मद दस : वे सत्य का तिरस्कार करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग सात) खंड दो

जब मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं तो उनका ध्यान और उनके इरादे सत्य का अनुसरण करने वालों से बिल्कुल विपरीत होते हैं। परमेश्वर के बोलने का ढंग चाहे जैसा हो, सत्य का अनुसरण करने वाले लोगों की रुचि केवल परमेश्वर के इरादे, सत्य सिद्धांत और यह समझने में होती है कि लोगों को क्या बनाए रखना और किसका अनुसरण करना चाहिए। इसके विपरीत मसीह-विरोधी इन बातों पर विचार न कर इन्हें अनदेखा कर देते हैं, वे तो इन बातों से जुड़े वाक्यांशों से भी विमुख होते हैं और वे इन बातों से संबंधित वाक्यांशों और शब्दों का गुपचुप प्रतिरोध करते हैं। कुछ निश्चित “नतीजे” मिलने के बाद वे परमेश्वर के बोलने के ढंग और लहजे, उसके स्वर-शैली की बारीकियों, उसके शब्द-चयन की और भी अधिक गहराई और सावधानी से जाँच-पड़ताल करते जाते हैं, यहाँ तक कि वे उसके व्याकरण और सामान्य वाक्य-विन्यास के विवरणों को भी नहीं छोड़ते और पहले जैसा ही रवैया अपनाते हैं। अपने लक्ष्य के करीब पहुँचने के लिए मसीह-विरोधी मन में चुपचाप परमेश्वर के वचनों की और भी अधिक गहनता और गहराई से जाँच-पड़ताल करने का संकल्प लेते हैं, परमेश्वर की वाणी के लक्ष्यों और उद्देश्यों के साथ ही यहाँ तक जाँच-पड़ताल करते हैं कि मानवजाति और पूरे ब्रह्मांड को संबोधित करने वाला यह वक्ता—परमेश्वर—खुद को किस तरह से अभिव्यक्त करता है। मसीह-विरोधी परमेश्वर के बोलने के हर पहलू की अथक जाँच-पड़ताल करते हैं, परमेश्वर की वाणी की नकल करने का प्रयास करते हैं और यह दिखावा करते हैं कि उनके पास परमेश्वर का सार है, वह है जो परमेश्वर के पास है और जो वह स्वयं है और उनके पास परमेश्वर का स्वभाव है। यह सब होना बहुत स्वाभाविक और सहज लगता है; वे अपने लक्ष्यों की दिशा में सहज रूप से कार्य और आचरण करते हैं और—सहज रूप से और इसे महसूस किए बिना ही—खुद को परमेश्वर में बदल देते हैं, एक ऐसी हस्ती में बदल देते हैं जिसे दूसरे सराहें और उसका अनुसरण करें। वे यह जाँच-पड़ताल करते हैं कि परमेश्वर के वचन कैसे लोगों के दिल को छूते हैं और उनके भ्रष्ट स्वभावों को उजागर करते हैं, कैसे परमेश्वर के वचन लोगों की विभिन्न दशाओं को उजागर करते हैं और इससे भी अधिक यह कि परमेश्वर के वचन लोगों पर कैसे प्रभाव डालते हैं। इस सबकी जाँच-पड़ताल करने का उनका मकसद क्या होता है? मकसद यही है कि लोगों के दिल में प्रवेश किया जाए, उनकी वास्तविक स्थितियों पर पकड़ बनाई जाए और फिर उनके आंतरिक विचारों को अच्छी तरह से समझते हुए उन्हें गुमराह और नियंत्रित किया जाए। जब परमेश्वर के वचन लोगों के भ्रष्ट स्वभावों को उजागर कर उनकी कमजोरियों पर चोट करते हैं तो मसीह-विरोधी सोचते हैं, “ये वचन, ये तरीका बहुत महान और अद्भुत है! मैं भी इसी तरह बोलना चाहता हूँ, मैं बोलने का यही तरीका अपनाना चाहता हूँ और लोगों से इसी तरह पेश आना चाहता हूँ।” बरसों-बरस परमेश्वर के वचन पढ़ने और उनसे परिचित होने के दौरान मसीह-विरोधी परमेश्वर बनने की अपनी इच्छा और कामना को परमेश्वर में विश्वास करने का अपना एकमात्र लक्ष्य मान लेते हैं। इसलिए परमेश्वर के वचन चाहे कैसे भी यह बताएँ कि लोगों को सत्य का अनुसरण करने और सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने की जरूरत है, साथ ही चाहे कैसे भी सकारात्मक चीजों से जुड़ीं तमाम दूसरी वास्तविकताओं के बारे में बताएँ, मसीह-विरोधी इसे आत्मसात न कर इसकी उपेक्षा करते हैं। वे एकचित्त होकर अपने ही उद्देश्य का पीछा करते हैं, क्रिया-कलापों की अपनी प्रेरणाओं के अनुसार वही करते हैं जो वे चाहते हैं, मानो कोई और मायने ही नहीं रखता। परमेश्वर के वचनों का एक भी वाक्य उनके दिलों को प्रेरित नहीं करता या जीवन के प्रति उनके दृष्टिकोण और सांसारिक आचरण के उनके फलसफे को नहीं बदलता—परमेश्वर का कोई वाक्य, कोई धर्मोपदेश या कोई भी कथन उनके दिल में पश्चात्ताप की भावना तो और भी नहीं जगाता। परमेश्वर के वचन चाहे जो भी उजागर करें, चाहे वे मनुष्य के किसी भी भ्रष्ट स्वभाव को उजागर करें, मसीह-विरोधी केवल परमेश्वर के बोलने के ढंग, उसके लहजे, लोगों पर परमेश्वर के वचनों के वांछित प्रभाव आदि की ही जाँच-पड़ताल करते हैं—ये सभी मामले सत्य से असंबंधित हैं। इसलिए मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों का जितना ज्यादा सामना करते हैं, परमेश्वर बनने की उनकी आंतरिक इच्छा उतनी ही प्रबल होती जाती है। यह इच्छा कितनी तीव्र होती है? यह इस हद तक तीव्र हो जाती है कि वे अपने सपनों में भी परमेश्वर के वचन दोहराने लगते हैं, अक्सर खुद से बातें करते हैं और परमेश्वर के बोलने का ढंग और लहजा अपनाकर उसके वचनों का उपदेश देने का अभ्यास करते हैं। अपने दिल की गहराई में वे परमेश्वर के बोलने के ढंग और लहजे को लगातार दोहराते रहते हैं, मानो उन पर कोई प्रेत सवार हो। मसीह-विरोधी ऐसे ही होते हैं। परमेश्वर के वचन चाहे कितने भी विशिष्ट, ईमानदार या सच्चे क्यों न हों, चाहे वे लोगों को कितनी भी मदद या प्रेरणा क्यों न दें, मसीह-विरोधी इस सबके प्रति उदासीन रहते हैं और इसकी उपेक्षा करते हैं। वे परमेश्वर के इन वचनों को महत्व नहीं देते। उनका दिल कहाँ होता है? वह इस बात पर लगा रहता है कि परमेश्वर के वचनों की नकल कैसे इस ढंग से करें कि लोग उन्हें पूजें। उनकी इच्छा जितनी तीव्र होती है, उतनी ही अधिक वे यह उम्मीद करते हैं कि परमेश्वर की वाणी सुन सकें और परमेश्वर के कहे हर वाक्य के पीछे के उद्देश्य, इच्छा और विचारों को समझ सकें—यहाँ तक कि उसकी अंतरतम सोच को भी समझ सकें। मसीह-विरोधियों की इच्छाएँ और कामनाएँ जितनी ज्यादा प्रबल होती जाती हैं, उतना ही अधिक वे परमेश्वर के बोलने के ढंग की नकल करना चाहते हैं और उतना ही अधिक उनकी यह आकांक्षा होती है कि वे तेजी से खुद को बदलकर परमेश्वर के और अधिक समान बन जाएँ, परमेश्वर के बोलने के ढंग और लहजे को अपना लें। यही नहीं, कुछ लोग अपने कार्य-कलापों में परमेश्वर की शैली और आचरण को अपनाना चाहते हैं। मसीह-विरोधी ऐसी ही स्थिति में रहते हैं, हर दिन इन विचारों, खयालों, इरादों और उद्देश्यों के तहत जी रहे होते हैं। वे क्या कर रहे हैं? वे परमेश्वर बनने, मसीह बनने के मार्ग पर चलने के लिए खुद को रोज बाध्य कर रहे होते हैं। वे इसे निष्कपट मार्ग मानते हैं, एक उज्ज्वल मार्ग मानते हैं। इसलिए सभाएँ हों या मिलन समारोह, दूसरे लोग परमेश्वर के वचनों की अपनी समझ और परमेश्वर के वचनों का अनुभव करने के बारे में अपनी भावनाओं को लेकर चाहे कैसे भी संगति कर लें, मसीह-विरोधियों को कुछ भी प्रेरित नहीं कर पाता या उनके उद्देश्यों और इच्छाओं को नहीं बदल पाता। वे मसीह बनने की राह पर, परमेश्वर बनने की दिशा में ऐसे आगे बढ़ते हैं, मानो उन पर प्रेत सवार हो, मानो वे किसी अदृश्य चीज के वश में हों, मानो कि वे अदृश्य बेड़ियाँ पहने हों। यह कैसी मानसिकता है? क्या यह घिनौनी नहीं है? (है।)

परमेश्वर के वचन पढ़ते समय उनके हर पहलू को मसीह-विरोधी अपनी संपत्ति की तरह ग्रहण करते हैं, उन्हें ऐसी वस्तुएँ मानते हैं जिनसे वे ऊँचा मुनाफा और अधिक पैसा कमा सकते हैं। जब इन वस्तुओं को बेचा जाता है, जब इन चीजों का दिखावा किया जाता है तो उन्हें मनचाहा मुनाफा मिलता है। वे जितना अधिक ऐसा करते हैं, आंतरिक रूप से वे उतना ही अधिक संतुष्ट महसूस करते हैं; जितना अधिक वे ऐसा करते हैं, उनकी परमेश्वर बनने की इच्छा उतनी ही अधिक तीव्र होती जाती है। यह कैसा रवैया है, कैसी स्थिति है? परमेश्वर बनने की मसीह-विरोधियों की इच्छा इतनी प्रबल क्यों होती है? क्या किसी ने उन्हें यह पट्टी पढ़ाई है? उन्हें किसने उकसाया या निर्देश दिया है? क्या परमेश्वर के वचन ऐसी माँग करते हैं? (नहीं।) यह राह मसीह-विरोधियों ने खुद चुनी है। यद्यपि उनको कोई बाहरी मदद नहीं मिल रही है, फिर भी वे इतने अधिक प्रेरित हैं—ऐसा क्यों है? यह उनके प्रकृति सार से तय होता है। मसीह-विरोधी किसी बाहरी मदद के बिना ही अथक रूप से बेहिचक और निर्लज्ज होकर इस राह पर चलते रहते हैं; तुम उनकी चाहे जितनी निंदा कर लो, इससे कोई फायदा नहीं होता; चाहे तुम उनका कितना ही गहन-विश्लेषण कर लो, वे इसे ग्रहण नहीं करते या समझते नहीं हैं; मानो वे वशीभूत हों। ये चीजें उनकी प्रकृति से तय होती हैं। परमेश्वर के वचनों के प्रति मसीह-विरोधियों का व्यवहार ऊपरी तौर पर प्रतिरोधी या निंदनीय नहीं लगता। वे औसत व्यक्ति से भी अधिक मेहनत करते हैं। अगर तुम यह नहीं जानते कि वे आंतरिक रूप से क्या सोच रहे हैं या वे किस राह पर चल रहे हैं तो बाहरी दिखावों के आधार पर ऐसा लगता है कि परमेश्वर के वचनों के प्रति उनका व्यवहार ललक भरा है—इस शब्द का उपयोग कम-से-कम इसे निरूपित करने के लिए तो किया ही जा सकता है। लेकिन क्या किसी व्यक्ति का सार केवल उसके बाहरी दिखावों से देखा जा सकता है? (नहीं।) तो इसे कहाँ देखा जा सकता है? भले ही ऐसा लगता है कि वे परमेश्वर के वचनों के लिए लालायित रहते हैं, अक्सर उन्हें पढ़ते और सुनते हैं और उन्हें कंठस्थ तक करते हैं, भले ही इन बाहरी क्रिया-कलापों के आधार पर आकलन कर उन्हें मसीह-विरोधियों के रूप में निरूपित नहीं करना चाहिए, लेकिन जब वास्तविक स्थितियों में परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने की बात आती है तो क्या वे ऐसा करते हैं? (नहीं।) परमेश्वर के वचन पढ़ने और रटने के बाद जब उनका सामना वास्तविक स्थितियों से होता है तो हो सकता है कि वे कभी-कभी परमेश्वर के वचनों का कोई अंश या कुछ वाक्य सुना दें, यहाँ तक कि कभी-कभी तो ऐसा सटीक रूप से भी कर सकते हैं। लेकिन जब वे परमेश्वर के वचन सुना दें तो यह देखो कि फिर वे क्या करते हैं, वे कौन-सा रास्ता अपनाते हैं और स्थितियों का सामना करते समय कौन-से विकल्प चुनते हैं। अगर इसका संबंध उनके रुतबे या किसी ऐसी चीज से है जो उनकी प्रतिष्ठा या छवि को नुकसान पहुँचा सकती है तो वे परमेश्वर के वचनों के अनुसार कतई काम नहीं करेंगे। वे अपनी छवि और रुतबे की रक्षा करेंगे। अगर वे कुछ गलत करते हैं तो वे इसे बिल्कुल भी नहीं कबूलेंगे। बल्कि इस मसले को छिपाने या इससे बचने के लिए वे तमाम तरीके ढूँढ़ लेंगे, इसका जिक्र नहीं करेंगे और यहाँ तक कि अपनी गलती कबूलने के बजाय अपने किए का दोष दूसरों पर मढ़ देंगे। वे परमेश्वर के वचन पढ़ने और अपना रुतबा बचाने में मेहनत करते हैं, लेकिन जब सत्य का अभ्यास करने और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने के लिए अपने हितों को अलग रखने और शारीरिक कष्ट सहने की बात आती है तो देखो कि वे कैसे विकल्प चुनते हैं। अगर उन्हें सिद्धांतों के अनुसार काम करना हो, परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करनी हो, फिर चाहे इससे किसी को भी ठेस पहुँचे या बुरा लगे, तो क्या वे ऐसा करेंगे? बिल्कुल नहीं। उनका पहला विकल्प हमेशा खुद को बचाना होता है। भले ही उन्हें पता हो कि गलती किसकी है या किसने बुराई की है, वे उन्हें उजागर नहीं करेंगे। वे अपने दिल में चुपके से खुश भी हो सकते हैं। अगर कोई बुरे लोगों को उजागर करता है तो वे बुरे लोगों का बचाव भी करेंगे और उनके लिए बहाने भी बनाएँगे। जाहिर है कि मसीह-विरोधी ऐसे लोग होते हैं जो दूसरों के दुर्भाग्य का जश्न मनाते हैं। वे चाहे जिस किसी स्थिति का सामना करते हों, यह देखो कि वे क्या चुनते हैं और कौन-सा रास्ता अपनाते हैं। अगर वे सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना चुनते हैं तो फिर उनका परमेश्वर के वचन खाना-पीना सफल रहा है। अगर नहीं तो वे परमेश्वर के वचनों को चाहे कैसे भी खा-पी लें या उन्हें कितनी भी अच्छी तरह से रटा हो, यह बेकार होता है—वे अभी भी परमेश्वर के वचनों को सत्य नहीं मान रहे हैं। साथ ही, क्या मसीह-विरोधी खुद को जानते हैं? (नहीं।) कुछ लोग कहते हैं, “लेकिन मसीह-विरोधी तो अपने अहंकार और आत्मतुष्टता को स्वीकार करते हैं, कहते हैं कि वे राक्षस और शैतान हैं।” वे बस ये बातें कह देते हैं लेकिन वास्तव में तब वे क्या करते हैं जब उनका सामना वास्तविक स्थिति से होता है? अगर कोई मसीह-विरोधी के साथ सहयोग कर रहा है और कोई सही बात कहता है, सत्य सिद्धांतों के अनुरूप कुछ ऐसा कहता है जिससे मसीह-विरोधी की कही गलत बात का खंडन होता हो और अगर वह व्यक्ति मसीह-विरोधी की कही बातों का समर्थन करने से इनकार कर दे तो मसीह-विरोधी को लगेगा कि उनकी छवि और रुतबे को नुकसान पहुँचाया गया है। फिर वह क्या चुनता है? क्या वह दूसरे व्यक्ति की बात सुनने और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने के लिए खुद को दरकिनार कर सकता है? बिल्कुल नहीं। तो क्या वे जो सही शब्द कहते हैं, उनका कोई उपयोग है? क्या वे अपनी वास्तविकता, अपने वास्तविक आध्यात्मिक कद, अपने चुनाव या अपने अपनाए मार्ग को दर्शाते हैं? नहीं, ये शब्द उनके अनुभव से नहीं निकले हैं; ये केवल ऐसे शब्द हैं जो उन्होंने सीख लिए हैं। उनके मुँह से जो निकलता है, वह केवल धर्म-सिद्धांत, कपटपूर्ण शब्द होते हैं। जैसे ही मसीह-विरोधियों का रुतबा या स्वार्थ आड़े आता है तो उनका पहला चुनाव हमेशा सबसे पहले खुद को बचाने और सुरक्षित रखने, दूसरों को स्तब्ध और गुमराह करने और कोई भी जिम्मेदारी लेने या किसी भी अपराध को स्वीकार करने से बचना होता है। मसीह-विरोधियों के इन सार को अगर देखें तो क्या वे सत्य का अनुसरण कर रहे हैं? क्या वे परमेश्वर के वचन इसलिए पढ़ रहे हैं कि सत्य को समझ सकें और सत्य का अभ्यास करने के मुकाम तक पहुँच सकें? नहीं। परमेश्वर के वचन पढ़ने के पीछे मसीह-विरोधियों के इरादों और उद्देश्यों को देखा जाए तो उन्हें कभी भी इनकी समझ हासिल नहीं होगी। इसका कारण यह है कि वे परमेश्वर के वचनों को ऐसा सत्य मानकर नहीं पढ़ते जिसे समझा जाना चाहिए, बल्कि वे इन्हें अपने उद्देश्यों को पूरा करने का साधन मानकर पढ़ते हैं। मसीह-विरोधी भले ही साफ-साफ यह नहीं कहते, “मैं परमेश्वर बनना चाहता हूँ, मैं मसीह बनना चाहता हूँ,” फिर भी मसीह बनने का उनका उद्देश्य उनके कार्य-कलापों के सार और परमेश्वर के वचनों से पेश आने के उनके तरीके के सार से स्पष्ट हो जाता है। इसे कैसे देखा जा सकता है? वे परमेश्वर के वचनों को और परमेश्वर से प्रकट होने वाली चीजों, जैसे उसकी वस्तुओं, अस्तित्व आदि का इस्तेमाल लोगों को गुमराह करने के लिए करते हैं, उन लोगों को गुमराह करने के लिए करते हैं जो सत्य को नहीं समझते, अज्ञानी हैं, जिनका आध्यात्मिक कद कम है, जो सत्य का अनुसरण नहीं करते, छद्म-विश्वासी हैं, यहाँ तक कि इसमें कुछ बुरे लोग भी शामिल हैं। वे इन लोगों को यह विश्वास दिलाते हैं कि उनके पास सत्य है, कि वे सही लोग हैं और यह भी कि वे सराहना और भरोसा किए जाने लायक हस्तियाँ हैं। मसीह-विरोधियों का लक्ष्य यह होता है कि ये लोग उन पर अपनी उम्मीदें टिकाए रखें और उनसे खोजें और ऐसा होने पर वे अंदर से संतुष्ट महसूस करते हैं।

मसीह-विरोधी कभी यह स्वीकार नहीं करते कि परमेश्वर अद्वितीय है; वे कभी यह स्वीकार नहीं करते कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, न ही वे कभी यह स्वीकार करते हैं कि केवल परमेश्वर ही सत्य को व्यक्त कर सकता है। परमेश्वर के वचनों के प्रति उनके रवैये, परमेश्वर के वचनों में उनके लगाए गए प्रयास और परमेश्वर बनने, मसीह बनने की उनकी इच्छा के आधार पर आकलन करें तो मसीह-विरोधी यह मानते हैं कि किसी व्यक्ति के लिए परमेश्वर बनना आसान है, कि यह कुछ ऐसी चीज है जिसे इंसान हासिल कर सकते हैं। वे कहते हैं, “देहधारी परमेश्वर को मसीह महज इसलिए कहा जाता है कि वह परमेश्वर के थोड़े-बहुत वचन बोल सकता है, है न? क्या वह बस परमेश्वर के वचनों का प्रवक्ता भर नहीं है? क्या यह सिर्फ इस बारे में नहीं है कि बहुत से लोग उसका अनुसरण करें? इसलिए अगर किसी व्यक्ति का लोगों के बीच वही रुतबा और मान-सम्मान हो, अगर उसकी भी उतने ही लोग आराधना करें और उसे सम्मान भरी नजर से देखें तो क्या वह मसीह जैसा सम्मान, परमेश्वर होने का सम्मान नहीं पा सकता? मसीह जैसे सम्मान का आनंद लेने में सक्षम होना, परमेश्वर की पहचान और सार वाले व्यक्ति जैसे सम्मान का आनंद लेना, क्या इससे कोई परमेश्वर नहीं बन जाता? इसमें इतनी कठिनाई क्या है?” इस प्रकार मसीह-विरोधियों की परमेश्वर बनने की इच्छा अंतर्निहित होती है; उनकी महत्वाकांक्षा और सार शैतान के समान ही होता है। यह ठीक-ठीक इसलिए है क्योंकि वे मसीह-विरोधी हैं और उनमें मसीह-विरोधियों का सार होता है, इसलिए वे परमेश्वर के वचनों के प्रति ऐसी प्रतिक्रियाएँ प्रकट करते हैं। मसीह-विरोधियों को जो बात खुश करती है वह यह है कि परमेश्वर ने देहधारण कर लिया है; उसके वचनों को लोग सुन सकते हैं और साथ ही लोग उसे देख भी सकते हैं। वह एक साधारण व्यक्ति है जिसे छुआ और देखा जा सकता है और ठीक इसलिए क्योंकि यह साधारण, तुच्छ और सामान्य-सा व्यक्ति इतना अधिक बोल सकता है और इस प्रकार परमेश्वर कहला सकता है, कि मसीह-विरोधियों को लगता है कि आखिरकार परमेश्वर बनने का उनका अवसर आ गया है। अगर यह साधारण व्यक्ति न बोलता तो मसीह-विरोधियों को लगता कि उनके परमेश्वर या मसीह बनने की आशा बहुत क्षीण है। लेकिन ठीक इसलिए कि इस साधारण व्यक्ति ने परमेश्वर के वचन बोले हैं और परमेश्वर का कार्य किया है, लोगों के मध्य लोगों को बचाने के लिए परमेश्वर का प्रतिनिधित्व किया है, मसीह-विरोधी इसे अपने लिए एक मौके के रूप में देखते हैं, एक ऐसा अवसर जिसका लाभ उठाया जा सकता है, जिससे उन्हें परमेश्वर की वाणी, उसके लहजे और बोलने के ढंग और यहाँ तक कि उसके स्वभाव की नकल करने के और अधिक सुराग मिलते हैं और वे धीरे-धीरे अपने को और अधिक परमेश्वर के समान और अधिक मसीह के समान बनाते जाते हैं। इस प्रकार अपने दिल की गहराई में मसीह-विरोधियों को लगता है कि वे अधिक से अधिक परमेश्वर जैसे होते जा रहे हैं, कि वे परमेश्वर के करीब पहुँच रहे हैं। वे एक ऐसे परमेश्वर से बहुत ईर्ष्या करते हैं जिसका सम्मान किया जाता है, जिसका अनुसरण किया जाता है और जिस पर हर चीज में भरोसा किया जाता है, एक ऐसा परमेश्वर जिसे लोग हर मामले में खोजते और सम्मान की नजरों से देखते हैं। वे मसीह की पहचान और व्यक्तिगत मूल्य से ईर्ष्या करते हैं। मसीह-विरोधी अपने दिल में क्या सोच रहे होते हैं? क्या उनके अंतस्तल अँधेरे और दुष्ट नहीं हैं? क्या उनके अंतस्तल घृणित, कुत्सित और शर्मनाक नहीं हैं? (हाँ।) वे अत्यंत घृणास्पद हैं!

कुछ लोग कहते हैं, “हम तुम्हारे मुँह से मसीह-विरोधियों के बारे में अरसे से बातें सुनते आ रहे हैं लेकिन ऐसा व्यक्ति हमने कभी क्यों नहीं देखा? क्या तुम बस कहानियाँ ही सुना रहे हो? क्या ऐसी चीजों के बारे में बात कर रहे हो जो दूर की कौड़ी हैं?” क्या तुम लोगों को लगता है कि ऐसे लोग होते हैं? (हाँ।) तुम लोग ऐसे कितने लोगों से मिले हो? क्या तुम लोग उनमें से एक हो? (हम भी ऐसी दशाएँ दिखाते हैं और ऐसे पहलू प्रकट करते हैं। ये दशाएँ मसीह-विरोधियों जितनी गंभीर नहीं हैं लेकिन इनका प्रकृति सार एक ही होता है।) क्या तुम लोगों को लगता है कि ऐसी दशाएँ होना खतरनाक है? (हाँ।) अगर तुम जानते हो कि यह खतरनाक है तो तुम्हें इसे बदलना चाहिए। क्या इसे बदलना आसान है? दरअसल यह आसान और मुश्किल दोनों हो सकता है। अगर तुम परमेश्वर के वचनों को अनुपालन करने योग्य सत्य मानते हो, ठीक वैसे ही जैसे प्रभु यीशु ने कहा था, “तुम्हारी बात ‘हाँ’ की ‘हाँ,’ या ‘नहीं’ की ‘नहीं’ हो,” तो तुम सच में पश्चात्ताप कर सकते हो। उदाहरण के लिए, परमेश्वर तुम लोगों से कुछ क्रियान्वित करने के लिए कहता है, “खाने के बाद कटोरे को चाटकर साफ कर देना, मानो इसे धो दिया गया हो। इससे भोजन की बचत होती है और स्वच्छता भी बनी रहती है।” क्या ये निर्देश सरल हैं? क्या इन्हें लागू करना आसान है? (हाँ।) अगर परमेश्वर ऐसा आग्रह करता है, बस ये चंद वाक्य बोलता है, लोगों की कठिनाइयाँ या दशाएँ नहीं देखता या भ्रष्ट स्वभावों के बारे में बात नहीं करता और विभिन्न परिस्थितियों में अंतर नहीं करता तो तुम इस एक मामले को लागू कर इसका अभ्यास कैसे करोगे? तुम्हारे लिए ये वाक्य परमेश्वर के वचन हैं, ये सत्य हैं और ये ऐसी चीज हैं जिनका तुम्हें पालन करना चाहिए। तुम्हें जो करना चाहिए वह यह है कि हर दिन, हर बार खाने के बाद परमेश्वर की अपेक्षा का पालन करना—तब तुम परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण कर रहे हो, परमेश्वर के वचनों को सत्य मान रहे हो, जिनका तुम्हें पालन करना चाहिए। तुम एक ऐसे व्यक्ति बन जाते हो जो परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करता है और इस सबसे सरल मामले में तुमने एक मसीह-विरोधी के स्वभाव को त्याग दिया है। या दूसरी स्थिति में तुम ये चंद वचन सुनकर मुँह-जुबानी सहमत हो सकते हो और इन्हें याद रख सकते हो, लेकिन खाने के बाद कटोरे में चावल के कुछ दाने बचे देखकर तुम सोचते हो कि “मैं दूसरे कामों में व्यस्त हूँ!” और कटोरे को जस का तस छोड़ देते हो। और अगली बार के भोजन में भी तुम यही करते हो। तुम परमेश्वर के इन चंद निर्देशों को ध्यान में तो रखते हो, लेकिन कोई ऐसा निश्चित दिन नहीं होता जब तुम वास्तव में इनका अभ्यास करने जा रहे हो। जैसे-जैसे समय गुजरता है, तुम ये वचन भूल जाते हो। इसलिए परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करना तो दूर, तुमने इन्हें त्याग भी दिया है। इससे तुम किस तरह के इंसान बनते हो? अगर तुम इन वचनों पर अमल नहीं करते तो क्या तुम ऐसे व्यक्ति हो जो परमेश्वर के वचन सुनने पर उसके मार्ग का अनुसरण कर सकता है? क्या तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति हो? स्पष्ट रूप से नहीं। अगर कोई व्यक्ति सत्य का अनुसरण नहीं कर रहा है तो क्या उसे मसीह-विरोधी के रूप में चिह्नित किया जा सकता है? क्या सत्य का अभ्यास करने में विफल होना अनिवार्य रूप से मसीह-विरोधी होने के बराबर है? (नहीं।) इस तरह का व्यक्ति परमेश्वर के वचनों को एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल देता है, इन्हें महत्वहीन मानता है, इनका अभ्यास नहीं करता और उन पर गौर नहीं करता—वह इन्हें बस भूल जाता है। यह मसीह-विरोधी नहीं है। एक और प्रकार का व्यक्ति परमेश्वर से ये निर्देश सुनकर सोचता है : “खाने के बाद कटोरा चाटना? यह कितनी शर्मनाक बात है! मैं कोई भिखारी तो हूँ नहीं, और फिर ऐसा भी नहीं है कि यहाँ भोजन नहीं है। मैं ऐसा बिल्कुल नहीं करूँगा! जो लोग अपने कटोरे चाटकर साफ करने को तैयार हैं वे ऐसा कर सकते हैं।” जब कोई कहता है कि “यह परमेश्वर की अपेक्षा है” तो वे सोचते हैं, “भले ही यह परमेश्वर की अपेक्षा हो तो भी यह नामंजूर है। परमेश्वर को ऐसी चीजों की माँग नहीं करनी चाहिए। ये वचन सत्य नहीं हैं! परमेश्वर ऐसी बातें भी कहता है जो साधारण, अतार्किक होती हैं और इतनी अच्छी नहीं होती हैं। जरूरी नहीं कि लोगों से परमेश्वर की हर माँग सत्य हो। यह विशेष माँग मुझे सत्य नहीं लगती। प्रभु यीशु ने कहा : ‘जो भी मेरे स्वर्गिक पिता की इच्छा के अनुसार चलेगा, वही मेरा भाई, मेरी बहिन और मेरी माँ है।’ इस तरह के वचन सत्य हैं! खाने के बाद कटोरे को चाटकर साफ करना क्या स्वच्छता है? इसे सीधे धो लो, बस यही काफी है। हमसे कटोरे क्यों चटवा रहे हो? यह माँग मेरी धारणाओं या कल्पनाओं से मेल नहीं खाती; इसे कहीं कोई नहीं मानेगा। मुझसे कटोरा चटवा लोगे—ये नहीं हो सकता! क्या स्वच्छता को इस तरह परिभाषित किया जाता है? मैं अपना कटोरा कीटाणुनाशक का इस्तेमाल करके पानी से धोता हूँ—इसे ही मैं स्वच्छता कहता हूँ!” इस तरह के व्यक्ति में ये वचन सुनकर अपने विचार और आंतरिक प्रतिरोध पैदा होता है; वे उपहास और निंदा भी करते हैं। चूँकि ये वचन परमेश्वर से हैं, इसलिए वे इनकी खुलेआम आलोचना करने की हिम्मत नहीं करते, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि इन वचनों को लेकर उनकी अपनी कोई राय या धारणा नहीं है। उनकी राय और धारणाएँ कहाँ प्रकट होती हैं? वे इन वचनों को स्वीकार या इनका अभ्यास नहीं करते; इनके बारे में उनके अपने विचार होते हैं और वे इनका आकलन करने और इनके बारे में धारणाएँ बनाने में सक्षम होते हैं। इसलिए जब वे खाना खाने के बाद कुछ लोगों को अपने-अपने कटोरे चाटते देखते हैं तो वे खुद ऐसा करने से बचते हैं, यहाँ तक कि वे अपने मन में परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करने वालों के लिए घृणा भी पालते हैं। उनके चेहरे-मोहरे से अक्सर मजाक और उपहास प्रकट होता है, यहाँ तक कि दूसरों का व्यवहार सुधारने की इच्छा का रवैया भी प्रकट होता है। वे परमेश्वर के कहे अनुसार कार्य करना तो दूर रहा, बल्कि इसके विपरीत भी कार्य करते हैं, इसके उलट कार्य-कलापों में हाथ डालते हैं। वे अपने कार्य-कलापों का उपयोग परमेश्वर की माँगों को अस्वीकार करने, परमेश्वर ने जो कहा है उसका विरोध करने के लिए करते हैं और वे अपने कार्य-कलापों के जरिए और अधिक ध्यान खींचने का प्रयास करते हैं, और अधिक लोगों को यह यकीन दिलाते हैं कि परमेश्वर जो कहता है वह गलत है और केवल उनका मार्ग ही सही है जिससे अधिक लोग परमेश्वर के वचनों का प्रतिरोध और निंदा करने लगते हैं। वे वास्तव में उस तरह कार्य नहीं करते हैं जैसा परमेश्वर ने निर्देश दिया है; हर बार खाने के बाद वे अपना कटोरा पानी से तो धोते ही हैं, इसे कीटाणुनाशक और साबुन से भी बार-बार धोते हैं और फिर इसे कीटाणुशोधन मशीन में रखकर कीटाणुरहित करते हैं। ऐसा करते समय वे अनजाने में कुछ कथन बनाकर सबको बताते हैं, “दरअसल बर्तन चाटने से कीटाणु खत्म नहीं होते, न पानी से धोकर ही खत्म होते हैं। इन्हें कीटाणुनाशक इस्तेमाल कर और साथ ही उच्च तापमान में रखकर ही पूरी तरह से कीटाणुरहित किया जा सकता है। यही स्वच्छता है।” वे परमेश्वर की कही बातें स्वीकार करने या परमेश्वर के निर्देशानुसार अभ्यास करने से तो इनकार करते ही हैं, वे परमेश्वर की अपेक्षाओं का विरोध, निंदा और आलोचना करने के लिए अपने ही शब्दों और कर्मों का भी इस्तेमाल करते हैं। वे इस हद तक चले जाते हैं कि परमेश्वर की अपेक्षाओं की निंदा, प्रतिरोध और आलोचना करने के वास्ते और अधिक लोगों को उकसाने और गुमराह करने के लिए खुद को सही लगने वाली कुछ मान्यताओं का इस्तेमाल करने लगते हैं। वे यहाँ क्या भूमिका निभा रहे हैं? यह अधिकाधिक लोगों को परमेश्वर के वचन सुनने और बिना शर्त परमेश्वर के प्रति समर्पण करने के लिए प्रेरित करना नहीं है, न यह लोगों में उत्पन्न होने वाली धारणाओं को हल करना है, न ही यह लोगों और परमेश्वर के बीच विरोधाभासों को सुलझाना है या ऐसे विरोधाभास उत्पन्न होने पर लोगों के भ्रष्ट स्वभावों को हल करना है। इसके बजाय वे परमेश्वर की आलोचना करने के लिए अधिकाधिक लोगों को भड़काते और गुमराह करते हैं, ताकि वे परमेश्वर के वचनों की सत्यता का विश्लेषण और जाँच-पड़ताल करने में उनका साथ दें। ऊपरी तौर पर तो वे न्याय के रक्षक लगते हैं, जो न्यायसंगत लगता है वह करते हैं। लेकिन क्या यह न्यायसंगत आचरण परमेश्वर का अनुसरण करने वाले किसी व्यक्ति के अनुरूप है? क्या यह न्याय का मानवीय बोध है? (नहीं।) तो फिर अपने व्यवहार के पीछे ऐसे व्यक्ति का सार वास्तव में क्या होता है? (उसमें मसीह-विरोधियों का सार होता है, दानवों का सार होता है।) ऐसे व्यक्ति न केवल परमेश्वर के वचनों को सत्य मानने में विफल होते हैं, बल्कि इससे भी अधिक शर्मनाक बात यह है कि वे आध्यात्मिक लोगों का छद्मवेश धर सकते हैं, अक्सर दूसरों को निर्देश देने के लिए वे परमेश्वर के वचनों का उपयोग कर खुद को सँवारते हैं और सराहना पाते हैं। वे खुद परमेश्वर के वचनों का अभ्यास नहीं करते, न ही वे इन्हें अनुभव और क्रियान्वित करने लायक सत्य मानते हैं। फिर भी वे अक्सर दूसरों से सख्ती और गंभीरता से कहते हैं : “परमेश्वर ने कहा, खाने के बाद अपना कटोरा चाटकर साफ करो; यह एक अच्छी आदत है और आहार को बचाती है।” हर शब्द और वाक्य के साथ वे “परमेश्वर ने कहा,” “यह परमेश्वर का वचन है,” या “यह सत्य है” का बैनर लहराते हैं लेकिन खुद वे इसे स्वीकार या इसका अभ्यास नहीं करते। यही नहीं, वे परमेश्वर के वचनों की तरह-तरह की आलोचनाएँ और भ्रामक व्याख्याएँ पेश करते हैं। मसीह-विरोधी यही करते हैं।

इन तीन प्रकार के लोगों की अभिव्यक्तियों का विश्लेषण करने के बाद सबसे गंभीर कौन-सा है? (अंतिम प्रकार का।) इस प्रकार का व्यक्ति खुद परमेश्वर के वचनों का अभ्यास नहीं करता और इनके प्रति तरह-तरह के प्रतिरोधों और आलोचनाओं से भरा होता है। यही नहीं, वह परमेश्वर के वचनों का इस्तेमाल दूसरों को गुमराह करने और अपने उद्देश्य साधने के लिए करता है। ऐसे लोग मसीह-विरोधी होते हैं। परमेश्वर के वचनों का चाहे कोई भी पहलू हो, भले ही ये वचन उसकी धारणाओं के अनुरूप हों, वह परमेश्वर के वचनों को सत्य नहीं मानता; वह खासकर परमेश्वर के उन वचनों को सत्य नहीं मानता जो मानवीय धारणाओं, पारंपरिक संस्कृति और फलसफे का पूरी तरह खंडन करते हैं—मसीह-विरोधी इन वचनों को और भी कम महत्व देते हैं। अगर वे परमेश्वर के वचनों को महत्वपूर्ण नहीं मानते तो इनका प्रचार क्यों करेंगे? वे अपने उद्देश्य साधने के लिए परमेश्वर के वचनों का उपयोग करना चाहते हैं। इन तीन तरह के लोगों में आखिरी वाला सबसे खतरनाक होता है। पहले वाले के बारे में क्या ख्याल है? (वह परमेश्वर के वचन सुनता है और इनका अभ्यास करता है।) क्या तुम लोगों को लगता है कि जो लोग परमेश्वर के वचन सुनते हैं और उनका अभ्यास करते हैं वे सभी नासमझ हैं? ऊपरी तौर पर क्या यह कुछ हद तक मूर्खतापूर्ण नहीं लगता कि परमेश्वर जो कुछ भी कहे और लोगों से करवाए, उसका सख्ती से पालन किया जाए? (नहीं।) परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने वाले लोग सबसे होशियार होते हैं। दूसरे प्रकार के व्यक्ति कार्य-कलाप पर ध्यान केंद्रित करते हैं; वे सत्य का अभ्यास नहीं करते, पर केवल अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करते हैं और थोड़ा श्रम करते हैं। वे परमेश्वर के वचनों के अर्थ या अपेक्षाओं और मानकों पर ध्यान नहीं देते। वे परमेश्वर के इरादों या उसकी अंतरात्मा की आवाज को नहीं समझते, वे केवल कार्य करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं। वे सोचते हैं, “मुझे पता है कि तुम हमारा भला चाहते हो। तुम्हारी हर बात सही है। तुम जो कुछ कहते हो, उसके प्रति समर्पण कर हमें अभ्यास करना चाहिए; तुम बस बताते रहने पर ध्यान दो और हम सब सुनते जाएँगे।” लेकिन हकीकत में वे परमेश्वर के कहे या लोगों के लिए उसकी विस्तृत अपेक्षाओं को गंभीरता से नहीं लेते। वे बिना सोचे-समझे कार्य करते हैं। बिना सोचे-समझे कार्य करते रहने के कारण व्यक्ति कभी-कभी निरंकुश होकर और अनैतिकता से कार्य करने की ओर बढ़ सकता है जिससे गड़बड़ियाँ और बाधाएँ पैदा होती हैं; इससे व्यक्ति परमेश्वर का प्रतिरोध करने की ओर बढ़ सकता है। परमेश्वर का बहुत अधिक हद तक प्रतिरोध करने से कभी-कभी बहुत परेशानी होती है और नतीजे में यह विनाश का कारण बन सकता है। सत्य का अनुसरण न करने वाले लोगों के लिए यह सबसे गंभीर दुष्परिणाम है और कुछ लोग इस मुकाम तक पहुँच सकते हैं। तीसरे प्रकार के व्यक्ति, मसीह-विरोधी, शैतान के कट्टर अनुयायी होते हैं। वे कभी भी सत्य का अभ्यास नहीं करते, चाहे कुछ भी हो जाए। भले ही तुम जो कह रहे हो वह सही हो, वे नहीं सुनेंगे, जब उनकी अपनी धारणाएँ हों तो और भी कम सुनते हैं। वे परमेश्वर के कट्टर दुश्मन हैं, सत्य के कट्टर दुश्मन हैं। ऊपरी तौर पर ये लोग सबसे शातिर और चतुर दिखाई पड़ते हैं। वे हर चीज का भेद पहचानते और उसकी जाँच-पड़ताल करते हैं, हर मामले को समझने के लिए विचार और प्रयास करते हैं। लेकिन इतनी जाँच-पड़ताल के बाद वे आखिरकार स्वयं परमेश्वर की जाँच-पड़ताल करने लगते हैं, उसके बारे में धारणाएँ और राय बना लेते हैं। परमेश्वर चाहे जो भी करे, अगर वह उनके अपने आकलन पर खरा नहीं उतरता तो वे हर हाल में उसकी निंदा करते हैं; वे इस डर से उसका अभ्यास करने से इनकार कर देते हैं कि यह उनके लिए हानिकारक हो सकता है। दूसरी ओर जो लोग बाहरी तौर पर मूर्ख लगते हैं, मानो उनमें बुद्धि न हो, वे जैसा परमेश्वर कहता है ठीक वैसा करते हैं। वे अत्यंत सरल और ईमानदार दिखाई देते हैं, जो बात नहीं बतानी चाहिए वह भी खुलेआम बता देते हैं, यहाँ तक कि ऐसी चीजों की सूचना भी देते हैं जिन्हें देने की जरूरत नहीं है, कभी-कभी तो थोड़ा भोला व्यवहार भी प्रदर्शित करते हैं। यह क्या दर्शाता है? यही कि ऐसे लोगों के दिल परमेश्वर के लिए खुले हुए हैं, उसके लिए बंद या अवरुद्ध नहीं हैं। इस सरल से उदाहरण पर चर्चा करने का मेरा उद्देश्य तुम लोगों को बस यह समझने में मदद करना है कि मसीह-विरोधी कौन होता है और परमेश्वर के वचनों के प्रति उसका रवैया वास्तव में कैसा होता है। इसका उद्देश्य तुम लोगों को यह भेद पहचानने में मदद करना है कि किस प्रकार के लोग मसीह-विरोधी होते हैं और किस प्रकार के लोग सत्य का अभ्यास नहीं करते लेकिन वे मसीह-विरोधी नहीं होते हैं। इसका उद्देश्य इस तरह की विवेकशीलता रखना है। हम आज जिस विषय पर संगति कर रहे हैं उसे बेहतर ढंग से समझने में आसानी के लिए मैंने बस यूँ ही इस उदाहरण को तुम लोगों के सामने रख दिया। ऐसा नहीं है कि मैं तुम लोगों से सचमुच यह कह रहा हूँ कि भोजन के बाद अपने कटोरे चाटकर साफ करो। न ही मैंने यह स्पष्ट किया है कि कटोरे चाटना स्वच्छता या भोजन को बरबाद न करने के समान है। तुम लोगों को ऐसा करने की जरूरत नहीं है; तुम लोगों को गलत नहीं समझना चाहिए।

मसीह-विरोधी किस तरह परमेश्वर के वचनों का तिरस्कार करते हैं, आज इस बारे में एक अतिरिक्त मद पर संगति की गई : मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों को एक वस्तु मानते हैं। जब वस्तुओं की बात आती है, तो इनका संबंध बिक्री, व्यापार, मुनाफे और पैसे से होता है। मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों को एक वस्तु मानते हैं, यह ऐसी चीज है जिसे कभी भी बिल्कुल नहीं करना चाहिए, यह कतई पाप है। क्यों? जब हमने सभा शुरू की ही थी तो हर व्यक्ति ने अपनी-अपनी भाषा में परमेश्वर के वचनों और सत्य के प्रति अपनी समझ के बारे में संगति की, सरलतम शब्दों में इसका निचोड़ बताया। कुल मिलाकर परमेश्वर के वचन सत्य हैं। मानवजाति के लिए सत्य अत्यंत महत्वपूर्ण है। सत्य मनुष्य का जीवन हो सकता है, यह लोगों को बचा सकता है, उन्हें फिर से जिला सकता है और व्यक्ति को मानक स्तर का सृजित प्राणी बनने में सक्षम बना सकता है। मानवजाति के लिए सत्य की अहमियत शब्दों, भौतिक चीजों या पैसे से नहीं तौली जा सकती। सत्य को सँजोकर और सहेजकर रखा जाना चाहिए और यह इस लायक है कि यह व्यक्ति के कार्य-कलापों, आचरण, जीवन और संपूर्ण अस्तित्व के लिए मार्गदर्शक, दिशा और लक्ष्य बन सके। लोगों को सत्य से अभ्यास का मार्ग हासिल करना चाहिए, साथ ही परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का मार्ग भी पाना चाहिए। लोगों के लिए सत्य स्वयं जीवन के बराबर है। एक ही सांस में किसी भौतिक वस्तु या धन के साथ सत्य का उल्लेख नहीं किया जा सकता। इस भौतिक दुनिया में या समस्त ब्रह्मांड में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसकी तुलना सत्य के साथ की जा सके या जो इसकी बराबरी कर सके। इससे यह स्पष्ट है कि उद्धार चाहने वाली इस मानवजाति के लिए सत्य सबसे बहुमूल्य धरोहर है और यह बेशकीमती है। फिर भी आश्चर्यजनक रूप से ऐसे व्यक्ति भी हैं जो ऐसी बेशकीमती चीज को मुनाफे के लिए बेचने और व्यापार करने लायक वस्तु मानते हैं। क्या ऐसे व्यक्तियों को राक्षसों, शैतानों के रूप में चित्रित किया जा सकता है? बिल्कुल! आध्यात्मिक जगत में ऐसे व्यक्ति राक्षस और शैतान होते हैं; लोगों के बीच वे मसीह-विरोधी होते हैं।

हमने अभी-अभी कुछ ऐसी अभिव्यक्तियों पर संगति की कि कैसे बिक्री के जरिये निजी लाभ कमाने के लिए मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों को वस्तुएँ मानते हैं। बेशक यह एक निश्चित अर्थ में कहा गया है और यह शाब्दिक अर्थ से पूरी तरह मेल नहीं खाता है—यह स्पष्ट रूप से दिखाई नहीं देता कि वे परमेश्वर के वचनों को बेचने की वस्तु मानते हैं। लेकिन वास्तव में उनके व्यवहार, दृष्टिकोण और यहाँ तक कि उनके सार को देखें तो उन्होंने पहले ही या अत्यंत निश्चितता के साथ परमेश्वर के वचनों को वस्तु मान लिया है, अपने पास रखने की एक भौतिक वस्तु मान लिया है। परमेश्वर के वचन एक बार हाथ लगने के बाद वे इन्हें अपनी छोटी-सी दुकान की वस्तु मानते हैं, फिर इसे सही मौके पर किसी भी जरूरतमंद को बेचकर मुनाफा कमाते हैं। मसीह-विरोधी इससे क्या फायदे उठाते हैं? इन फायदों में यह शामिल है कि उन्हें प्रतिष्ठा मिले, दूसरों से ऊँचे दर्जे का मान-सम्मान मिले और लोग उन्हें आराध्य मानें, लोग उनकी राह में अपने पलक-पाँवड़े बिछा दें और दूसरे उनका बचाव करें, जैसे कि उनके रुतबे और सम्मान की सुरक्षा करें। यहाँ तक कि जब उन्हें बरखास्त कर दिया जाता है तो भी लोग उनके पक्ष में बोलेंगे और उनका बचाव करेंगे। ये वे फायदे हैं जो मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों से प्राप्त करते हैं। ठीक यही वे फायदे हैं जिन्हें मसीह-विरोधी चाहते हैं और पाने की कोशिश करते हैं और जिनके लिए वे लंबे समय से अपने दिलों में साजिश रच रहे होते हैं। यही मसीह-विरोधियों का सार है। उनके कार्य-कलाप और व्यवहार उनकी प्रकृति से प्रेरित और उसके काबू में होते हैं और इन अभिव्यक्तियों से मसीह-विरोधियों का प्रकृति सार देखा जा सकता है।

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