मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते और वे व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ विश्वासघात तक कर देते हैं (भाग एक) खंड दो

भले ही कुछ लोग विदेश आकर यूरोप और अन्य एशियाई देशों की कुछ संस्कृतियों, परंपराओं, नियमों और जीवन की बुनियादी जरूरतों जैसी भौतिक चीजों के संपर्क में आते हैं और दूसरे देशों के कुछ कानूनों और सामान्य ज्ञान से परिचित हो जाते हैं, मगर उनके लिए अपने देश की उन परंपराओं से पीछा छुड़ाना मुश्किल होता है। भले ही तुमने अपनी जन्मभूमि छोड़कर दूसरे देश में जीवन के रोजमर्रा के पहलुओं और यहाँ तक कि उसके कानूनों और व्यवस्थाओं को भी स्वीकार लिया है, मगर तुम यह नहीं जानते कि तुम्हारे मन में रोज क्या चलता है या जब तुम्हारे साथ कुछ घटता है तो तुम किस तरह से मसलों का सामना करते हो या तुम कौन-सा दृष्टिकोण और परिप्रेक्ष्य अपनाते हो। कुछ लोग सोचते हैं, “मैं पश्चिम में हूँ तो क्या मैं एक पश्चिमी हूँ?” या फिर “मैं जापान में हूँ तो क्या मैं जापानी हूँ?” क्या यही होता है? (नहीं।) जापानी लोग कहते हैं : “हमें सूशी और उडोन नूडल्स खाना सबसे ज्यादा पसंद है। क्या यह हमें कुलीन नहीं बनाता है?” दक्षिण कोरियाई कहते हैं : “हमें चावल और किमची खाना पसंद है। क्या हमारा महान दक्षिण कोरियाई राष्ट्र कुलीन नहीं है? तुम चीनी लोग कहते हो कि तुम्हारी संस्कृति प्राचीन है और हमसे हजारों साल पुरानी है, मगर क्या तुम लोग अपने बड़ों के प्रति वैसी ही संतानोचित निष्ठा दिखाते हो जैसी हम दिखाते हैं? क्या तुम उतने ही पारंपरिक हो जितने हम हैं? क्या तुम्हारे पास हमारे जितने नियम हैं? तुम लोग आजकल इन चीजों के बारे में बात नहीं करते, तुम लोग पीछे रह गए हो; हम सच्चे पारंपरिक लोग हैं और हमारी संस्कृति सच्ची संस्कृति है!” उन्हें लगता है कि उनकी पारंपरिक संस्कृति उन्नत है और वे बहुत सी चीजों को विश्व धरोहर घोषित करने के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं। यह सब प्रतिस्पर्धा क्यों? हर देश, हर जाति और यहाँ तक कि हर छोटा जातीय समूह यह मानता है कि उनके पूर्वजों द्वारा छोड़ी गई चीजें, नियम, परंपराएँ और रीति-रिवाज अच्छे और सकारात्मक हैं और मानवजाति इनका प्रचार-प्रसार कर सकती है। क्या उनके इस विचार और दृष्टिकोण का यह अर्थ नहीं है कि ये सत्य हैं, ये अच्छी और सकारात्मक चीजें हैं और उन्हें इस मानवजाति द्वारा आगे बढ़ाया जाना चाहिए? तो क्या ये चीजें जो आगे बढ़ाई जाती हैं, स्वतंत्रता के साथ टकराती हैं? मैंने अभी-अभी एक ऐसे युवक का उदाहरण दिया जो अपने परिवार की बेड़ियों से आजाद हो गया है, उसने अपने पूरे शरीर पर छल्ले, बालियाँ और टैटू पहने हैं और उसकी एक विदेशी महिला मित्र भी है। उसके बाहरी रूप और शरीर की बात करें तो ऐसा प्रतीत होता है कि वह पारिवारिक नियमों का पालन नहीं करता है और उसने परंपरा को त्याग दिया है। औपचारिकताओं के संदर्भ में और अपने व्यवहार में, और यहाँ तक कि अपनी व्यक्तिपरक इच्छा के संदर्भ में भी उसने परिवार, परंपरा और रीति-रिवाज जैसी चीजों को त्याग दिया है। मगर एक जन्मदिन का तोहफा उसे उजागर कर देता है, उसके इस विश्वास की निंदा करता है और उसे खारिज करता है कि वह “बेहद अपारंपरिक” है। तो यह व्यक्ति वास्तव में पारंपरिक है या नहीं? (वह पारंपरिक है।) पारंपरिक होना अच्छी बात है या खराब? (खराब।) इसीलिए चाहे तुम खुद को पारंपरिक मानो या अपारंपरिक और चाहे तुम्हारी जाति कोई भी हो—चाहे वह तथाकथित कुलीन जाति हो या साधारण जाति—तुम्हारे आंतरिक विचार सीमित हैं। तुम स्वतंत्रता का चाहे कितना भी अनुसरण और सम्मान करो, परंपरा की ताकतों और पारंपरिक पारिवारिक रूढ़ियों से आजाद होने के लिए तुम्हारा संकल्प, इच्छा और महत्वाकांक्षा चाहे कितनी भी बड़ी हो या तुम्हारे वास्तविक क्रियाकलाप चाहे कितने भी प्रेरक और शक्तिशाली हों, अगर तुम सत्य को नहीं समझते तो तुम केवल शैतान द्वारा अपने अंदर भरी गई शिक्षाओं और भ्रांतियों के बीच उलझे रह सकते हो, उनसे उभर नहीं सकते। कुछ लोग पारंपरिक संस्कृति से प्रभावित होते हैं, तो कुछ वैचारिक शिक्षा से, अन्य लोग पद और हैसियत से प्रभावित होते हैं और कुछ लोग किसी तरह की वैचारिक प्रणाली से प्रभावित होते हैं। उदाहरण के लिए, राजनीति में संलग्न लोगों को ही ले लो, जैसे कि साम्यवाद की वकालत करने वाले लोगों का गिरोह। उन्होंने सर्वहारा लोगों के एक समूह के रूप में शुरुआत की, साम्यवादी घोषणापत्र और सिद्धांतों को स्वीकारा, परंपरा से नाता तोड़ा, सामंती राजशाही से नाता तोड़ा और फिर कुछ पुराने रीति-रिवाजों से नाता तोड़कर मार्क्सवाद-लेनिनवाद और साम्यवाद को स्वीकार लिया। इन चीजों को स्वीकारने के बाद क्या वे लोग आजाद हो गए या हमेशा प्रतिबंधित ही रहे? (वे हमेशा प्रतिबंधित ही रहे।) उन्होंने सोचा था कि पुरानी चीज को छोड़कर नई चीज अपनाने से वे आजाद हो जाएँगे। क्या यह विचार गलत नहीं है? (हाँ, यह गलत है।) यह गलत है। लोग पुरानी चीज छोड़कर किसी भी नई चीज को अपना सकते हैं, लेकिन अगर यह सत्य नहीं है तो वे हमेशा के लिए शैतान के जाल में फँसे रहेंगे—यह सच्ची स्वतंत्रता नहीं है। कुछ लोग खुद को साम्यवाद या किसी खास मकसद के लिए समर्पित करते हैं, कुछ लोग खुद को किसी शपथ के लिए समर्पित करते हैं, जबकि अन्य लोग खुद को किसी सिद्धांत के लिए समर्पित कर देते हैं और फिर कुछ ऐसे लोग भी हैं जो इन कहावतों का पालन करते हैं, जैसे कि “मैं अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लूँगा,” या “वफादार प्रजा दो राजाओं की सेवा नहीं कर सकती,” या “जब राष्ट्र पर कोई मुसीबत आए, तो हर किसी को अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए।” क्या इनका संबंध पारंपरिक संस्कृति से है? (हाँ।) बाहर से ये चीजें मानवजाति के बीच कुछ बहुत ही सकारात्मक, बहुत उचित और खास तौर पर ऊँची और कुलीन चीजों जैसी लग सकती हैं, मगर वास्तव में दूसरे परिप्रेक्ष्य से और अलग अर्थ में देखें तो वे लोगों की आत्माओं को बाँधती हैं, लोगों को प्रतिबंधित करती हैं और उन्हें सच्ची स्वतंत्रता पाने से रोकती हैं। लेकिन इससे पहले कि मनुष्य सत्य को समझे, वे केवल स्वयं को खोया हुआ महसूस कर सकते हैं और इस प्रकार इन चीजों को, जिन्हें मानवजाति के बीच अपेक्षाकृत सकारात्मक माना जाता है, अपने जीवन जीने के तरीके के रूप में स्वीकार लेते हैं। इसलिए ये तथाकथित पारंपरिक संस्कृतियाँ—ये चीजें जो मनुष्य को संसार में काफी अच्छी लगती हैं—लोगों द्वारा स्वाभाविक रूप से स्वीकार ली जाती हैं। उन्हें स्वीकारने के बाद लोगों को लगता है कि वे पूँजी, आत्मविश्वास और प्रेरणा के साथ जी रहे हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोगों ने ज्ञान और प्रमाण पत्रों के संबंध में इस समाज और मानवजाति के बारे में एक रुख स्वीकार लिया है। यह रुख क्या है? (ज्ञान तुम्हारा भाग्य बदल सकता है।) (अन्य अनुसरण छोटे हैं, किताबें उन सबसे श्रेष्ठ हैं।) अपने दिल की गहराई में लोग इन बातों से सहमत होते हैं, इन्हें स्वीकारते हैं और इनका समर्थन भी करते हैं। इन्हें स्वीकारने और इनका समर्थन करने के साथ-साथ लोग जितना ज्यादा इस समाज में प्रतिकूल परिस्थितियों के विरुद्ध संघर्ष करते हैं, उतना ही ज्यादा वे इन चीजों को सँजोते हैं। ऐसा क्यों है? क्योंकि सभी लोग जीवन में ज्ञान पर भरोसा करते हैं। ज्ञान और इन प्रमाण पत्रों के बिना, तुम समाज में अपने पाँव जमाने में असमर्थ महसूस करते हो। दूसरे लोग तुम्हें धमकाएँगे और तुम्हारे साथ भेदभाव करेंगे और इसलिए तुम इन चीजों के पीछे बेतहाशा भागते हो। तुम्हारे प्रमाण पत्र जितने ऊँचे होंगे, समाज में या तुम्हारी जाति या समुदाय में तुम्हारा सामाजिक दर्जा उतना ही ऊँचा होगा और तुम्हारे बारे में लोगों की प्रशंसा और तुम्हारे साथ उनका व्यवहार, और कई अन्य चीजें उन्नत और बेहतर होंगी। एक तरह से किसी व्यक्ति के प्रमाण पत्र ही उसका सामाजिक दर्जा निर्धारित करते हैं।

अतीत में विश्वविद्यालय के सात-आठ प्रोफेसरों का एक समूह आगे की पढ़ाई के लिए बीजिंग गया था। उन दिनों पिकअप या ड्राइवर की सेवाएँ शायद उपलब्ध नहीं थीं, इसलिए उन्हें बीजिंग पहुँचने के बाद बस लेनी पड़ी। वास्तव में उनके जैसे प्रोफेसर बीजिंग में हर जगह पाए जाते थे। उन्हें कुछ खास नहीं माना जाता था, वे बस साधारण लोग माने जाते थे। मगर वे खुद यह बात नहीं जानते थे और इसी में समस्या की गंभीरता थी—इस मामले का आधार यह समस्या थी। असल में हुआ क्या था? प्रोफेसरों का यह समूह बस स्टॉप पर बस का इंतजार कर रहा था। वे इंतजार करते रहे, ज्यादा से ज्यादा लोग इकट्ठा होने लगे और जैसे-जैसे भीड़ बढ़ती गई, सभी लोग बेचैन हो गए। फिर जब बस आई तो वे सभी लोग यात्रियों के उतरने का इंतजार किए बिना ही बस में चढ़ गए, एक-दूसरे को धक्का-मुक्की करते हुए खूब हंगामा मचाने लगे। काफी अफरातफरी मच गई। इन प्रोफेसरों ने इस बारे में सोचा और कहा : “जाहिर है कि बीजिंग में हमारे साथी नागरिकों के लिए हर दिन काम से आने-जाने के लिए बस से सफर करना आसान नहीं है। विश्वविद्यालय के प्रोफेसर होने के नाते हमें लोगों की परिस्थितियों के प्रति विचारशील होना चाहिए। उच्च-स्तरीय बुद्धिजीवी होने के नाते हम आम लोगों से होड़ नहीं ले सकते। हमें लेई फेंग की तरह निस्वार्थी होकर उन्हें पहले इस बस में चढ़ने देना चाहिए, इसलिए धक्का-मुक्की करके नहीं घुसते हैं।” वे सभी इस पर सहमत हो गए और अगली बस का इंतजार करने का फैसला किया। मगर हुआ यूँ कि जब अगली बस आई तब भी उतने ही लोग थे और एक बार फिर वे भेड़-बकरियों की तरह उसमें चढ़ गए। प्रोफेसर भौचक्के रह गए। उन्होंने बस को भरते और जाते हुए देखा और एक बार फिर वे उसमें चढ़ने में नाकामयाब रहे। उन्होंने दोबारा आपस में चर्चा की और कहा, “हमें कोई जल्दी नहीं है। आखिरकार हम उच्च-स्तरीय बुद्धिजीवी हैं, हम बसों में चढ़ने के लिए आम लोगों से नहीं लड़-भिड़ सकते। चलो थोड़ा और रुकते हैं, शायद अगली बस के लिए इंतजार करने वाले इतने सारे लोग न हों।” तीसरी बस का इंतजार करते हुए ये प्रोफेसर थोड़े बेचैन हो रहे थे। उनमें से कुछ ने अपनी मुट्ठियाँ भींचते हुए कहा, “अगर इस बस में चढ़ने वाले उतने ही लोग हुए तो क्या हमें धक्का-मुक्की करके बस में घुस जाना चाहिए? अगर हम ऐसे नहीं घुसे तो मेरे खयाल से हम पाँचवीं या छठी बस में भी नहीं चढ़ पाएँगे, इसलिए हमें घुस ही जाना चाहिए!” दूसरों ने कहा : “क्या उच्च-स्तरीय बुद्धिजीवी धक्का-मुक्की करके बसों में घुस सकते हैं? इससे हमारी छवि खराब हो जाएगी! अगर किसी दिन लोगों को पता चला कि हम उच्च-स्तरीय बुद्धिजीवी भी बसों में धक्का-मुक्की करके घुस जाते हैं तो कितनी शर्म की बात होगी!” उन सबकी राय अलग-अलग थी। जब वे चर्चा कर रहे थे तो बस का इंतजार करने वाले लोगों की एक और भीड़ इकट्ठी हो गई। तब तक प्रोफेसर बहुत घबरा गए थे और उन्होंने चर्चा करना बंद कर दिया था। जब बस आई, जैसे ही दरवाजे खुले तो सभी के उतरने से पहले ही प्रोफेसरों ने पिछली भीड़ की नकल करते हुए अपनी पूरी ताकत लगाकर बस में घुसने की कोशिश की। उनमें से कुछ धक्का-मुक्की करके बस में घुस पाए, जबकि कुछ परिष्कृत बुद्धिजीवी—परिष्कृत विद्वान—अंदर धक्का-मुक्की करके घुसने में नाकामयाब रहे, क्योंकि उनमें वह जोश और जुझारूपन नहीं था। चलो इस मामले को यहीं छोड़ते हैं। मुझे बताओ, क्या यह तथ्य नहीं है? (है।) बसों में भीड़-भाड़ होना बहुत आम बात है और ये बुद्धिजीवी मुखौटा लगाने में पूरी तरह सक्षम थे! मुझे बताओ, यहाँ क्या समस्या थी? आओ, सबसे पहले उन बुद्धिजीवियों के बारे में बात करें, जिन्होंने उच्च स्तर की शिक्षा प्राप्त की और लोगों को पढ़ाने और शिक्षित करने वाले प्रोफेसर बने और उच्च-स्तरीय बुद्धिजीवी बने। यानी उन्होंने जो शिक्षा प्राप्त की और जो ज्ञान उनके पास था, वह आम लोगों की शिक्षा के स्तर से अधिक था और उनका ज्ञान लोगों के शिक्षक और प्रशिक्षक बनने, लोगों को शिक्षित करने और उन्हें ज्ञान देने के लिए पर्याप्त था—इसलिए उन्हें उच्च-स्तरीय बुद्धिजीवी कहा जाता है। क्या इन उच्च-स्तरीय बुद्धिजीवियों के विचारों और दृष्टिकोणों में कोई समस्या थी? यकीनन कुछ समस्याएँ थीं। उनकी समस्याएँ कहाँ थीं? आओ इस मामले का विश्लेषण करें। इतना सारा ज्ञान और इतनी उच्च स्तर की शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी क्या उनकी सोच कठोर थी या स्वतंत्र? (कठोर।) तुम लोगों को कैसे पता कि यह कठोर थी? उनकी समस्याएँ कहाँ निहित थीं? सबसे पहले, उन्होंने खुद को उच्च-स्तरीय बुद्धिजीवी घोषित किया। क्या इस दावे में कोई गड़बड़ थी? (हाँ।) इस दावे में समस्या थी। इसके बाद उन्होंने कहा, “जब हम उच्च-स्तरीय बुद्धिजीवी बस में चढ़ते हैं तो हमें इसमें चढ़ने के लिए दूसरे लोगों से लड़ना-भिड़ना और धक्का-मुक्की नहीं करनी चाहिए।” क्या इस बात में कोई समस्या थी? (हाँ।) यह दूसरी समस्या थी। तीसरी समस्या तब थी जब उन्होंने कहा कि “हम उच्च-स्तर के बुद्धिजीवी अगली बस का इंतजार कर सकते हैं”—क्या इस बात में कोई समस्या थी? (हाँ।) इन सभी बातों में कोई-न-कोई समस्या थी। चलो अब इसमें समस्याओं का पता लगाने के लिए आगे बढ़कर इन तीन बातों के जरिए मामले का गहन-विश्लेषण करो। अगर तुम सभी ने इन समस्याओं की पूरी समझ हासिल कर ली तो पहली बात, तुम उच्च-स्तरीय बुद्धिजीवियों को अपना आदर्श नहीं मानोगे, और दूसरी बात, तुम खुद उच्च-स्तरीय बुद्धिजीवी नहीं बनना चाहोगे।

पहली बात क्या थी? यह कि उन्होंने खुद को उच्च-स्तरीय बुद्धिजीवी घोषित किया। क्या इस दावे में कोई समस्या थी? (हाँ।) “स्व-घोषणा” शब्द में कुछ भी गलत नहीं है, जिसका इस मामले में अर्थ है स्वयं को एक उच्च-स्तरीय बुद्धिजीवी के रूप में प्रस्तुत करना। तो क्या “एक उच्च-स्तरीय बुद्धिजीवी के रूप में” वाक्यांश में कोई समस्या है? तथ्य यह है कि विश्वविद्यालय के प्रोफेसर समाज में उच्च-स्तरीय बुद्धिजीवी होते हैं। चूँकि यह एक तथ्य है तो उनके इस वाक्यांश में कोई समस्या क्यों थी? (उन्हें लगा कि ज्ञान पाकर वे दूसरों से ऊँचे हो गए हैं।) दूसरों से ऊँचे होना—इसके पीछे यकीनन एक स्वभाव था। (उन्होंने सोचा कि चूँकि उन्होंने ज्यादा ज्ञान प्राप्त किया है, इसलिए वे दूसरों से ऊँचे हैं। वास्तव में, ये चीजें किसी व्यक्ति का स्वभाव नहीं बदल सकतीं।) यह कुछ हद तक सही है, मगर इसे स्पष्ट रूप से नहीं समझाता। कोई और कुछ कह सकता है? (परमेश्वर, क्या वे अहंकारी और आत्मतुष्ट नहीं थे?) तुमने सही कहा है, मगर सार को अच्छी तरह से नहीं समझाया, जरा और विस्तार से समझाओ। (जब उन्होंने थोड़ा ज्ञान प्राप्त कर लिया तो उन्हें लगा कि वे दूसरों की तुलना में ज्यादा ऊँचे और ज्यादा कुलीन हैं, इसलिए वे खुद को सामान्य लोग नहीं मान सकते थे। इस समाज में रहने वाले सामान्य लोगों के लिए बसों की भीड़-भाड़ में धक्का-मुक्की करके जाना उनके वास्तविक जीवन के परिवेश से तय होता है और यह एक सामान्य बात है। लेकिन जब ये बुद्धिजीवी खुद को बहुत ऊँचे और कुलीन मानने लगे तो वे अब सामान्य लोगों की तरह व्यवहार नहीं कर सकते थे और सोचते थे कि सामान्य लोगों वाली हरकतें उनकी पहचान के लिए हानिकारक थीं, इसलिए मुझे लगता है कि वे असामान्य थे।) वे असामान्य थे। खुद को उच्च-स्तरीय बुद्धिजीवी घोषित करने में निहित अर्थ असामान्य था। यानी उनकी मानवता में कुछ विकृति थी। उन्हें लगता था कि वे दूसरों से ज्यादा ऊँचे और कीमती हैं। इस दावे का आधार क्या था? यह कि उन्होंने बहुत अधिक शिक्षा प्राप्त की थी और उनके पास ज्ञान का भंडार था और वे जिनसे भी मिलते, उनके पास कभी भी बातों की कमी नहीं होती थी और वे उनको भी कुछ सिखा सकते थे। वे ज्ञान को क्या मानते थे? वे इसे व्यक्ति के स्व-आचरण और क्रियाकलापों के साथ-साथ उसकी नैतिकता की कसौटी मानते थे। उनका मानना था कि अब जबकि उनके पास ज्ञान है तो उनकी ईमानदारी, चरित्र और पहचान कुलीन, कीमती और मूल्यवान है, जिसका अर्थ यह है कि उच्च-स्तरीय बुद्धिजीवी संत होते हैं। क्या यही बात नहीं है? (हाँ।) उनके लिए उच्च-स्तरीय कहलाना यही था, इसलिए जब उन्हें बस में धक्का-मुक्की करके चढ़ना था तो वे नहीं चढ़े। वे सबके साथ बस में क्यों नहीं घुसे? उन्हें कौन-सी चीज रोक रही थी? उनकी क्या मजबूरी और बाध्यताएँ थीं? उन्हें लगता था कि बस में धक्का-मुक्की करके घुसने से उनकी पहचान और छवि को नुकसान पहुँचेगा। उन्हें लगता था कि उनकी पहचान और छवि उन्हें ज्ञान से मिली है, इसलिए वे खुद को उच्च-स्तरीय बुद्धिजीवी बताते थे। इस विश्लेषण के आधार पर उन्होंने जो कहा क्या वह घिनौना है? यह बहुत घिनौना है। फिर भी वे यह शेखी बघारते फिरते थे कि “हम उच्च-स्तरीय बुद्धिजीवी हैं।” वास्तव में, दूसरों को लगता था कि वे बस बुद्धिजीवी हैं, उनके दरिद्र और पांडित्यपूर्ण तरीके को लोग नीची नजर से देखते थे, मगर वे फिर भी खुद को विशेष रूप से कुलीन समझते थे। क्या यह समस्या नहीं थी? उनका मानना था कि वे बहुत कुलीन और ऊँची पहचान वाले हैं, यहाँ तक कि वे खुद को संत के रूप में प्रस्तुत करना चाहते थे। क्या यह दृष्टिकोण किसी तरह से उनके लिए एक बाधा बन गया था? ज्ञान के संबंध में उनका स्थान क्या था? यह कि जैसे ही लोगों को ज्ञान प्राप्त होता है, वे अधिक ईमानदार, प्रतिष्ठित और कुलीन बन जाते हैं और उनका सम्मान किया जाना चाहिए। इसलिए वे आम लोगों के कुछ अपेक्षाकृत सामान्य क्रियाकलापों से नफरत और इनकी निंदा करते हैं। उदाहरण के लिए, जब बुद्धिजीवी छींकते हैं तो वे अपने आस-पास के लोगों को देखकर जल्दी से माफी माँग लेते हैं, जबकि जब आम लोग छींकते हैं तो वे इसके बारे में ज्यादा कुछ नहीं सोचते। वास्तव में, डकार लेना और छींकना जीवन में सामान्य बातें हैं, मगर उन बुद्धिजीवियों की नजर में ये अशिष्ट और असभ्य व्यवहार हैं, इसलिए वे उनसे घृणा करते हैं और उन्हें घृणा की दृष्टि से देखते हैं और कहते हैं, “इन असभ्य लोगों को देखो, इनका छींकने, बैठने, और खड़े होने का तरीका बहुत ही अशोभनीय है, और जब बसें आती हैं तो वे उन पर धक्का-मुक्की करते हुए चढ़ते हैं, उन्हें विनम्रता से दूसरों को रास्ता देने के बारे में कुछ नहीं पता!” जब ज्ञान की बात आती है तो उनका रुख यह होता है : ज्ञान पहचान का प्रतीक है और ज्ञान लोगों के भाग्य के साथ-साथ उनकी पहचान और मूल्य को भी बदल सकता है।

दूसरी बात क्या थी? (यह कि उच्च-स्तरीय बुद्धिजीवी बसों में चढ़ने के लिए दूसरों के साथ धक्का-मुक्की नहीं कर सकते।) वे बसों में चढ़ने के लिए दूसरों के साथ धक्का-मुक्की नहीं कर सकते। बस में धक्का-मुक्की करके चढ़ना उनके जीवन की एक छोटी-सी घटना थी। यह बात क्या दर्शाती है? विशेष रूप से, उनका मानना था कि जिन लोगों के पास एक निश्चित मात्रा में ज्ञान है, उनके बात करने का तरीका और आचरण सुसभ्य होना चाहिए और उनकी पहचान से मेल खाना चाहिए। उदाहरण के लिए, उन्हें धीरे-धीरे चलना चाहिए और लोगों से मिलते समय यह महसूस कराना चाहिए कि वे स्नेही, मिलनसार और सम्मान के लायक हैं, और उनका बात करने का तरीका और आचरण परिष्कृत होना चाहिए। वे आम लोगों के समान नहीं हो सकते, उन्हें लोगों को अपने और आम लोगों के बीच का अंतर महसूस कराना चाहिए—केवल इसी तरह वे दिखा सकते थे कि उनकी पहचान बाकी लोगों से अलग और विशिष्ट है। अपने दिल की गहराई में इन प्रोफेसरों का मानना था कि बसों में धक्का-मुक्की करके घुसने जैसी चीजें समाज के निचले तबके के लोग और ऐसे लोग करते हैं जिन्होंने उच्च स्तर की शिक्षा प्राप्त नहीं की है और फिर ये ऐसी चीजें हैं जो उन लोगों द्वारा की जाती हैं जिनके पास उन्नत ज्ञान या किसी उच्च-स्तरीय बुद्धिजीवी जैसी कोई पहचान नहीं है। तो फिर ये उच्च-स्तरीय बुद्धिजीवी क्या काम करते हैं? वे मंच पर खड़े होकर सिद्धांतों का प्रचार करते, ज्ञान देते और लोगों की शंकाओं का समाधान करते हैं—ये उनके कर्तव्य हैं, जो उनकी पहचान, छवि और उनके पेशे को दर्शाते हैं। वे बस यही काम कर सकते हैं। आम लोगों के रोजमर्रा के कामों और दिनचर्या से उनका कोई लेना-देना नहीं होना चाहिए, क्योंकि वे इन “अशिष्ट, क्षुद्र रुचियों” से अलग लोगों का एक वर्ग हैं। उन्होंने साधारण लोगों के रोजमर्रा के कामों और दिनचर्या को, यहाँ तक कि बसों में धक्का-मुक्की करके घुसने जैसी हरकतों को कैसे निरूपित किया? (अशिष्ट।) सही कहा, अशिष्ट और असभ्य। यह अपने से निचले स्तर के आम, साधारण लोगों के लिए उनके दिल की गहराई से निकली परिभाषा थी।

आओ तीसरी बात पर चर्चा करें—“हम उच्च-स्तर के बुद्धिजीवी अगली बस का इंतजार कर सकते हैं”—यह किस प्रकार की भावना है? क्या यह कोंग रोंग का बड़ी नाशपातियों को त्याग देने की भावना नहीं है जिसके बारे में पारंपरिक संस्कृति में बताया गया है? बुद्धिजीवियों पर पारंपरिक संस्कृति का प्रभाव विशेष रूप से गहरा होता है। वे न केवल पारंपरिक संस्कृति को स्वीकारते हैं, बल्कि पारंपरिक संस्कृति के कई विचारों और दृष्टिकोणों को भी अपने दिल में स्वीकारते हैं और उन्हें सकारात्मक चीजें मानते हैं, इस हद तक कि उन्होंने कुछ मशहूर कहावतों को अपने आदर्श वाक्य बना लिए हैं, और इस तरह वे जीवन में गलत मार्ग पर चल पड़ते हैं। कन्फ्यूशियस का धर्म-सिद्धांत पारंपरिक संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता है। कन्फ्यूशियस के धर्म-सिद्धांत में अनेक वैचारिक सिद्धांत हैं, यह मुख्य रूप से पारंपरिक नैतिक संस्कृति को बढ़ावा देता है और इसे पूरे इतिहास में राजवंशों के शासक वर्गों द्वारा सम्मान दिया जाता था, जो कन्फ्यूशियस और मेन्सियस को संत मानकर पूजते थे। कन्फ्यूशियस का धर्म-सिद्धांत कहता है कि व्यक्ति को परोपकार, धार्मिकता, उपयुक्तता, बुद्धिमत्ता और विश्वसनीयता के मूल्यों को कायम रखना चाहिए, सबसे पहले कुछ घटित होने पर शांत रहना, संयमित रहना और सहनशील होना सीखना चाहिए, शांत रहकर चीजों के बारे में बातचीत करनी चाहिए, उनके लिए लड़ाई या छीना-झपटी नहीं करनी चाहिए, विनम्र और मिलनसार होना सीखना चाहिए और सभी का सम्मान पाना चाहिए—यह शिष्टाचार के साथ आचरण करना है। ये बुद्धिजीवी लोग खुद को आम लोगों से ऊँचा स्थान देते हैं और उनकी नजरों में सभी लोग उनके संयम और सहनशीलता की वस्तु हैं। ज्ञान के “उपयोग” बहुत बढ़िया हैं! ये लोग बहुत हद तक नकली सज्जनों की तरह दिखते हैं, है ना? जो लोग बहुत ज्यादा ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं वे नकली सज्जन बन जाते हैं। अगर परिष्कृत विद्वानों के इस समूह को किसी एक वाक्यांश में परिभाषित किया जाए तो यह वाक्यांश होगा परिष्कृत विद्वतापूर्ण लालित्य। ये परिष्कृत विद्वान किन सिद्धांतों के आधार पर एक-दूसरे से बातचीत करते हैं? सांसारिक आचरण के प्रति उनका क्या नजरिया है? उदाहरण के लिए, जिन लोगों का उपनाम “ली” है उन लोगों को आम लोग “लाओ ली” या “शाओ ली”[क] कहकर पुकारते हैं। क्या बुद्धिजीवी उन्हें इस तरह से पुकारेंगे? (नहीं।) वे उन्हें किस तरह से पुकारेंगे? (श्रीमान ली।) अगर उन्होंने किसी महिला को देखा तो वे उसे श्रीमती फलानी या सुश्री फलानी कहकर पुकारेंगे और सज्जन की तरह बहुत सम्मान और शिष्टता से पेश आएँगे। वे सज्जनों जैसी सभ्यता और शिष्टता को सीखने और उसकी नकल करने में माहिर हैं। वे किस लहजे और तरीके से आपस में बातचीत और चीजों पर चर्चा करते हैं? उनके चेहरे के भाव खास तौर पर कोमल होते हैं और वे विनम्रता और संयम से बात करते हैं। वे सिर्फ अपने विचार व्यक्त करते हैं और भले ही उन्हें पता हो कि दूसरों के विचार गलत हैं, फिर भी वे कुछ नहीं कहते। कोई भी किसी की भावनाओं को ठेस नहीं पहुँचाता और उनके शब्द बेहद कोमल होते हैं, जैसे कि रुई में लिपटे हों, ताकि उनसे किसी को ठेस न पहुँचे या वे चिढ़ न जाएँ, जिसे सुनते ही व्यक्ति को उबकाई, बेचैनी या गुस्सा आ सकता है। सच तो यह है कि किसी के विचार एकदम स्पष्ट नहीं होते और कोई भी किसी के सामने झुकता नहीं। इस तरह के लोग खुद को छिपाने में माहिर होते हैं। छोटी-छोटी बातों में भी वे खुद को छिपाएँगे और मुखौटा ओढ़ेंगे और उनमें से कोई भी स्पष्ट तरीके से नहीं बोलेगा। आम लोगों के सामने वे कैसी मुद्रा अपनाना चाहते हैं और किस तरह की छवि बनाना चाहते हैं? ऐसी जिससे आम लोगों को यह दिखे कि वे विनम्र सज्जन हैं। सज्जन दूसरों से बेहतर होते हैं और लोगों के सम्मान के पात्र होते हैं। लोग सोचते हैं कि उनके पास औसत लोगों की तुलना में गहरी अंतर्दृष्टि है और उन्हें चीजों की बेहतर समझ है, इसलिए जब भी किसी को कोई समस्या होती है तो हर कोई उनसे सलाह लेता है। ये बुद्धिजीवी यही परिणाम देखना चाहते हैं, वे सभी संतों जैसा सम्मान पाने की उम्मीद करते हैं।

हमने अभी जिन तीन बातों का गहन-विश्लेषण किया है उनके हिसाब से देखें तो जब इन प्रोफेसरों को “उच्च-स्तरीय बुद्धिजीवी” की उपाधि मिली, तब क्या उनके विचार पहले से ज्यादा मुक्त हुए या सीमित हो गए? (सीमित हो गए।) ये जरूर सीमित हुए होंगे। किस चीज से सीमित हुए? (ज्ञान से।) ज्ञान उनके पेशे के भीतर की चीज है। दरअसल, ज्ञान ने उन्हें सीमित नहीं किया। उन्हें किस चीज ने सीमित किया? ज्ञान के प्रति उनके रवैये ने, और उनकी सोच पर पड़ने वाले ज्ञान के प्रभाव ने, और साथ ही उन विचारों ने जो ज्ञान ने उनमें डाले—यही समस्या है। इसलिए जितना ज्यादा ज्ञान उन्होंने हासिल किया, उतना ही उन्हें लगा कि उनकी पहचान और हैसियत बाकियों से अलग है, और जितना ज्यादा उन्हें लगा कि वे कुलीन और बड़े हैं, उनकी सोच उतनी ही सीमित होती गई। इस नजरिये से देखें तो क्या ज्यादा ज्ञान हासिल करने वाले लोगों ने स्वतंत्रता हासिल की है या स्वतंत्रता खो दी है? (स्वतंत्रता खो दी है।) दरअसल उन्होंने स्वतंत्रता खो दी है। ज्ञान लोगों की सोच और समाज में उनकी हैसियत को प्रभावित करता है और लोगों पर इसका जो प्रभाव पड़ता है वह सकारात्मक नहीं होता। ऐसा कभी नहीं होता कि जितना ज्यादा ज्ञान तुम हासिल करोगे, उतना ही बेहतर उन सिद्धांतों, दिशा और लक्ष्यों को समझ पाओगे जो तुम्हारे स्व-आचरण के संबंध में तुम्हारे पास होने चाहिए। इसके उलट जितना ज्यादा तुम ज्ञान के पीछे भागोगे और जितना ज्यादा गहरा ज्ञान तुम हासिल करोगे, उतना ही उन विचारों और दृष्टिकोणों से दूर होते जाओगे जो सामान्य मानवता वाले लोगों के पास होने चाहिए। यह बुद्धिजीवियों के उस समूह की तरह ही है जिन्होंने बहुत सारा ज्ञान और शिक्षा प्राप्त की थी, पर जो सामान्य समझ की छोटी-सी बात भी नहीं समझे। यह कैसी सामान्य समझ है? जब बहुत सारे लोग होते हैं तो तुम्हें बस में चढ़ने के लिए भीड़ में घुसना पड़ता है। अगर तुम भीड़ में नहीं घुसोगे तो बस में कभी नहीं चढ़ पाओगे—उन्हें यह सबसे सरल नियम भी नहीं पता था। जरा बताओ, वे होशियार बन गए थे या बेवकूफ? (वे बेवकूफ बन गए थे।) वास्तव में वे सब-के-सब बेवकूफ थे। साधारण लोगों को ऐसा उन्नत ज्ञान या ऊँचे स्तर की शिक्षा प्राप्त नहीं हुई है और उनके पास यह हैसियत भी नहीं है, मगर वे इस बात को समझते हैं और कहते हैं, “बस में चढ़ते समय अगर बहुत सारे लोग हों तो तुम्हें अंदर घुसना पड़ता है, अपनी पूरी ताकत लगानी पड़ती है, क्योंकि अगर तुम जरा भी ढीले पड़े और तुमने फैसला लेने में जरा भी देरी की तो तुम भीड़ में पीछे छूट सकते हो और तुम्हें अगली बस लेनी पड़ सकती है।” यह जीवन में सामान्य सूझ-बूझ की बुनियादी बात है, जिससे साधारण लोग तो परिचित होते हैं, पर ये बुद्धिजीवी समझ नहीं पाए, इसलिए उन्होंने एक के बाद एक बस का इंतजार किया। वे किस चीज से मजबूर थे? वे इस दावे से मजबूती से बँधे हुए थे कि “हम उच्च-स्तरीय बुद्धिजीवी हैं।” यह ऐसा ही था। उन्हें यह भी नहीं पता था कि वास्तविक जीवन की ऐसी मामूली-सी समस्या का सामना कैसे करना है या उससे कैसे निपटना है। वह एक मूर्ख-मंडली थी! ज्ञान से उन्हें क्या हासिल हुआ? यही कि इसने उन्हें बाकी आबादी से अलग कर दिया, उन्हें नहीं पता था कि कैसे जीना है और वास्तविक जीवन में होने वाली चीजों से कैसे निपटना है। उन्होंने आम लोगों के वास्तविक जीवन में आने वाली सबसे आम समस्याओं में से एक से निपटने के लिए कुछ ऊँचे सिद्धांतों का इस्तेमाल किया और उन्हें यह भी नहीं पता था कि इस तरह से निपटने के क्या अंजाम होंगे—शायद वे आज भी इसे नहीं समझ पाए हैं। शायद वे बुढ़ापे में ही इस बात को भली-भाँति समझ पाएँ। तब उनके पास कोई ख्याति नहीं होगी और वे अपने पूरे जीवनकाल में एक उच्च-स्तरीय बुद्धिजीवी की सम्मानजनक प्रतिष्ठा का आनंद ले चुके होंगे। एक दिन, उन्हें याद आ सकता है कि उस समय बस में न चढ़कर उन्होंने कितनी बुरी छाप छोड़ी थी और उन्हें अचानक एहसास होगा कि वे अब उतने महान और उतने ऊँचे नहीं हैं और उन्हें अचानक यह एहसास होगा, “क्या मेरी विद्वानों वाली सुसभ्यता मेरी थाली में रोटी रख पाएगी? क्या मुझे भी आम लोगों की तरह दिन में तीन बार भोजन की जरूरत नहीं है? मैं दूसरे लोगों से कोई अलग नहीं हूँ। क्या मैं भी बुढ़ापे में झुककर नहीं चलता? और क्या मैं भी खतरे का सामना होने पर डर से काँपता और डरता नहीं हूँ? और जब किसी प्रियजन की मौत की खबर या कोई खुशखबरी होती है तो क्या मैं भी दुखी या खुश नहीं होता, जैसा कि होना चाहिए? क्या मैं बस आम लोगों की तरह नहीं जी रहा हूँ? मैं बाकी लोगों से अलग नहीं हूँ!” तब तक उन्हें यह बात समझने में बहुत देर हो चुकी होगी। ये उन लोगों द्वारा दिखाई जाने वाली विभिन्न प्रकार की कुरूपताएँ हैं जो सत्य न समझ पाने पर भी कुछ तथाकथित सकारात्मक कहावतों और विचारों को स्वीकार लेते हैं। जब लोगों को यह नहीं पता होता कि ये विचार सही हैं या नहीं तो वे अक्सर इन विचारों और कहावतों को पालन और लागू करने योग्य सत्य मान लेते हैं और जब वे उन्हें लागू कर डालते हैं तो उन्हें तमाम तरह के दुष्परिणाम भुगतने पड़ते हैं और उनके साथ तमाम तरह की अजीबोगरीब स्थितियाँ होती हैं। लोगों के लिए इसके क्या दुष्परिणाम होते हैं? जब लोग लगातार स्वतंत्रता के पीछे भाग रहे होते हैं तो वे लगातार एक भँवर से दूसरे भँवर में और एक तरह के बंधन से दूसरे तरह के बंधन में फँसते जाते हैं। क्या यह सच नहीं है? इसलिए जब तुम सत्य को नहीं समझते—तब तुम जिस चीज को दृढ़ता से मानते हो वह चाहे कोई दृष्टिकोण हो, कोई पारंपरिक संस्कृति हो या किसी तरह का नियम, व्यवस्था या सिद्धांत हो, और चाहे ये चीजें समाज में अपेक्षाकृत पुरानी हों या काफी आधुनिक और चलन में हों—ये चीजें कभी भी सत्य की जगह नहीं ले सकतीं, क्योंकि वे सत्य नहीं हैं। तुम चाहे उनका कितनी भी अच्छी तरह से पालन करो या उन्हें कितनी भी अच्छी तरह से लागू करो, आखिर में वे तुम्हें सत्य हासिल कराने के बजाय सत्य से भटका देंगी। तुम जितना ज्यादा इन चीजों का पालन करोगे, उतना ही तुम सत्य से, परमेश्वर के मार्ग से और सत्य के मार्ग से भटक जाओगे। वहीं दूसरी ओर, अगर तुम इन तथाकथित सकारात्मक चीजों, सिद्धांतों और झूठे सत्यों को सक्रियता से आगे बढ़कर त्याग सकते हो तो तुम बहुत जल्दी सत्य में प्रवेश कर सकोगे। इस तरह लोग अपने दैनिक जीवन में सत्य और परमेश्वर के वचनों की जगह इन तथाकथित पारंपरिक संस्कृतियों और इन झूठे सत्यों का अभ्यास के सिद्धांतों के रूप में इस्तेमाल नहीं करेंगे, और यह अजीबोगरीब स्थिति धीरे-धीरे खत्म हो जाएगी और धीरे-धीरे इसका समाधान हो जाएगा।

कुछ लोग सोचते हैं कि उन्होंने परिवार और देश की पारंपरिक संस्कृति को त्याग कर और दूसरे देश से विदेशी पारंपरिक संस्कृति को स्वीकार कर सत्य हासिल कर लिया है; कुछ लोग सोचते हैं कि उन्होंने एक पुरानी, पारंपरिक संस्कृति और पुराने विचारों और दृष्टिकोणों को त्याग कर और थोड़े-से ज्यादा उन्नत और आधुनिक विचारों को अपना कर सत्य हासिल कर लिया है। अब इस पर गौर करें तो क्या ये लोग सही हैं या गलत? (गलत।) वे सब गलत हैं। लोग सोचते हैं कि बस पुरानी चीजें त्याग कर उन्हें स्वतंत्रता मिल जाएगी। स्वतंत्रता मिलने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि व्यक्ति ने सत्य और जीवन जीने का सच्चा मार्ग प्राप्त कर लिया है जो उसके पास होना चाहिए। लोग सोचते हैं कि सच्चा मार्ग इस तरह से पाया जाता है। क्या यह वाकई सच है? क्या यह सही है? नहीं। मानवजाति चाहे किसी भी आधुनिक और उन्नत संस्कृति को स्वीकार ले, आखिर में यह भी पारंपरिक संस्कृति होती है और इसका सार नहीं बदलता। पारंपरिक संस्कृति अभी भी हमेशा पारंपरिक संस्कृति ही रहेगी। चाहे वह समय की कसौटी पर खरी उतरे या तथ्यों की कसौटी पर, या फिर मानवजाति उसका सम्मान करे या न करे, आखिर में वह भी पारंपरिक संस्कृति ही होती है। ये पारंपरिक संस्कृतियाँ सत्य क्यों नहीं हैं? इन सबका मूल कारण यह है कि ये चीजें ऐसे विचार हैं जो शैतान द्वारा मानवजाति को भ्रष्ट किए जाने के बाद आए थे। वे परमेश्वर से नहीं आते हैं। इनमें लोगों की कुछ कल्पनाओं और धारणाओं की मिलावट है, और इसके अलावा वे शैतान द्वारा मानवजाति को भ्रष्ट करने के दुष्परिणाम हैं। लोगों की सोच को बाँधने और भ्रष्ट करने के लिए शैतान भ्रष्ट मानवजाति के विचारों, दृष्टिकोणों और तमाम तरह की कहावतों और तर्कों का फायदा उठाता है। अगर शैतान लोगों को गुमराह करने के लिए कुछ ऐसी चीजों का इस्तेमाल करता जो साफ तौर पर बेतुकी, हास्यास्पद और गलत हैं तो लोगों को इनके भेद की पहचान होती; वे सही-गलत में फर्क करने में सक्षम होते, और उन चीजों को ठुकराने और उनकी निंदा करने के लिए भेद की इस पहचान का उपयोग करते। इस तरह ये शिक्षाएँ जाँच-पड़ताल में टिक नहीं पातीं। लेकिन जब शैतान लोगों पर शिक्षा के प्रभाव डालने, प्रभावित करने और उनके मन में चीजें डालने के लिए कुछ ऐसे विचारों और सिद्धांतों का इस्तेमाल करता है जो लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप होते हैं और जिनके बारे में उसे लगता है कि जोर देकर बोलने पर जाँच-पड़ताल में टिक पाएँगे तो मानवजाति आसानी से गुमराह हो जाती है और लोग इन कहावतों को आसानी से स्वीकार कर इन्हें फैलाने लगते हैं; इस तरह ये कहावतें पीढ़ी-दर-पीढ़ी आज तक चली आ रही हैं। उदाहरण के लिए, चीनी नायकों के बारे में कही गई कुछ कहानियों को ले लो, जैसे कि यू फेई, यांग परिवार के सेनापतियों और वेन तियानशियांग के बारे में देशभक्ति की कहानियाँ। ये विचार आज तक कैसे चले आ रहे हैं? अगर हम इसे लोगों के पहलू से देखें तो हर युग में एक ऐसा व्यक्ति या ऐसा शासक होता है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी लोगों को शिक्षा देने के लिए लगातार इन उदाहरणों और इन व्यक्तियों के विचारों और भावनाओं का इस्तेमाल करता है, ताकि आने वाली हर पीढ़ी आज्ञाकारी होकर और दब्बू बनकर उनके शासन को स्वीकारे, ताकि वह आसानी से पीढ़ी-दर-पीढ़ी लोगों पर शासन कर सके और अपने शासन को ज्यादा स्थिर बना सके। यू फेई और यांग परिवार के सेनापतियों की मूर्खतापूर्ण भक्ति के साथ ही वेन तियानशियांग और कू युआन की देशभक्ति की भावना के बारे में बात करके वे अपने लोगों को शिक्षित करते हैं और उन्हें एक नियम बताते हैं, जो यह है कि व्यक्ति को वफादारी के साथ आचरण करना चाहिए—एक उत्कृष्ट नैतिक चरित्र वाले व्यक्ति में यह वफादारी होनी ही चाहिए। वफादारी किस हद तक होनी चाहिए? इस हद तक कि “जब सम्राट अपने अधिकारियों को मरने का आदेश देता है, तो उनके पास मरने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता” और “वफादार प्रजा दो राजाओं की सेवा नहीं कर सकती”—यह भी एक ऐसी कहावत है जिसका वे सम्मान करते हैं। वे अपने देश से प्यार करने वालों का भी सम्मान करते हैं। अपने देश से प्यार करने का मतलब किसी चीज से प्यार करना है या किसी व्यक्ति से? क्या यह देशभूमि से प्यार करना है? क्या यह इसके लोगों से प्यार करना है? और देश क्या है? (शासक।) शासक देश के प्रतिनिधि हैं। अगर तुम कहते हो, “मेरे देश के लिए मेरा प्यार वास्तव में मेरे गृहनगर और मेरे माता-पिता के लिए प्यार है। मैं तुम शासकों से प्यार नहीं करता!” तो वे नाराज हो जाएँगे। अगर तुम कहते हो, “मेरे देश के लिए मेरा प्यार मेरे दिल की अंतरतम गहराई से उसके शासकों के लिए प्यार है,” तो वे इसे स्वीकारेंगे और ऐसे प्यार को स्वीकृति देंगे; अगर तुम उन्हें समझाना और स्पष्ट करना चाहो कि तुम उनसे प्यार नहीं करते तो वे इसे स्वीकृति नहीं देंगे। युगों-युगों से शासक किसका प्रतिनिधित्व करते आए हैं? (शैतान का।) वे शैतान का प्रतिनिधित्व करते हैं, वे शैतान के गिरोह के सदस्य हैं और सबके सब राक्षस हैं। वे लोगों को परमेश्वर की आराधना, सृष्टिकर्ता की आराधना करना बिल्कुल नहीं सिखा सकते। वे ऐसा बिल्कुल नहीं कर सकते। बल्कि वे लोगों को यह बताते हैं कि शासक स्वर्ग का पुत्र होता है। “स्वर्ग का पुत्र” का क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि स्वर्ग किसी व्यक्ति को शक्ति देता है, फिर यह व्यक्ति “स्वर्ग का पुत्र” कहलाने लगता है और उसके पास स्वर्ग के अधीन सभी लोगों पर शासन करने की शक्ति होती है। क्या यह एक ऐसा विचार है जिसे शासक लोगों के मन में भरते हैं? (हाँ।) जब कोई व्यक्ति स्वर्ग का पुत्र बनता है तो यह स्वर्ग द्वारा निर्धारित होता है और स्वर्ग की इच्छा उसके साथ होती है, इसलिए लोगों को उस व्यक्ति के शासन को बिना शर्त स्वीकार करना चाहिए, फिर चाहे वह किसी भी प्रकार का शासन हो। वे लोगों में इसी विचार को भरते हैं जो तुमसे उस व्यक्ति को स्वर्ग का पुत्र स्वीकार करवाता है, जो इस पर आधारित है कि तुम स्वर्ग के अस्तित्व को मानते हो। तुमसे उस व्यक्ति को स्वर्ग का पुत्र स्वीकार करवाने का क्या उद्देश्य है? इसका उद्देश्य तुमसे यह स्वीकार करवाना नहीं है कि स्वर्ग है या कोई परमेश्वर या कोई सृष्टिकर्ता है, बल्कि तुमसे यह तथ्य स्वीकार करवाना है कि यह व्यक्ति स्वर्ग का पुत्र है और चूँकि वह स्वर्ग का पुत्र है जो स्वर्ग की इच्छा से आया है इसलिए लोगों को उसके शासन को स्वीकारना चाहिए—वे लोगों में इसी तरह के विचार भरते हैं। मानवजाति की शुरुआत से लेकर आज तक विकसित हुए इन सभी विचारों के पीछे—हम जिनका गहन-विश्लेषण कर रहे हैं चाहे वे वाक्यांश या मुहावरे हों जिनमें किसी प्रसंग का हवाला होता है, या चाहे लोकोक्तियाँ या आम कहावतें हों जिनमें किसी प्रसंग का हवाला नहीं होता है—शैतान के बंधन और मानवजाति को गुमराह करने के साथ-साथ ही इन विचारों के लिए भ्रष्ट मानवजाति की भ्रामक परिभाषा भी छिपी हुई है। बाद के समय में इस भ्रामक परिभाषा का लोगों पर क्या प्रभाव होता है? क्या यह अच्छा, सकारात्मक प्रभाव होता है या फिर नकारात्मक प्रभाव होता है? (नकारात्मक।) यह मूल रूप से नकारात्मक है। उदाहरण के लिए, “अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना,” “अपना प्रकाश छिपाओ और अँधेरे में शक्ति जुटाओ,” “अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना,” “कभी हार न मानना” और साथ ही “एक काम करते हुए दूसरा काम करने का दिखावा करना”—बाद के समय में लोगों पर इन कहावतों का क्या प्रभाव पड़ता है? यानी एक बार जब लोग पारंपरिक संस्कृति के इन विचारों को स्वीकार लेते हैं तो लोगों की आने वाली हरेक पीढ़ी परमेश्वर से, परमेश्वर के सृजन और लोगों के उद्धार से और उसकी प्रबंधन योजना के कार्य से दूर और दूर भटकती चली जाती है। जब लोग पारंपरिक संस्कृति के इन गलत विचारों को स्वीकार लेते हैं तो उन्हें तेजी से लगने लगता है कि मनुष्य का भाग्य उनके अपने हाथ में होना चाहिए, खुशी उनके अपने हाथों से बनाई जानी चाहिए और अवसर सिर्फ उन्हीं लोगों के लिए आरक्षित हैं जो इसके लिए तैयार हैं, जो मानवजाति को अधिकाधिक परमेश्वर को नकारने, परमेश्वर की संप्रभुता को नकारने और शैतान की ताकत के अधीन रहने की ओर ले जाता है। अगर तुम तुलना करो कि आधुनिक युग में लोग किस बारे में बात करना पसंद करते हैं और दो हजार साल पहले लोग किस बारे में बात करना पसंद करते थे, तो इन बातों के पीछे की सोच का मतलब वास्तव में एक ही है। अंतर बस इतना है कि आजकल लोग उनके बारे में ज्यादा विशिष्ट रूप से और खुलकर बात करते हैं। न सिर्फ वे परमेश्वर के अस्तित्व और संप्रभुता को नकारते हैं, बल्कि अधिकाधिक गंभीर पैमाने पर परमेश्वर का प्रतिरोध और उसकी निंदा भी करते हैं।

उदाहरण के लिए, प्राचीन समय में लोग कहते थे कि “जब राष्ट्र पर कोई मुसीबत आए, तो हर किसी को अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए,” यह ऐसी कहावत है जो आज तक कायम है। लोग इस कहावत को सँजोते हैं, खासकर देशभक्त जो इसे अपना आदर्श वाक्य मानते हैं। अब जब तुम लोग विदेश में आ गए हो और अगर कोई कहता है कि चीन में कोई घटना घटी है तो क्या इसका तुम सबसे कोई लेना-देना होगा? (नहीं।) तुम ऐसा क्यों कहते हो कि इसका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है? कुछ लोग कहते हैं, “मुझे उस देश से नफरत है। अभी वह बुरी राजनीतिक पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी सत्ता में है। कम्युनिस्ट पार्टी दानव शैतान है, यह एकदलीय शासन व्यवस्था है, और इसका मुझसे कोई लेना-देना नहीं। यह हमें सताती है और परमेश्वर में विश्वास करने से रोकती है। मुझे इससे नफरत है।” मान लो कि एक दिन वह देश नष्ट होने वाला है—तो हो सकता है कि तुम्हारे दिल को कुछ भी महसूस न हो मगर जब तुम सुनोगे कि तुम मूल रूप से जिस प्रांत से आए थे, उस पर विदेशी समूहों ने हमला करके कब्जा कर लिया है तो तुम्हें लगेगा कि तुम एक शरणार्थी हो, एक खानाबदोश हो जिसके पास कोई घर नहीं है, और तुम दुखी होगे और महसूस करोगे कि गिरते हुए पत्तों की तरह तुम अपनी जड़ों की ओर वापस नहीं लौट सकते। गिरते हुए पत्तों की तरह अपनी जड़ों की ओर वापस लौटना—यह भी एक दूसरा पारंपरिक विचार है। और मान लो कि उसके बाद एक दिन अचानक तुम्हें सुनने को मिलता है कि तुम्हारे गृहनगर पर—जिस भूमि पर तुम पैदा हुए और पले-बढ़े—विदेशी समूहों ने हमला करके कब्जा कर लिया है, जिस रास्ते से तुम रोज स्कूल जाते थे उस पर विदेशियों का कब्जा हो गया है, और तुम्हारे घर और तुम्हारे परिवार की जमीन को भी विदेशियों ने हथिया लिया है। जो कभी तुम्हारा हुआ करता था अब तुम्हारा नहीं रहा—जमीन का वह छोटा-सा टुकड़ा जो आज भी तुम्हारे मन की गहराई में अंकित है, जिसका तुम्हारे साथ बेहद करीबी संबंध है वह अब नहीं रहा, और तुम्हारे सभी रिश्तेदार भी अब वहाँ नहीं रहे। उस समय तुम सोचोगे, “अगर मेरा देश ही नहीं रहा तो मेरा घर कैसे होगा? अब मैं वाकई एक शरणार्थी बन गया हूँ, मैं सचमुच बेघर हो गया हूँ, मैं खानाबदोश बन गया हूँ। लगता है कि यह कहावत ‘जब राष्ट्र पर कोई मुसीबत आए, तो हर किसी को अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए’ सही है!” जब वह समय आएगा तो तुम बदल जाओगे। तो तुम्हें अभी यह कहावत सही क्यों नहीं लगती है? इसके पीछे एक पृष्ठभूमि और एक आधार है, जो यह है कि वह राष्ट्र तुम्हें सताता और बहुत अधिक पीड़ा देता है, साथ ही वह तुम्हें स्वीकार नहीं करता और तुम उससे नफरत करते हो। सच तो यह है कि तुम वास्तव में जिससे नफरत करते हो वह वो भूमि नहीं है। तुम उस शैतानी शासन से नफरत करते हो जो तुम्हें सताता है। तुम इसे अपना देश नहीं मानते, इसलिए इस समय जब दूसरे लोग तुमसे कहते हैं, “जब राष्ट्र पर कोई मुसीबत आए, तो हर किसी को अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए,” तो तुम कहते हो, “इसका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है।” मगर जिस भूमि पर तुम पैदा हुए और पले-बढ़े, जब वह एक दिन तुम्हारी नहीं रहेगी और जब तुम्हारे पास अपना गृहनगर भी नहीं रहेगा तो तुम महसूस करोगे कि तुम एक खानाबदोश और एक ऐसे व्यक्ति हो जिसकी कोई राष्ट्रीयता नहीं है और तुमने सच में अपना देश खो दिया है। तब तुम्हारे दिल में दर्द उठेगा। किस बात का दर्द उठेगा? ऐसा हो सकता है कि अभी तुम इसे गहराई से महसूस न करो, मगर एक दिन यह तुम पर गहरा असर डालेगा। किन परिस्थितियों में यह तुम पर गहरा असर डालेगा? अगर तुम्हारा देश खत्म हो जाए और तुम किसी विजित देश के सदस्य बन जाओ तो वह डरावना नहीं है। डरावना क्या है? जब तुम किसी विजित देश के सदस्य बन जाओ और तुम्हें धमकाया जाए, अपमानित किया जाए, तुम्हारे साथ भेदभाव किया जाए, तुम्हें कुचला जाए और तुम्हारे पास शांति से रहने के लिए कोई जगह नहीं हो, उस समय तुम सोचोगे, “अपना एक देश होना बहुत कीमती है। देश के बिना लोगों के पास कोई असली घर नहीं होता है। देश के आधार पर ही लोगों का घर होता है, इसलिए यह कहावत सही बैठती है—‘जब राष्ट्र पर कोई मुसीबत आए, तो हर किसी को अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए।’” “हर किसी को अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए” इस वाक्यांश में यह “जिम्मेदारी” किस चीज की है? अपने घर में शांति बनाए रखने और उसकी रक्षा करने की। जब तुम इस बारे में सोचोगे, जब विदेशी लोगों द्वारा या विदेशी राष्ट्र में तुम्हारे साथ भेदभाव किया जाएगा, जब तुम्हें अपने लिए एक जगह की जरूरत होगी और जब तुम्हें अपने पीछे एक देश के सहारे की जरूरत होगी जो तुम्हारी गरिमा, प्रतिष्ठा, पहचान और हैसियत को कायम रखे तो तुम कैसा महसूस करोगे? तुम सोचोगे, “यदि किसी विदेशी देश में किसी व्यक्ति के पीछे शक्तिशाली समर्थन है तो वह समर्थन निश्चित रूप से महान मातृभूमि का ही होगा!” अभी की तुलना में, क्या तब तुम्हारी मनोदशा अलग होगी? (हाँ।) अभी तुम गुस्से में हो, इसलिए ऐसा कहते हो कि तुम्हारे देश में जो कुछ भी होता हो, उससे तुम्हारा कोई लेना-देना नहीं है। अगर वह समय आने पर भी तुम ऐसी बातें कह सकते हो तो तुम्हारा आध्यात्मिक कद कैसा होगा? इस संसार का एक सच जो शायद हर कोई जानता है, वह यह है कि अगर तुम्हारे पास शक्तिशाली मातृभूमि का समर्थन नहीं है तो यकीनन विदेशी राष्ट्रों में तुम्हारे साथ भेदभाव होगा और तुम्हें डराया-धमकाया जाएगा। जब तुम्हारे लिए वास्तव में ऐसा अनुभव करने का समय आएगा तो तुम सबसे पहले क्या माँगोगे? कुछ लोग कहेंगे : “अगर मैं यहूदी या जापानी होता तो बहुत अच्छा होता। तब कोई मुझे धमकाने की कोशिश नहीं करता। जिस किसी देश में मैं जाता वहाँ मेरा बहुत सम्मान होता। मैं चीन में कैसे पैदा हो गया? वह देश नाकारा है और चीनी लोग जहाँ भी जाते हैं उन्हें धमकाया जाता है।” जब ऐसा कुछ होता है तो तुम लोगों के मन में पहला विचार क्या आएगा? (हम परमेश्वर में आस्था रखते हैं और परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करते हैं।) यह सही है। मगर ऐसी बात कह पाने और उसे अपने आध्यात्मिक कद में ढालने के लिए व्यक्ति को कितने सत्यों की समझ होनी चाहिए, उसे क्या अनुभव होना चाहिए और उसके पास कितनी अनुभवजन्य समझ होनी चाहिए? जब ऐसी कोई घटना होती है तो तुम्हारे पास कैसे विचार, समझ और व्यावहारिक अनुभव होने चाहिए ताकि तुम कमजोर न पड़ो? और ताकि तुम दुखी न हो, फिर चाहे कोई तुम पर थूक भी दे और तुम्हें एक जीते हुए देश का नागरिक बोले? तुम्हारे पास कैसा आध्यात्मिक कद होना चाहिए जिससे तुम न तो दुखी होओ और न ही इन बाधाओं से पीड़ित होओ। क्या अभी तुम लोगों के पास ऐसा आध्यात्मिक कद है? (नहीं।) अभी यह तुम्हारे पास नहीं है, मगर क्या एक दिन तुम्हारे पास यह होगा? तुम्हें किन सत्यों से लैस होना होगा? तुम्हें कौन-से सत्य समझने होंगे? आजकल जैसे ही कुछ लोगों को यह सुनने में आता है कि मुख्यभूमि चीन में उनके परिवार के सदस्यों को परमेश्वर में विश्वास करने के कारण गिरफ्तार कर लिया गया है तो जो बात उनके दिल को समझ आती है—कि सब कुछ परमेश्वर के हाथों में है—वह उनके लिए धर्म-सिद्धांत बन जाती है, और वे इस तथ्य से बेबस हो जाते हैं कि उनके परिवार के सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया गया है और वे अपने कर्तव्य निभाने का रुझान खो देते हैं। अगर उन्होंने किसी रिश्तेदार की मौत की खबर सुनी तो वे शायद वहीं बेहोश हो जाएँगे। अगर वह देश नष्ट हो जाता है और वहाँ के सभी लोग मर जाते हैं तो तुम लोग कैसा महसूस करोगे? पारंपरिक चीजें—जैसे कि देश, घर, गृहनगर और मातृभूमि—साथ ही इन शब्दों से जुड़े कुछ पारंपरिक विचार और संस्कृति, तुम लोगों के दिलों में कितना गहरा स्थान रखती हैं? तुम्हारे जीवन में, क्या वे अभी भी तुम्हारे सभी क्रियाकलापों, सभी विचारों और व्यवहारों पर हावी हैं? अगर तुम्हारा दिल अभी भी उन सभी पारंपरिक चीजों से भरा हुआ है जिनसे तुम्हारा संबंध है, जैसे कि देश, जाति, राष्ट्र, परिवार, गृहनगर, भूमि वगैरह—यानी ये चीजें अभी भी तुम्हारे दिल में पारंपरिक संस्कृति का एक निश्चित निहितार्थ रखती हैं—तो तुम जो धर्मोपदेश सुनते हो और जिन सत्यों को समझते हो, वे सभी तुम्हारे लिए सिर्फ धर्म-सिद्धांत हैं। अगर तुमने बहुत सारे धर्मोपदेश सुने हैं, मगर उन सबसे बुनियादी चीजों को भी नहीं त्याग पा रहे हो जिन्हें लोगों को त्याग देना और जिनसे खुद को अलग कर लेना चाहिए, और तुम उनके साथ सही ढंग से पेश नहीं आ रहे हो तो जिन सत्यों को तुम समझते हो वे वास्तव में किन समस्याओं का समाधान करते हैं?

फुटनोट :

क. “लाओ” और “शाओ” चीनी भाषा में उपनामों से पहले जोड़े जाने वाले उपसर्ग हैं, जो वक्ता और श्रोता के बीच अपनेपन या सहजता की भावना को व्यक्त करते हैं।

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