुतबा, नाम और हितों के लिए दूसरों के साथ प्रतिस्पर्धा करते हैं। इसकी सबसे सामान्य अभिव्यक्ति लोगों के मन में एक अच्छा नाम, अच्छी प्रशंसा और रुतबा पाने के लिए प्रतिस्पर्धा करना है, ताकि लोग उनका सम्मान और उनकी आराधना करें और उनके इर्द-गिर्द घूमें। मसीह-विरोधी इसी मार्ग पर चलते हैं; वे इसके लिए ही प्रतिस्पर्धा करते हैं। परमेश्वर के वचन इन चीजों की चाहे कितनी भी निंदा और गहन-विश्लेषण करें, मसीह-विरोधी सत्य को या परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को स्वीकार नहीं करेंगे या इन चीजों को नहीं छोड़ेंगे जिनकी परमेश्वर आलोचना और निंदा करता है। इसके विपरीत परमेश्वर इन चीजों को जितना ज्यादा उजागर करता है, मसीह-विरोधी उतने ही ज्यादा शातिर बन जाते हैं। वे इन चीजों का अनुसरण करने के लिए ज्यादा गुप्त और धूर्त तरीके अपनाते हैं, ताकि लोग यह न देख सकें कि वे क्या कर रहे हैं और गलती से यह मान लें कि उन्होंने इन चीजों को त्याग दिया है। परमेश्वर इन चीजों को जितना ज्यादा उजागर करता है, मसीह-विरोधी उनका अनुसरण करने और उन्हें पाने के लिए ज्यादा कुटिल और शातिर तरीकों का इस्तेमाल करने के उतने ही ज्यादा तरीके ढूँढ़ लेते हैं। इसके अलावा वे अपनी गुप्त मंशाओं को छिपाने के लिए मीठी-मीठी बातें करते हैं। संक्षेप में, मसीह-विरोधी बिल्कुल भी सत्य स्वीकार नहीं करते, अपने व्यवहार पर चिंतन नहीं करते या प्रार्थना करते हुए और सत्य खोजते हुए परमेश्वर के समक्ष नहीं आते। इसके विपरीत वे परमेश्वर के खुलासे और न्याय से अपने दिलों में इतने ज्यादा असंतुष्ट होते हैं कि इन चीजों के प्रति शत्रुतापूर्ण रवैया अपना लेते हैं। न केवल वे प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागना नहीं छोड़ते, बल्कि इन चीजों को और ज्यादा सँजोते हैं; साथ ही वे अपनी इस कोशिश को छिपाने और लोगों को इसकी असलियत देखने और इसे पहचानने से रोकने के लिए कई तरकीबें लगाते हैं। परिस्थिति चाहे कैसी भी हो, मसीह-विरोधी न केवल सत्य का अभ्यास करने में विफल होते हैं, बल्कि जब उनका असली रंग सामने आता है यानी जब वे गलती से अपनी इन महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं को प्रकट करते हैं तो उन्हें इसकी और भी ज्यादा चिंता होती है कि अन्य लोग परमेश्वर के वचनों और सत्य के आधार पर उनके सार और असली चेहरे को देख लेंगे, इसलिए वे इसे छिपाने और खुद का बचाव करने की भरसक कोशिश करते हैं। इसे छिपाने के पीछे उनका क्या मकसद होता है? वे अपने रुतबे और प्रतिष्ठा को नुकसान से बचाने और अगली लड़ाई के लिए अपनी शक्ति बचाकर रखने के लिए ऐसा करते हैं। यह मसीह-विरोधियों का सार होता है। चाहे जब भी हो या परिस्थिति चाहे कैसी भी हो, उनके स्व-आचरण के लक्ष्य और दिशा नहीं बदलेंगे, न ही जीवन में उनके लक्ष्य, उनके क्रियाकलापों के पीछे के सिद्धांत या उनके दिलों की गहराई में रुतबे के पीछे भागने की उनकी इच्छा, महत्वाकांक्षा और उद्देश्य ही कभी बदलेंगे। वे रुतबा हासिल करने के लिए न केवल अपनी भरसक कोशिश करेंगे, बल्कि उसे पाने के लिए अपने प्रयासों को और बढ़ा देंगे। परमेश्वर के घर में सत्य पर जितनी ज्यादा संगति होगी, उतना ही ज्यादा वे ऐसे कुछ स्पष्ट व्यवहारों और अभिव्यक्तियों का उपयोग करने से चतुराई से कतराएँगे जिनकी असलियत दूसरे लोग देख और भेद पहचान सकते हैं। वे अपना तरीका बदल देंगे और अपनी गलतियों को स्वीकारते हुए फूट-फूट कर रोएँगे, खुद की निंदा करेंगे, लोगों की सहानुभूति बटोरेंगे, उन्हें गलती से यह विश्वास दिलाएँगे कि उन्होंने पश्चात्ताप किया है और वे बदल गए हैं और लोगों के लिए उनका भेद पहचानना मुश्किल बना देंगे। मसीह-विरोधियों का यह सार क्या है? क्या यह थोड़ी कुटिलता नहीं है? (बिल्कुल है।) जब लोग इतने कुटिल होते हैं तो वे दानव होते हैं। क्या दानव वास्तव में पश्चात्ताप कर सकते हैं? क्या वे वाकई रुतबे के पीछे भागने की अपनी महत्वाकांक्षा और इच्छा को छोड़ सकते हैं? दानव अपनी इस महत्वाकांक्षा को छोड़ने के बजाय मरना पसंद करेंगे। तुम चाहे उनके साथ सत्य पर कैसे भी संगति करो, इसका कोई फायदा नहीं होगा, वे इस महत्वाकांक्षा को नहीं छोड़ेंगे। अगर इस परिस्थिति में वे लड़ाई हार जाते हैं और भाई-बहनों द्वारा उजागर किए जाते हैं तो भी वे लड़ाई करते रहेंगे और रुतबे, पहचान, अंतिम निर्णय खुद लेने और अगले समूह में जाने पर फैसले लेने का अधिकार रखने के लिए प्रतिस्पर्धा करना जारी रखेंगे। वे इन चीजों के लिए प्रतिस्पर्धा करेंगे। चाहे कोई भी परिस्थिति हो या वे लोगों के किसी भी समूह में हों, वे हमेशा प्रतिस्पर्धा करने के सिद्धांत पर चलते हैं : “केवल मैं ही अगुआई कर सकता हूँ; कोई और मेरी अगुआई नहीं कर सकता!” वे साधारण विश्वासी बिल्कुल नहीं बनना चाहते और न ही अन्य लोगों की अगुआई या मदद को स्वीकारना चाहते हैं। यही मसीह-विरोधियों का सार है।
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