मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते और वे व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ विश्वासघात तक कर देते हैं (भाग एक) खंड छह
तुम लोगों के हिसाब से, अभी कलीसिया में कौन-से कार्य सबसे महत्वपूर्ण हैं, जिनमें परमेश्वर की प्रबंधन योजना का विस्तार शामिल है? (सुसमाचार प्रचार।) सुसमाचार कार्य एक बड़ा कार्य है। परमेश्वर का कार्य परमेश्वर की नजर में एक कार्य है, मगर लोगों के लिए यह उनका कर्तव्य है। सुसमाचार कार्य के अलावा, फिल्म बनाने का कार्य, अनुवाद का कार्य, भजन संबंधी कार्य और पाठ्य-सामग्री आधारित अनेक कार्य भी हैं। आजकल ज्यादातर लोग जो पूरे समय अपना कर्तव्य निभाते हैं, वे इन कार्यों से संबंधित गतिविधियों में ही लगे होते हैं। मुझे बताओ, इनमें से किस काम को छोड़ा जा सकता है? कुछ लोग कहते हैं, “संगीत सिर्फ कुछ सुरों का मामला है जो मुझे महत्वपूर्ण नहीं लगते। परमेश्वर के वचन उन सभी धुनों के बिना भी हूबहू प्रसारित किए और फैलाए जा सकते हैं और वे लोगों को उसी तरह परमेश्वर के समक्ष ला सकते हैं।” क्या ऐसा कहना सही है? (नहीं, यह गलत है।) यह गलत क्यों है? अगर बिना संगीत के विभिन्न तरह के वीडियो बनाएँगे तो क्या यह अच्छा लगेगा? (नहीं।) कलीसिया में भजन गाने के अलावा सभी फिल्में, संगीत वीडियो, समूह गान, नाटक और साथ ही परमेश्वर के वचनों के पाठ वाले वीडियो वगैरह बनाने में भी संगीत की जरूरत होती है। भले ही पहली नजर में संगीत वास्तव में सिर्फ कुछ सुरों का मामला है, मगर जब लोग इस संगीत को सुनते हैं तो यह परमेश्वर के वचनों को प्रसारित करने में अधिक प्रभावी साबित होता है और सुसमाचार के फैलाव को आगे बढ़ाने में भूमिका निभा सकता है, इसलिए यह बहुत जरूरी है। भले ही तुम बस यूँ ही इधर-उधर की बातें कर रहे हो और पृष्ठभूमि में संगीत बज रहा हो, तो इसका प्रभाव अलग होगा, है ना? इसलिए यह कर्तव्य बहुत महत्वपूर्ण है। कुछ लोग कहते हैं : “तो क्या हमारा वीडियो का कार्य महत्वपूर्ण है?” तुम मुझे बताओ, क्या वीडियो का कार्य महत्वपूर्ण है? (हाँ।) उदाहरण के लिए, स्पेशल इफेक्ट तकनीक का इस्तेमाल करके जो बहुत सारी तस्वीरें बनाई जाती हैं उन्हें किसी कच्चे वीडियो फुटेज से बदला नहीं जा सकता है, न ही उन्हें फिल्माया जा सकता है—यह आधुनिक कला है। कुछ ऐसे भी हैं जो कहते हैं : “परमेश्वर का घर आधुनिक कला की बात भी करता है। क्या यह समय के साथ चलना नहीं है?” यह समय के साथ चलना कैसे है? इसे सेवा करने के लिए शैतान का फायदा उठाना कहते हैं। बेशक, यह भाई-बहनों का फायदा उठाकर सेवा करना नहीं है। मेरा मतलब है, अगर तुम कुछ तकनीकी और कलात्मक पेशे सीखकर इस पेशेवर ज्ञान का इस्तेमाल सुसमाचार फैलाने और परमेश्वर के वचनों को प्रसारित करने में कर सकते हो तो तुमने जो सीखा है वह उपयोगी है। अगर तुम इसे सीख सकते हो तो यह परमेश्वर का अनुग्रह है और फिर तुम इससे संबंधित कर्तव्य निभा सकोगे और तुम्हें आशीष मिलेगा। क्या यह तुम्हारे लिए एक आशीष नहीं है? (है।) तो इससे फर्क नहीं पड़ता कि तुम क्या सीखते हो, फर्क इससे पड़ता है कि क्या तुम इसका इस्तेमाल अपना कर्तव्य निभाने में करते हो। दूसरे लोग कहते हैं : “हम पाठ-आधारित काम करते हैं, मगर कभी किसी को हमारे बारे में पता नहीं चलता, कोई हमारा जिक्र नहीं करता और बहुत सारे लोग तो हमें देख भी नहीं पाते। हम अनावश्यक हो गए हैं।” यह मामले को स्पष्टता से देखना नहीं है। लोग तुम्हें नहीं देख सकते, मगर परमेश्वर तुम्हें देख सकता है, परमेश्वर तुम्हारी पड़ताल कर रहा है, परमेश्वर तुम्हारा मार्गदर्शन कर रहा है, परमेश्वर तुम्हें आशीष दे रहा है, तुम इसे महसूस क्यों नहीं कर सकते? क्या इससे फर्क पड़ता है कि लोग तुम्हें देखते हैं या तुम लोगों का जिक्र करते हैं या नहीं? कौन-सा सत्य तुम लोगों को नहीं बताया गया है? किन धर्मोपदेशों और संगतियों से तुम लोग वंचित रह गए हो? वास्तव में, पाठ-आधारित कार्य की तकनीकी सामग्री बहुत ज्यादा नहीं है और पेशेवर पहलुओं को इतना मजबूत करने की जरूरत नहीं है। लेकिन एक बात बहुत जरूरी है। तुम्हें सत्य को समझना होगा। अगर तुम सत्य को नहीं समझते तो कुछ भी नहीं लिख पाओगे। तुम्हारे पास लिखने का ज्ञान है, तुम भाषा को मानकीकृत कर सकते हो, भाषा को व्यवस्थित कर सकते हो और किसी लेख के लिए ढाँचा और विचार निर्धारित कर सकते हो। लेकिन ढाँचा अपने आप में लेख नहीं है। इसे विषय-वस्तु से भरा होना चाहिए। विषय-वस्तु के रूप में क्या लिखा जाना चाहिए और परमेश्वर की गवाही देने का नतीजा प्राप्त करने के लिए इसे वास्तव में कैसे लिखा जाना चाहिए—यही वह चीज है जिसमें तुम लोगों को प्रवेश करना चाहिए। अगर तुम केवल परमेश्वर के वचनों की गवाही देने और परमेश्वर के कार्य के इस चरण का प्रसार करने के इसी आधार पर टिके रहते हो, तो तुम लोगों का आध्यात्मिक कद कभी नहीं बढ़ेगा। अगर तुम लोग परमेश्वर के नए कार्य की गवाही देने, लोगों की धारणाओं का खंडन करने और दर्शनों के कुछ सत्यों के बारे में संगति करने के अलावा जीवन प्रवेश के बारे में कुछ सत्यों पर भी संगति कर सको और लोगों के दिलों की गहराई में स्थित विभिन्न दशाओं को व्यक्त करने के लिए कुछ तथ्यों, कहानियों और कुछ बारीकी से बताए गए विवरणों का उपयोग कर सको, ताकि लोग अपनी भ्रष्टता को पहचान सकें और यह समझ सकें कि मानवजाति से परमेश्वर की अपेक्षाएँ क्या हैं और परमेश्वर के इरादे क्या हैं, और इसके अलावा सबसे अहम मुद्दों को पहचान सकें—वास्तव में सत्य क्या है, वह कौन-सा मार्ग है जिस पर लोगों को चलना चाहिए, लोग अभी जो गलत मार्ग अपना रहे हैं उनमें दोष कहाँ है, परमेश्वर मनुष्यों से किस प्रकार के लोग बनने की अपेक्षा करता है और वह कौन-सा मार्ग है जिस पर परमेश्वर लोगों से चलने की अपेक्षा करता है—अगर तुम इस ओर कदम-दर-कदम आगे बढ़ सको तो तुम लोग जो कर्तव्य निभाओगे वह बेहद मूल्यवान होगा। मगर यही तो मुश्किल है, यही सबसे कठिन चीज है। लोगों का जीवन प्रवेश एक या दो दिनों में नहीं होता है। बहुत से मामलों में पहली बार इन बातों का जिक्र होने के बाद लोगों को उनके बारे में सचेतन होने में एक या दो साल लग जाते हैं। अस्पष्ट चेतना से स्पष्ट चेतना तक आने में दो से तीन साल या तीन से पाँच साल लग जाते हैं, चेतना के स्पष्ट होने से लेकर इस मामले की प्रकृति को समझने में दो या तीन साल लग जाते हैं और फिर इस समस्या की गंभीरता को जानने में दो या तीन साल और लग जाते हैं। जो लोग सुन्न हैं और जिनकी काबिलियत कम है, वे बस यहीं तक पहुँच सकते हैं। जो लोग बेहतर काबिलियत और तीव्र भावना वाले हैं, वे सक्रिय रूप से सत्य खोजना जानते हैं, जिसमें दो-तीन साल और लग जाते हैं...। इससे पहले कि उन्हें पता चले, उनका पूरा जीवन बीत चुका होता है। इतना धीमा होता है जीवन प्रवेश! लोगों की सत्य समझने और याद रखने की गति उस गति से कहीं अधिक है जिससे लोग सत्य का अनुभव करते हैं और उसे गहराई से समझते हैं। मेरा यह कहने का क्या मतलब है? मेरा मतलब है कि अनुभव करने और गहराई से समझने की प्रक्रिया हमेशा धीमी होती है, क्योंकि यह जीवन है, जबकि समझने और याद रखने के लिए सिर्फ दिमाग की जरूरत होती है। अच्छी याददाश्त, समझने की मजबूत क्षमता, थोड़ी काबिलियत रखने वाले और कुछ पढ़े-लिखे लोग इन चीजों को जल्दी हासिल कर सकते हैं। मगर समझने के बाद क्या किसी के पास ज्ञान हो जाता है? नहीं। समझने के बाद व्यक्ति इतने पर ही रुक जाता है कि मामला क्या है और आगे कुछ नहीं, मगर कार्रवाई का समय आने पर यह काम नहीं आएगा। क्यों नहीं काम आएगा? अक्सर, तुम जिस धर्म-सिद्धांत को समझते हो उसे तुम्हारे सामने आने वाली चीजों पर लागू नहीं किया जा सकता या उनसे जोड़ा नहीं जा सकता। नतीजतन, कई बार असफल होने, काफी नुकसान उठाने, काफी चक्कर लगाने और बहुत बार न्याय, ताड़ना और काट-छाँट झेलने के बाद ही तुम आखिरकार सत्य को समझ पाते हो और अपने सामने आने वाली सभी विभिन्न चीजों में परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव करने में सक्षम होते हो। तब तक इतने साल बीत चुके होंगे कि तुम्हारा चेहरा झुर्रियों से भर गया होगा—क्या यह बहुत धीमा नहीं है? लोगों का जीवन बहुत धीरे-धीरे आगे बढ़ता है, क्योंकि लोग जो सत्य समझते हैं, उसमें लोगों का प्रकृति सार, लोगों का अस्तित्व और वे चीजें शामिल होती हैं जिनके अनुसार लोग जीवन जीते हैं, और इसमें व्यक्ति के स्वभाव में बदलाव के साथ-साथ उसके जीवन में होने वाले बदलाव भी शामिल हैं। तुम्हारे जीवन का किसी दूसरे जीवन में बदलना इतना आसान कैसे हो सकता है? एक ओर इसके लिए परमेश्वर के कार्य की जरूरत होती है और साथ ही इसमें लोगों के सक्रिय सहयोग की भी जरूरत होती है; इसके अलावा, बाहरी परिवेश के परीक्षण और साथ ही तुम्हारा अपना अनुसरण भी होता है; इसके अलावा, तुममें पर्याप्त काबिलियत और समझदारी होनी चाहिए, तब परमेश्वर तुम्हें अतिरिक्त ज्ञान और मार्गदर्शन देगा; इतना ही नहीं, परमेश्वर तुम्हें कुछ ताड़नाएँ देगा, तुम्हारा न्याय और काट-छाँट करेगा, और तुम्हारे भाई-बहन तुम्हारी आलोचना करेंगे, मगर फिर भी तुम्हें ऊपर की ओर बढ़ते रहना होगा, ताकि जो चीजें शैतान की हैं, उन्हें हटाया जा सके—केवल तभी सत्य की सकारात्मक चीजें धीरे-धीरे प्रवेश कर सकती हैं। कुछ लोग कहते हैं, “जब लोग सत्य को समझते हैं तो उनका जीवन बदल जाता है।” ऐसा कहना गलत है या सही? (यह गलत है।) यह गलत कैसे है? सत्य समझने का मतलब यह नहीं कि तुम्हारे पास सत्य है और न ही इसे समझने के बाद यह तुम्हारा जीवन बनता है। सत्य को सुनने, जानने और समझने के बाद यह कितने समय तक तुम्हारे दिल में रह सकता है? ऐसा हो सकता है कि वे शब्द जो तुम्हें उस समय सबसे महत्वपूर्ण लगे थे, एक महीने बाद तुम उन्हें पूरी तरह से भूल गए हो और जब तुम उन्हें दोबारा सुनते हो तो तुम्हें ऐसा लगता है जैसे तुमने उन्हें पहले कभी नहीं सुना। लेकिन अगर तुम्हारे पास सचमुच वास्तविक आध्यात्मिक कद है और तुम्हारे पास अनुभवजन्य गवाही का यह पहलू है तो फिर तुम्हें उन्हें बार-बार नहीं सुनना होगा। अगर तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता का यह पहलू नहीं है तो फिर तुम्हें तब तक और अधिक सुनना होगा जब तक कि तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश न कर लो; अगर तुम नहीं सुनोगे तो तुम जो कुछ भी समझते हो वह तब तक धीरे-धीरे कम और गायब होता जाएगा, जब तक कि तुम अविश्वासियों जैसे नहीं हो जाते। इसलिए परमेश्वर के वचनों और सत्य को लगातार सुनना और पढ़ना चाहिए। उन्हें बहुत कम पढ़ना या सुनना ठीक नहीं होगा। तुम सबको इस बात का गहरा एहसास है, है ना? (हाँ।) कभी-कभी दो-तीन दिन भजन न गाने या परमेश्वर से प्रार्थना न करने के बाद तुम अपने दिल में खालीपन महसूस करते हो और परमेश्वर को समझ नहीं पाते, इसलिए तुम सोचते हो कि आराम करने के लिए टहलने कहाँ जाएँ। इस तरह तुम जितना ज्यादा आराम करते हो, उतने ही ज्यादा अनुशासनहीन हो जाते हो और जब तुम अपने भाई-बहनों के साथ सत्य के बारे में संगति करने कलीसिया जाते हो तो तुम्हें लगता है कि तुम इसके अभ्यस्त नहीं हो और जैसे ही कलीसिया के कार्य का जिक्र किया जाता है, तुम कुछ अजीब-सा महसूस करते हो। दो या तीन दिन के अंदर ही तुम बदलकर एक अलग व्यक्ति बन जाते हो, इतना कि तुम्हें लगता है कि तुम अब खुद को भी नहीं पहचानते। यह कैसे हो सकता है? ऐसा मत सोचो कि तुमने बहुत सारे धर्मोपदेश सुने हैं तो सत्य तुम्हारा जीवन बन गया है और तुमने सत्य प्राप्त कर लिया है। तुम अभी भी उससे बहुत दूर हो! यह मत सोचो कि सिर्फ इसलिए कि तुमने एक गवाही लेख लिखा है या उस तरह का अनुभव किया है तो तुम पहले ही बचा लिए गए हो। तुम अभी वहाँ नहीं पहुँचे हो! यह तुम्हारे लंबे जीवन अनुभव का एक छोटा-सा हिस्सा है। यह हिस्सा सिर्फ एक क्षणिक मनोदशा, क्षणिक भावना, क्षणिक इच्छा या महत्वाकांक्षा हो सकती है, और कुछ नहीं। जब एक दिन तुम कमजोर होगे और पीछे मुड़कर देखोगे और उन गवाहियों को सुनोगे जो तुमने कभी दी थी, जो शपथ तुमने कभी ली थी और जिन चीजों को तुम कभी समझते थे तो वे तुम्हें अपरिचित लगेंगी और तुम कहोगे, “क्या वह मैं था? क्या मेरे पास इतना बड़ा आध्यात्मिक कद था? मुझे कैसे नहीं पता? वह मैं नहीं था, पक्का?” तब तुम्हें एहसास होगा कि तुम्हारा जीवन अभी भी नहीं बदला है। अगर तुम्हारा जीवन नहीं बदला है तो यह क्या दर्शाता है? यह दर्शाता है कि तुम्हारा स्वभाव अभी भी नहीं बदला है। गवाहियाँ देने और उस समय यह सोच होने के बाद भी कि तुम्हारे पास पहले से ही बड़ा आध्यात्मिक कद है, जब तुम्हें पता चलेगा कि तुम फिर भी इतने नकारात्मक हो सकते हो जितने अभी हो तो तुम्हें कैसा लगेगा? क्या तुम्हें यह नहीं लगेगा कि किसी के स्वभाव को बदलना बहुत मुश्किल है? सत्य कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे लोगों में रातों-रात ढाला जा सके। अगर लोग वास्तव में सत्य को अपने जीवन के रूप में प्राप्त करते हैं तो वे धन्य हो जाएँगे और उनका जीवन अलग होगा। वे जैसे अब हैं, और जैसे कि अक्सर भ्रष्ट स्वभाव दिखाते हैं, वैसे नहीं रहेंगे, बल्कि पूरी तरह से परमेश्वर के प्रति समर्पण कर पाएँगे, निष्ठापूर्वक अपना कर्तव्य निभा पाएँगे और पूरी तरह से बदल जाएँगे।
क्योंकि मानवजाति इतनी भ्रष्ट है, इसलिए सत्य स्वीकारना कोई आसान बात नहीं है और क्योंकि सत्य इतना अनमोल है, परमेश्वर के लिए लोगों में सत्य को ढालना और भी कम आसान होता है। सत्य का मूल्य और अर्थ और साथ ही सत्य के सभी विविध पहलू मनुष्य के लिए बहुत मूल्यवान और सार्थक हैं। मगर क्योंकि मनुष्यों को शैतान ने बहुत गहराई से भ्रष्ट कर दिया है और उनके भीतर ऐसी बहुत सी चीजें हैं जो शैतान की हैं, इसलिए लोगों में सत्य को इस तरह से ढालना उतना आसान नहीं है कि वह उनका जीवन बन जाए। तो क्या इसका मतलब यह है कि सत्य को लोगों में नहीं ढाला जा सकता? नहीं, ऐसा नहीं है। इसे उनमें ढाला जा सकता है, मगर लोगों में सही रवैया और दृष्टिकोण होना चाहिए और उन्हें सही मार्ग पर चलना चाहिए। ऐसा करने में मुश्किल होने का मतलब यह नहीं है कि इसे नहीं किया जा सकता, ठीक वैसे ही जैसे परमेश्वर के कार्य के पहले दो चरणों में जब परमेश्वर ने पूर्णता का कार्य नहीं किया, न ही उसने इन सत्यों को व्यक्त किया या इन वचनों को कहा, मगर कुछ लोगों को पूर्ण बनाया गया और कुछ ने फिर भी परमेश्वर को जान लिया। इस तथ्य से देखें तो लोगों में सत्य को ढाला जा सकता है और यह नामुमकिन नहीं है, यह बस इस बात पर निर्भर करता है कि लोग सत्य का अनुसरण करते हैं या नहीं। तो किसी को कैसे अनुसरण करना चाहिए? सबसे सरल तरीका है परमेश्वर के वचन रोज पढ़ो, परमेश्वर के आवश्यक वचन याद करो, हर दिन परमेश्वर के वचनों के एक अंश पर विचार करो, उन वचनों का प्रार्थना-पाठ करो और बार-बार उन पर संगति करो। परमेश्वर के वचन तुम्हें जो सिखाना चाहते हैं, जब तुम उन विचारों और कथनों के साथ ही विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति रवैयों का प्रार्थना-पाठ कर लोगे, ताकि तुम उन्हें समझ सको और वे तुम्हारे दिल में प्रवेश कर गए हों तो जब भी विभिन्न चीजें सामने आएँगी, तुम्हें पता लगने से पहले ही सकारात्मक विचार और दृष्टिकोण और अभ्यास के सिद्धांत तुम्हारे भीतर आत्मसात किए जाएँगे। तुम लोग अब तक इस स्तर पर नहीं पहुँचे हो। क्या तुमने पढ़ा कि अय्यूब ने क्या किया था? जब उसके बच्चे मौज-मस्ती कर रहे थे, तब अय्यूब क्या कर रहा था? वह अपने बच्चों के लिए प्रार्थना करने और बलिदान देने के लिए परमेश्वर के समक्ष आया। वह कभी परमेश्वर से भटककर दूर नहीं गया। कहने का आशय यह है कि ऐसी हर चीज से दूर रहो जो तुम्हारे दिल को परमेश्वर से दूर कर सकती है; ऐसा कुछ मत कहो जिससे तुम्हारा दिल परमेश्वर से दूर हो सकता हो; ऐसी चीजों को देखने से बचो जो तुम्हें परमेश्वर से दूर कर सकती हैं या उसके बारे में धारणाएँ या संदेह पैदा कर सकती हैं; ऐसे लोगों के संपर्क में मत आओ जो तुम्हें नकारात्मक, पतित और असंयमित बना सकते हैं या जो तुमसे परमेश्वर पर संदेह, उसका प्रतिरोध या उससे दूर करा सकते हैं, बल्कि ऐसे लोगों से जानबूझकर दूर रहो; जिनसे भी तुम शिक्षा, सहायता और पोषण पा सकते हो, उनके करीब रहो; और ऐसा कुछ भी मत करो जो तुम्हें सत्य को ठुकराने, उसे नापसंद करने या उससे घृणा करने पर मजबूर करे। तुम्हारे मन में इन चीजों के बारे में कुछ न कुछ विचार जरूर होना चाहिए। जीवन में यह सोचते हुए बेपरवाही मत करो कि “मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मैं कितने समय तक जिऊँगा या मेरा जीवन कैसा होगा, मैं सब कुछ कुदरत और परमेश्वर के आयोजनों पर छोड़ दूँगा।” परमेश्वर ने तुम्हारे लिए परिवेश बनाए हैं और तुम्हें फैसला लेने की स्वतंत्र इच्छा दी है, लेकिन अगर तुम सहयोग नहीं करते और जानबूझकर लगातार उन लोगों के संपर्क में आते हो जो सांसारिक चीजों के शौकीन हैं, जो हमेशा देह-सुख में लिप्त रहते हैं, जो अपने कर्तव्यों के प्रति समर्पित नहीं हैं और जो गैर-जिम्मेदार हैं, और अगर तुम लगातार उन लोगों के साथ मिलते-जुलते हो तो अंतिम नतीजा और परिणाम क्या होगा? जब उन लोगों के पास करने को कुछ नहीं होता तो वे खाने-पीने और मौज-मस्ती करने की बातें करते हैं और अक्सर चुगलियाँ और गपशप करते हैं। अगर ऐसे प्रलोभनों से तुम्हारा सामना होता है और तुम उनसे दूर नहीं रहते और यहाँ तक कि इन चीजों के पीछे पागल हो जाते हो और जानबूझकर ऐसे लोगों के साथ घूमते-फिरते हो तो तुम खतरे में हो, क्योंकि प्रलोभन तुम्हारे चारों ओर है! जब बुद्धिमान लोग ऐसे प्रलोभन देखते हैं तो वे इनसे दूर ही रहते हैं। उनके दिल में यह बात स्पष्ट होती है, “मेरे पास वह आध्यात्मिक कद नहीं है, मैं नहीं सुनूँगा और न ही मैं उन पर कोई ध्यान देना चाहता हूँ। ये लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते या सत्य से प्रेम नहीं करते। मैं इनसे दूर ही रहूँगा और अकेले ही परमेश्वर के वचन पढ़ने के लिए एक शांत जगह खोजूँगा, अपने दिल को शांत करूँगा और कुछ देर चिंतन करूँगा और परमेश्वर के समक्ष आऊँगा।” ये सारे सिद्धांत और उद्देश्य हैं : पहला, परमेश्वर के वचनों से मत भटको; और दूसरा, अपने दिल में परमेश्वर से मत भटको। इस तरह तुम सत्य क्या है, इस समझ की नींव पर लगातार परमेश्वर के समक्ष रह सकते हो। एक ओर परमेश्वर तुम्हें प्रलोभन में पड़ने से बचाएगा। तो दूसरी ओर परमेश्वर तुम्हारे साथ बेहद अनुग्रहपूर्ण व्यवहार करेगा, जिससे तुम यह समझ पाओगे कि सत्य का अभ्यास करने के लिए तुम्हें क्या करना चाहिए और तुम सभी विभिन्न सत्यों के बारे में रोशन और प्रबुद्ध हो पाओगे। जब तुम्हारे कर्तव्य की बात आएगी तो परमेश्वर तुम्हारा यह मार्गदर्शन करेगा कि तुम गलतियाँ न करने, हमेशा सही काम करने और सिद्धांतों को जानने की कोशिश करो। इस तरह क्या तुम सुरक्षित नहीं रहोगे? बेशक यह सबसे बड़ा और अंतिम लक्ष्य नहीं है। तो अंतिम लक्ष्य क्या है? यही कि तुम विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों से सबक सीख सको, परमेश्वर के इरादों को समझ सको, परमेश्वर के कार्य को जान सको और परमेश्वर द्वारा अपेक्षित सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास कर सको। इस तरह तुम्हारा जीवन और आध्यात्मिक कद स्थिर होने के बजाय आगे बढ़ता रहेगा। अगर तुम हमेशा मामलों को निपटाने में व्यस्त रहते हो और अपने कर्तव्य निभाने और जीवन प्रवेश की कठिनाइयों को हल करने में सत्य का अभ्यास करने पर ध्यान नहीं देते तो तुम अपने जीवन में प्रगति नहीं कर पाओगे। जीवन प्रवेश अपना कर्तव्य निभाने से प्राप्त होता है। अगर कोई अपना कर्तव्य निभाने से और परमेश्वर के वचनों से दूर हो जाता है तो जीवन में कोई प्रगति नहीं होगी। कुछ लोग दूसरों को बेकार की बातें करते देखते हैं तो खुद भी इसमें शामिल हो जाते हैं और अपनी नाक घुसा देते हैं, लगातार दूसरों के मामलों में अपनी टाँग अड़ाते रहते हैं और गपशप करने के शौकीन होते हैं—परमेश्वर ऐसे लोगों को पसंद नहीं करता। परमेश्वर किस तरह के लोगों को पसंद करता है? ऐसे लोगों को जो अपने दिलों को शांत कर सकते हैं। खुद को किस लिए शांत करें? क्या एक ऐसी कठपुतली बनने के लिए, जो कुछ भी नहीं सोचती हो? नहीं, इस हद तक कि परमेश्वर के सामने शांत होकर प्रार्थना करना, परमेश्वर के इरादों को खोजना, परमेश्वर से अपनी रक्षा करने की विनती करना और परमेश्वर से यह विनती करना कि वह तुम्हें प्रबुद्ध करे। साथ ही, सत्य के ऐसे किसी पहलू के बारे में प्रबुद्ध और रोशन होने की कोशिश करना जिसे तुम नहीं समझते हो, ताकि सत्य के इस पहलू के बारे में समझ और स्पष्टता प्राप्त हो सके या अपने काम के जिस पहलू में समस्याएँ हैं उसे हल करने की कोशिश करना और परमेश्वर का मार्गदर्शन पाना। जब कोई व्यक्ति परमेश्वर के सामने शांतचित्त होता है तो उसे बहुत से कार्य और बहुत सी चीजें करनी होती हैं। यह कोई ऐसा मामला नहीं है कि जब तुम्हारे पास खाली समय हो तब तुम परमेश्वर के पास आओ और यह कहो, “परमेश्वर, मैं आ गया हूँ, तुम मेरे दिल में हो, मेरे साथ रहो, मुझे प्रलोभन में मत डूबने दो!” अगर तुम ऐसी खानापूर्ति करते हो और परमेश्वर के साथ बेरुखी से पेश आते हो तो तुम सच्चे विश्वासी नहीं हो और परमेश्वर ऐसे लोगों को सत्य प्रदान नहीं करेगा। अगर लोग परमेश्वर से सत्य पाना चाहते हैं तो सबसे पहले उनके पास क्या होना चाहिए? उनके पास ऐसा दिल होना चाहिए जो धार्मिकता के लिए भूखा और प्यासा हो, यानी एक ईमानदार दिल। तुम्हारे दिल में ईमानदारी क्या दर्शाती है? यही कि तुम वास्तव में सत्य से प्रेम करते हो। अगर तुम हमेशा परमेश्वर के साथ बेपरवाह रहते हो और बिल्कुल भी ईमानदार नहीं हो, हमेशा हर चीज पर अपने फैसले खुद लेना चाहते हो और हमेशा परमेश्वर के सामने आकर हाजिरी देना, नमस्ते करना और फिर फैसले लेना और खुद ही सब कुछ करना चाहते हो तो भले ही परमेश्वर ने तुम्हें अपना कार्य सौंपा है, तुम्हारा परमेश्वर या सत्य से कोई लेना-देना नहीं रह जाता। इसे क्या कहते हैं? इसे परमेश्वर का प्रतिरोध करना और अपने ही उद्यम में जुटे रहना कहते हैं। क्या परमेश्वर तुम्हें इस तरह से प्रबुद्ध कर सकता है? नहीं। क्या तुम सभी ने सत्य का अनुसरण करने और सत्य को समझने का तरीका जान लिया है? तुम्हें अक्सर परमेश्वर के सामने आना होगा, सत्य खोजने और परमेश्वर से प्रार्थना करने के लिए अपने दिल को शांत करना होगा, और खुद को भी शांत करना सीखना होगा। खुद को शांत करने का मतलब खाली दिमाग होना नहीं है, बल्कि अपने दिल में निवेदन, विचार और बोझ रखना है, परमेश्वर के सामने ईमानदार और तड़पते हुए दिल के साथ आना है, सत्य और परमेश्वर के इरादों के लिए तड़प रखना है और जो कर्तव्य तुम निभाते हो और जो कार्य तुम करते हो उसका बोझ उठाना है—जब तुम परमेश्वर के सामने आते हो और खुद को शांत करते हो तो तुम्हारे मन में यही होना चाहिए।
मैंने अभी-अभी संगति की कि कलीसिया का सारा काम परमेश्वर के राज्य का सुसमाचार फैलाने के कार्य से सीधे तौर पर संबंधित है। विशेष रूप से सुसमाचार प्रचार के कार्य और पेशों से संबंधित सभी कामों का सुसमाचार फैलाने के कार्य के साथ एक महत्वपूर्ण और अटूट संबंध है। इसलिए सुसमाचार फैलाने के कार्य में जो कुछ भी शामिल है उसमें परमेश्वर के हित और परमेश्वर के घर के हित शामिल हैं। अगर लोग सुसमाचार फैलाने के कार्य को सही ढंग से समझ सकें तो उन्हें अपने द्वारा किए जाने वाले कर्तव्यों और दूसरों द्वारा किए जाने वाले कर्तव्यों के प्रति सही रवैया अपनाना चाहिए। उनके प्रति सही रवैया अपनाने का तरीका क्या है? अपनी पूरी कोशिश करो और उन्हें परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार करो। कम से कम ऐसे व्यवहारों और अभ्यासों में मत जुटो जो जानबूझकर नुकसान या बाधा पहुँचाते हैं और जानबूझकर ऐसी चीजें मत करो जो तुम्हें पता है कि गलत हैं। अगर कोई व्यक्ति जानते हुए भी कुछ ऐसा करने पर जोर देता है जो कलीसिया के कार्य में बाधा और गड़बड़ी पैदा करेगा और कोई भी उसे ऐसा करने से नहीं रोक पाता तो वह बुराई कर रहा है, मौत को बुलावा दे रहा है और शैतान के रूप में अपना असली रंग दिखा रहा है। भाई-बहनों को उसका असली चेहरा पहचानने में फौरन मदद करो और फिर उस बुरे व्यक्ति को कलीसिया से बाहर निकाल दो। अगर कोई कुकर्मी क्षणिक मूर्खता कर बैठा है और जानबूझकर बुराई नहीं कर रहा है तो ऐसे मामले को कैसे निपटाया जाना चाहिए? क्या उस व्यक्ति को शिक्षित करके उसकी मदद की जानी चाहिए? अगर वह शिक्षित हो और फिर भी बात न सुने तो क्या होगा? भाई-बहन मिलकर उसकी आलोचना करेंगे। अगर वह व्यक्ति अपने काम में सक्षम है, फिर भी इसे करने में अपनी पूरी कोशिश नहीं करता है, मगर फिलहाल उसकी जगह लेने वाला कोई नहीं है और हर कोई अभी भी चाहता है कि वह व्यक्ति यह काम करे तो क्या? सभी मिलकर उस व्यक्ति की काट-छाँट करेंगे और उसे चेतावनी देंगे, “परमेश्वर ने तुम्हारा उन्नयन किया है और तुमसे यह कर्तव्य निभाने को कहा है। अगर तुम इसे करने की पूरी कोशिश नहीं करते, लगातार बाधा डालते हो और फिर से अपना कार्य त्याग देते हो तो तुममें साफ तौर पर कोई अंतरात्मा नहीं है और तुम अपना कर्तव्य निभाने के लिए उपयुक्त नहीं हो।” यह तरीका अच्छा है या नहीं? अगर कोई उसकी जगह ले सकता है तो उसे जाने दो। क्या तुम लोग ऐसा करने की हिम्मत करोगे? ज्यादातर लोग हिम्मत नहीं करेंगे। जब कलीसिया के कार्य की रक्षा करने की बात आती है तो बहुत से लोग खड़े होने और न्याय को कायम रखने की हिम्मत नहीं करते। क्या यह सत्य का पालन करने की हिम्मत न करने का मामला नहीं है? कुछ लोग कलीसिया के कार्य में गड़बड़ करते और बाधा डालते देखकर मुँह छिपा लेते हैं और उदासीन हो जाते हैं, जैसे कि इससे उनका कोई लेना-देना ही नहीं है और उनका रवैया इस तरफ अपनी आँखें मूँद लेने का होता है। लेकिन अगर कोई यह कहकर उनकी आलोचना करता है कि उन्हें ऐसा नहीं होना चाहिए या उनसे घृणा करता है या उन्हें नीची नजर से देखता है तो वे चिढ़ जाते हैं और मन-ही-मन सोचते हैं : “तुम अपने आप को समझते क्या हो? तुम होते कौन हो मेरी आलोचना करने वाले? तुम होते कौन हो मुझे नीची नजर से देखने वाले? हमें इस मामले पर हर पहलू से चर्चा करनी होगी।” वे इस मामले को दिल से लगाकर इसे बड़ी गंभीरता से लेते हैं और कुछ कहे बिना और अपनी स्थिति स्पष्ट किए बिना नहीं रह सकते। जब कलीसिया के कार्य में बाधा आई, गड़बड़ी पैदा हुई और उसे नुकसान पहुँचा तो उन्हें कुछ भी महसूस नहीं हुआ, बल्कि उन्होंने इसे नजरअंदाज किया। ये किस तरह के लोग हैं? (स्वार्थी और नीच लोग।) क्या यह केवल स्वार्थ और नीचता है? यह समस्या इतनी गंभीर है कि इसे सिर्फ एक वाक्य में नहीं बताया जा सकता। सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि ऐसे लोगों में कोई मानवता नहीं है और वे बिल्कुल भी अच्छे लोग नहीं हैं। वास्तव में यही तो मसीह-विरोधी करते हैं और बेशक, झूठे अगुआ भी कुछ अलग नहीं हैं। मसीह-विरोधी नहीं जानते कि परमेश्वर के घर के हित क्या हैं। जब कलीसिया के कार्य में बाधा आती है तो वे इसे नहीं देख पाते। कुछ लोग कलीसिया के कार्य में बाधा पैदा करके सब कुछ अस्त-व्यस्त कर देते हैं, मगर जब मसीह-विरोधी इसे देखते हैं तो वे इसे गंभीरता से नहीं लेते। वे इसे समुचित अहमियत नहीं देते हैं और अपराधी को कुछ छोटी-मोटी टिप्पणियों के साथ फटकारते हैं, उन्हें थोड़ी-सी नसीहत दे देते हैं और इससे ज्यादा कुछ नहीं करते, वे गुस्सा भी नहीं होते। क्या ऐसे लोगों में न्याय की भावना होती है? ये किस तरह के लोग होते हैं? ऐसे लोग उसी हाथ को काट खाते हैं जो उन्हें खिलाता है, वे विश्वासघाती हैं! वे घटिया हैं!
मैंने अभी-अभी यह सामान्य जानकारी दी है कि लोगों के हित क्या होते हैं, लोगों के हितों का सार क्या होता है, लोग व्यक्तिगत हितों का अनुसरण क्यों करते हैं, लोगों के व्यक्तिगत हितों के अनुसरण की प्रकृति क्या होती है और साथ ही परमेश्वर के हितों की प्रकृति क्या है और उन्हें कैसे परिभाषित किया जाता है। परमेश्वर के हित सबसे न्यायोचित महान कार्य होते हैं और उन्हें ऐसा ही माना जाना चाहिए। परमेश्वर का अपने हितों की रक्षा करना बिल्कुल भी स्वार्थमय नहीं है, न ही यह केवल परमेश्वर की गरिमा और महिमा की रक्षा के लिए है। बल्कि वह तो अपने कार्य की प्रगति और नतीजों की रक्षा करना चाहता है और एक न्यायोचित महान कार्य की रक्षा करना चाहता है। यह सबसे न्यायोचित और जायज व्यवहार और क्रियामार्ग है और यह परमेश्वर का कार्य है। सृजित मनुष्यों को परमेश्वर के इस कार्य के बारे में कोई धारणा नहीं पालनी चाहिए, कोई आरोप लगाना या आलोचना करना तो और भी दूर की बात है। क्या हम यह कह सकते हैं कि परमेश्वर के हित सर्वोपरि होते हैं? (हाँ।) क्या यह कहना स्वार्थमय है? (नहीं।) लोग सत्य के इस पहलू को समझते हैं और इस आधार पर यह कथन सही है। यह जानबूझकर पक्षपातपूर्ण नहीं है, यह निष्पक्ष और जायज है। “वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते और वे व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ विश्वासघात तक कर देते हैं”—यह मसीह-विरोधियों का सार है। हितों के प्रति उनका रवैया और दृष्टिकोण इसी प्रकृति का है और वे परमेश्वर के घर के हितों पर विचार कभी नहीं करते। “कभी नहीं” का क्या मतलब है? यही कि वे परमेश्वर के हितों के बारे में बिल्कुल नहीं सोचते और न ही उनके पास ऐसी कोई अवधारणा है, वे सिर्फ अपने हितों के बारे में विचार करते हैं—इसका यही मतलब है। यह कितना गंभीर है? परमेश्वर के घर के हितों के साथ विश्वासघात करना, व्यक्तिगत यश और व्यक्तिगत हितों के बदले उनका व्यापार करना। उनके हित सबसे पहले आते हैं और वे परमेश्वर के हितों की जगह ले सकते हैं। वे अपने हितों के लिए लड़ेंगे, चाहे ये हित कितने भी दुष्ट, नाजायज या नकारात्मक क्यों न हों और वे अपने हितों को हथियाने और उनकी खातिर लड़ने के लिए किसी भी कीमत पर किसी की भी बलि चढ़ाने तक जा सकते हैं। यह कैसा व्यवहार है? (मसीह-विरोधियों जैसा।) मसीह-विरोधियों का व्यवहार—शैतान यही करता है। शैतान इस मानवजाति पर प्रभुत्व जमाता है, एक देश पर प्रभुत्व जमाता है, एक जाति पर प्रभुत्व जमाता है और अपने प्रभुत्व की स्थिरता के बदले में कितनी भी संख्या में जिंदगियों का बलिदान देने की हद तक जा सकता है। शैतान के हित क्या हैं? सत्ता और प्रभुत्व वाला पद। तो शैतान प्रभुत्व वाला पद कैसे पाता है और इस प्रभुत्व की स्थिरता कैसे कायम रखता है? (हर कीमत पर।) हर कीमत पर। यानी उसे इस बात की परवाह नहीं है कि उसके तौर-तरीके आम जनता को जायज लगते हैं या नहीं, और वह नर-संहार और दमन से लेकर नरम और कठोर युक्तियाँ, जबरदस्ती और प्रलोभन तक सब कुछ इस्तेमाल करता है और अपने पद की स्थिरता और अपनी सत्ता के बदले में वह किसी के भी जीवन या किसी भी संख्या में जिंदगियों का बलिदान देने की हद तक जा सकता है—यही शैतान का व्यवहार है। मसीह-विरोधी भी इसी तरीके से काम करते हैं।
क्या आज की संगति के ये वचन तुम लोगों की रुचि के हिसाब से हैं? (आज की संगति सुनने के बाद मैंने बहुत कुछ हासिल किया और खासकर ज्ञान और बुद्धिजीवियों के गहन-विश्लेषण से मैं बहुत प्रभावित हुई। इससे पहले मैं इस विचार से पूरी तरह सहमत नहीं थी कि बुद्धिजीवियों में आध्यात्मिक समझ की कमी होती है, मगर इस बार परमेश्वर द्वारा ज्ञान के गहन-विश्लेषण से मैं धीरे-धीरे तुलना करने और यह देखने में सक्षम हो गई हूँ कि कई बार मैं खुद भी परमेश्वर के वचनों को अच्छे से नहीं समझ पाती हूँ, जब मैं उन्हें सुनती हूँ तो समझ नहीं पाती हूँ और मैं जब लोगों और घटनाओं को देखती हूँ तो बौद्धिक दृष्टिकोण से उन्हें देखती हूँ और उनका विश्लेषण करती हूँ, जिससे समझ विकृत हो जाती है—यह आध्यात्मिक समझ की कमी है। अब मैं बुद्धिजीवियों के सार को अधिक स्पष्टता से देख सकती हूँ।) आज बुद्धिजीवियों के बारे में बात करते हुए मेरा इशारा किसी एक व्यक्ति की ओर बिल्कुल नहीं है, लेकिन अगर तुम लोग मेरे वचनों की कसौटी पर खुद को कस सकते हो तो यह अच्छी बात है और आशा है कि तुम चीजों को पूरी तरह बदलकर उनमें प्रवेश कर सकोगे। तुम लोगों को सत्य न समझने या बूझने के बिंदु से धीरे-धीरे उस बिंदु तक पहुँचने के लिए लगन के साथ अनुसरण करना चाहिए जहाँ तुम एक-एक करके कुछ सरल, एकल और कम गहरे सत्यों को समझ सको, ताकि तुम जो समझते हो वह शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के बजाय सिर्फ सत्य हो। इस तरह धीरे-धीरे तुममें आध्यात्मिक समझ आ जाएगी। अगर तुम सत्य और वास्तविकता पर ध्यान देते हुए चीजों का पता लगाते हो तो धीरे-धीरे सत्य समझ जाओगे; अगर तुम लगातार धर्म-सिद्धांतों पर ध्यान देते हुए, तर्क का इस्तेमाल करके और अपने दिमाग का इस्तेमाल करके चीजों का विश्लेषण करते हो तो तुम सिर्फ धर्म-सिद्धांत या सिद्धांत समझ पाओगे, जो कभी भी सत्य नहीं बनेंगे और तुम कभी भी धर्म-सिद्धांत की नींव से आगे नहीं बढ़ोगे। यही बात है ना? (हाँ।) कुछ लोग कहते हैं, “मैं परमेश्वर के जो वचन पढ़ता हूँ उनमें से कुछ को समझ क्यों नहीं पाता? ऐसा क्यों है कि व्याकरण का इस्तेमाल करके और निबंध की संरचना के हिसाब से मापने पर लोगों के लिए उन्हें समझना और स्वीकारना इतना आसान नहीं होता है?” तुम लोग इस समस्या को कैसे समझाते हो? क्या अब तुम इसे समझ सकते हो? मैं तुम लोगों को समझाता हूँ। परमेश्वर तब से मनुष्यों से बात कर रहा है जब से मानवजाति अस्तित्व में आई है और वह जो कुछ भी कहता है उसका हरेक वचन और अनुच्छेद केवल एक भाषा है, कोई निबंध नहीं। आज जब मैं यहाँ बोल रहा हूँ तो क्या मैं कोई निबंध प्रस्तुत कर रहा हूँ, कोई रिपोर्ट दे रहा हूँ या सिर्फ बातचीत कर रहा हूँ? (बातचीत कर रहे हो।) मैं तुम लोगों से बातचीत कर रहा हूँ, सत्य बता रहा हूँ और उन विषयों पर बात कर रहा हूँ जिनकी तुम लोगों को जरूरत है। मैं बोल रहा हूँ, कोई निबंध प्रस्तुत नहीं कर रहा। इसलिए तुम लोगों को यह समझना होगा कि निबंध क्या होता है और बोलना क्या होता है—दोनों में अंतर हैं। निबंधों के लिए जरूरी कई तत्व ज्ञान के वो पहलू होते हैं जो मानवजाति से आते हैं और परमेश्वर को बोलते समय इस ज्ञान का पालन करने की कोई जरूरत नहीं है। उसे केवल उन सत्यों को सरल तरीके से और स्पष्टता से बोलना है जिनके बारे में वह बोलना चाहता है और अगर लोग जिन सत्यों को सुनते हैं उन्हें समझ सकते हैं तो यह काफी है और यहाँ तक कि विराम चिह्नों का इस्तेमाल करने की भी जरूरत नहीं है। मानवजाति ने विराम चिह्नों और निबंधों का आविष्कार किया और उसी ने व्याकरण का और निबंधों के लिए जरूरी तत्वों का भी आविष्कार किया। ये सभी चीजें ज्ञान की श्रेणी में आती हैं और परमेश्वर को उनका पालन करने की कोई जरूरत नहीं है। साथ ही, भाषा परमेश्वर से आती है और यह एक सकारात्मक चीज है। इसलिए चाहे परमेश्वर कुछ भी कहे, वह सही है। तुम्हें व्याकरण से जुड़ी समस्याओं के लिए इसकी जाँच करने या व्याकरण से जुड़ी समस्याओं की तुलना या गहन-विश्लेषण करने की कोई जरूरत नहीं है। किसी भी दिए गए लेख में, अनुच्छेद में और वाक्य में तुम्हें बस इतना समझना है कि परमेश्वर का इरादा क्या है, सत्य क्या है, परमेश्वर लोगों में किन सत्य सिद्धांतों के होने की अपेक्षा करता है और वह लोगों को अभ्यास का कौन-सा मार्ग बताता है, और इतना काफी है। यही वह विवेक है जो सृजित प्राणियों यानी लोगों के पास होना चाहिए। परमेश्वर के वचनों और क्रियाकलापों को लोगों की बनाई इन सभी परंपराओं और ढाँचों का पालन करने की जरूरत नहीं है और साथ ही ज्ञान में निहित इन विनियमों और विशुद्ध बौद्धिक चीजों का भी पालन करने की कोई जरूरत नहीं है। परमेश्वर ने बहुत सी बातें कही हैं और चाहे वह कुछ भी कहे, वह सत्य है। आध्यात्मिक समझ वाले लोग और अनुभवी लोग परमेश्वर के वचनों को जितना ज्यादा पढ़ते हैं, उतना ही ज्यादा उन्हें लगता है कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं। इन वचनों में जो सत्य है, वह कुछ ऐसा है जिसे लोगों को जानना, खोजना और अनुभव करना जरूरी है। परमेश्वर मानवजाति से बात करता है—याद रखो कि परमेश्वर का कार्य बोलना है, और “बोलने” को आम बोलचाल की भाषा में गपशप या चीजों के बारे में बात करना कहते हैं। परमेश्वर यहाँ जो कहना चाहता है, उसमें क्या सार निहित है? ये परमेश्वर के इरादे, सत्य और लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाएँ होती हैं—यही विषय-वस्तु है। बोलने की प्रकृति गपशप करने के ढंग से, दिल से दिल तक और आमने-सामने आकर सरल तरीके से और स्पष्टता से बात करने की है, कभी कुछ बोलचाल की भाषा और बोली का इस्तेमाल करके, तो कभी कुछ साहित्यिक शब्दों का इस्तेमाल करके। एक निबंध लिखने के लिए तुम्हारे पास पहले अनुच्छेद में एक भूमिका होनी चाहिए, फिर बीच में तुम्हें विषय का विस्तार और उसकी व्याख्या करनी होगी और फिर विषय के चरम पर पहुँचकर अंत में निबंध का उपसंहार करना होगा। इसे निबंध माने जाने के लिए बिल्कुल इसी प्रारूप के अनुसार लिखना होगा और तभी शिक्षक इसे पढ़कर औसत, अच्छा या उत्कृष्ट ग्रेड दे सकता है। क्या तुम इस तरह से परमेश्वर के वचनों को ग्रेड दे सकते हो? मान लो कि तुमने कहा, “यह लेख अच्छा है, इसमें अच्छा व्याकरण है, यह दिव्य भाषा में बोला गया है और पूरी तरह से एक निबंध की संरचना के अनुरूप है; वह लेख इतना अच्छा नहीं है, यह थोड़ा अव्यवस्थित है और संरचना भी इतनी अच्छी नहीं है। कुछ शब्द व्याकरण के हिसाब से सही नहीं हैं और कुछ शब्द तो ऐसे भी हैं जिनका सही जगहों पर इस्तेमाल नहीं हुआ है।” क्या परमेश्वर के वचनों को इस तरह से पढ़ना ठीक है? (नहीं।) उन्हें इस तरह से पढ़ना विकृत तरीका होगा और तुम कभी भी सत्य प्राप्त नहीं कर पाओगे। तुम्हें परमेश्वर के वचनों में छिपे अर्थ को समझना होगा ताकि तुम देख सको कि परमेश्वर तुमसे क्या चाहता है और इन वचनों में क्या सत्य समाया हुआ है—यही सबसे समझदारी वाली बात है। तुम तो यह भी नहीं जानते कि इन चीजों को कैसे देखना है और दिन भर यही कहते रहते हो : “परमेश्वर के वचन निबंध में क्यों नहीं हैं? परमेश्वर के वचन भाषणों की तरह होने चाहिए और परमेश्वर को परिष्कृत भाषा में बोलना चाहिए।” मैं तो ऐसा नहीं करता। यह बहुत थकाऊ होगा और तुम लोग सुनते-सुनते थक जाओगे और बोलने वाला व्यक्ति भी थक जाएगा। परमेश्वर के स्वर्ग में बोलने, अय्यूब से बात करने, पतरस से बात करने, मूसा और योना से बात करने के बारे में सोचो—क्या परमेश्वर के वचन सरल और स्पष्ट नहीं थे? तुम बिल्कुल भी नहीं देख सकते कि वे कितने असाधारण, गूढ़ या महान हैं या उनका शब्द चयन कितना सुदृढ़ हैं। जब शैतान ने अय्यूब को लुभाया तो परमेश्वर ने शैतान से कहा, “क्या तू ने मेरे दास अय्यूब पर ध्यान दिया है? क्योंकि उसके तुल्य खरा और सीधा और मेरा भय माननेवाला और बुराई से दूर रहनेवाला मनुष्य और कोई नहीं है” (अय्यूब 1:8), और “वह तेरे हाथ में है, केवल उसका प्राण छोड़ देना” (अय्यूब 2:6)। परमेश्वर के वचन सरल भी थे और संक्षिप्त भी थे और उन्होंने मामले को बहुत स्पष्टता से समझाया। यह परमेश्वर का स्वभाव और परमेश्वर का सार है। परमेश्वर जानबूझकर रहस्यमयी दोहरी बातें नहीं करता है और उसकी महानता, असाधारणता, सम्माननीयता, अधिकार और सामर्थ्य नकली नहीं हैं। मैं क्यों कहता हूँ कि वे नकली नहीं हैं? जब वह किसी व्यक्ति से बात करता है तो वह कोई मुखौटा नहीं लगाता, खुद को किसी भव्य छवि में नहीं छुपाता या ऐसी बातें नहीं कहता जो लोग समझ नहीं सकते—यह सब शैतान करता है, परमेश्वर ऐसा नहीं करता—और क्योंकि परमेश्वर यह कह रहा है, इसलिए वह तुम्हें इसे समझाएगा। अगर तुम बच्चे हो, तो वह तुमसे बच्चों की समझ में आने वाले शब्दों में बात करेगा। अगर तुम बुजुर्ग हो तो वह तुमसे बुजुर्गों की भाषा में बात करेगा। अगर तुम पुरुष हो तो वह तुमसे उस भाषा में बात करेगा जिसमें पुरुषों को बात करने की आदत है। अगर तुम एक भ्रष्ट इंसान हो तो वह तुमसे एक ऐसे तरीके से और अपनी भाषा की एक ऐसी संरचना के साथ बात करेगा जिसे भ्रष्ट इंसान समझ सकते हैं। परमेश्वर कई तरीकों से बात करता है। कभी वह चुटकुले सुनाता है, कभी वह व्यंग्यात्मक टिप्पणियाँ करता है, कभी वह ताने मारता है, कभी गहन-विश्लेषण करता है, कभी वह कठोर हो जाता है, कभी कोमल होता है, कभी-कभी वह तुम्हें भावुक कर देता है तो कभी वह तुम्हारी काट-छाँट कर तुम्हें सांत्वना देता है...। परमेश्वर द्वारा किया जाने वाला यह सारा कार्य और उसके द्वारा व्यक्त किए जाने वाले ये सत्य कठोर नहीं, बल्कि कोमल हैं। परमेश्वर सजीव जल का झरना है, और सत्य का स्रोत भी परमेश्वर है। परमेश्वर जो भी कहता है वह ठीक है, इसमें सत्य होता है और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह इसे किस तरीके से कहता है। अगर किसी के मन में हमेशा परमेश्वर के बोलने के तरीके, उसकी भाषा की संरचना, वगैरह के बारे में धारणाएँ रहती हैं, वह लगातार उनकी पड़ताल और उन पर संदेह करता है और हमेशा इन चीजों को लेकर परेशान रहता और यह सोचता है, “मैं जिस परमेश्वर में विश्वास करता हूँ, वह वास्तव में परमेश्वर जैसा नहीं लगता, वह ऐसा क्यों है? मैं उसे स्वीकार नहीं करना चाहता, मेरे लिए उसे स्वीकारना बहुत शर्मनाक होगा, मैं किसी और में विश्वास कर लूँगा” तो यह किस तरह का व्यक्ति है? (एक छद्म-विश्वासी।) यह एक छद्म-विश्वासी है। ज्यादातर छद्म-विश्वासी किस तरह के लोग हैं? ऐसे लोग जिनमें आध्यात्मिक समझ की कमी है। जब आध्यात्मिक समझ की कमी वाले लोग परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं तो वे उनकी गंभीरता से पड़ताल करते हैं, मगर अभी भी उन्हें पूरी तरह से समझ नहीं पाते, इसलिए वे सोचते हैं, “चूँकि यह सच्चा मार्ग है तो क्या इस मार्ग पर विश्वास करके वास्तव में आशीष पाए जा सकते हैं? इतने सारे लोग विश्वास करते हैं। अगर मैं विश्वास नहीं करूँगा तो क्या मैं नरक में नहीं जाऊँगा?” वे तुच्छ षड्यंत्र भी रचते हैं। वे यह नहीं सोचते, “लोग कहते हैं कि परमेश्वर के वचनों में सत्य है तो सत्य क्या है? मैंने इसे क्यों नहीं देखा? मुझे पढ़ना और सुनना चाहिए!” एक दिन आखिरकार वे “जो सुनते हैं उसे समझते हैं” और यह सोचते हैं, “ये वचन वास्तविक स्थिति का खुलासा करते हैं, ये सत्य हैं। मगर भाषा बहुत ही साधारण और आम बोलचाल वाली है, यह बहुत ही सामान्य है और बुद्धिजीवी वर्ग इसका मजाक उड़ा सकता है और इससे भेदभाव कर सकता है, इसे कोई बेहद साधारण बातचीत माना जा सकता है, कुछ वचनों के मामले में तो इसे नीरस भी माना जा सकता है, और कुछ शब्द जिन्हें ज्ञान के क्षेत्र में ऊँचे स्तर के बुद्धिजीवी भी इस्तेमाल करने को तैयार नहीं होंगे वास्तव में परमेश्वर के मुख से बोले गए हैं—यह बहुत अकल्पनीय है और ऐसा नहीं होना चाहिए, है ना?” इस निरंतर पड़ताल के दुष्परिणाम क्या होंगे? तुम्हें लगेगा कि तुम परमेश्वर से बेहतर हो और परमेश्वर को तुममें विश्वास करना चाहिए और तुम्हारा उन्नयन करना चाहिए। क्या यह समस्या वाली बात नहीं है? ये वे लोग हैं जिनमें आध्यात्मिक समझ की कमी है। परमेश्वर के प्रति उनका रवैया हमेशा परमेश्वर के खिलाफ खड़ा होने वाला और उसकी पड़ताल करने वाला होता है। परमेश्वर की पड़ताल करते समय ही वे उसका प्रतिरोध भी कर रहे होते हैं और उसका प्रतिरोध करते समय ही वे यह सोच रहे होते हैं, “यह बेहतर है कि तुम परमेश्वर नहीं हो, क्योंकि तुम बहुत ही तुच्छ हो, तुम परमेश्वर जैसे नहीं हो। अगर तुम वाकई परमेश्वर होते तो मैं सहज महसूस नहीं करता। अगर मैं तुम्हें तुच्छ समझता हूँ और तुम्हारी पड़ताल करता हूँ, तुम्हारा इस हद तक विश्लेषण करता हूँ कि तुम अब परमेश्वर नहीं रह जाते और कोई भी तुम पर विश्वास नहीं करता तो मुझे खुशी होगी, और अगर मैं विश्वास करने के लिए किसी महान परमेश्वर को खोजता हूँ तो मुझे शांति महसूस होगी।” ऐसे लोग छद्म-विश्वासी होते हैं। ज्यादातर छद्म-विश्वासियों में आध्यात्मिक समझ की कमी होती है। वे परमेश्वर के इन सबसे साधारण कथनों से भी कभी सत्य को नहीं समझेंगे या उसे प्राप्त नहीं करेंगे। वे बस बार-बार उनकी पड़ताल करते हैं, न केवल सत्य को पाने में असफल होते हैं, बल्कि अपने उद्धार के महत्वपूर्ण मामले को भी बर्बाद कर देते हैं और साथ ही खुद को बेनकाब कर देते हैं और खुद को हटा देते हैं। चलो आज की संगति यहीं समाप्त करते हैं। (परमेश्वर का धन्यवाद!) फिर मिलेंगे!
17 जनवरी 2020
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