मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते और वे व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ विश्वासघात तक कर देते हैं (भाग एक) खंड तीन
पश्चिम देशों में आने के बाद बहुत से चीनी लोग अपनी पारंपरिक संस्कृति और उन चीजों को पश्चिमी लोगों में डालना चाहते हैं जो उन्हें सही और अच्छी लगती हैं। इसी तरह पश्चिमी लोग भी पीछे नहीं रहते हैं और उनका मानना है कि उनकी पारंपरिक संस्कृतियाँ भी बहुत पुरानी हैं। उदाहरण के लिए, प्राचीन रोम, प्राचीन मिस्र और प्राचीन यूनान, इन सभी में “प्राचीन” शब्द शामिल है और उनकी संस्कृतियाँ तीन हजार साल से भी ज्यादा पुरानी हैं। इस संख्या के आधार पर देखें तो यहाँ एक खास सांस्कृतिक विरासत है और मानवजाति इस सांस्कृतिक विरासत से उत्पन्न चीजों को समस्त मानव जीवन का सर्वोत्कृष्ट सार मानती है, और मानवजाति के जीवन, अस्तित्व और स्व-आचरण से निकलने वाली सबसे महत्वपूर्ण चीजों का सारांश मानती है। मानवजाति द्वारा पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे सौंपी गई सबसे महत्वपूर्ण चीजों को क्या कहा जाता है? पारंपरिक संस्कृति। पीढ़ी-दर-पीढ़ी लोगों ने इस पारंपरिक संस्कृति को आगे बढ़ाया है और हर कोई अपने दिल में यही मानता है कि यह सबसे अच्छी चीज है। लोग चाहे इसका पालन कर पाएँ या नहीं, आम तौर पर सभी जातियों के लोग इसे बाकी सबसे ऊपर और सत्य मानते हैं। इसलिए हर जाति के लोगों के पास कुछ पारंपरिक चीजें होती हैं जो जाँच-पड़ताल में टिक पाती हैं और जिनका उन पर विशेष रूप से गहरा प्रभाव होता है और वे इन चीजों का इस्तेमाल एक-दूसरे से मुकाबला और तुलना करने के लिए करते हैं, और यहाँ तक कि एक दूसरे को परखने और एक दूसरे से आगे निकलने के लिए भी करते हैं। उदाहरण के लिए, चीनी लोग कहते हैं : “हमारी चीनी बाईजीउ शराब अच्छी है, इसमें अल्कोहल की मात्रा वाकई बहुत ज्यादा है!” पश्चिमी लोग कहते हैं : “तुम लोगों की शराब में ऐसा क्या खास है? इसमें अल्कोहल की मात्रा इतनी ज्यादा है कि इसे पीकर तुम मदहोश हो जाते हो और इसके अलावा यह जिगर के लिए बहुत खराब है। हम पश्चिमी लोग जो रेड वाइन पीते हैं, उसमें अल्कोहल की मात्रा कम होती है, यह जिगर को कम नुकसान पहुँचाती है और रक्त संचार भी बढ़ाती है।” चीनी लोग कहते हैं : “हमारी बाईजीउ शराब भी रक्त संचार बढ़ाती है और बड़े अच्छे से अपना काम करती है। इसे पीते ही यह तुम्हारे सिर चढ़ जाती है और तुम्हारा चेहरा चमक उठता है। तुम लोगों की रेड वाइन से इतना असर नहीं होता, चाहे इसे कितना भी पी लो, तुम्हें नशा नहीं चढ़ेगा। देखो, हमारे यहाँ शराब पीने के लिए शराब संस्कृति है और चाय पीने के लिए चाय संस्कृति है।” पश्चिमी लोग कहते हैं : “हमारे यहाँ भी चाय पीने के लिए चाय संस्कृति, कॉफी पीने के लिए कॉफी संस्कृति और शराब पीने के लिए शराब संस्कृति है और आजकल तो हमारे यहाँ फास्ट-फूड संस्कृति भी चल रही है।” एक-दूसरे से तुलना करते समय कोई किसी से हार नहीं मानता और न ही कोई किसी से कुछ स्वीकारता है। वे सभी अपनी-अपनी चीजों को सत्य मानते हैं, जबकि उनमें से कोई भी चीज सत्य नहीं है। अविश्वासियों की बात छोड़ दें तो सबसे दुखद बात यह है कि जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं—और इससे भी बदतर, जिन लोगों ने 20-30 वर्षों से कार्य के इस चरण को स्वीकार किया हुआ है—उन्हें भी यह एहसास नहीं है कि ये चीजें बिल्कुल भी सत्य नहीं हैं। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो कहते हैं, “क्या यह कहना ठीक है कि ये सत्य से संबंधित हैं?” यह कहना ठीक नहीं है कि ये सत्य से संबंधित हैं। यह सत्य नहीं है, इनका सत्य से कोई लेना-देना या संबंध नहीं है, वे दोनों एक जैसे नहीं हैं और वे एक ही चीज भी नहीं हैं। जैसे कि ताँबे पर सोने की कितनी भी अच्छी परत चढ़ाई गई हो या उसे कितना भी पॉलिश किया गया हो वह ताँबा ही रहता है, जबकि सोना पॉलिश किया हुआ, चमकाया गया या भड़कीला न होने पर भी सोना ही रहता है—वे दोनों एक ही चीजें नहीं हैं।
कुछ लोग हैं जो पूछते हैं : “क्या उन लोगों के लिए सत्य को स्वीकारना आसान है जिन्होंने काफी अच्छी पारंपरिक सांस्कृतिक शिक्षा और संस्कार प्राप्त किए हैं?” नहीं, ये दो अलग-अलग मसले हैं। सिर्फ उनकी जीवन-शैलियाँ कुछ हद तक अलग हैं, मगर सत्य को स्वीकारने के प्रति लोगों का रवैया, उनके विभिन्न विचार और दृष्टिकोण और पूरी मानवजाति की भ्रष्टता की सीमा एक ही है। जब परमेश्वर ने अपने कार्य के इस चरण यानी अंत के दिनों में बोलना शुरू किया तो वह चीनी लोगों के संदर्भ में बात कर रहा था और अपने वचनों से उन्हें संबोधित कर रहा था। तीस साल बीत गए और जब ये वचन एशिया के अन्य भागों में और यूरोप और अमेरिका जैसी जगहों पर तमाम विभिन्न जातियों में प्रसारित होते हैं तो चाहे वे लोग काले, गोरे, भूरे या पीले हों, उन्हें पढ़ने के बाद सभी लोग कहते हैं, “ये वचन हमारे बारे में बात कर रहे हैं।” परमेश्वर के वचन सभी मनुष्यों के भ्रष्ट स्वभावों को उजागर करते हैं। इने-गिने लोग कहते हैं, “ये सभी वचन तुम चीनी लोगों को संबोधित हैं। वे तुम चीनी लोगों के भ्रष्ट स्वभावों के बारे में बात कर रहे हैं, जो हमारे पास नहीं हैं।” सिर्फ कुछ ही लोग जिन्हें आध्यात्मिक समझ नहीं है, ऐसी बातें कहेंगे। अतीत में दक्षिण कोरियाई लोगों में इस तरह की गलतफहमी थी। उनका मानना था कि दक्षिण कोरियाई लोग एक लोकतांत्रिक और स्वतंत्र सामाजिक व्यवस्था के तहत रहते हैं और वे ईसाई संस्कृति के साथ-साथ हजारों वर्षों की कोरियाई संस्कृति से प्रभावित हैं, इसलिए उनकी नस्ल चीनी लोगों की तुलना में ज्यादा प्रतिष्ठित और ज्यादा उत्कृष्ट है। उन्होंने ऐसा क्यों सोचा? क्योंकि जब बहुत से चीनी लोग दक्षिण कोरिया आ गए तो वे जहाँ भी जाते थे उन जगहों को गंदा और शोरगुल वाला बना देते थे, चोरी और अपराध बढ़ गए थे और इसका सामाजिक माहौल पर कुछ प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। इसलिए दक्षिण कोरिया में भाई-बहनों का मानना था कि “चीनी लोग बड़े लाल अजगर की संतान और मोआब के वंशज हैं। हम दक्षिण कोरियाई लोग बड़े लाल अजगर द्वारा भ्रष्ट नहीं हुए हैं।” ऐसा कहकर वे क्या दर्शाना चाहते थे? यह कि “हम बड़े लाल अजगर द्वारा भ्रष्ट नहीं हुए हैं, इसलिए हम चीनी लोगों की तरह भ्रष्ट नहीं हैं। चीनी लोग हमसे ज्यादा भ्रष्ट हैं। हम चीनी लोगों से बेहतर हैं।” “बेहतर” से उनका क्या मतलब था? (बेहतर व्यवहार।) एक ओर, इसका संबंध व्यवहार से है। दूसरी ओर, वे अपने दिल की गहराइयों में यह मानते थे कि दक्षिण कोरियाई राष्ट्र ने इतिहास के आरंभ से ही जिस पारंपरिक संस्कृति का निर्माण किया और स्वीकारा, वह चीनी राष्ट्र की संस्कृति और परंपराओं से कहीं ज्यादा उत्कृष्ट है और इस प्रकार की पारंपरिक संस्कृति की शिक्षा से प्रभावित लोग और नस्लें चीनी पारंपरिक संस्कृति की शिक्षा से प्रभावित लोगों और नस्लों की तुलना में ज्यादा उत्कृष्ट हैं। इसलिए जब उन्होंने परमेश्वर के वचन पढ़े और परमेश्वर को यह कहते हुए देखा, “तुम लोग एकदम कचरा हो” तो उन्हें लगा कि वह चीनी लोगों के बारे में बात कर रहा है। चीनी भाई-बहनों ने कहा : “परमेश्वर जिन ‘तुम लोगों’ की बात करता है उसका मतलब पूरी मानवजाति है।” दक्षिण कोरियाई लोगों ने कहा, “यह सही नहीं है, परमेश्वर ‘तुम लोगों’ के बारे में बात कर रहा है, हमारे बारे में नहीं। परमेश्वर जो कह रहा है, उसके अर्थ में दक्षिण कोरियाई लोग शामिल नहीं हैं।” उन्होंने यही सोचा था। यानी उन्होंने चाहे किसी भी पहलू से चीजों को देखा, उनके दृष्टिकोण और परिप्रेक्ष्य सत्य के परिप्रेक्ष्य से नहीं आए थे और वे वस्तुनिष्ठ और निष्पक्ष परिप्रेक्ष्य से तो बिल्कुल नहीं आए थे। बल्कि उन्होंने तो चीजों को एक नस्ल और एक पारंपरिक संस्कृति के संदर्भ से देखा। इसलिए चीजों के प्रति उनका नजरिया कुछ भी रहा हो, उसके बाद के नतीजे सत्य के विपरीत थे। क्योंकि चाहे उन्होंने चीजों को कैसे भी देखा, उनकी शुरुआत हमेशा यहीं से होती थी, “हमारे महान दक्षिण कोरियाई राष्ट्र में सब कुछ सही है, इसकी हर चीज मानक है और इससे जुड़ी हर चीज उचित है।” उन्होंने हर चीज को गलत परिप्रेक्ष्य और शुरुआती बिंदु से देखा और मापा तो क्या उन्होंने जो नतीजे देखे वे सही थे या गलत? (गलत।) वे यकीनन गलत थे। तो हर चीज को मापने के लिए मानक क्या होना चाहिए? (सत्य।) यह सत्य होना चाहिए—यही मानक है। उनका मानक अपने आप में गलत था। उन्होंने सभी चीजों और सभी घटनाओं को गलत परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण से मापा, इसलिए मापे गए नतीजे निश्चित रूप से गलत थे, निष्पक्ष नहीं थे, सही नहीं थे और वस्तुनिष्ठ तो बिल्कुल भी नहीं थे। इसलिए उनके लिए कुछ विदेशी चीजों को स्वीकारना मुश्किल था और फिर उनकी सोच बहुत अतिवादी, सीमित, संकीर्ण और उतावलेपन से भरी थी। उनका यह उतावलापन कहाँ से आया? यहीं से कि उनकी हर बात में “हमारा महान दक्षिण कोरियाई राष्ट्र” का जिक्र होना ही था और वे “महान” शब्द पर अधिक जोर देते थे। “महान” का क्या मतलब है? क्या यह “महान” शब्द अहंकार को नहीं दर्शाता है? अगर तुम दुनिया भर में घूमो या कोई नक्शा देखो तो दक्षिण कोरिया कितना बड़ा है? अगर यह वाकई दूसरे देशों से बड़ा होता और इसे महान कहा जा सकता था तो फिर ठीक है, इसे “महान” कहो। मगर धरती के दूसरे देशों की तुलना में दक्षिण कोरिया कोई बड़ा देश नहीं है तो फिर वे इसे “महान” कहने पर जोर क्यों देते हैं? इसके अलावा चाहे कोई देश बड़ा हो या छोटा, वह जो पारंपरिक संस्कृति और नियम बनाता है वे परमेश्वर से नहीं आते, और वे सत्य से तो बिल्कुल भी नहीं आते। ऐसा इसलिए है क्योंकि सत्य और परमेश्वर के उद्धार को स्वीकारने से पहले व्यक्ति जितने भी विचारों को स्वीकारता है वे सभी शैतान से आते हैं। शैतान द्वारा उत्पन्न सभी विचार, दृष्टिकोण और पारंपरिक संस्कृति लोगों के साथ क्या करती है? ये सब लोगों को गुमराह करते हैं, भ्रष्ट करते हैं, बाँधते हैं और प्रतिबंधित करते हैं, जिसके कारण भ्रष्ट मानवजाति के विचार संकीर्ण और अतिवादी हो जाते हैं और चीजों के बारे में उनके विचार एकतरफा और पक्षपाती होते हैं, यहाँ तक कि वे हास्यास्पद और बेतुके भी होते हैं—ये शैतान द्वारा मानवजाति को भ्रष्ट करने के दुष्परिणाम हैं। जब कई देशों और कुछ नस्लों के लोग ये शब्द सुनते हैं, “परमेश्वर चीन में देहधारी हुआ है” तो उनकी पहली प्रतिक्रिया क्या होती है? बस एक शब्द—नामुमकिन! उनके हिसाब से यह जगह कहाँ होनी चाहिए थी? (इस्राएल।) सही कहा, इस्राएल। लोग विनियमों का पालन करना और धारणाओं से चिपके रहना सबसे ज्यादा पसंद करते हैं। वे सोचते हैं कि परमेश्वर ने इस्राएल में अपना कार्य किया है और इसलिए परमेश्वर को इस्राएल में या किसी ऐसे शक्तिशाली साम्राज्य में प्रकट होना चाहिए जिसका वे सम्मान करते हैं, या फिर वे सोचते हैं कि परमेश्वर को किसी ऐसे देश में प्रकट होना चाहिए जहाँ उनकी धारणाओं और कल्पनाओं में कभी प्राचीन सभ्यता होती थी। चीन ऐसा देश बिल्कुल नहीं है, इसलिए उनके लिए यह गवाही स्वीकारना मुश्किल है कि परमेश्वर चीन में देहधारी हुआ, और उन्हें बचाए जाने के इस अवसर को खोने के लिए इतना ही पर्याप्त है। ऐसा किसने किया? (उन्होंने खुद किया।) क्योंकि वे इस तरह की धारणा पालते हैं और विद्रोही बन गए हैं और वे समस्या का समाधान करने के लिए सत्य बिल्कुल नहीं खोजते, उन्होंने खुद को बहुत नुकसान पहुँचाया है और उद्धार पाने के इस एकमात्र अवसर को भी बर्बाद कर दिया है।
जब लोग सत्य नहीं समझते हैं तो उनके मन में जितनी भी कल्पनाएँ और धारणाएँ होती हैं, और यहाँ तक कि कुछ ऐसी चीजें जिनकी लोग आराधना करते हैं, वे बहुत ही हास्यास्पद और बेतुकी होती हैं। एक दक्षिण कोरियाई महिला जो सँयुक्त राज्य अमेरिका में है और उसे यह देश पसंद है, उसकी अमेरिकियों से बातचीत होती है और उनमें से एक उससे पूछता है : “वसंत महोत्सव बस आने ही वाला है। वसंत महोत्सव के दौरान चीनी लोग क्या खाते हैं?” वह कहती है : “मैं चीन से नहीं, दक्षिण कोरिया से हूँ।” अमेरिकी जवाब देता है, “तो क्या दक्षिण कोरियाई लोग भी वसंत महोत्सव नहीं मनाते?” जिस पर वह कहती है, “हम दक्षिण कोरियाई वसंत महोत्सव नहीं मनाते हैं।” अमेरिकी कहता है : “मुझे लगा था कि चीनियों की तरह दक्षिण कोरियाई लोग भी वसंत महोत्सव मनाते हैं।” वह बड़े रूखेपन के साथ जवाब देती है : “हम चीनी लोगों जैसे नहीं हैं! क्या तुम्हारा यह सोचना सही है कि हम वसंत महोत्सव मनाते हैं? यह हम दक्षिण कोरियाई लोगों की गरिमा का भारी अपमान है!” क्या दक्षिण कोरियाई लोग वास्तव में वसंत महोत्सव नहीं मनाते हैं? (वे इसे मनाते हैं।) वास्तव में, दक्षिण कोरियाई लोग भी वसंत महोत्सव मनाते हैं। तो, उसने ऐसा क्यों कहा कि दक्षिण कोरियाई लोग इसे नहीं मनाते? आओ इस मुद्दे पर चर्चा करें। क्या वसंत महोत्सव मनाना सही है या नहीं? क्या तुम लोग इस मुद्दे को स्पष्टता से समझा सकते हो? विदेशियों के लिए वसंत महोत्सव मनाना अपने आप में कोई शर्मनाक बात नहीं है। यह एक विशेष रिवाज है जो लोगों के जीवन में एक महत्वपूर्ण दिन की याद दिलाता है। पारंपरिक संस्कृति वाले इस संसार में रहने वाले मनुष्यों के लिए वसंत महोत्सव मनाना कोई गलत या शर्मनाक बात नहीं है, तो फिर यह महिला वसंत महोत्सव मनाने की बात क्यों नहीं स्वीकारती? क्योंकि जैसे ही वह वसंत महोत्सव मनाने की बात स्वीकारती है, वह अब पश्चिमी महिला नहीं रह जाती, और उसे एक बहुत ही पारंपरिक पूर्वी एशियाई व्यक्ति की तरह देखा जाएगा, और वह नहीं चाहती कि लोग उसे एक पारंपरिक पूर्वी एशियाई महिला समझें। वह चाहती है कि लोग सोचें कि उसके पास कोई पूर्वी एशियाई परंपरा नहीं है और वह पूर्वी एशियाई परंपराओं को नहीं समझती है या वह उनके बारे में कुछ भी नहीं जानती। वह लोगों को यह भी दिखाना चाहती है कि वह फर्राटेदार अंग्रेजी बोलती है, अपने बालों को सुनहरे रंग में रंगती है, नीले कॉन्टैक्ट लेंस लगाती है और पश्चिमी लोगों जैसे कपड़े पहनती है और पश्चिमी महिलाओं की तरह ही निर्भीक, उन्मुक्त, मुक्त, स्वतंत्र और समझदार है—वह चाहती है कि लोग उसे इस तरह देखें। इसलिए इस सोच के प्रभाव में, जब भी उसके साथ कुछ घटित होता है तो वह जैसा भी व्यवहार करेगी, वह इस सोच के अनुरूप ही होगा। जब भी कोई उससे पूछता है कि क्या दक्षिण कोरियाई लोग वसंत महोत्सव मनाते हैं तो वह जवाब देती है, “हम दक्षिण कोरियाई लोग वसंत महोत्सव नहीं मनाते।” अगर उसके करीबी लोग कहते हैं, “हम तो वसंत महोत्सव मनाते ही हैं, फिर तुम ऐसा क्यों कहती हो कि हम इसे नहीं मनाते?” तो उसका क्या जवाब होगा? “तुम बेवकूफ हो। अगर मैं कहूँ कि हम वसंत महोत्सव मनाते हैं तो क्या उन्हें यह पता नहीं चलेगा कि मैं एक पारंपरिक दक्षिण कोरियाई हूँ?” वह लोगों को दिखाना चाहती है कि वह सँयुक्त राज्य अमेरिका में ही पैदा हुई और पली-बढ़ी है। अगर तुमने उससे पूछा, “तुम यहाँ पैदा हुई थी, मगर तुम्हारा परिवार कितनी पीढ़ियों से यहाँ है?” तो वह कहेगी : “हमारे पूर्वज यहाँ पले-बढ़े थे।” वह सोचती है कि यह पहचान और हैसियत का प्रतीक है इसलिए वह सरासर झूठ बोलने पर उतर आती है और दूसरों के सामने झूठ पकड़े जाने से नहीं डरती। यह किस तरह की सोच है? क्या यह मामला झूठ बोलने लायक है? क्या यह जोखिम उठाने लायक है? नहीं, ऐसा नहीं है। इतनी छोटी-सी बात भी किसी व्यक्ति के विचारों और दृष्टिकोण को उजागर कर सकती है। किस तरह के विचार और दृष्टिकोण उजागर किए जाते हैं? कुछ चीनी लड़कियाँ वाकई बहुत सुंदर होती हैं, मगर वे अपने बालों को सुनहरे रंग में रंगने, उन्हें घुँघराला बनाने, अपनी आँखों का रंग बदलने के लिए अलग-अलग रंग के कॉन्टैक्ट लेंस पहनने और खुद को विदेशी दिखाने पर जोर देती हैं—यह देखना वाकई अजीब है। वे इस तरह की इंसान बनने पर क्यों जोर देती हैं? क्या उनके इस तरह से कपड़े पहनने के बाद उनका वंश बदल गया? भले ही उनका वंश बदल गया हो और अगले जन्म में वे एक गोरे व्यक्ति के रूप में जन्म लें या किसी ऐसी जाति के व्यक्ति के रूप में जन्म लें जिसे वे बहुत ऊँचा मानती हों—फिर क्या होगा? क्या तुम सब इस मुद्दे को स्पष्ट देख सकते हो? अगर कोई व्यक्ति एक खास शैली और एक खास स्वभाव के साथ आचरण करने की कोशिश करता है और खुद को उस राष्ट्र या नस्ल का सदस्य बताता है जिसका वह सम्मान करता है तो इसका क्या कारण है? क्या इसके पीछे कोई सोच छिपी है जो इसे नियंत्रित करती है? वह कौन-सी सोच है जो इसे नियंत्रित करती है? यह उस दक्षिण कोरियाई महिला की तरह ही है; जब अमेरिकी उससे पूछते हैं कि क्या वह टेबल टेनिस खेल सकती है तो वह कहती है, “टेबल टेनिस क्या है? सिर्फ चीनी लोग इसे खेलते हैं। हम टेनिस और गोल्फ खेलते हैं।” यह किस प्रकार की इंसान है जो इस तरह से आचरण कर सकती है और बोल सकती है? क्या यह कुछ हद तक नकली नहीं है? वह जो कुछ भी करती है वह सब कुछ नकली है, इससे उसका जीवन बहुत थकाऊ हो जाता है! क्या तुम लोग इस तरह से आचरण करोगे? कुछ चीनी लोग जो दशकों से पश्चिमी देशों में रहे हैं वे जब अपने गृहनगर जाते हैं तो चीनी भाषा नहीं बोल पाते। क्या यह बुरी बात है? (हाँ।) कुछ लोग कहते हैं : “हमें अपनी जड़ें नहीं भूलनी चाहिए। परमेश्वर भी कहता है कि हमें अपनी जड़ें नहीं भूलनी चाहिए। परमेश्वर लोगों की जड़ है। लोगों का सृजन परमेश्वर ने किया है और लोगों से जुड़ी हर चीज परमेश्वर से आती है, इसलिए सृजित प्राणी होने के नाते लोगों को परमेश्वर की आराधना करनी चाहिए—अपनी जड़ें नहीं भूलने का यही मतलब है।” ऐसा ही है ना? हर स्थिति में सत्य खोजना चाहिए, मगर लोग सत्य नहीं खोजते हैं और वे पूरी तरह से पारंपरिक संस्कृति से चिपके रहते हैं। ऐसा क्यों है? कुछ लोग कहते हैं : “हम अपनी जड़ों को कभी नहीं भूलते। हम जहाँ भी जाते हैं, यह स्वीकारते हैं कि हम चीनी हैं और मानते हैं कि हमारा देश गरीब और पिछड़ा हुआ है। हम अपनी जड़ों को कभी नहीं भूलेंगे।” क्या यह सही है? ये सभी समस्याएँ एक तरह से मानवजाति पर इन तथाकथित पारंपरिक संस्कृतियों के अत्यधिक गहरे प्रभाव और शिक्षा के कारण हैं। दूसरा पहलू यह है कि इतने सालों तक धर्मोपदेश सुनने के बाद भी लोग ध्यान से विचार नहीं करते और यह नहीं खोजते कि सत्य क्या है। बल्कि वे अक्सर पारंपरिक संस्कृति और पतनशील चीजों का उपयोग करते हैं जो उनके पास पहले से ही मौजूद हैं, जिन्हें उन्होंने पहले ही सीख लिया है और जो दृढ़ता से जड़ें जमाए हैं और वे उन्हें सत्य के रूप में सामने रखते हैं। यह दूसरा पहलू है। तीसरा, धर्मोपदेश सुनने के बाद लोग परमेश्वर के वचनों में सत्य नहीं खोजते। बल्कि वे परमेश्वर के वचनों को आँकने के लिए पारंपरिक परिप्रेक्ष्य और मानवीय धारणाओं के ज्ञान और शिक्षाओं का उपयोग करते हैं, जो उन्हें पहले से पता है। इसलिए अब तक भले ही लोगों ने अनेक धर्मोपदेश सुने हैं, फिर भी व्यवहार के तथाकथित सिद्धांत और अपना कर्तव्य निभाने और परमेश्वर की सेवा करने के तथाकथित सिद्धांत, जो लोग मौखिक रूप से दूसरों तक पहुँचाते हैं, अक्सर कुछ ऐसे ज्ञान, मुहावरों और आम कहावतों पर आधारित होते हैं जिन्हें वे सही मानते हैं। उदाहरण के लिए, अगर कोई व्यक्ति कुछ गलत करता है और कलीसिया के अगुआ या भाई-बहन उसकी काट-छाँट करते हैं तो वे सोचते हैं : “हम्म्, यह उन कहावतों जैसा है, ‘मारने से कोई फायदा नहीं होता’ और ‘मुस्कुराते हुए चेहरे को देखकर हाथ मत उठाओ।’ मैंने अपनी इस छोटी-सी कमी को धैर्यपूर्वक मुस्कुराहट के साथ स्वीकार कर लिया है—फिर तुम मुझे इसके लिए क्यों उजागर करते रहते हो?” बाहर से वे आज्ञाकारी बनकर सुनते और समर्पण करते हैं, मगर वास्तव में अपने दिलों की गहराई में वे वितर्क और प्रतिरोध करने के लिए पारंपरिक धारणाओं का इस्तेमाल कर रहे हैं। उनके प्रतिरोध करने का क्या कारण है? उन्हें लगता है कि “मारने से कोई फायदा नहीं होता” और “मुस्कुराते हुए चेहरे को देखकर हाथ मत उठाओ” जैसी कहावतें असली सत्य और सही हैं, और किसी के लिए भी बिना किसी भावना के लगातार उनकी काट-छाँट करना और उन्हें उजागर करना गलत है, और यह सत्य नहीं है।
हमने अभी जिस विषय पर संगति की क्या उससे तुम लोगों को सत्य की गहरी समझ मिल चुकी है? (हाँ।) कुछ लोग कह सकते हैं : “अब जब तुम हमें यह बता चुके हो तो हम नहीं जानते कि अभ्यास करने में हमें किन सिद्धांतों का पालन करना चाहिए। इन पारंपरिक संस्कृतियों और इन धारणाओं और ज्ञान के बिना हमें कैसे जीना चाहिए? हमें कैसे कार्य करना चाहिए? हमें नियंत्रित करने वाली इन चीजों के बिना हम कैसे अपना मुँह खोल सकते हैं और परमेश्वर के वचनों का प्रचार कर सकते हैं? इन चीजों के बिना क्या हमारे लिए परमेश्वर के वचनों का प्रचार करने का आधार ही खत्म नहीं हो गया? तो फिर हमारे पास और बचा क्या है?” खैर, मैं उन लोगों से यही कहता हूँ कि अगर तुम्हारे पास वाकई ये चीजें नहीं हैं तो सत्य खोजना ज्यादा आसान होगा और सत्य स्वीकारना और परमेश्वर के पास लौटना ज्यादा आसान होगा। पहले जब तुम अपना मुँह खोलते थे तो तुम्हारे मुँह से बस शैतानी फलसफे और पारंपरिक ज्ञान निकलता था, जैसे कि “बुद्धिमान इंसान हालात के अनुसार अपना रुख बदलता है,” “मुस्कुराते हुए चेहरे को देखकर हाथ मत उठाओ,” “मारने से कोई फायदा नहीं होता,” वगैरह। अब तुम यह विचार करते और सोचते हो, “मैं ऐसा नहीं कह सकता, ये सभी कहावतें गलत हैं, इनका खंडन और निंदा की जा चुकी है, इसलिए मुझे क्या कहना चाहिए? विनम्रता से और उचित ढंग से परमेश्वर के वचन पढ़ो और परमेश्वर के वचनों से आधार खोजो।” लोग अपना कर्तव्य निभाते हैं और परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, पर जब भी वे अपने मुँह खोलते हैं, तो उनके मुँह से बस यही मुहावरे, कहावतें और कुछ ऐसी चीजें और विचार ही निकलते हैं जो उन्हें पारंपरिक संस्कृति से मिलते हैं। जब भी किसी व्यक्ति के साथ कुछ घटित होता है तो कोई भी परमेश्वर का पूरी तरह से उन्नयन नहीं कर सकता या उसकी गवाही नहीं दे सकता और यह नहीं कह सकता कि, “परमेश्वर ऐसा कहता है” या “परमेश्वर वैसा कहता है।” कोई भी ऐसा नहीं बोलता, कोई भी अपना मुँह खोलते ही परमेश्वर के वचन नहीं दोहराता। तुम परमेश्वर के वचन नहीं दोहरा सकते, मगर उन सामान्य कहावतों को दोहरा सकते हो, तो असल में तुम्हारा दिल किस चीज से भरा है? उन सभी चीजों से जो शैतान से आती हैं। कुछ लोग टीम अगुआ द्वारा अपने काम की जाँच किए जाने पर कहते हैं : “आप किस चीज की जाँच कर रहे हो? न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम इस्तेमाल करते हो, न ही उन लोगों को इस्तेमाल करो जिन पर तुम संदेह करते हो। अगर आपको हमेशा मुझ पर संदेह होता है तो फिर मुझसे काम क्यों कराते हो? किसी और से करवा लो।” वे सोचते हैं कि कार्य करने का यही सही तरीका है और वे दूसरों को अपनी निगरानी और आलोचना नहीं करने देते। ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने अपने कर्तव्य करते हुए बहुत कष्ट सहे हैं, मगर चूँकि उन्होंने सिद्धांतों की खोज नहीं की और कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी और बाधा पैदा की, इसलिए आखिर में उन्हें बर्खास्त कर दिया जाता है और ऊपर से उनकी काट-छाँट भी की जाती है। कुछ निंदा भरी टिप्पणियाँ सुनकर वे उद्दंड हो जाते हैं और सोचते हैं, “एक कहावत है, ‘भले ही मैंने कोई उपलब्धि हासिल न की हो, मगर मैंने कठिनाई झेली है; अगर कठिनाई नहीं तो थकान ही सही।’ मुझसे बस यह छोटी-सी गलती हो गई, इससे क्या फर्क पड़ता है?” क्योंकि उन्होंने इस आम कहावत को पहले सीखा था और इसलिए यह उनमें दृढ़ता से रची-बसी हुई है, उनके विचारों को नियंत्रित और प्रभावित करती है, इससे वे—इस परिवेश में और ऐसी स्थिति उत्पन्न होने के बाद—परमेश्वर के घर द्वारा उनके साथ किए गए व्यवहार का प्रतिरोध करने और उसके प्रति समर्पण न करने के आधार के रूप में इस कहावत का उपयोग करने के लिए प्रेरित होते हैं। ऐसा होने पर क्या वे अभी भी समर्पण कर सकते हैं? क्या उनके लिए अभी भी सत्य को स्वीकारना आसान है? भले ही वे बाहरी तौर पर समर्पण करते हों, मगर ऐसा बस इसलिए है क्योंकि उनके पास कोई चारा नहीं है और यह आखिरी सहारा है। भले ही बाहरी तौर पर वे पलटवार नहीं करते, फिर भी उनके दिलों में प्रतिरोध होता है। क्या यह सच्चा समर्पण है? (नहीं।) यह आधे-अधूरे मन से काम करना है, यह सच्चा समर्पण नहीं है। इसमें कोई समर्पण नहीं है, सिर्फ तर्क-वितर्क, नकारात्मकता और विरोध है। यह तर्क-वितर्क, नकारात्मकता और विरोध कहाँ से उत्पन्न हुआ? ये इस कहावत से उत्पन्न हुए “भले ही मैंने कोई उपलब्धि हासिल न की हो, मगर मैंने कठिनाई झेली है; अगर कठिनाई नहीं तो थकान ही सही।” इस कहावत के कारण इन लोगों में किस तरह का स्वभाव उत्पन्न हुआ? अवज्ञा, हठ, विरोध और तर्क-वितर्क का। इस संगति से क्या तुम लोगों को सत्य के बारे में और समझ मिली है? एक बार जब तुम इन नकारात्मक चीजों का स्पष्ट रूप से गहन-विश्लेषण और इनके भेद की पहचान करके इन्हें अपने दिल से निकाल फेंकोगे तो अपने ऊपर चीजें आने पर तुम सत्य खोजने और उसका अभ्यास करने में सक्षम होगे, क्योंकि पुरानी चीजों को त्याग दिया गया है और अब वे तुम्हें अपने कर्तव्य निभाने में, परमेश्वर की सेवा करने और उसका अनुसरण करने में उन चीजों पर भरोसा करने के लिए प्रेरित नहीं कर सकती हैं। वे चीजें अब तुम्हारे स्व-आचरण के सिद्धांत नहीं हैं, वे अब ऐसे सिद्धांत नहीं हैं जिनका तुम्हें अपने कर्तव्य निभाते समय पालन करना चाहिए और उनकी पहले ही आलोचना और निंदा की जा चुकी है। अगर तुम उन्हें फिर से लेते और इस्तेमाल करते हो तो तुम्हारे दिल की गहराई में क्या होगा? क्या तुम तब भी इतने ही खुश रहोगे? क्या तुम तब भी इतने आश्वस्त होगे कि तुम सही हो? जाहिर है कि ऐसा होने की संभावना कम है। अगर तुम्हारे अंदर की ये चीजें वास्तव में दूर हो गई हैं तो तुम्हें परमेश्वर के वचनों में यह खोजना चाहिए कि वास्तव में सच्चे सिद्धांत क्या हैं और परमेश्वर की अपेक्षाएँ वास्तव में क्या हैं। कुछ लोग अक्सर कहते हैं, “जैसा तुम्हारा मालिक आज्ञा दे, वैसा करो, वरना तुम्हें अपने सबसे श्रमसाध्य प्रयासों से भी कुछ हासिल नहीं होगा।” यह कहावत सही है या गलत? निश्चित रूप से गलत है। यह गलत कैसे है? “जैसा तुम्हारा मालिक आज्ञा दे, वैसा करो,” इस वाक्यांश में “मालिक” कौन है? तुम्हें नौकरी देने वाला, तुम्हारा बॉस, तुम्हारा वरिष्ठ। यह “मालिक” शब्द अपने आप में ही गलत है। परमेश्वर तुम्हें नौकरी देने वाला या तुम्हारा बॉस या तुम्हारा मैनेजर नहीं है। परमेश्वर तुम्हारा परमेश्वर है। मैनेजर, बॉस, वरिष्ठ सभी समान किस्म के और समान स्तर के लोग हैं। मूल रूप से वे एक जैसे हैं; वे सभी भ्रष्ट इंसान हैं। तुम उनकी बात सुनते हो, उनसे पगार लेते हो और वे जो भी करने को कहते हैं, तुम वही करते हो। तुम जितना काम करते हो, वे तुम्हें उतने पैसे दे देते हैं, उससे ज्यादा कुछ नहीं। “वरना तुम्हें अपने सबसे श्रमसाध्य प्रयासों से भी कुछ हासिल नहीं होगा,” इस वाक्यांश में “हासिल” का क्या मतलब है? (श्रेय।) श्रेय और पारिश्रमिक। तुम्हारे क्रियाकलापों की प्रेरणा पैसा कमाना है। इसके लिए वफादारी या आज्ञाकारिता की जरूरत नहीं है, न ही सत्य खोजने और आराधना करने की जरूरत है—इनमें से किसी की जरूरत नहीं है, यह सिर्फ एक लेन-देन है। यह वास्तव में कुछ ऐसी चीज है जिसकी परमेश्वर में विश्वास करने, अपना कर्तव्य करने और सत्य का अनुसरण करने के दौरान निंदा और आलोचना की जाती है। अगर तुम “जैसा तुम्हारा मालिक आज्ञा दे, वैसा करो, वरना तुम्हें अपने सबसे श्रमसाध्य प्रयासों से भी कुछ हासिल नहीं होगा,” कहावत को सत्य मानते हो, तो यह बहुत बड़ी गलती है। जब तुम कुछ लोगों को सत्य समझाने की कोशिश करोगे तो उनकी प्रतिक्रियाएँ धीमी और सुस्त होंगी और वे परमेश्वर के वचनों को कितना भी खाएँ-पिएँ, वे एक या दो सत्य भी नहीं समझ पाएँगे, न ही वे परमेश्वर के वचनों के एक या दो वाक्यांश भी याद रख पाएँगे। मगर जब बात उन जुमलों, मुहावरों और आम कहावतों की आती है जो अक्सर लोगों के बीच फैली होती हैं और उन चीजों की आती है जो आम लोग अक्सर कहते हैं तो वे उन्हें बहुत ही जल्दी स्वीकार लेते हैं। चाहे कोई कितना भी बेवकूफ क्यों न हो, वह भी इन बातों को बहुत ही जल्दी स्वीकार लेता है। ऐसा कैसे मुमकिन है? तुम चाहे किसी भी नस्ल या रंग के हो, अंतिम विश्लेषण में तुम सब मनुष्य हो और सब एक ही किस्म के हो। केवल परमेश्वर ही मनुष्य से अलग किस्म का है। मनुष्य हमेशा दूसरे मनुष्यों की श्रेणी के ही होंगे। इसलिए जब भी परमेश्वर कुछ करता है, सभी मनुष्यों के लिए इसे स्वीकारना आसान नहीं होता, वहीं जब भी मनुष्यों में से कोई कुछ करता है, चाहे वह व्यक्ति कोई भी हो या कितना भी नीच क्यों न हो, अगर कोई बात सभी की धारणाओं के अनुरूप है तो हर कोई इसे तुरंत स्वीकार लेगा, क्योंकि लोगों के विचार, दृष्टिकोण, सोचने के तरीके और समझ के स्तर और मार्ग, मूल रूप से एक जैसे ही होते हैं, उनमें बस थोड़ा-सा ही अंतर होता है। इसलिए अगर कोई व्यक्ति कुछ ऐसी बात कहता है जिसमें धारणाओं वाली विशेषता है और सत्य के अनुरूप नहीं है तो कुछ लोग इसे तुरंत स्वीकार लेंगे और यह ऐसा ही होता है।
क्या तुम कमोबेश यह समझ गए हो कि सत्य क्या है और कौन-सी चीजें सत्य नहीं हैं मगर सत्य होने का दावा करती हैं? ऐसी और कौन-सी चीजें तुम लोगों के दिमाग में हैं? इसे तुम लोग अभी तुरंत दिमाग से याद करके नहीं बता सकते, क्योंकि उन्हें ज्ञान नहीं माना जाता, वे किसी किताब की सामग्री की तरह नहीं हैं जिसे तुम बस पन्ने पलटकर पढ़ सकते हो। बल्कि वे ऐसी चीजें हैं जिन्हें जब तुम्हारे साथ कोई घटना घटती है तब जोर-जोर से कहने से खुद को नहीं रोक सकते, एक बेहद स्वाभाविक तरीके से जिसे तुम नियंत्रित नहीं कर सकते। इससे साबित होता है कि वे चीजें तुम लोगों की जिंदगी बन गई हैं और तुम लोगों के शरीर में गहरी जड़ें जमा चुकी हैं। जब तुम लोगों से उन्हें याद करने के लिए कहा जाता है तो तुम उन्हें याद नहीं कर पाते हो, मगर साथ ही जब तुमसे कहा जाता है कि उनके बारे में मत कहो तो तुम लोग उनके बारे में कहने से खुद को रोक भी नहीं पाते हो। जब भी कुछ घटित होगा, वे विकृत दृष्टिकोण सामने आ जाएँगे—यह एक तथ्य है। इत्मीनान से अनुभव करो। अभी से तुम लोगों को उन चीजों पर ध्यान देना चाहिए जो लोग अक्सर कहते हैं और जिन्हें वे सही मानते हैं। हमने पहले सांसारिक आचरण के लिए बड़े लाल अजगर के कुछ विषों और शैतानी फलसफों का जिक्र किया था। उन चीजों के शाब्दिक अर्थ के परिप्रेक्ष्य से उनका भेद पहचानना आसान हो सकता है, यानी लोग एक बार में समझ सकते हैं कि वे निश्चित रूप से सत्य नहीं हैं और वे साफ तौर पर बता सकते हैं कि वे बड़े लाल अजगर के विष हैं और उनके पीछे कपटी साजिशें छिपी हैं। उन चीजों का भेद पहचानना आसान है और मुझे लगता है कि जब तुम लोगों से उनका गहन-विश्लेषण करने के लिए कहा जाएगा तो तुम कमोबेश उन्हें अलग-अलग कर सकोगे। तुम सबने उन चीजों को त्याग दिया है जो स्पष्ट रूप से शैतानी हैं, मगर तुम सभी के दिलों में अभी भी कई कहावतें बसी हैं, जैसे कि “अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना,” “अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना,” “मुस्कुराते हुए चेहरे को देखकर हाथ मत उठाओ,” “एक उचित कार्य को भरपूर सहयोग मिलता है जबकि अनुचित कार्य को कोई सहयोग नहीं मिलता,” और “एक सज्जन खैरात की चीजें नहीं लेता।” अपने दिल की गहराई में तुम लोग अभी भी इन कहावतों के आगे सही का निशान लगाकर सोच सकते हो, “ये अनमोल हैं। इस जीवन में मुझे कैसे आचरण करना चाहिए, इस बारे में सभी अच्छी बातें इन कहावतों में हैं” और ये बातें अभी भी खोजी नहीं गई हैं। जब वे पूरी तरह से खोज ली जाएँगी और तुम्हें उनके भेद की पहचान हो जाएगी तो भविष्य में जब ये पारंपरिक संस्कृति की चीजें सामने आएँगी, फिर चाहे वह स्वाभाविक प्रतिक्रिया हो या वस्तुगत परिस्थितियों का प्रतिबिंब हो, तुम्हें तुरंत महसूस होगा कि ये चीजें गलत हैं और सत्य तो बिल्कुल भी नहीं हैं। उस समय सत्य के संज्ञान और पहचान का तुम्हारा स्तर अभी से ऊँचा होगा। “अभी से ऊँचा” से मेरा क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि तुम एक निश्चित आध्यात्मिक कद तक पहुँच चुके होगे, तुम्हारी भेद पहचानने की क्षमता में सुधार हुआ होगा, सत्य के बारे में तुम्हारा अनुभव और समझ अभी से ज्यादा गहरी होगी और तुम महसूस करोगे कि वास्तव में सत्य क्या है। अभी तुम सोच सकते हो, “शैतान से आई और इस संसार के सभी जातीय समूहों की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से विकसित हुई सभी पारंपरिक संस्कृतियाँ गलत हैं।” यह इसे कहने का सामान्य तरीका है, मगर तुम शायद अभी तक यह नहीं जानते होगे कि इनमें से कौन-सी चीजें गलत हैं और वे कैसे गलत हैं। इसलिए तुम्हें बारी-बारी से हरेक का गहन-विश्लेषण करना और इन्हें समझना होगा और फिर उस बिंदु पर पहुँचना होगा जहाँ तुम इन्हें त्याग सको, इनकी निंदा कर सको और खुद को इनसे पूरी तरह से अलग करके, इनके अनुसार जीवन जीने के बजाय परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीवन जी सको। अभी तुम बस अपनी व्यक्तिपरक इच्छा के संदर्भ में ही जानते होगे कि वे मुहावरे, सामान्य कहावतें, प्रसिद्ध सूक्तियाँ और वे जुमले जो अक्सर इधर-उधर उछाले जाते हैं, उनका परमेश्वर के वचनों से कोई लेना-देना नहीं है और वे सत्य नहीं हैं, मगर जब भी कुछ घटित होता है, तुम अनजाने में इन शब्दों का इस्तेमाल दूसरों की निंदा करने, खुद को संयम में रखने और अपने व्यवहार का मार्गदर्शन करने के लिए करते हो। वे तुम्हारे विचारों और दृष्टिकोणों को सीमित करते हैं और उनमें हेर-फेर करते हैं, जो परेशानी का कारण बन सकता है और सत्य में तुम्हारे प्रवेश को प्रभावित करेगा। भले ही शैतान से आई ये चीजें अभी भी किसी दिन तुम्हारे दिल में प्रकट हो सकती हैं, फिर भी अगर तुम उनका भेद पहचानने में सक्षम होते हो, उन पर भरोसा किए बिना जीते हो और सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करते हो तो तुम्हारे पास वास्तव में आध्यात्मिक कद होगा। क्या तुम्हारे पास अभी यह आध्यात्मिक कद है? अभी तक तो नहीं। अगर ऐसी कोई कहावत है जिसे तुम लोग सही मानते हो और अगर शायद इस जैसे कथन परमेश्वर के वचनों में मिल सकते हैं—भले ही वे बिल्कुल उसी तरह से व्यक्त नहीं किए गए हों—तुम गलती से यह मान सकते हो कि यह कहावत भी सत्य है और यह परमेश्वर के वचनों के समान ही है। अगर तुम अभी भी इन मामलों को स्पष्टता से नहीं देख सकते, अभी भी मनुष्य के शब्दों से चिपके हुए हो और उन्हें त्यागने के लिए तैयार नहीं हो तो यह कहावत तुम्हारे सत्य में प्रवेश को प्रभावित करेगी, क्योंकि यह परमेश्वर के वचन नहीं है और यह सत्य का स्थान नहीं ले सकती है।
आजकल मैं लगातार इस बारे में संगति कर रहा हूँ कि सत्य क्या है। इसका मतलब है कि मैं तुम लोगों के प्रति गंभीर हूँ। तुम लोग सत्य को समझ सको, इसके लिए हमें लोगों के विभिन्न विचारों और दृष्टिकोणों, उनके अच्छे कर्मों और नेक इरादों और कुछ सही कहावतों और व्यावहारिक प्रथाओं को लेना होगा जिन पर लोग जीने के लिए भरोसा करते हैं, साथ ही पारंपरिक संस्कृति के कुछ विचारों और दृष्टिकोणों को भी लेकर उन सभी का गहन-विश्लेषण करना और भेद पहचानना होगा, ताकि यह देखा जा सके कि क्या वे वास्तव में सत्य के अनुरूप हैं और क्या उनका वास्तव में सत्य से कोई लेना-देना है। अगर तुम उन्हें सत्य मानते हो तो तुम्हारे इस दावे का आधार क्या है? अगर तुम शैतानी सिद्धांतों और शिक्षाओं के आधार पर उन्हें सत्य के रूप में निरूपित करते हो तो तुम शैतान के हो। अगर ये चीजें सत्य के अनुरूप नहीं हैं तो वे शैतान से आती हैं, इसलिए तुम्हें यह गहन-विश्लेषण करना होगा कि वास्तव में उनका सार क्या है। खास तौर पर व्यक्ति को पारंपरिक संस्कृति की उन कहावतों और विचारों के प्रति सही समझ और सही रवैया रखना चाहिए जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक मौखिक रूप से प्रचारित होते आए हैं। सिर्फ इसी तरह लोग वास्तव में यह समझ और जान सकेंगे कि सत्य वास्तव में क्या है और यह भी समझ सकेंगे कि वास्तव में परमेश्वर लोगों से क्या अपेक्षा रखता है और “परमेश्वर जो कुछ भी कहता है वह सत्य है” वाक्यांश का वास्तव में क्या अर्थ है। साथ ही—यह देखते हुए कि मनुष्यों के पास ये विचार और कहावतें हैं जो कथित रूप से नैतिक आचरण, मानवता और मानवीय संबंधों की सांसारिक परंपराओं के अनुरूप हैं और उनके पास वे सभी विचार, दृष्टिकोण और कहावतें हैं जिन पर वे भरोसा करते हैं—इससे लोग यह भी जान सकेंगे कि परमेश्वर लोगों को बचाने के लिए अभी भी सत्य क्यों व्यक्त करता है और फिर, परमेश्वर ऐसा क्यों कहता है कि सत्य ही लोगों को बचा सकता है और सत्य ही उन्हें बदल सकता है। जाहिर है कि यहाँ सत्य खोजना जरूरी है। कम से कम, एक बात तो यह है कि जीवन में लोग जिन विचारों, दृष्टिकोणों और कहावतों पर भरोसा करते हैं, वे सब भ्रष्ट मानवजाति से आते हैं, भ्रष्ट मानवजाति ही इन्हें जोड़-गाँठ कर तैयार करती है और ये लोगों की धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं जिनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। इसके अलावा ये चीजें मूल रूप से सत्य से टकराती हैं और उसके प्रतिकूल हैं। वे सत्य की जगह नहीं ले सकतीं, वे निश्चित रूप से सत्य नहीं हैं और न ही वे कभी सत्य होंगी। परमेश्वर के परिप्रेक्ष्य से, इन चीजों को गलत और निंदनीय बताया गया है, और वे सत्य बिल्कुल भी नहीं हैं। परमेश्वर के कार्य और परमेश्वर जो सत्य व्यक्त करता है उनका इन चीजों से कोई लेना-देना नहीं है। यानी परमेश्वर जो सत्य व्यक्त करता है उसका लेशमात्र भी संबंध भ्रष्ट मानवजाति की मानवीय संबंधों की सांसारिक परंपराओं से या लोगों की पारंपरिक संस्कृति, उनके विचारों, दृष्टिकोणों और अच्छे कर्मों से या नैतिकता, गरिमा और सकारात्मक चीजों की उनकी परिभाषा से नहीं है। सत्य की अपनी अभिव्यक्ति में परमेश्वर अपने स्वभाव और सार को व्यक्त करता है; सत्य की उसकी अभिव्यक्ति लोगों द्वारा विश्वास की जाने वाली उन विभिन्न सकारात्मक चीजों और वक्तव्यों पर आधारित नहीं है जिनका निचोड़ मानवजाति तैयार करती है। परमेश्वर के वचन परमेश्वर के वचन हैं; परमेश्वर के वचन सत्य हैं। वे एकमात्र वह नींव और विधान हैं जिनसे मानवजाति का अस्तित्व है और इंसान से उत्पन्न होने वाली सभी तथाकथित मान्यताएँ गलत, बेतुकी और परमेश्वर द्वारा निंदनीय हैं। उन्हें परमेश्वर की स्वीकृति नहीं मिलती और वे उसके कथनों का मूल या आधार तो और भी नहीं हैं। परमेश्वर अपने वचनों के माध्यम से अपने स्वभाव और अपने सार को व्यक्त करता है। परमेश्वर द्वारा व्यक्त सभी वचन सत्य हैं, क्योंकि परमेश्वर में परमेश्वर का सार है और वह सभी सकारात्मक चीजों की वास्तविकता है। यह भ्रष्ट मानवजाति परमेश्वर के वचनों को चाहे कैसे भी प्रस्तुत या परिभाषित करे या उन्हें कैसे भी देखे या समझे, परमेश्वर के वचन शाश्वत रूप से सत्य हैं और यह एक ऐसा तथ्य है जो कभी नहीं बदलता। परमेश्वर ने चाहे कितने भी वचन क्यों न बोले हों और यह भ्रष्ट, दुष्ट मानवजाति चाहे उनकी कितनी भी निंदा क्यों न करे, उन्हें कितना भी अस्वीकार क्यों न करे, एक तथ्य ऐसा है जो हमेशा अपरिवर्तनीय रहता है : परमेश्वर के वचन सदा सत्य होंगे और मनुष्य इसे कभी बदल नहीं सकता। आखिर में मनुष्य को यह मानना होगा कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं और मानवजाति की महिमामयी परंपरागत संस्कृति और वैज्ञानिक जानकारी कभी भी सकारात्मक चीजें नहीं बन सकतीं और वे कभी भी सत्य नहीं बन सकतीं। यह अटल है। मानवजाति की पारंपरिक संस्कृति और अपना अस्तित्व बचाने की रणनीतियाँ परिवर्तनों या समय बीतने के कारण सत्य नहीं बन जाएँगी, न ही परमेश्वर के वचन मानवजाति की निंदा या विस्मृति के कारण मनुष्य के शब्द बन जाएँगे। सत्य हमेशा सत्य होता है; यह सार कभी नहीं बदलेगा। यहाँ कौन-सा तथ्य मौजूद है? यह कि मानवजाति द्वारा जोड़-गाँठ कर तैयार की गईं इन सामान्य कहावतों का स्रोत शैतान और मानवीय कल्पनाएँ और धारणाएँ हैं, वे मनुष्य के फितूर और उसके भ्रष्ट स्वभाव से उत्पन्न होती हैं और उनका सकारात्मक चीजों से कोई लेना-देना नहीं है। दूसरी ओर, परमेश्वर के वचन परमेश्वर के सार और पहचान की अभिव्यक्ति हैं। वह इन वचनों को किस कारण से व्यक्त करता है? मैं क्यों कहता हूँ कि वे सत्य हैं? इसका कारण यह है कि परमेश्वर सभी विधानों, नियमों, जड़ों, सार-तत्वों, वास्तविकताओं और सभी चीजों के रहस्यों पर संप्रभु है। वे सब उसके हाथ में हैं। इसलिए सिर्फ परमेश्वर ही सभी चीजों के नियमों, वास्तविकताओं, तथ्यों और रहस्यों को जानता है। परमेश्वर सभी चीजों के मूल को जानता है और परमेश्वर जानता है कि वास्तव में सभी चीजों की जड़ क्या है। सिर्फ परमेश्वर के वचनों में दी गई सभी चीजों की परिभाषाएँ ही सबसे सटीक हैं और सिर्फ परमेश्वर के वचन ही मनुष्यों के जीवन के लिए मानक और सिद्धांत हैं और ये वे सत्य और मानदंड हैं जिनके अनुसार मनुष्य जी सकते हैं, जबकि मनुष्य ने शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जाने के बाद से जीने के लिए जिन शैतानी विधानों और सिद्धांतों पर भरोसा किया है, वे सभी सीधे तौर पर इस तथ्य के विपरीत हैं कि परमेश्वर सभी चीजों पर और सभी चीजों के विधानों और नियमों पर संप्रभुता रखता है। मनुष्य के सभी शैतानी सिद्धांत मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं से उत्पन्न होते हैं और वे शैतान से आते हैं। शैतान किस तरह की भूमिका निभाता है? सबसे पहले, वह खुद को सत्य के रूप में प्रस्तुत करता है; इसके बाद, वह परमेश्वर द्वारा बनाई गई सभी चीजों के सभी विधानों और नियमों में बाधा डालता है, उन्हें नष्ट करता और रौंदता है। इसलिए जो शैतान से आता है वह शैतान के सार से बहुत अच्छी तरह मेल खाता है और यह शैतान के दुष्ट उद्देश्य, जालसाजी और दिखावे से भरा हुआ है और शैतान की ऐसी महत्वाकांक्षा से भरा हुआ है जो कभी नहीं बदलेगी। भ्रष्ट मनुष्य शैतान के इन फलसफों और सिद्धांतों को चाहे पहचान पाएँ या नहीं, चाहे कितने ही लोग इन चीजों का प्रचार, प्रसार और अनुसरण करें और चाहे कितने ही वर्षों और युगों से भ्रष्ट मानवजाति ने उनकी प्रशंसा की हो, उनकी आराधना की हो और उनके बारे में प्रचार किया हो, वे सत्य नहीं बनेंगी। क्योंकि उनका सार, मूल और स्रोत शैतान है जो परमेश्वर और सत्य के प्रति शत्रुवत है, इसलिए ये चीजें कभी भी सत्य नहीं बनेंगी—वे हमेशा नकारात्मक चीजें ही रहेंगी। जब तुलना करने के लिए कोई सत्य नहीं होता तो उन्हें अच्छी और सकारात्मक चीजों के रूप में स्वीकार किया जा सकता है, मगर जब सत्य का उपयोग उन्हें उजागर करने और उनका गहन-विश्लेषण करने के लिए किया जाता है तो वे त्रुटिहीन नहीं हैं, वे जाँच-पड़ताल में टिक नहीं पातीं और वे ऐसी चीजें हैं जिनकी तुरंत निंदा करके ठुकरा दिया जाता है। परमेश्वर द्वारा व्यक्त किया गया सत्य परमेश्वर द्वारा सृजित मानवजाति की सामान्य मानवता की जरूरतों के साथ एकदम मेल खाता है, जबकि शैतान लोगों में जो चीजें डालता है, वे मानवजाति की सामान्य मानवता की जरूरतों के बिल्कुल विपरीत हैं। वे एक सामान्य व्यक्ति को असामान्य बना देती हैं और उसे अतिवादी, संकीर्ण सोच वाला, अहंकारी, मूर्ख, दुष्ट, अड़ियल, क्रूर और यहाँ तक कि हद से ज्यादा अभिमानी बना देती हैं। एक समय ऐसा आता है जब यह मामला इतना गंभीर हो जाता है कि लोग विक्षिप्त हो जाते हैं और उन्हें यह भी पता नहीं होता कि वे कौन हैं। वे सामान्य या साधारण व्यक्ति नहीं बनना चाहते, बल्कि वे अतिमानव, विशेष शक्तियों वाले लोग या ऊँचे स्तर के मनुष्य बनना चाहते हैं—इन चीजों ने लोगों की मानवता को विकृत कर दिया है और उनकी सहज प्रवृत्ति को विकृत कर दिया है। सत्य लोगों को सामान्य मानवता के नियमों और विधानों और साथ ही परमेश्वर द्वारा स्थापित इन सभी नियमों के अनुसार अधिक सहजता से जीने में सक्षम बनाता है, जबकि ये तथाकथित सामान्य लोकोक्तियाँ और भ्रामक कहावतें लोगों को मानवीय सहज प्रवृत्ति के विरुद्ध कर देती हैं और परमेश्वर द्वारा निर्धारित और तैयार किए गए विधानों से बच निकलने में उनकी मदद करती हैं, यहाँ तक कि लोगों को सामान्य मानवता के मार्ग से भटका देती हैं और कुछ ऐसी चरम चीजें करने के लिए मजबूर करती हैं जो सामान्य लोगों को नहीं करनी चाहिए और जिनके बारे में उन्हें नहीं सोचना चाहिए। ये शैतानी विधान न सिर्फ लोगों की मानवता को विकृत करते हैं, बल्कि इनके कारण लोग अपनी सामान्य मानवता को और सामान्य मानवीय सहज प्रवृत्ति को भी खो देते हैं। उदाहरण के लिए, शैतानी विधान कहते हैं, “किसी व्यक्ति की नियति उसी के हाथ में होती है” और “खुशहाली अपने दोनों हाथों से लाई जाती है।” यह परमेश्वर की संप्रभुता और मानवीय सहज प्रवृत्ति के विपरीत है। जब लोगों का शरीर और सहज प्रवृत्ति एक सीमा पर पहुँच जाती है या जब उनका भाग्य एक महत्वपूर्ण मोड़ पर होता है तो शैतान के इन विधानों पर भरोसा करने वाले लोग इसे सहन नहीं कर पाते। ज्यादातर लोगों को लगता है कि दबाव उनकी सीमा और उनके दिमाग की सहनशक्ति से परे चला गया है और अंत में कुछ लोग मनोविभ्रम की बीमारी से ग्रस्त हो जाते हैं। अभी कॉलेज में दाखिला लेने के लिए परीक्षा देने वाले लोगों पर उन परीक्षाओं से पैदा होने वाला बहुत ज्यादा दबाव है। लोगों की शारीरिक स्थिति और मानसिक खूबियाँ अलग-अलग होती हैं; कुछ लोग अपने को ऐसी व्यवस्था में ढाल सकते हैं जबकि अन्य नहीं। अंत में कुछ लोग अवसादग्रस्त हो जाते हैं, जबकि अन्य मनोविभ्रम से ग्रस्त हो जाते हैं और यहाँ तक कि इमारतों से कूदकर आत्महत्या भी कर लेते हैं—सभी तरह की घटनाएँ होती हैं। इन दुष्परिणामों का क्या कारण है? इसका कारण यह है कि शैतान लोगों को शोहरत और लाभ के पीछे भागने के लिए गुमराह कर देता है, जिससे लोगों को नुकसान होता है। अगर लोग स्वाभाविक रूप से परमेश्वर द्वारा निर्धारित नियमों के अनुसार और लोगों के लिए परमेश्वर द्वारा निर्धारित तरीके से जी सकें, परमेश्वर के वचन पढ़ सकें और परमेश्वर के समक्ष रह सकें तो क्या वे विक्षिप्त होंगे? क्या उन्हें इतना दबाव सहना पड़ेगा? बिल्कुल भी नहीं। परमेश्वर अपना कार्य इसलिए करता है ताकि लोग सत्य समझें, अपने भ्रष्ट स्वभाव त्याग दें और परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करें। इस तरह लोग बिना किसी दबाव के परमेश्वर के समक्ष जी सकते हैं और सिर्फ स्वतंत्रता और मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। मानवजाति की रचना परमेश्वर ने की थी और सिर्फ परमेश्वर ही मानवीय सहज प्रवृत्ति और लोगों के बारे में सब कुछ जानता है। परमेश्वर लोगों का मार्गदर्शन करने और उनकी जरूरतों को पूरा करने के लिए अपने बनाए नियमों का उपयोग करता है, जबकि शैतान ऐसा बिल्कुल नहीं करता। वह लोगों से इन सभी नियमों का उल्लंघन करवाता है और उन्हें अतिमानव और कामयाब बनने के लिए मजबूर करता है। क्या यह लोगों के साथ छल करना नहीं है? लोग वास्तव में सामान्य और साधारण होते हैं—वे अतिमानव या विशेष शक्तियों वाले व्यक्ति कैसे बन सकते हैं? क्या यह लोगों को बर्बाद करना नहीं है? तुम चाहे कितना भी संघर्ष करो, तुम्हारी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ चाहे कितनी भी बड़ी हों, तुम अतिमानव या विशेष शक्तियों वाले व्यक्ति नहीं बन सकते। भले ही तुम खुद को इस हद तक बर्बाद कर लो कि तुम मानवता की सारी झलक खो दो, तब भी तुम अतिमानव या विशेष शक्तियों वाले व्यक्ति नहीं बन सकते। जीवन में किसी व्यक्ति को जो भी आजीविका अपनानी है, वह परमेश्वर द्वारा पहले से निर्धारित है। अगर तुम परमेश्वर द्वारा बनाए गए विधानों और नियमों के अनुसार नहीं जीते, बल्कि शैतान के गुमराह करने वाले और दानवी शब्दों को चुनते हो और अतिमानव या विशेष शक्तियों वाला व्यक्ति बनने की कोशिश करते हो तो तुम्हें पीड़ा सहनी होगी और मरना पड़ेगा। यानी अगर तुम शैतान द्वारा बर्बाद होने, कुचले जाने और भ्रष्ट होने को स्वीकारना चुनते हो तो तुम जो कुछ भी सहते हो, वह तुम्हारे अपने क्रियाकलापों का अंजाम है, तुम इसी के हकदार हो और यह तुम्हारी अपनी इच्छा से है। कुछ लोग कॉलेज में दाखिला लेने के लिए परीक्षा देते हैं, दो-तीन बार इसमें असफल हो जाते हैं और फिर कभी उत्तीर्ण न होने के कारण पागल हो जाते हैं। क्या यह कुछ ऐसा है जो उन्होंने खुद पर लादा है? तुम कॉलेज प्रवेश परीक्षा क्यों देना चाहते हो? क्या यह सिर्फ दूसरों से आगे निकलने और अपने पूर्वजों के लिए सम्मान अर्जित करने के लिए नहीं है? अगर तुम दूसरों से आगे निकलने और अपने पूर्वजों के लिए सम्मान अर्जित करने के इन दो लक्ष्यों को छोड़ दो और इन चीजों के पीछे न भागो, बल्कि इसके बजाय एक सही लक्ष्य पर ध्यान दो तो क्या दबाव गायब नहीं हो जाएगा? अगर तुम शैतान की भ्रष्टता स्वीकारते हो और अगर तुम इन सभी विचारों और दृष्टिकोणों को स्वीकारते हो तो तुम्हारे शरीर को हर तरह की पीड़ा सहनी पड़ेगी और यह उससे कम नहीं होगा जिसके तुम हकदार हो! यह अंजाम तुम्हीं ने चुना है और यह तुम्हारा ही करा-धरा है। यह परमेश्वर द्वारा पहले से निर्धारित नहीं है। परमेश्वर तुम्हें इस तरह जीने के लिए मजबूर नहीं करता। परमेश्वर के वचनों ने पहले ही चीजों को बहुत स्पष्ट कर दिया है, मगर तुम ही हो जो परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास नहीं करते। किसी व्यक्ति के शरीर, इच्छाशक्ति और मानसिक गुणों की एक सीमा होती है, मगर लोग खुद इसका एहसास नहीं करते और उल्टा कुछ और सोचते हैं, यहाँ तक कि कहते हैं कि उनका भाग्य उनके अपने ही हाथों में है, फिर भी अंत में वे अपने भाग्य पर नियंत्रण पाने में सफल नहीं हो पाते और एक दयनीय और दुखद मौत मरते हैं। यह अपने भाग्य पर नियंत्रण रखना कैसे हुआ? शैतान इसी तरह लोगों को भ्रष्ट करने के लिए सभी प्रकार के भ्रामक विचारों और सभी प्रकार के पाखंडों और भ्रांतियों का इस्तेमाल करता है। लोग खुद भी यह नहीं जानते और उन्हें यह सोचकर अच्छा भी लगता है, “समाज लगातार प्रगति कर रहा है, हमें समय के साथ तालमेल बनाकर रखना चाहिए और उस सारी सकारात्मक ऊर्जा को स्वीकारना चाहिए।” ये पूरी तरह से शैतानी शब्द हैं। शैतानी अविश्वासी संसार में कोई सकारात्मक ऊर्जा कैसे हो सकती है? यह सब नकारात्मक ऊर्जा है, यह सब कैंसर है और यह सब सिर्फ एक विस्फोटक स्थिति है। अगर तुम इन चीजों को स्वीकारते हो तो तुम्हें इनके प्रतिकूल अंजाम भुगतने होंगे और तुम्हें शैतान की यातना और अत्याचार भी सहना होगा। सत्य का अनुसरण नहीं करने से यही होता है। शैतान का अनुसरण करने से तुम्हारा अंत कैसे अच्छा होगा? शैतान तुम्हें जहर देने और तुम्हारे अंदर जहर भरने के लिए हर मुमकिन कोशिश करेगा। परमेश्वर तुम्हें बचाता है; शैतान तुम्हें नुकसान पहुँचाता है। परमेश्वर तुम्हारी बीमारियों को ठीक करता है; शैतान तुम्हें बीमार करने के लिए तुम्हारे अंदर जहर भरता है। तुम शैतान से जितना ज्यादा जहर स्वीकारते हो, तुम्हारे लिए सत्य को स्वीकारना उतना ही कठिन बन जाता है। यही सच है। सत्य क्या है, इस विषय पर हमारी संगति यहीं समाप्त होती है। इसके बाद हम एक दूसरे विषय पर संगति करेंगे।
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