मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते और वे व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ विश्वासघात तक कर देते हैं (भाग तीन) खंड तीन
हमेशा रुतबे का आनंद लेने और सदैव अंतिम फैसला खुद लेने के अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए मसीह-विरोधी अक्सर लोगों को गुमराह करते हैं, उन्हें जीतते हैं और ऐसे दावों का इस्तेमाल करके उन्हें काबू में करते हैं कि वे परमेश्वर के घर में लोकप्रिय हैं, परमेश्वर ने उन्हें महत्वपूर्ण पदों पर रखा है और परमेश्वर उनका सम्मान और उन पर भरोसा करता है। मसीह-विरोधियों को सबसे ज्यादा किस बात का डर होता है? वे सबसे ज्यादा अपना रुतबा खोने और अपनी प्रतिष्ठा खराब होने से डरते हैं। वे इस बात से डरते हैं कि भाई-बहन यह सोचेंगे कि वे सत्य का अनुसरण नहीं करते, कि उनकी काबिलियत बहुत कम है, उन्हें कोई आध्यात्मिक समझ नहीं है या वे कोई वास्तविक कार्य नहीं करते और कोई भी वास्तविक कार्य करने में असमर्थ हैं। मसीह-विरोधी सबसे ज्यादा इन्हीं चीजों को सुनने से डरते हैं। इस तरह की बातें और घोषणाएँ सुनते ही मसीह-विरोधी घबरा जाते हैं और यहाँ तक कि चिढ़ भी जाते हैं; कभी-कभी तो यहाँ तक कि गुस्से में आ जाते हैं और कहते हैं, “मेरे पास कम काबिलियत है तो जिससे काम कराना है करा लो; मैं वैसे भी यह काम नहीं कर सकता! परमेश्वर तो धार्मिक है न? मेरे भाई-बहनों, मैंने इतने सालों से उसमें विश्वास किया है, उसके लिए अपना परिवार और करियर त्याग दिया और तुम लोगों के लिए कितना कुछ सहा। तुम मेरे बारे में कोई निष्पक्ष बात क्यों नहीं बोल सकते?” वे अब अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे पर कोई ध्यान नहीं दे सकते, न ही वे खुद को छिपाने या दिखावा करने की कोशिश करते हैं; उनकी कुरूपता पूरी तरह से सामने आ गई है। अपना गुस्सा उतारने के बाद वे अपने आँसू पोछते हैं और सोचते हैं, “अरे, नहीं; मैंने अपनी बदनामी करा ली। मुझे वापसी करनी होगी!” फिर वे दिखावा करना जारी रखते हैं, वे अच्छे-अच्छे नारे और धर्म-सिद्धांतों को सीखना, धर्मोपदेश सुनना, पढ़ना, प्रवचन देना और लोगों को गुमराह करना जारी रखते हैं। उन्हें लगता है कि उन्हें अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को बचाना होगा और वे आशा करते हैं कि एक दिन जब चुनाव का समय आएगा, भाई-बहन यह सब होने के बावजूद भी उनके बारे में सोचेंगे, उनके द्वारा किए गए अच्छे कामों को याद करेंगे, उनके द्वारा चुकाई गई कीमतों और उनकी कही गई बातों को याद करेंगे। कितनी बड़ी बेशर्मी है, है न? उनकी पुरानी प्रकृति बिल्कुल भी नहीं बदली है, है न? मसीह-विरोधी कभी बदलते क्यों नहीं हैं? यह उनके प्रकृति सार से निर्धारित होता है, वे नहीं बदल सकते; वे ऐसे ही हैं। जब उनकी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ धुएँ में उड़ जाती है तो वे गुस्सा होते हैं और फिर उनका व्यवहार पहले से बेहतर हो जाता है। मैंने हाल ही में किसी के बारे में पूछा था कि वह आजकल कैसा है तो कुछ भाई-बहनों ने बताया कि उसका व्यवहार बहुत अच्छा रहा है। “अच्छे व्यवहार” का क्या मतलब था? इसका यह मतलब था कि आजकल उसका व्यवहार काफी बेहतर हो गया है और पहले से काफी बेहतर आचरण कर रहा है; अब वह मुसीबत खड़ी नहीं कर रहा है, लोगों पर हमला नहीं कर रहा है या रुतबे के लिए होड़ नहीं कर रहा है और वह लोगों से प्यार से, विनम्रता से और शांति से बात करना सीख रहा है। वह सही वचनों का इस्तेमाल करके लोगों की मदद कर रहा है और अपने दैनिक जीवन में वह लोगों की विशेष चिंता कर रहा है और उनका ध्यान रख रहा है। यह सुनकर ऐसा प्रतीत होता है मानो वह पूरी तरह बदल गया हो। मगर क्या वह सच में बदला है? नहीं। तो ये सब अभ्यास क्या थे? (बाहरी अच्छे व्यवहार।)
कुछ मसीह-विरोधी बेनकाब होने और अपने सभी बुरे कर्मों के सामने आ जाने के बाद भाई-बहनों को देखकर कहते हैं, “मुझे लगता है परमेश्वर ने हाल ही में मुझे प्रबुद्ध और रोशन किया है और मैं वाकई बहुत अच्छी मनोदशा में हूँ। मुझे अपने पिछले क्रियाकलापों को लेकर गहरी घृणा महसूस होती है और मैंने अपने भाई-बहनों को जो नुकसान पहुँचाया है, उसे कभी नहीं भूल पाऊँगा। मुझे बहुत दुख है।” ऐसा बोलते हुए उनकी आँखों से आँसू बहने लगते हैं और यहाँ तक कि वे भाई-बहनों को उन्हें काटने-छाँटने के लिए भी कहते हैं, “मेरे कमजोर पड़ने की चिंता मत करना। अगर मैं तुम्हें कुछ भी गलत करते दिखूँ तो मेरी काट-छाँट कर देना, मैं इसे स्वीकार सकता हूँ—मैं इसे परमेश्वर से स्वीकार सकता हूँ; मैं तुम लोगों से कोई दुश्मनी नहीं रखूँगा।” वे भाई-बहनों द्वारा काटे-छाँटे जाने से हठपूर्वक इनकार करने, प्रतिरोध करने और अवहेलना करने, खुद को सही ठहराने के लिए बहस करने और आक्रोश से भरे होने से लेकर सक्रियता से काटे-छाँटे जाने की माँग करने तक पहुँच गए हैं। उनके रवैये में बहुत तेजी से बदलाव हुआ है, है न? क्या इसका मतलब यह है कि उन्हें पछतावा है? इस रवैये के आधार पर ऐसा लगता है कि उन्होंने अपने आप को बदला है तो तुम्हें उन्हें काटना-छाँटना चाहिए। ऐसा करने से उन्हें अतीत में की गई गलतियों का एहसास हो सकता है और खुद को जानने में मदद मिल सकती है। उस पल तुम्हें थोड़ी ईमानदारी दिखाते हुए उनकी मदद करनी चाहिए और कहना चाहिए, “मैं देख सकता हूँ कि आजकल तुम्हारा व्यवहार काफी अच्छा हो गया है। मैं तुमसे दिल से बात करूँगा। अगर मैं कुछ गलत कहता हूँ और तुम इसे स्वीकार नहीं सकते तो इस पर ध्यान मत देना; अगर तुम मेरी बात को सही मानते हो तो इसे परमेश्वर से स्वीकार करना। मेरा इरादा तुम्हारी मदद करने का है, न कि जब तुम कमजोर हो तब तुम्हें नीचे गिराने या तुम पर हमला करने का। आओ, हम एक-दूसरे से दिल खोलकर बात करें और संगति करें। जब तुम अगुआ के रूप में काम करते थे तो तुम अकड़कर घूमते रहते थे और अपनी गलतियों को स्वीकारने से इनकार करते थे; भले ही तुम बाहरी तौर पर कुछ गलतियों को स्वीकारते थे, मगर वास्तव में तुमने अंदर से कोई गलती स्वीकार नहीं की—और बाद में जब वैसी ही समस्या तुम्हारे सामने दोबारा आई तो भी तुमने पहले की तरह ही व्यवहार किया। उदाहरण के लिए, आओ उस पिछली घटना के बारे में बात करते हैं। तुम्हारी गैर-जिम्मेदारी के कारण कुछ गलत हुआ और परमेश्वर के घर की संपत्तियों को भारी नुकसान हुआ। तुम्हारी गैर-जिम्मेदारी के कारण अनेक भाई-बहन गिरफ्तार हुए और उन्हें जेल भी जाना पड़ा और इसके लिए उन्हें कीमत चुकानी पड़ी। क्या तुम्हें नहीं लगता कि तुम्हें इसकी जिम्मेदारी लेनी चाहिए? तुम उस घटना के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार व्यक्ति थे, इसलिए तुम्हें परमेश्वर के सामने आकर अपने पापों को स्वीकारना चाहिए और पश्चात्ताप करना चाहिए। वास्तव में अगर तुम अपनी गलती स्वीकारते हो तो ज्यादा से ज्यादा परमेश्वर इसे एक अपराध के रूप में देखेगा और इससे भविष्य में तुम्हारे सत्य के अनुसरण पर कोई असर नहीं पड़ेगा। भाई-बहन भी तुम्हारे साथ उचित व्यवहार कर पाएँगे और तुम्हें परमेश्वर के घर के सदस्य के रूप में देख पाएँगे; वे तुम्हारा बहिष्कार नहीं करेंगे या तुम पर हमला नहीं करेंगे। यह सच है कि व्यक्ति का सब कुछ परमेश्वर के हाथों में होता है, लेकिन अगर तुम कभी सत्य का अनुसरण नहीं करते तो परमेश्वर यकीनन तुमसे घृणा करेगा और तुम्हें त्याग देगा और तब तुम विनाश का लक्ष्य बन जाओगे। अगर तुम परमेश्वर के कार्य को स्वीकार कर उसके प्रति समर्पित होते हो और वास्तव में पश्चात्ताप कर सकते हो तो परमेश्वर तुम्हारे पिछले अपराधों को याद नहीं रखेगा और तुम अभी भी एक ऐसे व्यक्ति होगे जो परमेश्वर के सामने सत्य का अनुसरण करता है। हम परमेश्वर से माफी या क्षमा नहीं माँगते हैं, मगर कम से कम हमें वह करना चाहिए जो मनुष्यों को करना चाहिए; यह हरेक सृजित प्राणी की जिम्मेदारी और कर्तव्य है और यही वह मार्ग है जिस पर हम सभी को चलना चाहिए।” ये सच्ची बातें हैं, है न? क्या इनमें कोई नकल या चालाकी है? क्या इनमें कोई व्यंग्य या उपहास है? (नहीं।) ये सिर्फ दिल से निकले हुए शब्द हैं, जो शांति से और लोगों की मदद करने और उन्हें शिक्षित करने के सिद्धांत के अनुरूप बोले गए हैं। ये शब्द सही हैं; इनके भीतर अभ्यास का मार्ग और साथ ही खोजने के लिए सत्य भी है। लेकिन क्या मसीह-विरोधी इन शब्दों को स्वीकार सकते हैं? क्या वे इन्हें सत्य के रूप में समझकर उनका अभ्यास कर सकते हैं? (वे नहीं कर सकते।) वे इन शब्दों पर कैसी प्रतिक्रिया देंगे? “अभी भी तुम लोग मेरी गलती के पीछे पड़े हो, इसे भूलना नहीं चाहते, हुँह? परमेश्वर भी लोगों के अपराधों को याद नहीं रखता तो फिर तुम लोग हमेशा मेरे पीछे क्यों पड़े रहते हो? तुम कहते हो कि तुम मुझसे दिल से बात करना चाहते हो और तुम मेरी मदद कर रहे हो। यह किस तरह की मदद है? जाहिर है कि यह गड़े मुर्दे उखाड़ने और मुझे जिम्मेदार ठहराने की कोशिश है। तुम बस मुझे जिम्मेदारी लेने के लिए मजबूर करने की कोशिश कर रहे हो, है न? क्या अकेला मैं ही उस घटना के लिए जिम्मेदार हूँ? सब कुछ परमेश्वर के हाथों में है यानी इसका जिम्मेदार वही है। जब वह घटना हुई तो परमेश्वर ने हमें इसके बारे में कोई संकेत क्यों नहीं दिया? क्या यह घटना परमेश्वर द्वारा नहीं रची गई है? तो फिर तुम मुझे कैसे दोषी ठहरा सकते हो?” उन्होंने अपने मन की बात कही है, है न? उनकी समस्या कहाँ है? बाहर से ऐसा लगता है कि वे बदल गए हैं और विनम्र हो गए हैं; वे पहले की तुलना में बहुत बेहतर व्यवहार करते दिखाई देते हैं, मानो कि वे अब रुतबे और प्रतिष्ठा के पीछे नहीं भागते और शांति से बैठकर किसी से बात कर सकते हैं और दिल खोलकर बातें कर सकते हैं। तो वे अभी भी ऐसा कुछ कैसे कह सकते हैं? इसमें क्या समस्या देखी जा सकती है? (यही कि जिस तरह से उन्होंने काम किया वह सिर्फ उनका पैदा किया हुआ भ्रम था ताकि वे वापसी कर सकें।) और क्या? (वे वास्तव में खुद को बिल्कुल नहीं जानते हैं और ये सच्चा पश्चात्ताप नहीं दिखाते हैं। यह सब बस एक तरह का पाखंडी व्यवहार है। जब दूसरे लोग उनकी समस्याओं के बारे में उनसे संगति करते हैं, तब भी वे सत्य को स्वीकारने में असमर्थ होते हैं। यह स्पष्ट है कि उनका प्रकृति सार सत्य के प्रति वैर-भाव वाला है।) इसमें दो बातें बहुत स्पष्ट हैं। पहली, जब कोई मसीह-विरोधी अपना रुतबा खोता है तो उसकी एक मनोदशा यह होती है, “जहाँ जीवन है वहाँ आशा है”—वह हमेशा वापसी करने के लिए तैयार रहता है। दूसरी बात यह है कि जिस गलत मार्ग पर वह पहले चल रहा था और जो अपराध उसने किए थे, उनको लेकर, मसीह-विरोधी कभी भी ईमानदारी से आत्म-चिंतन नहीं करेगा। मसीह-विरोधी लोग अपनी गलतियों या सत्य को स्वीकार नहीं करेंगे और अपने बुरे कामों के तथ्यों से अपने सार को तो और भी नहीं समझ पाएँगे या सत्य के अनुसार अभ्यास करने के तरीके को सारांशित नहीं करेंगे। जब उन्हें बर्खास्त कर दिया जाता है और वे अपना रुतबा खो देते हैं तो वे यह नहीं सोचते, “मैंने आखिर क्या गलत किया? मुझे कैसे पश्चात्ताप करना चाहिए? अगर इस तरह की घटना फिर से होती है तो मुझे परमेश्वर के इरादे के अनुरूप कैसे काम करना चाहिए?” उनमें खुद को बदलने का यह रवैया नहीं होता। भले ही उन्हें काट-छाँट दिया जाए और भले ही उन्हें बर्खास्त कर दिया जाए, फिर भी वे पीछे नहीं मुड़ेंगे और सत्य का अनुसरण नहीं करेंगे, अभ्यास का मार्ग नहीं खोजेंगे या अपने अनुसरण की दिशा नहीं बदलेंगे। चाहे वे परमेश्वर के घर को कितना भी भारी नुकसान पहुँचाएँ और चाहे कितना भी नीचे गिरें, वे कभी भी अपने पापों को स्वीकार नहीं करेंगे। उनकी विफलताएँ उन्हें आने वाले समय में सत्य का अनुसरण करने और सत्य खोजने के लिए प्रेरित नहीं करेंगी; इसके बजाय वे यह हिसाब लगाएँगे कि सब कुछ बचाने और अपना खोया हुआ रुतबा वापस पाने के लिए क्या कर सकते हैं। ये दो बिंदु हैं। पहला बिंदु, अपना रुतबा खोने के बाद की उनकी मनोदशा होती है, जो लगातार वापसी के लिए तैयार रहती है। दूसरा बिंदु, वे जिस गलत मार्ग पर चल रहे थे उसे वे स्वीकारने या समझने से इनकार करते हैं। इस दूसरे बिंदु के भीतर वे जिस गलत मार्ग पर चल रहे थे उसे न समझना इसका एक हिस्सा है; इसके अलावा वे बिल्कुल भी ईमानदारी से पश्चात्ताप नहीं करेंगे, न ही सत्य को स्वीकारेंगे और वे निस्संदेह पछतावे से भरे हुए दिलों से परमेश्वर के घर को हुए नुकसान की भरपाई नहीं करेंगे। वे इस बारे में बिल्कुल भी नहीं सोचेंगे कि खुद को कैसे बदला जाए और सत्य का अनुसरण न करने वालों से सत्य का अनुसरण और अभ्यास करने वाले लोग कैसे बना जाए। ये दो बिंदु स्पष्ट करते हैं कि मसीह-विरोधी सत्य से विमुख हैं और वे प्रकृति से दुष्ट हैं; वे गिरगिट की तरह रंग बदलकर खुद को छिपाने और अपने परिवेश के अनुकूल ढलने में काफी अच्छे हैं। उनका सार अस्थिर होता है और उनके दिलों की गहराई में, रुतबा पाने की उनकी कोशिश और उनकी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ कभी शांत नहीं होतीं और न ही कभी ये बदलेंगी। कोई उन लोगों को नहीं बदल सकता। इन अभिव्यक्तियों को देखा जाए तो इस तरह के व्यक्ति का प्रकृति सार क्या है? मसीह-विरोधी कोई भाई होता है या बहन? क्या मसीह-विरोधी एक वास्तविक व्यक्ति है? (नहीं।) अगर तुम सब इन लोगों को भाई-बहनों की तरह देखते हो तो क्या इसका मतलब यह नहीं है कि तुम सब निहायत ही बेवकूफ हो? ये अभिव्यक्तियाँ एक मसीह-विरोधी के सार के खुलासे हैं। जब मसीह-विरोधियों के पास कोई रुतबा नहीं होता तो वे इस तरह की मनोदशा में होते हैं; अपने दिलों में वे जो हिसाब लगाते हैं, उनके खुलासे, उनका बाहरी व्यवहार और उनके दिलों की गहराइयों में सत्य और अपने अपराधों के प्रति जिस तरह का रवैया होता है वह ऐसा ही होता है और उनका दृष्टिकोण नहीं बदलेगा। चाहे तुम सत्य पर कितनी भी संगति करो या अभ्यास के उचित, सकारात्मक मार्गों के बारे में बोलो, वे वास्तव में इसे कभी भी अंतर्मन से स्वीकार नहीं करेंगे; इसके बजाय वे इसका प्रतिरोध करेंगे। वे यहाँ तक मानेंगे, “खैर, अब मेरे पास रुतबा नहीं रहा तो मेरे कुछ कहने का कोई महत्व नहीं है। अब कोई मेरा समर्थन नहीं करता; तुम लोग सिर्फ मेरा मजाक उड़ाना और मुझे सबक सिखाना चाहते हो। क्या तुम मुझे सबक सिखाने के काबिल भी हो? आखिर समझते क्या हो खुद को? जब मैं अगुआ बना था, तब तुमने चलना भी नहीं सीखा था! तुम जो गिनी-चुनी बातें कहते हो, क्या वो तुमने मुझसे ही नहीं सीखी हैं? और अब तुम मुझे ही सबक सिखाने की कोशिश कर रहे हो। तुम वाकई यह नहीं जानते कि ब्रह्मांड में तुम्हारी क्या जगह है!” उन्हें लगता है कि उन्हें काटने-छाँटने, उनसे बोलने, उनसे बातचीत करने या उनसे दिल खोलकर बातें करने के लिए लोगों के पास एक खास वरिष्ठता होनी जरूरी है। ये किस तरह के लोग हैं? केवल मसीह-विरोधी ही ऐसी बातें कह सकते हैं; सामान्य लोग और जिनमें थोड़ी भी शर्म और थोड़ी तार्किकता है, वे कभी भी ऐसी बातें नहीं कहेंगे। अगर कोई तुम लोगों को धर्मोपदेश सुना रहा है, शांति से दिल खोलकर बातें कर रहा है और तुम लोगों की समस्याएँ बताते हुए तुम्हें कुछ सुझाव दे रहा है तो क्या तुम लोग इसे स्वीकार पाओगे? या फिर तुम्हारी भी मानसिकता एक मसीह-विरोधी जैसी ही होगी? उदाहरण के लिए, मान लो कि तुम 10 सालों से विश्वासी रहे हो, मगर कभी अगुआ के रूप में काम नहीं किया। किसी दूसरे व्यक्ति को विश्वासी बने सिर्फ दो साल हुए हैं, मगर उसका रुतबा तुमसे ऊँचा है और तुम इस बात से परेशान हो। मान लो कि तुमने 20 सालों तक परमेश्वर में विश्वास किया और आखिरकार एक जिले के अगुआ बन गए। कोई और व्यक्ति केवल पाँच सालों तक विश्वास रखने के बाद ही क्षेत्रीय अगुआ बन जाता है और तुम्हारी अगुआई करने लगता है और तुम इसे स्वीकार नहीं पाते। अगर वह तुम्हें काटता-छाँटता है तो तुम असहज महसूस करते हो और भले ही उसका काटना-छाँटना सही हो, पर तुम इसे स्वीकार नहीं करना चाहते। क्या तुम लोगों का कभी इस तरह का रवैया या अभिव्यक्तियाँ रही हैं? (हाँ, रही है।) यह मसीह-विरोधी का स्वभाव है। क्या तुम्हें यह लगता है कि केवल मसीह-विरोधियों में ही मसीह-विरोधियों जैसा स्वभाव होता है? जिस किसी में भी मसीह-विरोधियों जैसा स्वभाव है, वह खतरे में है, वह मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चल सकता है और हो सकता है कि यह स्वभाव उसे नष्ट कर दे। चीजें ऐसी ही हैं। जब हम मसीह-विरोधियों के सार पर संगति करते हैं और उसका गहन-विश्लेषण करते हैं तो इसमें वे लोग भी शामिल होते हैं जिनमें मसीह-विरोधी का स्वभाव होता है। तुम लोगों को क्या लगता है कि इसमें शामिल लोग कम संख्या में हैं या ऐसे बहुत सारे लोग हैं? या इसमें सभी लोग शामिल हैं? (इसमें सभी लोग शामिल हैं।) सही बात है, ऐसा इसलिए क्योंकि मसीह-विरोधी का स्वभाव शैतान का स्वभाव है और सभी भ्रष्ट मनुष्यों में शैतान का स्वभाव होता है। अब हमने इस विषय पर थोड़ी संगति कर ली है कि मसीह-विरोधी काट-छाँट किए जाने के प्रति कैसा व्यवहार करते हैं। ज्यादा विस्तार से बताने के लिए कुछ ठोस उदाहरण दिए जा सकते हैं। मैं इसे तुम लोगों पर छोड़ता हूँ ताकि तुम अपनी सभाओं के दौरान इस पर संगति करो। संगति करने के दौरान केवल इस बारे में बात मत करना कि दूसरे लोग कैसे हैं। बेशक दूसरों की अभिव्यक्तियों पर संगति करने को टाला नहीं जा सकता, मगर तुम लोगों को मुख्य रूप से अपनी अभिव्यक्तियों के बारे में संगति करनी चाहिए। अगर तुम लोग अपने भीतर कुछ ऐसी अभिव्यक्तियों और खुलासों का पता लगा सकते हो जो मसीह-विरोधी के स्वभाव से जुड़े हैं तो यह तुम्हारे आत्म-ज्ञान के लिए सहायक और लाभकारी होगा और यह उस स्वभाव से छुटकारा पाने में तुम लोगों की मदद करेगा।
हमने पहले भी मसीह-विरोधी के स्वभाव की विभिन्न अभिव्यक्तियों के विषय पर संगति की है—क्या अब तुम लोग उनसे अपनी तुलना कर सकते हो? क्या तुम लोग कुछ समझ हासिल कर पाए हो? क्या तुम कुछ वास्तविक समस्याओं को हल कर सकते हो? चाहे तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव के किसी भी पहलू को बदलो, यह सब सत्य को समझने, खुद की सत्य से तुलना करने और फिर खुद को समझने की नींव पर हासिल होता है। इसलिए भ्रष्ट स्वभाव की विभिन्न अभिव्यक्तियों का भेद पहचानने और उनका गहन-विश्लेषण करने में सक्षम होना वह मार्ग है जिस पर तुम्हें खुद को जानने और स्वभाव में बदलाव लाने के लिए चलना ही होगा। क्या तुम लोग अब इस बात को समझ पाए हो? हो सकता है कि तुममें से कुछ लोग नहीं समझ पाए हों और सोच रहे हों, “तुम हमेशा इन छोटे-मोटे विषयों और चीजों पर संगति करते रहते हो; तुम कभी किन्हीं गहन सत्यों के बारे में बात नहीं करते या किसी गहन रहस्य का खुलासा नहीं करते हो। यह बहुत उबाऊ और थकाऊ है! तुम जिन चीजों पर संगति कर रहे हो उनका स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने, महान आशीष पाने और भविष्य में पूर्ण बनाए जाने से क्या लेना-देना है?” ये लोग कभी नहीं समझते; ये बातें सुनते ही उन्हें नींद आने लगती है। जिन लोगों में आध्यात्मिक समझ नहीं है, वे इसे नहीं समझ पाते; हरेक सत्य हमें जिन विभिन्न मानवीय दशाओं के बारे में बताता है वे उन्हें नहीं समझ पाते, न ही वे विभिन्न सत्यों के बीच के संबंधों को समझ पाते हैं। वे इन बातों को नहीं समझते। तुम उन्हें जितना विस्तार से समझाओगे, वे उतने ही ज्यादा उलझन में पड़ जाएँगे और उतना ही कम समझ पाएँगे, इसलिए उन्हें हमेशा नींद आ जाती है। जब कोई सभा शुरू होती है तो वे नाचते-गाते दिखाई देते हैं और नियम और समारोह कितने ही नीरस या दोहराव वाले क्यों न हों, उन्हें नींद नहीं आती। लेकिन जैसे ही तुम सत्य और लोगों की विभिन्न दशाओं पर संगति करना शुरू करते हो, उन्हें नींद आने लगती है। उन लोगों के साथ क्या हो रहा है जो हमेशा इस तरह से नींद में रहते हैं? क्या वे बेनकाब नहीं हो गए हैं? यह सत्य से प्रेम न करने की अभिव्यक्ति है, है न? जब जीवन प्रवेश से संबंधित विभिन्न सत्यों के विवरण की बात आती है तो जो लोग ईमानदारी से सत्य का अनुसरण करते हैं और जिनके पास थोड़ी काबिलियत होती है, वे उनके बारे में जितना ज्यादा सुनते हैं उतना ही बेहतर समझते हैं, जबकि जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते और जिन्हें आध्यात्मिक समझ नहीं है वे उनके बारे में जितना ज्यादा सुनते हैं उतना ही उलझन में पड़ जाते हैं। वे जितना ज्यादा सुनते हैं, उन्हें वह उतना ही उबाऊ लगता है और चाहे वे कितना भी सुनें, उन्हें अभी भी ऐसा ही लगता है; वे उसमें कोई मार्ग नहीं सुन पाते। उन्हें लगता है कि जीवन प्रवेश से संबंधित मामले वास्तव में इतने जटिल नहीं हैं तो उन पर इतनी संगति करने की कोई जरूरत नहीं है। जिन्हें आध्यात्मिक समझ नहीं होती वे लोग ऐसे ही होते हैं। स्वभाव में बदलाव लाने के लिए बहुत से सत्य चाहिए। अगर अपने स्वभाव को बदलने की कोशिश के मार्ग पर लोग प्रत्येक सत्य के लिए समय व्यतीत नहीं करते और कोशिश नहीं करते, प्रत्येक सत्य की समझ, बोध और ज्ञान हासिल नहीं करते और अभ्यास का कोई मार्ग नहीं खोजते तो वे यकीनन किसी भी सत्य में प्रवेश नहीं कर पाएँगे। लोग किस तरीके से परमेश्वर को जान सकते हैं? वे विभिन्न सत्यों को समझकर और उनमें प्रवेश करके परमेश्वर को जान सकते हैं; यही एकमात्र तरीका है। इसके अलावा प्रत्येक सत्य किसी तरह का सिद्धांत या कोई ज्ञान या फलसफा नहीं है; इसका संबंध लोगों के जीवन और उनके अस्तित्व की स्थिति, उनकी दशाओं और वे हर दिन क्या सोचते हैं और उन विभिन्न विचारों, सोच, इरादों और रवैयों से है जो उनके अपने भ्रष्ट सार के प्रभाव में उत्पन्न होते हैं। तो ये वे विषय हैं जिनके बारे में हम बात कर रहे हैं। जब तुम इन विषयों को समझ जाओगे, उन्हें खुद से जोड़ पाओगे, अभ्यास के सिद्धांत खोज लोगे और अपने विभिन्न स्वभावों से उत्पन्न होने वाली विभिन्न मनोदशाओं और दृष्टिकोणों को जान लोगे, तब तुम वास्तव में उनसे संबंधित सत्यों को समझ चुके होगे और केवल तभी तुम सत्य सिद्धांतों के अनुसार सटीक रूप से अभ्यास करने में सक्षम होगे। अगर तुम केवल शाब्दिक अर्थ समझते हो और जब परमेश्वर मसीह-विरोधियों के स्वार्थ और घिनौनेपन का खुलासा करता है, तब तुम यह सोचते हो, “मसीह-विरोधी स्वार्थी और घिनौने होते हैं, मगर मैं काफी निस्वार्थ हूँ; मेरे पास देने के लिए बहुत सारा प्यार है, मैं सहनशील हूँ, मैं विद्वानों के परिवार में पैदा हुआ हूँ, मैंने उच्च शिक्षा प्राप्त की है और मैं जानी-मानी हस्तियों और उत्कृष्ट कृतियों से प्रभावित हूँ, मैं कोई स्वार्थी व्यक्ति नहीं हूँ”—तो क्या ये बातें कहना सत्य स्वीकारना है? क्या यह खुद को जानना है? जाहिर है कि तुम इस सत्य को या इस विशेष सत्य में शामिल विभिन्न मनोदशाओं को नहीं समझते हो। जब तुम परमेश्वर द्वारा बोली गई और उजागर की गई उन विभिन्न मनोदशाओं को समझ जाओगे जो एक विशेष सत्य में शामिल होती हैं और खुद की उनसे तुलना कर सकोगे और अभ्यास के सटीक सिद्धांतों को खोज सकोगे, तब तुम सत्य का अभ्यास करने के मार्ग पर चल पड़ोगे और सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर जाओगे। अगर तुमने ऐसा नहीं किया है तो तुमने केवल एक धर्म-सिद्धांत को समझा है; तुमने सत्य को नहीं समझा है। यह उस विषय की तरह है जिसके बारे में हमने अभी-अभी बात की है—मसीह-विरोधी काट-छाँट किए जाने के प्रति कैसा व्यवहार करते हैं। हमने जिन विभिन्न मनोदशाओं, अभिव्यक्तियों और खुलासों पर संगति की है, वे सभी मसीह-विरोधी के प्रकृति सार और स्वभाव से संबंधित हैं। इनमें से तुम कितनों को समझते हो? उनमें से कितनों से तुमने अपनी तुलना की है? क्या इस विषय में शामिल बातें, विवरण और मनोदशाएँ जो तुमने समझी हैं, वे दूसरे लोगों से संबंधित हैं या फिर तुमसे? क्या तुम्हारा इन मनोदशाओं से कोई संबंध है? क्या तुमने वास्तव में उन्हें खुद से जोड़कर देखा है या अनिच्छा से उन्हें स्वीकार किया और उनसे सहमत हुए हो? यह तुम्हारी समझ और सत्य के प्रति तुम्हारे रवैये पर निर्भर करता है। इन मनोदशाओं को खुद से जोड़ना तुम्हारे लिए सत्य का अभ्यास करने में सक्षम होने के लिए केवल एक जरूरी शर्त है; इसका मतलब यह नहीं है कि तुम पहले ही इसका अभ्यास करना शुरू कर चुके हो। लेकिन, अगर तुम इन मनोदशाओं को खुद से नहीं जोड़ सकते तो सत्य का अभ्यास करने से तुम्हारा कोई लेना-देना नहीं होगा। ऐसा होने पर, जब तुम धर्मोपदेश सुनोगे तो तुम्हें क्या सुनाई देगा? तुम बस बहाने बनाओगे; ऐसा लगेगा कि तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो, मगर तुम वास्तव में उसके वचनों के अनुसार अभ्यास नहीं कर रहे होगे और न ही तुम उसके वचनों की वास्तविकता में प्रवेश कर पाओगे। तुम केवल एक आम आदमी, सेवा करने वाले या एक विषमता होगे। जब यह बात आती है कि तुम्हें खुद की तुलना इन मनोदशाओं से कैसे करनी चाहिए और मेरी कही हुई बातों से संबंधित विभिन्न मनोदशाओं का गहन-विश्लेषण किस तरह से करना चाहिए तो यह तुम लोगों के अपने ज्ञान पर निर्भर करता है। मैं बस इतना ही कर सकता हूँ कि तुम्हें ये वचन बता दूँ और इनसे तुम लोगों का पोषण करूँ, बाकी के लिए तुम लोगों को खुद ही कोशिश करनी होगी। तुम लोग इन वचनों को स्वीकार पाओगे या नहीं, यह तुम्हारे रवैये पर निर्भर करता है। कुछ लोग अपने दिल में हठी होते हैं; वे हमेशा बहाने बनाते हैं और अपना रुतबा और प्रतिष्ठा बचाने की कोशिश करते रहते हैं। जाहिर है कि उनमें समस्याएँ हैं, मगर वे इन समस्याओं को नहीं देख पाते और उन्हें स्वीकार नहीं करते और यहाँ तक कि वे दूसरों को उजागर करने और उनका गहन-विश्लेषण करने का काम भी अपने ऊपर ले लेते हैं। इस वजह से उन दूसरे लोगों का फायदा होता है, जबकि वे खुद कुछ हासिल नहीं करते। ये लोग बेवकूफ हैं, है न? यह मूर्खों जैसा व्यवहार है। धर्मोपदेश सुनने का उद्देश्य दूसरे लोगों का भेद पहचानना सीखना नहीं है, न ही दूसरे लोगों के लिए सुनना है; इसका उद्देश्य यह है कि तुम इसमें कही गई बातों को खुद सुनो और उसे प्राप्त करो। तुम परमेश्वर के वचन, सत्य और धर्मोपदेश सुनते हो और इन सबसे तुम सत्य को समझते हो, जीवन प्राप्त करते हो और अपने स्वभाव में बदलाव लाते हो। क्या इसका दूसरे लोगों से कोई लेना-देना है? इन वचनों का संबंध तुमसे है। अगर तुम इस तरह का रवैया अपनाते हो तो शायद ये वचन तुम्हें बदल सकें, तुम्हारी वास्तविकता बन जाएँ और तुम्हें अपने स्वभाव में बदलाव लाने में सक्षम बना दें।
इस पहले विषय में हमने विभिन्न अभिव्यक्तियों के बारे में बातचीत की कि मसीह-विरोधी काट-छाँट किए जाने से कैसे पेश आते हैं। जब इस मसले की बात आती है तो इस विषय पर संगति करने से एक ओर तुम सबको मसीह-विरोधियों के रवैये और उनके प्रकृति सार के खुलासों को समझने में मदद मिलती है; वहीं दूसरी ओर, यह तुम लोगों को कुछ सकारात्मक मार्गदर्शन और चेतावनियाँ भी देता है। तुम लोग बाकी बची समस्याओं पर संगति करके उन्हें खुद ही हल कर सकते हो; वे तुम लोगों के अपने मामले हैं।
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