मद दस : वे सत्य का तिरस्कार करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग छह) खंड दो

2. मनुष्य को शाप और दंड देने वाले परमेश्वर के वचनों की टोह लेना

दूसरी मद यह है कि मसीह-विरोधी मनुष्य को शाप और दंड देने वाले परमेश्वर के वचनों की टोह लेते हैं। परमेश्वर के वचनों में शाप और दंड का जो उल्लेख किया गया है उसके प्रति मसीह-विरोधियों का दृष्टिकोण और रुख वही होता है जो पहली मद के प्रति होता है। वे इस प्रकार के वचनों की टोह कैसे लेते हैं? जब वे यह देखते हैं कि परमेश्वर के वचनों का उद्देश्य किस प्रकार के लोगों को शाप और किस प्रकार के लोगों को दंड देना है, परमेश्वर ने ऐसे लोगों को शाप देने के लिए कौन-से वचन कहे हैं, परमेश्वर ऐसे लोगों को दंडित करने के लिए क्या तरीका अपनाता है, साथ ही किस प्रकार के लोगों को शाप देने के लिए परमेश्वर क्या तरीका और वचन अपनाता है तो वे अपने रोजमर्रा के जीवन में यह जाँच-परख करने लगते हैं कि परमेश्वर के ये वचन कैसे साकार होते हैं और क्या वे अभी तक साकार हुए हैं। उदाहरण के लिए, कलीसिया का एक अगुआ परमेश्वर के घर के पैसे का गबन करता है, भाई-बहनों को मनमाने ढंग से यातनाएँ देता है और दबाता है, कलीसिया में अत्याचारी और अंधाधुंध ढंग से काम करता है, सिद्धांतों के बिना चलता है, परमेश्वर के इरादे नहीं खोजता, और दूसरों के साथ मिल-जुलकर सहयोग नहीं करता है। परमेश्वर के वचन बताते हैं कि ऐसे व्यक्ति के लिए शाप और दंड का प्रावधान है। एक मसीह-विरोधी देखता है : “परमेश्वर ऐसे लोगों से प्रेम नहीं करता, वह उनका तिरस्कार करता है। लेकिन वह इस व्यक्ति का तिरस्कार कैसे कर रहा है? वह व्यक्ति रोज काफी आराम से रहता है और बिना किसी आत्म-निंदा के भाई-बहनों को दबाता है; भाई-बहनों को बस इसे सहन करना पड़ता है। तो फिर परमेश्वर के ये वचन सच कैसे हो रहे हैं? मुझे तो नहीं दिखता कि ये कैसे सच हो सकते हैं; शायद ऐसे लोगों को परमेश्वर का शाप मिलना सिर्फ कहने की बात है। परमेश्वर के वचनों में अधिकार होना चाहिए और उसके बोलने से लोगों के दिल में बेचैनी और आत्म-निंदा पैदा होनी चाहिए। मुझे यह देखने और समझने की जरूरत है कि क्या वह अपने दिल में बेचैनी महसूस कर रहा है, मुझे उससे बातचीत कर उसकी मंशा जानने की जरूरत है।” तो मसीह-विरोधी उस व्यक्ति से पूछता है, “इन दिनों तुम्हें कैसा अनुभव हो रहा है?” “बहुत बढ़िया। परमेश्वर हमारी अगुआई कर रहा है। कलीसिया का जीवन कोई बुरा नहीं है, सभी भाई-बहन सही राह पर आ चुके हैं, वे सभी परमेश्वर के वचन पढ़ना पसंद करते हैं और सुसमाचार का कार्य भी अच्छी तरह आगे बढ़ रहा है।” “जब कार्य सुचारु रूप से आगे नहीं बढ़ता तो क्या तुम परेशान नहीं होते? क्या तुम नकारात्मक नहीं होते? क्या परमेश्वर तुम्हें अनुशासित करता है? क्या तुम्हें अंदर आत्म-निंदा महसूस होती है?” “नहीं, जब काम इतना अच्छे से हो रहा हो तो मुझे आत्म-निंदा क्यों होगी? जो भी हो, परमेश्वर मुझे आशीष दे रहा है।” मसीह-विरोधी सोचता है, “परमेश्वर ने ऐसे व्यक्ति को शाप नहीं दिया, इसलिए उसने बुरे लोगों को शाप देने के बारे में, अपना प्रतिरोध करने वालों को शाप देने के बारे में जो वचन कहे हैं, वे साकार नहीं हुए हैं! इस अगुआ ने परमेश्वर का प्रतिरोध करने और कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी पैदा करने जैसे स्पष्ट कृत्य किए हैं; उसे परमेश्वर का शाप मिलना चाहिए था। यह कैसे नहीं हुआ है? यह कहना मुश्किल है कि लोगों को शाप देने वाले परमेश्वर के वचन साकार हो सकते हैं या नहीं, इसलिए मैं इस पर निगाह रखे रहूँगा।” परमेश्वर के वचनों में एक वाक्यांश है : “प्रतिरोध मृत्यु की ओर ले जाता है!” मसीह-विरोधी की नजर में कई लोग परमेश्वर का प्रतिरोध करते हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोग जब पहली बार परमेश्वर के कार्य के इस चरण के संपर्क में आए और वे सत्य को नहीं समझते थे तो उन्होंने परमेश्वर के लिए निंदापरक और लांछनकारी शब्द कहकर उसके इस चरण के कार्य को अस्वीकार कर दिया। मसीह-विरोधी अपने मन में सोचता है, “क्या ये परमेश्वर का प्रतिरोध करने वाले लोग हैं? अगर हैं तो परमेश्वर के वचनों के अनुसार प्रतिरोध मृत्यु की ओर ले जाता है। लेकिन इतने साल बाद भी ऐसा लगता है कि इनमें से किसी को मौत नहीं आई; परमेश्वर के वचन सच नहीं हुए हैं! भले ही वे मरें नहीं, कम-से-कम इनके हाथ टूट जाने चाहिए थे या पैर कट जाने चाहिए थे या घर में कुछ आपदाएँ आनी चाहिए थीं, जैसे परिवार के किसी सदस्य की मौत या घर ढह जाना या कार हादसा होना। जब ऐसी कोई अनहोनी नहीं हुई तो यह कैसे कहा जा सकता है कि प्रतिरोध मृत्यु की ओर ले जाता है? मुमकिन है कि हमारे समझने की क्षमता कमजोर हो और हम अभी भी यह न जानते हों कि परमेश्वर के वचन कैसे सच और साकार होते हैं। परमेश्वर के वचन सच होंगे कि नहीं, लोग नहीं जानते; यह कहना मुश्किल है।” मसीह-विरोधी इन जाहिर तथ्यों, अपने मानसिक विश्लेषण और अपने “अनूठे” दृष्टिकोण के जरिए यह देखते हैं कि परमेश्वर के ये वचन सच होते हैं या नहीं और अगर ये सच होते हैं तो कैसे सच होते हैं। वे इस मामले पर हमेशा एक बड़ा-सा सवालिया निशान लगाते हैं; वे नहीं जानते कि इस मसले का अंतिम परिणाम क्या होगा, इन घटनाओं की व्याख्या कैसे करें या इन परिघटनाओं को कैसे समझें। बेशक वे अक्सर इस बारे में प्रार्थना करते हैं : “हे परमेश्वर, मुझे प्रबुद्ध करो, मुझे यह समझने दो कि तुम कैसे लोगों को शाप और दंड देते हो और कैसे तुम्हारे वचन सच होते हैं ताकि मैं तुमसे भय मानने वाला दिल बना सकूँ, ताकि मैं तुमसे डरूँ और ऐसे काम न करूँ जिनसे तुम्हारा प्रतिरोध होता है।” क्या यह प्रार्थना किसी काम की है? क्या परमेश्वर उनकी सुनेगा? (नहीं।) परमेश्वर तो इसकी परवाह भी नहीं करता; वह इन प्रार्थनाओं को कीट-पतंगों की निरर्थक भिनभिनाहट जैसा मानता है। परमेश्वर ऐसी प्रार्थनाएँ क्यों नहीं सुनता? क्योंकि मसीह-विरोधी का हर वाक्य परखने, उकसावे, बदनामी और ईश-निंदा से भरा है। भले ही परमेश्वर ने ऐसे व्यक्ति पर खुलेआम प्रहार नहीं किया है या उसकी निंदा नहीं की है, फिर भी उसका हर कार्य, उसके विचार, दृष्टिकोण और रुख परमेश्वर की नजर में निंदनीय हैं। मसीह-विरोधी की ये अभिव्यक्तियाँ दिल में छिपी रहती हैं; वह ये चीजें गुपचुप करता है और चुपचाप इनकी टोह लेता है। यकीनन परमेश्वर भी अपने दिल में उसकी निंदा करता है और उसे शाप देता है।

जहाँ तक मनुष्य को शाप और दंड देने वाले परमेश्वर के वचनों का संबंध है, मसीह-विरोधी इन पर विश्वास नहीं करते या इन्हें समझते नहीं हैं; वे अक्सर जाँच-पड़ताल और विश्लेषण करते हैं : “आखिर ये वचन सच कैसे होते हैं? क्या वे वाकई सच हो सकते हैं? वे किसके लिए सच होंगे? परमेश्वर जिन लोगों को शाप और दंड देता है क्या उन्हें वाकई शाप और दंड मिलता है? क्या इसे इंसानी नजर से देखा जा सकता है? क्या परमेश्वर को यह सब इंसानी आँखों को दिखने लायक नहीं बनाना चाहिए?” वे इन मामलों पर अपने दिल में निरंतर विचार करते हैं, इन्हें अपने दैनिक जीवन के अहम और महत्वपूर्ण मसले मानते हैं। उन्हें जब भी समय या अवसर मिलता है, वे इन पर विचार करते हैं। अगर माहौल सही है और ऐसी घटनाएँ घटती हैं या जहाँ ऐसे विषयों का संबंध होता है, वहाँ उनका रुख और दृष्टिकोण स्पष्ट रूप से प्रकट हो जाता है। वे परमेश्वर के इन वचनों की जाँच-पड़ताल कर रहे होते हैं और लांछन लगा रहे होते हैं, इन वचनों को इंसानी नजरिए और इंसानी तरीके से समझने का प्रयास कर रहे होते हैं, साथ ही यह भी परख रहे होते हैं कि क्या ये वचन साकार हो सकते हैं, क्या ये दैनिक जीवन में सच हुए हैं और इनका व्यावहारिक प्रभाव पड़ा है। वे ऐसा क्यों करते हैं? वे अपने दिल में इन चीजों पर चिंतन और अथक मंथन क्यों कर पाते हैं? क्योंकि मसीह-विरोधियों का दिल कहता है कि परमेश्वर चाहे कितने ही सत्य व्यक्त कर ले, वे परमेश्वर की पहचान और सार को साबित करने के लिए काफी नहीं होते। परमेश्वर की पहचान और सार को साबित कर सकने वाली एकमात्र चीज यह है कि परमेश्वर के वचन सच और साकार होते हैं या नहीं। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर की पहचान और सार को परखने की उनकी एकमात्र कसौटी यह होती है कि क्या परमेश्वर के वचन साकार और सच होते हैं। इसी तरह, क्या मनुष्य को शाप और दंड देने वाले परमेश्वर के वचन सच होते हैं या नहीं, यह भी परमेश्वर की पहचान और सार को परखने की उनकी कसौटी बन गया है। परमेश्वर को मापने के पीछे मसीह-विरोधियों का सबसे महत्वपूर्ण विचार और दृष्टिकोण यही होता है। मसीह-विरोधी इंसानी नजरिए और समझ के तरीके इस्तेमाल कर और इंसानी बुद्धि के भरोसे रहकर लोगों को शाप और दंड देने वाले परमेश्वर के वचनों का परीक्षण और मूल्यांकन करते हैं। चाहे कुछ भी हो, जब उन्हें तथ्य या मनचाहा तमाशा देखने को नहीं मिल पाता तो वे अपने दिल में परमेश्वर की पहचान और सार को बार-बार नकारते हैं। जितना वे कम देख पाते हैं, उतनी ही अधिक तीव्रता से वे परमेश्वर को नकारते हैं और उनका संदेह इस बात पर उतना ही अधिक बढ़ जाता है कि उन्होंने जो निवेश किया और खपाया वह सार्थक है या नहीं। लेकिन मसीह-विरोधी जब परमेश्वर के घर में परमेश्वर को बदनाम करने वाले या परमेश्वर के घर के कार्य में बाधा डालने वाले बुरे लोगों को या उसकी ईश-निंदा और प्रतिरोध करने वाले कुछ लोगों को अलग-अलग स्तर का दंड या शाप मिलता देखते हैं और यह देखते हैं कि इन लोगों का क्या हश्र होता है तो वे परमेश्वर के प्रति विस्मय के भाव से भरकर अचानक यह महसूस करने लगते हैं, “परमेश्वर वास्तव में दुर्जेय है। उसका कहा पूरा हो जाता है। वह तो भली-चंगी थी, फिर भी अचानक मर गई, क्योंकि वह कल ही अपने मुँह से परमेश्वर को गाली दे रही थी! एक और बैल की तरह बलिष्ठ व्यक्ति अचानक बीमार पड़ गया क्योंकि उसने परमेश्वर के घर के कार्य को भारी नुकसान पहुँचाया था और इसे स्वीकार भी नहीं किया था, लिहाजा उसे परमेश्वर का शाप मिला। एक और महिला ने कलीसिया में कुछ दुराचार और बुरे कर्म किए थे जिस कारण उसके परिवार पर आफतें आईं और तब से उसके घर में अमन-चैन नहीं है। एक और व्यक्ति परमेश्वर के बारे में हमेशा निंदाजनक बातें करता था, अब पगला चुका है और परमेश्वर होने का दावा करता है। उस पर राक्षसों का साया है; परमेश्वर ने उसे शैतान को सौंपकर अशुद्ध राक्षसों के ठिकाने पर रखवा दिया है। उसे दुष्ट आत्माओं के वश में करना कोई मनुष्यों के हाथ की बात नहीं है; ऐसा करने का अधिकार केवल परमेश्वर के पास है। परमेश्वर सब पर संप्रभु होकर शासन करता है—उसने उस व्यक्ति को दुष्ट आत्माओं को सौंप दिया, और उन्होंने उस पर कब्जा कर लिया जिससे वह अपनी मति और शर्म-हया खो बैठा और सड़कों पर नंगा दौड़ता फिरता है। देखो इन लोगों का क्या हश्र हुआ है, उन्हें क्या-क्या दंड और शाप भुगतने पड़े हैं; उन सभी ने क्या किया है?” यह निचोड़ निकालने के बाद मसीह-विरोधियों के दिल जोर-जोर से धड़कने लगते हैं : “इनमें वे लोग शामिल हैं जो खुलेआम परमेश्वर को जुबानी तौर पर गाली देते हैं, जो खुलेआम परमेश्वर की ईश-निंदा और आलोचना करते हैं और वे भी शामिल हैं जो परमेश्वर के घर में जानबूझकर बाधा डालते और गड़बड़ी पैदा करते हैं। ऐसा लगता है कि परमेश्वर का विरोध करने से कुछ भी भला नहीं होता! परमेश्वर सचमुच दुर्जेय है! अगर तुम दूसरे लोगों को नाराज करते हो तो वे तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते, लेकिन अगर तुम परमेश्वर को नाराज करते हो तो यह गंभीर बात है। अपने व्यवहार के लिए तुम खुद जिम्मेदार होगे; इसकी कीमत बहुत भारी है! कम से कम तुम पागल हो सकते हो और परमेश्वर तुम्हें अशुद्ध राक्षसों को सौंप देगा, जिसका मतलब यकीनन नरक में जाना है; सबसे बुरी स्थिति तो यह है कि परमेश्वर इस जीवन में तुम्हारे दैहिक अस्तित्व को मिटा देगा, तुम्हें नष्ट कर देगा और आगामी संसार में—कहने की जरूरत नहीं है कि—तुम्हारे पास कोई मंजिल नहीं होगी, तुम राज्य में प्रवेश नहीं कर पाओगे और न आशीष ले पाओगे। परमेश्वर का प्रतिरोध करने के उनके तमाम तरीकों के आधार पर देखें तो मुझे और भी सावधानी बरतने और अपने लिए कुछ सिद्धांत तय करने की जरूरत है। पहला सिद्धांत, मुझे परमेश्वर को खुलेआम अपने मुँह से गाली नहीं देनी चाहिए; अगर ऐसा करना ही है तो मुझे यह चुपचाप अपने दिल में करना चाहिए। दूसरा, भले ही मुझमें परमेश्वर बनने की इच्छा और महत्वाकांक्षा हो, मैं उसे प्रकट नहीं कर सकता या दूसरों को जानने नहीं दे सकता। तीसरा, मुझे अपने व्यवहार और गतिविधियों को नियंत्रण में रखना चाहिए, ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहिए जिससे गड़बड़ी पैदा हो। अगर मैं परमेश्वर के घर के कार्य को नुकसान पहुँचाता हूँ और परमेश्वर को क्रोधित करता हूँ, तो यह भयावह होगा! कोई हल्का मामला होगा तो मैं अपनी जान से हाथ धो सकता हूँ; मामला गंभीर होगा तो मैं शाप पाकर अथाह कुंड में गिर जाऊँगा और यही मेरा अंत होगा।” ऐसी चीजें होती देखकर मसीह-विरोधियों को लगता है कि परमेश्वर के वचन सच हो गए हैं और परमेश्वर बहुत-ही महान और दुर्जेय है। इन घटनाओं के जरिए उन्हें परमेश्वर की महानता और दुर्जेयता का एहसास और उसकी पहचान होती है। क्या मसीह-विरोधियों के दिल में ये सभी विचार प्रक्रियाएँ, साथ ही इन चीजों को देखने के बाद उन्होंने जिन कार्य सिद्धांतों का निचोड़ निकाला है, उनकी आंतरिक दुनिया की गतिविधियाँ नहीं हैं? वे परमेश्वर को लेकर अपने दिल में जो कुछ भी करते हैं उसे ही टोह लेना कहते हैं।

मसीह-विरोधी खुलेआम यह नहीं कहते कि “परमेश्वर लोगों को शाप नहीं देता है, परमेश्वर के वचन सच नहीं हुए हैं,” न ही वे खुलेआम यह कहते हैं कि “परमेश्वर ने फलाने को दंडित किया है, परमेश्वर ने फलाने को शाप दिया है। परमेश्वर के वचन सच हो गए, परमेश्वर सचमुच महान है।” बल्कि वे अपने दिल की गहराई में इन मामलों की साजिशें रचते हैं, योजना बनाते हैं और इन पर विचार करते हैं। विचार करने के पीछे उनका लक्ष्य क्या होता है? वे सोचते हैं कि अगर परमेश्वर के वचन सच हो जाएँ तो उन्हें क्या करना चाहिए और अगर परमेश्वर के वचन सच या साकार न हुए तो क्या करना चाहिए। उनका टोह लेने का उद्देश्य परमेश्वर के कार्यों को समझना नहीं होता, परमेश्वर के स्वभाव को समझना नहीं होता और सत्य प्राप्त करना और एक ऐसा सृजित प्राणी बनना तो बिल्कुल भी नहीं होता जो मानक-स्तर का हो—बल्कि उनका उद्देश्य इन सभी मामलों से निपटना होता है, इंसानी तरीके और रणनीतियाँ अपनाकर परमेश्वर के शाप और दंड का सामना करना होता है। मसीह-विरोधी अपने दिलों में यही साजिशें रचते हैं। क्या परमेश्वर के वचनों के प्रति विचारों की यह कड़ी यह साबित कर सकती है कि वे परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण हैं? क्या इससे यह साबित हो सकता है कि वे लगातार परमेश्वर की बदनामी और ईशनिंदा करते रहे हैं? (हाँ।) बिल्कुल! मसीह-विरोधी यही तो करते हैं। अगर परमेश्वर के वचन सच साबित होते हैं तो उनके पास जवाबी उपाय तैयार होते हैं; अगर उसके वचन सच साबित नहीं होते तो भी उनके पास जवाबी उपाय होते हैं—उनके जवाबी उपाय इस बात पर निर्भर करते हुए बदलते रहते हैं कि परमेश्वर के वचन सच साबित होते हैं कि नहीं। अगर परमेश्वर के वचन सच साबित हुए तो मसीह-विरोधी उचित रूप से आचरण करते हैं, परमेश्वर के घर के भीतर कार्यों में सावधानी बरतते हैं, दूसरों की नजरों में न आने का प्रयास करते हैं, अक्खड़ या ढीठ नहीं रहते, यह ख्याल रखते हैं कि वे कुछ भी गलत न करें। अगर परमेश्वर के वचन सच साबित न हुए तो वे खुलेआम लापरवाही से कार्य करेंगे। कुछ भी हो, उन्हें परमेश्वर के वचन सच होते दिखाई दें या नहीं, उनका दिल परमेश्वर को वास्तव में कभी परमेश्वर नहीं मानेगा, उनके दिल कभी भी पूरी तरह से परमेश्वर को सौंपे नहीं जा सकते। वे अपने कर्तव्य और कार्य दिल से नहीं करते, बल्कि वे इन्हें छल-कपट करके, आड़ लेकर और गुपचुप ढंग से करते हैं और साजिशों, चालबाजियों और दिखावे का इस्तेमाल करते हैं। वे अपने दिल की गहराइयों में जो सोचते, विचारते और संदेह करते हैं, उसे कभी भी दूसरों के साथ या परमेश्वर के साथ खुलकर साझा नहीं करते। बल्कि वे हठपूर्वक अपनी ही सोच और विचारों को सत्य, सही और अच्छी दिशा और लक्ष्य मानते हैं जिनका कार्यान्वयन कर अभ्यास करना चाहिए। मसीह-विरोधियों की नजर में यह अत्यंत महत्वपूर्ण होता है कि मनुष्य को शाप और दंड देने वाले परमेश्वर के वचन सच साबित होते हैं या नहीं, क्योंकि इसी से यह तय होता है कि वे अपने दैनिक जीवन में कैसे कार्य और व्यवहार करते हैं, वे कार्य को कैसे लेते हैं और भाई-बहनों से कैसे पेश आते हैं; इससे यह भी तय होता है कि वे कैसा व्यवहार प्रकट करते हैं, और साथ ही उनके कौन-से क्रिया-कलाप और अभिव्यक्तियाँ होती हैं। जब परमेश्वर के वचन सच साबित होते हैं तो मसीह-विरोधी उचित रूप से और निष्कपटता से आचरण करते हैं, अपनी हरकतों पर अंकुश लगाते हैं, कुछ ऐसा करने की कोशिश नहीं करते जिससे गड़बड़ी या बाधा पैदा हो, न ऐसे शब्द बोलने का प्रयास करते हैं जो गड़बड़ करें या व्यवधान डालें, जो परमेश्वर के वचनों को बदनाम करते हों या उसके कार्य को बदनाम करते हों। अगर परमेश्वर के ये वचन सच साबित नहीं होते तो वे बेहिचक परमेश्वर के कार्य की आलोचना और निंदा करते हैं। इस तरह से मसीह-विरोधी अपने दिल की गहराइयों में परमेश्वर का निरंतर विरोध करते हैं और उसके खिलाफ शोर मचाते हैं—क्या उनका खुलासा कर हटाना संभव नहीं होगा? उनका यह रवैया, स्वभाव और सार परमेश्वर के असली दुश्मन वाला है। मसीह-विरोधी भले ही जो चाहे वह न कर सकें, लेकिन अपने दिल की गहराई में वे जो कुछ सोचते हैं, जो योजना बना रहे होते हैं, जो कुछ विचार करते हैं या जो दृष्टिकोण रखते हैं, उन्हें बिल्कुल भी नहीं छिपाते क्योंकि वे परमेश्वर से नहीं डरते। उनका परमेश्वर से न डरने का क्या कारण होता है? वे परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते, न ही वे यह विश्वास करते हैं कि परमेश्वर मनुष्य के अंतस्तल की जाँच-परख करता है। इसलिए अपने तर्क के अनुसार मसीह-विरोधी अपना अस्तित्व बचाने की सबसे शानदार रणनीति यह मानते हैं : “मैं जो करता हूँ और जिस तरह से पेश आता हूँ, जो दूसरों को नजर आता है, वह यह मापने का मानक बन सकता है कि मैं किस तरह का व्यक्ति हूँ। लेकिन मैं अपने दिल में क्या सोचता हूँ, मैं कैसे योजना बनाता हूँ और इरादा रखता हूँ, मेरी आंतरिक दुनिया कैसी है, क्या मैं परमेश्वर की बदनामी और ईशनिंदा कर रहा हूँ, परमेश्वर की आलोचना कर रहा हूँ या परमेश्वर में विश्वास कर उसकी स्तुति कर रहा हूँ—अगर मैं यह नहीं बताता तो तुम लोगों में से कोई भी यह नहीं जानेगा। तुम मेरी निंदा करने की कोशिश कर लो, पर नाकाम रहोगे! अगर मैं नहीं बोलता तो तुममें से कोई भी यह जानने की उम्मीद भी नहीं कर सकता कि मैं अपने दिल में क्या सोचता हूँ या क्या योजना बनाता हूँ या परमेश्वर के प्रति मेरा रवैया और दृष्टिकोण क्या है, और कोई भी मुझे किसी भी पाप का भागी नहीं बता सकता।” यही मसीह-विरोधियों की योजना होती है। वे मानते हैं कि लोगों के बीच रहते और काम करते हुए अपने आचरण का यही सर्वोच्च सिद्धांत है। जब तक उनका व्यवहार गलत नहीं है और उनके कार्यों में कोई दोष नहीं है, तब तक उनके अंतर्मन के विचारों में कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता। क्या मसीह-विरोधी अत्यधिक चतुर नहीं हैं? (नहीं।) वे चतुर कैसे नहीं हैं? वे खुद को इतनी अच्छी तरह छिपा लेते हैं। जब वे प्रार्थना करते हैं तो इसे सड़क के नुक्कड़ों पर करते हैं और वे दूसरों के सामने जो शब्द कहते हैं वे सभी सही होते हैं, इनमें कोई दोष नहीं मिलता। उन्हें विश्वास करते हुए जितना अधिक समय बीतता है, उतने ही अधिक वे आध्यात्मिक होते जाते हैं। वे वास्तव में अपने दिल में जो कुछ सोचते हैं, उसे वे केवल एकांत में अपने परिवार के साथ साझा करते हैं, और कुछ तो यह अपने परिवार को भी नहीं बताते, इसलिए कोई भी उनकी असलियत नहीं जान पाता। लेकिन वे एक बात भूल जाते हैं : इससे क्या फायदा है कि मनुष्य उनकी असलियत जान पाते हैं या नहीं? यह महत्वहीन है; कोई भी इंसान दूसरे व्यक्ति की किस्मत को निर्धारित नहीं कर सकता। मनुष्य उनकी असलियत जान पाते हैं या नहीं, यह मायने नहीं रखता; यह अप्रासंगिक है और इससे कुछ भी तय नहीं होता। महत्वपूर्ण बात यह है कि परमेश्वर न केवल लोगों के बाहरी व्यवहार को देखता है, बल्कि वह उनके दिल की गहराइयों को भी देखता है। ठीक इसलिए कि मसीह-विरोधी यह नहीं मानते और यह नहीं जानते कि परमेश्वर मनुष्य के अंतर्मन को देखता है, वे मूर्खतापूर्ण और बेतुके ढंग से सोचते हैं, “मैं अपने दिल में जो सोचता हूँ उसमें कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता, न तो मनुष्य न ही परमेश्वर।” परमेश्वर मनुष्य के अंतर्तम हृदय की जाँच-परख कर सकता है, इसलिए तुम्हारे विचारों का संबंध परमेश्वर की तुम्हारे बारे में परिभाषा से है। परमेश्वर न केवल लोगों के बाहरी व्यवहार के आधार पर उनकी निंदा करता है, बल्कि इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि वह उनके आंतरिक विचारों के आधार पर उनकी निंदा करता है। यहीं पर मसीह-विरोधी मूर्ख होते हैं; परमेश्वर के वचनों की टोह लेते हुए वे एक महत्वपूर्ण बात भूल जाते हैं : परमेश्वर भी चुपचाप उनके विचारों का अवलोकन कर रहा है। वे यह टोह लेते हैं कि परमेश्वर के वचन सच साबित होते हैं या नहीं, और वे जिस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं वह यह होता है कि उन्हें परमेश्वर के वचनों और उसके अस्तित्व को नकार देना चाहिए। परमेश्वर चुपचाप यह जाँच-परख करता रहता है, देखता है कि अपने हृदय की गहराई में उनका परमेश्वर और परमेश्वर के वचनों के प्रति रवैया क्या है; वह उनके द्वारा परमेश्वर को बदनाम और उसकी ईशनिंदा करने, परमेश्वर को नकारने और उसकी निंदा करने के सभी प्रमाण देखता है, और वह इन सभी विचारों और दृष्टिकोणों के नियंत्रण में उत्पन्न होने वाले बाहरी व्यवहार को भी देख लेता है। तो व्यक्ति के विचारों और व्यवहार के आधार पर परमेश्वर अंततः उस व्यक्ति को क्या निर्धारित करता है? एक मसीह-विरोधी, परमेश्वर का शत्रु, जिसे कभी बचाया नहीं जा सकता। यही नतीजा होता है। क्या मसीह-विरोधी चतुर होते हैं? वे चतुराई से कोसों दूर हैं; वे खुद को विध्वंस की ओर ले जा चुके हैं। उन्हें लगता है कि वे सोचने में खासे सक्षम हैं, कि उनकी सोच बहुत तार्किक है और यह कि वे साजिश रचने में बहुत माहिर हैं। साजिश रचने के बाद उनके पास विभिन्न अप्रत्याशित घटनाओं और परमेश्वर द्वारा की जाने वाली तमाम तरह की चीजों के लिए जवाबी उपाय और तरीके होते हैं जिससे उन्हें हमेशा सर्वोत्तम नतीजे और लाभ प्राप्त होते हैं। वे अपनी क्षमताओं और कौशल की सराहना करते हुए अक्सर आत्म-संतुष्ट महसूस करते हैं और अपनी ही सराहना करते हैं। वे मानते हैं कि वे ही दुनिया में सबसे होशियार व्यक्ति हैं : वे यह समझ सकते हैं कि परमेश्वर के वचनों का स्रोत क्या है, वे किसे ध्यान में रखकर कहे गए हैं, परमेश्वर के वचनों का संदर्भ क्या है, परमेश्वर के वचनों के सच होने के बाद उन्हें क्या रवैया अपनाना चाहिए और अगर परमेश्वर के वचन सच न हों तो उन्हें क्या जवाबी उपाय अपनाने चाहिए। इतना चतुर और पूर्ण होने के लिए, औसत व्यक्ति से अधिक बुद्धिमान होने के लिए वे अक्सर खुद को शाबाशी देते हैं। वे खुद को किस बात की शाबाशी देते हैं? उन्हें लगता है कि अपने दिल की गहराइयों में परमेश्वर की जाँच-पड़ताल, उसका विश्लेषण और उससे होड़ करना और परमेश्वर के वचनों की टोह लेना बहुत ही रोमांचक है और यह उन्हें उपलब्धि का अपार एहसास कराता है। इसलिए वे वास्तव में अपनी सराहना करते हैं और ऐसा व्यक्ति होने के लिए खुद अपनी पीठ थपथपाते हैं। क्या मसीह-विरोधी मूर्ख नहीं हैं? दूसरे लोगों के साथ होड़ करने से हो सकता है तुम वाकई यह तय कर लो कि तुममें से कौन श्रेष्ठ है, और यहाँ तक कि तुम्हें अपनी बढ़त और अस्तित्व बोध का एहसास भी हो सकता है। लेकिन जब तुम परमेश्वर से होड़ करते हो, परमेश्वर के वचनों, परमेश्वर के क्रियाकलापों और परमेश्वर जो कुछ भी करता है हर उस चीज की टोह लेते हो तो इसे क्या कहा जाता है? और इसके क्या दुष्परिणाम हो सकते हैं? यह मौत को दावत देना है! तुम फिल्मी सितारों, गायकों, मशहूर लोगों, महान हस्तियों—किसी की भी टोह ले सकते हो, लेकिन तुम्हें जिसकी टोह बिल्कुल नहीं लेनी चाहिए वह है परमेश्वर। अगर तुम ऐसा करते हो तो तुम टोह लेने के लिए गलत लक्ष्य चुन रहे हो। आज की नवीनतम सूचनाओं की इस दुनिया और सूचना प्रवाह को सुगम बनाने वाले नाना प्रकार के यंत्रों की दुनिया में हो सकता है किसी व्यक्ति के पता-ठिकाने, उसके विचारों और दृष्टिकोणों और उनके दैनिक जीवन में टोह लेना शर्मनाक न माना जाए। लेकिन जो व्यक्ति परमेश्वर में विश्वास रखता है और उसका अनुसरण करता है, जो परमेश्वर के वचनों को ऊपर रखता है और उन्हें रोज खाता और पीता है तो उसके द्वारा परमेश्वर के हर क्रियाकलाप, परमेश्वर के हर वचन और परमेश्वर के हर कार्य की लगातार अपने दिल की गहराई में टोह लेना एक अपमानजनक अवज्ञा है! मनुष्यों में भ्रष्ट स्वभाव होते हैं; जब तुम परमेश्वर के सामने अपनी भ्रष्टता प्रकट करते हो तो समझने और जानने के लिए परमेश्वर तुम्हें सत्य प्रदान कर सकता है, तुम्हें बदलने का समय मिल जाता है। परमेश्वर लोगों की भ्रष्टता, अपराध और पाप माफ कर सकता है और इन्हें याद नहीं रखेगा। एकमात्र चीज जिसे परमेश्वर माफ या सहन नहीं कर सकता, वह है मसीह-विरोधियों के पास किंचित भी समर्पणकारी हृदय न होना, कि वे हमेशा परमेश्वर की जाँच-पड़ताल करते रहें, साथ ही यह भी कि वे हर समय और हर जगह परमेश्वर के कार्य और परमेश्वर के वचनों की निरंतर और अनवरत टोह लेते रहें। तुम किस कोशिश में लगे हो? क्या तुम यह परखना चाहते हो कि परमेश्वर सही है? तुम्हें क्या लगता है तुम किसके लिए पुनरीक्षण पूरा कर रहे हो? क्या तुम इस स्रोत और उद्देश्य का विश्लेषण करना चाहते हो कि परमेश्वर ये चीजें क्यों करता है? तुम खुद को क्या समझते हो? इतना सब कुछ, और तुम खुद को बाहरी व्यक्ति नहीं मानते? क्या परमेश्वर तुम्हारे टोह लेने का विषय हो सकता है? क्या परमेश्वर तुम्हारी जाँच-पड़ताल का विषय हो सकता है? तुम्हारा परमेश्वर की जाँच-पड़ताल को स्वीकार करना, परमेश्वर के मार्गदर्शन को स्वीकार करना, परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करना, उसके हाथों अपनी काट-छाँट स्वीकार करना और स्वभावगत परिवर्तन से संबंधित ऐसे सभी सकारात्मक चलन—ये वैध हैं। यहाँ तक कि कभी-कभी जब तुम परमेश्वर को गलत समझते हो, जब तुम कमजोर और निराश होते हो और परमेश्वर को लेकर शिकायत करते हो, तो परमेश्वर तुम्हारा बुरा नहीं मानता, न ही वह तुम्हारी निंदा करता है। लेकिन एक बात है : तुम हमेशा परमेश्वर की टोह लेते रहते हो, हमेशा यह भेद पहचानने में लगे रहते हो कि क्या परमेश्वर के वचन और परमेश्वर के कार्य सही हैं—यह कुछ ऐसा है जिसे परमेश्वर बिल्कुल भी माफ या बर्दाश्त नहीं करेगा; यह परमेश्वर का स्वभाव है। वास्तव में भ्रष्ट मनुष्य जानवर नहीं हैं; वे इस तरह से परमेश्वर का विरोध नहीं करते, न उनके ऐसे दृष्टिकोण और रवैये होते हैं, न ही वे परमेश्वर के साथ इस तरह पेश आते हैं। केवल एक ही चीज, एक ही भूमिका है, जो निर्लज्ज होकर और सरेआम परमेश्वर के विरोध में खड़ी हो सकती है, और वह है शैतान। परमेश्वर मनुष्यों के अपराधों और भ्रष्टता को याद नहीं रखता लेकिन शैतान के हाथों अपने विरोध, टकराव, ईशनिंदा और बदनामी को परमेश्वर कभी माफ नहीं करेगा। परमेश्वर सिर्फ भ्रष्ट मनुष्यों को बचाता है, शैतान को नहीं। अपनी प्रकृति न बदलने वाले और मसीह-विरोधियों के सार वाले मसीह-विरोधी शैतान का प्रतिनिधित्व कर सकते हैं, शैतान के स्थान पर परमेश्वर के विरोध में खड़े हो सकते हैं और परमेश्वर के वचनों की टोह ले सकते हैं। उनके प्रति परमेश्वर का रवैया क्या होता है? यह शाप और निंदा वाला रवैया होता है। मसीह-विरोधी इस तरह कार्य करने से बच नहीं पाते और मौत को बुलावा दे रहे होते हैं।

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