मद दस : वे सत्य का तिरस्कार करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग छह) खंड एक
III. परमेश्वर के वचनों का तिरस्कार करना
आज हम मसीह-विरोधियों की विभिन्न अभिव्यक्तियों से संबंधित इस दसवीं मद पर संगति करना जारी रखेंगे : “वे सत्य का तिरस्कार करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं” और इसके तीसरे भाग पर ध्यान केंद्रित करेंगे कि वे परमेश्वर के वचनों का तिरस्कार करते हैं। पिछली सभा में हमने इस भाग के दो पहलुओं पर संगति की थी। ये दो पहलू कौन-से थे? (एक था, मसीह-विरोधी मनमाने ढंग से परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ और उनकी व्याख्या करते हैं। दूसरा था, अपनी धारणाओं के अनुरूप न होने पर परमेश्वर के वचनों को मसीह-विरोधी अस्वीकार कर देते हैं।) दोनों पहलुओं का संबंध मसीह-विरोधियों के परमेश्वर के वचनों का तिरस्कार करने से है। मसीह-विरोधियों का परमेश्वर के वचनों का तिरस्कार करना कई तरीकों से जाहिर होता है; यह उनके सार से जुड़ा है, परमेश्वर के प्रति उनके रवैये से जुड़ा है, और इस बात से जुड़ा है कि वे परमेश्वर से संबंधित सभी पहलुओं को कैसे लेते हैं। परमेश्वर के वचनों की विषयवस्तु का दायरा बहुत व्यापक है, इसलिए मसीह-विरोधियों का परमेश्वर के वचनों का तिरस्कार करना उसके वचनों के प्रति साधारण रवैया नहीं होता है। उसके वचनों से उनके तिरस्कार करने की वजहें एकांगी नहीं, बहु-आयामी होती हैं। पिछली संगति में हमने ऐसी दो खास अभिव्यक्तियों पर संगति की थी कि मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों का किस प्रकार तिरस्कार करते हैं। आज हम एक अन्य अभिव्यक्ति पर संगति करेंगे।
ग. मसीह-विरोधी यह टोह लेते हैं कि परमेश्वर के वचन सच साबित होते हैं या नहीं
मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों का तिरस्कार करते हैं—क्या उन्हें परमेश्वर के कहे पर, उसकी बताई सारी विषयवस्तु पर सच्चा विश्वास होता है? (नहीं।) इस बारे में असली प्रमाण है। वे सचमुच विश्वास नहीं करते, तो फिर इस बारे में उनका क्या रवैया होता है कि परमेश्वर के कहे सारे वचन वास्तविकता से मेल खाते हैं या नहीं, वे सच हो सकते हैं या नहीं, या फिर वे तथ्यात्मक होते हैं या नहीं? क्या वे सचमुच विश्वास करते हैं या वे मन-ही-मन संदेह करते हैं और हिचकते हुए जाँच-परख करते रहते हैं? वे मन-ही-मन पक्के तौर पर संदेह करते हैं और हिचकते हुए जाँच-परख कर रहे होते हैं। मसीह-विरोधियों की यही अभिव्यक्ति आज हमारी संगति का विषय है : वे यह टोह लेते हैं कि परमेश्वर के वचन सच साबित होते हैं या नहीं। “टोह लेने” का क्या अर्थ होता है? “टोह लेने” वाक्यांश का इस्तेमाल क्यों किया जाए? (हे परमेश्वर, टोह लेने का अर्थ है गुपचुप जाँच-परख करना, ताक-झाँक करना।) बुनियादी तौर पर यह अर्थ सही है। अब हर कोई “टोह लेने” का अर्थ समझता है; इसका अर्थ है गुप्त रूप से निगरानी करना और हिचकते हुए जाँच-परख करना, दूसरों की जानकारी में आए बिना गुपचुप ढंग से नजर रखना, छिपकर कार्य करना, खुले में आए बिना या दूसरों को नहीं देखने देना; यह तुच्छ चालबाजी है। स्पष्ट है कि जो व्यक्ति यह चालबाजी कर रहा है वह ऐसा सरेआम नहीं, बल्कि चुपके से कर रहा है। लिहाजा इन अभिव्यक्तियों और व्याख्याओं के आधार पर देखें तो जब मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों की टोह लेते हैं तो यह किस प्रकार का व्यवहार होता है? (सत्य का तिरस्कार करने वाला।) इस बात को कौन-सी चीज स्पष्ट करती है कि यह सत्य का तिरस्कार करना है? मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों को खुलकर, उचित कारणों से और सरेआम क्यों नहीं पढ़ सकते? वे टोह क्यों लेते हैं? क्या टोह लेना वास्तव में एक तरह की कार्रवाई है? व्याख्या से यह स्पष्ट है कि टोह लेना ऐसी चीज नहीं है जो खुलेआम की जाए; यह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसका भेद बाहरी चेहरे-मोहरे, हाव-भाव या क्रियाकलापों से पहचाना जा सके। बल्कि ये सारे विचार छिपे रहते हैं, दिल में रखे रहते हैं, दूसरे इन्हें नहीं जान पाते और उनके हाव-भावों और क्रिया-कलापों से यह भेद पहचान पाना मुश्किल होता है कि वे क्या सोच रहे हैं—इसे ही टोह लेना कहते हैं। यह परमेश्वर के वचनों के प्रति एक ऐसा रवैया होता है जो सरेआम खुलकर प्रकट नहीं हो सकता; यह स्पष्ट रूप से गलत रवैया है। यह परमेश्वर के वचनों के साथ एक तीसरे पक्ष के परिप्रेक्ष्य से, शत्रुतापूर्ण दृष्टिकोण से, हिचक भरी निगरानी से, जाँच-पड़ताल, संदेह और प्रतिरोध के नजरिए से पेश आना है। इन व्यवहारों के आधार पर क्या यह कहा जा सकता है कि मसीह-विरोधियों का यह टोह लेना कि परमेश्वर के वचन सच होते हैं या नहीं परमेश्वर के वचनों का तिरस्कार करने की अभिव्यक्ति है, जिसकी प्रकृति गंभीर है? (हाँ।) मसीह-विरोधियों का यह टोह लेना कि परमेश्वर के वचन सच साबित होंगे या नहीं, उनके स्वभाव और परमेश्वर के वचनों के प्रति उनके सच्चे रवैये को दिखाता है जो उनके दिलों, विचारों और उनके गुप्त रूप से रखे गए मतों में प्रकट होता है।
मसीह-विरोधी परमेश्वर के कौन-से वचनों की टोह लेते हैं? उनकी दृष्टि में परमेश्वर के कौन-से वचन उनके लिए गुप्त, गहन जाँच-पड़ताल और विश्लेषण के योग्य होते हैं? यानी परमेश्वर की सुनाई किस खास विषयवस्तु में मसीह-विरोधियों की विशेष रुचि होती है, जबकि साथ ही वे उस पर अक्सर मन-ही-मन संदेह करते रहते हैं और झिझकते हुए जाँच-परख करते रहते हैं? मसीह-विरोधियों के मतानुसार उनके दिल में परमेश्वर के कौन-से वचन इस योग्य हैं कि वे इनके बारे में टोह लेने के लिए समय और ऊर्जा खर्च करें? (परमेश्वर की कुछ भविष्यवाणियाँ, रहस्यों के साथ ही मनुष्य की संभावनाओं, नियति और मंजिल से संबंधित वचन।) भविष्यवाणियाँ, मंजिलें और रहस्य—इन चीजों की ज्यादातर लोग फिक्र करते हैं और उससे भी अधिक इन चीजों को मसीह-विरोधी तहेदिल से कभी त्याग नहीं पाते। खासकर परमेश्वर के किन वचनों से मसीह-विरोधी अपेक्षाकृत चिंतित रहते हैं और अक्सर इनकी अपने मन-ही-मन टोह लेते रहते हैं? चूँकि इसका वास्ता इस बात से होता है कि ये वचन सच साबित होंगे कि नहीं, ये साकार होंगे कि नहीं, वे तथ्य के रूप में उनकी असल उपलब्धि को देखेंगे कि नहीं, इसलिए मसीह-विरोधियों का वास्ता निश्चित रूप से मानवजाति से किए परमेश्वर के वादों से होता है, है न? (बिल्कुल।) साथ ही, परमेश्वर द्वारा लोगों को शाप और दंड देने से संबंधित वचन, बुरे लोगों को दंड देने और उन सबको दंड देने से संबंधित वचन जो परमेश्वर के वचनों के खिलाफ जाते हैं। और फिर विनाशों की भविष्यवाणियाँ हैं—क्या यह भी मसीह-विरोधियों की चिंता का विषय नहीं होता? (हाँ, होता है।) इनके अलावा? (परमेश्वर पृथ्वी से कब विदा होगा इससे संबंधित वचन।) परमेश्वर पृथ्वी से कब विदा होगा, परमेश्वर कब महिमा प्राप्त करेगा, परमेश्वर का महान कार्य कब पूरा हो जाएगा, परमेश्वर इस मानवजाति का अंत कब करेगा, है न? (बिल्कुल।) कुल मिलाकर ये कितनी मदें हैं? (चार।) एक, मनुष्य को वादे और आशीष देने वाले परमेश्वर के वचन। दो, मनुष्य को शाप और दंड देने वाले परमेश्वर के वचन। तीन, परमेश्वर के वचन जो विनाशों की भविष्यवाणी करते हैं। चार, परमेश्वर के इस बारे में कहे गए वचन कि वह पृथ्वी से कब विदा होगा और कब उसका महान कार्य पूरा हो जाएगा। और परमेश्वर के वचनों की एक अन्य श्रेणी भी है, सबसे महत्वपूर्ण मद भी है जिसकी टोह लेने में मसीह-विरोधी खासे उत्सुक होते हैं, और वह है परमेश्वर के स्वभाव, पहचान और सार से संबंधित उसके वचन। इस अंतिम श्रेणी को क्यों जोड़ना चाहिए? मसीह-विरोधी यह नहीं मानते कि परमेश्वर के वचन सच साबित होंगे; वे अक्सर परमेश्वर के वचनों की टोह लेते हैं तो फिर मुख्य रूप से किस कारण उनके मन में संदेह उत्पन्न होता है जिससे वे परमेश्वर के वचनों की टोह लेने लगते हैं? बुनियादी बात तो यही है कि परमेश्वर में उनका अविश्वास होता है। मसीह-विरोधी बुनियादी तौर पर छद्म-विश्वासी होते हैं, वे दानव होते हैं; वे परमेश्वर के अस्तित्व पर संदेह करते हैं, वे यह नहीं मानते कि इस संसार में एक परमेश्वर है, वे परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं रखते, न ही उस सब पर विश्वास करते हैं जो परमेश्वर करता है। इसलिए वे परमेश्वर के स्वभाव, पहचान और सार को लेकर पूरी तरह से संदेह में रहते हैं। उनके संदेह को देखें, तो वे क्या करेंगे? अगर वे परमेश्वर की पहचान और सार पर संदेह कर सकते हैं तो फिर जब परमेश्वर के स्वभाव, पहचान और सार से जुड़े वचनों की बात आएगी तो क्या वे इन्हें समझे या प्रतिक्रिया दिए बगैर पढ़ भी पाएँगे? क्या वे इन वचनों पर दृढ़ विश्वास कर सकते हैं और इन्हें स्वीकार कर सकते हैं? (नहीं।) उदाहरण के लिए, अगर किसी को हमेशा यह संदेह होता रहे कि वह गोद लिया हुआ है तो क्या वह यह विश्वास कर सकता है कि उसके माँ-बाप उसके जैविक माता-पिता हैं? क्या वह यह विश्वास कर सकता है कि उसके माता-पिता का प्यार, सुरक्षा और उसकी संभावनाओं के लिए सारा त्याग सच्चा है? (नहीं।) जब उसे इस सब पर संदेह और अविश्वास होगा तो क्या वह कुछ चीजें चुपचाप नहीं करेगा? उदाहरण के लिए, कभी-कभी वह अपने माता-पिता की बातें गुपचुप ढंग से सुन सकता है ताकि यह देखे कि कहीं वे उसके कुल की चर्चा तो नहीं कर रहे हैं। वह आम तौर पर इस बात पर बारीकी से ध्यान देगा और अपने माता-पिता से आए दिन पूछताछ करेगा कि वह कहाँ जन्मा था, किसने जन्म देने में मदद की और जन्म के समय उसका वजन क्या था—वह हमेशा इन चीजों के बारे में पूछता रहेगा। अगर उसके माता-पिता उसे पीटते या अनुशासित करते हैं तो उसका संदेह और गहराता जाएगा। उसके माता-पिता चाहे जो करें, वह हमेशा सावधान रहेगा और शक करता रहेगा। माता-पिता उसके साथ चाहे जितनी अच्छी तरह पेश आएँ, उसके दिल में बैठी आशंका नहीं हटेगी। तो क्या यह सारी आशंका, ये सारी आंतरिक गतिविधियाँ, विचार और रवैये गुपचुप नहीं घट रहे हैं? जब उनके मन में अपने माता-पिता के जैविक होने या न होने का शक बैठ जाता है तो यह तय है कि वह कुछ न कुछ चीजें गुपचुप ढंग से जरूर करेगा। लिहाजा मसीह-विरोधियों का सार चूँकि छद्म-विश्वासियों वाला होता है, वे यकीनन परमेश्वर के स्वभाव, पहचान और सार में न तो विश्वास करते हैं, न ही इसे मानते या स्वीकार करते हैं। इस छद्म-विश्वास, अस्वीकृति और अस्वीकार युक्त रवैये के साथ क्या वे वास्तव में परमेश्वर के स्वभाव, पहचान और सार से जुड़े वचनों पर विश्वास करेंगे और इन्हें अपने दिल से स्वीकार करेंगे? कतई नहीं। जहाँ तक इसमें परमेश्वर के स्वभाव, पहचान और सार के वचन शामिल होते हैं, उनके मन में संदेह, विरोध और हिचक भरी जाँच-परख घर किए रहती है। फिलहाल हमें इस पहलू के विस्तार में नहीं जाना चाहिए।
परमेश्वर के वचनों की टोह लेने वाले मसीह-विरोधियों की जिन पाँच अभिव्यक्तियों पर अभी चर्चा की गई, वे बुनियादी तौर पर काफी व्यापक और प्रतिनिधिक हैं। परमेश्वर के वचनों में विशिष्ट विषयवस्तु और केंद्र बिंदु होता है जिसकी मसीह-विरोधी टोह लेते हैं। जहाँ तक जीवन प्रवेश से संबंधित अनेक वचनों की बात है, ऐसे वचन जिनसे परमेश्वर लोगों को दिलासा देता है, कुछ रहस्यों को समझाता है या मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव वगैरह उजागर करता है, क्या मसीह-विरोधी इन वचनों की परवाह करते हैं? (नहीं।) उनके लिए ये वचन महत्वहीन होते हैं। क्यों? इसलिए कि मसीह-विरोधी सत्य से प्रेम नहीं करते, वे नहीं मानते कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं और उनकी यह मंशा नहीं होती कि वे परमेश्वर के न्याय और ताड़ना या परमेश्वर के उद्धार को स्वीकार करें। उनकी ऐसी कोई योजना नहीं होती है, इसलिए वे मानव स्वभाव में बदलाव और जीवन प्रवेश संबंधी वचनों को महत्वहीन मानते हैं, वे इन्हें पढ़ने, सोचने या दिल में उतारने लायक नहीं मानते। इन वचनों में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं होती है। वे सोचते हैं, “इन वचनों का हमारी संभावनाओं और नियति से क्या लेना-देना है? इनका हमारी मंजिल से क्या लेना-देना है? वे वचन तुच्छ बातों के बारे में हैं, पढ़ने या सुनने लायक नहीं हैं। अगर कोई सचमुच परेशान है, उसके पास कोई दूसरा समाधान नहीं है तो वह अपने दिल के सूनेपन को भरने या कुछ खास चुनौतीपूर्ण बाधाओं को दूर करने और कुछ दुःसाध्य कठिनाइयों को हल करने के लिए फौरी तौर पर ये वचन पढ़ सकता है—बस इतना ही। यह कहना कि वे वचन व्यक्ति के स्वभाव को बदल सकते हैं, यह इतना सरल कैसे हो सकता है?” अपना स्वभाव बदलने की मूल रूप से उनकी कोई मंशा नहीं होती, परमेश्वर के वचनों को जीवन, मार्ग या सत्य के रूप में स्वीकार करने की कोई योजना नहीं होती। वे सिर्फ अपनी संभावनाएँ और मंजिल चाहते हैं और साथ ही सत्ता भी। इसलिए वे ऐसे वचनों को न तो गंभीरता से लेते हैं और न ही दिल में उतारते हैं। मसीह-विरोधियों के नजरिए से देखें तो इसका आशय यह है कि ये वचन उनकी जाँच-पड़ताल के लायक ही नहीं हैं, और इस लायक तो और भी नहीं हैं कि क्या ये सत्य हैं या क्या ये लोगों को बदल सकते हैं, इन सवालों का विश्लेषण करने और छानबीन करने में समय खपाया जाए। मसीह-विरोधियों के लिए ऐसा हर वचन सार्थक और अत्यंत महत्वपूर्ण है जो उनकी नियति और मंजिल, उनकी अपनी पहचान, रुतबे, उनके सभी व्यक्तिगत हितों इत्यादि से संबंधित हो। कुछ लोग कहते हैं : “चूँकि मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों के इन हिस्सों को इतना महत्वपूर्ण मानते हैं और इन पर इतना ध्यान देते हैं, तो फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि वे परमेश्वर के वचनों की टोह ले रहे हैं? क्या यह आरोप थोड़ा-सा गलत नहीं है? क्या यह थोड़ी दूर की कौड़ी और अनुपयुक्त-सी बात नहीं है?” (नहीं। मसीह-विरोधी यह नहीं मानते कि परमेश्वर के वचन अवश्य सच और पूरे होंगे, वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर जो कहता है उसका वही अर्थ होता है और वह जो कहता है वह होगा भी। वे परमेश्वर के वचनों को विश्वास और स्वीकृति की मानसिकता से नहीं पढ़ते, बल्कि इस पर नजर रखते हैं कि क्या परमेश्वर के वचन वास्तव में सच हो सकते हैं।) क्या यही बात है? (हाँ।) मसीह-विरोधी इन वचनों को इसलिए महत्व देते हैं कि ये उनकी इच्छाओं को पूरा कर सकते हैं। साथ ही इसलिए भी कि अगर ये वचन पूरे हो जाते हैं तो इससे उनकी महत्वाकांक्षाएँ पूरी हो जाएँगी। अगर वे इन वचनों को पकड़े रहे और उनके मुताबिक चलते रहे और अगर ये वचन एक बार सच हो गए तो उन्होंने सही चीज पर दाँव लगाया और उनके लिए परमेश्वर का अनुसरण करना सही कदम होगा। हालाँकि उनका इन वचनों को महत्व देने का मतलब यह नहीं होता कि वे भीतर गहराई से इन्हें सत्य के रूप में, परमेश्वर से आए वचनों की तरह स्वीकार कर सकते हैं, न ही यह कहा जा सकता है कि वे इन वचनों को अपने दिल में परमेश्वर के वचनों के रूप में स्वीकार करते हैं। इसके विपरीत, इन वचनों को महत्व देते हुए भी वे अपने दिल में इनके बारे में संदेह पालते हैं, वे बस संकोच के साथ जाँच-परख करते रहते हैं। यह भी कहा जा सकता है कि ये वचन उनके लिए किसी भी क्षण, किसी भी समय और स्थान पर परमेश्वर को नकारने और परमेश्वर के कार्य के इस चरण को नकारने के लिए प्रमाण और औजार बन सकते हैं। वे निरंतर और ध्यान से नजर रखे रहते हैं कि क्या परमेश्वर के अपने कार्य के हर चरण और लोगों की अगुआई के हर दौर में ये वचन साकार और पूरे हो रहे हैं या नहीं। स्पष्ट है कि मसीह-विरोधियों का ध्यान हमेशा इस बात पर लगा रहता है कि परमेश्वर के वचन सच होते हैं कि नहीं। इस दौरान परमेश्वर के प्रति उनकी शत्रुता, परमेश्वर के प्रति प्रतिरोध और परमेश्वर की जाँच-पड़ताल और विश्लेषण का रवैया कभी नहीं बदलता है। वे परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण रहते हैं और उसकी जाँच-पड़ताल करते हैं, हमेशा अपने हृदय में परमेश्वर के प्रत्येक कार्य और वचन के बारे में टोह लेते रहते हैं; साथ ही वे परमेश्वर की और परमेश्वर के कार्य की निंदा करने का प्रयास भी करते हैं। क्या यह मसीह-विरोधियों की परमेश्वर का प्रतिरोध करने की सतत अभिव्यक्ति नहीं है? (हाँ, है।) मसीह-विरोधियों की इन अभिव्यक्तियों से क्या परमेश्वर के वचनों के प्रति स्वीकृति का कोई संकेत मिलता है? समर्पण का कोई संकेत मिलता है? परमेश्वर से परमेश्वर की तरह पेश आने का रत्तीभर भी संकेत मिलता है? (नहीं।) अब हम इन मदों पर एक-एक करके संगति करेंगे।
1. मनुष्य को वादे और आशीष देने वाले परमेश्वर के वचनों की टोह लेना
पहली मद यह है कि मसीह-विरोधी मनुष्य को वादे और आशीष देने वाले परमेश्वर के वचनों की टोह लेते हैं। जबसे परमेश्वर ने अपना कार्य और बोलना शुरू किया, तब से वह मानवजाति को, अपने चुने हुए लोगों को और अपने वचन सुनने वाले लोगों को इस बारे में बहुत कुछ बता चुका है कि वह लोगों को कौन-से आशीष और अनुग्रह प्रदान करेगा, वह लोगों को कौन-से आशीष देने का वादा करता है, इत्यादि। अलग-अलग दौर, अवसरों या संदर्भों में परमेश्वर अपने अनुयायियों को आशीष और वादों के बारे में बताता है, उन्हें यह सूचित करता है कि अगर वे कुछ चीजें हासिल कर लेते हैं तो वह उन्हें अमुक तरीकों से आशीष देगा और उन्हें कुछ निश्चित आशीष और वादे प्राप्त होंगे, इत्यादि। परमेश्वर ने ये वचन चाहे जिस दौर में बोले हों या चाहे जिससे भी उसने ऐसे वादे किए हों, ये वचन कुछ निश्चित संदर्भों में और एक खास परिवेश में बोले गए थे। यही नहीं, परमेश्वर लोगों को जो वादे और आशीष प्रदान करता है उनका संबंध उनकी सकारात्मक अभिव्यक्तियों से होता है, जैसे कि सत्य का अनुसरण करना, स्वभाव में बदलाव और परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण। निहितार्थ यह कि लोगों के लिए परमेश्वर के वादे और आशीष सशर्त होते हैं। इन शर्तों में अंतिम निर्णय लोगों का नहीं होता, न ही ये मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार तय होती हैं; बल्कि ये परमेश्वर के मानकों और अपेक्षाओं से तय होती हैं और इनमें कुछ सिद्धांत और नियम शामिल होते हैं। जहाँ तक यह सवाल है कि परमेश्वर के वचन कैसे सच होते हैं, कैसे साकार होते हैं और विभिन्न लोगों में कैसे पूरे होते हैं, यह परमेश्वर बेतरतीबी से बिल्कुल नहीं करता—बल्कि इसका एक आधार होता है। अलग-अलग लोगों के किए एक समान कर्म में परमेश्वर अलग-अलग तरीके से पेश आ सकता है। उदाहरण के लिए, दो लोग एक-एक कलीसिया की अगुआई कर रहे हों; एक बार-बार प्रबोधन और रोशनी प्राप्त करता है और अक्सर अनुशासन सहता है जिससे उसके आध्यात्मिक कद में तेजी से वृद्धि होती है। इसके विपरीत, दूसरा अपेक्षाकृत जड़ हो सकता है; और प्रतिक्रिया देने में अपेक्षाकृत धीमा हो सकता है, जिससे प्रगति धीमी हो सकती है। मानवीय दृष्टिकोण से देखें तो समान कार्य करने वाले और समान व्यवहार प्रदर्शित करने वाले इन दो लोगों को परमेश्वर की ओर से समान आशीष मिलने चाहिए और उनसे समान सलूक होना चाहिए। लेकिन जहाँ तक यह बात है कि अपने कर्तव्य निभाते हुए और अपने जीवन में वे क्या जीवन प्रवेश अनुभव और हासिल करते हैं, या वे क्या बाहरी अनुग्रह प्राप्त करते हैं, इनमें निश्चित ही अंतर होंगे। बेशक ये “निश्चित अंतर” अपरिहार्य नहीं हैं। तो फिर परमेश्वर लोगों को ये तथाकथित आशीष और विभिन्न सलूक या लोगों द्वारा परमेश्वर से प्राप्त किए जाने वाले प्रबोधन, रोशनी और दूसरे लाभ कैसे बाँटता है? परमेश्वर के पास अलग-अलग लोगों से निपटने के अलग-अलग तरीके होते हैं। कुछ लोग आलसी, व्यर्थ, प्रतिस्पर्धी और ईर्ष्यालु होते हैं और भले ही वे ऊपरी तौर पर खुद को खपाने और सतही तौर पर कुछ कठिनाइयाँ सहने के लिए तैयार होते हों, लेकिन वे सत्य को स्वीकार या उसका अभ्यास कर ही नहीं सकते। दूसरी ओर, कुछ लोग मेहनती होते हैं; भले ही उनके भ्रष्ट स्वभाव समान हों, वे अपेक्षाकृत ईमानदार और विनम्र होते हैं। वे सत्य स्वीकार सकते हैं और काट-छाँट स्वीकार सकते हैं। वे परमेश्वर की कही हर बात और परमेश्वर द्वारा उनके लिए इंतजाम किए गए हर परिवेश को गंभीरता से स्वीकार कर समझते हैं, साथ ही इससे गंभीरता से पेश भी आते हैं। इस प्रकार हो सकता है कि बाहरी तौर पर दो लोग एक ही काम कर रहे हों और काम की मात्रा भी समान हो लेकिन परमेश्वर उनके अलग-अलग स्वभाव और अनुसरण के आधार पर अलग-अलग आशीष और अलग-अलग प्रबोधन और रोशनी प्रदान करेगा। ऊपरी तौर पर देखें तो हो सकता है कि प्रबोधन और रोशनी प्राप्त करने वाला व्यक्ति अधिक कष्ट और बार-बार अनुशासन सहता हो, लेकिन उसे लाभ भी अधिक होता है। इसके विपरीत, जड़ और मंदबुद्धि व्यक्ति बहुत कम अनुशासन का सामना करता है, बहुत कम कष्ट सहता है और इस प्रकार उसका जीवन विकास धीमा होता है और उसे कम लाभ होता है। मूलतः कौन-सा व्यक्ति सच में परमेश्वर का आशीष और वादे प्राप्त करता है? (वह जो अधिक कष्ट सहता है और अक्सर अनुशासन की प्रक्रिया से गुजरता है।) ऐसा प्रतीत हो सकता है कि जो व्यक्ति परमेश्वर के वादे और आशीष प्राप्त करता है, वह अनुशासित हो जाता है, बार-बार असफलताओं का सामना करता है, भ्रष्टता प्रकट करता है और उसका खुलासा होता है, लेकिन वह अक्सर परमेश्वर का प्रबोधन और रोशनी प्राप्त करता है। दूसरी ओर, जिस व्यक्ति को अनुशासित नहीं किया जाता वह आरामदायक, आनंदमय और उन्मुक्त जीवन जीता है। जब वह आलसी होता है तो वह अनुशासन का सामना नहीं करता; जब वह ईर्ष्यालु होता है तो वह अनुशासन का सामना नहीं करता; जब वह अपने काम में गैर-जिम्मेदार होता है तो वह अनुशासन का सामना नहीं करता—यहाँ तक कि वह रुतबे के फायदों में लगा रहता है और काफी संतुष्ट होकर जीता है। आध्यात्मिक समझ वाले, चीजों की शुद्ध समझ रखने वाले और सकारात्मक चीजों से प्यार करने वाले लोग किसे पसंद करते हैं? वे उस अनुशासन सहने वाले, अक्सर असफलताओं का सामना करने वाले और प्रबोधन और रोशनी प्राप्त कर सकने वाले व्यक्ति को पसंद करते हैं; वे ऐसे व्यक्ति को सचमुच परमेश्वर का आशीष प्राप्त व्यक्ति मानते हैं। सत्य का अनुसरण करने वाले लोग ऐसा व्यक्ति बनना चाहते हैं। वे लगातार परमेश्वर के सामने रहने को तैयार रहते हैं, भले ही इसका मतलब अक्सर परमेश्वर का अनुशासन और ताड़ना प्राप्त करना हो। वे मानते हैं कि यह परमेश्वर का आशीष है और वास्तव में परमेश्वर का वादा है। इन अनुभवों और लाभों का होना परमेश्वर के कहे गए आशीष और वादों के अस्तित्व की पुष्टि करता है। लेकिन मसीह-विरोधी इसे कैसे देखते हैं? मसीह-विरोधी परमेश्वर के वादों और आशीषों को इस आधार पर नहीं तौलते कि कोई व्यक्ति कितना सत्य समझता है, उसने कितना सत्य प्राप्त किया है या उसे कितने सकारात्मक लाभ प्राप्त हुए हैं। इसके बजाय वे यह तौलते हैं कि दैहिक लाभ और भौतिक हितों के नजरिए से कितना लाभ हुआ है। तुम लोगों को क्या लगता है कि मसीह-विरोधी कैसे व्यक्ति से ईर्ष्या करते हैं? (ऐसे व्यक्ति से जो अनुशासन नहीं सहता है।) मसीह-विरोधी उस व्यक्ति से ईर्ष्या करते हैं जो आलसी और निष्ठाहीन है, जो किसी अनुशासन का सामना नहीं करता और रुतबे के फायदे उठाता है। मसीह-विरोधियों का ऐसे व्यक्तियों से ईर्ष्या करना यह साबित करता है कि चीजों को देखने के उनके नजरिए में कोई समस्या है; यह उनके प्रकृति सार से तय होता है।
मसीह-विरोधी कैसे यह टोह लेते हैं कि मनुष्य को वादे और आशीष देने वाले परमेश्वर के वचन सच होते हैं या नहीं? जब परमेश्वर के वचन यह बताते हैं कि वह किसे आशीष देता है, कौन उसके वादे प्राप्त करता है और कौन उससे वादे प्राप्त कर सकता है तो मसीह-विरोधी इस पर कैसे नजर रखते हैं? वे कहते हैं, “जो लोग परमेश्वर के लिए कीमत चुकाते हैं वे प्रबुद्धता और रोशनी प्राप्त करते हैं, उनके पास परमेश्वर का अनुशासन और मार्गदर्शन होता है, और इसे आशीष प्राप्त करना माना जाता है? क्या अनुशासित होना ही परमेश्वर का आशीष है? केवल मूर्ख ही ऐसा सोचेंगे! क्या यह नुकसान उठाना नहीं है? क्या यह अपनी प्रतिष्ठा धूल-धूसरित करना नहीं है? और इसे परमेश्वर का आशीष कहते हैं? क्या परमेश्वर के वचन ऐसे ही सच और साकार होते हैं? अगर ऐसी बात है तो फिर मैं ऐसा इंसान नहीं होना चाहता, मैं कष्ट का अनुसरण नहीं करना चाहता और मैं कीमत चुकाने का अनुसरण नहीं करना चाहता। मैं परमेश्वर की इस कार्यशैली को नहीं स्वीकारता; यह कैसा सत्य है? इसे लोगों को बचाना कैसे माना जा सकता है?” उनके दिल में विरोध जोर मारने लगता है; वे परमेश्वर का इस तरह से आशीष देना और लोगों की अगुआई करना स्वीकार नहीं करते, वे यह स्वीकार नहीं करते कि परमेश्वर लोगों को इस तरह से जीवन प्रदान करे, और वे यह भी स्वीकार नहीं करते कि परमेश्वर इस तरह से लोगों में सत्य का कार्य करे। जाहिर है, मसीह-विरोधियों के आसपास ऐसे लोग भी होंगे जिन्होंने परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद अपना फलता-फूलता कारोबार जमाया, खूब पैसा कमाया, कारें और मकान खरीदे और धनवान बनकर उनका भौतिक जीवन सुधर गया है। यह देखकर मसीह-विरोधी सोचते हैं, “परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद इन्होंने आशीष पाए और परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद उठाया। इन तथ्यों से ऐसा लगता है कि ऐसे लोगों में मनुष्य के लिए परमेश्वर के वादे और आशीष साकार होते हैं; परमेश्वर के वचन सच हो गए हैं। लगता है कि परमेश्वर के वचनों में अधिकार अवश्य है; परमेश्वर के कार्य के इस चरण को स्वीकार करना सही है और व्यक्ति अपार आशीष प्राप्त कर सकता है, सब कुछ आराम से चलेगा और व्यक्ति परमेश्वर से अनुग्रह प्राप्त कर सकता है।” ऐसे तथ्यों का गवाह बनने के बाद मसीह-विरोधियों के दिल में अस्थायी तौर पर परमेश्वर के वादों और आशीषों के लिए थोड़ी-सी स्वीकृति और विश्वास जाग जाता है। जाहिर है, ऐसी स्वीकृति और विश्वास के साथ कोष्ठक में यह होना चाहिए—“आगे सत्यापन के अधीन।” मसीह-विरोधी अपने दैनिक जीवन में यह पुष्टि करने के लिए निरंतर समीक्षा करते और तमाम सबूत जुटाते रहते हैं कि क्या परमेश्वर के आशीष और वादे सच साबित हो रहे हैं और बहुत-से लोगों में साकार हो रहे हैं। जाँच-परख करते हुए ये मसीह-विरोधी यह सबूत जुटा रहे होते हैं, यह देखने की कोशिश करते हैं कि कौन-से लोगों ने परमेश्वर के आशीष और वादे प्राप्त कर लिए हैं, इन लोगों ने क्या किया है, परमेश्वर के प्रति उनके रवैये क्या हैं, वे परमेश्वर का अनुसरण कैसे करते हैं और उनके नजरिए क्या हैं। बेशक निरंतर निगरानी और सबूत जुटाने की इस अवधि में मसीह-विरोधी ऐसे लोगों के व्यवहार, क्रिया-कलापों और नजरियों की नकल भी करते हैं जिन्होंने परमेश्वर से आशीष और वादे प्राप्त कर लिए हैं। अगर खुद उन्हें भी कुछ न कुछ भौतिक आशीषें, खातिरदारी और आनंद प्राप्त होता है तो वे मन-ही-मन में मान लेते हैं : “परमेश्वर के आशीष और वादे खोखले वचन नहीं हैं; ये साकार हो सकते हैं। ऐसा लगता है कि परमेश्वर वास्तव में परमेश्वर है, उसमें सचमुच कुछ क्षमता है। वह लोगों को आशीष और वादे प्रदान कर सकता है, कुछ लाभ दिला सकता है और कुछ हितों से जुड़ी उनकी जरूरतें पूरी कर सकता है। लगता है कि मुझे उसमें विश्वास रखकर उसका अनुसरण करते रहना चाहिए; मुझे पीछे नहीं रहना चाहिए या सुस्ती नहीं बरतनी चाहिए।” शुरुआत से अंत तक मसीह-विरोधी हिचकते हुए जाँच-परख करते रहते हैं। लेकिन क्या कोई यह देखता है कि वे ऐसा कब करते हैं? क्या वे खुलेआम हिचकते हुए जाँच-परख करते हैं और सबसे यह कहते हैं कि “मैं परमेश्वर के इन आशीषों और वादों में विश्वास नहीं करता हूँ”? (नहीं।) ऊपरी तौर पर तुम नहीं कह सकते। तुम उन्हें बाकी सब लोगों के बीच देखते हो, वे अपनी नौकरियाँ, दांपत्य जीवन, परिवार आदि को त्यागते हैं और हर किसी के साथ अपने कर्तव्य भी निभा रहे होते हैं, सुबह जल्दी उठते हैं और देर से सोने जाते हैं, कष्ट सहते हैं और कीमत चुकाते हैं। वे बाधाएँ पैदा करने वाली या नकारात्मक बातें नहीं करते, आलोचनाएँ व्यक्त नहीं करते, बुरी चीजें नहीं करते और बाधाएँ उत्पन्न नहीं करते। लेकिन फिर भी एक चीज होती है : वे देखने में कितने ही गुपचुप होकर कार्य करें, उनके आंतरिक नजरिए और खयाल उनके व्यवहार पर छाए रहते हैं और इसे प्रभावित करते हैं। उनके भीतर गहराई में परमेश्वर के वचनों की हिचक भरी जाँच-परख और टोह लेना परमेश्वर से छुपा नहीं रह पाता। तो फिर मसीह-विरोधियों के कौन-से पहलू लोगों से तो छिपे रह सकते हैं लेकिन परमेश्वर से नहीं? लोग केवल दूसरों का व्यवहार देखते हैं, वे केवल यह देखते हैं कि दूसरे क्या प्रकट करते हैं—दूसरी ओर परमेश्वर इन्हें तो देखता ही है, लेकिन सबसे अधिक अहम बात यह है कि वह लोगों के दिल और अंतर्मन के विचार भी देख लेता है। किसी व्यक्ति का व्यवहार और खुलासे अपेक्षाकृत सतही होते हैं लेकिन उसके हृदय की गहराई एक अगोचर जगत होता है जिसमें उसके गहनतर विचार और उसकी प्रकृति के अनेक तत्व छिपे होते हैं। जब मसीह-विरोधी परमेश्वर के वादों और आशीष जैसे वचनों की टोह लेते हैं तो वे ऊपरी तौर पर अपना समय लगाकर एक दैहिक कीमत चुका सकते हैं लेकिन उनका हृदय पूरी तरह परमेश्वर को अर्पित नहीं होता। उनका हृदय पूरी तरह परमेश्वर को अर्पित न होने की ठोस अभिव्यक्तियाँ क्या होती हैं? वे चाहे कुछ भी करें या कोई भी कर्तव्य निभाएँ, वे इसमें अपनी पूरी ऊर्जा नहीं झोंकते और इसे बिना किसी रोक के नहीं करते, बल्कि उनका लक्ष्य केवल यह सुनिश्चित करना होता है कि इसमें जाहिर तौर पर कोई गलतियाँ न हों और पूरी प्रक्रिया की मूल दिशा सही रहे। वे ऐसा क्यों कर पाते हैं? वे अपने दिल की गहराई में, अपने अंतर्मन में एक विचार पाले रहते हैं : “परमेश्वर के वचन सच होते हैं या नहीं, इससे यह तय होता है कि क्या परमेश्वर मुझे बचा सकता है या नहीं और क्या वह वास्तव में मेरा परमेश्वर है या नहीं। अगर इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिलता तो फिर परमेश्वर की पहचान और सार की वास्तविकता भी सवालों के घेरे में आने लायक बात है।” अपने अंतर्मन में ऐसे विचारों के साथ क्या उनके पास परमेश्वर के प्रति सच्चा हृदय हो सकता है? उनके दिल में गहरे बैठे ये विचार उन्हें बाधित करते हैं, लगातार चेताते हैं : अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को मत सौंपो, सब कुछ मत झोंको, जो कुछ भी करते हो बस आधे-अधूरे ढंग से करो और मूर्ख मत बनो; कुछ चीजें परमेश्वर से बचाकर रखो, अपने लिए बचने का रास्ता रखना मत भूलो और इस अभी-तक अज्ञात परमेश्वर के हवाले अपना जीवन या अपनी सबसे महत्वपूर्ण चीजें मत करो। अपने दिल में वे इसी तरह सोचते हैं। क्या तुम लोगों ने इस पर गौर किया है? (नहीं।) ये मसीह-विरोधी दूसरों के साथ सभाओं और बातचीत के दौरान बाहरी तौर पर तो दयालु हो सकते हैं, सामान्य जुड़ाव बनाए रख सकते हैं और अपनी कुछ अंतर्दृष्टियों, समझ और अनुभवों पर संगति भी कर सकते हैं और कुछ ऐसे बाहरी, उथले और बुनियादी व्यवहार और अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित कर सकते हैं जो विश्वासियों को दिखानी चाहिए; लेकिन परमेश्वर का भय मानने या उसके प्रति उनकी ईमानदारी में कोई वृद्धि या सुधार नहीं होता। परमेश्वर के घर में ये लोग चाहे जितनी भी कीमत चुका लें या कितने ही साल कर्तव्य निभा लें, एक बात तय है : उनका जीवन विकसित नहीं होता—उनमें कोई जीवन नहीं होता। जीवन का यह अभाव किन क्षेत्रों में अभिव्यक्त होता है? जब वे स्थितियों का सामना करते हैं तो बिल्कुल भी सिद्धांत नहीं खोजते; वे बस इसी बात से संतुष्ट रहते हैं कि उनके हाथ में जो काम है वह चलता रहे, वे परमेश्वर के कहे सिद्धांतों को अपने अभ्यास की कसौटी के रूप में नहीं अपनाते, दूसरे लोगों की निगरानी, देखरेख और अगुआई को सिर्फ सतही तौर पर स्वीकारते हैं और परमेश्वर के हाथों जाँच-पड़ताल स्वीकार नहीं करते। यानी जब तक वे इस बात को स्पष्ट रूप से सुनिश्चित नहीं कर लेते कि परमेश्वर के वादे और आशीष वास्तव में किसके लिए सच हो रहे हैं, लोगों के किस समूह के लिए ये साकार हो रहे हैं, और जब तक वे यह पुष्टि नहीं कर लेते कि परमेश्वर मनुष्य को जो वादे और आशीष देता है उन्हें वे सचमुच खुद प्राप्त कर सकते हैं, तब तक उनके कार्य सिद्धांतों और तरीकों के साथ ही परमेश्वर के वचनों के प्रति उनका रवैया नहीं बदलेगा। एक मायने में वे खुद को निरंतर याद दिलाते रहते हैं और साथ ही मन-ही-मन परमेश्वर के साथ बहस करने की साजिश रचते रहते हैं। परमेश्वर के साथ उनकी बहस का केंद्र बिंदु क्या होता है? वे सोचते हैं : “तुम्हारे वादे और आशीष साकार नहीं हुए हैं। मैंने उन्हें साकार होते नहीं देखा है और मैं नहीं देख पाता कि तुम कैसे कार्य करते हो, इसलिए मैं तुम्हारी पहचान की पुष्टि नहीं कर सकता। अगर मैं तुम्हारी पहचान की पुष्टि नहीं कर सकता तो फिर मैं तुम्हारे इन वचनों को सत्य कैसे मान लूँ, परमेश्वर के वचन कैसे मान लूँ?” क्या वे मन-ही-मन इस मामले पर परमेश्वर से विवाद नहीं कर रहे हैं? वे कहते हैं, “तुम लोगों को जो आशीष देने का वादा करते हो और लोगों से तुम्हारे वादों की विभिन्न विषयवस्तु की अगर मैं पुष्टि नहीं कर सकता तो फिर मेरी तुममें शत-प्रतिशत आस्था नहीं हो सकती। इसमें कुछ न कुछ मिलावट हमेशा रहेगी और मैं पूरी तरह विश्वास नहीं कर सकता।” मसीह-विरोधियों का यही रवैया रहता है। क्या ऐसा रवैया भयावह है? (हाँ, है।) इस प्रकार का रवैया अविश्वासियों में प्रचलित इस कहावत की प्रकृति के समान होता है, “जब तक कोई लाभ न दिखे, काम शुरू मत करो।” वे कहते हैं, “तुम परमेश्वर हो तो तुम्हारे पास अपने वादे और आशीष साकार करने की सामर्थ्य होनी चाहिए। तुम जो कहते हो अगर वह साकार न हो सके और तुम में विश्वास रखने वाले लोग अपार आशीष का आनंद न ले सकें, यश, धन, सम्मान का आनंद न ले सकें, अनुग्रह का आनंद न ले सकें और तुम्हारा आश्रय न पा सकें तो फिर लोगों को तुम्हारा अनुसरण क्यों करना चाहिए?” मसीह-विरोधियों की नजर में और उनके विचारों और दृष्टिकोणों में परमेश्वर के अनुसरण के पीछे कुछ न कुछ फायदे होने चाहिए; वे फायदों के बिना नहीं हिलने वाले। अगर वे प्रसिद्धि, लाभ या रुतबे का आनंद नहीं ले सकते, अगर वे जो भी कार्य करते हैं या कर्तव्य निभाते हैं उसमें लोगों की प्रशंसा नहीं मिलती तो वे परमेश्वर में विश्वास करने और अपने कर्तव्य निभाने में कोई तुक नहीं समझते। उन्हें पहला लाभ यह होना चाहिए कि परमेश्वर के वचनों में जिन वादों और आशीषों की बात की गई है वे उन्हें जरूर मिलें, और उन्हें कलीसिया के अंदर प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे का आनंद भी मिलना चाहिए। मसीह-विरोधियों को लगता है कि परमेश्वर में विश्वास से व्यक्ति दूसरों से श्रेष्ठ हो जाएगा, उसे सराहना मिलेगी और वह विशेष हो जाएगा—परमेश्वर के विश्वासियों को कम-से-कम इन चीजों का आनंद लेना चाहिए। अगर वे ऐसा नहीं कर पाते तो फिर इस बात पर कुछ प्रश्नचिह्न लग जाता है कि क्या यह परमेश्वर जिस पर वे विश्वास कर रहे हैं सच्चा परमेश्वर है। क्या मसीह-विरोधियों का तर्क इन शब्दों को सत्य मान लेने वाला नहीं होता कि “परमेश्वर में विश्वास करने वालों को परमेश्वर के आशीष और अनुग्रह का आनंद जरूर मिलना चाहिए”? जरा इन शब्दों के विश्लेषण की कोशिश करो : क्या ये सत्य हैं? (नहीं हैं।) अब यह स्पष्ट है कि ये शब्द सत्य नहीं हैं, ये भ्रांति हैं, ये शैतान की दलील हैं और इनका सत्य से कोई संबंध नहीं है। क्या परमेश्वर ने कभी ऐसा कहा है, “अगर लोग मुझ में विश्वास करेंगे तो उन्हें अवश्य ही आशीष मिलेगा और वे कभी दुःख नहीं भोगेंगे”? परमेश्वर के वचनों की कौन-सी पँक्ति ऐसा कहती है? परमेश्वर ने कभी ऐसा कोई वचन नहीं कहा है, न कभी ऐसा किया है। जब आशीषों या दुःखों की बात आती है तो एक सत्य ऐसा है जिसे खोजना चाहिए। लोगों को किस बुद्धिमानी भरी कहावत का पालन करना चाहिए? अय्यूब ने कहा, “क्या हम जो परमेश्वर के हाथ से सुख लेते हैं, दुःख न लें?” (अय्यूब 2:10)। क्या ये शब्द सत्य हैं? ये एक मनुष्य के शब्द हैं; इन्हें सत्य की ऊँचाइयों पर नहीं रखा जा सकता, हालाँकि ये किसी न किसी रूप में सत्य के अनुरूप जरूर हैं। ये किस रूप में सत्य के अनुरूप हैं? लोग आशीष पाते हैं या दुःख भोगते हैं, यह सब परमेश्वर के हाथ में है, यह सब परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन है। यह सत्य है। क्या मसीह-विरोधी इसमें विश्वास करते हैं? नहीं, वे नहीं करते। वे यह नहीं मानते। वे इसमें विश्वास क्यों नहीं करते या इसे क्यों नहीं मानते हैं? (परमेश्वर में उनका विश्वास आशीष पाने की खातिर होता है—वे सिर्फ आशीष पाना चाहते हैं।) (क्योंकि वे बहुत स्वार्थी होते हैं और सिर्फ देह के हितों के पीछे भागते हैं।) अपने विश्वास में मसीह-विरोधी सिर्फ आशीष पाना चाहते हैं और दुःख नहीं भोगना चाहते। जब वे यह देखते हैं कि किसी व्यक्ति को आशीष मिला है, उसे लाभ मिला है, अनुग्रह मिला है और उसे अधिक भौतिक सुख और बड़े लाभ मिले हैं, तो उन्हें लगता है कि यह परमेश्वर ने किया है; और अगर उसे ऐसे भौतिक आशीष नहीं मिले हैं तो फिर यह परमेश्वर का कार्य नहीं है। इसका तात्पर्य है, “अगर तुम सचमुच परमेश्वर हो तो फिर तुम लोगों को सिर्फ आशीष दे सकते हो; तुम्हें लोगों का दुःख टालना चाहिए और उन्हें पीड़ा नहीं होने देनी चाहिए। केवल तभी लोगों के लिए तुममें विश्वास करने का मूल्य और अर्थ है। अगर तुममें विश्वास करने के बाद भी लोग दुःख से घिरे हैं, अभी भी पीड़ा में हैं, तो फिर तुममें विश्वास करने का क्या औचित्य है?” वे यह स्वीकार नहीं करते कि सभी चीजें और घटनाएँ परमेश्वर के हाथ में हैं, कि परमेश्वर समस्त चीजों का संप्रभु है। और वे ऐसा क्यों नहीं स्वीकारते? क्योंकि मसीह-विरोधी दुःख भोगने से घबराते हैं। वे सिर्फ लाभ उठाना चाहते हैं, फायदे में रहना चाहते हैं, आशीषों का आनंद लेना चाहते हैं; वे परमेश्वर की संप्रभुता या आयोजन नहीं स्वीकारना चाहते, बल्कि परमेश्वर से सिर्फ लाभ पाना चाहते हैं। मसीह-विरोधियों का यही स्वार्थी और घृणित दृष्टिकोण होता है। यह परमेश्वर के वादों और आशीषों जैसे वचनों को लेकर मसीह-विरोधियों द्वारा प्रदर्शित अभिव्यक्तियों की एक कड़ी होती है। कुल मिलाकर इन अभिव्यक्तियों में मुख्य रूप से मसीह-विरोधियों के अपने अनुसरणों के पीछे के परिप्रेक्ष्य, साथ ही परमेश्वर लोगों के लिए इस प्रकार का जो कार्य करता है उसके प्रति उनके दृष्टिकोण, मूल्यांकन और समझ भी शामिल होती है। भले ही वे बाहरी तौर पर परमेश्वर के वचनों पर खुलेआम लांछन न लगा पाएँ या विरोध न कर सकें लेकिन अंदर ही अंदर परमेश्वर के इस प्रकार के वचनों और परमेश्वर जिस ढंग से इस प्रकार का कार्य करता है उसके प्रति उनका व्यवहार संदेह और निंदा करने और चयनात्मकता का होता है। जब कुछ लोगों में परमेश्वर के वादों और आशीषों के वचन सच साबित होते हैं तो वे परमेश्वर की शक्तिमत्ता की स्तुति करते हैं और उसके नाम और उसके प्रेम का महिमागान करते हैं। लेकिन जब परमेश्वर जो कुछ करता है वह उनके वादों और आशीषों संबंधी धारणाओं और कल्पनाओं से मेल नहीं खाता तो मसीह-विरोधी अपने दिल में फौरन परमेश्वर के अस्तित्व को नकारने के साथ ही परमेश्वर जो कुछ भी करता है उस सबके सही होने को भी नकार देते हैं, यही नहीं इससे भी अधिक वे परमेश्वर की संप्रभुता और इस तथ्य को नकार देते हैं कि परमेश्वर मनुष्य की नियति का आयोजन और व्यवस्था करता है। हो सकता है मसीह-विरोधियों की ये सारी अभिव्यक्तियाँ ऊपरी तौर पर प्रकट न हों और वे अपने दृष्टिकोण स्पष्ट भाषा में न फैलाएँ लेकिन वे मन-ही-मन परमेश्वर के इन वचनों को जिस दृष्टिकोण से हिचकते हुए परखते और टोह लेते हैं वह नहीं बदलता है। दूसरे लोग जीवन प्रवेश और लोगों को बचाए जाने के उपायों पर चाहे जैसे संगति करें, मसीह-विरोधी यह टोह लेने की अपनी मानसिकता और रवैया कभी एक तरफ नहीं करेंगे कि क्या परमेश्वर के वादों और आशीषों जैसे वचन सच होंगे और ये कैसे साकार होंगे। परमेश्वर के वादे और आशीष साकार होने पर हो सकता है मसीह-विरोधी परमेश्वर की शक्तिमत्ता की तारीफ करने लगें और उल्लास में आकर तालियाँ बजाने और खुशियाँ मनाने लगें। लेकिन जल्दी ही, जब परमेश्वर के वादे और आशीष साकार नहीं होते या उनकी धारणाओं के अनुसार सच साबित नहीं होते, तो मसीह-विरोधी मन-ही-मन परमेश्वर को चुपचाप कोसते और गाली देते हैं और उसके नाम को बदनाम करते हैं। इसलिए दैनिक जीवन में जब सब कुछ शांतिमय और संकटमुक्त चल रहा होता है, तब कुछ लोगों की दशाएँ बेतहाशा डोलती रहती हैं। खुश होने पर वे सातवें स्वर्ग में हो सकते हैं लेकिन दुःखी होने पर वे नारकीय निराशा में डूब सकते हैं। उनका मिजाज बदलता रहता है और इसके बारे में पहले से कुछ कहा नहीं जा सकता, जिससे दूसरे लोग भौचक्के रहते हैं कि चल क्या रहा है। जब वे प्रसन्न होते हैं तो कहते हैं, “परमेश्वर सचमुच परमेश्वर है। परमेश्वर बहुत महान है, उसके अधिकार का वास्तव में अस्तित्व है, परमेश्वर लोगों से अत्यंत प्रेम करता है!” लेकिन जब वे खिन्न होते हैं तो उनके मुँह से “परमेश्वर” शब्द का निकलना तक बेहद मुश्किल हो जाता है। जो इंसान इतने जोर-शोर से परमेश्वर के नाम की प्रशंसा करता है वही इंसान उसे बदनाम करता है, उसे नकारता है, उसकी ईशनिंदा करता है, गाली देता है और मन-ही-मन कोसता है। वे सुबह जल्दी उठकर देर रात तक अपने कर्तव्य निभाते हैं, ऐसी कीमत चुकाते हैं जो दूसरे अधिकतर लोग नहीं चुका पाते, लेकिन यही वे लोग भी होते हैं जो अपने कर्तव्यों के जरिए अपनी खीझ उतारते हैं, परमेश्वर के घर के हितों से विश्वासघात करते हैं, जान-बूझकर कार्य में बाधा डालते हैं और सोची-समझी लापरवाही के साथ अपने कर्तव्य और कार्य सँभालते हैं। ऊपरी तौर पर ये बिल्कुल एक ही इंसान होते हैं लेकिन उनके व्यवहारों और स्वभावों के आधार पर आकलन करें तो ये विरोधाभासी अभिव्यक्तियाँ बताती हैं कि इसमें दो अलग-अलग इंसान शामिल हैं। इससे समस्या खड़ी होती है। मसीह-विरोधियों की इन अभिव्यक्तियों से जाहिर है कि वे बुनियादी तौर पर परमेश्वर के वचनों को सत्य के रूप में या परमेश्वर के वचनों के रूप में नहीं स्वीकारते हैं। यही नहीं, मसीह-विरोधियों के सार के आधार पर आकलन करें तो वे परमेश्वर के वचनों को न तो कभी सत्य मानेंगे और न ही उन्हें जीवन भर कायम रखने वाले सत्य सिद्धांत। मसीह-विरोधियों का यह टोह लेना कि परमेश्वर के वचन सच साबित होते हैं या नहीं, की यह पहली मद है—वे मनुष्य को वादे और आशीष देने वाले परमेश्वर के वचनों की टोह लेते हैं। मसीह-विरोधियों के लिए परमेश्वर के वादे और आशीष भौतिक लाभ, आध्यात्मिक लाभ, जीवन परिवेश और ऐसी अन्य चीजों से अटूट रूप से जुड़े हुए होते हैं जिनका वे इस जीवन में लाभ उठाते हैं, इसी कारण वे इस पहलू पर खास ध्यान देते हैं। वे परमेश्वर के वादों और आशीष देने वाले वचनों के पूर्ण होने को परमेश्वर की सामर्थ्य की सीमा और परमेश्वर की पहचान की प्रामाणिकता मापने के मानक के रूप में इस्तेमाल करते हैं। वे इसके बारे में गुपचुप ढंग से चिंतन और विचार करते हैं—टोह लेने का यही अर्थ होता है। परमेश्वर ने जीवन प्रवेश के बारे में जो विभिन्न सत्य बताए हैं, उनमें मसीह-विरोधियों की कोई रुचि नहीं होती। हालाँकि जैसे ही परमेश्वर के वादों और आशीष देने वाले वचनों का उल्लेख होता है, उनकी आँखें ललचाकर चमक उठती हैं, उनकी इच्छाएँ सिर उठाने लगती हैं। ऊपरी तौर पर वे कहते हैं, “हमें परमेश्वर के लिए खुद को बिना शर्त खपाना चाहिए, हमें परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अपने कर्तव्य निभाने चाहिए,” लेकिन उनकी आँखें वास्तव में कहाँ गड़ी होती हैं? वे परमेश्वर के वादों और आशीषों जैसे वचनों पर गड़ी होती हैं। एक बार ये उनकी पकड़ में आ जाएँ, तो वे इन्हें हाथ से नहीं जाने देते। मनुष्य को वादे और आशीष देने वाले परमेश्वर के वचनों के साथ मसीह-विरोधी इसी तरह पेश आते हैं।
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