मद दस : वे सत्य का तिरस्कार करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग छह) खंड चार
4. परमेश्वर के इस बारे में कहे गए वचनों की टोह लेना कि वह पृथ्वी से कब विदा होगा और कब उसका महान कार्य पूरा हो जाएगा
चौथी मद यह है कि मसीह-विरोधी लोग परमेश्वर के इस बारे में कहे गए वचनों की टोह लेते हैं कि वह पृथ्वी से कब विदा होगा और कब उसका महान कार्य पूरा हो जाएगा। परमेश्वर के वचनों में इस बारे में ज्यादा कुछ नहीं है। इन गिने-चुने वचनों में अगर विषयवस्तु लोगों के खास मतलब के विषय से जुड़ी है तो फिर ये वचन चाहे कितने ही अस्पष्ट और छिपे हुए हों, वे इन्हें ढूँढ़ लेंगे। इन्हें ढूँढ़ने के बाद वे इन पर कलम से निशान लगाते हैं और इन्हें पढ़ने के लिए महत्वपूर्ण वचन मानते हैं। जब भी उन्हें मौका मिलता है वे इन वचनों को साझा करते हैं और खुद को चेतावनी और दिलासा देने के लिए इन्हें पढ़ते हैं। बेशक मसीह-विरोधियों की बड़ी चिंता का संबंध इस बात से नहीं है कि परमेश्वर पृथ्वी से कब विदा होगा या उसका महान कार्य कब पूरा होगा, बल्कि इन तथ्यों से है जिन्हें परमेश्वर इन वचनों की आड़ में पूरा करना चाहता है। मसीह-विरोधियों को अपने दिल में सबसे अधिक आशा यह होती है कि वे परमेश्वर के पृथ्वी से विदा होने के भव्य दृश्य को खुद अपने जीवनकाल में ही देख लें। इसका मतलब यह होगा कि उन्होंने जिस परमेश्वर का अनुसरण किया है वह सही है, उन्होंने कोई गलत परमेश्वर नहीं चुना है, न ही उन्होंने अनुसरण करने की गलत चीज चुनी है। जब इनकी पुष्टि हो जाती है तो वे मानते हैं कि उनके आशीष पाने की संभावना काफी बढ़ जाती है। इसके अतिरिक्त, अगर वे परमेश्वर के पृथ्वी से विदा होने और उसका महान कार्य पूरा होने का दृश्य अपने जीवनकाल में देख सकें तो इसका मतलब है कि उनकी आस्था और ज्यादा दृढ़ हो जाएगी और वे बिना किसी संदेह के परमेश्वर का अनुसरण करेंगे। इस दृश्य को देखने का मतलब यह होगा कि परमेश्वर के बारे में उनकी पिछली शंकाएँ और नासमझी और दूसरों से उन्हें जो निंदा, आलोचना और अस्वीकृति का सामना करना पड़ा था, वह सब पीछे छूट जाएगा और आगे उन्हें बाधित नहीं करेगा। एक लिहाज से मसीह-विरोधी इस दिन के आगमन की प्रतीक्षा कर रहे होते हैं और दूसरे लिहाज से वे यह देख रहे होते हैं कि परमेश्वर अभी पृथ्वी पर क्या कर रहा है, क्या उसका कार्य पूरा होने को है, क्या उसके द्वारा बोले जाने वाले वचन लगभग समाप्त हो गए हैं, क्या उसका अनुसरण करने वाले लोगों में सच्ची निष्ठा है और क्या वे पूर्ण बनाए जा चुके हैं। जो लोग अब मसीह का अनुसरण कर रहे हैं, उनका अवलोकन कर मसीह-विरोधी देखते हैं कि अधिकतर लोगों की आस्था कमजोर है, वे अक्सर अपने कर्तव्य निभाने में गलतियाँ करते हैं और अपने कर्तव्य निभाते हुए भ्रष्टता प्रकट करने पर कई लोगों की अक्सर काट-छाँट की जाती है। यहाँ तक कि कुछ को ब समूहों में भेजकर अलग-थलग या निष्कासित कर दिया जाता है। इन संकेतों से उन्हें महसूस होता है, “परमेश्वर का महान कार्य पूरा होने का दिन अभी भी दूर लगता है, जो बहुत निराशाजनक है! लेकिन अधीर होकर कोई क्या कर सकता है? इससे किस समस्या का समाधान हो सकता है?” चूँकि मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों में विश्वास नहीं करते, सत्य को स्वीकार नहीं करते, उनमें आध्यात्मिक समझ की कमी होती है और वे सत्य को नहीं समझते, इसलिए वे यह आकलन नहीं कर पाते कि लोगों पर परमेश्वर के कार्य का प्रभाव सामान्य है या नहीं। वे इस बात को समझ नहीं पाते कि परमेश्वर ने लोगों पर जो कार्य किया है उसका वास्तव में कोई प्रभाव पड़ा है या नहीं; क्या परमेश्वर के वचन लोगों को सचमुच बचा और बदल सकते हैं; क्या इन वचनों को स्वीकार करते हुए लोगों ने अपने में बदलाव किया, सचमुच कुछ हासिल किया या परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त की है; न ही वे यह समझ पाते हैं कि क्या ये लोग स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सकते हैं और आशीष प्राप्त कर सकते हैं या नहीं—और वे उन तथ्यों को समझ या समझा नहीं सकते जिन्हें वे अपनी आँखों से देखते हैं। वे जिस किसी घटना को देखते हैं, जिस किसी घटना के बारे में अपने मन में सोचते हैं वह ऐसी धुँध में घिरी होती है जिसे दूर करना नामुमकिन होता है। “ये सभी मामले छलावे वाले हैं और इनको जानना और समझना कठिन है। क्या परमेश्वर के पृथ्वी से विदा होने और परमेश्वर के महान कार्य के पूरा होने की घटनाएँ सचमुच होती हैं? क्या ये वास्तव में सच हो सकती हैं?” एक ओर, मसीह-विरोधी यह विश्वास करने के लिए खुद को मजबूर करते हैं कि वे जिस परमेश्वर का अनुसरण करते हैं वह परमेश्वर है, लेकिन साथ ही वे संदेह करने से भी नहीं बच पाते : “क्या वह परमेश्वर है? वह एक इंसान है, है न? इस तरह सोचना अच्छा नहीं है। अधिकतर लोग मानते हैं कि वह परमेश्वर है, इसलिए मुझे भी मानना चाहिए। लेकिन नहीं, मैं इस पर विश्वास नहीं कर पा रहा हूँ! मैं कहाँ देख सकता हूँ कि वह परमेश्वर है? क्या वह परमेश्वर का महान कार्य पूरा करवा सकता है? क्या वह परमेश्वर का कार्य कर सकता है? क्या वह परमेश्वर का प्रतिनिधित्व कर सकता है? क्या वह परमेश्वर की योजना को पूरा कर सकता है? क्या वह मानवजाति को बचा सकता है? क्या वह लोगों को एक खूबसूरत मंजिल तक ले जा सकता है?” ये सभी विचार और इनके समान और भी विचार मसीह-विरोधियों के हृदय की गहराइयों में अनसुलझी और अभेद्य गुत्थी बन जाते हैं। वे सोचते हैं, “मुझे क्या करना चाहिए? फिर भी, सबसे बड़ा सिद्धांत है : रुको और सहो; जो अंत तक सहता रहेगा वह बचा लिया जाएगा। भले ही मैं सत्य का अनुसरण नहीं करता, मेरे अपने नियम हैं। अगर दूसरे लोग नहीं जाएँगे तो मैं भी नहीं जाऊँगा। अगर दूसरे लोग अनुसरण करेंगे तो मैं भी अनुसरण करूँगा। मैं हवा के रुख के साथ चलूँगा। अगर हर कोई कहता है कि वह परमेश्वर है तो मैं भी उसे परमेश्वर कहूँगा। अगर हर कोई विश्वास करना बंद करके परमेश्वर को नकार देगा तो मैं भी ऐसा ही करूँगा। जब हर कोई अपराधी हो तो कानून लागू नहीं किया जा सकता, है न?” जब वे परमेश्वर के कार्य के फैलाव को चरम पर पहुँचते हुए देखते हैं तो वे चुपचाप अपने दिलों में खुशी मनाते हैं : “सौभाग्य से मैं उस समय छोड़कर नहीं गया जब मेरे मन में सबसे अधिक संदेह था और मैं कमजोर था। देखो मेरी आस्था अब क्या लेकर आई है। वो दिन आ ही गया है और अधिक से अधिक लोग परमेश्वर का अनुसरण कर रहे हैं। खासकर विदेश में तमाम देशों के लोग सच्चे मार्ग की जाँच कर रहे हैं और विश्वासियों की संख्या बढ़ रही है। परमेश्वर का घर अधिक से अधिक वीडियो, फिल्में, भजन और गवाहियाँ बनाकर अधिक ध्यान खींच रहा है। ऐसे नतीजे कोई इंसान हासिल नहीं कर सकता; केवल परमेश्वर का कार्य ही ऐसा कर सकता है। यह साधारण व्यक्ति बहुत संभव है कि मसीह है, परमेश्वर है। चूँकि वह मसीह है, परमेश्वर है तो उसके वचन अवश्य सच होंगे। अगर उसके वचन सच नहीं हुए तो वह परमेश्वर नहीं है। तार्किक बुद्धि के अनुसार यह अनुमान समझ में आता है, यह सही है। अगर वह परमेश्वर है तो एक दिन ऐसा आएगा जब वह पृथ्वी से विदा हो जाएगा; अगर वह परमेश्वर है तो वह अपना महान कार्य पूरा कर सकता है। इन सभी संकेतों से पता चलता है कि कलीसिया में परमेश्वर का अनुसरण करने वाले लोग एक सकारात्मक दिशा में, एक अच्छे लक्ष्य की ओर बढ़ रहे हैं। सब कुछ बिल्कुल आदर्शमूलक है, यह सबकुछ बहुत सकारात्मक है। यह सांसारिक प्रवृत्तियों का अनुसरण करने से बेहतर है; उनका अनुसरण करने में कोई उम्मीद नहीं है, वे केवल पीड़ा, दुराचार और अंततः विनाश की ओर ले जाते हैं। अगर कोई व्यक्ति परमेश्वर में विश्वास करता है, उसके पृथ्वी से विदा होने और उसका महान कार्य पूरा होने के दिन का गवाह बन सकता है और दूसरों के साथ परमेश्वर की महिमा में भाग ले सकता है—तो यह कितने सम्मान की बात होगी!” इस बारे में सोचकर उन्हें लगता है : “मैं इतना होशियार कैसे हो गया? मैंने यह रास्ता चुना; ऐसा लगता है कि मैं उच्च बुद्धिलब्धि वाला काफी मेधावी व्यक्ति हूँ।” वे इसका श्रेय परमेश्वर के अनुग्रह को नहीं देते, बल्कि अपनी बुद्धिमत्ता, अपनी चतुराई को देते हैं। यह कितना ऊटपटाँग ख्याल है!
मसीह-विरोधी सोचते हैं, “परमेश्वर के पृथ्वी से विदा होने और परमेश्वर के महान कार्य पूरा करने का मामला परमेश्वर के वादों और आशीषों, उसके शाप और दंड और विनाशों के बारे में उसकी भविष्यवाणियों जैसे मामलों से अलग है—इस मामले में जल्दबाजी नहीं की जा सकती; उस दिन के आने की प्रतीक्षा करने के लिए लोगों को 12/10 सहनशीलता और 20/10 का धैर्य रखने की आवश्यकता है। क्योंकि जब वह दिन आएगा तो सब कुछ पूरा हो जाएगा। अगर मैं अभी सहन नहीं कर सकता, अकेलापन बरदाश्त नहीं कर सकता और इस पीड़ा को नहीं सह सकता तो जब वह दिन आएगा तो मुझे छोड़ दिया जाएगा। अब यह अंतिम चरण है; इतना कष्ट सहने के बाद भी अगर मैं थोड़ा-सा और नहीं सहता तो मैं मूर्ख होऊँगा!” इसलिए मसीह-विरोधियों के लिए उस दिन के आगमन को देखने का केवल एक ही तरीका होता है : आज्ञाकारी बनकर और धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करें, जल्दबाजी न करें और सहना सीखें। वे सोचते हैं, “चूँकि मैंने जुआ खेलना चुना है, इसलिए मुझे सहना सीखना चाहिए, क्योंकि यह सहनशीलता कोई छोटी बात नहीं है। अगर मैं अंत तक धैर्य बनाए रखता हूँ तो एक बार यह मामला पूरा हो जाने पर मुझे जो मिलेगा वह एक बड़ा आशीष होगा! अगर इस अवधि में मैं न सह सका तो मुझे बड़ी विपत्ति का सामना करना पड़ेगा। यह मामला दो में से एक तरफ जा सकता है; या तो यह बड़ा आशीष दिला सकता है या फिर बड़ी विपत्ति ला सकता है।” तुम देख रहे हो कि मसीह-विरोधी मूर्ख नहीं हैं, है न? उन्हें आध्यात्मिक समझ नहीं है और वे सत्य पर विश्वास नहीं करते, वे छद्म-विश्वासी हैं—फिर भी वे इस मामले का इतना सटीक और इतने विस्तार से विश्लेषण कैसे कर सकते हैं? क्या इस प्रकार का विश्लेषण उचित है? (नहीं।) मुझे बताओ, क्या परमेश्वर के वचनों के प्रति लोगों का ऐसा “गंभीर” रवैया होना चाहिए? कुछ लोग कहते हैं : “यह एक बड़ा मामला है, इसका संबंध किसी की संभावनाओं और नियति से है और परमेश्वर के महान कार्य के पूरा होने से है। इसे हल्के में नहीं लिया जा सकता। लोगों को उस साल और महीने की सटीक गणना करनी चाहिए जब परमेश्वर पृथ्वी से विदा होगा। यही नहीं, परमेश्वर के वचनों के निहितार्थ से प्रकट परमेश्वर के विदा होने की विधि और दृश्य का विश्लेषण किया जाना चाहिए। अगर व्यक्ति इसे गंभीरता से नहीं लेता और इसका अच्छी तरह से विश्लेषण नहीं करता तो इतनी अच्छी चीज खोकर उसे अंतहीन पछतावा होगा; ऐसी घटना फिर कभी देखने को नहीं मिलेगी। खासकर जब परमेश्वर का महान कार्य पूरा हो जाता है और परमेश्वर के महिमामंडन का दिन और क्षण आता है तो लोगों को और भी अधिक जानने की जरूरत होती है।” इस पर कोई पूछता है, “अगर परमेश्वर न कहे तो हम कैसे जान सकते हैं?” “फिर तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए कि वह इसे सपने में तुम पर प्रकट करे, ठीक वैसे ही जैसे प्रकाशितवाक्य की पुस्तक में यूहन्ना ने किया। अगर तुम्हें कोई दर्शन मिलता है, तुम अपने सपने या दर्शन में परमेश्वर के महान कार्य के पूरा होने के दिन को देखते हो तो इससे एक पल में तुम्हारी आस्था पूरी तरह से मजबूत हो जाएगी। तुम्हारा धीरज, तुम्हारा इंतजार, अब औपचारिकता नहीं रहेगा या केवल कुछ ऐसा नहीं होगा जो तुम करते हो; बल्कि तुम स्वेच्छा से इंतजार करोगे और अपने दिल की गहराई से इस तरह सहन करोगे। यह कितना बढ़िया होगा!” क्या यह दृष्टिकोण स्वीकार्य है? (नहीं।)
मानवजाति को चाहे कितने ही वर्षों तक देहधारी परमेश्वर की जरूरत पड़े, अंततः एक दिन ऐसा आएगा जब देह में उसका कार्य पूरा हो जाएगा। इसका मतलब यह है कि यह व्यक्ति अंततः मानवजाति को छोड़ देगा; यह बस समय की बात है। परमेश्वर की छह-हजार-वर्षीय प्रबंधन योजना का कार्य समाप्त होने के करीब है। अब यह अंत दस साल, बीस साल, पचास साल, अस्सी साल में होगा या सौ साल में, हमें इसकी गहराई में जाने की जरूरत नहीं है। यह तो बस परमेश्वर के बोलने का तरीका है। यह कहने का क्या मतलब है कि यह परमेश्वर के बोलने का तरीका है? इसका मतलब यह है कि परमेश्वर की “अंत” की अवधारणा वास्तव में कितने वर्षों की है—समय के बारे में परमेश्वर की अवधारणा निश्चित रूप से मनुष्यों से अलग होती है। क्या यह जाँच-पड़ताल करना हमारे लिए उपयोगी है कि यह अंत वास्तव में कितने वर्ष का है? नहीं, यह उपयोगी नहीं है। क्यों नहीं है? इसलिए कि यह सब परमेश्वर के हाथ में है, यह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे मनुष्य माँगकर प्राप्त कर सकता है, न ही ऐसा कुछ है जिसे एक बार पता चल जाने पर लोग परमेश्वर को रोकने के लिए उपयोग कर सकते हैं। परमेश्वर जैसा चाहता है वैसा करता है। परमेश्वर के अनुयायियों को केवल सत्य का अनुसरण करना चाहिए, अपने कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने चाहिए, जीवन हासिल करना चाहिए, परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग पर चलना चाहिए और ऐसे सृजित प्राणी बनने चाहिए जो सही मायने में मानक-स्तर के हों। इस तरह से परमेश्वर का महान कार्य वास्तव में पूरी तरह पूरा हो जाएगा और परमेश्वर विश्राम करेगा। परमेश्वर के विश्राम का क्या अर्थ है? इसका मतलब है कि मानवजाति को विश्राम मिलेगा। एक बार जब मानवजाति को विश्राम की जगह मिल जाए तो परमेश्वर विश्राम कर सकता है। परमेश्वर का विश्राम ही मानवजाति का विश्राम होता है। जब मानवजाति के पास सामान्य जीवन-यापन का परिवेश और व्यवस्था होती है तो इससे परमेश्वर को विश्राम मिलता है। जहाँ तक यह सवाल है कि मनुष्यों को ऐसा जीने का परिवेश कब मिलेगा, कब वे इस चरण तक पहुँचेंगे और कब परमेश्वर अपना महान कार्य पूरा करेगा और अपने विश्राम स्थल में प्रवेश करेगा, ये सब चीजें परमेश्वर की योजना के भीतर हैं; उसका एक तय कार्यक्रम होता है। परमेश्वर की योजना का यह कार्यक्रम किस युग में आता है, इसके वर्ष, महीने, घंटा और मिनट का क्या लेखा-जोखा है, यह बात केवल स्वयं परमेश्वर जानता है। इसे मनुष्य को जानने की जरूरत नहीं है और तुम्हें बताने का कोई फायदा नहीं है। भले ही तुम्हें सटीक वर्ष, महीना, घंटा और मिनट बता भी दिया जाए तो क्या यह तुम्हारा जीवन बन सकता है? क्या यही जीवन है? यह जीवन का स्थान नहीं ले सकता। सृजित प्राणियों को जो एकमात्र काम करना चाहिए वह है परमेश्वर के वचनों को सुनना, परमेश्वर के वचनों को स्वीकार करना और परमेश्वर के वचनों के प्रति समर्पण करना, ऐसे लोग बनना जो परमेश्वर का भय मानें और बुराई से दूर रहें। लेकिन हमेशा परमेश्वर के वचनों की जाँच-पड़ताल करना, यह टोह लेना कि परमेश्वर के वचन सच साबित होते हैं या नहीं, परमेश्वर के वचनों की सत्यता की जाँच करना, उनका विश्लेषण और जाँच-पड़ताल करना—ये वे काम नहीं हैं जो सृजित मनुष्यों को करने चाहिए। जो लोग इस मार्ग पर चलने और ये काम करने पर जोर देते हैं वे स्पष्ट रूप से वो सृजित प्राणी नहीं हैं जिन्हें परमेश्वर चाहता है। वे उसकी अपेक्षाओं के अनुसार कार्य नहीं करते, वे परमेश्वर द्वारा लोगों के लिए निर्धारित नियमों और विनियमों के अनुसार नहीं जीते। परमेश्वर की नजर में वे परमेश्वर के शत्रु हैं; वे दानव और शैतान हैं, परमेश्वर के उद्धार की वस्तु नहीं हैं। इसलिए जब परमेश्वर पृथ्वी से विदा होगा, जब उसका महान कार्य पूरा हो जाएगा और जब परमेश्वर के महिमामंडन का दिन आएगा तो परमेश्वर के इन वचनों और इस मामले के प्रति मानवजाति का सही दृष्टिकोण क्या होना चाहिए? व्यक्ति को यह विश्वास करना चाहिए कि परमेश्वर ने ये जो बातें कही हैं वे निश्चित रूप से सच होंगी और साथ ही परमेश्वर के महान कार्य के पूरा होने, परमेश्वर का राज्य आने, परमेश्वर द्वारा अनगिनत लोगों के सामने महिमा के साथ प्रकट होने और परमेश्वर के जल्दी विश्राम में प्रवेश करने की उम्मीद करनी चाहिए। परमेश्वर का अनुसरण करने वाले सृजित मनुष्य को यही आशा और प्रार्थना करनी चाहिए। ऐसा करना उचित है और यह टोह लेना नहीं होता। लेकिन क्या परमेश्वर के वचन सच होते हैं या नहीं, हमेशा इसका उपयोग परमेश्वर को धमकाने, परमेश्वर के साथ शर्तें तय करने के हथकंडे के रूप में करते रहने को टोह लेना कहा जाता है और परमेश्वर के शत्रु यही करते हैं; हमेशा यह तय करते रहना कि कीमत चुकानी है या नहीं, सब कुछ त्याग देना है या नहीं और परमेश्वर के वचन सच हैं या नहीं, हमेशा इसी आधार पर अपना कर्तव्य निभाना है या नहीं, यह काम भी शत्रु ही करते हैं। सच्चे सृजित प्राणियों को परमेश्वर के वचनों, परमेश्वर की पहचान और परमेश्वर के कहे हर अंश को सृजित प्राणियों के दृष्टिकोण से देखना चाहिए, शैतान, बुरे दानवों या परमेश्वर के शत्रुओं के दृष्टिकोण से नहीं।
5. परमेश्वर के स्वभाव, पहचान और सार से संबंधित उसके वचनों की टोह लेना
जिस अगली मद पर हम संगति करेंगे उसका वास्ता परमेश्वर के स्वभाव, पहचान और सार से संबंधित वचनों से है। इन वचनों का दायरा बहुत व्यापक है; परमेश्वर के वचनों की अधिकांश विषयवस्तु उसके स्वभाव, पहचान और सार को स्पर्श करती है। एक लिहाज से परमेश्वर की वाणी के ढंग और लहजे के साथ ही विषयवस्तु से भी लोगों को परमेश्वर के स्वभाव, उसकी पहचान और सार को देखने का मौका मिलता है। दूसरे लिहाज से, परमेश्वर के वचन स्पष्ट होते हैं जिनके जरिए वह मानवजाति को अपना स्वभाव, पहचान और सार बताता है और जाहिर करता है। जहाँ तक विषयवस्तु के इन दो हिस्सों का संबंध है, एक लिहाज से परमेश्वर के वचनों के निहितार्थ से, परमेश्वर के वचनों की विषयवस्तु, परमेश्वर के वचनों की प्रकृति, साथ ही परमेश्वर के लहजे और उसकी वाणी का श्रोता कोई व्यक्ति परमेश्वर के स्वभाव, पहचान और सार को देख सकता है। दूसरे लिहाज से, परमेश्वर लोगों को स्पष्ट शब्दों में यह बताता है कि उसका स्वभाव कैसा है, उसकी पहचान और सार कैसे हैं। विषयवस्तु के ये दो ऐसे हिस्से हैं जिनकी मसीह-विरोधी बुनियादी तौर पर उपेक्षा करते हैं; वे इनसे परमेश्वर के स्वभाव, पहचान और सार को नहीं भाँपेंगे और वे निश्चित रूप से यह विश्वास नहीं करेंगे कि यह सब परमेश्वर से संबंधित है। चूँकि वे छद्म-विश्वासी होते हैं, इसलिए वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर के मुँह से कहे गए वचन उसकी पहचान और सार का प्रतिनिधित्व करते हैं। लेकिन, एक बिंदु ऐसा है जिसे वे नकार नहीं सकते; परमेश्वर के वचनों ने लोगों के सामने यह रहस्य खोल दिया है कि परमेश्वर का स्वभाव किस प्रकार का है, परमेश्वर की पहचान कैसी है और उसका सार कैसा है—उसके वचनों के इस हिस्से को वे नहीं नकार सकते। सिर्फ इसलिए कि वे इसे नकार नहीं सकते, क्या इसका यह मतलब है कि उनके मन में सच्ची स्वीकृति और खरी मान्यता होती है? वे इन वचनों को नहीं मानते। इसके विपरीत, जहाँ तक परमेश्वर के स्वभाव की विषयवस्तु का संबंध है—उसकी धार्मिकता, पवित्रता, प्रेम, अधिकार और उसकी चीजों और अस्तित्व से संबंधित अन्य खूबियाँ—जिनके बारे में वह बताता है, मसीह-विरोधी इनके प्रति अवहेलना, उपेक्षा और तिरस्कार व्यक्त करने के अलावा इन वचनों को टोह लेने के परिप्रेक्ष्य से देखते हैं। उदाहरण के लिए, जब परमेश्वर यह कहता है कि वह धार्मिक है तो तब एक मसीह-विरोधी यह जाँच-पड़ताल करने लगेगा : “तुम धार्मिक हो? दुनिया में एक भी ऐसा नहीं है जो यह दावा करने का साहस करता हो कि वह धार्मिक है। चूँकि तुम यह कहने का साहस करते हो तो चलो इसे परख लेते हैं। तुम किस तरह से धार्मिक हो? तुम्हारे कौन-से कर्म धार्मिक रहे हैं? मैं तो आश्वस्त नहीं हूँ! अगर यह कथन सचमुच साकार हो जाता है, अगर तुम सचमुच कुछ ऐसा धार्मिक कार्य कर लेते हो जिससे मैं आश्वस्त हो जाऊँ तो तब मान लूँगा कि तुम धार्मिक हो। लेकिन अगर तुम जो करते हो वह मुझे आश्वस्त नहीं करता तो तब मुँहफट होने के लिए मुझे दोष मत देना। मैं बिल्कुल भी नहीं मानूँगा कि तुम्हारा स्वभाव धार्मिक है!” आखिरकार जिस दिन का उन्हें इंतजार होता है वह आ जाता है : एक खास अगुआ बहुत बड़ी कीमत चुकाने और काफी कष्ट सहने के बावजूद अंततः एक नकली अगुआ के रूप में निरूपित किया गया और बर्खास्त कर दिया गया क्योंकि वह असली कार्य करने में असमर्थ था। बर्खास्त होने के बाद वह नकारात्मक हो गया, उसने गलतफहमियाँ पाल लीं, शिकायतें करने लगा और उसके पास कहने के लिए बहुत सारी रोषपूर्ण और आलोचनापरक चीजें थीं। इस मामले की भनक मिलने पर और उन्हें देखने पर मसीह-विरोधी कहता है, “अगर तुम्हारे जैसा कोई व्यक्ति बर्खास्त किया जा सकता है तो फिर मेरे जैसे लोगों के लिए तो और भी बुरा है। अगर तुम्हारे बचाए जाने की कोई उम्मीद नहीं है, अगर तुम परमेश्वर के इरादों के अनुरूप नहीं हो तो फिर और कौन हो सकता है? और कौन है जिसे परमेश्वर मानेगा?” एक लिहाज से, मसीह-विरोधी नकली अगुआ का बचाव कर उसके लिए न्याय की माँग करता है; दूसरे लिहाज से, वह नकली अगुआ की कही रोषपूर्ण और आलोचनापरक बातों को भी स्वीकार कर रहा है। साथ ही वह मन-ही-मन परमेश्वर से गुपचुप ढंग से लड़ रहा है : “क्या परमेश्वर धार्मिक है? तो फिर किसी ऐसे व्यक्ति को क्यों बर्खास्त करना जिसने कलीसिया के कार्य के लिए कष्ट सहे हैं और कीमत चुकाई है? यह व्यक्ति तुम्हारे प्रति सर्वाधिक वफादार है। मैंने उससे ज्यादा वफादार कोई दूसरा नहीं देखा है; मैंने उससे ज्यादा कष्ट सहने और कीमत चुकाने वाला कोई दूसरा नहीं देखा है। वह जल्दी उठकर देर से सोने जाता है, बीमारी भोगता है, अपने परिवार के प्रति भावनाओं को दरकिनार कर देता है और दैहिक सुख-सुविधाओं और संभावनाओं को परे रखकर तुम्हारे लिए कार्य करने को अपना जीवन जोखिम में डालता है। उसे पहले भी जेल में डाला गया था और उसने विश्वासघात नहीं किया। फिर भी तुम उसे यूँ ही बर्खास्त कर देते हो, यूँ ही उसे बेनकाब कर देते हो—क्या तुम वास्तव में धार्मिक हो? तुम्हारी धार्मिकता का प्रमाण कहाँ है? मुझे यह क्यों नहीं दिखाई देता?” आखिरकार मसीह-विरोधी ने परमेश्वर के कार्य में एक ऐसा मौका झटक लिया है जिससे वह परमेश्वर के स्वभाव की धार्मिकता पर सवाल उठा सकता है। वह मन-ही-मन सोचता है, “अगर परमेश्वर धार्मिक है तो फिर अधिकतर लोग बच नहीं पाएँगे; अगर परमेश्वर धार्मिक है तो फिर लोगों को वास्तव में सावधान रहने की जरूरत है और जीवन काफी कठिन हो जाएगा। आखिरकार आज परमेश्वर के कार्य में एक ऐसा मौका मेरे हाथ लग गया है जिससे मैं यह साबित कर सकता हूँ कि परमेश्वर धार्मिक नहीं है और इससे चीजें आसान हो जाती हैं।” इसके साथ ही वे मन-ही-मन गुपचुप खुशी मनाते हैं।
परमेश्वर के चुने हुए लोगों ने परमेश्वर का अनुसरण करते हुए हमेशा ही बड़े लाल अजगर का दमन, गिरफ्तारी और क्रूर उत्पीड़न सहा है। हर जगह कलीसियाओं में अक्सर परमेश्वर के ऐसे चुने हुए लोग होते हैं जो गिरफ्तार कर लिए जाते हैं और अत्याचार झेलते हैं। नतीजतन अक्सर कुछ लड़खड़ा जाते हैं या परमेश्वर से विश्वासघात कर बैठते हैं और कलीसिया को छोड़ देते हैं। लेकिन बहुत-से ऐसे लोग भी होते हैं जो गिरफ्तारी और उत्पीड़न के बीच अपनी गवाही में दृढ़ खड़े रहते हैं। परमेश्वर बड़े लाल अजगर की सेवाओं का उपयोग उन छद्म-विश्वासियों को बेनकाब करने में करता है जिन्होंने आशीषें पाने के लिए कलीसिया में घुसपैठ की है, साथ ही उन चुने हुए लोगों को पूर्ण बनाता है जो ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास करते हैं। यही परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धि है। लेकिन मसीह-विरोधी इस मामले को कैसे देखते हैं? वे हमेशा परमेश्वर के प्रति संदेह से भरे रहते हैं : “परमेश्वर अपने चुने हुए लोगों को बड़े लाल अजगर के हाथों गिरफ्तार होने और उत्पीड़न सहने से क्यों नहीं बचाता?” वे देहधारी परमेश्वर पर संदेह करते हैं और हमेशा परमेश्वर के प्रति अपने मन में धारणाएँ पाले रहते हैं : “परमेश्वर के चुने हुए लोगों को ऐसी मार और यातना क्यों सहनी चाहिए? इसका कारण उनकी आस्था है, क्योंकि वे यहूदा बनने को तैयार नहीं हैं। लेकिन जब उन्हें यातनाएँ दी जाती हैं तो तब परमेश्वर कहाँ होता है? परमेश्वर उन्हें क्यों नहीं बचाता? क्या परमेश्वर लोगों से प्रेम नहीं करता? परमेश्वर का प्रेम कहाँ है? क्या ऐसा हो सकता है कि जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं उन्हें वह शैतानों और बुरे दानवों द्वारा बुरी तरह अपमानित होने और अत्यधिक यातनाएँ सहने देता हो? क्या यही परमेश्वर का प्रेम है? लोगों के लिए परमेश्वर का सुरक्षा कवच वास्तव में कहाँ है? मैं इसे क्यों नहीं देख पाता? ऐसा लगता है कि मुझे और सावधान रहने की जरूरत है। परमेश्वर न सिर्फ लोगों को प्रलोभन या खतरे से दूर नहीं रख पाता—इसके उलट, व्यक्ति जितना अधिक कोशिश करता है, व्यक्ति में जितना अधिक संकल्प होता है और व्यक्ति जितना अधिक परमेश्वर का अनुसरण करता है, वह उतने ही अधिक परीक्षणों का सामना करता है और उसके उतनी ही अधिक पीड़ा और यातना सहने की संभावना होती है। चूँकि परमेश्वर इसी तरह कार्य करता है तो फिर मेरे पास भी अपने सुरक्षात्मक उपाय हैं। ये लोग ऐसा व्यवहार इसलिए सहते हैं क्योंकि उन्होंने त्याग किए हैं; अगर मैं ऐसी कीमत न चुकाऊँ, अगर मैं इस तरह से अनुसरण न करूँ तो क्या मैं इन परीक्षणों से नहीं बच जाऊँगा? ये परीक्षण न हों तो क्या मैं ऐसे कष्ट से नहीं बच जाऊँगा? इस तरह कष्ट न सहकर क्या मैं आराम से नहीं रहूँगा? फिर भी अगर मैं आशीषें प्राप्त कर लेता हूँ तो मैं इतना मूर्ख क्यों बनूँ कि अपनी देह को तमाम तरह की यातना और पीड़ा सहने दूँ? परमेश्वर कहता है कि वह लोगों से प्रेम करता है, लेकिन मैं परमेश्वर के प्रेम का यह तरीका स्वीकार नहीं कर सकता! तुम सब लोग इसका चाहे जैसा भी अर्थ निकालो; इससे मेरा कोई सरोकार नहीं है, मैं इसे स्वीकार नहीं करूँगा। मुझे नजरों से बचे रहना है, मुझे थोड़ी-सी मुसीबत टालनी है, मुझे सावधान रहना और अपना बचाव करना है; मैं ऐसा नहीं कर सकता कि परमेश्वर मुझे पकड़कर काम पर लगा दे।” मसीह-विरोधी अपने मन में ऐसी चीजें पाले रहते हैं, जिनमें से सब परमेश्वर के विरुद्ध गलतफहमियाँ, विरोध, आलोचना और प्रतिरोध होता है। जो भी हो उन्हें परमेश्वर के कार्य का कोई ज्ञान नहीं है। परमेश्वर के वचनों की टोह लेते हुए परमेश्वर के स्वभाव, पहचान और सार की टोह लेते हुए वे ऐसे निष्कर्षों पर पहुँचते हैं। मसीह-विरोधी इन बातों को दिल में दबाकर खुद को चेताते हैं : “सावधानी ही सुरक्षा की जननी है; अपने को छिपाकर चलना ही सबसे अच्छा है; जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है; और ऊँचाई पर तुम अकेले ही होगे! चाहे जब भी हो, कभी भी अपना सिर बाहर निकालने वाले पक्षी की तरह मत बनो, कभी भी बहुत ऊपर मत चढ़ो; जितना अधिक ऊपर चढ़ोगे, उतनी ही जोर से गिरोगे।” वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, न वे ये मानते हैं कि उसका स्वभाव धार्मिक और पवित्र है। वे इन सबको मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं से देखते हैं; परमेश्वर के कार्य को मानवीय दृष्टिकोणों, मानवीय विचारों और मानवीय छल-कपट से देखते हैं, परमेश्वर के स्वभाव, पहचान और सार को निरूपित करने के लिए शैतान के तर्क और सोच का उपयोग करते हैं। जाहिर है, मसीह-विरोधी न केवल परमेश्वर के स्वभाव, पहचान और सार को स्वीकार नहीं करते या नहीं मानते; बल्कि इसके उलट वे परमेश्वर के प्रति धारणाओं, विरोध और विद्रोहीपन से भरे होते हैं और उसके बारे में उनके पास लेशमात्र भी वास्तविक ज्ञान नहीं होता। परमेश्वर के कार्य, परमेश्वर के स्वभाव और परमेश्वर के प्रेम की मसीह-विरोधियों की परिभाषा एक प्रश्नचिह्न है—संदिग्धता है और वे उसके प्रति संदेह, इनकार और दोषारोपण की भावनाओं से भरे होते हैं; तो फिर परमेश्वर की पहचान का क्या? परमेश्वर का स्वभाव उसकी पहचान दर्शाता है; परमेश्वर के स्वभाव के प्रति उनके जैसा रुख, परमेश्वर की पहचान के बारे में उनका नजरिया स्वतः स्पष्ट है—प्रत्यक्ष इनकार। मसीह-विरोधियों का यही सार है।
मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों के चाहे जिस किसी हिस्से को देखते हों, वे परमेश्वर के कार्यों के चाहे जिस हिस्से को देखते हों, चाहे ये समस्त चीजों या खास व्यक्तियों में परमेश्वर के कार्य हों, वे उन्हें सत्य के रूप में और स्वीकृति के तरीके की तरह देखने के बजाय निष्कर्ष निकालने और आलोचना करने के लिए हमेशा मानवीय परिप्रेक्ष्य और शैतानी तर्क के साथ ही ज्ञान और तर्क के तरीकों का इस्तेमाल करते हैं। इसलिए जहाँ तक परमेश्वर के स्वभाव, पहचान और सार के बारे में वचनों का संबंध है, जहाँ तक जिस देह में परमेश्वर ने देहधारण किया है उसका और परमेश्वर की आत्मा का संबंध है, मसीह-विरोधियों का रुख वास्तव में एक समान होता है और इसमें कोई अंतर नहीं होता। आमतौर पर जिस किसी चीज का संबंध स्वयं परमेश्वर से, सृष्टिकर्ता से होता है वह सब उनके टोह लेने और फिर अनुमान, जाँच-पड़ताल और विश्लेषण के तहत होता है और अंततः यह उन्हें इनकार और लांछन के निष्कर्षों की ओर ले जाता है। परमेश्वर के इन वचनों को मसीह-विरोधी चाहे जिस दृष्टिकोण या तरीके से देखें, वे अंततः हमेशा निंदा और लांछन के निष्कर्ष क्यों निकालते हैं? वे आखिरकार ऐसे निष्कर्षों पर क्यों पहुँचते हैं? क्या वास्तव में यह मामला हो सकता है कि सृजित मानवजाति में कोई भी ऐसा न हो जो परमेश्वर के वचनों को सत्य के रूप में ले सके? क्या यह अपरिहार्य परिणाम है? क्या इसका कारण परमेश्वर है? (नहीं।) तो फिर वास्तव में इसका कारण क्या है? (यह इसलिए कि लोगों में परमेश्वर का प्रतिरोध करने की प्रकृति है।) हर व्यक्ति में परमेश्वर का प्रतिरोध करने की प्रकृति है। ऐसा क्यों है कि ये वचन पढ़ने के बाद कुछ लोग तो इन्हें सत्य मान लेते हैं और परमेश्वर जो कहता है उसे स्वीकार कर सकते हैं, जबकि दूसरे लोग इन्हें नकार सकते हैं, इनकी निंदा कर सकते हैं और इन पर लांछन लगा सकते हैं? इससे स्पष्ट रूप से एक समस्या दिखती है कि लोगों के भीतर सार अलग-अलग होता है। परमेश्वर के वचनों के साथ पेश आते समय मसीह-विरोधी मूलतः और व्यक्तिपरक रूप से इन्हें सचमुच स्वीकारते नहीं हैं। वे विरोध और परीक्षण करते हैं : “तुम खुद को परमेश्वर बताते हो तो मुझे यह देखना है कि तुम किस प्रकार से परमेश्वर जैसे हो? तुम कहते हो कि तुम्हारे पास परमेश्वर का स्वभाव और दिव्यता है तो फिर मुझे यह देखना है कि तुम्हारे कौन-से वचनों से इस बात की पुष्टि होती है कि तुम्हारे पास दिव्यता है, कि तुम्हारे पास परमेश्वर का स्वभाव है, तुम्हारे कौन-से कृत्यों से यह पुष्टि होती है कि तुम्हारे पास परमेश्वर की पहचान और सार है। क्या तुमने संकेत और चमत्कार दिखाए हैं या बीमारों को चंगा किया और राक्षसों को भगाया है? क्या कभी ऐसा हुआ कि तुमने किसी को शाप दिया हो और उसकी फौरन मौत हो गई हो? क्या तुमने किसी मुर्दे को जिंदा किया है? वास्तव में तुमने ऐसा किया ही क्या है जिससे यह पुष्टि हो सके कि तुममें परमेश्वर का स्वभाव है, परमेश्वर की पहचान और सार है?” मसीह-विरोधी हमेशा ये चीजें देखना चाहते हैं, ऐसी चीजें देखना चाहते हैं जो सत्य, मार्ग और जीवन से परे हैं और इन चीजों का उपयोग परमेश्वर की पहचान की पुष्टि करने के लिए करते हैं, यह पुष्टि करने के लिए करते हैं कि वे जिसका अनुसरण करते हैं वह परमेश्वर है। यह प्रस्थान बिंदु ही अपने आप में गलत है। वह सबसे बुनियादी बात क्या है जिससे परमेश्वर की पहचान और सार का निरूपण हो सकता है? (परमेश्वर ही सत्य, मार्ग और जीवन है।) यही सबसे बुनियादी बात है। मसीह-विरोधी इस सबसे बुनियादी बात को समझने में भी विफल क्यों रहते हैं? यही वह विषय है जिसकी हमें चर्चा करने की जरूरत है। मसीह-विरोधी सत्य और सकारात्मक चीजों का तिरस्कार करते हैं; वे सत्य और सभी सकारात्मक चीजों से विमुख होते हैं; वे सत्य और सकारात्मक चीजों से नफरत करते हैं। परमेश्वर के सारे वचनों में वे यह नहीं देखते कि कौन-से वचन सत्य या सकारात्मक चीजें हैं। क्या उनकी शैतानी आँखें यह देख सकती हैं? इसे देखे बिना क्या वे इसे स्वीकार सकते हैं? इन वचनों को सत्य स्वीकारने में उनके विफल रहने का अर्थ यह है कि वे परमेश्वर की पहचान और सार को स्वीकार नहीं कर सकते। यह निश्चित है। मसीह-विरोधी परमेश्वर के स्वभाव, पहचान और सार से संबंधित उसके वचनों को समझने का प्रयास करते समय वही दृष्टिकोण अपनाते हैं जो वे परमेश्वर के अन्य वचनों के साथ अपनाते हैं, वे मन-ही-मन गणनाएँ करते हैं, साजिश रचते हैं और मन में तोलते रहते हैं। अगर परमेश्वर अपनी परमेश्वर की पहचान से कुछ ऐसा कहता है जो तुरंत सत्य साबित हो जाता है तो उनका रवैया फौरन बदल जाता है; अगर परमेश्वर के रूप में परमेश्वर कुछ ऐसा कहता या करता है जिससे उन्हें उसके खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए मसाला मिल जाता है तो उनके पास भी एक संगत प्रतिरोधी उपाय होता है और उनका रवैया फिर से तुरंत बदल जाता है। यही लोग परमेश्वर की निंदा करते हैं और यही वे लोग हैं जो कहते हैं कि परमेश्वर परमेश्वर की तरह है। उनके दृष्टिकोण से जहाँ तक यह सवाल है कि क्या परमेश्वर के पास परमेश्वर का स्वभाव, पहचान और सार है तो वे इस बारे में जिन निष्कर्षों पर पहुँचते हैं, वे पूरी तरह उनकी अपनी ही आँखों और अपने मानसिक विश्लेषण से देखे हुए होते हैं।
पिछले एक-दो साल में कलीसिया ने अनुभवजन्य गवाहियों के कुछ वीडियो बनाए हैं। अलग-अलग लोगों ने तमाम अनुभवजन्य गवाहियाँ दी हैं जिन्होंने अस्थिर आधार वाले और कुछ-कुछ संदेह में जीने वाले लोगों को अपना थोड़ा-बहुत आधार बनाने में मदद की है। बेशक मसीह-विरोधियों को स्थिर करने में भी इसने कुछ भूमिका निभाई है। ये गवाही देने वाले व्यक्ति अलग-अलग आयु वर्गों, सामाजिक वर्गों और कुछ तो अलग-अलग देशों और जातीय समूहों से हैं। उन्होंने जो अनुभवजन्य गवाहियाँ साझा की हैं उनसे स्पष्ट है कि परमेश्वर के वचनों के जरिए उनमें बदलाव आए हैं, उन्होंने सत्य और जीवन हासिल किया है और परमेश्वर के वचन स्वीकार करके और परमेश्वर के कार्य के इस चरण को स्वीकार करके उन्होंने बहुत-से सत्य समझे और इस बात की पुष्टि की कि जिस देह में परमेश्वर ने देहधारण किया है उसमें परमेश्वर की पहचान और सार है। बेशक इन अनुभवजन्य गवाहियों को सुनकर मसीह-विरोधियों को भी अपने अंतर्मन में थोड़ा-सा गुप्त आनंद हुआ : “सौभाग्य से मैंने परमेश्वर की सरेआम आलोचना नहीं की। सौभाग्य से मैंने परमेश्वर को नकारने की हड़बड़ी नहीं की। इतने सारे लोगों की गवाहियों के आधार पर आकलन करें तो यह तरीका सही लगता है। यह मसीह, यह साधारण इंसान आखिरकार हो सकता है कि परमेश्वर ही हो। शायद मैंने सही चाल चली। अगर मैं इसी राह पर चलता रहा और अगर अधिकाधिक लोग इस व्यक्ति की गवाही देते रहे, अगर और अधिक लोग इस व्यक्ति के समक्ष आते रहे और अगर और अधिक लोग इस व्यक्ति की पहचान और सार की पुष्टि करते रहे तो फिर आशीष पाने की मेरी उम्मीद और अवसर बढ़ते जाएँगे।” हिचकते हुए निगरानी करते हुए भी मसीह-विरोधी खुद को निरंतर प्रोत्साहित और प्रेरित करते रहते हैं : “हड़बड़ी मत करो। धैर्य रखो। तुम्हें बस सहते रहना है। जो अंत तक सहता रहेगा वह बचा लिया जाएगा। तमाम मौजूदा संकेतों के आधार पर, कलीसिया के विस्तार और गति के आधार पर देखें तो अधिक से अधिक लोग इस परमेश्वर के बारे में खड़े होकर गवाही देने में सक्षम हैं और यह पुष्टि कर रहे हैं कि यह मार्ग सही है। तो फिर मैं हड़बड़ी में खड़े होकर उसे नकारने की मूर्खता क्यों करूँ? ऐसा मत करो, मूर्ख मत बनो। तीन से पाँच साल और इंतजार कर लो। अगर और अधिक लोग, अधिक प्रतिष्ठित और जानकार लोग, सामाजिक रुतबे वाले लोग इस साधारण व्यक्ति की मसीह के रूप में पुष्टि करने के तगड़े प्रमाण देते हैं या अगर सांसारिक प्रसिद्धि और रुतबे वाले और भी अधिक लोग कलीसिया में शामिल होते हैं और अगर कलीसिया का आकार विश्व स्तर पर और भी फैलता है तो फिर क्या मुझे कुछ न कुछ हासिल नहीं होगा? तब क्या मुझे अपार लाभ नहीं हो चुका होगा? अगर कलीसिया के पास शक्ति होगी तो क्या मेरे पास भी शक्ति नहीं होगी? मुझे कतई छोड़कर नहीं जाना चाहिए! अगर यह सब कुछ सही है, अगर यह व्यक्ति सचमुच परमेश्वर है और अगर मैं अब इसे तिरस्कृत या नकार दूँ तो फिर मैं ये सारी आशीषें पाने से चूक जाऊँगा। मुझे सारा दाँव इस व्यक्ति पर लगाना होगा। अपनी पहचान और सार में उसका स्वरूप क्या है, उसका स्वभाव किसका निरूपण करता है, इसकी मुझे परवाह नहीं है। मेरा वास्ता इस बात से है कि क्या अधिक से अधिक लोग उसका अनुसरण कर रहे हैं, क्या कलीसिया की शक्ति और आकार बढ़ रहा है। अगर यह अच्छी दिशा में बढ़ रहा है और सामान्य परिस्थिति में और भी अधिक बढ़ सकता है तो फिर मुझे अपनी संभावनाओं को लेकर चिंता करने की जरूरत नहीं है। अगर वह वास्तव में वही देह है जिसमें परमेश्वर के देहधारण की बाइबल में भविष्यवाणी की गई है तो फिर मुझे अपार आशीषें मिलेंगी, भारी लाभ होगा।” मसीह-विरोधी हर बार जब भी यह सोचते हैं उन्हें मन-ही-मन कुछ दिलासा और सुख मिलता है : “यह कैसा रहेगा? परमेश्वर के वचनों को सत्य न मानते हुए भी मैं अब भी आशीषें पा सकता हूँ। बिना यह विश्वास किए भी कि परमेश्वर के सारे कर्म धार्मिक हैं, मैं मजबूती से खड़ा रह सकता हूँ। बिना यह विश्वास किए भी कि परमेश्वर लोगों को बचा सकता है, मैं जीवित रह सकता हूँ। बिना यह विश्वास किए हुए भी कि परमेश्वर लोगों के अंतरतम हृदय को परखता है, मैं कलीसिया में सामान्य रूप से अपने कर्तव्य निभा सकता हूँ। मैं परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और अधिकार में विश्वास नहीं करता, मैं यह विश्वास नहीं करता कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह सब सार्थक होता है और मैं यह विश्वास नहीं करता कि परमेश्वर समस्त चीजों और सारी मानवजाति की नियति पर संप्रभु होकर शासन करता है—मैं इनमें से किसी भी चीज पर विश्वास नहीं करता तो फिर भी क्या? मैं परमेश्वर की पहचान और सार में विश्वास नहीं करता हूँ, फिर भी मैं कलीसिया में बस निरुद्देश्य कार्य करते रह सकता हूँ। क्या परमेश्वर धार्मिक नहीं है? मैं बस बेमन से काम चलाता रहूँगा, मैं इसी तरह कलीसिया में बना रहूँगा, बस सहता रहूँगा। मेरे साथ कौन क्या कर लेगा? क्या मैं अब भी अंत तक सहता नहीं रह सकता और निश्चित रूप से बचाया नहीं जा सकता?” तुम लोग क्या सोचते हो, क्या मसीह-विरोधियों के खयाली पुलाव सफल हो सकते हैं? (नहीं।) जब वास्तव में परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को देखने का दिन आएगा तो वे कहाँ होंगे? जब वे वास्तव में परमेश्वर की पहचान और सार को मानने को बाध्य होंगे, यह मानने को बाध्य होंगे कि परमेश्वर धार्मिक है, जब उन्हें दिखाया जाएगा कि परमेश्वर वास्तव में धार्मिक है तो उन्हें कहाँ होना चाहिए? क्या वे वास्तव में बचाए जा सकते हैं? क्या उनकी सहनशक्ति सचमुच प्रभावी हो सकती है? क्या वे वास्तव में खानापूरी करते रह सकते हैं? परमेश्वर के वचन सच साबित होते हैं या नहीं, यह टोह लेने के उनके बुरे कर्म को क्या उनकी सहनशक्ति, उनके समझौते, उनका दृढ़ता से कष्ट सहना, उनकी काइयाँ बुद्धि वास्तव में बेअसर कर सकते हैं? क्या उनके खयाली पुलाव, प्रतिरोधी उपाय, साजिश, षड्यंत्र और अपने दिल में बनाई गई सारी योजनाएँ, साथ ही उनके द्वारा परमेश्वर से संबंधित चीजों की टोह लेना उनके सत्य के अनुसरण का स्थान ले सकते हैं? क्या ये उन्हें बचाए जाने में सक्षम बना सकते हैं? (नहीं।) तो फिर इन अभिव्यक्तियों के आधार पर देखा जाए तो ये मसीह-विरोधी जो इतने काइयाँ हैं और जो बिना कोई झोल छोड़े हर मामला सँभालते हैं, जो हर चीज को बेहद गोपनीय ढंग से करते हैं, वे अंततः इस गति को क्यों प्राप्त होते हैं? इसका केवल एक ही कारण है : वे परमेश्वर के वचनों का सधे हुए ढंग से सामना नहीं करते, वे परमेश्वर के वचनों को सत्य के रूप में स्वीकार नहीं करते, परमेश्वर के वचनों के प्रति समर्पण नहीं करते, बल्कि परमेश्वर के वचनों की टोह लेते हैं। इसी कारण मसीह-विरोधियों की अंततः ऐसी हालत होती है। तुम सब लोग इसे समझते हो, है न? यद्यपि मैंने तुम लोगों को यह नहीं बताया कि कैसे कार्य करें या परमेश्वर के वचनों से कैसे पेश आएँ, लेकिन ये तथ्य बताने और परमेश्वर के वचनों के प्रति मसीह-विरोधियों के दृष्टिकोणों और उनके रवैये के गहन विश्लेषण के जरिए तुम सभी जानते हो कि परमेश्वर के वचनों के प्रति किस प्रकार का रवैया और परमेश्वर के वचन समझने के लिए कैसा रवैया सबसे सही होता है, एक सृजित प्राणी को कैसा रवैया अपनाना चाहिए और यह कि इन रवैयों को रखना ही वह है, जो एक सृजित प्राणी में होना चाहिए।
22 अगस्त 2020
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