मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते और वे व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ विश्वासघात तक कर देते हैं (भाग एक) खंड पाँच
इसके बाद हम परमेश्वर के हितों, परमेश्वर के घर के हितों और कलीसिया के हितों के बारे में संगति करेंगे। अभी हम इस बारे में बात नहीं करेंगे कि क्या इन तीन हितों के बीच कोई समानता हो सकती है, यानी एक हित के बारे में बात करते समय दूसरे हितों से उसकी बराबरी की जा सकती है या नहीं। आओ सबसे पहले परमेश्वर के हितों के बारे में बात करें। मैंने अभी-अभी बताया कि परमेश्वर के हितों में परमेश्वर की महिमा, परमेश्वर की गवाही, परमेश्वर का नाम, और सबसे जरूरी बात, परमेश्वर की प्रबंधन योजना और परमेश्वर के कार्य का प्रसार शामिल है; जहाँ तक परमेश्वर का संबंध है, ये चीजें सबसे बड़ी और सबसे महत्वपूर्ण चीजें हैं। अभी हम परमेश्वर की महिमा, परमेश्वर के नाम और परमेश्वर की गवाही का जिक्र नहीं करेंगे, जो लोगों से काफी दूर की बातें हैं। आओ सबसे पहले हम परमेश्वर के कार्य की बात करें। परमेश्वर वास्तव में क्या कार्य कर रहा है? परमेश्वर के कार्य की विषयवस्तु क्या है? परमेश्वर के कार्य की प्रकृति क्या है? परमेश्वर के कार्य से मानवजाति को क्या हासिल होता है? मानवजाति पर आखिर इसका क्या प्रभाव पड़ता है? आओ सबसे पहले इन चीजों के बारे में बात करें। तो वास्तव में परमेश्वर का कार्य क्या है? (मानवजाति को बचाना।) यह विषय नहीं बदल सकता, इस कार्य का उद्देश्य नहीं बदल सकता, यानी उस मानवजाति को बचाना जो शैतान की सत्ता के अधीन है और शैतान द्वारा गहराई से भ्रष्ट की जा चुकी है। यह कार्य है लोगों के उस एक समूह को बचाना जिसे शैतान ने इतना भ्रष्ट बना दिया है कि उनमें जरा-सी भी मानवीय झलक नहीं बची है, ऐसे लोगों का समूह जो शैतान के भ्रष्ट स्वभावों से भरे हुए हैं और ऐसे स्वभावों से भरे हुए हैं जो परमेश्वर का प्रतिरोध करते हैं; इस कार्य का उद्देश्य उन्हें बदलना है ताकि वे मनुष्य जैसा बन सकें, सत्य समझ सकें और यह समझ-बूझ सकें कि उचित क्या है और अनुचित क्या है और नकारात्मक चीजें क्या हैं और सकारात्मक चीजें क्या हैं; और यह भी कि सच्चे लोगों की तरह जीने के लिए उन्हें किस तरह से जीना चाहिए और उन्हें किस स्थिति में खड़ा होना चाहिए ताकि वे उस स्थिति में आ सकें जो परमेश्वर ने लोगों के लिए पहले से निर्धारित की है। ये परमेश्वर के कार्य की मूल बातें हैं और तुम सभी लोग इन्हें सैद्धांतिक स्तर पर जानते हो। अगर तुम वाकई परमेश्वर का इरादा समझते हो तो तुम्हें यह पता होना चाहिए कि क्या परमेश्वर लोगों का न्याय उनकी निंदा करने और उन्हें नष्ट करने के लिए करता है या फिर उन्हें शुद्ध करने और पूर्ण बनाने के लिए करता है; और क्या परमेश्वर लोगों को आग के कुंड में धकेलने के लिए उनका न्याय करता है और उन्हें ताड़ना देता है या फिर उन्हें बचाकर रोशनी में लाने के लिए ऐसा करता है। हम सभी यह देख सकते हैं कि परमेश्वर बहुत सारे सत्य व्यक्त करता है, लोगों की विभिन्न भ्रष्ट दशाओं को उजागर करता है, आस्था के बारे में लोगों के भटकावों और धारणाओं को दूर करता है, सत्य समझने और परमेश्वर के वचनों के अनुरूप जीने और साथ ही सच्चे मनुष्य की तरह जीने के लिए लोगों की अगुआई करता है और परमेश्वर के चुने हुए लोगों में कुछ नतीजे पहले ही हासिल किए जा चुके हैं। परमेश्वर लोगों के अहंकारी स्वभावों को उजागर करता है और उन्हें अतिमानव या महान व्यक्ति बनने से रोकता है, ताकि वे सच्चे सृजित प्राणी बन सकें, अंतरात्मा और विवेक वाले लोग बन सकें; परमेश्वर फरीसियों के पाखंडी सार को उजागर करता है, लोगों को फरीसियों के पाखंडी चेहरे देखने देता है और उन्हें परमेश्वर के वचनों की सत्य वास्तविकता में लाता है; परमेश्वर पारंपरिक संस्कृति के बेतुकेपन और लोगों पर पड़ी इसकी बेड़ियों और इससे होने वाले नुकसान को उजागर करता है, ताकि लोग पारंपरिक संस्कृति की बेड़ियों से आजाद हो सकें और सत्य को स्वीकारने और परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीने में सक्षम बनें...। इन सबको इस प्रकार सारांशित किया जा सकता है : लोगों को बचाने का परमेश्वर का कार्य लोगों को दुष्ट दुनिया की प्रवृत्तियों से वापस परमेश्वर के घर में लाना और फिर उन्हें लगन से सिखाना और सत्य और जीवन प्रदान करना है, ताकि वे समझ और जान सकें कि स्व-आचरण के सच्चे सिद्धांत क्या हैं और लोगों को कैसे आचरण करना चाहिए, ताकि वे शैतान की दुष्ट प्रवृत्तियों और विभिन्न शैतानी फलसफों और शैतानी विषों से लोगों को होने वाले नुकसान से बच सकें। शुरुआत से लेकर आज तक परमेश्वर ने व्यवस्था के युग के अपने कार्य से लेकर अनुग्रह के युग के कार्य तक और अब अंत के दिनों में किए जा रहे न्याय के कार्य तक सभी तरह के कार्य किए हैं। अब जब तुम लोग परमेश्वर के कार्य के इन तीन चरणों के बारे में स्पष्ट हो चुके हो तो बताओ कि परमेश्वर की 6,000-वर्षीय प्रबंधन योजना में उसके कार्य की प्रकृति वास्तव में क्या है? इसे कैसे निरूपित किया जाना चाहिए? (मानवजाति के बीच यह सबसे न्यायोचित ध्येय है।) सही कहा। मानवजाति का प्रबंधन करने और बचाने का परमेश्वर का कार्य 6,000 वर्षों से चला आ रहा है और इन 6,000 वर्षों के दौरान परमेश्वर ने अथक रूप से सहा, प्रतीक्षा की और बोला और अब तक मानवजाति की अगुआई की है। परमेश्वर ने हार नहीं मानी है और परमेश्वर द्वारा किया जाने वाला यह कार्य मानवजाति के बीच सबसे न्यायोचित महान कार्य है। इसे परमेश्वर के कार्य की प्रकृति के हिसाब से देखें तो क्या परमेश्वर के हित सबसे न्यायोचित और सबसे जायज हैं? (हाँ।) अगर परमेश्वर के हितों की रक्षा की जाती है तो मानवजाति का क्या होगा? मानवजाति अच्छी तरह से जीते रह सकती है, मनुष्यों जैसा जीवन जी सकती है, परमेश्वर द्वारा बनाई गई सभी चीजों की व्यवस्थाओं के भीतर जी सकती है और परमेश्वर द्वारा मानवजाति को दी गई हर चीज का आनंद ले सकती है और इस प्रकार मनुष्य सभी चीजों के सच्चे मालिक बन जाएँगे। तुम लोगों को यह देखना चाहिए कि परमेश्वर का प्रबंधन कार्य आखिरकार लोगों के सबसे बड़े हितों में है। तो फिर क्या मानवजाति को बचाने का परमेश्वर का कार्य मानवजाति के बीच सबसे न्यायोचित ध्येय नहीं है? इसे नकारा नहीं जा सकता और इसमें कोई संदेह नहीं है—यह सबसे न्यायोचित ध्येय है। इसलिए अगर कोई अपने हितों के लिए परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाने और परमेश्वर का कार्य फैलने में बाधा डालने की हद तक चला जाता है तो यह कैसा व्यक्ति है? यह यकीनन एक दुष्ट व्यक्ति और दानव है। परमेश्वर ही बदले में बिना कुछ माँगे मानवजाति को पोसता है। जब परमेश्वर मानवजाति के लिए सबसे ज्यादा लाभकारी और सबसे न्यायोचित ध्येय का कार्य कर रहा है, तब भी लोग न केवल परमेश्वर को सराहते नहीं हैं या धन्यवाद नहीं देते हैं और परमेश्वर को बदले में कुछ देने के बारे में नहीं सोचते हैं, बल्कि वे परमेश्वर के कार्य में बाधा डालते और गड़बड़ी पैदा करते हैं, उसे बिगाड़ते हैं और अपने व्यक्तिगत हितों का अनुसरण करते हैं। ऐसे लोगों के पास कोई अंतरात्मा या विवेक नहीं होता है। क्या वे अभी भी मनुष्य कहलाने के लायक हैं? ये एकदम राक्षस और शैतान हैं! अगर इतना सब करने के बाद भी परमेश्वर लोगों को प्रेरित न कर सके तो क्या उनके पास अभी भी दिल है? नहीं, उनके पास दिल नहीं है। दिल न होने का मतलब है अंतरात्मा न होना। ऐसे लोगों में अंतरात्मा की कोई भावना नहीं होती है। जब किसी की मानवता में अंतरात्मा की कमी हो तो वह अब मनुष्य नहीं रह जाता है, बल्कि एक जानवर, एक राक्षस और शैतान होता है। यह बहुत स्पष्ट है। लोगों को बचाने के लिए परमेश्वर कोई भी कीमत चुकाने के लिए दृढ़ है और वह अथक कार्य करता है। लोगों को चाहे कैसी भी गलतफहमी या संदेह हो, परमेश्वर हमेशा धैर्यवान रहा है और लोगों को पोसना जारी रखता है, उन्हें बार-बार सत्य के विभिन्न पहलुओं के बारे में बताता है, थोड़ा-थोड़ा करके समझाता है, उनसे चिंतन और जाँच करवाता है और उन्हें परमेश्वर के दिल को समझने-बूझने में सक्षम बनाता है। और जब लोग परमेश्वर के इन वचनों को सुनते हैं तो वे द्रवित होकर थोड़े आँसू बहाते हैं। मगर जब वे पीछे मुड़ते हैं तो न केवल वे परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील नहीं होते, बल्कि अभी भी अपने हितों के पीछे भागते हैं और आशीषों का अनुसरण करते हैं। मुझे बताओ, क्या ऐसे लोगों में कोई अंतरात्मा और विवेक नहीं होता है? ऐसे लोगों में सबसे ज्यादा किस चीज की कमी है? उनमें सबसे ज्यादा कमी अंतरात्मा और विवेक की है, उनमें सबसे ज्यादा कमी मानवता की है। परमेश्वर कार्य करने और लोगों को बचाने के लिए अत्यधिक धैर्य के साथ सभी तरह की पीड़ा झेलता है, फिर भी लोग उसे गलत समझते हैं, लगातार उसके खिलाफ खड़े होते हैं, परमेश्वर के घर के हितों की कोई चिंता किए बिना लगातार अपने हितों की रक्षा करते हैं और हमेशा एक आलीशान जीवन जीना चाहते हैं, मगर परमेश्वर की महिमा में योगदान नहीं करना चाहते—क्या इस सब में नाममात्र की भी कोई मानवता है? भले ही लोग ऊँचे स्वर में परमेश्वर की गवाही की घोषणा करते हैं, मगर अपने दिल में वे कहते हैं : “यह कार्य मैंने किया है, जिससे नतीजे प्राप्त हुए हैं। मैंने भी मेहनत की है, मैंने भी कीमत चुकाई है। मेरी गवाही क्यों नहीं दी जाती?” वे हमेशा परमेश्वर की महिमा और गवाही में अपना हिस्सा लेना चाहते हैं। क्या लोग इन चीजों के लायक हैं? “महिमा” शब्द का सरोकार मनुष्यों से नहीं है। महिमा केवल परमेश्वर को मिल सकती है, सृष्टिकर्ता को मिल सकती है और इसका सृजित मनुष्यों से कोई लेना-देना नहीं है। भले ही लोग कड़ी मेहनत और सहयोग करें, फिर भी वे पवित्र आत्मा के कार्य की अगुआई के अधीन होते हैं। अगर पवित्र आत्मा का कोई कार्य न हो तो लोग क्या कर सकते हैं? “गवाही” शब्द का सरोकार भी मनुष्यों से नहीं है। चाहे वह संज्ञा “गवाही” हो या क्रिया “गवाही देना,” इन दोनों शब्दों का सृजित मनुष्यों से कोई लेना-देना नहीं है। केवल सृष्टिकर्ता ही गवाही दिए जाने और लोगों की गवाही के योग्य है। यह परमेश्वर की पहचान, दर्जे और सार से निर्धारित होता है और यह इसलिए भी है क्योंकि परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह परमेश्वर के प्रयासों से आता है और परमेश्वर इसे पाने के योग्य है। लोग जो कर सकते हैं वह निश्चित रूप से सीमित है और यह सब पवित्र आत्मा के प्रबोधन, अगुआई और मार्गदर्शन का नतीजा है। जहाँ तक मानव प्रकृति की बात है, लोग कुछ सत्य समझने और थोड़ा-सा काम कर सकने के बाद ही अहंकारी हो जाते हैं। अगर उन्हें परमेश्वर की ओर से न्याय और ताड़ना का कोई साथ न मिले तो कोई भी परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं कर पाएगा और न ही उसकी गवाही दे सकेगा। परमेश्वर के पूर्वनिर्धारण के कारण हो सकता है कि लोगों के पास कुछ खूबियाँ या विशेष प्रतिभाएँ हों, उन्होंने कुछ पेशे या कौशल सीख लिए हों या उनमें थोड़ी चतुराई हो और इसलिए वे बहुत ज्यादा अहंकारी बन जाते हैं और लगातार चाहते हैं कि परमेश्वर अपनी महिमा और अपनी गवाही उनके साथ साझा करे। क्या यह अविवेकपूर्ण नहीं है? यह बेहद अविवेकपूर्ण है। यह दर्शाता है कि वे गलत स्थिति में खड़े हैं। वे खुद को मनुष्य नहीं, बल्कि एक अलग नस्ल मानते हैं, अतिमानव मानते हैं। जो लोग यह नहीं जानते कि अपनी पहचान, सार क्या है और उन्हें किस स्थिति में खड़ा होना चाहिए, उनमें कोई आत्म-जागरूकता नहीं होती है। लोगों में विनम्रता जैसी चीज अपमान से नहीं आती है—लोग शुरू से ही विनम्र और निम्न-स्तर के होते हैं। परमेश्वर की विनम्रता ऐसी चीज है जो अपमान से आती है। लोगों को विनम्र कहना उन्हें ऊँचा उठाना है—वास्तव में वे नीच होते हैं। लोग हमेशा शोहरत, लाभ और रुतबे के लिए होड़ करना चाहते हैं और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए परमेश्वर से स्पर्धा करना चाहते हैं। इस तरह से वे शैतान की भूमिका निभाते हैं और यही शैतान की प्रकृति है। वे वास्तव में शैतान के वंशज हैं, उनमें जरा-सा भी अंतर नहीं है। मान लो कि परमेश्वर लोगों को थोड़ा-सा अधिकार और सामर्थ्य देता है और मान लो वे संकेत और चमत्कार दिखा सकते हैं और कुछ असाधारण चीजें कर सकते हैं, और चलो मान लेते हैं कि वे सब कुछ परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार करते हैं और एकदम ठीक तरह से करते हैं। मगर क्या वे परमेश्वर से आगे निकल सकते हैं? नहीं, कभी नहीं। क्या शैतान स्वर्गदूत की योग्यताएँ मनुष्यों की योग्यताओं से अधिक नहीं हैं? वह हमेशा परमेश्वर से आगे निकलना चाहता है, मगर अंतिम नतीजा क्या होता है? अंत में उसे अथाह कुंड में गिरना ही होगा। परमेश्वर हमेशा न्याय का प्रतिरूप रहेगा, जबकि दुष्ट स्वर्गदूत शैतान हमेशा दुष्टता की मूरत ही रहेगा और दुष्टता की शक्तियों का प्रतिनिधि होगा। परमेश्वर हमेशा न्यायशील रहेगा और इस तथ्य को बदला नहीं जा सकता। यह परमेश्वर का अनोखा और असाधारण पक्ष है। भले ही मनुष्य परमेश्वर से उसके सभी सत्य प्राप्त कर लें, वे केवल तुच्छ सृजित प्राणी हैं और परमेश्वर से आगे नहीं निकल सकते। यही मनुष्य और परमेश्वर के बीच का अंतर है। लोग परमेश्वर द्वारा बनाए गए सभी नियमों और व्यवस्थाओं के भीतर व्यवस्थित तरीके से सिर्फ जी सकते हैं और परमेश्वर ने जो कुछ भी बनाया है उस सबका इन नियमों और व्यवस्थाओं के भीतर सिर्फ प्रबंध कर सकते हैं। लोग किसी भी सजीव चीज की रचना नहीं कर सकते, न ही वे मानवजाति का भाग्य बदल सकते हैं—यह एक तथ्य है। यह तथ्य क्या दर्शाता है? यही कि परमेश्वर मानवजाति को चाहे कितना भी अधिकार और योग्यता दे, अंत में कोई भी परमेश्वर के अधिकार से परे नहीं हो सकता। चाहे कितने भी साल बीत जाएँ या कितनी भी पीढ़ियाँ गुजर जाएँ या चाहे जितने भी मनुष्य हों, मनुष्य हमेशा केवल परमेश्वर के अधिकार और संप्रभुता के अधीन अस्तित्व में रह सकते हैं। यह तथ्य हमेशा अडिग रहेगा, यह कभी नहीं बदलेगा, कभी नहीं!
ये चीजें सुनकर तुम लोगों को कैसा महसूस होता है? कुछ लोग कहते हैं : “मैं अपनी चेतना में इन चीजों के बारे में सोचता था, मगर अनजाने में मुझे लगा कि मेरी योग्यताएँ बढ़ रही हैं। जैसे-जैसे मैं बड़ा हुआ, मेरे विचार भी परिपक्व हुए और मैं बहुत से मुद्दों के बारे में ज्यादा समग्रता से सोच सकता था और जैसे-जैसे मैंने परमेश्वर के ज्यादा वचन सुने, मैं उसके कुछ इरादों को समझ पाया, इसलिए मुझे लगा कि मैं मजबूत हूँ और मुझे अपने ऊपर परमेश्वर की संप्रभुता की जरूरत नहीं है। अनजाने में मुझे लगा कि मैं सक्षम हूँ और मैंने परमेश्वर को प्राप्त कर लिया है।” क्या यह अच्छी अनुभूति है? (नहीं।) यह अच्छी कैसे नहीं है? यह एक अच्छा संकेत नहीं है। तो एक अच्छा संकेत क्या है? लोग जितने लंबे समय तक जीते हैं, उतना ही उन्हें लगता है, “मनुष्य धूल की तरह है और चींटियों से भी कमतर है। लोग कितने भी मजबूत या गरिमावान हों या वे कितने भी धर्म-सिद्धांत समझते हों या उनके विचार कितने भी परिपक्व हों, वे परमेश्वर की संप्रभुता से परे नहीं जा सकते।” लोग जितने लंबे समय तक जीते हैं, उतना ही उन्हें परमेश्वर के अधिकार की महानता और परमेश्वर के अधिकार की सर्वशक्तिमत्ता का एहसास होता है। लोग जितने लंबे समय तक जीते हैं, उतना ही उन्हें लोगों की तुच्छता का एहसास होता है। वे जितने लंबे समय तक जीते हैं, उतना ही उन्हें परमेश्वर की अथाह गहराई का एहसास होता है। ऐसी मनोदशा सामान्य है। क्या तुम लोगों की भी ऐसी मनोदशा है? अभी तक तो नहीं, है ना? तुम अभी भी अक्सर संघर्षरत रहते हो, हितों की कगार पर डगमगाते रहते हो और कभी-कभी यह कहकर कुछ छोटे-मोटे संकेत भी भेजते हो, “परमेश्वर अपने हितों का थोड़ा-बहुत हिस्सा मुझे क्यों नहीं देता है? परमेश्वर मेरी तारीफ क्यों नहीं करता? परमेश्वर मेरे आस-पास के लोगों को मेरे बारे में अच्छा क्यों नहीं सोचने देता? परमेश्वर लोगों को मेरे लिए गवाही क्यों नहीं देने देता? मैंने कीमत चुकाई है और योगदान दिया है। परमेश्वर मुझे किस तरह ईनाम देगा?” तुम अभी भी अक्सर एक दंभी, आत्मसंतुष्ट मानसिकता में डूबे रहते हो। तुम अक्सर यह भी नहीं जानते कि तुम कौन हो और सोचते हो कि तुम काबिल हो। यह स्थिति असामान्य है। यह जीवन में प्रगति नहीं है। इसे क्या कहते हैं? भ्रष्ट स्वभावों का फिर से उभरना। कुछ लोग थोड़े ज्यादा विनम्र और शांत होते हैं, जब उन्होंने कोई योगदान नहीं दिया होता है। जब वे कोई जरूरी काम करते हैं और कुछ योगदान देते हैं और उन्हें लगता है कि उनके पास पूँजी है तो अपने आस-पास के लोगों को देखकर वे सोचते हैं : “तुम लोग मेरे योगदानों के बारे में रिपोर्ट क्यों नहीं करते? तुम सब परमेश्वर के नाम और परमेश्वर के सार की गवाही देते हो तो फिर मेरे लिए कोई प्रस्तुति क्यों नहीं देते? भले ही तुम मेरी गवाही न दो, मगर मेरे बारे में एक प्रस्तुति तो दे ही सकते हो। मैं, फलाँ फलाँ बहन, 25 सालों से परमेश्वर में विश्वास करती आ रही हूँ। अब मैं 45 साल की हूँ, अभी तक अविवाहित और अकेली हूँ और मैंने आज तक श्रद्धा और उत्साह के साथ अनुसरण किया है। क्योंकि मैं कलीसिया की आधारशिला हूँ, इसलिए कई बार मुझे चीनी कम्युनिस्ट सरकार की वांछित सूची में डाला गया, मेरा पीछा किया गया और मैं तमाम तरह की जगहों पर छिपती रही, विदेश जाने से पहले दस से ज्यादा प्रांतों में भटकती रही। इस सबके बाद भी मैंने परमेश्वर के घर के महत्वपूर्ण कार्य के पर्यवेक्षक के रूप में काम करना जारी रखा है, जिस दौरान मैंने परमेश्वर के घर के कुछ कार्यों के लिए बहुत से रचनात्मक सुझाव, विचार और अवधारणाएँ सामने रखीं, कलीसिया के कार्य को आगे बढ़ाने और परमेश्वर के राज्य का सुसमाचार फैलाने में अमिट योगदान दिया है। तुम मुझे इस तरह क्यों नहीं पेश करते? परमेश्वर मुझे अपनी प्रतिभा दिखाने के लिए कुछ परिवेश और अवसर क्यों नहीं देता ताकि हर कोई मेरे बारे में जान सके और मुझे पहचान सके? परमेश्वर हमेशा हमें दबाता क्यों है? परमेश्वर के घर में हम उतने स्वतंत्र नहीं हैं, न ही हम उतने शांत, मुक्त या खुश हैं!” वह शांत, मुक्त और खुश भी रहना चाहती है। हम तुम्हें शांत, मुक्त और खुश कैसे बना सकते हैं? तुम्हें सबसे ऊँचे पद पर रखकर? फिर तुम्हें सबसे ऊँचे पद पर रखने के बाद तुम्हारे बारे में एक प्रस्तुति देकर : बाहरी दुनिया में यह एक मशहूर डॉक्टर थी, जिसने देश के मशहूर डॉक्टरों का पहला पुरस्कार जीता था और बाद में उसका नाम “विश्व-प्रसिद्ध डॉक्टरों के विश्वकोश” में शामिल किया गया था। उसने कई शोधपत्र लिखे हैं, परमेश्वर के घर में आने के बाद वह एक आधारशिला और प्रतिभाशाली व्यक्ति बनी रही है और वह अब एक वरिष्ठ अगुआ बन गई है। तब क्या वह खुश नहीं होगी? वह सोचेगी, “मैं एक प्रतिभाशाली व्यक्ति हूँ। मैं पहले भी एक मशहूर हस्ती थी और परमेश्वर के घर में आने के बाद भी मैं मशहूर हस्ती हूँ। मैं सोने जैसी हूँ जिसे जहाँ भी रख दो चमकता है और कोई भी इसकी चमक को रोक नहीं सकता। मेरी ये योग्यताएँ सभी को दिखाई देती हैं! भले ही परमेश्वर गवाही नहीं देता, मगर ये तथ्य मेरे लिए ऊँचे स्वर में गवाही देते हैं।” इस मत के बारे में तुम क्या सोचते हो? अगर तुम एक दिन के लिए भी शोहरत और लाभ के पीछे भागना नहीं छोड़ सकते तो तुम अभी भी शोहरत, लाभ और रुतबे से बँधे हुए हो और तुम वास्तव में शांत और खुश नहीं हो सकते। जब तक तुम शोहरत और लाभ की बेड़ियों से बँधे, सीमित और जुड़े रहोगे, तुम अपने सत्य के अनुसरण में आगे नहीं बढ़ोगे, बल्कि जहाँ हो वहीं अटके रहोगे। कुछ लोग पूछ सकते हैं : “क्या मैं पीछे चला जाऊँगा?” सच तो यह है कि जब तक तुम आगे नहीं बढ़ोगे, तुम वहीं अटके रहोगे या पीछे चले जाओगे। यह दर्शाता है कि तुम्हारा प्रकृति सार यही है और चाहे तुम कितने ही वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास करो, कभी कोई प्रगति नहीं कर पाओगे और अंत तक भी तुम बहुत सारे बुरे कर्म कर सकते हो। यह पूरे यकीन के साथ कहा जा सकता है कि तुम बेनकाब कर दिए जाओगे। एक बार ऐसे व्यक्ति को सही परिवेश मिल जाए और रुतबा प्राप्त हो जाए तो उसकी महत्वाकांक्षा उजागर हो जाएगी। वास्तव में इस परिवेश और रुतबे के बिना क्या उसकी कोई महत्वाकांक्षा नहीं होगी? जरूर होगी। उसमें बस यही चीज और यही सार है और उसकी महत्वाकांक्षा को रोका नहीं जा सकता। एक बार उन्हें सही परिवेश मिल जाए तो वे अचानक “फट पड़ेंगे” और कोई भी बाधा उन्हें रोक नहीं पाएगी, वे बुरे कर्म करने लगेंगे और उनका बदसूरत राक्षसी चेहरा पूरी तरह उजागर हो जाएगा। यह बेनकाब किए जाने का मामला है। तुम्हें “बेनकाब” शब्द को इस तरह समझना चाहिए : परमेश्वर का इरादा तुम्हें बेनकाब करने का नहीं था, परमेश्वर तुम्हें अभ्यास करने का अवसर देना चाहता था। मगर जब तुम्हें अवसर दिखा तो तुम उसका महत्व पहचान नहीं पाए और तुमने अच्छा-खासा बखेड़ा भी खड़ा कर दिया। क्या तुम बेनकाब होने के ही लायक नहीं हो? तुमने यह खुद चुना है। ऐसा नहीं है कि परमेश्वर जानबूझकर तुम्हें बेनकाब करना और हटा देना चाहता था। तुम सिर्फ अपनी मंशाओं और महत्वाकांक्षाओं के कारण बेनकाब हुए हो। तुम और किसे दोषी ठहरा सकते हो?
क्या लोगों के हितों और परमेश्वर के हितों के संदर्भ में हमने इससे संबंधित सत्य के बारे में कमोबेश पर्याप्त संगति कर ली है? लोगों के व्यक्तिगत हित क्या हैं? वे ऐसी चीजें हैं जिनका लोग अनुसरण करते हैं, जिनमें शोहरत, लाभ और रुतबा, आशीष पाने की महत्वाकांक्षा और इच्छा, और साथ ही लोगों का झूठा अभिमान और आत्मसम्मान, परिवार, रिश्तेदार, भौतिक हित वगैरह शामिल होते हैं। लोगों के हितों का सार स्वार्थी, नीच, दुष्ट और शैतानी है, यह सत्य के विपरीत है और यह परमेश्वर के घर के कार्य में बाधा और गड़बड़ी पैदा करता है, उसे नष्ट करता है, जबकि परमेश्वर के हित मानवजाति को बचाने का सबसे न्यायोचित ध्येय है और ये परमेश्वर के प्रेम, परमेश्वर के कार्य और परमेश्वर की पवित्रता और धार्मिकता का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसलिए परमेश्वर का अपने हितों की रक्षा करना न्यायोचित है। वह एक न्यायोचित ध्येय की रक्षा कर रहा है। ऐसा इसलिए नहीं है क्योंकि परमेश्वर स्वार्थी है और अपनी गरिमा की रक्षा करना चाहता है। यह न्यायोचित और जायज है और इससे उस मानवजाति को असीम लाभ होगा जिसे परमेश्वर बचाता है। जब परमेश्वर अपने हितों की रक्षा करेगा तभी मानवजाति को बचाया जा सकता है और तभी उसे अधिक लाभ, सत्य, मार्ग और जीवन मिल सकता है और केवल तभी लोग अंत में सच्चे सृजित प्राणी बन सकते हैं, परमेश्वर द्वारा बनाए गए सारे नियमों और व्यवस्थाओं के अधीन रह सकते हैं, परमेश्वर द्वारा लोगों के लिए बनाई गई सभी चीजों के बीच रह सकते हैं और केवल तभी मानवजाति को आनंद और वास्तव में सुंदर जीवन मिल सकता है। परमेश्वर यह जो कुछ करता है क्या यह एक न्यायोचित ध्येय है? यह अत्यंत न्यायोचित है! परमेश्वर का यह कार्य और प्रबंधन और साथ ही कलीसिया के सभी काम जिनका संबंध मानवजाति के लिए परमेश्वर के उद्धार से है—जैसे कि सुसमाचार प्रचार करना, फिल्में बनाना, गवाही लेख लिखना, वीडियो बनाना, परमेश्वर के वचनों का अनुवाद करना और कलीसियाई जीवन का सामान्य क्रम बनाए रखना—ये सभी काम महत्वपूर्ण हैं और इनकी गारंटी देनी होगी। परमेश्वर के चुने हुए उन सभी लोगों के जीवन की गारंटी देने का पहलू भी है जो अपने कर्तव्य निभाते हैं। भले ही यह सहायक सेवाओं की तरह सबसे बुनियादी काम है और ऐसा नहीं लगता है कि इसका परमेश्वर के घर के मुख्य काम से ज्यादा कुछ लेना-देना है, फिर भी यह बहुत महत्वपूर्ण है और इसका यहाँ उल्लेख करना जरूरी है। भोजन, कपड़े, आवास और परिवहन जैसी सामान्य चीजें—परमेश्वर लोगों को यही सब उपलब्ध कराता है और ये सबसे जायज भौतिक जरूरतें भी हैं जो सामान्य मानवता वाले लोगों के पास होनी चाहिए। परमेश्वर लोगों को इन जरूरतों से वंचित नहीं करेगा, बल्कि वह इनकी रक्षा करेगा। अगर तुम हमेशा उन चीजों में गड़बड़ी और बाधा पैदा करते हो और उन चीजों को कमजोर करते हो जिनकी परमेश्वर रक्षा करना चाहता है, अगर तुम हमेशा ऐसी चीजों को तिरस्कार से देखते हो और हमेशा उनके बारे में धारणाएँ और राय रखते हो तो तुम परमेश्वर को नकार रहे हो और उसके खिलाफ खड़े हो रहे हो। अगर तुम परमेश्वर के घर के कार्य और परमेश्वर के घर के हितों को महत्वपूर्ण नहीं मानते और हमेशा उन्हें कमजोर करना चाहते हो, और हमेशा चीजों को तबाह करना चाहते हो या हमेशा उनसे लाभ कमाना, धोखा देना या गबन करना चाहते हो तो क्या परमेश्वर तुमसे गुस्सा होगा? (होगा।) परमेश्वर के गुस्से के क्या परिणाम हैं? (हमें दंडित किया जाएगा।) यह निश्चित है। परमेश्वर तुम्हें माफ नहीं करेगा, बिल्कुल भी नहीं! क्योंकि तुम जो कर रहे हो उसके कारण कलीसिया का कार्य बिखर रहा है और नष्ट हो रहा है, और यह परमेश्वर के घर के कार्य और हितों के विपरीत है। यह बहुत बड़ी बुराई है, यह परमेश्वर के साथ दुश्मनी मोल लेना है और यह परमेश्वर के स्वभाव को सीधे तौर पर नाराज करता है। परमेश्वर तुमसे गुस्सा कैसे नहीं होगा? अगर कुछ लोग खराब काबिलियत के कारण अपने काम करने में सक्षम नहीं हैं और अनजाने में बाधा और गड़बड़ी पैदा करने वाले काम करते हैं तो इसे माफ किया जा सकता है। लेकिन अगर अपने व्यक्तिगत हितों के कारण तुम ईर्ष्या और झगड़े में लिप्त होते हो और जानबूझकर ऐसे काम करते हो जो परमेश्वर के घर के कार्य में गड़बड़ी और बाधा पैदा करता है और उसे नष्ट करता है तो यह जानबूझकर किया गया उल्लंघन है, और यह परमेश्वर के स्वभाव को नाराज करने का मामला है। क्या परमेश्वर तुम्हें माफ करेगा? परमेश्वर अपनी 6,000-वर्षीय प्रबंधन योजना का कार्य कर रहा है और इसमें उसके हृदय का सारा रक्त लगता है। अगर कोई परमेश्वर का विरोध करता है, जानबूझकर परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाता है और परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाने की कीमत पर जानबूझकर अपने व्यक्तिगत हितों और अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे का अनुसरण करता है और कलीसिया के कार्य को बिगाड़ने में कोई संकोच नहीं करता है, जिससे परमेश्वर के घर का कार्य बाधित और नष्ट हो जाता है और यहाँ तक कि परमेश्वर के घर को भारी भौतिक और वित्तीय नुकसान भी होता है तो क्या तुम लोगों को लगता है कि ऐसे लोगों को माफ किया जाना चाहिए? (नहीं, उन्हें माफ नहीं करना चाहिए।) तुम सब कहते हो कि उन्हें माफ नहीं किया जा सकता तो क्या परमेश्वर ऐसे लोगों से गुस्सा है? बेशक, वह गुस्सा है। परमेश्वर ने सत्य व्यक्त करने और लोगों को बचाने का इतना बड़ा कार्य किया है और इसमें अपने हृदय का सारा रक्त लगाया है। परमेश्वर इस सबसे न्यायोचित ध्येय को इतनी गंभीरता से लेता है; उसके हृदय का सारा रक्त इन लोगों के लिए खप चुका है जिन्हें वह बचाना चाहता है, उसकी सारी अपेक्षाएँ भी इन्हीं लोगों पर टिकी हैं और अपनी 6,000-वर्षीय प्रबंधन योजना से जो अंतिम नतीजे और महिमा वह प्राप्त करना चाहता है, वह सब इन्हीं लोगों पर साकार होगा। अगर कोई परमेश्वर से दुश्मनी मोल लेता है, इस ध्येय के नतीजे का विरोध करता है, इसे बाधित या नष्ट करता है तो क्या परमेश्वर उसे माफ करेगा? (नहीं।) क्या यह परमेश्वर के स्वभाव को नाराज करता है? अगर तुम यह कहते रहो कि तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो, उद्धार का अनुसरण करते हो, परमेश्वर की पड़ताल और मार्गदर्शन को स्वीकारते हो और परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार कर उसके प्रति समर्पण करते हो, मगर यह सब कहते हुए भी तुम कलीसिया के विभिन्न कार्यों में बाधा डाल रहे हो, उनमें गड़बड़ी पैदा कर रहे हो और उन्हें नष्ट कर रहे हो, और तुम्हारी इस बाधा, गड़बड़ी और तबाही के कारण, तुम्हारी लापरवाही या कर्तव्यहीनता के कारण या तुम्हारी स्वार्थी इच्छाओं और अपने व्यक्तिगत हितों के अनुसरण के कारण, परमेश्वर के घर के हितों, कलीसिया के हितों और अन्य अनेक पहलुओं को नुकसान हुआ है, यहाँ तक कि परमेश्वर के घर के कार्य में बहुत बड़ी गड़बड़ी हुई और वह तबाह हो गया है तो फिर परमेश्वर को तुम्हारे जीवन की किताब में क्या परिणाम लिखना चाहिए? तुम्हें किस रूप में चित्रित किया जाना चाहिए? पूरी तरह निष्पक्ष होकर कहें तो तुम्हें दंड मिलना चाहिए। इसे ही अपनी करनी का उचित फल मिलना कहते हैं। अब तुम लोग क्या समझते हो? लोगों के हित क्या हैं? (वे दुष्ट हैं।) लोगों के हित वास्तव में उनकी सारी असंयमित इच्छाएँ हैं। साफ-साफ कहें तो वे सभी प्रलोभन, झूठ और शैतान द्वारा लोगों को लुभाने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला चारा हैं। शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भागना और अपने व्यक्तिगत हितों का अनुसरण करना—यह बुराई करने में शैतान का सहयोग करना, और परमेश्वर का विरोध करना है। परमेश्वर के कार्य में बाधा डालने के लिए शैतान लोगों को लुभाने, परेशान और गुमराह करने, उन्हें परमेश्वर का अनुसरण करने और परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकने से रोकने के लिए विभिन्न माहौल बनाता है। इसके बजाय लोग शैतान के साथ सहयोग करते हैं और उसका अनुसरण करते हैं, जानबूझकर परमेश्वर के कार्य को बाधित करने और नष्ट करने के लिए आगे बढ़ते हैं। परमेश्वर सत्य पर चाहे कितनी भी संगति क्यों न करे, वे फिर भी होश में नहीं आते। चाहे परमेश्वर का घर उनकी कितनी भी काट-छाँट करे, फिर भी वे सत्य को स्वीकार नहीं करते। वे परमेश्वर के प्रति बिल्कुल भी समर्पण नहीं करते, बल्कि चीजों को अपने तरीके से करने और अपनी मनमर्जी करने पर अड़े रहते हैं। नतीजतन, वे कलीसिया के कार्य में बाधा डालते हैं और उसे नष्ट कर देते हैं, कलीसिया के विभिन्न कार्यों की प्रगति को गंभीर रूप से प्रभावित करते हैं और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश को बहुत अधिक नुकसान पहुँचाते हैं। यह बहुत बड़ा पाप है और ऐसे लोगों को परमेश्वर निश्चित रूप से दंड देगा।
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