मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते और वे व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ विश्वासघात तक कर देते हैं (भाग एक) खंड एक

परिशिष्ट : सत्य क्या है

आज हम पिछली बार की संगति की विषय-वस्तु पर चर्चा जारी रखेंगे। पिछली बार हमने किस विषय पर संगति की थी? (“अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना” सत्य नहीं है।) तो क्या तुम सोचते थे कि यह सत्य है? लोग अवचेतन रूप से सोचते थे कि यह सत्य है या कम से कम यह काफी सकारात्मक, प्रेरणादायक है और संभवतः लोगों को सक्रिय और उन्नतिशील बनने के लिए प्रोत्साहित कर सकता है। इस स्तर से इसका अर्थ देखें तो लोगों को यह सत्य और सकारात्मक चीजों के काफी करीब लगा। इसलिए कई लोगों ने अवचेतन रूप से मान लिया कि यह कहावत “अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना” काफी सकारात्मक अभिव्यक्ति है या कम से कम इसका नकारात्मक के बजाय सकारात्मक अर्थ है, और लोगों के जीवन और स्व-आचरण में सहायता करने में इसकी भूमिका है। मगर इस पर संगति करने के बाद हमने देखा कि ऐसा कुछ भी नहीं है, बल्कि इसमें बड़ी समस्याएँ हैं। क्या तुम लोगों ने उन अभिव्यक्तियों की खोज और उनका गहन-विश्लेषण किया है जो इस अभिव्यक्ति के समान या इससे संबंधित हैं या जिनकी भूमिका एक समान है या जिनके बारे में लोग अवचेतन रूप से सोचते हैं कि वे काफी हद तक सकारात्मक या अच्छी हैं? (नहीं।) मुझे बताओ, क्या “एक उदाहरण से अनेक निष्कर्ष निकालना” अभिव्यक्ति यहाँ उपयुक्त है? (हाँ।) यह कहा जाना चाहिए कि जब सत्य खोजने और इसका अभ्यास करने की बात आती है तो इस अभिव्यक्ति के व्यावहारिक अनुप्रयोग होते हैं। पिछली बार हमने “अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना” के बारे में संगति की थी। इसके जैसी और कौन-सी अभिव्यक्तियाँ हैं? कौन-सी अन्य अभिव्यक्तियाँ लगभग समान अर्थ रखती हैं या समान भूमिका निभा सकती हैं? मेरे दिखाए मार्ग के अनुसार “अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना” जैसी अभिव्यक्तियों का गहन-विश्लेषण करने, इनके बारे में एक-दूसरे के साथ संगति करने और कुछ नई समझ हासिल करने में तुम लोगों का कोई नुकसान नहीं है। जब तुम उनकी भ्रांतियों को ठीक से समझ पाओगे तो तुम ऐसी अभिव्यक्तियों को त्याग दोगे और फिर पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों पर आधारित होकर सत्य का अभ्यास करने और सत्य की खोज करने का मार्ग अपनाओगे।

पिछली दो बार हमने जिस विषय पर संगति की थी, आओ आज उसी पर संगति जारी रखें। वह विषय क्या था? (सत्य क्या है।) सही कहा, सत्य क्या है। तो आखिर क्या है सत्य? (सत्य इंसान के स्व-आचरण, क्रियाकलापों और परमेश्वर की आराधना की कसौटी है।) ऐसा लगता है तुम लोगों ने इस वाक्य के सिद्धांत और परिभाषा को याद कर लिया है। तो हमारी पिछली दो संगतियों के बाद क्या पहले की तुलना में अब तुम्हारे दिल की गहराई में सत्य की परिभाषा, ज्ञान और समझ में कोई अंतर आया है? (हाँ, आया है।) आखिर क्या अंतर आया है? भले ही कम समय में तुम्हें व्यावहारिक अनुभव का ज्ञान नहीं हो सकता, फिर भी कम से कम तुम्हें कुछ अवधारणात्मक ज्ञान तो होगा ही। तुम मुझे अपने खुद के अनुभव, ज्ञान और समझ के आधार पर बताओ। (पहले मैं यह जानती थी कि जब भी मेरे सामने मामले आते हैं तो मुझे परमेश्वर के वचनों के सत्य के अनुसार अभ्यास करना चाहिए पर मैं कभी इसे अभ्यास में नहीं ला सकी। यह ऐसा है जैसे कि मुझमें आम तौर पर उतावलापन दिखाने की प्रवृत्ति है, और भले ही परमेश्वर के वचनों से मैं जानती हूँ कि उतावलापन दिखाना गलत है और मैं लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाओं को जानती हूँ फिर भी मैं ऐसा करती हूँ, और अब तक इसका मूल कारण नहीं ढूँढ़ पाई हूँ। पिछली बार परमेश्वर की संगति सुनने के बाद ही मुझे एहसास हुआ कि अक्सर लोग भ्रष्टता इसलिए दिखाते हैं कि वे शैतानी विचारों के काबू में होते हैं और मैं उतावलापन इसलिए दिखाती हूँ क्योंकि मेरे अंदर यह शैतानी तर्क है कि “मैं तब तक हमला नहीं करूँगी जब तक मुझ पर हमला नहीं किया जाता; यदि मुझ पर हमला किया जाता है तो मैं निश्चित रूप से जवाबी हमला करूँगी।” मुझे लगता है कि यह कहावत सही है और मैं आत्म-रक्षा के उपाय के रूप में ऐसा बर्ताव करती हूँ। इस शैतानी सोच और दृष्टिकोण से प्रभावित होकर मैं सत्य का अभ्यास करने में असक्षम हूँ। लेकिन दरअसल, भले ही ये शैतानी बातें बाहरी तौर पर सही लगती हैं, वास्तव में वे जो अर्थ व्यक्त करती हैं वह परमेश्वर के वचनों की अपेक्षा के बिल्कुल विपरीत है और वे गलत हैं। केवल परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं और परमेश्वर के वचनों के अनुसार व्यवहार करना ही पूरी तरह से सही है।) बहुत बढ़िया। और कोई कुछ कहना चाहेगा? (मैं इसमें कुछ और जोड़ना चाहूँगा। पहले मैं भी जानता था कि मामलों से सामना होने पर मुझे सत्य खोजना और इसका अभ्यास करना चाहिए, फिर भी मैं इसके अभ्यास करने के तरीके को लेकर थोड़ी उलझन में था। परमेश्वर की संगति सुनकर मुझे लगता है कि सत्य बहुत वास्तविक है और इसका संबंध जीवन के हर पहलू से है। परमेश्वर के ही बताए कुछ उदाहरण ले लो। चीनी लोग भी पश्चिमी देशों में आने के बाद कॉफी पीना सीख जाते हैं। यह किसी के व्यवहार की समस्या नहीं बल्कि लोगों के विचारों और दृष्टिकोण की समस्या है और इसका संबंध सत्य से है। और फिर, लोगों द्वारा सही माने जाने वाली कुछ सामान्य कहावतों और मुहावरों के बारे में परमेश्वर के गहन-विश्लेषण के बाद मैं सोचने लगा हूँ कि मुझे अपने सही लगने वाले व्यवहारों और अभ्यासों पर, और इन व्यवहारों के पीछे के इरादों, विचारों और दृष्टिकोणों पर विचार करना चाहिए और इस पर भी विचार करना चाहिए कि इन चीजों पर भरोसा करके मैं वास्तव में कैसा जीवन जी रहा हूँ। अब मैं इस बारे में अधिक स्पष्ट हो गया हूँ कि जब भी मेरे सामने कोई मामला आए तो मुझे सत्य की खोज और उसका अभ्यास कैसे करना चाहिए, और अब यह उतना गूढ़ नहीं रह गया है।) ऐसा लगता है कि इन दो संगतियों से ज्यादातर लोगों को सत्य क्या है इसकी और सत्य से संबंधित कुछ विषयों के बारे में बुनियादी समझ हासिल हो गई है और साथ ही, अपने दिल की गहराई से उन्होंने पहले से ही इस बात पर विचार करना शुरू कर दिया है कि क्या उनका आचरण और कार्यकलाप सत्य से संबंधित हैं; साथ ही वे यह विचार भी करने लगे हैं कि वे परमेश्वर में अपने विश्वास में जिन बातों का पालन करते और सुनते हैं उनमें से वास्तव में कौन-सी बातें सत्य हैं और कौन-सी बातें सत्य नहीं हैं, क्या उन्हें जो चीजें सही लगती हैं वे वास्तव में सत्य हैं और ऐसी चीजों का सत्य से क्या संबंध है। विचार करने के बाद लोग यह निर्धारित कर सकते हैं कि वास्तव में सत्य क्या है; साथ ही यह भी कि वास्तव में कौन-सी बातें सत्य हैं और वास्तव में कौन-सी बातें सत्य नहीं हैं। इतने सालों तक धर्मोपदेश सुनने और परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने के बाद ज्यादातर लोगों ने कुछ चीजें हासिल की हैं और वे एक तथ्य स्पष्ट देख सकते हैं : परमेश्वर के वचन वास्तव में सत्य हैं, परमेश्वर की अपेक्षाएँ सत्य हैं और परमेश्वर से आने वाली हर चीज सत्य है। जो लोग वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हैं, उन्होंने पहले ही इस तथ्य को दिल से मान और स्वीकार लिया है मगर वास्तविक जीवन में वे अक्सर अनजाने में ऐसी बातें कह सकते हैं जिनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं होता या जो सत्य के विपरीत होती हैं। कुछ लोग तो उन चीजों को भी सत्य मान लेते हैं जिन्हें लोग सही और अच्छा समझते हैं और वे खास तौर पर शैतान से आने वाली उन दिखावटी भ्रांतियों और दानवी शब्दों का भेद नहीं पहचान पाए हैं जिन्हें उन्होंने न केवल बहुत समय से अपने दिल में स्वीकार लिया है, बल्कि उन्हें सकारात्मक चीजें भी मानते हैं। उदाहरण के लिए, कई शैतानी फलसफों जैसे कि “दाँत के बदले दाँत, आँख के बदले आँख,” “दूसरों को उनकी अपनी ही दवा का स्वाद चखाओ,” “समझदार लोग आत्म-रक्षा में अच्छे होते हैं, वे बस गलतियाँ करने से बचते हैं” और “मैं तब तक हमला नहीं करूँगा जब तक मुझ पर हमला नहीं किया जाता” इत्यादि को लोग सत्य और अपने जीवन के आदर्श वाक्य मानते हैं, और यहाँ तक कि लोग इन शैतानी फलसफों को कायम रखने के लिए आत्ममुग्ध होते हैं और फिर परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद ही उन्हें एहसास होता है कि शैतान से आयी ये बातें वास्तव में सत्य नहीं हैं, बल्कि दिखावटी पाखंड और भ्रांतियाँ हैं जो लोगों को गुमराह करती हैं। ये चीजें कहाँ से आती हैं? कुछ स्कूली शिक्षा और पाठ्य पुस्तकों से आती हैं, कुछ पारिवारिक शिक्षा से, तो कुछ सामाजिक अनुकूलन से आती हैं। संक्षेप में कहें तो, वे सभी परंपरागत संस्कृति से आती हैं और शैतान की शिक्षा से उत्पन्न होती हैं। क्या इन चीजों का सत्य से कोई लेना-देना है? इनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। मगर लोग इन चीजों की असलियत पहचान नहीं पाते और अभी भी उन्हें सत्य मानते हैं। क्या यह समस्या बहुत अधिक गंभीर हो गई है? शैतान से आयी इन बातों को सत्य मानने के क्या दुष्परिणाम हैं? क्या लोग इन बातों का पालन करके अपने भ्रष्ट स्वभावों को त्याग सकते हैं? क्या लोग इनका पालन करके सामान्य मानवता का जीवन जी सकते हैं? क्या लोग इनका पालन करके अंतरात्मा और विवेक के अनुसार जी सकते हैं? क्या लोग इनका पालन करके अंतरात्मा और विवेक के मानदंडों तक ऊपर उठ सकते हैं? क्या लोग इनका पालन करके परमेश्वर की स्वीकृति पा सकते हैं? वे ऐसा कुछ भी नहीं कर सकते। चूँकि वे इनमें से कुछ भी नहीं कर सकते तो लोग जिन चीजों का पालन करते हैं क्या वे सत्य हैं? क्या वे किसी व्यक्ति के जीवन के रूप में काम आ सकती हैं? उन लोगों को क्या दुष्परिणाम भुगतने होते हैं जो इन नकारात्मक बातों को सत्य मानते और इनका पालन करते हैं; जैसे कि वे चीजें जिन्हें वे सांसारिक आचरण के सही और अच्छे फलसफे, अस्तित्व की रणनीतियाँ, जीवित रहने के नियम और यहाँ तक कि परंपरागत संस्कृति मानते हैं? मानवजाति हजारों सालों से इन बातों का पालन करती आई है। क्या उसमें कोई बदलाव आया है? क्या मानवजाति की मौजूदा परिस्थिति में कोई भी बदलाव आया है? क्या भ्रष्ट मानवजाति पहले से भी ज्यादा दुष्ट और परमेश्वर के प्रति अधिक प्रतिरोधी नहीं होती जा रही है? परमेश्वर हर बार अपना कार्य करते समय अनेक सत्य व्यक्त करता है और लोग देख सकते हैं कि इन सत्यों में अधिकार और सामर्थ्य है, तो फिर ऐसा कैसे है कि मनुष्य अभी भी परमेश्वर को ठुकराने और उसका विरोध करने में सक्षम है? वे अभी भी परमेश्वर को स्वीकार और उसके प्रति समर्पण क्यों नहीं कर सकते? इतना सब यह दिखाने के लिए काफी है कि मानवजाति को शैतान ने बहुत गहराई तक भ्रष्ट कर दिया है, कि भ्रष्ट मानवजाति शैतानी स्वभावों से भरी हुई है, सत्य से विमुख हो चुकी है, इससे नफरत करती है और इसे बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करती है। इस समस्या की जड़ यह है कि मनुष्यों ने बहुत सारे शैतानी फलसफों और बहुत अधिक शैतानी ज्ञान को स्वीकार लिया है। अपने दिलों की गहराई में लोग सभी तरह के शैतानी विचारों और दृष्टिकोणों से भर चुके हैं और इसलिए उनमें सत्य से विमुख होने और सत्य से नफरत करने का स्वभाव विकसित हो गया है। हम परमेश्वर में विश्वास करने वाले बहुत से लोगों को देख सकते हैं कि भले ही वे यह मानते हैं कि परमेश्वर के वचनों में अधिकार और सामर्थ्य है, मगर वे सत्य नहीं स्वीकारते। यानी जब लोग परमेश्वर के वचनों को खाते-पीते हैं, वे भले ही अपने मुँह से स्वीकारते हों कि “परमेश्वर के वचन सत्य हैं, सत्य से ऊपर कुछ भी नहीं है, सत्य हमारे दिलों में है और हम सत्य का अनुसरण करना ही अपने अस्तित्व का लक्ष्य मानते हैं,” मगर वास्तविक जीवन में वे अभी भी मशहूर शैतानी कहावतों और शैतानी फलसफों के अनुसार जीते हैं और परमेश्वर के वचनों और सत्य को एक तरफ रखकर इंसानी धर्मशास्त्रीय ज्ञान और आध्यात्मिक धर्म-सिद्धांत जैसी चीजों का इस तरह पालन और अभ्यास करते हैं जैसे कि वे सत्य हों। क्या परमेश्वर में विश्वास करने वाले ज्यादातर लोगों की यही वास्तविक दशा है? (हाँ।) अगर तुम लोग इसी तरह पालन करते रहोगे और शैतानी परंपरागत संस्कृति से आई व गहरी जड़ें जमा चुकी इन चीजों का परमेश्वर के वचनों के आधार पर गहन-विश्लेषण नहीं करोगे और इन्हें समझोगे नहीं, और अगर तुम इनका भेद जड़ से नहीं पहचान पाओगे या इनकी पूरी समझ हासिल नहीं कर पाओगे या इन्हें त्याग नहीं पाओगे, तो क्या नतीजा होगा? एक नतीजा तो निश्चित है, जो यह है कि लोग कई सालों तक परमेश्वर में विश्वास करते हैं और फिर भी यह नहीं जानते कि सत्य क्या है या कौन-सा मार्ग अपनाना है और आखिर में वे कुछ आध्यात्मिक धर्म-सिद्धांत और धर्मशास्त्रीय सिद्धांत कंठस्थ कर लेते हैं, और उनकी कही हर बात अच्छी लगती है और ये सभी ऐसे धर्म-सिद्धांत हैं जो सत्य के अनुरूप होते हैं। मगर वास्तव में ये लोग अपने अभ्यास और जीवन जीने के मामले में पाखंडी फरीसियों के आदर्श प्रतिरूप हैं। इसके क्या अंजाम होते हैं? यकीनन, परमेश्वर उनकी निंदा करता है और उन्हें शाप देता है। जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं मगर सत्य स्वीकार नहीं करते वे फरीसी हैं और उन्हें कभी परमेश्वर की स्वीकृति नहीं मिल सकती।

उदाहरण के लिए, बच्चों को पढ़ाने के मुद्दे पर, कुछ पिता अपने बच्चों को आज्ञा नहीं मानते और अपने उचित कर्तव्यों का पालन नहीं करते देखकर कहते हैं : “पुराने लोग सही कहते थे कि ‘बिना सिखाए खाना खिलाना पिता की गलती है।’” ऐसे पिता इस मामले को परमेश्वर के वचनों के आधार पर नहीं देखते हैं। उनके दिलों में परमेश्वर के वचनों के बजाय केवल लोगों के शब्द होते हैं। तो क्या उनके पास सत्य वास्तविकता होती है? नहीं, उनके पास यह नहीं होती है। हालाँकि वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, कुछ सत्य समझते हैं और जानते होंगे कि उन्हें माता-पिता की अपनी जिम्मेदारी पूरी करने के लिए अपने बच्चों को शिक्षित करने के लिए सत्य का उपयोग करना चाहिए, पर वे इस तरह से अभ्यास नहीं करते। जब वे अपने बच्चों को गलत मार्ग पर चलते हुए देखते हैं तो आहें भरते हुए कहते हैं, “बिना सिखाए खाना खिलाना पिता की गलती है।” यह कैसी अभिव्यक्ति है? यह किसकी जानी-मानी अभिव्यक्ति है? (शैतान की जानी-मानी अभिव्यक्ति।) क्या परमेश्वर ने कभी यह अभिव्यक्ति कही है? (नहीं।) तो फिर यह अभिव्यक्ति कहाँ से आती है? (शैतान से।) यह शैतान से आती है, इस संसार से आती है। लोग सत्य का इतना अधिक “अनुसरण” करते हैं, सत्य से इतना अधिक “प्रेम” करते हैं और सत्य का इतना अधिक “गुणगान” करते हैं तो फिर अपने सामने ऐसे मामले आने पर वे इस तरह की शैतानी अभिव्यक्तियाँ क्यों कहते हैं? उन्हें तो यह भी लगता है कि ऐसा कहना सही और गरिमा वाली बात है। वे कहते हैं, “देखो, सत्य और परमेश्वर के प्रति मेरे मन में कितनी श्रद्धा और सम्मान है। यह कहना मेरे लिए स्वाभाविक है कि ‘बिना सिखाए खाना खिलाना पिता की गलती है’—यह कितना महान सत्य है! अगर मैं परमेश्वर में विश्वास न करता तो क्या मैं यह अभिव्यक्ति कह सकता था?” क्या यह इसे सत्य के रूप में प्रस्तुत करना नहीं है? (है।) तो क्या यह अभिव्यक्ति सत्य है? (नहीं।) “बिना सिखाए खाना खिलाना पिता की गलती है,” यह किस प्रकार की अभिव्यक्ति है? यह किस तरह से गलत है? इस अभिव्यक्ति का मतलब यह है कि अगर बच्चे अवज्ञाकारी या अपरिपक्व हैं तो इसके लिए पिता जिम्मेदार है, यानी माता-पिता ने उन्हें अच्छी शिक्षा नहीं दी। मगर क्या ऐसा कहना सही है? (नहीं।) कुछ माता-पिता सही ढंग से आचरण करते हैं, फिर भी उनके बेटे गुंडे-बदमाश और उनकी बेटियाँ वेश्याएँ होती हैं। पिता की भूमिका निभाने वाला व्यक्ति बहुत गुस्से में कहता है : “बिना सिखाए खाना खिलाना पिता की गलती है। मैंने उन्हें बिगाड़ दिया है!” यह कहना सही है या नहीं? (नहीं, यह गलत है।) यह किस तरह से गलत है? अगर तुम समझ सकते हो कि इस अभिव्यक्ति में क्या गलत है तो इससे साबित होता है कि तुम सत्य समझते हो और तुम यह भी समझते हो कि इस अभिव्यक्ति में निहित समस्या के बारे में क्या गलत है। अगर तुम इस मामले में सत्य नहीं समझते हो तो तुम इस मामले को स्पष्ट रूप से नहीं समझा सकते। अब जब तुम लोगों ने सत्य की व्याख्या और परिभाषा सुन ली है तो तुम महसूस कर सकते हो और कह सकते हो कि “यह अभिव्यक्ति गलत है, यह एक सांसारिक अभिव्यक्ति है। परमेश्वर में विश्वास करने वाले हम जैसे लोग ऐसी बातें नहीं कहते हैं।” तुमने इस मामले पर बात करने का बस तरीका बदल दिया है। इसका मतलब यह नहीं है कि तुम सत्य समझते हो—वास्तव में तुम नहीं जानते कि “बिना सिखाए खाना खिलाना पिता की गलती है,” इस अभिव्यक्ति में क्या गलत है। जब इस तरह के मामलों का सामना करना पड़े तो तुम्हें ऐसा क्या कहना चाहिए जो सत्य के अनुरूप हो? तुम्हें सत्य सिद्धांतों के अनुसार कैसे कार्य करना चाहिए? आओ पहले इस बारे में बात करें कि ऐसे मामलों को सही तरीके से कैसे समझा और समझाया जाए। परमेश्वर इस बारे में क्या कहता है? क्या परमेश्वर के वचनों में ऐसे मामलों के बारे में कहने के लिए कुछ विशिष्ट है? परमेश्वर ने बहुत सारे सत्य व्यक्त किए हैं, ताकि लोग उन वचनों को स्वीकारें और उन्हें अपना जीवन बना लें। तो क्या अपने बच्चों को शिक्षित करते समय लोगों को उन्हें सिखाने के लिए परमेश्वर के वचनों का उपयोग नहीं करना चाहिए? परमेश्वर के वचन पूरी मानवजाति के लिए बोले जाते हैं। तुम चाहे वयस्क हो या बच्चे, पुरुष हो या महिला, बूढ़े हो या जवान, सभी को परमेश्वर के वचन स्वीकारने चाहिए। केवल परमेश्वर के वचन सत्य हैं और लोगों का जीवन बन सकते हैं। केवल परमेश्वर के वचन लोगों को जीवन में सही मार्ग पर ले जा सकते हैं। परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोगों को इस मामले की पूरी समझ हासिल करने में सक्षम होना चाहिए। “बिना सिखाए खाना खिलाना पिता की गलती है,” इस अभिव्यक्ति की व्याख्या तुम कैसे करते हो? (व्यक्ति जो मार्ग अपनाता है वह उसके प्रकृति सार द्वारा निर्धारित होता है। इसके अलावा, इस जीवन में उसे जो दंड दिया जाएगा या जो आशीष इस जीवन में उसे प्राप्त होंगे, वे उसके पिछले जीवन से जुड़े हुए हैं। इसलिए यह कथन कि “यदि बच्चे सही मार्ग का अनुसरण नहीं करते हैं तो यह इसलिए है क्योंकि उनके माता-पिता ने उन्हें अच्छी शिक्षा नहीं दी” जाँच में खरा नहीं उतरता और इस तथ्य को पूरी तरह से नकारता है कि परमेश्वर मानवजाति के भाग्य पर संप्रभुता रखता है।) तुम्हारी बातों के हिसाब से, क्या बच्चों के सही मार्ग पर नहीं चलने का परमेश्वर की संप्रभुता से कोई लेना-देना है? परमेश्वर लोगों को अपने फैसले खुद लेने और सही मार्ग चुनने की अनुमति देता है। लेकिन लोगों में शैतानी प्रकृति होती है और सब अपने फैसले खुद लेते हैं, अपने हिसाब से अपना मार्ग चुनते हैं और परमेश्वर की संप्रभुता के प्रति समर्पण करने के लिए तैयार नहीं होते। अगर तुम जो कहते हो वह सत्य के अनुरूप है तो तुम्हें यह स्पष्ट रूप से समझाना चाहिए ताकि लोग इसके बारे में आश्वस्त हो सकें।

अब हम “बिना सिखाए खाना खिलाना पिता की गलती है” अभिव्यक्ति पर संगति करेंगे। पहली बात जो स्पष्ट करनी है वह यह है कि “बच्चों का सही मार्ग पर न चलने का संबंध उनके माता-पिता से है,” यह कहना गलत है। चाहे कोई भी हो, अगर वह किसी निश्चित तरह का व्यक्ति है तो वह एक निश्चित मार्ग पर चलेगा। क्या यह तय नहीं है? (है।) व्यक्ति जिस मार्ग को अपनाता है उससे निर्धारित होता है कि वह क्या है। वह जिस मार्ग को अपनाता है और जिस तरह का व्यक्ति बनता है, यह स्वयं पर निर्भर करता है। ये ऐसी चीजें हैं जो पूर्व-नियत, जन्मजात हैं और जिनका संबंध व्यक्ति की प्रकृति से है। तो माता-पिता द्वारा दी गई शिक्षा की क्या उपयोगिता है? क्या यह किसी व्यक्ति की प्रकृति को नियंत्रित कर सकती है? (नहीं।) माता-पिता द्वारा दी गई शिक्षा मानव प्रकृति को नियंत्रित नहीं कर सकती और न ही इस समस्या को हल कर सकती है कि व्यक्ति किस मार्ग पर जाएगा। वह एकमात्र शिक्षा क्या है जो माता-पिता दे सकते हैं? अपने बच्चों के दैनिक जीवन में कुछ सरल व्यवहार, कुछ एकदम सतही विचार और स्व-आचरण के नियम—ये ऐसी चीजें हैं जिनका माता-पिता से कुछ लेना-देना है। बच्चों के बालिग होने से पहले माता-पिता को अपनी उचित जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए, यानी अपने बच्चों को यह सिखाना चाहिए कि वे सही मार्ग पर चलें, कड़ी मेहनत से पढ़ाई करें और बड़े होने पर बाकी लोगों से ऊपर उठने में सक्षम होने का प्रयास करें, बुरे काम न करें या बुरे इंसान न बनें। माता-पिता को अपने बच्चों के व्यवहार को भी नियंत्रित करना चाहिए, उन्हें विनम्र होना और अपने से बड़ों से मिलने पर उनका अभिवादन करना सिखाना चाहिए, और उन्हें व्यवहार से संबंधित अन्य बातें सिखानी चाहिए—यही वह जिम्मेदारी है जो माता-पिता को पूरी करनी चाहिए। अपने बच्चे के जीवन का ख्याल रखना और उसे स्व-आचरण के कुछ बुनियादी नियमों की शिक्षा देना—माता-पिता का प्रभाव इतना ही है। जहाँ तक उनके बच्चे के व्यक्तित्व का सवाल है, माता-पिता यह नहीं सिखा सकते। कुछ माता-पिता शांत स्वभाव के होते हैं और हर काम आराम से करते हैं, जबकि उनके बच्चे बहुत अधीर होते हैं और थोड़ी देर के लिए भी शांत नहीं रह पाते। वे 14-15 साल की उम्र में अपने से ही जीविकोपार्जन करने के लिए निकल पड़ते हैं, वे हर चीज में अपने फैसले खुद लेते हैं, उन्हें अपने माता-पिता की जरूरत नहीं होती और वे बहुत स्वतंत्र होते हैं। क्या यह उन्हें उनके माता-पिता सिखाते हैं? नहीं। इसलिए किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व, स्वभाव और यहाँ तक कि उसके सार, और साथ ही भविष्य में वह जो मार्ग चुनता है, इन सबका उसके माता-पिता से कोई लेना-देना नहीं है। कुछ लोग यह कहकर इसका खंडन करते हैं, “इसका उनसे कोई लेना-देना कैसे नहीं हो सकता? कुछ लोग विद्वान परिवार से या किसी खास पेशे में पीढ़ियों से विशेषज्ञता रखने वाले परिवार से आते हैं। उदाहरण के लिए, एक पीढ़ी चित्रकला सीखती है, अगली पीढ़ी भी चित्रकला सीखती है और उसके बाद की पीढ़ी भी ऐसा ही करती है। इससे ‘बिना सिखाए खाना खिलाना पिता की गलती है’ अभिव्यक्ति की सत्यता साबित होती है।” ऐसा कहना सही है या गलत? (गलत है।) इस समस्या को स्पष्ट करने के लिए इस उदाहरण का उपयोग करना गलत और अनुपयुक्त है क्योंकि वे दो अलग-अलग चीजें हैं। पीढ़ियों से विशेषज्ञता प्राप्त परिवार का प्रभाव विशेषज्ञता के एक पहलू तक ही सीमित रहता है और हो सकता है कि इस पारिवारिक वातावरण के कारण हर कोई एक जैसी चीज सीखता हो। ऊपरी तौर पर बच्चा भी यही चीज चुनता है, मगर इसके मूल में यह सब परमेश्वर का पूर्वनिर्धारण है। व्यक्ति का पुनर्जन्म इस परिवार में कैसे हुआ? क्या यह भी कुछ ऐसा नहीं है जिस पर परमेश्वर की संप्रभुता है? माता-पिता अपने बच्चों को केवल उनके बालिग होने तक पालने के लिए जिम्मेदार हैं। बच्चे अपने माता-पिता के केवल बाहरी व्यवहार और जीवनशैली की आदतों से प्रभावित होते हैं। मगर बड़े होने के बाद जीवन में उनके लक्ष्य और भाग्य का उनके माता-पिता से कोई लेना-देना नहीं होता। कुछ माता-पिता केवल साधारण किसान होते हैं जो अपनी स्थिति के अनुसार जीवन जीते हैं, मगर उनके बच्चे अधिकारी बनकर बड़े काम करने में सक्षम होते हैं। फिर ऐसे बच्चे भी हैं जिनके माता-पिता वकील और डॉक्टर होते हैं, उनमें से हरेक व्यक्ति योग्य होता है, और फिर भी बच्चे निकम्मे होते हैं जो कहीं भी जाने पर नौकरी नहीं पा सकते। क्या उनके माता-पिता ने उन्हें यही सिखाया है? जब पिता वकील हो तो क्या यह संभावना है कि वह अपने बच्चों को शिक्षित करने और उन पर प्रभाव डालने में कोई कसर छोड़ेगा? बिल्कुल नहीं। कोई भी पिता यह नहीं कहता, “मैं अपने जीवन में बहुत संपन्न रहा हूँ, मुझे उम्मीद है कि मेरे बच्चे भविष्य में मेरी तरह संपन्न नहीं होंगे, यह बहुत थकाऊ होगा। भविष्य में वे गवाले ही बन जाएँ तो काफी है।” वह यकीनन अपने बच्चों को उससे सीखने और भविष्य में उसके जैसा बनने के लिए शिक्षित करेगा। जब वह अपने बच्चों को शिक्षित कर लेगा, तब बच्चों का क्या होगा? बच्चे वही बनेंगे जो उन्हें बनना है और उनका भाग्य वही होगा जो होना चाहिए, कोई भी इसे बदल नहीं सकता। तुम इसमें क्या तथ्य देखते हो? बच्चा जो भी मार्ग चुनता है उसका उसके माता-पिता से कोई लेना-देना नहीं है। कुछ माता-पिता परमेश्वर में विश्वास करते हैं और अपने बच्चों को भी परमेश्वर में विश्वास करना सिखाते हैं, मगर चाहे वे जो भी कहते हैं उस पर उनके बच्चे विश्वास नहीं करते, और माता-पिता इसके बारे में कुछ नहीं कर सकते। कुछ माता-पिता परमेश्वर में विश्वास नहीं करते जबकि उनके बच्चे परमेश्वर में विश्वास करते हैं। एक बार जब उनके बच्चे परमेश्वर में विश्वास करना शुरू कर देते हैं तो वे परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, उसके लिए खुद को खपाते हैं, सत्य स्वीकारने में सक्षम होते हैं और परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करते हैं, और इस प्रकार उनका भाग्य बदल जाता है। क्या यह माता-पिता द्वारा दी गई शिक्षा का नतीजा है? बिल्कुल नहीं, यह परमेश्वर की पूर्व-नियति और चयन से संबंधित है। “बिना सिखाए खाना खिलाना पिता की गलती है,” इस अभिव्यक्ति में एक समस्या है। भले ही अपने बच्चों को शिक्षित करने की जिम्मेदारी माता-पिता की होती है मगर एक बच्चे का भाग्य उसके माता-पिता द्वारा नहीं बल्कि बच्चे की प्रकृति से निर्धारित होता है। क्या शिक्षा बच्चे की प्रकृति की समस्या हल कर सकती है? यह इसे बिल्कुल भी हल नहीं कर सकती। कोई व्यक्ति जीवन में जो मार्ग अपनाता है, वह उसके माता-पिता द्वारा निर्धारित नहीं होता, बल्कि परमेश्वर द्वारा पहले से निर्धारित होता है। ऐसा कहा जाता है कि “मनुष्य का भाग्य स्वर्ग द्वारा तय होता है,” और यह कहावत मानवीय अनुभव से निकली है। व्यक्ति के बालिग होने से पहले तुम यह नहीं बता सकते कि वह कौन-सा मार्ग अपनाएगा। जब वह बालिग हो जाएगा, और उसके पास विचार होंगे और वह समस्याओं पर चिंतन कर सकेगा तब वह चुनेगा कि इस विस्तृत समुदाय में उसे क्या करना है। कुछ लोग कहते हैं कि वे वरिष्ठ अधिकारी बनना चाहते हैं, दूसरे कहते हैं कि वे वकील बनना चाहते हैं और फिर कुछ और कहते हैं कि वे लेखक बनना चाहते हैं। हर किसी की अपनी पसंद और अपने विचार होते हैं। कोई भी यह नहीं कहता, “मैं बस अपने माता-पिता द्वारा मेरी शिक्षा पूरी किए जाने का इंतजार करूँगा। मैं वही बनूँगा जो मेरे माता-पिता मुझे बनने के लिए शिक्षित करेंगे।” कोई भी व्यक्ति इतना बेवकूफ नहीं है। बालिग होने के बाद लोगों के विचार उमड़ने और धीरे-धीरे परिपक्व होने लगते हैं, और इस तरह उनके आगे का मार्ग और लक्ष्य अधिक स्पष्ट होने लगते हैं। इस समय धीरे-धीरे यह जाहिर और स्पष्ट हो जाता है कि वह किस प्रकार का व्यक्ति है और किस समूह का हिस्सा है। यहाँ से हरेक इंसान का व्यक्तित्व, साथ ही उसका स्वभाव और वह किस मार्ग का अनुसरण कर रहा है, जीवन में उसकी दिशा और वह किस समूह से संबंधित है, सब धीरे-धीरे स्पष्ट परिभाषित होने लगता है। यह सब किस पर आधारित है? आखिरकार, यह उसी चीज पर आधारित है जो परमेश्वर ने पहले से निर्धारित किया है—इसका व्यक्ति के माता-पिता से कोई लेना-देना नहीं है। क्या अब तुम इसे स्पष्ट रूप से देख रहे हो? तो किन चीजों का माता-पिता से कोई लेना-देना है? व्यक्ति का रूप-रंग, कद, गुणसूत्र और कुछ पारिवारिक बीमारियों का उसके माता-पिता से थोड़ा-बहुत संबंध है। मैं थोड़ा-बहुत क्यों कह रहा हूँ? क्योंकि 100% मामलों में ऐसा नहीं होता। कुछ परिवारों में हर पीढ़ी किसी बीमारी से पीड़ित होती है मगर फिर एक बच्चा इस बीमारी के बिना पैदा होता है। ऐसा कैसे हो सकता है? कुछ लोग कहते हैं : “ऐसा इसलिए है क्योंकि इस बच्चे का व्यक्तित्व अच्छा है।” यह लोगों की राय है, मगर यह मामला कहाँ से शुरू होता है? (परमेश्वर के पूर्व-निर्धारण से।) बिल्कुल ऐसा ही है। तो क्या यह कहावत “बिना सिखाए खाना खिलाना पिता की गलती है” वास्तव में सही है या गलत? (यह गलत है।) अब तुम इसके बारे में स्पष्ट हो, है ना? अगर तुम भेद पहचानना नहीं जानते तो काम नहीं चलेगा। सत्य के बिना तुम किसी भी मामले को स्पष्ट रूप से नहीं देख सकते।

दैनिक जीवन में शैतान के इन सत्याभासी विचारों में से कुछ विचार हर व्यक्ति के मन में होते हैं। वे अंदर ही अंदर जमा और संगृहीत रहते हैं और जब भी कुछ होता है तो प्रकट हो जाते हैं। कुछ लोग कहते हैं : “एक नेक पुरुष महिलाओं से नहीं लड़ता। देखो मैं कितना कुलीन हूँ। मैं एक मर्दाना, साहसी पुरुष हूँ, जबकि तुम तो छुईमुई हो, इसलिए मैं तुमसे नहीं लड़ूँगा।” वे इस अभिव्यक्ति को क्या मानते हैं? (सत्य।) वे इसे सत्य और सत्य का अभ्यास करने का सिद्धांत मानते हैं। ऐसे लोग भी हैं जो किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हैं जिसके नैन-नक्श बहुत सुंदर हैं और जो किसी इज्जतदार सज्जन जैसा दिखता है, मगर वह चालाक है और हमेशा खुद को छिपाने की कोशिश करता है, और जो दूसरों के साथ बातचीत करते समय विशेष रूप से धोखेबाज और कपटी है, और कई लोग उसे पहचान नहीं पाते हैं तो वे कहते हैं : “मैं परमेश्वर में बस इसलिए विश्वास करता हूँ ताकि मैं एक ईमानदार और दयालु व्यक्ति के रूप में आचरण कर सकूँ और दूसरों के प्रति शत्रुता रखने के बजाय मित्रता रख सकूँ। जैसी कि यह कहावत है, ‘नकली सज्जन की तुलना में सच्चा खलनायक बनना बेहतर है।’ परमेश्वर के कुछ वचनों का भी यही अर्थ है।” इन लोगों की बातों के बारे में तुम्हारा क्या खयाल है? “नकली सज्जन की तुलना में सच्चा खलनायक बनना बेहतर है।” तुमने देखा, जैसे ही लोगों के साथ कुछ होता है, उनके अंदर की ये सभी सामान्य कहावतें, लोकोक्तियाँ और मुहावरे एक साथ बाहर निकल आते हैं और उनमें सत्य का एक शब्द भी नहीं होता। आखिर में वे लोग यहाँ तक कहते हैं, “मुझे प्रबुद्ध बनाने के लिए परमेश्वर का धन्यवाद।” यह कहावत कि “नकली सज्जन की तुलना में सच्चा खलनायक बनना बेहतर है,” सही है या गलत? (यह गलत है।) तुम सभी जानते हो कि यह गलत है, मगर इसमें गलत क्या है? नकली सज्जनों के साथ समस्या यह है कि वे नकली हैं। कोई भी नकली सज्जन नहीं बनना चाहता, वे एक सच्चा खलनायक बनना चाहते हैं। सच्चे खलनायकों में ऐसा क्या है जो लोगों को पसंद आता है? भले ही वे खलनायक हों, पर वे सच्चे होते हैं, इसलिए सभी की स्वीकृति पाते हैं। तो तुम लोग क्या बनना चाहते हो, एक सच्चा खलनायक या नकली सज्जन? (दोनों में से कोई भी नहीं।) तुम ये दो तरह के लोग क्यों नहीं बनते? (इनमें से कोई भी सत्य के अनुरूप नहीं है, परमेश्वर के वचनों में इस बारे में कुछ नहीं कहा गया है।) क्या तुम यह दावा करने के लिए प्रासंगिक आधार ढूँढ़ सकते हो कि परमेश्वर ने लोगों को नकली सज्जन या सच्चा खलनायक बनने के लिए नहीं कहा है? (परमेश्वर चाहता है कि लोग ईमानदार बनें।) परमेश्वर चाहता है कि लोग ईमानदार हों। तो फिर ईमानदार लोगों और सच्चे खलनायकों के बीच क्या अंतर है? “खलनायक” शब्द अच्छा नहीं है, मगर वे काफी सच्चे होते हैं। सच्चे खलनायक अच्छे क्यों नहीं होते? क्या तुम स्पष्ट रूप से समझा सकते हो? यह दावा करने का आधार क्या है कि न तो सच्चे खलनायक और न ही नकली सज्जन अच्छे लोग होते हैं? खलनायक क्या हैं? खलनायकों के साथ आम तौर पर कौन-सा शब्द जुड़ा होता है? (घृणित।) सही कहा। परमेश्वर के वचनों में “घृणित” शब्द को कैसे वर्णित और परिभाषित किया गया है? परमेश्वर के वचनों में “घृणित” को एक अच्छा शब्द कहा गया है या खराब? (खराब शब्द।) खराब शब्द, जिसकी परमेश्वर निंदा करता है। घृणित क्रियाकलापों और घृणित विचारों वाले लोग खलनायक होते हैं। खलनायक के स्वभाव और सार को और किस तरह से परिभाषित किया जा सकता है? स्वार्थी, है ना? (हाँ।) इस तरह का व्यक्ति स्वार्थी और घृणित होता है। भले ही वह जो प्रकट करता है वह वास्तविक है और उसका असली स्वभाव है, फिर भी वह बहुत हद तक खलनायक है। एक नकली सज्जन धोखेबाज और दुष्ट होता है और हमेशा खुद को छिपाते हुए दूसरों पर अपनी झूठी छाप छोड़ता है ताकि दूसरों को अपना उज्ज्वल, चमकदार और दोस्ताना पहलू दिखा सके। वह अपने असली स्वभाव, राय और विचारों को छिपाकर रखता है ताकि कोई भी उन्हें देख या समझ न सके। ऐसे लोगों का स्वभाव कैसा होता है? (धोखेबाज और दुष्ट।) वे बस दुष्ट लोग हैं। इस प्रकार न तो सज्जन और न ही खलनायक अच्छे लोग हैं। एक अंदर से बुरा है तो दूसरा बाहर से। उनके स्वभाव वास्तव में एक जैसे हैं—वे दोनों ही बेहद दुष्ट, स्वार्थी और धोखेबाज हैं। क्या ये दो प्रकार के बेहद दुष्ट और धोखेबाज लोग ईमानदार बनना चाहते हैं? (नहीं।) इसलिए तुम इन दो प्रकार के लोगों में से चाहे कैसे भी बनो, तुम वह अच्छे या ईमानदार व्यक्ति नहीं हो जिसकी परमेश्वर अपेक्षा करता है। तुम ऐसे व्यक्ति हो जिससे परमेश्वर घृणा करता है और तुम वह व्यक्ति नहीं हो जैसा बनने की अपेक्षा परमेश्वर तुमसे करता है। तो मुझे बताओ, क्या यह अभिव्यक्ति कि “नकली सज्जन की तुलना में सच्चा खलनायक बनना बेहतर है” सत्य है? (नहीं।) इस दृष्टिकोण से देखें तो यह अभिव्यक्ति सत्य नहीं है। बहुत से लोग खुद को अच्छे लोगों के रूप में पेश करने के लिए नकली सज्जनों पर हमला करने और उनकी निंदा करने के उद्देश्य से कहते हैं कि “नकली सज्जन की तुलना में सच्चा खलनायक बनना बेहतर है,” मानो इन खलनायकों की “खलनायकी” उन्हें विशेष रूप से न्यायपूर्ण और सच्चा बनाती हो, जैसे कि वे न्याय की कोई शक्ति हों। एक खलनायक होकर तुम न्यायपूर्ण होने का दावा कैसे कर सकते हो? तुम तो निंदा के पात्र हो।

हर किसी के मन में इस प्रकार की कई अभिव्यक्तियाँ और बातें होती हैं और बहुत से लोग इस तरह का नजरिया रखते हैं। चाहे वह परंपरागत संस्कृति हो, लोकोक्तियाँ हों, पारिवारिक आदर्श वाक्य हों, पारिवारिक नियम हों या किसी देश की कानूनी व्यवस्था हो, लोग अक्सर इन चीजों का इस्तेमाल करते हैं जो समाज में लंबे समय से और व्यापक रूप से प्रचलित हैं और जिन्हें लंबे समय से समाज और मानवजाति के बीच सकारात्मक चीजों के रूप में घोषित और प्रचारित किया गया है, ताकि लोगों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी शिक्षा दी जा सके। कुछ अभिव्यक्तियाँ लोगों के दिलों में अभ्यास के सिद्धांतों और मानव अस्तित्व के सिद्धांतों के रूप में गहराई तक बसी हैं। कुछ अभिव्यक्तियाँ ऐसी हैं जो किसी दृष्टिकोण को व्यक्त करती हैं जिससे लोग केवल सहमत होते हैं, मगर जरूरी नहीं कि वे उसे लागू करना चाहें। चाहे तुम उन्हें लागू करना चाहो या नहीं, वास्तव में तुम अपने दिल की गहराई में इन अभिव्यक्तियों को अपने स्व-आचरण के लिए अभ्यास के सिद्धांत मानते हो। संक्षेप में कहूँ तो ये चीजें परमेश्वर में लोगों के विश्वास और सत्य के अनुसरण में एक बड़ी बाधा हैं। वे लोगों को लाभ पहुँचाने के बजाय केवल नुकसान पहुँचाती हैं। उदाहरण के लिए, आधुनिक लोग अक्सर इस बात की चर्चा करते हैं कि “जीवन अनमोल है, प्रेम उससे भी अधिक अनमोल है। मगर स्वतंत्रता की खातिर मैं दोनों ही त्याग दूँगा।” यह अभिव्यक्ति एक मशहूर कहावत है जिसका समर्थन और सम्मान पूरब और पश्चिम के वे लोग करते हैं जिनके पास ऊँचे आदर्श हैं और जो स्वतंत्र होकर पारंपरिक सामंती व्यवस्था से छुटकारा पाना चाहते हैं। यहाँ लोगों के अनुसरण का केन्द्र बिन्दु क्या है? क्या यह जीवन है? या प्रेम है? (नहीं, यह स्वतंत्रता है।) सही कहा, यह स्वतंत्रता है। तो क्या यह अभिव्यक्ति सत्य है? इस अभिव्यक्ति का अर्थ यह है कि स्वतंत्रता पाने के लिए जीवन को त्यागा जा सकता है और प्रेम को भी त्यागा जा सकता है—यानी जिस व्यक्ति से तुम प्रेम करते हो उसे भी त्यागा जा सकता है—ताकि उस खूबसूरत स्वतंत्रता की ओर दौड़ा जा सके। सांसारिक लोगों को यह स्वतंत्रता कैसी लगती है? इस चीज को कैसे समझाया जाए जिसे वे स्वतंत्रता समझते हैं? परंपरा को तोड़ना एक तरह की स्वतंत्रता है, पुराने रीति-रिवाजों को तोड़ना एक तरह की स्वतंत्रता है, और सामंती राजशाही को तोड़ना भी एक तरह की स्वतंत्रता है। और क्या? (किसी राजनीतिक व्यवस्था के काबू में न होना।) दूसरा है सत्ता या राजनीति के काबू में न होना। वे इस तरह की स्वतंत्रता पाना चाहते हैं। तो वे जिस स्वतंत्रता की बात करते हैं, क्या वह सच्ची स्वतंत्रता है? (नहीं।) क्या यह उस स्वतंत्रता के समान है जिसके बारे में परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोग बात करते हैं? (नहीं।) परमेश्वर में विश्वास करने वाले कुछ लोगों के दिलों में यह दृष्टिकोण भी हो सकता है : “परमेश्वर में विश्वास करना अद्भुत है, यह तुम्हें मुक्त और आजाद करता है। तुम्हें किसी भी रीति-रिवाज या पारंपरिक औपचारिकताओं का पालन करने की जरूरत नहीं है, तुम्हें शादियों और अंतिम संस्कारों का आयोजन करने या उनमें शामिल होने की चिंता करने की जरूरत नहीं है, तुम सभी सांसारिक चीजों को त्याग देते हो। तुम वाकई इतने स्वतंत्र होते हो!” क्या ऐसा ही है? (नहीं।) तो वास्तव में स्वतंत्रता क्या है? क्या तुम लोग अभी स्वतंत्र हो? (थोड़े-बहुत।) तुम लोगों को यह थोड़ी-बहुत स्वतंत्रता कैसे मिली? इस स्वतंत्रता का क्या अर्थ है? (सत्य को समझना और शैतान के अंधकारमय प्रभाव से बाहर निकलना।) शैतान के अंधकारमय प्रभाव से निकलने के बाद तुम थोड़ी सी मुक्ति और कुछ हद तक स्वतंत्रता महसूस करते हो। लेकिन, अगर मैं इसका गहन-विश्लेषण नहीं करता तो तुम सभी सोचते कि तुम वास्तव में स्वतंत्र हो, जबकि वास्तव में तुम स्वतंत्र नहीं हो। सच्ची स्वतंत्रता स्थानिक और भौतिक दृष्टि से शरीर की उस तरह की स्वतंत्रता और मुक्ति नहीं है जैसा लोग सोचते हैं। बल्कि, वास्तव में जब लोग सत्य समझ जाते हैं तो उनके पास विभिन्न लोगों, घटनाओं, चीजों और संसार के बारे में सही विचार होंगे और वे जीवन में सही लक्ष्यों और दिशा का अनुसरण कर सकेंगे, और जब लोग शैतान के प्रभाव और शैतानी विचारों और दृष्टिकोणों की बाधाओं के अधीन नहीं होते तो उनका हृदय मुक्त हो जाता है—यही सच्ची स्वतंत्रता है।

एक अविश्वासी युवक है जो सोचता है कि उसे स्वतंत्रता पसंद है, वह किसी पक्षी की तरह हर जगह उड़ना और उन्मुक्त जीवन जीना चाहता है, इसलिए वह अपने परिवार के घटिया नियमों और कहावतों से नफरत करता है। वह अक्सर अपने दोस्तों से कहता है : “भले ही मैं एक बहुत पारंपरिक, बहुत बड़े परिवार में पैदा हुआ जिसमें बहुत सारे नियम और परंपराएँ हैं और जहाँ अभी भी एक पैतृक मंदिर है जिसमें हरेक पीढ़ी की स्मारक पट्टिकाएँ व्यवस्थित तरीके से रखी हुई हैं, मैंने खुद इन परंपराओं को तोड़ दिया है और इन पारिवारिक नियमों, पारिवारिक परंपराओं और सामान्य रीति-रिवाजों से प्रभावित नहीं हूँ। क्या तुम्हें लगता नहीं कि मैं एकदम अपारंपरिक व्यक्ति हूँ?” उसके दोस्त कहते हैं : “हमने देखा है कि तुम बहुत ही अपारंपरिक हो।” उन्होंने यह कैसे देखा? उसकी जीभ में छल्ला है, नाक में नथ है, दोनों कानों में चार-पाँच छल्ले हैं, नाभि में छल्ला है और उसकी बाँह पर साँप का टैटू बना है। चीनी लोग साँप को अशुभ मानते हैं मगर उसने अपने शरीर पर साँप का टैटू बनवाया और लोग इसे देखकर डर जाते हैं। यह अपारंपरिक है, है ना? (हाँ।) यह बेहद अपारंपरिक है और इससे भी अधिक, वह आधुनिक सोच रखने वाले व्यक्ति की तरह बोलता है। उसे देखने वाला हर कोई कहता है, “यह आदमी कमाल का है! वह अपारंपरिक है, पक्का अपारंपरिक!” उसका मानना है कि वह सिर्फ इन्हीं तरीकों से अपना अपारंपरिक होना व्यक्त नहीं कर सकता, बल्कि इसे थोड़ा और मूर्त बनाना होगा जिससे लोग इस बात के संकेत देख सकें कि वह कितना अपारंपरिक है। वह देखता है कि आम तौर पर दूसरों की महिला मित्र पीली चमड़ी वाली, चीनी लड़कियाँ होती हैं और वह जानबूझकर अपने लिए एक विदेशी, गोरी महिला मित्र बना लेता है ताकि हर कोई यह यकीन कर सके कि उसकी सोच वाकई अपारंपरिक है। इसके बाद वह हर परिस्थिति में अपनी महिला मित्र की नकल करता है, वह वही करता है जो कुछ उसकी महिला मित्र कहती है, वह वैसा ही करता है जैसा वह उसे करने के लिए कहती है। जब उसका जन्मदिन नजदीक आता है तो उसकी महिला मित्र उसके लिए एक बड़े डिब्बे में पैक किया हुआ एक रहस्यमय तोहफा खरीदती है और वह खुशी-खुशी अपना तोहफा खोलने लगता है। पैकेज की सभी परतों को हटाने के बाद, उसे अंदर एक हरे रंग की टोपी दिखाई देती है। सभी चीनी लोग “हरी टोपी” के संकेत को जानते हैं, है ना? यह यकीनन एक बहुत ही पारंपरिक चीज है। जैसे ही वह इसे देखता है, गुस्से में आकर कहता है, “यह कैसा तोहफा है? तुमने यह तोहफा किसके लिए खरीदा है?” उसकी महिला मित्र ने सोचा था कि वह खुश होगा—फिर वह इतने गुस्से में क्यों है? उसे कोई कारण समझ नहीं आता, इसलिए वह कहती है : “इस हरी टोपी को ढूँढ़ना आसान नहीं था। मेरी मानो, यह तुम पर अच्छी लगेगी।” वह कहता है, “जानती हो यह टोपी क्या दर्शाती है?” प्रेमिका कहती है : “क्या यह सिर्फ एक टोपी नहीं है? हरी टोपियाँ तो अच्छी लगती हैं।” और वह उससे इसे पहनने की जिद करती है। लेकिन चाहे कुछ भी हो जाए, वह इसे नहीं पहनेगा। क्या पश्चिमी लोग “हरी टोपियों” के संकेत को जानते हैं? (नहीं, वे नहीं जानते।) तो क्या इस मामले को स्पष्ट रूप से समझाया और बताया नहीं जाना चाहिए? तुममें से कोई भी इसका जवाब नहीं दे सकता—तुम इसे स्पष्ट रूप से समझाने की हिम्मत क्यों नहीं करते? यह कोई बड़ी बात तो नहीं है, निश्चित रूप से? तुम लोग बिल्कुल इसी आदमी की तरह हो—सत्य और स्वतंत्रता खोजने के लिए अपारंपरिक होने और परंपरा को छोड़ देने और शैतानी पारंपरिक संस्कृति की धारणाओं को त्यागने का झंडा लहराते हो, मगर फिर भी इस हरी टोपी पर आकर एकदम अटक जाते हो। उस युवक की महिला मित्र उससे इसे पहनने के लिए कहती है और वह इसे किसी भी कीमत पर नहीं पहनता, और आखिर में कहता है : “तुम मुझे इसे पहनने के लिए मजबूर कर रही हो। अगर मैं इसे पहनता हूँ तो मुझे दूसरों से अपमान सहना पड़ेगा!” यही इस मुद्दे का सार है और समस्या यहीं पर है—यह परंपरा है। यह परंपरा इस बारे में नहीं है कि कोई चीज किस रंग की है या किस तरह की है, बल्कि यह उस संकेत और दृष्टिकोण के बारे में है जो यह चीज लोगों में जगाती है। यह—हरी टोपी—वास्तव में क्या संकेत देती है? यह क्या दर्शाती है? लोग इस रंग की टोपियों को बुरा मानते हैं, इसलिए वे इस रंग की टोपियों को ठुकरा देते हैं। लोग उन्हें क्यों ठुकरा देते हैं? वे ऐसी चीज को क्यों नहीं स्वीकार सकते? क्योंकि उनके भीतर एक प्रकार की पारंपरिक सोच है। यह पारंपरिक सोच अपने आप में सत्य नहीं है; यह एक भौतिक चीज की तरह है, मगर इस समाज और इस मानवजाति ने अनजाने में इसे कुछ नकारात्मक अर्थ में बदल दिया है। उदाहरण के लिए, लोग सफेद को पवित्रता के प्रतीक में, काले को अंधकार और दुष्टता के प्रतीक में और लाल को उत्सव, रक्तपात और जुनून के प्रतीक में बदल देते हैं। अतीत में चीनी लोग लाल को उत्सव का रंग मानकर शादी में लाल कपड़े पहनते थे। जब पश्चिमी लोग शादी करते हैं तो वे सुंदर और स्वच्छ सफेद कपड़े पहनते हैं जो पवित्रता के प्रतीक हैं। शादी के बारे में दोनों संस्कृतियों की समझ अलग-अलग है। एक में इसे लाल रंग से दर्शाया गया है तो दूसरे में इसे सफेद रंग से दर्शाया गया है। ये दोनों रंग शादी के प्रति आशीष का रवैया दर्शाते हैं। विभिन्न जातीय समूहों और जातियों के लोग अलग-अलग उद्देश्यों के लिए एक ही चीज का इस्तेमाल करते हैं और इस तरह उनकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि अस्तित्व में आती है। इन सांस्कृतिक पृष्ठभूमियों के उभरने के बाद उनके साथ सांस्कृतिक परंपराएँ उत्पन्न होती हैं। इस तरह विभिन्न समाज और विभिन्न जातियाँ अलग-अलग रीति-रिवाज बनाते हैं और ऐसे रीति-रिवाज संबंधित जातियों के लोगों को प्रभावित करते हैं। इस प्रकार चीनी लोग हरी टोपी के इस संकेत से प्रभावित हैं। उनके मन में यह बात बिठाने से किस तरह का नतीजा निकलता है? पुरुष हरी टोपी नहीं पहन सकते और महिलाएँ भी इन्हें नहीं पहनतीं। क्या तुमने किसी महिला को हरी टोपी पहने देखा है? वास्तव में यह सांस्कृतिक परंपरा सिर्फ पुरुषों के लिए है, यानी पुरुषों का हरी टोपी पहनना एक खराब संकेत है और इसका महिलाओं से कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन एक बार जब यह सांस्कृतिक परंपरा अस्तित्व में आ जाती है, चाहे वह किसी भी संदर्भ में उत्पन्न हो, यह इस जाति के प्रत्येक व्यक्ति द्वारा इस चीज के प्रति एक तरह का भेदभाव पैदा करती है। इस तरह का भेदभाव होने के बाद यह चीज अनजाने में एक बहुत ही निर्दोष, भौतिक चीज से नकारात्मक चीज में बदल जाती है। वास्तव में यह चीज निर्दोष है और इसमें कोई सकारात्मक या नकारात्मक विशेषताएँ नहीं हैं। यह सिर्फ एक भौतिक चीज है, जिसका एक रंग और एक आकार है। लेकिन पारंपरिक संस्कृति द्वारा इस तरह से व्याख्या करने और प्रभावित होने के बाद अंतिम नतीजा क्या होता है? (नकारात्मक।) यह नकारात्मक बन जाता है। इसके नकारात्मक बन जाने के बाद लोग इस चीज के प्रति ठीक से व्यवहार या इसका ठीक से इस्तेमाल नहीं कर सकते। जरा सोचो—चीनी बाजार में विभिन्न रंग की टोपियाँ मिलती हैं, जैसे कि लाल, गुलाबी, पीली वगैरह, मगर एक भी हरी टोपी नहीं मिलती। लोग इस पारंपरिक सोच से बेबस और प्रभावित हैं। पारंपरिक संस्कृति के किसी एक विशेष मामले का लोगों पर यही प्रभाव पड़ता है।

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