मद दस : वे सत्य का तिरस्कार करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग छह) खंड तीन

3. परमेश्वर के उन वचनों की टोह लेना जो विनाशों की भविष्यवाणी करते हैं

अभी-अभी हमने मसीह-विरोधियों के यह टोह लेने से संबंधित दो मदों पर संगति की कि परमेश्वर के वचन सत्य होते हैं या नहीं : एक मद का संबंध वादे और आशीष देने वाले परमेश्वर के वचनों से तो दूसरी मद का संबंध लोगों को शाप और दंड देने वाले परमेश्वर के वचनों से था। अब हम तीसरी मद विनाशों की भविष्यवाणी करने वाले परमेश्वर के वचनों पर नजर डालेंगे। इस प्रकार के वचनों के प्रति मसीह-विरोधियों का रवैया पहली दो मदों जैसा ही होता है : वे जिज्ञासु होते हैं, जाँच-पड़ताल करना चाहते हैं, समझना चाहते हैं और वह दिन भी देखना चाहते हैं जब ये वचन सच होंगे, वे तथ्य सामने आने के गवाह बनना चाहते हैं। इस प्रकार के वचनों से पेश आने में मसीह-विरोधी अपने दिल की गहराइयों में साजिश भी रचते हैं, जवाबी उपायों पर सिर खपाते हैं और विभिन्न संदेह पैदा करते हैं। वे यह देखते और परखते हैं कि क्या इस प्रकार के वचन सच साबित होते हैं, ताकि संगत जवाबी उपाय तैयार किए जा सकें। जब मसीह-विरोधी विनाशों की भविष्यवाणी करने वाले ये वचन पढ़ते हैं तो उनके दिल विनाशों के पूरे होने के दिन के लिए उम्मीद से भर जाते हैं और उनके मन विभिन्न कल्पनाओं से भरे होते हैं। वे उम्मीद करते हैं कि परमेश्वर के वचन सच होंगे और यह उम्मीद भी करते हैं कि विनाशों के आगमन से उनके फलक का विस्तार होगा, उनकी इच्छाएँ और कामनाएँ पूरी होंगी। ऐसा क्यों होता है? क्योंकि परमेश्वर ने जिन विनाशों की भविष्यवाणी की है उन सबका संबंध परमेश्वर का महान कार्य पूरा होने से है, परमेश्वर के महिमामंडन के दिन, संतों का उठा लिया जाना, मानवजाति के एक अद्भुत मंजिल में प्रवेश आदि से है। इसलिए विनाशों की भविष्यवाणी करने वाले परमेश्वर के वचनों के इस हिस्से को लेकर मसीह-विरोधी और भी अधिक प्रत्याशा और जिज्ञासा से भरे हुए होते हैं। पहली दो मदों की तुलना में इस प्रकार के वचनों में मसीह-विरोधियों की और भी अधिक रुचि होती है। मसीह-विरोधी अपने दिल में यह मानते हैं कि अगर कोई भूकंप, महामारी, कीट-पतंगों का प्रकोप, बाढ़, भूस्खलन या अन्य प्राकृतिक प्रकोप जैसी आपदाएँ ला सकता है तो वह एक बहुत शक्तिशाली प्राणी है, उसके पास बहुत अधिक क्षमता है और वह उनके अनुसरण, आराधना और भरोसे के लायक है। इसलिए, इसी तरह मसीह-विरोधी विनाशों की भविष्यवाणी करने वाले परमेश्वर के वचन सच होने को यह मापने का मानक भी मानते हैं कि परमेश्वर वास्तव में परमेश्वर है या नहीं। वे इस प्रकार की तार्किक सोच, विचार और दृष्टिकोण को अक्षरशः अपने दिल में रखते हैं, वे यह मानते हैं कि यह दृष्टिकोण सही, वैध और एक बुद्धिमानी भरा कदम है। इस प्रकार जिस दिन से मसीह-विरोधियों ने परमेश्वर का अनुसरण शुरू किया, जिस क्षण से उन्होंने विनाशों की भविष्यवाणी करने वाले परमेश्वर के वचनों को देखा, तभी से वे अपने मन में इनके बारे में सोच रहे होते हैं। वे इस बात को लेकर चिंतित होते हैं कि परमेश्वर के वचनों में क्या कहा गया है—अंत के दिन कब आएँगे, परमेश्वर का महान कार्य कब पूरा होगा, परमेश्वर मानवजाति को कैसे ताड़ना देगा, मानवजाति को दंडित और नष्ट करने के लिए परमेश्वर किस प्रकार के विनाश लाएगा, मानवजाति को विनाशों में झोंकने के लिए परमेश्वर कौन-सा तरीका अपनाएगा, कैसे परमेश्वर का अनुसरण और उसकी स्वीकृति पाने वाले लोग ही ऐसे विनाशों से बचकर सुरक्षित निकलने में सक्षम होंगे और उन्हें ऐसे विनाशों के कष्ट नहीं झेलने होंगे। मसीह-विरोधी विनाशों की भविष्यवाणी करने वाले परमेश्वर के वचनों को बहुत महत्वपूर्ण मानते हैं, अपने दिलों में उनका विश्लेषण करते हैं और उन्हें याद करके मन-ही-मन दोहराते हैं। वे विनाशों से संबंधित हर वचन को याद रखते हैं और यह भी सोचते हैं कि विनाशों के बारे में परमेश्वर की भविष्यवाणियाँ कब और कैसे सच होंगी। वे सोचते हैं कि अगर ये भविष्यवाणियाँ सच हो गईं तो उनके साथ क्या होगा और अगर ये सच नहीं हुईं तो वे क्या करेंगे। लगता है कि इन भविष्यवाणियों को देखने के बाद से मसीह-विरोधियों को परमेश्वर में अपने विश्वास में प्रयास करने के लिए कुछ, एक दिशा और एक लक्ष्य मिल गया है। विनाश आने के इंतजार में वे खुद को हर तरह से तैयार भी करते रहते हैं। जब विनाश आते हैं तो परमेश्वर का सुरक्षा कवच पाने के लिए वे अपनी नौकरी और अपने परिवार त्यागकर सुसमाचार का प्रचार करते हैं। साथ ही, विनाश आने पर खुद को बचाए रखने के लिए वे अक्सर विनम्र होकर परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं, यह आशा करते हैं कि परमेश्वर के वचन जल्द ही सच होंगे, कि परमेश्वर जो कुछ हासिल करना चाहता है वह तेजी से पूरा होगा, कि परमेश्वर जल्द ही महिमा प्राप्त करेगा और विश्राम का आनंद लेगा और वे शीघ्र ही स्वर्ग के राज्य के आशीष का आनंद ले सकते हैं। मसीह-विरोधियों के इन सभी दृष्टिकोणों से, उनके अक्सर बोले जाने वाले शब्दों और प्रार्थनाओं से ऐसा लगता है कि मसीह-विरोधी उत्सुकता से परमेश्वर का महान कार्य पूरा होने और परमेश्वर के शीघ्र विश्राम की प्रतीक्षा कर रहे हैं। लेकिन लोग बेखबर हैं कि मसीह-विरोधियों की इन उम्मीदों के पीछे भयावह इरादे छिपे हैं। उन्हें यह उम्मीद रहती है कि ऐसी प्रार्थनाओं और झूठे हाव-भावों के जरिए वे विनाशों से बचकर परमेश्वर को अपना आसरा बना सकते हैं। इस सबकी तैयारी करते हुए वे यह उम्मीद भी करते हैं कि शीघ्र ही विनाश आएँगे और इनकी भविष्यवाणी करने वाले परमेश्वर के वचन सच होंगे। अपनी सहनशीलता की सीमा के भीतर वे पहले की ही तरह कीमत चुकाते जाते हैं, खुद को खपाते रहते हैं, पीड़ा भोगते और सहते रहते हैं और सबको दिखाने के उद्देश्य से अपने दिमाग को मथते रहते हैं। वे यह चाहते हैं कि हर कोई यह माने कि सुसमाचार का प्रचार करने के लिए उन्होंने कितनी बड़ी कीमत चुकाई है, कितना भेदभाव और उत्पीड़न सहा है और इस दिन के इंतजार में कितनी बड़ी कीमत चुकाई है। उन्हें यह उम्मीद बनी रहती है कि उन्होंने जो कष्ट सहा और जो कीमत चुकाई उसे देखते हुए परमेश्वर हर विनाश के आने पर उन्हें बचा लेगा। साथ ही, उन्होंने जो कीमत चुकाई है उस कारण वे इतने खुशकिस्मत होने की उम्मीद करते हैं कि वे उन लोगों में एक बन पाएँ जिनके पास एक अच्छी मंजिल होगी और जो विनाशों के बाद आशीष प्राप्त करेंगे। मसीह-विरोधी शांत रहकर और चुपचाप अपने मन में यह सारी गणना करते रहते हैं। आखिर एक दिन किसी छोटी-सी घटना के कारण मसीह-विरोधियों को कोई नाकामी मिलती है और उनके क्रिया-कलापों और व्यवहारों की निंदा होने लगती है। इसका मतलब है कि उनकी उम्मीदें और कल्पनाएँ चूर-चूर होने वाली हैं, उनकी इच्छाएँ अधूरी रहने वाली हैं। इस क्षण मसीह-विरोधियों के दिल की गहराई में पहला विचार क्या उठता है? “मैंने इतना कुछ दिया है, इतना कष्ट भोगा, इतने दिन सहा, इतने साल विश्वास किया है, फिर भी मैंने विनाशों की भविष्यवाणी करने वाले परमेश्वर के किसी वचन को सच होते नहीं देखा है। क्या परमेश्वर सचमुच विनाश लाएगा? हमने जिसके लिए प्रार्थना की है और जिसका इंतजार किया है, क्या परमेश्वर उसे कभी पूरा करेगा? परमेश्वर वास्तव में कहाँ है? क्या वह हमें सचमुच बचाएगा भी या नहीं? परमेश्वर ने जिन विनाशों की बात की क्या उनका अस्तित्व है भी? अगर नहीं है तो हम सबको यहाँ से चले जाना चाहिए। इस परमेश्वर पर विश्वास नहीं किया जा सकता, कोई परमेश्वर नहीं है!” यह मसीह-विरोधियों की पराकाष्ठा होती है। एक छोटी-सी नाकामी, शायद किसी की ओर से अनजाने में निंदा और खुलासे का एक शब्द उनकी दुखती रग को छेड़ देता है, फिर तो वे गुस्से से भड़ककर अब और संयम बरतने या ढोंग करने में असमर्थ हो जाते हैं। ऐसे में वे पहली चीज जो करते हैं वह है गुस्से से फूटकर और परमेश्वर के वचनों पर उँगली उठाकर यह कहना : “अगर तुम्हारे वचन सच नहीं होते, तुमने जिन विनाशों की बात की अगर वे नहीं होते तो मैं अब तुम पर विश्वास नहीं रखूँगा। मूलतः विनाशों की भविष्यवाणी करने वाले इन्हीं वचनों के कारण मैंने सुसमाचार का प्रचार किया, कीमत चुकाई और अपना कर्तव्य निभाया। इन वचनों के बिना मैं तुममें बिल्कुल भी विश्वास नहीं कर पाऊँगा! इन्हीं वचनों के कारण, इन आसन्न विनाशों के कारण मुझे विश्वास हुआ था कि तुम परमेश्वर हो। लेकिन अब इतना कष्ट सहने के बाद भी तुम्हारे बताए विनाश नहीं आए। अविश्वासियों में बहुत-से लोग बुराई करते हैं, फिर भी उनमें से किसी को भी दंड नहीं मिला है—उनमें से एक भी विनाशों की चपेट में नहीं आया है। वे अभी भी पाप में जीकर अपने जीवन का आनंद ले रहे हैं, जबकि मैं इतने बरसों से माने जा रहा हूँ, बस उस दिन का इंतजार कर रहा हूँ कि कब विनाशों की भविष्यवाणी करने वाले तुम्हारे वचन सच होंगे। लेकिन परमेश्वर तुमने क्या किया है? हमारी उत्सुक प्रत्याशा को ध्यान में रखकर तुमने कभी कोई संकेत या चमत्कार नहीं दिखाया, हमें दिखाने के लिए तुम कभी कोई विनाश लेकर नहीं आए ताकि हमारी आस्था मजबूत हो और हमारी वफादारी मजबूत हो। तुम ऐसी चीजें क्यों नहीं करते? क्या तुम परमेश्वर नहीं हो? इस बुरी दुनिया, इस बुरी मानवजाति को दंड देने के लिए विनाश लेकर आना क्या इतना कठिन है? इन चीजों के पूरा होने के जरिए हम बस अपनी आस्था मजबूत करना चाहते हैं, लेकिन तुम तो बस कदम उठाते ही नहीं हो। अगर तुम कदम नहीं उठाते तो हम परमेश्वर में और विश्वास नहीं कर सकते; हम कुछ भी हासिल नहीं कर पाएँगे और परमेश्वर में विश्वास रखने की कोई तुक नहीं है। अब और विश्वास रखने की कोई जरूरत नहीं है, अपने कर्तव्य निभाने की कोई जरूरत नहीं है, सुसमाचार का प्रचार करने की कोई जरूरत नहीं है।” जीवन में एक छोटी-सी नाकामी का सामना करने पर, थोड़ी-सी प्रतिकूलता या असंतोष का सामना करने पर मसीह-विरोधियों के असली चेहरे और अंतरतम विचार कभी भी और कहीं भी उजागर हो सकते हैं, जो काफी भयावह है। विनाश कब आएँगे, क्या विनाशों की भविष्यवाणी करने वाले परमेश्वर के वचन सच होंगे, ये कब और कैसे सच होंगे, ये सब परमेश्वर निर्धारित करता है। परमेश्वर जब लोगों को इन चीजों के बारे में बताता है तो इसका उद्देश्य उनकी भावनाओं की कद्र करना होता है, उनके साथ इंसानों के रूप में व्यवहार करना होता है—इन वचनों का उद्देश्य यह नहीं होता कि लोग इनका उपयोग परमेश्वर पर हावी होने और उसकी आलोचना करने के लिए करें। मसीह-विरोधी भ्रमवश यह मान लेते हैं कि चूँकि ये वचन परमेश्वर ने कहे हैं, इसलिए उसे लोगों को ये वचन उनके जीते-जी सच होते दिखाने चाहिए; वरना परमेश्वर के वचन खोखले साबित होंगे। जिस परमेश्वर के वचन खोखले हो सकते हैं, उसे परमेश्वर नहीं माना जाना चाहिए, वह परमेश्वर होने के योग्य नहीं है और वह उनका परमेश्वर होने योग्य नहीं है; मसीह-विरोधियों का यही तर्क होता है।

शुरू से लेकर अंत तक मसीह-विरोधी सिर्फ परमेश्वर के इन वचनों का फायदा उठाना चाहते थे जो विनाशों की भविष्यवाणी करते हैं। इन वचनों ने उन्हें प्रेरित किया, उन्हें यह सोचने की ओर अग्रसर किया कि विनाशों से बचने के लिए आशीष पाने के बदले अच्छे मानवीय व्यवहार और अपने सारे त्याग और दैहिक कष्टों का उपयोग किया जाए। शुरू से अंत तक, उनका एकमात्र लक्ष्य विनाशों से बचना और आशीष पाना था। उन्होंने इन वचनों को व्यक्त करने वाले को वास्तव में परमेश्वर कभी नहीं माना। शुरू से लेकर अंत तक मसीह-विरोधी हमेशा परमेश्वर के विरोध में खड़े रहे हैं, वे परमेश्वर के वचनों की टोह लेने के तरीके के रूप में लगातार परमेश्वर को परखते और मापते रहे हैं। अगर परमेश्वर के वचन सच होकर उनके फलक का विस्तार करते हैं, उनकी रुचि, दृष्टिकोण और जरूरतों के अनुसार सच होते हैं तो वे परमेश्वर को परमेश्वर मानते हैं। लेकिन बात अगर उनकी इच्छाओं, दृष्टिकोण और जरूरतों के विपरीत हो, तो ये वचन कहने वाला उनके लिए परमेश्वर नहीं रह जाता। मसीह-विरोधियों का यही दृष्टिकोण होता है। स्पष्ट है कि अपने दिल की गहराई में उन्होंने यह कभी नहीं माना कि परमेश्वर सृष्टिकर्ता है, न ही उन्होंने इस तथ्य को माना है कि परमेश्वर समस्त चीजों का संप्रभु है। कष्टों की एक लंबी कड़ी से गुजरने के बाद, धैर्यपूर्वक सहते रहने और विचारों के संघर्ष से गुजरकर मसीह-विरोधियों ने एक सबक सीख लिया : “किसी को भी परमेश्वर के वचनों को हल्केपन में लेकर सीमित नहीं करना चाहिए, न ही किसी को परमेश्वर के वचन पूरा होने को हल्केपन में और ओछेपन से उसकी पहचान और सार को मापने के मानक के रूप में उपयोग करना चाहिए। हम अभी भी पर्याप्त रूप से नहीं तपे हैं और हमें अभी भी अपने मन को विस्तार देने के लिए सहते रहने की जरूरत है। जैसी कि कहावत भी है, ‘प्रधानमंत्री का दिल इतना बड़ा होता है कि उसमें एक नाव चल जाए’; ‘जहाँ जीवन है वहाँ आशा है।’ अगर ये शब्द सच नहीं होते तो क्या फर्क पड़ता है? कोई बड़ी बात नहीं। मैंने इतने बरस इसे सहा है; शायद अगर मैं कुछ और सह लूँ तो परमेश्वर के वचन सच हो जाएँगे और मुझे कुछ न कुछ हासिल होगा। मैं इसे बस थोड़ी देर और सह लूँगा, मैं एक और दाँव खेलूँगा। मुझे क्रोध नहीं करना चाहिए; वरना मेरी पिछली सारी कोशिशें जाया हो जाएँगी और मेरे सहे सारे कष्ट बेकार हो जाएँगे। यह कितना बड़ा नुकसान होगा! अगर मैं अभी अपने विचारों को उजागर कर परमेश्वर को नकारने, उस पर सवाल उठाने और आरोप लगाने के लिए खड़ा हो जाऊँ तो यह समझदारी वाला कदम नहीं होगा। मुझे कीमत चुकाना, कष्ट झेलना और सहन करना जारी रखना होगा। ‘जो अंत तक सहता रहेगा वह बचा लिया जाएगा’—यह वाक्यांश नहीं भूलना चाहिए। यह कहावत सदा सच है और सर्वोच्च सत्य बनी हुई है। मुझे इस कहावत का मान रखकर इसे लगातार अपने दिल में अंकित रखना चाहिए।” निराशा और खामोशी की अवधि के बाद मसीह-विरोधी अंततः फिर से “खड़े” हो जाते हैं।

परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया में मसीह-विरोधी विभिन्न भूमिकाओं में सेवा करते हुए तमाम तरह के कार्य करते हैं। उनमें बाहरी तौर पर तो कोई बदलाव नहीं दिखता लेकिन उन्हें परमेश्वर में विश्वास करते जितना अधिक समय होता है और वे उसका जितना ज्यादा अनुसरण करते हैं, उतना ही ज्यादा मसीह-विरोधी परमेश्वर के उन वचनों में आंतरिक रूप से नुक्स निकालते हैं जो विनाशों की भविष्यवाणी करते हैं। ऐसा क्यों होता है? वे परमेश्वर में जितने लंबे समय से विश्वास करते आए हैं, इसका मतलब है कि उन्होंने उतना ही अधिक बलिदान दिया है, उतना ही अधिक त्याग किया है और उनके पास सांसारिक दुनिया में लौटने का उतना ही कम रास्ता बचा है। इसलिए विनाशों की भविष्यवाणी करने वाले इन वचनों के संबंध में मसीह-विरोधी अधिक से अधिक और अनजाने ही सोचते रहते हैं, “मुझे आशा है कि यह सब सच है। यह सब अवश्य सच होना चाहिए।” वे इस “अवश्य” और इस दृढ़ विश्वास को परमेश्वर में अपनी सच्ची आस्था मानते हैं। यह कथित सच्ची आस्था उन्हें अपने कर्तव्य निभाने, पीड़ा सहने और कीमत चुकाने, सहने और फिर कुछ और सहने के लिए प्रेरित करती है, जैसा कि अविश्वासी कहते भी हैं : “जीतने के लिए तुम्हें अपना सब कुछ दाँव पर लगाना पड़ेगा।” इस तरह के विश्वास पर कायम रहते हुए मसीह-विरोधी उस दिन की टोह लेने में लगे रहते हैं जब परमेश्वर के वचन सच होंगे। अंततः वह दिन आ जाता है—इस दुनिया में आपदाएँ और आफतें लगातार आती हैं और विभिन्न कोनों में, विभिन्न देशों में और विभिन्न जातीय समूहों के बीच घटित होती हैं। ये छोटी-बड़ी आपदाएँ कई जान ले लेती हैं, कई लोगों के जीवन परिवेश को बदल देती हैं, पारिस्थितिकीय पर्यावरण को बदल देती हैं, समाज में तमाम संरचनाओं, जीवन के तरीकों, आदि को बदल देती हैं। लेकिन चाहे कुछ भी हो, मसीह-विरोधियों की नजर में परमेश्वर के वचन अभी भी थोड़ी-सी हद तक सच हो रहे होते हैं, जो उनके अंतरतम के लिए सबसे संतोषप्रद बात होती है। उन्हें लगता है कि इतने वर्षों में उन्होंने व्यर्थ ही नहीं सहा या इंतजार किया और अंततः उस दिन और चरण के गवाह बने हैं जब परमेश्वर के वचन सच हो रहे हैं। लेकिन उन्हें लगता है कि उन्हें हतोत्साहित नहीं होना चाहिए या हार नहीं माननी चाहिए; उन्हें सहते रहना और इंतजार करते रहना चाहिए। मसीह-विरोधी चाहे कितना ही सहें या इंतजार करें, उन्हें अंदर से कौन-सी चीज सबसे ज्यादा चिंतित करती है? वह यह है : “अकाल, महामारी और भूकंप की भविष्यवाणियाँ सच हो चुकी हैं, लेकिन महा विनाशों की भविष्यवाणियाँ कब सच होंगी?” एक ओर मसीह-विरोधी यह मानते हैं कि परमेश्वर के कुछ वचन धीरे-धीरे और थोड़े-थोड़े सच हो रहे हैं, जबकि दूसरी ओर वे संदेह करते हैं : “क्या ये आपदाएँ बस प्राकृतिक नहीं हैं? पूरे इतिहास के दौरान आपदाएँ निरंतर आती रही हैं। क्या इन आपदाओं का आना परमेश्वर के वचनों का पूरा होना है? अगर नहीं, तो ये क्या हैं? मुझे ऐसा नहीं सोचना चाहिए; परमेश्वर के विश्वासी को परमेश्वर के वचनों में विश्वास करना चाहिए। लेकिन परमेश्वर के वचन क्या इतनी आसानी से पूरे हो जाते हैं? परमेश्वर ने यह कैसे किया? मैंने उसे ऐसा करते क्यों नहीं देखा? इसके बारे में मैं क्यों नहीं जानता? अगर यह परमेश्वर का किया हुआ है तो उसमें विश्वास रखने वालों को यह दिखना चाहिए, परमेश्वर को उन्हें दर्शन देना चाहिए। लेकिन हमने न तो परमेश्वर का हाथ देखा है, न ही परमेश्वर की वाणी सुनी है, तो फिर ये घटनाएँ क्या संयोग मात्र हो सकती हैं? मुझे ऐसा नहीं सोचना चाहिए; ऐसे विचार मुझे कमजोर बना सकते हैं। मुझे अब भी यह विश्वास रखना है कि यह सब परमेश्वर के वचनों का पूरा होना है; मैं इसे केवल परमेश्वर की संप्रभुता के रूप में, परमेश्वर के वचनों के सच होने के रूप में लूँगा, संयोग के रूप में नहीं। इस तरह मेरा दिल अधिक सहज रहता है।” उन्हें लगता है कि इस तरह से सोचना बहुत चतुराईपूर्ण है और यह कि उन्होंने स्थिति का ठीक से विश्लेषण कर लिया है, वे परमेश्वर पर संदेह न करने के साथ ही अपनी आस्था को सुस्थिर करने में सक्षम हैं और अपने दिल के भीतर उठने वाली बेचैनी और इच्छाओं के ज्वार को भी शांत कर रहे हैं। अस्थायी रियायतें लेते और समझौते करते हुए मसीह-विरोधी महा विनाशों के आने का इंतजार करते हैं। “महा विनाश कब आएँगे? जब वे आएँगे तो संतों को हवा में उठा लिया जाएगा, लेकिन यह वास्तव में किस जगह होगा? यह कैसे होगा? क्या वे उड़कर जाएँगे या परमेश्वर के हाथ से उठा लिए जाएँगे? जब महा विनाश घटित होंगे तो क्या तब भी लोगों के पास अपना भौतिक शरीर बचा रहेगा? क्या वे तब भी अपने यही कपड़े पहने रहेंगे? क्या सभी अविश्वासी मर जाएँगे? वह कैसी दशा या परिस्थिति होगी? यह इंसानों के लिए अकल्पनीय है। बेहतर होगा कि मैं फिलहाल इसके बारे में न ही सोचूँ। मैं बस यह विश्वास करूँगा कि परमेश्वर के वचन यकीनन सच होंगे। लेकिन क्या वे सचमुच सच हो सकते हैं? वह दिन कब आएगा?” वे मन-ही-मन में खुद से ये सवाल पूछते रहते हैं और बार-बार संदेह जताते रहते हैं। चूँकि ये विनाश उनकी संभावनाओं और नियति से घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं, इसलिए मसीह-विरोधी यह मानते हैं : “महा विनाश कब आएँगे इस बारे में मुझे भविष्यवाणी के पूरे होने के संबंध में लगातार सतर्क रहना चाहिए, मुझे इसे हर समय ध्यान में रखना चाहिए ताकि मुझसे मेरा मौका न छूट जाए और मैं आशीष प्राप्त करने में विफल न हो जाऊँ।” तो फिर उनका परिप्रेक्ष्य क्या है? “मुझे दूर-दूर तक सुसमाचार का प्रचार करने की जरूरत है, अपने कर्तव्य परिश्रमपूर्वक निभाने चाहिए, विघ्न या गड़बड़ी पैदा करने या गलतियाँ करने से बचना चाहिए और आडंबर दिखाए बिना विनम्र रहना चाहिए। इतना ही काफी होगा कि मैं गलतियाँ न करूँ और कलीसिया से निष्कासित न किया जाऊँ। मैं निश्चय ही शरण में पहुँच सकूँगा; यह परमेश्वर का वादा है—इसे कौन छीन सकता है?” जब थोड़ा-थोड़ा करके छोटी-मोटी आपदाएँ आती हैं और पूरी मानवजाति आपदाओं का शिकार होती है तो मसीह-विरोधियों को अंदर तक चैन और बड़ी-ही शांति मिलती है। साथ ही वे महा विनाशों के आगमन और संतों के उठा लिए जाने के दिन की उत्सुकता से प्रतीक्षा करते हैं। मसीह-विरोधी हर हाल में विनाशों की भविष्यवाणी करने वाले परमेश्वर के वचनों की टोह लेने में लगे रहते हैं। परमेश्वर की नजर में ऐसी टोह लेना शैतान की टोह लेने के समान है। वह इसे संदेह, इनकार, बदनामी और परमेश्वर की सटीकता के विश्लेषण की तरह देखता है। यह परमेश्वर की पहचान पर सवाल उठाना है, परमेश्वर के अधिकार और सर्वशक्तिमत्ता पर संदेह करना है और परमेश्वर की निष्ठा पर संदेह करना है। परमेश्वर ऐसी चीजें नहीं होने देता, न ही वह ऐसे लोगों को अस्तित्व में रहने देता है और वह यकीनन ऐसे लोगों को नहीं बचाएगा। मसीह-विरोधियों को लगता है कि उन्होंने गुपचुप ढंग से सोचकर और दिल में हिसाब-किताब लगाकर जो जवाबी उपाय तैयार किए हैं वे सबसे चतुराईपूर्ण और सबसे गुप्त हैं। वे नहीं जानते कि परमेश्वर उनके सारे विचारों को देखता है और उनकी निंदा करता है। परमेश्वर यह कहता है : “उस दिन बहुत से लोग मुझ से कहेंगे, ‘हे प्रभु, हे प्रभु, क्या हम ने तेरे नाम से भविष्यद्वाणी नहीं की, और तेरे नाम से दुष्‍टात्माओं को नहीं निकाला, और तेरे नाम से बहुत से आश्‍चर्यकर्म नहीं किए?’ तब मैं उनसे खुलकर कह दूँगा, ‘मैं ने तुम को कभी नहीं जाना। हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ’” (मत्ती 7:22-23)। परमेश्वर शांति से अपने दिल में इन लोगों से कहता है : कुकर्म करने वाले लोगों मेरे पास से चले जाओ। तुम मेरे क्रिया-कलापों की टोह लेते हो, मेरे वचनों की टोह लेते हो। ऐसे लोग कभी नहीं बचाए जा सकते। विनाशों की भविष्यवाणी करने वाले परमेश्वर के वचन सच होते हैं या नहीं, मसीह-विरोधियों का इसे अपने अनुसरण का लक्ष्य और परमेश्वर की सटीकता की जाँच करने का मापदंड मानना एक भयानक बात है; यह एक बुरा कर्म भी है।

जहाँ तक इस बात का सवाल है कि क्या परमेश्वर के वचनों के कुछ पहलू सच होंगे, वे कैसे सच होंगे, वे कब और कहाँ सच होंगे तो इस बारे में परमेश्वर के अपने तरीके हैं। यह परमेश्वर का अनुग्रह ही है जो मनुष्य को परमेश्वर से ये वचन सुनने का परम सौभाग्य देता है। परमेश्वर का ये वचन कहने का उद्देश्य यह नहीं है कि मानवजाति इनका उपयोग परमेश्वर को बाध्य करने, परमेश्वर की सत्यता की जाँच करने या परमेश्वर की पहचान की पुष्टि करने के लिए करे। परमेश्वर ये वचन मानवजाति को सिर्फ यह बताने के लिए कहता है कि वह ऐसी चीजें करने जा रहा है, लेकिन परमेश्वर ने कभी किसी से नहीं कहा, “मैं इसे इस ढंग से करूँगा, इन लोगों के साथ करूँगा, इस समय और इस तरीके से करूँगा।” परमेश्वर ने मानवजाति को जो चीजें नहीं बताई हैं, उनमें एक स्पष्ट संकेत है : मानवजाति को जानने की जरूरत नहीं है, न ही वह यह जानने के लायक है। इसलिए, अगर मनुष्य हमेशा इन मामलों की टोह लेने की कोशिश करते हैं, हमेशा तह तक जाने की कोशिश करते हैं, हमेशा इन मामलों का उपयोग परमेश्वर पर हावी होने, उसकी आलोचना और निंदा करने के लिए करना चाहते हैं तो जब ये घटनाएँ घटित होंगी तब मानवजाति अदृश्य रूप से परमेश्वर के विरोध में खड़ी होगी। जब तुम परमेश्वर के विरोध में खड़े होते हो तो फिर परमेश्वर तुम्हें इंसान नहीं मानता। तो फिर तुम क्या होते हो? परमेश्वर की नजर में तुम एक शैतान हो, एक शत्रु, एक दानव होते हो। यह परमेश्वर के स्वभाव का वह हिस्सा है जो मनुष्य द्वारा किया अपमान बर्दाश्त नहीं करता है। अगर लोग यह बात नहीं समझते और अक्सर परमेश्वर की भविष्यवाणी के वचनों को मुद्दा बनाते हैं, परमेश्वर पर हावी होने की कोशिश करते हैं तो फिर मैं तुम्हें बता दूँ, यह मौत को दावत देना है। मनुष्यों को हर समय पता रहना चाहिए कि वे कौन हैं और उन्हें परमेश्वर और परमेश्वर संबंधी हर चीज के साथ किस तरीके से, कैसी सूझ-बूझ से और किस दृष्टिकोण से पेश आना चाहिए। एक बार जब लोग सृजित प्राणियों के रूप में अपनी पहचान और स्थिति खो बैठते हैं तो उनका सार बदल जाता है। अगर तुम एक जानवर बन गए तो परमेश्वर शायद तुम्हें अनदेखा कर दे क्योंकि तुम एक तुच्छ वस्तु होगे। लेकिन अगर तुम दानव और शैतान बन गए तो खतरे में पड़ जाओगे। दानव और शैतान बनने का अर्थ है परमेश्वर का शत्रु होना और फिर तुम्हारे पास कभी उद्धार की आशा नहीं रहेगी। इसलिए मैं यहाँ हर किसी को बता देना चाहता हूँ : परमेश्वर के क्रियाकलापों की टोह मत लो, परमेश्वर के वचनों की टोह मत लो, परमेश्वर के कार्य की टोह मत लो और परमेश्वर से संबंधित किसी भी चीज की टोह मत लो। तुम एक मनुष्य हो, एक सृजित प्राणी हो, इसलिए परमेश्वर की सटीकता का विश्लेषण मत करो। परमेश्वर को अपने विश्लेषण और जाँच-पड़ताल की वस्तु मत समझो, न ही टोह लेने की वस्तु समझो। तुम एक सृजित प्राणी हो, एक मनुष्य हो, इसलिए परमेश्वर तुम्हारा परमेश्वर है। परमेश्वर जो कुछ भी कहता है वह तुम्हें स्वीकार करना चाहिए। परमेश्वर तुम्हें जो कुछ भी बताता है वह तुम्हें स्वीकार करना चाहिए। जहाँ तक उन चीजों का सवाल है जो परमेश्वर तुम्हें नहीं बताता, वे मामले जिनका संबंध रहस्यों और भविष्यवाणियों से है, वे मामले जिनका संबंध परमेश्वर की पहचान से है तो एक बात तय है : तुम्हें इन्हें जानने की जरूरत नहीं है। इन्हें जानने से तुम्हारे जीवन प्रवेश को लाभ नहीं होगा। उतना ही स्वीकार करो जितना तुम समझ सकते हो। इन्हें अपने स्वभाव में बदलाव और उद्धार की खोज में बाधा मत बनने दो। यही सही तरीका है। अगर कोई व्यक्ति परमेश्वर के विरोध में खड़ा होता है और परमेश्वर से संबंधित बातों की टोह लेने में लगा रहता है, अगर वह खुद को बदलने से लगातार इनकार करता रहता है, हठधर्मी बना रहता है, परमेश्वर के साथ इस तरीके से और ऐसे रवैये के साथ पेश आता है तो उसके बचाए जाने की उम्मीद बहुत धूमिल हो जाती है। मसीह-विरोधी विनाशों की भविष्यवाणी करने वाले परमेश्वर के वचनों की टोह लेते हैं—आओ इस मद पर अपनी संगति को यहीं समाप्त करते हैं। अब हम अगली मद पर चलते हैं।

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