मद दस : वे सत्य का तिरस्कार करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग पाँच) खंड चार
मसीह-विरोधी खुद को शानदार, महान और श्रेष्ठ मानते हैं। अगर उन्हें परमेश्वर के वचन पढ़ने हों तो वे दिव्य कथन चुनते हैं, तीसरे स्वर्ग के परमेश्वर के बोले हुए वचन चुनते हैं या वे परमेश्वर के कुछ ऐसे गहन वचन पढ़ते हैं जिन्हें समझना और पूरी तरह ग्रहण करना आम और साधारण लोगों के लिए कठिन होता है। परमेश्वर के वचनों में वे सत्य या अभ्यास का मार्ग नहीं चाहते, बल्कि वे इनसे अपना कौतूहल शांत करना चाहते हैं, अपने थोथे विचार और अपनी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ पूरी करना चाहते हैं। इसलिए अगर तुम अपने आसपास कुछ लोगों को परमेश्वर के वचनों के अपेक्षाकृत साधारण और समझने में आसान अंशों की अनदेखी करते देखते हो, परमेश्वर के उन वचनों की तौहीन करते देखते हो जो मानवता के परिप्रेक्ष्य से कहे गए हैं, या यह देखते हो कि वे इन वचनों को संगीतबद्ध होने पर गाते तक नहीं हैं, बल्कि चुनिंदा ढंग से परमेश्वर के वचनों पर गौर करते हैं, इन्हें सुनते या पढ़ते हैं तो फिर ऐसे लोगों के साथ समस्या है। कुछ लोग पूछ सकते हैं, “यह किस प्रकार की समस्या है? क्या यह समस्या उनकी सोच में है या यह मानसिक समस्या है?” दोनों में से कोई भी नहीं; समस्या ऐसे लोगों के स्वभाव में होती है। क्या तुम लोगों ने यह गौर किया है कि कुछ लोग परमेश्वर के वचनों के भजन गाते समय दैनिक जीवन से जुड़े सत्यों से संबंधित भजन नहीं गाते, कि वे ऐसे भजन गाने के इच्छुक नहीं होते जो खुद को जानने से जुड़े हों, जो लोगों के भ्रष्ट स्वभावों, धर्मसंबंधी धारणाओं और परमेश्वर में विश्वास के गलत विचारों को उजागर करते हों, साथ ही वे ऐसे भजन गाने के इच्छुक भी नहीं होते जिनमें परमेश्वर लोगों से ईमानदार होने की अपेक्षा करता है? खासकर जिन भजनों में परमेश्वर के देहधारण से जुड़े वचन और विषयवस्तु होते हैं, जो परमेश्वर की विनम्रता और अदृश्यता की गवाही देते हैं, जो परमेश्वर के देहधारण की प्रशंसा करते हैं और गवाही देते हैं, वे इनका एक भी शब्द नहीं गाएँगे और जैसे ही कोई और इन्हें गाने लगता है, उन्हें घृणा महसूस होने लगती है। लेकिन जब वे स्वर्ग के परमेश्वर की, परमेश्वर के आत्मा की गवाही देने और स्तुति करने वाले भजन गाते हैं, ऐसे भजन गाते हैं जो परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव, उत्कृष्टता, कर्मों, प्रशासनिक आदेशों और कोप की गवाही देते हैं तो वे इन्हें अत्यधिक उत्साह के साथ गाते हैं और ऐसे हाव-भाव भी प्रकट करते हैं जिनका वर्णन नहीं किया जा सकता है। ऐसे भजन गाते समय वे विचित्र हो जाते हैं; उनका चेहरा-मोहरा ऐंठ जाता है और उनके बुरे तेवर सामने आ जाते हैं। परमेश्वर के धार्मिक और प्रतापी स्वभाव के बारे में गाते समय वे जोर-जोर से मेज पीटकर और पैर पटककर क्रोध में आ जाते हैं; जब परमेश्वर का कोप प्रकट होने और मानव जाति पर भयंकर आपदाएँ आने का उल्लेख होता है तो वे दाँत पीसकर गाते हैं और उनके चेहरे तमतमाकर फूल जाते हैं। क्या ऐसे लोगों की आत्मा के साथ कोई समस्या तो नहीं है? उदाहरण के लिए, परमेश्वर कहता है, “जब मैं अपना भीषण कोप प्रकट करूँगा तो हर देश हिल जाएगा”; इस कथन को लयबद्ध करने के बाद यह उत्तम पुरुष से बदलकर प्रथम पुरुष बन जाता है, “जब परमेश्वर अपना भीषण कोप प्रकट करेगा तो हर देश हिल जाएगा”। सामान्य मानसिकता यह होती है कि ये परमेश्वर के वचन हैं, कि यह परमेश्वर के वचनों के गायन के जरिए उसके स्वभाव को समझना है और यह परमेश्वर के स्वभाव को और परमेश्वर के बोलने के पीछे की मानसिकता और संदर्भ को एक तीसरे-पक्ष, मानवीय परिप्रेक्ष्य से समझना है। सामान्य मानवता की समझ और प्रतिक्रिया यही होती है। लेकिन मसीह-विरोधी इसे कैसे गाते हैं? वे इसे उत्तम पुरुष में नहीं बदलते मगर उनकी मानसिकता सामान्य लोगों से अलग होती है। जब सामान्य लोग भजन में “परमेश्वर” गाते हैं तो उन्हें लगता है, “ये परमेश्वर के कर्म हैं, परमेश्वर के वचन हैं; परमेश्वर यही कहता है।” लेकिन जब मसीह-विरोधी गाते हैं तो उसका क्या? उनकी यह मानसिकता होती है, “यह मैंने किया है, मैंने कहा है, यह कोप मैं प्रकट करूँगा, यह स्वभाव मैं प्रकट करूँगा।” क्या यह अलग नहीं है? भले ही वे सबके सामने खुलेआम यह गाने की हिम्मत नहीं करते कि “जब मैं अपना भीषण कोप प्रकट करूँगा तो हर देश हिल जाएगा” लेकिन वे मन-ही-मन ऐसा ही गाते हैं। उन्हें लगता है कि वे खुद ही यह कोप प्रकट कर रहे हैं और उन्हीं के कारण हर देश हिल रहा है, इसलिए वे इन शब्दों को सच्चे जज्बात के साथ गाते हैं। क्या यह उनकी आंतरिक समस्या को नहीं दिखाता है? शुरुआत से अंत तक मसीह-विरोधियों का परमेश्वर को न मानने का कारण यह होता है कि वे खुद परमेश्वर बनना चाहते हैं। वे परमेश्वर को नकार कर खुद को स्थापित करना चाहते हैं, वे लोगों को यह विश्वास दिलाना चाहते हैं कि वे परमेश्वर हैं और उन्हें मानव जाति का परमेश्वर माना जाए। बिल्कुल यही बात है। इसलिए परमेश्वर के वचनों का वह अंश पढ़ते हुए जहाँ वह अपनी दिव्यता में बोलता है, सामान्य मानवता की समझ वाले लोग इसे प्रथम-पुरुष के परिप्रेक्ष्य से समझते-बूझते और इसका प्रार्थना-पाठ करते हैं और परमेश्वर के इरादों पर चिंतन-मनन करते हैं। लेकिन मसीह-विरोधी अलग होते हैं। जब वे इन वचनों को गाते या पढ़ते हैं तो वे अपने अंदर ऐसी उत्कंठा अनुभव करते हैं कि वे खुद भी ऐसा स्वभाव व्यक्त करें, ऐसे स्वभाव और सार के भीतर जिएँ। वे परमेश्वर के कथनों, उसकी वाणी के लहजे, उसकी सभी अभिव्यक्तियों और उसके प्रकट किए गए स्वभावों के भीतर परमेश्वर के बोलने के लहजे, तरीके, शब्द चयन और उसके स्वभाव की नकल करने का प्रयास कर उसका स्थान लेने के लक्ष्य पर निगाह गड़ाए रहते हैं। वे कट्टर मसीह-विरोधी होते हैं। चूँकि वे परमेश्वर की तरह नहीं बोल सकते, परमेश्वर का स्वभाव व्यक्त नहीं कर सकते और नकल करने में नाकाम रहते हैं, इसलिए जब परमेश्वर अपनी दिव्यता में बोलता है तो आखिरकार मसीह-विरोधियों को परमेश्वर की नकल करने और परमेश्वर बनने का प्रयास करने का मौका मिल जाता है। परमेश्वर की दिव्यता के परिप्रेक्ष्य से उसके कथनों से संकेत और दिशा पाकर मसीह-विरोधी यह जान लेते हैं कि परमेश्वर कैसे बोलता है, मनुष्य को संबोधित करने के लिए वह कैसा लहजा, कैसा तरीका, परिप्रेक्ष्य और स्वर-शैली इस्तेमाल करता है। परमेश्वर की दिव्यता में कहे गए उसके वचनों को सँजोने और इनकी आराधना करने के पीछे मसीह-विरोधियों का एक उद्देश्य यह भी होता है। इसलिए दैनिक जीवन में अक्सर यह देखने में आता है कि कुछ लोग परमेश्वर के घर के कार्य के प्रति या भाई-बहनों के जीवन के प्रति जिम्मेदार बनने के बहाने दूसरे लोगों को फटकारने के लिए परमेश्वर के लहजे की नकल करते हैं। वे तो लोगों को फटकारने, उनकी निंदा, काट-छाँट करने और उन्हें उजागर करने के लिए परमेश्वर के वचनों को शब्दशः उद्धृत भी करते हैं। जब कई तथ्यों के मूलाधार और संदर्भ से जाँच की जाती है तो उनके कार्यों के पीछे का उद्देश्य वास्तव में वफादारी, न्याय की भावना या जिम्मेदारी से नहीं उपजता—इसके बजाय वे परमेश्वर के कार्य को परमेश्वर के दर्जे और परमेश्वर के परिप्रेक्ष्य से करने का प्रयास करते हैं और परमेश्वर का स्थान लेने का लक्ष्य रखते हैं। कुछ लोग कहते हैं, “उन्होंने तो कभी नहीं कहा कि वे परमेश्वर की जगह लेना चाहते हैं।” उन्हें ऐसा कहने की जरूरत नहीं है; उनके कार्यों के सार, मूलाधार और प्रेरणा को देखने मात्र से कोई भी यह बात बता सकता है; यह तय किया जा सकता है कि यह किसी मसीह-विरोधी का विघ्न डालना है और उसका तरीका है। चाहे जो अभिव्यक्ति हो, परमेश्वर बनने की कामना हो, इस मंशा को किसी भी तरह पाले रखना—क्या सामान्य मानवता वाली समझ के व्यक्ति को यही करना चाहिए? (नहीं।) क्या अकेले इसी आधार पर ऐसे व्यक्ति को मसीह-विरोधी ठहराया जा सकता है? (हाँ।) अकेला यही बिंदु काफी है। तुम्हारा आध्यात्मिक कद चाहे कितना ही बड़ा हो, अगर तुम हमेशा परमेश्वर बनना चाहते हो और बेतहाशा परमेश्वर की नकल कर रहे हो, दूसरों से माँग करते हो कि वे तुम्हें परमेश्वर मानें और इसी के अनुसार व्यवहार करें, तो ऐसे कार्य-कलाप, व्यवहार और स्वभाव एक मसीह-विरोधी का सार होते हैं। अकेला यही बिंदु व्यक्ति को मसीह-विरोधी ठहराने के लिए काफी है। यह कोई एक मसीह-विरोधी का स्वभाव नहीं है, न यह एक मसीह-विरोधी के व्यवहार का अंश है, बल्कि एक मसीह-विरोधी का सार होने की अभिव्यक्ति है।
मुझे बताओ, किस चीज की प्रकृति ज्यादा गंभीर है : हमेशा परमेश्वर बनने की चाह या हमेशा रुतबा पाने की महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ? (परमेश्वर बनने की चाह।) लोगों में महत्वाकांक्षाएँ और अहंकारी स्वभाव होते हैं और उन्हें रुतबा जमाना, कभी-कभी इस रुतबे के फायदे उठाना और इसे सँजोना पसंद होता है—यह एक भ्रष्ट स्वभाव है और यह बदल सकता है। हालाँकि परमेश्वर बनने की चाह, परमेश्वर के बोलने के लहजे की नकल करना, परमेश्वर के बोलने के तरीके की नकल करना और यहाँ तक कि परमेश्वर के वचनों को पूरी तरह उद्धृत करना, उन्हें शब्दशः सुनाकर दूसरों को इस भुलावे में डालना कि कोई व्यक्ति बिल्कुल परमेश्वर की तरह बोल और कार्य कर सकता है, उनके बोलने का लहजा और तरीका परमेश्वर के इतना समान होता है, अंततः लोगों को गलत ढंग से यह विश्वास दिलाना कि वे परमेश्वर ही हैं या बिल्कुल परमेश्वर जैसे हैं, और कुछ तो उनके साथ परमेश्वर जैसा व्यवहार करने लगते हैं—यह समस्याजनक है; यह लाइलाज मुद्दा है, एक लाइलाज बीमारी है। क्या परमेश्वर बनने की चाह कोई तुच्छ मामला है? परमेश्वर की पहचान उसके सार से तय होती है। जिस देह में परमेश्वर ने देहधारण किया है उसका सार और स्वभाव उसके व्यक्तिगत प्रयासों से हासिल नहीं होता, न ही यह समाज, राष्ट्र, मानव जाति या किसी व्यक्ति के जरिए विकसित होता है, यहाँ तक कि यह स्वयं परमेश्वर के जरिए भी विकसित नहीं होता। बल्कि परमेश्वर में परमेश्वर का सार जन्मजात होता है। उसे मनुष्यों की मदद या सहयोग की जरूरत नहीं है, न ही उसे परिवेश या लौकिक बदलावों की दरकार होती है। परमेश्वर के पास परमेश्वर के रूप में अपनी पहचान है, इसलिए उसका सार बहुत समय पहले पूर्वनियत हो चुका है; यह कुछ जन्मजात होता है। सत्य को व्यक्त करने की उसकी योग्यता ऐसी चीज नहीं है जो उसने इंसानों से सीखी हो, न ही यह ऐसी चीज है जो इंसानों ने विकसित की है। मसीह-विरोधी इस बात की असलियत जानने में पूरी तरह विफल रहते हैं। वे मूर्खतापूर्ण ढंग से यह मान बैठते हैं कि अगर वे परमेश्वर के बोलने के लहजे और तरीके की इतनी अच्छी तरह नकल कर लें कि लोग उन्हें और अधिक परमेश्वर-समान मानने लगें तो फिर उनमें परमेश्वर बनने की पात्रता है। यही नहीं, उन्हें लगता है कि वे लोगों को कुछ खोखले, अव्यावहारिक और अबूझ तथाकथित “परमेश्वर के वचन” सुनाकर भ्रमित और दिशाहीन कर सकते हैं और इससे शायद लोग उन्हें परमेश्वर मानने लगें और उन्हें परमेश्वर बनने का मौका मिल जाए। क्या यह खतरनाक मामला नहीं है?
मसीह-विरोधियों के मन में परमेश्वर बनने की इच्छा और महत्वाकांक्षा हमेशा मचलती रहती है। एक ओर वे परमेश्वर के वचनों को अस्वीकार कर उनकी निंदा करते हैं, तो दूसरी ओर वे उसके बोलने के लहजे की नकल भी करते हैं। यह कैसा घिनौना, दुष्ट, बेशर्म और नीच कृत्य है! वे परमेश्वर बनने की इच्छा से आसक्त और पगलाए रहते हैं। क्या यह घृणास्पद नहीं है? (हाँ, है।) क्या तुम लोगों में से कोई परमेश्वर बनने की इच्छा पालता है? जो कोई परमेश्वर बनना चाहता है, उसकी निंदा होगी! जो कोई भी परमेश्वर बनना चाहता है, नष्ट हो जाएगा! यह तथ्य है, कोई अतिशयोक्ति या तुम्हें डराने की कोशिश नहीं है। तुम्हें यकीन नहीं होता? तो आजमा कर देख लो। इस दिशा में सोचो, फिर इस पर अमल करो और फिर देखो कि क्या तुम इसे आंतरिक रूप से झेल सकते हो, देखो कि अंदर से कैसा महसूस होता है। अगर ऐसे कार्य-कलापों से तुम्हें अंदर से खुशी, गौरव और संतुष्टि मिलती है तो फिर तुम बेकार हो, और तुम खतरे में हो। लेकिन इस तरह के कार्य-कलाप से अगर तुम्हें आत्म-ग्लानि होती है, जमीर में अपराध-बोध होता है, दूसरे लोगों या परमेश्वर का सामना करने में लज्जित होते हो, तो फिर तुममें थोड़ा-सा जमीर बचा है, सामान्य मानवता की थोड़ी-सी तार्किकता बची है। परमेश्वर बनने की आकांक्षा बहुत-से लोगों में होती है। बिना यह समझे कि परमेश्वर का देहधारण क्या है, परमेश्वर की वाणी का लहजा और तरीका जाने बिना, इस जानकारी को समझे बिना हो सकता है कि उनकी इस विचार में रुचि हो और उनकी महत्वाकांक्षाएँ और योजनाएँ हों, लेकिन आगे बढ़ने का रास्ता पता न होने के कारण उनमें अंधाधुंध ढंग से कार्य करने का साहस नहीं होता। बहुत हुआ तो वे आध्यात्मिक होने, बचाए जाने, पवित्र होने या उद्धार के योग्य होने का दिखावा करते हैं। लेकिन जैसे ही वे परमेश्वर के बारे में कुछ जानकारी जुटाते हैं, उनकी महत्वाकांक्षाओं के अंकुर फूटने लगते हैं और वे कार्य करना शुरू कर देते हैं। वे क्या करते हैं? उनकी एक स्पष्ट अभिव्यक्ति यह होती है कि वे परमेश्वर के गहन और अथाह वचनों को अधिकाधिक पढ़ते हैं। इन वचनों में वे परमेश्वर की वाणी के रवैये, तरीके, लहजे और शब्द चयन से परिचय करते हैं और फिर इनका गहराई से अध्ययन करते हुए खुद इनकी नकल करने की कोशिश करते हैं। वे जितना अधिक परिचित होते जाते हैं, उनके लिए उतना ही अच्छा रहता है, इस हद तक कि वे आँख मूँदकर भी परमेश्वर के बोलने का लहजा और तरीका भाँप सकें। वे इन्हें चाव से याद कर लेते हैं और लगे हाथ लोगों के बीच इनका अभ्यास और पूर्वाभ्यास करते हैं, और फिर अपने बोलने में इस शैली, तरीके, लहजे और शब्द चयन की नकल कर वे गहराई से यह अनुभव करते हैं कि क्या इस तरह से कार्य करना और बोलना उन्हें परमेश्वर होने की अनुभूति कराता है। जब वे अभ्यास करना सीखकर और अधिक परिचित और कुशल हो जाते हैं तो वे अनजाने में ही खुद को परमेश्वर के पद पर बैठा देते हैं। फिर एक दिन अचानक कोई कहता है, “उनके बोलने की भावना और लहजा परमेश्वर के समान लगता है। उनसे बात करना परमेश्वर के साथ होने जैसा लगता है; उनके शब्दों में परमेश्वर की वाणी की रंगत होती है।” अनजाने में ही ऐसी टिप्पणियाँ सुनकर उनके दिल असीम संतुष्टि से भर जाते हैं, उन्हें लगता है कि आखिरकार उनकी इच्छा पूरी हो गई है और अंततः वे परमेश्वर बन गए हैं। क्या अब उनका काम तमाम नहीं हो गया है? जब चलने के लिए दूसरे रास्ते हैं तो फिर विनाश का रास्ता क्यों चुना जाए? क्या यह मृत्यु की तलाश नहीं है? ऐसे विचार पालना भी खतरनाक है—इन विचारों को कार्यरूप देना तो और भी खतरनाक है। अगर किसी के कार्य नियंत्रण से बाहर हो जाते हैं और वे अंत तक इसी दिशा में चलते रहते हैं, अगर इसमें सफल होने और इसे हकीकत में बदलने के लिए अड़े रहते हैं तो वे पूर्ण विनाश का निशाना बन जाते हैं। कुछ मसीह-विरोधी लोग वास्तव में इसी दिशा में कार्य और कोशिश करते रहते हैं। क्या तुम लोगों ने ऐसे लोग देखे हैं या तुम उनके संपर्क में आए हो? (जब मैं मुख्य भूमि चीन में था तो मैं एक ऐसी स्त्री से मिला जो परमेश्वर के बोलने के लहजे की नकल करती थी और अक्सर परमेश्वर होने का ख्याल पाले रहती थी। उस समय दो-तीन लोग उसे परमेश्वर मानते थे और एक व्यक्ति तो उसे देखकर उसके सामने झुककर दंडवत भी करता था।) कोई व्यक्ति चाहे जिस हद तक परमेश्वर बनने की कोशिश करे, यहाँ से आगे रास्ता बंद होता है। क्या तुम लोग इसकी असलियत समझ चुके हो? मानव जाति के लिए परमेश्वर के समस्त वचनों की अभिव्यक्तियों और पोषण का उद्देश्य लोगों को परमेश्वर के इरादे समझने में और इस तरह से उद्धार पाने में मदद करना होता है। अगर लोग भूलवश यह मान लेते हैं कि ये संदेश परमेश्वर ने व्यक्त किए हैं, इसलिए इनसे परमेश्वर बनने के ब्योरे जुटाने चाहिए और इस प्रकार परमेश्वर होने, परमेश्वर की नकल करने और परमेश्वर बनने का अनुसरण करना चाहिए, तो समझो उनके लिए सब कुछ खत्म हो चुका है। यह विनाश का मार्ग है; तुम्हें यह नकल कभी नहीं करनी चाहिए। कुछ लोग कहते हैं, “परमेश्वर की नकल न करना थोड़ा-सा कठिन है। हर बार जब भी मैं परमेश्वर को बोलते सुनता हूँ तो मुझे लगता है कि परमेश्वर की पहचान के साथ बोलना कितना गरिमापूर्ण और प्रभावशाली लगता है। यह सुनने में इतना सुखद और मोहक क्यों लगता है? मैं ऐसा क्यों सोचता हूँ कि जब परमेश्वर बोलता है तो परमेश्वर होना इतना अच्छा लगता होगा? जब परमेश्वर की पहचान के साथ व्यक्ति बोलता है तो सुनने में बहुत अलग लगता है।” इस प्रकार अनजाने में वे परमेश्वर के लहजे और शब्द चयन के कुछ हिस्से की नकल करना शुरू कर देते हैं। भले ही अपनी व्यक्तिपरक इच्छाओं में वे शायद इतना स्पष्ट रूप से परमेश्वर न होना चाहें या परमेश्वर न बनना चाहें, लेकिन उनकी नकल की जड़ें कहाँ हैं? क्या इसका यह कारण है कि वे सत्य और परमेश्वर के वचनों को सँजोते हैं? (नहीं।) तो फिर बात क्या है? (यह परमेश्वर बनना चाहने की मंशा से उपजता है।) अगर मेरे पास यह पहचान या रुतबा न होता और मैंने ये वचन कहे होते तो क्या कोई मेरी नकल करता? तब कोई मेरी परवाह न करता, न कोई मेरे बारे में उच्च विचार रखता; क्या यही तथ्य नहीं है? जब मेरे पास यह पहचान और रुतबा नहीं था तो मैं भी लोगों के साथ बातचीत और संगति करता था। तब कौन मुझे गंभीरता से लेता था? जैसे ही उन्होंने देखा कि मैं युवा हूँ, मेरे पास उच्च शिक्षा या योग्यताएँ नहीं हैं, मेरा कोई सामाजिक रुतबा नहीं है तो वास्तव में न तो मेरी अपनी कलीसिया या किसी और कलीसिया के किसी व्यक्ति ने मुझे गंभीरता से लिया, न ही मेरे साथ अपना कर्तव्य निभाने वाले या बातचीत करने वाले लोगों में से किसी ने मुझे गंभीरता से लिया। भले ही मैंने सही और ईमानदार बातें की हों, किसी ने भी ध्यान नहीं दिया। क्यों? पहचान और रुतबे के बिना तुम्हारी धाक का महत्व नहीं होता; तुम जो कुछ कहते हो वह मायने नहीं रखता, फिर चाहे वह सही या सत्य ही क्यों न हो। ऐसा भी हो सकता है कि तुम जो कुछ कहते हो, उसे पूरी तरह गलत ठहराकर लोग नकार दें। तब क्या कोई तुम्हारी नकल करेगा? तुम एक बहुत ही औसत और साधारण व्यक्ति ठहरे, जिसकी न पहचान है न ही रुतबा—तुम्हारी नकल करने की फिक्र कौन करेगा? लोगों की नजरों में ऐसे व्यक्ति की न कोई उपस्थिति होती है, न ही वह सराहने लायक होता है; अगर वे तुम्हारे साथ दादागीरी नहीं करते तो समझो तुम किस्मतवाले हो। तुम्हारी नकल करने का फायदा ही क्या होगा? क्या वे तुम्हारी नकल सिर्फ इसलिए करेंगे कि दूसरे लोग उन्हें नीचा दिखा सकें, उन पर धौंस जमा सकें और उनसे भेदभाव कर सकें? लोग किसकी नकल करते हैं? वे उन्हीं की नकल करते हैं जो उनकी नजरों में उपस्थिति और शान रखते हैं, जिनका रुतबा और पहचान होती है। लोग ऐसे ही व्यक्तियों की नकल करते हैं। कोई व्यक्ति जैसे ही कुछ पहचान और रुतबा हासिल करता है तो वह बिल्कुल पहले जैसी बातें करने पर भी दूसरों की नजरों में अलग कैसे दिखने लगता है? अचानक कैसे उनकी उपस्थिति नजर आने लगती है और वे अनुकरणीय लगने लगते हैं? लोग वास्तव में किस चीज की नकल कर रहे होते हैं? वे जो चीजें स्वीकार करते हैं, जिनकी नकल करते हैं और जिन्हें प्रेम करते हैं, वे सत्य या सकारात्मक चीजें नहीं होतीं, बल्कि वे बाहरी शानो-शौकत और सतही रुतबा होते हैं? क्या ऐसा नहीं है? अगर मेरी कोई पहचान या कोई रुतबा न होता तो मैं सत्य के अनुरूप चाहे कितना ही बोलता या कितने ही आध्यात्मिक वचन सुनाता, क्या ये वचन तुम लोगों के बीच फैल पाते? नहीं; इनकी कोई परवाह न करता। लेकिन एक बार मेरी पहचान बन जाती है और मेरा रुतबा बन जाता है तो मेरे कुछ वचन जो मैं अक्सर कहता हूँ, मेरी आम बोलचाल की भाषा, मेरा शब्द चयन, मेरा बोलने का ढंग और शैली—बहुत-से लोग इनकी नकल करने लगते हैं। यह सुनकर मुझे घिन आती है। कितनी घिन आती है? यह सुनकर मुझे मिचली आने जैसा लगता है। जो भी मेरी नकल करता है उससे मुझे घृणा होती है, जो भी मेरी नकल करता है उससे मुझे घिन आती है, इस हद तक कि मैं उनकी निंदा करता हूँ! इन चीजों की नकल करने के पीछे लोगों का इरादा और उद्देश्य क्या होता है? यही कि परमेश्वर की वाणी के लहजे की नकल करना, परमेश्वर जैसा होने के अनुभव का मजा लेना; क्या यह तथ्य नहीं है? इसका संबंध रुतबे की चाह से है, रुतबेदार पद पर रहकर बात करने से है, इसका संबंध पहचान और रुतबे वाले किसी व्यक्ति के लहजे और तौर-तरीके से बोलने और कार्य करने से है, ऐसा दिखने से है कि उनके पास भी रुतबा, पहचान और मूल्य है—क्या यह सब बस इतना ही नहीं है? अगर तुम किसी साधारण व्यक्ति की नकल करते हो तो यह कोई बड़ी बात नहीं है; बहुत हुआ तो यह सिर्फ अहंकारी स्वभाव होता है। लेकिन तुम अगर परमेश्वर के बोलने के लहजे और तरीके की नकल करते हो, तो परेशानी यहीं से शुरू होती है। मैं तुम्हें बता देता हूँ, तुम एक बारूदी सुरंग पर पाँव रख रहे होगे।
परमेश्वर के वचनों में एक वाक्यांश यह है : परमेश्वर ऐसा परमेश्वर है जो बुराई से बेइंतहा नफरत करता है। “बुराई से बेइंतहा नफरत करने” का क्या अर्थ है? परमेश्वर की पहचान और रुतबा विलक्षण है। परमेश्वर की पवित्रता, धार्मिकता, अधिकार और प्रेम ऐसे गुण हैं जो किसी भी सृजित या असृजित प्राणी में नहीं होते; इनकी नकल करने की कोशिश करना ईशनिंदा है। चूँकि तुममें ये गुण नहीं हैं तो फिर तुम इनकी नकल करने की कोशिश क्यों करोगे? चूँकि तुममें ये गुण नहीं हैं तो फिर तुम परमेश्वर होने की कोशिश क्यों करोगे? नकल करके क्या तुम परमेश्वर होने, परमेश्वर बनने का इरादा नहीं पाल रहे हो? या फिर क्या इसका कारण यह है कि तुम्हें परमेश्वर से प्रेम है, क्योंकि तुम्हें उसकी मनोहरता और सार से ईर्ष्या है, इसलिए तुम उसकी नकल करते हो? बिल्कुल भी नहीं; इसके लिए तुम्हारे पास चरित्र और आध्यात्मिक कद नहीं है। तुम सिर्फ परमेश्वर होने की लिप्सा पूरी करना चाहते हो, लोगों से सराहना और सम्मान पाना चाहते हो और यह चाहते हो कि लोग तुमसे परमेश्वर जैसा व्यवहार करें। क्या यह शर्मनाक कृत्य नहीं है? यह अत्यंत शर्मनाक है! नकल करना अपने आप में घृणित कृत्य है, और परमेश्वर बनने की आकांक्षा करना सिर्फ घृणित नहीं है; यह निंदनीय है। इसलिए आज मैं तुम लोगों से पूरी गंभीरता से कह देता हूँ कि मैंने चाहे जो कुछ भी कहा हो, मैंने चाहे जो कुछ भी किया हो, चाहे मैं कोई भी ऐसी बात करता या कहता हूँ जिससे तुम्हारे दिलों में श्रद्धा, ईर्ष्या या जलन पैदा होती हो, एक बात तुम्हें याद रखनी है : मेरी नकल कभी मत करना। तुम्हें नकल करने का इरादा छोड़ देना चाहिए, तुम्हें नकल करने की मानसिकता के खिलाफ विद्रोह करना चाहिए और परमेश्वर के स्वभाव को नाराज करने से बचना चाहिए। यह एक गंभीर मसला है! एक भ्रष्ट मनुष्य अगर परमेश्वर की वाणी के लहजे, बोलने के तरीके और स्वभाव को बिना किसी प्रतिबद्धता के मौखिक समर्थन जताने के लिए तुच्छ चीज के रूप में लेता है, मनमाने ढंग से हेरफेर और खिलवाड़ करता है, तो यह परमेश्वर के लिए घृणास्पद होता है। अगर तुम ऐसा करते हो तो तुम परमेश्वर के स्वभाव को नाराज कर रहे हो—ऐसा कभी मत करो! भले ही मैं तुम्हें देहधारी परमेश्वर के बोलने के तरीके और लहजे की नकल करते न सुन सकूँ, लेकिन तुम लोगों का ऐसा स्वभाव और विचार हैं सिर्फ इतना जानकर ही मुझे बेहद घृणास्पद लगता है। अगर तुम परमेश्वर के आत्मा के लहजे की नकल कर पूरी मानव जाति या जनसाधारण को संबोधित करना चाहते हो, तो क्या तुम लोग अपने लिए मौत नहीं माँग रहे हो? इस बारे में सबको सतर्क रहना चाहिए; ऐसा कभी मत करो! कुछ लोग पूछा करते थे, “परमेश्वर के स्वभाव को नाराज करने का क्या अर्थ होता है?” आज मैं तुम लोगों को एक बात बताता हूँ : परमेश्वर के बोलने के लहजे और ढंग की नकल करना, साथ ही परमेश्वर की पहचान और स्थिति से जुड़ी कई चीजों की नकल करना, फिर चाहे वे बाहरी हों या आंतरिक, यह सब परमेश्वर के स्वभाव के अपमान के दायरे में आता है। तुम लोगों को यह बात अवश्य याद रखनी चाहिए और कभी भी ऐसा अपराध नहीं करना चाहिए! अगर तुम यह अपराध कर ही डालते हो लेकिन तुरंत खुद को सुधार सकते हो, खुद से विद्रोह कर खुद को बदल सकते हो तो अभी उम्मीद बची है। लेकिन अगर तुम लगातार इस राह पर चलते रहे तो तुम्हें मसीह-विरोधी के रूप में चिह्नित कर दिया जाएगा और चलो मैं तुम्हें सच बता दूँ : परमेश्वर की नजर में तब सुधार की कोई गुंजाइश नहीं होगी—तुम पूरी तरह खत्म हो जाओगे। याद रखो, परमेश्वर ऐसा परमेश्वर है जो बुराई से बेइंतहा नफरत करता है। तुम्हें परमेश्वर की पहचान और सार से जुड़े हर पहलू के साथ अत्यंत सावधानी से व्यवहार करना चाहिए और इसे हल्के में नहीं लेना चाहिए। अगर परमेश्वर के बोलने के ढंग और लहजे की अभिव्यक्ति किसी भ्रष्ट मनुष्य के मुँह से होती है तो यह परमेश्वर पर घोर कलंक और उसके खिलाफ ईशनिंदा है, यह एक ऐसी चीज है जिसे परमेश्वर कतई बरदाश्त नहीं कर सकता। मनुष्यों को कभी भी यह अपराध नहीं करना चाहिए। क्या तुम समझ रहे हो? अगर तुम यह अपराध करते हो तो मर जाओगे! अगर तुम मेरी बात गौर से नहीं सुनते और मुझ पर यकीन नहीं करते तो इसे आजमाकर देख लो और जब तुम पर सचमुच विपत्ति आ जाए तब मुझे यह दोष मत देना कि मैंने तुम्हें बताया नहीं था।
15 अगस्त 2020
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