मद दस : वे सत्य का तिरस्कार करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग पाँच) खंड तीन
ख. अपनी धारणाओं के अनुरूप न होने पर परमेश्वर के वचनों को मसीह-विरोधी अस्वीकार कर देते हैं
दूसरी अभिव्यक्ति यह है कि अपनी धारणाओं के अनुरूप न होने पर परमेश्वर के वचनों को मसीह-विरोधी अस्वीकार कर देते हैं। परमेश्वर ने अपने कार्य में शुरुआत से लेकर अब तक बहुत सारे वचन कहे हैं। इन वचनों का दायरा व्यापक है, इनकी विषयवस्तु समृद्ध है, इनमें लोगों के इरादों और दृष्टिकोणों के साथ ही उनके परमेश्वर की सेवा करने संबंधी पहलू शामिल हैं। बेशक, इसमें लोगों के भ्रष्ट स्वभावों से संबंधित बातें अधिक हैं तो उससे भी बड़ा हिस्सा परमेश्वर के इरादों और मानव जाति से परमेश्वर की अपेक्षाओं से संबंधित है। इन वचनों में परमेश्वर ने नाना प्रकार के कहने के तरीके अपनाए हैं। कहने के इन विभिन्न तरीकों में शुरुआत में कहने का लहजा अपेक्षाकृत मनुष्यों के लहजे के करीब है, इसके बाद आता है मानव जाति का न्याय और उसे उजागर करना, साथ ही मानव जाति पर विजय प्राप्त करना और फिर धीरे-धीरे लोगों को सत्य के विभिन्न पहलू बताना। इन वचनों की विषयवस्तु बहुआयामी है लेकिन यह चाहे कितनी भी व्यापक हो, भ्रष्ट मानव जाति को इस सबकी जरूरत है। सर्वाधिक विशेष विषयवस्तु के एक छोटे से हिस्से को छोड़कर इनमें से ज्यादातर वचन मनुष्य की भाषा शैलियों के अनुसार बोले गए हैं, इनका लहजा, शब्द-योजना और भाषा के तर्क-सिद्धांत का प्रयोग ऐसा होता है जो सब कुछ मनुष्य स्वीकार सकते हैं। संक्षेप में कहें तो भाषा और कहने के इन रूपों की शैलियाँ और पद्धतियाँ बहुत ही सामान्य और सुबोध हैं। अगर व्यक्ति के विचार सामान्य हैं, मन और विवेक सामान्य हैं, तो वह परमेश्वर के इन वचनों को समझ सकता है। इसका आशय यह है : अगर व्यक्ति के विचार सामान्य हैं तो ये वचन पढ़ने के बाद वह अभ्यास का मार्ग पा सकता है, खुद को जान सकता है, परमेश्वर के इरादे समझ सकता है और अभ्यास के सिद्धांत खोज सकता है। अगर व्यक्ति के पास हृदय और सामान्य विचार हैं तो परमेश्वर के वचन जीवन में विभिन्न कठिनाइयों के दौरान लोगों को मदद और मार्गदर्शन दे सकते हैं और ये लोगों को अपने भ्रष्ट स्वभावों को समझने में भी सक्षम बना सकते हैं। परमेश्वर के वचनों की अधिकांश विषयवस्तु ऐसी ही होती है लेकिन एक हिस्सा ऐसा भी है जो दिव्यता के परिप्रेक्ष्य से, आत्मा के परिप्रेक्ष्य से कहा गया है। विषयवस्तु का यह हिस्सा बहुत ही विशेष है। मानव जाति की नजर में परमेश्वर के वचनों का यह हिस्सा बहुत ही गहन और समझने में कठिन है। यह एक रहस्य लगता है और एक भविष्यवाणी भी लगती है। वाणी के हर वाक्य, हर अंश और हर अध्याय में परमेश्वर के अर्थ का भेद पहचानना लोगों के लिए बहुत कठिन है, परमेश्वर के वचनों का संदर्भ और मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाओं को ढूँढ़ना कठिन है और साथ ही लोग जो सत्य सिद्धांत खोज रहे हैं उन्हें ढूँढ़ना कठिन है। तो फिर यह उसके वचनों का कौन-सा हिस्सा है? यह “संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचन” और इसके परिशिष्ट हैं। उसके वचनों का यह हिस्सा समझना लोगों के लिए बहुत कठिन होता है। परमेश्वर लोगों के लिए दुर्बोध यह हिस्सा क्यों बोलता है, इस बात को अलग रखकर चलो पहले इसी से जुड़े उस विषय पर चर्चा करते हैं जिस पर हमें संगति करनी है—“अपनी धारणाओं के अनुरूप न होने पर परमेश्वर के वचनों को मसीह-विरोधी अस्वीकार कर देते हैं”—यह उस भाग से जुड़ा है जिसका मैंने उल्लेख किया है। जहाँ तक परमेश्वर के उन ज्यादातर आम, सुबोध और जटिल-किंतु-सरल-ढंग-से-व्यक्त वचनों की बात है, साथ ही मनुष्य के लिए परमेश्वर की चेतावनियों और अनुस्मारकों, मनुष्य के लिए प्रोत्साहन और दिलासा भरे वचनों की बात है, मनुष्य को उजागर और उसका न्याय करने वाले वचनों, मनुष्य का पोषण और मार्गदर्शन करने वाले वचनों की बात है, तो जो लोग सत्य का अनुसरण बिल्कुल भी नहीं करते, जो लोग “परमेश्वर” नामक शब्द को दिव्यता ओढ़ाकर एक अज्ञात परमेश्वर में विश्वास करना पसंद करते हैं, वे सोचते हैं कि ये वचन बिल्कुल भी परमेश्वर के वचनों जैसे नहीं लगते। उन्हें ये बहुत ही सामान्य, बहुत ही सीधे-सादे लगते हैं—बिल्कुल कोरी बातें लगती हैं। उन्हें लगता है कि हर अध्याय बहुत ही लंबा है। वे इन वचनों को नहीं पढ़ना चाहते। उन्हें लगता है कि इन वचनों में गहराई और रहस्यमयता नहीं है, इसलिए ये पढ़ने लायक नहीं हैं। इसलिए उनके विचार से ये परमेश्वर के वचन नहीं हैं। वे ऐसा इसलिए कहते हैं क्योंकि इन वचनों की विषयवस्तु, अंदाज और शैली उनकी रुचि से मेल नहीं खाती है। तो फिर उनकी रुचि क्या है? वे गहन ग्रंथ पढ़ना चाहते हैं, वे ऐसे शब्द पढ़ना चाहते हैं जिन्हें लोग चाहे कैसे भी पढ़ लें वे दुरूह ही रहें, जैसे कि स्वर्ग का कोई दुर्बोध ग्रंथ; वे इन्हें ही पढ़ना चाहते हैं। मसीह-विरोधी लोग परमेश्वर द्वारा प्रदान किए गए ऐसे वचनों का तिरस्कार करते हैं जो मनुष्य की रुचियों के अनुरूप तरीके, लहजे और शैली में बोले गए हों। वे इन वचनों के प्रति धारणाओं, तिरस्कार और उपहास से भरे होते हैं। इसलिए ये लोग इन सामान्य, सुबोध और लोगों को जीवन प्रदान कर सकने वाले वचनों को पढ़ते, देखते या सुनते नहीं हैं। वे मन-ही-मन इन वचनों के प्रति शत्रुवत होते हैं, इनसे प्रतिकर्षित होते हैं और इन्हें स्वीकारने से इनकार करते हैं। वे इन वचनों को क्यों अस्वीकार कर पाते हैं, इनसे प्रतिकर्षित होते हैं और इनके प्रति शत्रुवत रहते हैं? एक कारण तो तय है : उन्हें लगता है कि ये वचन देहधारी परमेश्वर के परिप्रेक्ष्य से बोले गए हैं, इसलिए वे इन वचनों को मनुष्य के शब्द मानते हैं। मनुष्य के शब्दों की अवधारणा क्या है? मसीह-विरोधियों के विचार से सिर्फ परमेश्वर के वचन, सिर्फ स्वर्गिक ग्रंथ ही उनके लिए पढ़ने लायक हैं। सिर्फ गहन, अथाह और रहस्यमयी वचन ही उनके पढ़ने लायक हैं। ये साधारण और सुबोध इंसानी पाठ उनके पढ़ने लायक नहीं हैं, ये उनकी “पारखी” नजर को आकर्षित नहीं कर सकते और वे इनका तिरस्कार करते हैं। वे इन वचनों को बिल्कुल भी नहीं पढ़ते, इनमें निहित सत्य को स्वीकारना तो दूर की बात है।
जरा अपने आसपास नजर डालकर देखो कि परमेश्वर के वचनों को कौन नहीं पढ़ता है; जब कोई परमेश्वर के वचनों पर संगति कर रहा होता है तो कौन उठकर चला जाता है; जब परमेश्वर के वचन पढ़े जाते हैं या सत्य पर संगति हो रही होती है तो कौन उबासियाँ और अँगड़ाइयाँ लेता है, कौन कुलबुलाता है, अधीर होता है और कौन वहाँ से चले जाने या रुकावट डालने के बहाने तलाशता है और विषय बदल देता है—ऐसे लोग खतरे में हैं। तुम धर्मशास्त्र, किसी भी भ्रांति या किसी मानवीय दृष्टिकोण पर बात कर सकते हो तो वे पूरे समय जमे रहेंगे। लेकिन जैसे ही तुम परमेश्वर के वचनों को लेकर प्रवचन देना, प्रार्थना-पाठ करना या संगति करना शुरू करते हो या परमेश्वर के वचनों की बड़ाई करते हो तो वे फौरन बदल जाते हैं और एक असामान्य आचरण, राक्षसी आचरण प्रकट करते हैं। जब वे परमेश्वर के वचनों का पाठ होता सुनते हैं तो वे बेचैन हो जाते हैं और खीझ जाते हैं और जब वे किसी को सत्य पर संगति करते सुनते हैं तो वे विरोधी रुख अपना लेते हैं और उठकर चले जाते हैं। इसकी प्रकृति क्या है? यह कैसा स्वभाव है? मसीह-विरोधी ऐसे ही होते हैं। कुछ लोग कह सकते हैं, “तुम उन्हें मसीह-विरोधी कैसे ठहरा सकते हो? हो सकता है कि वे नए विश्वासी हों जिनकी रुचि अभी परमेश्वर के वचनों में नहीं जागी हो या जिन्होंने परमेश्वर के वचनों की मिठास नहीं चखी हो। क्या तुम इस संभावना की गुंजाइश नहीं छोड़ते कि नए विश्वासियों का आध्यात्मिक कद छोटा हो सकता है?” अगर वे ऐसे नए विश्वासी हैं जिनका आध्यात्मिक कद छोटा है और जिन्हें परमेश्वर के वचनों में रुचि नहीं है तो जब तुम दूसरी चीजों के बारे में बात करते हो तो वे इनसे प्रतिकर्षित क्यों नहीं होते? अगर तुम महा विनाशों, मानव जाति के भविष्य, रहस्यों या प्रकाशितवाक्य पर चर्चा करते हो तो देखो कि क्या वे चुपचाप बैठ सकते हैं। तब वे अलग ढंग से पेश आते हैं। मसीह-विरोधियों के प्रकृति सार के परिप्रेक्ष्य से देखें तो उन्हें सत्य से बैर होता है। सत्य से बैर होने का यह प्रकृति सार कैसे प्रकट होता है? वह इस तरह कि परमेश्वर के वचन सुनने पर वे विकर्षित और उनींदे हो जाते हैं और तिरस्कार, बेचैनी और सुनने की अनिच्छा जैसे विभिन्न हाव-भाव प्रकट करते हैं। उनका राक्षसी आचरण इस प्रकार प्रकट होता है। बाहरी तौर पर लगता है कि वे अपना कर्तव्य निभा रहे हैं और वे खुद को परमेश्वर का अनुयायी मानते हैं। तो सत्य पर संगति के समय, परमेश्वर के वचनों पर संगति के समय वे उद्दंड क्यों हो जाते हैं? तब वे स्थिर होकर क्यों नहीं बैठ पाते? मानो परमेश्वर के वचन तेज तलवार हों। क्या परमेश्वर के वचन उन्हें चुभे? क्या परमेश्वर के वचनों ने उनकी निंदा की? नहीं। इनमें से ज्यादातर वचन लोगों के पोषण के लिए हैं और इन्हें सुनकर लोग जागने, जीने का मार्ग ढूँढ़ने और मानव के समान जीने के लिए पुनर्जीवित होने में सक्षम होते हैं। तो फिर ये वचन सुनकर कुछ लोग असामान्य रूप से क्यों व्यवहार करते हैं? यह दानव का असली आचरण प्रकट करना है। जब तुम धर्मशास्त्र, पाखंडों, भ्रांतियों या प्रकाशितवाक्य के बारे में बात करते हो तो वे प्रतिकर्षित महसूस नहीं करते। अगर तुम निष्कपट, चापलूस होने के बारे में भी बात करते हो या उन्हें साहसिक कहानियाँ सुनाते हो, तो भी वे प्रतिकर्षित महसूस नहीं करते। लेकिन जैसे ही वे यह सुनते हैं कि परमेश्वर के वचनों का पाठ हो रहा है तो वे प्रतिकर्षण महसूस करते हैं, उठ जाते हैं और चले जाना चाहते हैं। अगर तुम उन्हें ठीक ढंग से सुनने के लिए प्रोत्साहित करते हो तो वे लड़ने की मुद्रा में आ जाते हैं और तुम्हें गुस्से में घूरने लगते हैं। ये लोग परमेश्वर के वचनों को ग्रहण क्यों नहीं कर पाते? परमेश्वर के वचन सुनकर वे शांत होकर नहीं बैठ पाते—यह क्या चल रहा है? इससे साबित होता है कि उनकी आत्मा असामान्य है, उनकी आत्मा सत्य से विमुख और परमेश्वर विरोधी है। परमेश्वर के वचन सुनते ही वे अंदर से उत्तेजित हो जाते हैं, उनके अंदर का राक्षस जोर मारने लगता है और इससे वे चुपचाप नहीं बैठ पाते। मसीह-विरोधी का यही सार होता है। लिहाजा बाहरी तौर पर मसीह-विरोधी परमेश्वर के उन वचनों का तिरस्कार करते हैं जो उनकी धारणाओं के अनुरूप नहीं होते। लेकिन “उनकी धारणाओं के अनुरूप न होने” का वास्तव में क्या आशय है? यह स्पष्ट तौर पर इंगित करता है कि वे इन वचनों की निंदा करते हैं, वे इन्हें परमेश्वर से आया हुआ नहीं मानते, वे इन्हें सत्य नहीं मानते या इन्हें ऐसा जीवन-मार्ग नहीं मानते जो लोगों को बचाता है। उनकी धारणाओं के अनुरूप न होना सिर्फ एक बहाना है, एक बाहरी अभिव्यक्ति है। उनकी धारणाओं के अनुरूप न होने का अर्थ क्या है? परमेश्वर के बोले इन सारे वचनों के प्रति क्या हर व्यक्ति में कोई धारणा नहीं होती है? क्या हर कोई इन्हें परमेश्वर के वचन मान सकता है, सत्य मान सकता है? नहीं—हर व्यक्ति में कमोबेश किसी न किसी हद तक ऐसे विचार, धारणाएँ या दृष्टिकोण होते हैं जो परमेश्वर के वचनों से टकराते हैं या उनका खंडन करते हैं। लेकिन अधिकतर लोगों में सामान्य तार्किकता होती है और अपनी धारणाओं से मेल न खाने वाले परमेश्वर के वचनों का सामना होने पर उनमें जो रवैया पैदा होता है उससे उबरने में यह तार्किकता मदद कर सकती है। उनकी तार्किकता उन्हें बताती है, “भले ही ये वचन मेरी धारणाओं के अनुरूप न हों, तो भी ये परमेश्वर के वचन हैं; भले ही ये मेरी धारणाओं के अनुरूप न हों, मैं इन्हें सुनने को इच्छुक न रहूँ, मुझे लगे कि ये गलत हैं और मेरे विचारों से टकराते हैं, तो भी ये वचन सत्य हैं। मैं धीरे-धीरे इन्हें स्वीकार करूँगा और एक दिन जब मैं यह सब पहचान लूँगा तो अपनी धारणाएँ छोड़ दूँगा।” उनकी तार्किकता पहले उन्हें अपनी धारणाओं को दरकिनार करने को कहती है; उनकी धारणाएँ सत्य नहीं हैं और ये परमेश्वर के वचनों की जगह नहीं ले सकतीं। उनकी तार्किकता कहती है कि परमेश्वर के वचनों को समर्पण और ईमानदारी के रवैये के साथ स्वीकार करो, न कि अपनी ही धारणाओं और दृष्टिकोणों से परमेश्वर के वचनों का प्रतिरोध करो। इस प्रकार जब वे परमेश्वर के वचन सुनते हैं तो वे अपनी धारणाओं से मेल खाने वाले वचनों को स्वीकार कर इन्हें चुपचाप बैठकर सुन सकते हैं। जहाँ तक उनकी धारणाओं से मेल न खाने वाले वचनों का मामला है, उनके लिए भी वे समाधान खोजते हैं, अपनी धारणाओं को दरकिनार करने और परमेश्वर के अनुरूप बनने की कोशिश करते है। अधिकतर तार्किक लोगों का यही सामान्य व्यवहार होता है। लेकिन “अपनी धारणाओं के अनुरूप न होने” की जो बात मसीह-विरोधी करते हैं वह सामान्य लोगों के समान बात नहीं है। मसीह-विरोधियों के मामले में इसमें गंभीर समस्याएँ हैं; यह पूरी तरह परमेश्वर के कार्य-कलापों, वचनों, सार और स्वभाव विरोधी बात है, ऐसी चीज है जो शैतानी स्वभाव सार की है। उनके मामले में यह परमेश्वर के वचनों की भर्त्सना, ईश-निंदा और उपहास है। उन्हें लगता है कि परमेश्वर यह जो साधारण और सुबोध इंसानी भाषा बोलता है वह सत्य नहीं है और यह लोगों को बचाने का प्रभाव हासिल नहीं कर सकती। “अपनी धारणाओं के अनुरूप न होने” से मसीह-विरोधियों का जो आशय होता है उसका यही सटीक अर्थ है। तो फिर इसका सार क्या है? हकीकत में यह परमेश्वर की निंदा, उससे इनकार और उसकी ईश-निंदा है।
मसीह-विरोधियों को लगता है कि जब परमेश्वर मानवजाति के परिप्रेक्ष्य में, एक तीसरे पक्ष के परिप्रेक्ष्य में खड़ा होता है और लोगों से बात करने के लिए इंसानी भाषा शैलियों, संरचना और शब्द चयन का उपयोग करता है तो इन शब्दों में पर्याप्त गहराई नहीं होती, ये परमेश्वर के वचन कहलाने लायक नहीं होते, इसलिए वे मर जाएँगे पर इन्हें स्वीकार नहीं करेंगे। कुछ लोग कहते हैं, “तुम कहते हो कि वे इन्हें स्वीकार नहीं करते मगर वे भी परमेश्वर के वचनों को खाते और पीते हैं, कभी-कभी उनमें आध्यात्मिक भक्ति होती है और कभी-कभी जब वे हमारे साथ संगति करते हैं तो वे परमेश्वर के वचनों के उद्धरण तक देते हैं। तुम इसे कैसे समझाओगे?” यह एक अलग मामला है; यह बस सतही बात है लेकिन वास्तव में मसीह-विरोधी लोग परमेश्वर के वचनों को इस रूप में परिभाषित करते हैं : “मानव के देहधारी पुत्र के कहे हुए वचन सत्य के बराबर नहीं हो सकते, परमेश्वर के वचन तो बिल्कुल भी नहीं हैं, इसलिए मुझे इन्हें स्वीकारने, खाने-पीने या इनके प्रति समर्पण करने की जरूरत नहीं है।” लेकिन जिस देह में परमेश्वर ने देहधारण किया है उसने आत्मा के परिप्रेक्ष्य से, दिव्यता के परिप्रेक्ष्य से वचनों का जो अंश व्यक्त किया है—संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचन—यह ऐसी चीज है जिसे मसीह-विरोधी देख तो सकते हैं मगर उस तक पहुँच नहीं सकते। यह परमेश्वर के वचनों का एक ऐसा अंश है जिसे लेकर वे बहुत जुनूनी होते हैं। इस जुनून का आशय क्या है? इसका आशय इन वचनों पर मसीह-विरोधियों के लार टपकाने से है और वे सोचते हैं, “तुम्हारी वाणी के वास्तव में इसी अंश के कारण तुम, एक तुच्छ, साधारण इंसान, जो हमारी नजरों में कुछ भी नहीं हो, परमेश्वर बन गए हो। यह बेहद अनुचित है, नाइंसाफी है!” हालाँकि एक पहलू ऐसा है जिसे वे “उत्सव मनाने लायक” पाते हैं। यह ठीक परमेश्वर के वचनों के उस अंश की अभिव्यक्ति की वजह से है कि उनकी स्वर्ग के परमेश्वर की प्रशंसा करने और उस पर श्रद्धा रखने की उनकी इच्छा और महत्वाकांक्षा पूरी हो जाती है। यह उनके लिए एक नया क्षितिज खोल देता है और वे कहते हैं, “वाह, परमेश्वर वास्तव में परमेश्वर है! यह परमेश्वर तीसरे स्वर्ग से है, सबमें महानतम है। वह वास्तव में परमेश्वर होने के योग्य है; ऐसे वचन बोलना इतनी सरल उपलब्धि नहीं है। एक भी वाक्य को मनुष्य समझ नहीं सकते, ये वचन बहुत गहन हैं, पैगंबरों की भविष्यवाणियों से भी ज्यादा गहन!” हर बार जब भी मसीह-विरोधी इन वचनों को पढ़ते हैं, उनके हृदय ईर्ष्या और जलन से भर उठते हैं, स्वर्ग के परमेश्वर के लिए सराहना से भर उठते हैं। हर बार जब भी वे इन वचनों को पढ़ते हैं तो उन्हें लगता है कि एक वही हैं जो परमेश्वर से सबसे ज्यादा प्रेम करते हैं; हर बार जब भी वे ये वचन पढ़ते हैं तो उन्हें लगता है कि वही लोग परमेश्वर के सबसे निकट हैं। ये वचन परमेश्वर के बारे में उनकी जिज्ञासा को सबसे ज्यादा हद तक संतुष्ट करते हैं। भले ही परमेश्वर की वाणी के इस अंश में वे यह बिल्कुल भी नहीं समझ पाते कि परमेश्वर के इरादे क्या हैं, परमेश्वर के कहे प्रत्येक वाक्य का संदर्भ क्या है, इनका अंतिम प्रभाव क्या होना चाहिए या इनका निहितार्थ क्या है, फिर भी वे परमेश्वर के वचनों के इस हिस्से का बहुत उत्सुकता से इंतजार करते हैं। क्यों? वह इसलिए कि यह हिस्सा समझने में कठिन है, इसमें मानवता की वह भावना नहीं होती जो देहधारी परमेश्वर में दिखाई देती है, यह मानवता के परिप्रेक्ष्य से या तीसरे-पक्ष के परिप्रेक्ष्य से नहीं कहा जाता है। इस हिस्से में उन्हें परमेश्वर की महानता दिखाई देती है, उसकी अगाधता दिखाई देती है और वे उसे एक ऐसी चीज के रूप में देखते हैं जिसे वे देख तो सकते हैं लेकिन उस तक पहुँच नहीं सकते। जितना ज्यादा ऐसा होता है, उतना ही ज्यादा वे यह मानते हैं कि स्वर्ग के परमेश्वर का अस्तित्व होता है और यह कि पृथ्वी का परमेश्वर बहुत ही तुच्छ है, कि उसमें विश्वास करना मुश्किल है और वह विश्वास के योग्य नहीं है। यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि कुछ लोगों ने परमेश्वर के वचनों के इसी हिस्से के कारण उसका अंत के दिनों का कार्य स्वीकार किया है। कुछ लोग खास इन्हीं वचनों के कारण परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य में आए हैं और कुछ लोग उसके वचनों के इसी हिस्से के पूर्ण होने का इंतजार कर रहे हैं। इतना ही नहीं, इन वचनों के जरिए कुछ लोगों ने स्वर्ग के परमेश्वर के अस्तित्व की पुष्टि कर दी है और इस प्रकार वे पृथ्वी के परमेश्वर की विनम्रता और तुच्छता का और भी ज्यादा तिरस्कार करने लगे हैं। वे परमेश्वर के वचनों के इस हिस्से को जितना ज्यादा पढ़ते हैं, उतना ही ज्यादा उन्हें यह लगता है कि पृथ्वी का परमेश्वर, यह देहधारी परमेश्वर अत्यंत उथले ढंग से बोलता है। वे कहते हैं, “तुम्हारे वचन समझने में बहुत ही आसान हैं। तुम कुछ ऐसा क्यों नहीं सुनाते जिसे हम समझ न सकें? तुम कुछ रहस्यों के बारे में बात क्यों नहीं करते? तीसरे स्वर्ग की भाषा क्यों नहीं बोलते? दिव्य भाषा में क्यों नहीं बोलते? हमें भी अपने क्षितिज और अपनी बुद्धि का विस्तार कर लेने दो। अगर तुम इस प्रकार बोलोगे और कार्य करोगे तो क्या हमारी आस्था और अधिक नहीं बढ़ेगी? क्या हम तुम्हारा प्रतिरोध करना बंद नहीं कर देंगे? अगर तुम इसी तरह बोलोगे और हमारी अगुआई करोगे तो क्या तुम्हारा दर्जा और ऊँचा नहीं हो जाएगा? तब हम तुम्हारा तिरस्कार कैसे कर सकेंगे?” क्या यह कुछ-कुछ अनुचित बात नहीं है? यह निहायत अतार्किक है! क्या विवेकहीन लोगों में सामान्य मानवता होती है, क्या उनमें सामान्य मानवता वाली सोच होती है? (नहीं।) तो क्या इस प्रकार के मसीह-विरोधियों में, परमेश्वर के वचनों पर इस ढंग से प्रतिक्रिया जताने वाले लोगों के इस समूह में सामान्य तार्किकता होती है? (नहीं।) कभी-कभी जब मैं लोगों को बातचीत करते पाता हूँ तो उनसे बात करने में शामिल हो जाता हूँ। लेकिन मैं दंग रह जाता हूँ कि वे ऐसे उदात्त विषयों पर चर्चा करते हैं कि मैं बातचीत के बीच में टिप्पणी नहीं कर पाता या शामिल नहीं हो पाता हूँ। वे कहते हैं, “जाहिर है कि तुम इसके लिए नहीं बने हो। तुम तीसरे स्वर्ग की भाषा नहीं बोल सकते। हम तीसरे स्वर्ग की भाषा बोल रहे हैं, जिसे साधारण लोग नहीं समझ सकते। अगर तुम परमेश्वर हो तो भी क्या हुआ? फिर भी तुम समझ नहीं सकते, इसलिए तुम्हें हम अपने समूह में शामिल नहीं होने देंगे।” मुझे बताओ, ऐसी स्थितियों में मुझे क्या करना चाहिए? लोगों को समझदार होना सीखना चाहिए। जब मैं उन्हें तीसरे स्वर्ग की ऐसी उच्च और शक्तिशाली भाषा बोलते सुनता हूँ और खुद मैं उस स्तर तक नहीं पहुँच पाता तो फिर मुझे अपनी हँसी उड़वाने के बजाय वहाँ से सीधे चले जाना चाहिए। कुछ मसीह-विरोधी लोग इन पाखंडों, भ्रांतियों और खोखले अव्यावहारिक शब्दों का खुलेआम प्रचार करते हैं जो स्पष्ट तौर पर शैतान से, महादूत से उत्पन्न होते हैं। वे जो शब्द बोलते हैं वे सुनने में परिष्कृत और उच्च-स्तर के लगते हैं, जो अधिकतर सामान्य लोगों की पहुँच से परे होते हैं। पहुँच से परे होने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ यह है कि जैसे ही तुम इन्हें सुनते हो, तुम्हें पता चल जाता है कि ये शैतानी बातें हैं और तुम्हें इनको अस्वीकार कर देना चाहिए।
अपनी धारणाओं के अनुरूप न होने पर परमेश्वर के वचनों को अस्वीकार कर देने वाले मसीह-विरोधियों का सार क्या है? क्या तुमने इसे स्पष्ट रूप से देख लिया है? वे तो वास्तव में परमेश्वर के इन वचनों को पढ़ते तक नहीं हैं। शुरुआत में वे उत्सुकतावश परमेश्वर के वचनों पर सतही ढंग से निगाह डालते हैं। सरसरी निगाह डालने के बाद वे सोचते हैं, “इनमें से ज्यादातर वचन पढ़ने लायक नहीं हैं, इनमें कुछ भी व्यावहारिक, मूल्यवान या सार्थक नहीं है, कुछ भी गहन शोध योग्य नहीं है।” जैसे-जैसे वे पढ़ते जाते हैं, वे इस हिस्से पर पहुँचते हैं संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचन। उन्हें लगता है कि इस हिस्से में दिव्य भाषा का जायका है, इसमें ऊँचाई भी है और गहराई भी, यह मनुष्य के अन्वेषण और शोध के लायक है—यह उनकी रुचि को भाता है। अब वे किस चीज का उत्सुकता से इंतजार कर रहे हैं? “इस हिस्से को कौन समझा सकता है? परमेश्वर का इरादा वास्तव में क्या है? परमेश्वर के वचनों के हर अंश का अर्थ क्या है और यह कैसे पूर्ण होगा?” मसीह-विरोधी इन्हीं चीजों का सर्वाधिक पता लगाना चाहते हैं लेकिन वे इन्हें खुद नहीं समझ सकते। क्या तुम लोगों को लगता है कि उन्हें यह बताया जाना चाहिए? (कोई जरूरत नहीं है।) क्यों नहीं है? क्या दानव परमेश्वर के वचन सुनने लायक हैं? क्या वे परमेश्वर के रहस्य जानने के योग्य हैं? (नहीं।) परमेश्वर के रहस्य उन्हें बताए जाते हैं जो उसमें विश्वास करते हैं, उसका अनुसरण करते हैं और उसके प्रति समर्पण करते हैं, और ये दानवों और शैतानों से छिपे रहते हैं; ये अपात्र हैं। इसलिए अगर एक दिन परमेश्वर अपने वचनों के इस हिस्से के रहस्य और सार बताने के साथ ही इन वचनों का मूल और संदर्भ प्रकट करने का फैसला करेगा तो वह परमेश्वर के चुने हुए लोगों को ही बताया जाएगा, उन्हें यह बात जानने दी जाएगी मगर शैतानों और दानवों को कभी नहीं। अगर तुम लोग सत्य का अनुसरण करने वाले हो और इतने खुशकिस्मत हो कि अंत तक कायम रह सको तो फिर परमेश्वर के वचनों के इस हिस्से की विषयवस्तु समझने का अवसर तुम्हें मिलेगा। परमेश्वर के वचनों में अनेक रहस्य हैं और उसके कार्य में भी हैं। उदाहरण के लिए, परमेश्वर का वर्तमान देहधारण; भले ही—कमोबेश और न्यूनाधिक रूप से—इसके बारे में बाइबल में और पहले के पूर्वकथनों में कुछ अस्पष्ट-सी भविष्यवाणियाँ हैं लेकिन ये सारी भविष्यवाणियाँ काफी गुप्त हैं। परमेश्वर का वर्तमान देहधारण पूरी मानव जाति में और छह हजार साल की पूरी प्रबंधन योजना के दौरान सबसे बड़ा रहस्य और सबसे गुप्त मामला है। मनुष्य नहीं जानते, फरिश्ते नहीं जानते, परमेश्वर की सारी सृष्टियाँ नहीं जानतीं; यहाँ तक कि शैतान भी, जो सबसे सक्षम है, इस मामले के बारे में नहीं जानता है। शैतान क्यों नहीं जानता? अगर परमेश्वर उसे बताना चाहता तो क्या उसके लिए जानना बहुत ही आसान नहीं होता? तो फिर वह क्यों नहीं जानता? एक बात तय है : परमेश्वर नहीं चाहता कि शैतान इस बारे में जाने। भले ही इस घटना के बारे में बहुत से संकेत, बहुत सारी भविष्यवाणियाँ और बहुत सारे तथ्य इशारा कर रहे हैं, इसके घटित होने का इशारा और पूर्वघोषणा कर रहे हैं लेकिन जब तक परमेश्वर नहीं चाहता इसके बारे में शैतान कभी नहीं जान पाएगा। यह एक तथ्य है। परमेश्वर जब चाहेगा कि शैतान इसे जाने तो तब वह उसे सीधे तौर पर बता देगा। अगर परमेश्वर उसे नहीं बताता और इस बारे में नहीं बोलता तो भले ही ये तथ्य और भविष्यसूचक बातें प्रकट हो जाएँ, परमेश्वर उसे अंधा कर सकता है और वह इस बारे में नहीं जान पाएगा। क्या शैतान में बहुत बड़ी क्षमता है? इसे इस ढंग से देखा जाए तो नहीं है। जब परमेश्वर के देहधारण जैसे महत्वपूर्ण कार्य की बात हो रही हो तो क्या इसके कुछ न कुछ संकेत मानवीय दुनिया में, भौतिक दुनिया में या फिर आध्यात्मिक जगत में नहीं मिलेंगे? अगर इन सारे संकेतों पर कुल नजर डाली जाए तो परमेश्वर की यह जो कार्य करने की मंशा थी उसे देखना आसान होगा। तो फिर शैतान इसके बारे में क्यों नहीं जानता? बड़े लाल अजगर के राष्ट्र में परमेश्वर के इतने अधिक वर्षों तक कार्य करते रहने के बावजूद वह परमेश्वर द्वारा किए गए इस कार्य की अहमियत क्यों नहीं समझता है? उसे जब तक इसका एहसास होता है तब तक यह कार्य पहले ही पूरा हो चुका होता है, शैतान इसमें दखल नहीं दे पाता और इस कार्य के नतीजे और फल पहले ही तय हो चुके होते हैं। क्या तब तक शैतान के लिए सत्य ढूँढ़ने में थोड़ी देर नहीं हो जाती? क्या इससे यह कहावत पूरी नहीं हो जाती कि “परमेश्वर के हाथों में शैतान हमेशा एक पराजित शत्रु रहेगा”? बिल्कुल यही बात है। मसीह-विरोधी भ्रमित होकर यह मान बैठते हैं कि अगर परमेश्वर के वचन मानवीय धारणाओं या रुचियों के अनुरूप नहीं होते तो वे उन्हें अस्वीकार कर सकते हैं और परमेश्वर तब परमेश्वर नहीं रह जाता। उन्हें लगता है कि परमेश्वर का देहधारण कुछ भी सार्थक उपलब्धि हासिल नहीं कर सकता, न ही यह तथ्य बन सकता है। क्या यह एक भयंकर गलती नहीं है? वे गलत आकलन कर अपने ही जाल में फँस गए हैं। वे अपने ही जाल में क्यों फँस गए हैं? लोगों को बचाने के लिए परमेश्वर के बोलने और कार्य करने के तरीके में ठीक इन्हीं अप्रत्यक्ष वचनों का उपयोग होता है जो मानवीय धारणाओं के अनुरूप नहीं होते या भव्य नहीं लगते। वास्तव में इन्हीं सादे वचनों में निहित विषयवस्तु में परमेश्वर के इरादे समाहित हैं, सत्य, मार्ग और जीवन समाहित हैं। ये वचन इस भ्रष्ट मानव जाति को बचाने और परमेश्वर की प्रबंधन योजना को परवान चढ़ाने के लिए पर्याप्त हैं। इस बीच जो लोग इन साधारण वचनों की निंदा करते हैं उन्हें निकाल दिया जाएगा, उनकी निंदा की जाएगी और उन्हें आखिरकार दंडित किया जाएगा। वे गलत ढंग से यह सोच लेते हैं, “मैं तुम्हारे ये वचन स्वीकार नहीं करूँगा, मैं इन्हें कुछ नहीं समझता! तुम्हारे वचन मेरी धारणाओं के अनुरूप नहीं हैं, ये मेरी धारणाओं, दृष्टिकोणों या सोचने के तरीके से मेल नहीं खाते, इसलिए मैं इन्हें अस्वीकार कर सकता हूँ, मैं इनका प्रतिरोध और इनकी निंदा कर सकता हूँ और फिर तुम कुछ भी हासिल नहीं कर पाओगे!” वे गलत हैं। मसीह-विरोधियों का परमेश्वर के इन वचनों को स्वीकार न करना ही उनका अपने जाल में फँसना है; परमेश्वर ने कभी नहीं चाहा कि वे इन्हें स्वीकार करें, और ऐसा क्यों है? क्योंकि वे शैतान और दानवों के हैं, इसलिए परमेश्वर ने उन्हें बचाने या बदलने की योजना कभी नहीं बनाई; तथ्य यही है। तो फिर अंतिम तथ्य क्या है? मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों को अस्वीकार करके, उनकी निंदा करके और उन्हें अस्वीकार करके खुद भी परमेश्वर से निंदा और तिरस्कार पाते हैं। तुम लोगों को इससे क्या समझना चाहिए? परमेश्वर के वचनों का मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप न होना कोई ऐसा कारण नहीं है कि तुम इन्हें स्वीकार न करो। अगर परमेश्वर के वचनों में ऐसे अंश हैं जो तुम्हारी धारणाओं के अनुरूप नहीं हैं तो इसका यह मतलब नहीं है कि ये वचन सत्य नहीं हैं और यह ऐसा कारण नहीं है कि तुम इन्हें नकार दो। इसके उलट परमेश्वर के वचन जितना ज्यादा तुम्हारी धारणाओं के अनुरूप नहीं होते, तुम्हें सत्य खोजने के लिए अपनी धारणाओं को उतना ही ज्यादा दरकिनार करना चाहिए। परमेश्वर के वचन जितने ज्यादा तुम्हारी धारणाओं के अनुरूप नहीं होते, उतने ही ज्यादा वे यह दिखाते हैं कि तुम्हारे पास क्या नहीं है, तुममें क्या कमी है, तुम्हें किस चीज की पूर्ति करने की जरूरत है, और खासकर तुम्हें क्या बदलाव खोजने और किस चीज में प्रवेश करने की जरूरत है। तुम लोगों को यही बात समझनी चाहिए।
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