मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते और वे व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ विश्वासघात तक कर देते हैं (भाग एक) खंड चार

मसीह-विरोधियों द्वारा अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हित और महत्वाकांक्षाएँ पूरी करने के लिए निभाने, परमेश्वर के घर के हितों की कभी न सोचने और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ विश्वासघात तक करने का गहन-विश्लेषण

I. परमेश्वर के हित क्या हैं और लोगों के हित क्या हैं

इस बार हम मसीह-विरोधियों की विभिन्न अभिव्यक्तियों की नौवीं मद पर संगति करेंगे—वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते और वे व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ विश्वासघात तक कर देते हैं। अपने दैनिक जीवन में हम अक्सर परमेश्वर और उसके घर के हितों पर जोर देते हैं। लेकिन कुछ लोगों में अक्सर परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करने के बजाय सभी चीजों में अपने ही हितों को सबसे ऊपर रखने की प्रवृत्ति होती है। ये लोग विशेष रूप से स्वार्थी होते हैं। इसके अलावा, मामलों को सँभालने में वे अपने हितों की रक्षा अक्सर परमेश्वर के घर के हितों को इस हद तक नुकसान पहुँचाकर करते हैं कि वे अपनी इच्छाएँ पूरी करने के लिए परमेश्वर के घर से परोक्ष अनुरोध भी करते हैं। यहाँ मुख्य शब्द क्या है? मुख्य रूप से किसके बारे में बात की जा रही है? (हितों के बारे में।) “हितों” का क्या अर्थ है? इस शब्द के दायरे में क्या आता है? किन चीजों को लोगों का हित माना जाता है? लोगों के हितों में क्या शामिल है? हैसियत, प्रतिष्ठा और भौतिक हितों से संबंधित चीजें। उदाहरण के लिए, जब कोई व्यक्ति अपनी प्रशंसा और आराधना करवाने के लिए दूसरों को गुमराह करता है तो वह अपने मनोवैज्ञानिक हितों का अनुसरण करता है; भौतिक हित भी होते हैं, जिनका अनुसरण लोग दूसरों का फायदा उठाकर, अपने लिए लाभ बटोरकर या परमेश्वर के घर की संपत्ति चुराकर करते हैं, ये कुछ उदाहरण हैं। मसीह-विरोधी हमेशा लाभ के सिवाय और कुछ नहीं खोजते हैं। मसीह-विरोधी चाहे मनोवैज्ञानिक हितों का अनुसरण कर रहे हों या भौतिक हितों का, वे लालची होते हैं, उन्हें तृप्त नहीं किया जा सकता और वे अपने लिए ये सभी चीजें लेने की कोशिश करते हैं। व्यक्ति के हितों से संबंधित मामले उसे सबसे ज्यादा बेनकाब करते हैं। हित प्रत्येक व्यक्ति के जीवन से घनिष्ठ रूप से जुड़े होते हैं और व्यक्ति रोजाना जिस भी चीज के संपर्क में आता है वह उसके हित से जुड़ी होती है। उदाहरण के लिए, जब तुम कुछ कहते हो या किसी मामले के बारे में बात करते हो तो इसमें कौन-से हित शामिल होते हैं? जब दो लोग किसी मुद्दे पर चर्चा करते हैं तो यह इस बात का मामला होता है कि कौन स्पष्ट बोलता है और कौन नहीं, दूसरे लोग किसका बहुत सम्मान करते हैं और किसको नीची नजर से देखते हैं, और यह उनके बोलने के अलग-अलग तरीकों के अलग-अलग परिणामों का भी मामला होता है। क्या यह हितों का मामला नहीं है? जब इस तरह के मुद्दे लोगों के सामने आते हैं तो वे क्या करते हैं? लोग दिखावा करने की पूरी कोशिश करते हैं, बहुत सोच-समझकर अपने शब्दों को व्यवस्थित करते हैं ताकि मामले को स्पष्ट रूप से समझाया जा सके, और ताकि शब्दों को अधिक सुंदर ढंग से व्यक्त किया जा सके, वे अधिक स्वीकार्य लगें और उनमें संरचना का भाव भी हो और वे लोगों पर स्थायी छाप छोड़ें। लोगों की सहृदयता पाने और उन पर गहरी छाप छोड़ने के लिए इस दृष्टिकोण का उपयोग करना और अपनी वाक्पटुता का उपयोग करना, अपने दिमाग और ज्ञान का उपयोग करना—यह एक तरह का हित है। लोग जिन हितों का अनुसरण करते हैं उनमें और कौन-से पहलू शामिल होते हैं? अपने कामकाज के दौरान लोग लगातार चीजों को तौलते, हिसाब लगाते और मन में विचार करते हैं, यह सोचने के लिए दिमाग लड़ाते हैं कि कौन-से क्रियाकलाप उनके हित में हैं, कौन-से उनके हित में नहीं हैं, कौन-से क्रियाकलाप उनके हितों को आगे बढ़ा सकते हैं, कौन-से क्रियाकलाप कम से कम उनके हितों को नुकसान नहीं पहुँचाते और कौन-से क्रियाकलाप उन्हें सबसे ज्यादा प्रसिद्धि और सबसे बड़ा भौतिक लाभ दिला सकते हैं और उन्हें सबसे बड़ा लाभार्थी बना सकते हैं। जब भी लोगों पर कोई चीजें आती हैं, वे इन्हीं दो हितों के लिए लड़ते हैं। लोग जिन हितों का अनुसरण करते हैं, वे केवल इन दो पहलुओं पर आधारित होते हैं : एक ओर, भौतिक लाभ प्राप्त करना या कम से कम कुछ न खोना, और दूसरों का फायदा उठाना; इसके अलावा, मनोवैज्ञानिक स्तर पर, लोगों से अपना सम्मान और अपनी प्रशंसा करवाना, और लोगों के दिल जीतना। कभी-कभी सत्ता और रुतबा हासिल करने के लिए, लोग भौतिक हितों को भी त्याग सकते हैं—यानी वे बाद में दूसरों से ज्यादा फायदा पाने के लिए थोड़ा नुकसान उठा लेंगे। संक्षेप में कहें तो लोगों की प्रतिष्ठा, रुतबा, प्रसिद्धि और भौतिक चीजों से जुड़ी ये सभी चीजें लोगों के हितों की श्रेणी में आती हैं और ये सभी ऐसे हित हैं जिनका लोग अनुसरण करते हैं।

लोगों द्वारा इन हितों का अनुसरण करने की प्रकृति क्या है? लोग इन चीजों का अनुसरण क्यों करते हैं? क्या इनका अनुसरण करना जायज है? क्या यह विवेकपूर्ण है? क्या यह लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप है? क्या यही वह मानक है जिसकी अपेक्षा परमेश्वर सृजित प्राणियों से करता है? परमेश्वर के वचनों में क्या वह इस बात का जिक्र करता है कि “तुम लोगों को अपने हितों का अनुसरण करना और अपने हितों को बढ़ाना चाहिए। अपने हितों का त्याग सिर्फ इसलिए मत करो कि तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो और कोई कर्तव्य निभाते हो। तुम्हें अपने रुतबे, प्रतिष्ठा और सामर्थ्य को सँजोकर रखना चाहिए और इन चीजों की हर कीमत पर रक्षा करनी चाहिए। अगर परमेश्वर तुम्हें रुतबा देता है तो तुम्हें इसे सँजोकर रखना चाहिए और इसे अपनी शर्मिंदगी के बजाय अपनी प्रसिद्धि में बदलना चाहिए। यह तुम्हारे लिए परमेश्वर का आदेश है”—क्या परमेश्वर ने कभी ऐसा कहा है? (नहीं।) जब परमेश्वर के वचनों में ऐसा कुछ भी नहीं है तो फिर परमेश्वर अपने दिल में सृजित प्राणियों से क्या अपेक्षा रखता है? परमेश्वर लोगों से हितों को किस तरह देखने की अपेक्षा करता है? एक ओर, परमेश्वर चाहता है कि लोग अपने हितों का त्याग करें—यह इसे सामान्य शब्दों में कहना है; इसके अलावा, परमेश्वर लोगों को और भी कई पहलुओं में अभ्यास के उचित मार्ग देता है, लोगों को बताता है कि उन्हें कैसे पेश आना चाहिए ताकि वे उस मार्ग पर चल सकें जिस पर उन्हें चलना चाहिए, एक सृजित प्राणी की तरह कैसे अभ्यास करना चाहिए, लोगों को भौतिक चीजों, प्रसिद्धि और लाभ के प्रति क्या दृष्टिकोण और रवैया रखना चाहिए और उन्हें कैसे चुनना चाहिए। जाहिर है कि भले ही परमेश्वर के वचन लोगों को सीधे तौर पर यह नहीं बताते कि हितों को कैसे देखना चाहिए, निहितार्थ रूप में उसके वचन यह भी व्यक्त करते हैं कि वास्तव में भ्रष्ट मानवजाति के हितों पर परमेश्वर के विचार क्या हैं और यह बिल्कुल स्पष्ट कर देते हैं कि लोगों को अपने विचारों को अलग रखना चाहिए, सत्य सिद्धांतों के अनुसार चीजें करनी चाहिए, सृजित प्राणियों के रूप में अपने स्थान के अनुसार पेश आना चाहिए और अपने स्थान पर बने रहना चाहिए। क्या परमेश्वर अपने दिल में लोगों से इस प्रकार का व्यवहार करने की अपेक्षा करके जानबूझकर उन्हें उनके हितों से वंचित कर रहा है? बिल्कुल नहीं। कुछ लोग कहते हैं, “कलीसिया में हमेशा परमेश्वर के घर के हितों और कलीसिया के हितों की बात चलती है, मगर कोई हम लोगों के हितों के बारे में बात क्यों नहीं करता? हमारे हितों का ख्याल कौन रख रहा है? क्या हमारे भी कुछ मानवाधिकार नहीं होने चाहिए? हमें भी कुछ छोटे-मोटे लाभ मिलने चाहिए। हमें थोड़ा भी कुछ क्यों नहीं दिया जाता? सभी हित परमेश्वर के कैसे हो सकते हैं? क्या परमेश्वर भी स्वार्थी नहीं है?” ऐसा कहना बेहद विद्रोही और विश्वासघाती है। ऐसा कहना एकदम गलत बात है। जिस व्यक्ति के पास मानवता है वह ऐसा कभी नहीं कह सकता, सिर्फ शैतान ही सभी तरह की विद्रोही बातें कहने का दुस्साहस करते हैं। दूसरे लोग कहते हैं : “परमेश्वर हमेशा लोगों से अपने व्यक्तिगत हितों के बारे में नहीं सोचने को कहता है। वह हमेशा कहता है कि अपनी खातिर साजिश न रचो। लोग कुछ ऐसा करके या कुछ ऐसा हासिल करके दूसरों से अलग दिखना चाहते हैं जिससे हर कोई उनकी आराधना करे। परमेश्वर इसे एक महत्वाकांक्षा बताता है। लोग अपने हितों के लिए लड़ना चाहते हैं, अच्छा खाना खाना चाहते हैं, जीवन का आनंद लेना चाहते हैं, दैहिक सुख-सुविधाओं में लिप्त रहना और मानवजाति के बीच सम्मानपूर्वक जीना चाहते हैं। परमेश्वर कहता है कि लोग इस तरह सिर्फ अपने हितों को पोस रहे हैं और उन्हें इनसे किनारा करना चाहिए। अगर हम इन सभी हितों से किनारा कर लें तो हम बेहतर जीवन कैसे जी सकते हैं?” अगर लोग परमेश्वर के इरादों को नहीं समझेंगे तो वे हमेशा परमेश्वर की अपेक्षाओं का प्रतिरोध करते रहेंगे और वे हमेशा इन मामलों पर परमेश्वर के साथ विवाद करते रहेंगे। यह कुछ ऐसे माता-पिता की तरह है जिन्होंने अपने बच्चों को पालने के लिए आधी जिंदगी कड़ी मेहनत की है और वे इतने थक गए हैं कि अब उन्हें तमाम तरह की बीमारियाँ हो गई हैं। माता-पिता इस चिंता में हैं कि अब उनका शरीर साथ नहीं देगा और फिर उनके बच्चों को सहारा देने वाला कोई नहीं होगा, इसलिए वे कुछ स्वास्थ्यवर्धक उत्पाद खरीद लेते हैं। बच्चों को कुछ पता नहीं होता और इन उत्पादों को देखकर वे कहते हैं : “मैंने कई सालों से कोई नया कपड़ा तक नहीं खरीदा है, फिर भी आप स्वास्थ्यवर्धक उत्पाद कैसे खरीद सकते हैं? आपको वह पैसा मुझे कॉलेज भेजने के लिए बचाना चाहिए।” क्या इस टिप्पणी से माता-पिता की भावनाओं को ठेस पहुँचती है? माता-पिता यह सब अपने हितों के लिए नहीं करते, न ही इसलिए करते हैं कि दैहिक सुखों में लिप्त रहें या कि वे थोड़ा लंबा और आरामदायक जीवन जी सकें और भविष्य में अपने बच्चों की धन-दौलत में हिस्सा पा सकें। वे ऐसा इन कारणों से नहीं करते। वे ऐसा किस लिए कर रहे हैं? वे ऐसा अपने बच्चों की खातिर कर रहे हैं। बच्चे यह नहीं समझते और अपने माता-पिता को दोषी तक ठहरा देते हैं—क्या यह विश्वासघाती होना नहीं है? (है।) अगर बच्चे अपने माता-पिता के इरादों को नहीं समझेंगे तो उनका उनसे टकराव हो सकता है, यहाँ तक कि वे उनसे वाद-विवाद भी कर सकते हैं और उनकी भावनाओं को ठेस भी पहुँचा सकते हैं। तो क्या तुम लोग परमेश्वर के दिल को समझते हो? यह मामला सत्य को समझने का है। लोगों द्वारा अपने हित और महत्वाकांक्षाएँ पूरी करने के अभ्यासों की परमेश्वर निंदा क्यों करता है? क्या इसलिए कि परमेश्वर स्वार्थी है? क्या परमेश्वर लोगों को व्यक्तिगत हितों का अनुसरण करने से मना इसलिए करता है ताकि वे गरीब और दयनीय बनें? (नहीं।) ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। परमेश्वर चाहता है लोग अच्छे बनें और वह मानवजाति पर आशीष बरसाने और उसे एक सुंदर मंजिल देने के लिए लोगों को बचाने का अपना कार्य करने आता है। परमेश्वर जो कुछ भी करता है उसका उद्देश्य यह होता है कि लोग सत्य और जीवन प्राप्त करें, ताकि वे परमेश्वर के वादे और आशीष पाने के योग्य बन सकें। लेकिन लोग शैतान द्वारा गहराई तक भ्रष्ट किए जा चुके हैं और उनमें भ्रष्ट स्वभाव हैं, इसलिए सत्य और जीवन प्राप्त करने के लिए उन्हें बहुत कष्ट सहना होगा। अगर हर कोई व्यक्तिगत हितों का अनुसरण करता है और अत्यधिक दैहिक इच्छाओं को संतुष्ट करने के लिए अच्छा जीवन जीना चाहता है, मगर सत्य का अनुसरण करने की कोशिश नहीं करता तो इसके क्या परिणाम होंगे? वे सत्य प्राप्त नहीं कर पाएँगे और शुद्ध होने और बचाए जाने में असमर्थ होंगे। उनके बचाए न जाने के क्या परिणाम होंगे? उन सबको आपदाओं में मरना होगा। क्या यह दैहिक सुखों में लिप्त होने का समय है? नहीं। जो कोई भी सत्य प्राप्त नहीं करता उसे मरना होगा। इसलिए परमेश्वर यह अपेक्षा करता है कि लोग अपने दैहिक हितों को त्याग दें और सत्य का अनुसरण करें। यह लोगों की खातिर, उनके जीवन की खातिर और उनके उद्धार की खातिर है। जैसे ही लोग सत्य प्राप्त कर लेंगे और बचा लिए जाएँगे, परमेश्वर का वादा और उसके आशीष किसी भी समय आ जाएँगें। परमेश्वर लोगों पर जो आशीष बरसाता है, कौन जाने वे लोगों की कल्पना में मिलने वाले दैहिक सुखों से कितने सैकड़ों या हजारों गुना ज्यादा हैं। लोग उन्हें क्यों नहीं देख पाते? क्या उनके प्रति सारे लोग अँधे हैं? तो फिर परमेश्वर हमेशा यह अपेक्षा क्यों करता है कि लोग अपने हितों को किनारे रखकर परमेश्वर के हितों और उसके घर के हितों की रक्षा करें? इस मामले को कौन समझा सकता है? (परमेश्वर लोगों से अपने व्यक्तिगत हितों को त्यागने की अपेक्षा इसलिए करता है क्योंकि लोग शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जा चुके हैं और उनके हित सत्य के अनुरूप नहीं हैं। लोगों से परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करने की अपेक्षा करते हुए परमेश्वर लोगों को यह सिखा रहा है कि वे कैसे आचरण करें। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि परमेश्वर जो भी कार्य करता है वह सारा लोगों को बचाने के लिए है और अगर कोई परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करना नहीं जानता तो वह मनुष्य कहलाने लायक नहीं है।) तुम्हारी बात में कुछ व्यावहारिक चीजें हैं। (मैं कुछ और जोड़ना चाहूँगा। मैं शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे पागल था। मुझे लगता था कि मेरे पास कुछ खूबियाँ हैं, इसलिए मुझे तरक्की देकर पर्यवेक्षक बना दिया जाना चाहिए। लेकिन जब भी चुनाव आता था तो मैं हर बार हार जाता था और अपने दिल में परमेश्वर के बारे में शिकायत करता था—परमेश्वर ने मेरी यह छोटी सी इच्छा क्यों नहीं पूरी की? बाद में कुछ नाकामियों का अनुभव करने के बाद मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े और आत्म-चिंतन किया, मैंने देखा कि मैं शोहरत, लाभ और रुतबा पाने के चक्कर में अक्सर ईर्ष्या और कलह में लिप्त रहता था और भाई-बहनों के साथ मिल-जुलकर सहयोग नहीं करता था। मैंने न केवल अपने जीवन में कोई प्रगति नहीं की थी, बल्कि परमेश्वर के घर के कार्य को भी कुछ नुकसान पहुँचाए थे। मुझे एहसास हुआ कि शोहरत, लाभ और व्यक्तिगत हितों का अनुसरण करना जीवन के प्रति सही दृष्टिकोण नहीं है या सही लक्ष्य नहीं है, यह एक ऐसा गलत दृष्टिकोण है जिसे शैतान लोगों को गुमराह करने के लिए उनके मन में डालता है और ऐसा अनुसरण बहुत खतरनाक है। परमेश्वर लोगों को शोहरत, लाभ और रुतबे का अनुसरण करने से मना इसलिए नहीं करता कि वह उनके लिए परेशानी खड़ी करना चाहता है, न ही इसलिए कि वह उनके प्रति सख्त होना चाहता है, बल्कि इसलिए मना करता है कि यह बहुत खतरनाक रास्ता है और ऐसे अनुसरण व्यक्ति को अंत में सिर्फ खाली हाथ छोड़ सकते हैं।) तुम लोगों को क्या लगता है, “खाली हाथ” और “बहुत खतरनाक” से वह किस खतरे की बात कर रहा है? क्या यह वाकई अंत में सिर्फ खाली हाथ रह जाने का मामला है और कुछ भी नहीं? यह किस प्रकार का मार्ग है? (विनाश का मार्ग।) यह अनुसरण परमेश्वर का प्रतिरोध करने का मार्ग है। यह सत्य का अनुसरण करना नहीं, बल्कि रुतबे और प्रतिष्ठा के पीछे भागना है। यह मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलना है। तुम्हें अपनी इच्छाएँ और आकांक्षाएँ चाहे कितनी भी जायज लगें, परमेश्वर जो चाहता है वह यह नहीं है, वह इस तरह का अनुसरण नहीं चाहता है। परमेश्वर नहीं चाहता कि तुम इस मार्ग का अनुसरण करो। अगर तुम अपने रास्ते पर अड़े रहने पर जोर देते हो तो तुम्हारा अंतिम परिणाम न केवल यह होगा कि तुम खाली हाथ रह जाओगे, बल्कि तुम परमेश्वर का प्रतिरोध करने के मार्ग पर चल पड़ोगे। इसमें खतरा क्या है? तुम परमेश्वर का प्रतिरोध करोगे, परमेश्वर पर चिल्लाओगे और उसका विरोध करोगे, उसके खिलाफ खड़े होओगे और इसका परिणाम विनाश होगा। क्या कुछ और कहना है? (परमेश्वर, मैं कुछ और कहना चाहता हूँ। अभी-अभी परमेश्वर ने पूछा, परमेश्वर ऐसा क्यों चाहता है कि लोग अपने हितों की रक्षा करने के बजाय परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करें? जैसा कि मैंने समझा है, परमेश्वर ने हर चीज की रचना की है और सब कुछ परमेश्वर से आता है। परमेश्वर की बनाई हरेक चीज लोगों के लिए है। परमेश्वर जो कुछ भी करता है—इसमें यह सब कार्य करने के लिए उसका दो बार देहधारी होना और अब कलीसिया की स्थापना का यह सारा कार्य करना शामिल है—यह सब वास्तव में लोगों को बचाने के लिए होता है। जब लोग परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, कलीसियाई जीवन जीने लगते हैं और अपने कर्तव्य निभा सकते हैं तो उनके पास उद्धार का मार्ग होता है। इसलिए परमेश्वर का हमें अपने व्यक्तिगत हितों को दरकिनार करने के लिए कहना कोई नुकसान नहीं है, क्योंकि परमेश्वर के हितों और उसके घर के हितों की रक्षा करके अंत में हमारा ही लाभ होगा।) बहुत बढ़िया। तुम लोगों ने जो संगति की है उसका सामान्य अर्थ मूल रूप से सही है। कुछ लोग अपने व्यक्तिगत अनुभवों के बारे में बात करते हैं और दूसरे इसके बारे में सैद्धांतिक दृष्टिकोण से बात करते हैं। मूल रूप से तुम जो समझते हो वह इस बात के अनुरूप है कि परमेश्वर के हित जायज होते हैं जबकि लोगों के हित जायज नहीं होते हैं। परमेश्वर के हितों को ही हित कहा जा सकता है जबकि लोगों के हितों का कोई अस्तित्व नहीं होना चाहिए। विशेष रूप से “लोगों के हित”—यह वाक्यांश, यह अभिव्यक्ति, यह तथ्य—ऐसी चीज नहीं है जिसका लोगों को आनंद लेना चाहिए। परमेश्वर के हित बाकी हर चीज से पहले आते हैं और उनकी रक्षा की जानी चाहिए। मूल रूप से तुम यही समझते हो। यानी परमेश्वर के हितों की रक्षा करने की जिम्मेदारी लोगों की होनी चाहिए और उन्हें परमेश्वर के हितों को सही तरीके से देखना चाहिए जबकि लोगों के हितों को तिरस्कार के साथ देखा जाना चाहिए और छीन लिया जाना चाहिए, क्योंकि लोगों के हित इतने गौरवशाली नहीं हैं। मानवीय दृष्टिकोण से—क्योंकि मूल रूप से लोगों में भ्रष्ट स्वभाव होते हैं और अंदर से वे भ्रष्ट स्वभावों की मिलावट से भरे होते हैं—लोगों के सभी हित, चाहे तुम उन्हें जिस भी तरह से देखो और चाहे वे गोचर हों या अगोचर, नाजायज की श्रेणी में ही आते हैं। इसलिए चाहे लोग इन्हें दरकिनार कर सकें या नहीं, उन्हें पहले ही यह एहसास हो चुका है कि लोगों के हितों को दरकिनार करना चाहिए और ये परमेश्वर के हित ही हैं जिनके लिए लड़ना चाहिए और जिनकी रक्षा करनी चाहिए। इस बात पर सभी सहमत हैं। अब जबकि हम आम सहमति पर पहुँच गए हैं तो आओ इस बात पर संगति करें कि वास्तव में परमेश्वर के हित क्या हैं।

वास्तव में परमेश्वर के हित क्या हैं? क्या परमेश्वर के हित, परमेश्वर के घर के हित और कलीसिया के हित सब समान हो सकते हैं? यह कहा जा सकता है कि “परमेश्वर” एक नाम है और परमेश्वर के सार का पर्यायवाची भी है। “परमेश्वर के घर” और “कलीसिया” के बारे में क्या कहोगे? परमेश्वर के घर का दायरा बहुत बड़ा है जबकि कलीसिया अधिक विशिष्ट है। क्या परमेश्वर के हित, परमेश्वर के घर के हित और कलीसिया के हित समान हो सकते हैं? (नहीं, वे समान नहीं हो सकते।) कुछ लोग कहते हैं कि वे समान नहीं हो सकते, मगर क्या वे वास्तव में समान हो सकते हैं? क्या परमेश्वर के घर के प्रशासनिक आदेश, कलीसिया के प्रशासनिक आदेश और परमेश्वर द्वारा घोषित प्रशासनिक आदेश एक ही चीज हैं? (हाँ।) वे एक ही चीज हैं। इस परिप्रेक्ष्य से कहें तो तीनों के हित एक समान हो सकते हैं। परमेश्वर का घर केवल परमेश्वर और परमेश्वर के चुने हुए लोगों से बनता है तो कलीसिया केवल परमेश्वर के घर के इन चुने हुए लोगों से बनती है। कलीसिया परमेश्वर के घर की एक अधिक विशिष्ट “अधीनस्थ इकाई” है। परमेश्वर का घर एक व्यापक शब्द है जबकि कलीसिया अधिक विशिष्ट है। क्या परमेश्वर के हित, परमेश्वर के घर के हित और कलीसिया के हित समान हो सकते हैं? क्या तुम लोगों को लगता है कि उन्हें समान माना जाना चाहिए? तुम लोग नहीं जानते? तो आओ पहले उनका विश्लेषण करने के लिए उन्हें समान मानने की कोशिश करें। उदाहरण के लिए, परमेश्वर की महिमा परमेश्वर का हित है। क्या यह कहना ठीक होगा कि यह परमेश्वर के घर की महिमा है? (नहीं।) यह ठीक नहीं होगा। परमेश्वर का घर एक नाम है, यह परमेश्वर के सार का प्रतिनिधित्व नहीं करता। क्या यह कहना ठीक होगा कि परमेश्वर की महिमा कलीसिया की महिमा है? (नहीं।) जाहिर है कि यह भी ठीक नहीं होगा। कलीसिया की महिमा सभी भाई-बहनों की महिमा है। इसे परमेश्वर की महिमा के समान कहना बेहद अपमानजनक होगा। लोग इस महिमा का दायित्व स्वीकार नहीं कर सकते और न परमेश्वर का घर और न ही कलीसिया ऐसा कर सकती है। इस परिप्रेक्ष्य से कहें तो क्या परमेश्वर के हितों, परमेश्वर के घर के हितों और कलीसिया के हितों को समान माना जा सकता है? (नहीं, ऐसा नहीं हो सकता।) नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। एक दूसरे परिप्रेक्ष्य से क्या परमेश्वर के कार्य का एक हिस्सा, परमेश्वर के घर के कार्य का एक हिस्सा और कलीसिया के कार्य का एक हिस्सा समान हो सकता है? उदाहरण के लिए, परमेश्वर लोगों को सुसमाचार प्रचार करने और परमेश्वर के वचनों का प्रसार करने को कहता है। यह परमेश्वर का इरादा है और वह लोगों को यही आदेश भी देता है। जब यह आदेश परमेश्वर के घर को दिया जाता है तो क्या इसे परमेश्वर के कार्य की योजना के समान माना जा सकता है? परमेश्वर जो आदेश देता है वह भी उसके कार्य का एक हिस्सा है और इस विशिष्ट भाग को उस कार्य के बराबर माना जा सकता है जिसे परमेश्वर करने की योजना बनाता है। जब यह आदेश कलीसिया को दिया जाता है तो क्या इसे परमेश्वर के कार्य के समान माना जा सकता है? (हाँ।) हाँ, माना जा सकता है। इन दो में से एक उदाहरण में परमेश्वर के सार से संबंधित कुछ शामिल है, जिस मामले में परमेश्वर, परमेश्वर के घर और कलीसिया को एक समान नहीं माना जा सकता। दूसरे उदाहरण में परमेश्वर द्वारा किए जाने वाले कार्य, परमेश्वर के आदेश और विशेष रूप से सभी से परमेश्वर की अपेक्षाएँ शामिल हैं—इन चीजों को एक समान माना जा सकता है। जब परमेश्वर की महिमा, परमेश्वर की पहचान, परमेश्वर के सार और परमेश्वर की गवाही से जुड़ी चीजों की बात आती है तो क्या परमेश्वर, परमेश्वर के घर और कलीसिया को समान माना जा सकता है? (नहीं।) परमेश्वर के घर और कलीसिया में यह गवाही और महिमा नहीं हो सकती और उन्हें परमेश्वर के समान नहीं माना जा सकता, मगर जब बात किसी विशेष कार्य या किसी निश्चित आदेश की हो तो उन्हें समान माना जा सकता है। हमने पहले परमेश्वर के घर के और कलीसिया के हितों के बारे में संगति की थी, जिसमें हमने बहुत सारी बातें की। आज हम इस बारे में संगति करने पर ध्यान देंगे कि परमेश्वर के हित वास्तव में क्या हैं और वास्तव में वे कौन-सी चीजें हैं जो लोगों के लिए अज्ञात हैं, जिनके बारे में लोगों ने कभी सोचा नहीं है और जो परमेश्वर के साथ निकटता से जुड़ी हुई हैं और जो परमेश्वर के हित कहलाती हैं। चाहे वह कोई संज्ञा हो, कोई कहावत हो या परमेश्वर के सार और पहचान से जुड़ी कोई चीज हो, कौन-सी चीजें परमेश्वर के हित हैं? (परमेश्वर की महिमा।) बेशक परमेश्वर की महिमा, वह गवाही जो लोगों से परमेश्वर को मिलती है। और क्या है? परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर की प्रबंधन योजना, परमेश्वर का नाम, परमेश्वर की गवाही, परमेश्वर की पहचान और परमेश्वर का दर्जा—ये सभी उसके हित हैं। जहाँ तक परमेश्वर की बात है, वह सबसे कीमती चीज क्या है जिसे वह सुरक्षित रखना चाहता है? क्या यह परमेश्वर का नाम है, परमेश्वर की महिमा है, परमेश्वर की गवाही है या परमेश्वर की पहचान और परमेश्वर का दर्जा है? आखिर यह है क्या? मानवजाति को बचाने की परमेश्वर की प्रबंधन योजना वह सबसे कीमती चीज है जिसे परमेश्वर सुरक्षित रखना चाहता है। परमेश्वर की 6,000-वर्षीय प्रबंधन योजना में वह सभी कार्य हैं जिन्हें परमेश्वर इस 6,000 वर्ष की अवधि में पूरा करना चाहता है। परमेश्वर के लिए यह सबसे महत्वपूर्ण चीज है। कहा जा सकता है कि यह परमेश्वर का हित होना चाहिए जो सृजित प्राणियों की नजरों में देख सकते हैं। परमेश्वर के हितों के बारे में लोग कमोबेश क्या समझ सकते हैं और लोगों को क्या समझना चाहिए, यह विषय मूलतः यहीं खत्म हो सकता है। आओ अब परमेश्वर के घर के हितों के बारे में बात करें। जब परमेश्वर के घर के हितों की बात आती है तो परमेश्वर का नाम, परमेश्वर की महिमा और परमेश्वर की गवाही की रक्षा करने के अलावा परमेश्वर ने मानवजाति को और किस चीज की रक्षा करने का आदेश दिया है? (परमेश्वर की प्रबंधन योजना की।) सही कहा, मानवजाति के लिए परमेश्वर का सबसे बड़ा आदेश परमेश्वर के घर का सबसे बड़ा हित है। तो यह कौन सा हित है? यह परमेश्वर की 6,000 वर्षीय प्रबंधन योजना को मानवजाति के बीच पूरा करने के बारे में है और इसमें बेशक तमाम तरह के पहलू शामिल हैं। तो इसमें क्या-क्या शामिल है? इसमें कलीसिया की स्थापना और गठन करना और कलीसिया के सभी स्तरों पर अगुआओं और कार्यकर्ताओं को तैयार करना शामिल है, ताकि कलीसिया के कार्य की विभिन्न मदें और परमेश्वर का सुसमाचार फैलाने का कार्य बिना किसी बाधा के आगे बढ़ सके—इन सबमें कलीसिया के हित शामिल हैं। ये परमेश्वर, परमेश्वर के घर और कलीसिया के हित में सबसे महत्वपूर्ण चीजें हैं जिनके बारे में हम अक्सर बात करते हैं। परमेश्वर के कार्य का फैलना, परमेश्वर की प्रबंधन योजना का बिना किसी बाधा के आगे बढ़ना, परमेश्वर के इरादे और परमेश्वर की इच्छा का मानवजाति के बीच बिना किसी बाधा के पूरा होना और परमेश्वर के वचनों का लोगों के बीच अधिक व्यापक रूप से फैलना, प्रचारित और प्रसारित होना, ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग परमेश्वर के समक्ष आ सकें—ये परमेश्वर के समस्त कार्य के उद्देश्य और मूल हैं। इस प्रकार जो कुछ भी परमेश्वर के घर और कलीसिया के हितों से संबंधित है उसमें परमेश्वर की इच्छा और परमेश्वर की प्रबंधन योजना निश्चित रूप से शामिल होगी। विशेष रूप से, यह इस बात का मामला है कि क्या हर युग में और हर चरण में परमेश्वर का कार्य बिना किसी बाधा के आगे बढ़ने और फैलने में सक्षम है, और क्या यह मानवजाति के बीच सुचारु रूप से किया जा रहा है और सुचारु रूप से आगे बढ़ रहा है। अगर यह सब सामान्य रूप से आगे बढ़ रहा है तो परमेश्वर के घर और कलीसिया के हितों की रक्षा होगी और परमेश्वर की महिमा और परमेश्वर की गवाही की रक्षा होगी। अगर परमेश्वर के घर और कलीसिया में परमेश्वर के कार्य में रुकावट आती है और वह बिना किसी बाधा के आगे नहीं बढ़ सकता, और परमेश्वर के इरादे और परमेश्वर द्वारा किए जाने वाले कार्य में बाधा उत्पन्न होती है तो परमेश्वर के घर और कलीसिया के हितों को यकीनन बहुत नुकसान पहुँचेगा—ये चीजें आपस में जुड़ी हुई हैं। यानी जब परमेश्वर के घर के और कलीसिया के हितों को बहुत नुकसान पहुँचता है या उनमें बाधा आती है तो परमेश्वर की प्रबंधन योजना का बहुत गंभीर रूप से विफल होना तय है और परमेश्वर के हितों को भी बहुत नुकसान पहुँचेगा।

परमेश्वर के हित क्या हैं, इस बारे में हमारी संगति पूरी होने के बाद आओ अब बात करें कि लोगों के हित क्या हैं। हमने अभी लोगों के हितों के बारे में थोड़ी बात की, आओ अब हम लोगों के हितों की परिभाषा के संदर्भ में इनकी प्रकृति के बारे में बात करें और उनका निरूपण करें। परमेश्वर लोगों से अपने हितों को दरकिनार करने की अपेक्षा क्यों करता है? क्या लोगों के पास यह अधिकार नहीं है? क्या परमेश्वर लोगों को यह अधिकार नहीं देता है? क्या लोग ऐसे अधिकार के हकदार नहीं हैं? क्या ऐसा नहीं है? अगर इसको लोगों के हितों के उन विभिन्न पहलुओं से देखें जिनके बारे में हमने अभी बात की तो लोग किसके लिए हितों का अनुसरण करते हैं? (अपने लिए।) “अपने लिए” एक सामान्य शब्द है। “अपने लिए” कौन है? (शैतान।) अगर लोग सत्य को समझें और सत्य के अनुसार जी पाएँ और वे अपना स्वभाव बदल लें और बचा लिए जाएँ और उसी चीज का अनुसरण करें जिसे वे चाहते हैं तो क्या यह अनुसरण परमेश्वर के अनुरूप नहीं होगा? मगर बदलने और बचाए जाने से पहले लोग केवल शोहरत और लाभ का अनुसरण करते हैं, जो देह से संबंधित अनगिनत पहलू हैं; ये सत्य के एकदम विरुद्ध और प्रतिकूल हैं, सत्य का बहुत बड़ा उल्लंघन हैं और सत्य के बिल्कुल उलट हैं। यदि कोई कहता है कि उसे सत्य से प्रेम है और वह सत्य का अनुसरण करता है, लेकिन सार में जो लक्ष्य वह हासिल करना चाहता है वह अपनी अलग पहचान बनाना, दिखावा करना, लोगों का सम्मान प्राप्त करना और अपने हित साधना है और उसके लिए अपने कर्तव्य का पालन करने का अर्थ परमेश्वर के प्रति समर्पण करना या उसे संतुष्ट करना नहीं बल्कि शोहरत, लाभ और रुतबा प्राप्त करना है तो फिर उसका अनुसरण अनुचित है। ऐसा होने पर जब कलीसिया के कार्य की बात आती है तो उसके कार्यकलाप एक बाधा होते हैं या आगे बढ़ने में मददगार होते हैं? वे स्पष्ट रूप से बाधा होते हैं; वे उन्हें आगे नहीं बढ़ाते। कुछ लोग कलीसिया का कार्य करने का झंडा लहराते फिरते हैं, लेकिन अपनी व्यक्तिगत शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भागते हैं, अपने ही उद्यम में रत रहते हैं, अपना एक छोटा-सा समूह, अपना एक छोटा-सा साम्राज्य बना लेते हैं—क्या इस प्रकार का व्यक्ति अपना कर्तव्य कर रहा है? वे जो भी कार्य करते हैं वह अनिवार्य रूप से कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी और बाधा पहुँचाता है और इसे खराब करता है। उनके शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भागने का क्या परिणाम होता है? पहला, यह इस बात को प्रभावित करता है कि परमेश्वर के चुने हुए लोग सामान्य रूप से परमेश्वर के वचनों को कैसे खाते-पीते हैं और सत्य को कैसे समझते हैं, यह उनके जीवन प्रवेश में बाधा डालता है, उन्हें परमेश्वर में विश्वास के सही मार्ग में प्रवेश करने से रोकता है और उन्हें गलत मार्ग पर ले जाता है—जो चुने हुए लोगों को नुकसान पहुँचाता है और उन्हें बरबाद कर देता है। और यह अंततः कलीसिया के कार्य के साथ क्या करता है? बाधा, हानि और विघटन। लोगों के शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भागने का यही परिणाम है। जब वे इस तरह से अपना कर्तव्य करते हैं तो क्या इसे मसीह-विरोधी के मार्ग पर चलना नहीं कहा जा सकता? जब परमेश्वर कहता है कि लोग शोहरत, लाभ और रुतबे को अलग रखें तो ऐसा नहीं है कि वह लोगों को चुनने के अधिकार से वंचित कर रहा है; बल्कि यह इस कारण कहता है कि शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भागते हुए लोग कलीसिया के कार्य और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश में गड़बड़ी और बाधा पहुँचाते हैं, यहाँ तक कि वे और ज्यादा लोगों के द्वारा परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने, सत्य को समझने और इस प्रकार परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करने पर भी प्रभाव डाल सकते हैं। यह एक निर्विवाद तथ्य है। जब लोग अपनी शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भागते हैं तो यह निश्चित है कि वे सत्य का अनुसरण नहीं करेंगे और निष्ठापूर्वक अपना कर्तव्य पूरा नहीं करेंगे। वे सिर्फ शोहरत, लाभ और रुतबे की खातिर ही बोलेंगे और कार्य करेंगे और वे जो भी काम करते हैं, वह बिना किसी अपवाद के इन्हीं चीजों की खातिर होता है। इस तरह से व्यवहार और कार्य करना निस्संदेह मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलना है; यह परमेश्वर के कार्य में गड़बड़ी और बाधा डालना है और इसके सभी विभिन्न परिणाम राज्य के सुसमाचार को फैलाने और कलीसिया के भीतर परमेश्वर की इच्छा पूरी करने में बाधा डालना है। इसलिए यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भागने वालों द्वारा अपनाया जाने वाला मार्ग परमेश्वर के प्रतिरोध का मार्ग है। यह परमेश्वर का जानबूझकर किया जाने वाला प्रतिरोध है, उसे नकारना है—यह परमेश्वर का प्रतिरोध करने और उसके विरोध में खड़े होने में शैतान के साथ सहयोग करना है। लोगों की शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भागने की यही प्रकृति है। लोगों के अपने हितों के पीछे भागने में गलती यह होती है कि वे जिन लक्ष्यों का अनुसरण करते हैं वे शैतान के लक्ष्य हैं—और वे दुष्टतापूर्ण और अन्यायपूर्ण लक्ष्य हैं। जब लोग शोहरत, लाभ और रुतबे जैसे व्यक्तिगत हितों के पीछे भागते हैं तो वे अनजाने ही शैतान का औजार बन जाते हैं, वे शैतान के लिए एक साधन बन जाते हैं, और तो और वे शैतान का मूर्त रूप बन जाते हैं। वे कलीसिया में एक नकारात्मक भूमिका निभाते हैं; कलीसिया के कार्य पर, सामान्य कलीसियाई जीवन और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के सामान्य अनुसरण पर उनका प्रभाव बाधा डालने और हानि पहुँचाने वाला होता है; उनका प्रतिकूल और नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। जब कोई सत्य का अनुसरण करता है तो वह परमेश्वर के इरादों और उसके बोझ के प्रति विचारशील होने में सक्षम होता है। जब वह अपना कर्तव्य करता है तो हर तरह से कलीसिया के कार्य को कायम रखता है। वह परमेश्वर को ऊँचा उठाने में और उसकी गवाही देने में सक्षम होता है, वह भाई-बहनों को लाभ पहुँचाता है, उन्हें सहारा देता है और उन्हें पोसता है, और परमेश्वर महिमा और गवाही प्राप्त करता है जो शैतान को लज्जित करता है। उसके अनुसरण के परिणामस्वरूप परमेश्वर एक ऐसे सृजित प्राणी को प्राप्त करता है जो वास्तव में परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में सक्षम होता है, जो परमेश्वर की आराधना करने में सक्षम होता है। उसके अनुसरण के परिणामस्वरूप ही परमेश्वर की इच्छा कार्यान्वित हो जाती है और परमेश्वर का कार्य प्रगति कर पाता है। परमेश्वर की दृष्टि में ऐसा अनुसरण सकारात्मक है, निष्कपट है। ऐसा अनुसरण परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए बहुत फायदेमंद होता है, और साथ ही कलीसिया के कार्य के लिए पूरी तरह से लाभदायक होने के कारण यह चीजें आगे बढ़ाने में मदद करता है और परमेश्वर इसे स्वीकृति देता है।

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