मद दस : वे सत्य का तिरस्कार करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग पाँच) खंड दो
परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ और उनकी व्याख्या की इस अभिव्यक्ति के संबंध में क्या तुम लोगों के पास कोई उदाहरण है? (समूह गान अल्बम का 20 वाँ वीडियो बनाने के दौरान परमेश्वर ने निर्देश दिया था कि धर्मलेखों को एक-एक कर स्क्रीन पर दिखाया जाए। उस समय कुछ भाई-बहनों ने धर्मलेखों को बहुत ज्यादा लंबा पाकर कुछ वाक्यांश हटा दिए थे। बाद में परमेश्वर को इस मुद्दे का पता चला तो उसने काफी कड़ाई से गहन विश्लेषण कर कहा कि यह परमेश्वर के वचनों की ईश-निंदा है।) जहाँ तक बाइबल में दर्ज परमेश्वर के मूल वचनों की बात है, वे परमेश्वर के वचन हैं और लोगों को इन्हें बदलना नहीं चाहिए, और यही बात कुछ पैगंबरों की भविष्यवाणियों पर भी लागू होती है; ये भी परमेश्वर के वचन हैं, ये परमेश्वर से प्रेरित हैं और इन्हें भी नहीं बदलना चाहिए। मेरी दृष्टि से भले ही ये वचन मूल भाषा में नहीं बल्कि अनुवाद हैं, अनूदित पाठ का भावार्थ कई वर्षों के संशोधनों के दौरान मोटे तौर पर सटीक रहा है। तुम्हें यह बात तो माननी ही चाहिए। इसलिए अगर नियमित संगति में इन वचनों का उपयोग किया जा रहा है तो इन्हें पूरे का पूरा बयान करने की जरूरत नहीं है; इनका निचोड़ बताया जा सकता है। लेकिन असली तथ्य नहीं बदले जाने चाहिए। अगर इनका उद्धरण देना है तो मूल पूर्ण वाक्य लिए जाने चाहिए। यह सिद्धांत सुनने में कैसा लगता है? (अच्छा।) इसे इस तरह क्यों करना चाहिए? कुछ लोग कहते हैं, “यह सब अतीत की बात है, क्या हमें इतना गंभीर होने की जरूरत है?” नहीं, इसका संबंध रवैये से है, मानसिकता से है। चाहे अतीत की बात हो, वर्तमान की या फिर भविष्य की, परमेश्वर के वचन तो परमेश्वर के वचन हैं और इन्हें मनुष्य के शब्दों के समान नहीं माना जाना चाहिए। लोगों को परमेश्वर के वचनों के साथ एक गंभीर रवैये के साथ पेश आना चाहिए। बाइबल के मूल पाठ का अनुवाद विभिन्न भाषाओं में करने के बाद हो सकता है कि कुछ अर्थ मूल पाठ से सटीक ढंग से मेल न खाएँ या हो सकता है कि एक ही वाक्य के मूल पाठ और अनुवाद में कुछ गड़बड़ियाँ हों। हो सकता है अनुवादक यह जोड़ दें, “ध्यानार्थ : कुछ कुछ” या कोष्ठक में लिख दें, “या इस रूप में अनुवाद किया गया...।” क्या तुम लोगों को लगता है कि जिन लोगों ने बाइबल के मूल पाठों का अनुवाद किया, वे सभी परमेश्वर के विश्वासी थे? (जरूरी नहीं है।) वे यकीनन परमेश्वर का भय मानने वाले और बुराई से दूर रहने वाले लोग नहीं थे, तो फिर वे इस काम को इतने सटीक ढंग से क्यों सँभाल पाए? अविश्वासी लोग इसे पेशेवर खूबी बताते हैं, लेकिन परमेश्वर के विश्वासियों को इसे परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय रखना कहना चाहिए। अगर तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला इतना भी हृदय नहीं है तो क्या तुम अब भी परमेश्वर के विश्वासी हो?
परमेश्वर के वचनों के प्रति तुम्हारा रवैया धर्मनिष्ठ होना चाहिए और जब तुम एकत्र होकर परमेश्वर के वचनों पर संगति करते हो तो इन्हें पढ़ने के बाद तुम अपने ज्ञान और तुमने इन अनुभवों से जो सीखा है, उसके बारे में बात करते हुए अपने निजी अनुभवों को शामिल कर सकते हो। लेकिन तुम्हें परमेश्वर के वचनों को अपनी निजी कृतियाँ मानकर इनकी मनमानी व्याख्या नहीं करनी चाहिए। परमेश्वर के वचनों को तुम्हारे समझाने की आवश्यकता नहीं होती है, और न ही तुम स्पष्ट रूप से या समझ में आने लायक उनकी व्याख्या कर सकते हो। यह पर्याप्त है कि तुम्हारे पास कुछ मामूली प्रबोधन और रोशनी या अनुभव हो, लेकिन लोगों को परमेश्वर के इरादे समझाने के लिए सत्य की व्याख्या करने की कोशिश करना या अपनी व्याख्या का इस्तेमाल करने की कोशिश करना असंभव होगा। यह चीजों को करने का गलत तरीका है। उदाहरण के लिए कुछ लोग परमेश्वर के वचनों में पढ़ते हैं कि परमेश्वर ईमानदार लोगों से प्रेम करता है। परमेश्वर ने एक बार इंसान से कहा, “तुम्हारी बात ‘हाँ’ की ‘हाँ,’ या ‘नहीं’ की ‘नहीं’ हो; क्योंकि जो कुछ इस से अधिक होता है वह बुराई से होता है” (मत्ती 5:37)। आज भी परमेश्वर के वचन लोगों से ईमानदार होने का आह्वान करते हैं। इसलिए परमेश्वर के वचनों और अपेक्षाओं के प्रति सही रवैया क्या होना चाहिए? परमेश्वर के वचनों में खोजो : परमेश्वर ने कहा, “तुम्हारी बात ‘हाँ’ की ‘हाँ,’ या ‘नहीं’ की ‘नहीं’ हो।” तो फिर जो लोग परमेश्वर की नजरों में ईमानदार होते हैं, वे ठीक कैसा व्यवहार करते हैं? ईमानदार लोग कैसे बोलते हैं, वे कैसे कार्य करते हैं, वे अपने कर्तव्य के प्रति क्या दृष्टिकोण अपनाते हैं, और वे दूसरों के साथ कैसे सामंजस्यपूर्ण ढंग से सहयोग करते हैं? लोगों को इन सिद्धांतों और अभ्यास के मार्गों के लिए परमेश्वर के वचनों में खोज करनी चाहिए और ऐसे ईमानदार लोग बनना चाहिए जैसी परमेश्वर अपेक्षा करता है। यह सही रवैया है, वो रवैया जो सत्य की तलाश करने वालों के पास होना चाहिए। तो वे लोग कैसा व्यवहार करते हैं जो सत्य को नहीं खोजते या उससे प्रेम नहीं करते और जिनके पास परमेश्वर और उसके वचनों का भय मानने वाला हृदय नहीं है? परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद वे सोचते हैं, “परमेश्वर यह माँग करता है कि लोग ईमानदार हों; यही पहले प्रभु यीशु ने कहा था। आज परमेश्वर एक बार फिर लोगों को ईमानदार होने के लिए कह रहा है। मैं समझ गया—क्या ईमानदार लोग वास्तव में निष्कपट लोग नहीं होते? क्या यह ऐसा ही नहीं है जैसा लोग कहा करते हैं कि निष्कपट लोग हमेशा जीतते हैं, कि अच्छे लोगों का जीवन शांतिपूर्ण होता है, और जो लोग निष्कपट होते हैं उन्हें धोखा देना पाप है? देखो, परमेश्वर निष्कपट लोगों द्वारा सहे गए अन्याय का निवारण कर रहा है।” क्या ये शब्द सत्य हैं? क्या ये ऐसे सत्य-सिद्धांत हैं जो उन्होंने परमेश्वर के वचनों से ढूँढ़ निकाले हैं? (नहीं।) तो ये शब्द क्या हैं? क्या इन्हें पाखंड और भ्रांतियाँ कहा जा सकता है? (इन्हें ऐसा कहा जा सकता है।) जिन लोगों को आध्यात्मिक समझ नहीं होती और सत्य से प्रेम नहीं होता, वे हमेशा परमेश्वर के वचनों को उस चीज के साथ जोड़ते हैं जिसे मानवजाति के बीच कर्णप्रिय और उचित माना जाता है। क्या यह परमेश्वर के वचनों का मूल्य घटाना नहीं है? क्या यह सत्य को मानवजाति के बीच एक तरह के नारे, अपने आचरण के तरीके के लिए एक तर्क के रूप में वर्णित करना नहीं है? परमेश्वर लोगों से ईमानदार होने का आह्वान करता है, लेकिन ये लोग इस बात की अनदेखी करते हैं कि ईमानदार लोग कैसा व्यवहार करते हैं, ईमानदार कैसे बना जाए और ईमानदार होने के आचरण संबंधी नियम क्या हैं, और वे बेशर्मी से कहते हैं कि परमेश्वर चाहता है कि लोग निष्कपट बनें और वे सब जो निष्कपट, निठल्ले और मूर्ख हैं, ईमानदार लोग होते हैं। क्या यह परमेश्वर के वचनों की गलत व्याख्या नहीं है? वे लोग परमेश्वर के वचनों की गलत व्याख्या करते हैं, फिर भी खुद को बहुत चालाक समझते हैं, और साथ ही यह मानते हैं कि परमेश्वर के वचन इसके अलावा और कुछ नहीं हैं : “सत्य इतना गहन नहीं होता, क्या यह सिर्फ निष्कपट व्यक्ति होना नहीं है? निष्कपट व्यक्ति होना काफी सरल है : चोरी मत करो और लोगों को गाली मत दो या दूसरों को चोट मत पहुँचाओ। ‘मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो।’ सभी बातों में दूसरों के प्रति उदार रहो, अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनो, एक अच्छा इंसान बनो, और अच्छे लोगों का जीवन शांतिपूर्ण होता है।” वे बहुत कुछ कहते हैं, लेकिन उनमें से कुछ भी सत्य के अनुरूप नहीं होता, यह पाखंडों और भ्रान्तियों के अलावा और कुछ नहीं होता है। ऐसा लगता है कि परमेश्वर के वचनों के साथ इसका कुछ संबंध है, यह उनके साथ थोड़ा-सा जुड़ा हुआ प्रतीत होता है, लेकिन मामले पर चिंतन करने और इसका भेद पहचानने के बाद एहसास होता है कि यह भ्रामक कथनों के अलावा और कुछ नहीं है, यह लोगों के विचारों में व्यवधान करने वाली भ्रांतियों के अलावा और कुछ नहीं है। उदाहरण के लिए, परमेश्वर कहता है कि उसके सार में प्रेम है, कि वह इंसान से प्रेम करता है। वह जो कहता है, जिस तरह से वह मनुष्य के साथ व्यवहार करता है, मनुष्य को बचाने के लिए उसका श्रमसाध्य इरादा, और वह मनुष्य में जैसे कार्य करता है उसके असंख्य पहलुओं के माध्यम से मनुष्य के प्रति परमेश्वर का प्रेम प्रकट होता है, और मनुष्य को परमेश्वर का उद्धार दिखाने के साथ ही परमेश्वर के इरादे को और उन साधनों को भी जिनके द्वारा वह मनुष्य को बचाता है, स्पष्ट किया जाता है ताकि लोग परमेश्वर के प्रेम को जान जाएँ। जिन लोगों में आध्यात्मिक समझ नहीं होती है, वे क्या सोचते हैं? “परमेश्वर एक ऐसा परमेश्वर है जो इंसान से प्रेम करता है, परमेश्वर चाहता है कि प्रत्येक व्यक्ति उद्धार पाए और वह नहीं चाहता कि कोई भी तबाही झेले। परमेश्वर ने कहा है कि लौटकर आए उड़ाऊ पुत्र का मोल स्वर्ण से भी अधिक होता है।” क्या परमेश्वर ने ऐसा कहा है? क्या ये परमेश्वर के मूल वचन हैं? (नहीं।) वे लोग और क्या कहते हैं? “एक जीवन बचाना सात-मंजिला मंदिर बनाने से बेहतर है” और “बुद्ध परोपकारी है।” क्या वे चीजों को उलट-पुलट नहीं रहे हैं? स्पष्ट है कि वे आध्यात्मिक होने का, परमेश्वर के वचनों को समझने का और सत्य से प्रेम करने का केवल नाटक कर रहे हैं; वे स्पष्ट रूप से बाहरी, अल्पज्ञ और मूर्ख हैं, जिन्हें कोई आध्यात्मिक समझ नहीं है। मैं ऐसे कई लोगों से मिला हूँ—वे उतावले लोग होते हैं, बोलने में साहसी, लेकिन दिमाग से विहीन, उनके विचार और उनके मन में उठती बातें पाखंड, भ्रांतियों और बनावटों के अलावा और कुछ नहीं होती हैं। जिन लोगों में दूसरों को गुमराह करने की अपार क्षमताएँ होती हैं और जो अक्सर दूसरों को गुमराह करने के लिए इन पाखंडों और भ्रांतियों और कुछ सही नजर आने वाले धर्मशास्त्रीय तर्कों का इस्तेमाल करते हैं, उन्हें अपनी कथनी के आगे समर्पण करने और अभ्यास करने के लिए मजबूर करते हैं—ये लोग मसीह-विरोधी होते हैं। दिखने में वे हर तरह से अत्यधिक आध्यात्मिक लगते हैं, वे अक्सर दूसरों के सामने परमेश्वर के वचनों के अंशों को उद्धृत करते हैं, और जैसे ही वे उनकी मनमानी व्याख्या करना समाप्त कर लेते हैं, तो वे कुछ पाखंडों और भ्रांतियों की लगाम खोल देते हैं। ऐसे लोग हर कलीसिया में मिल सकते हैं। वे परमेश्वर के वचनों के उद्धरण और संगति के ध्वज तले लोगों की मदद और अगुआई करते हैं—लेकिन वास्तव में वे लोगों के मन में जो कुछ भी बिठाते हैं, वह वो नहीं होता जो परमेश्वर के वचन इंसान से अपेक्षा करते हैं, न ही वह परमेश्वर के वचनों में निहित सत्य-सिद्धांत होता है, बल्कि वे लोगों के मन में वो पाखंड और भ्रान्तियाँ बिठाते हैं जिन्हें वे परमेश्वर के वचनों के आधार पर की गई प्रक्रिया, व्याख्या और कल्पना के माध्यम से लेकर आते हैं, इनके कारण लोग परमेश्वर के वचनों से भटककर ऐसे लोगों का आज्ञापालन करते हैं, और अस्त-व्यस्त और गुमराह हो जाते हैं। उदाहरण के लिए, ऐसे भी लोग हैं जो कहते हैं : “अपनी छह हजार साल की प्रबंधन योजना का कार्य करने में परमेश्वर ने समस्त मानवजाति से परित्याग और प्रतिरोध झेला है; परमेश्वर तो परमेश्वर ही है, और उसके दिल की कोई सीमा नहीं होती है! जैसा कि लोग कहते हैं, ‘प्रधानमंत्री का दिल इतना बड़ा होता है कि उसमें एक नाव चल जाए,’ और ‘सज्जन के बदला लेने में देर क्या और सबेर क्या।’ परमेश्वर कितना उदार है!” सभी नजरियों से वे लोगों को परमेश्वर की और परमेश्वर के पास जो है और जो वह स्वयं है, इसकी गवाही देते हुए लगते हैं, लेकिन वे वास्तव में क्या संदेश दे रहे हैं? क्या यह सत्य है? क्या यह वास्तव में परमेश्वर का सार है? (नहीं।) वे किसकी गवाही दे रहे हैं? वे प्रधानमंत्री की गवाही दे रहे हैं। वे परमेश्वर की तुलना एक प्रधानमंत्री से कर रहे हैं, एक सज्जन से कर रहे हैं—और क्या यह ईश-निंदा नहीं है? क्या ऐसे शब्द परमेश्वर के वचनों में पाए जा सकते हैं? (नहीं।) तो ये शब्द कहाँ से आए? शैतान से। मसीह-विरोधी न केवल परमेश्वर की गवाही नहीं देते, वे तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर परमेश्वर के खिलाफ ईश-निंदा भी करते हैं, अक्सर उन लोगों को गुमराह करते हैं जिनकी कोई नींव नहीं होती है, जिन्हें परमेश्वर में सच्ची आस्था नहीं होती है और जो सत्य को समझने में असमर्थ होते हैं। ये लोग छोटे आध्यात्मिक कद के होते हैं, इनके पास सत्य को समझने की कोई नींव और क्षमता नहीं होती है, और इसलिए वे इन पाखंडों और भ्रांतियों से धोखा खा जाते हैं। मसीह-विरोधी पाखंडों और भ्रांतियों को आध्यात्मिक कथन मानते हैं और परमेश्वर के प्रेम के बारे में वे लोग एक बात कहा करते हैं, “परमेश्वर चाहता है कि प्रत्येक व्यक्ति उद्धार पाए और वह नहीं चाहता कि कोई भी तबाही झेले।” परमेश्वर की इंसान से अपेक्षा के बारे में वे एक दूसरी बात यह बताते हैं, “अच्छे लोगों का जीवन शांतिपूर्ण होता है।” और परमेश्वर द्वारा लोगों के अपराधों को याद न रखने और उन्हें पश्चात्ताप करने का मौका देने के बारे में वे कहते हैं, “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो।” क्या ऐसे शब्द परमेश्वर के वचनों में मिल सकते हैं? (नहीं।) इन बातों को सुनते ही मुझे इतना गुस्सा क्यों आता है? मैं इनसे इतना परेशान क्यों हो जाता हूँ? मैं इतना चिड़चिड़ा क्यों हो जाता हूँ? ये लोग कितने साल से परमेश्वर के वचनों को पढ़ते आ रहे हैं? क्या ये मंदबुद्धि हैं या पागल हो गए हैं? परमेश्वर के वचनों में कहाँ ऐसी बातों का उल्लेख किया गया है? परमेश्वर ने यह माँग कब की थी कि लोग निष्कपट हों? कब परमेश्वर ने माँग की कि लोग इस कहावत का पालन करें कि “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो”? क्या परमेश्वर यही करता है? इन पाखंडों और भ्रांतियों का, जिन्हें वे गले लगाते हैं, मानवजाति से परमेश्वर की अपेक्षा, उसके इरादों और सत्य सिद्धांतों से कोई संबंध कहाँ है? वे पूरी तरह से असंबंधित हैं। उदाहरण के लिए परमेश्वर लोगों को आकांक्षाएँ, संकल्प और लक्ष्य रखने देता है लेकिन मसीह-विरोधी कहते हैं : “परमेश्वर हमें लक्ष्य अपनाने के लिए बढ़ावा देता है। यह कहावत इसे बखूबी बताती है : ‘जो सैनिक सेनानायक नहीं बनना चाहता वह अच्छा सैनिक नहीं है।’” यह कहावत एक तरह का सामाजिक चलन है, एक सामाजिक विचार है—क्या इसका उपयोग परमेश्वर के घर में करना उचित है? क्या यह उपयोगी है? (नहीं।) यह कथन परमेश्वर के किन वचनों के अनुरूप है? क्या यह परमेश्वर के वचनों से संबंधित है? (नहीं।) तो फिर मसीह-विरोधी इसे क्यों सुनाते हैं? उनका इसे सुनाने का उद्देश्य लोगों को शिद्दत से यह महसूस कराना होता है कि वे बहुत आध्यात्मिक हैं, कि उन्हें परमेश्वर के वचनों की समझ है और वे इनसे प्रबोधन लेते हैं, कि उनमें सत्य को समझने की योग्यता है और यह भी कि वे अज्ञानी आम जन नहीं हैं। लेकिन क्या इससे उनका अपेक्षित उद्देश्य हासिल होता है? ये शब्द सुनकर तुम लोग अपने दिल में स्वीकृति की अनुभूति करते हो या विकर्षण की? (विकर्षण की।) यह किस तरह तुममें विकर्षण पैदा करता है? (मसीह-विरोधी लोग शैतान की भ्रांतियों को परमेश्वर के वचनों के साथ जोड़कर अर्थ का अनर्थ करते हैं। वे जो भी शब्द बोलते हैं उन सबमें आध्यात्मिक समझ का अभाव होता है।) मसीह-विरोधी केवल वही शब्द बोलते हैं जिनमें आध्यात्मिक समझ की कमी झलकती है, इन्हें सुनने के कारण लोगों के मन में घृणा उत्पन्न होती है और वे इनसे विरक्त होते हैं। वे परमेश्वर के वचनों को बिल्कुल नहीं समझते, वे इन्हें समझ ही नहीं सकते, उनमें परमेश्वर के वचनों को समझने की काबिलियत और योग्यता नहीं होती, फिर भी वे इन्हें समझने का दिखावा करते हैं और बेशर्मी से दूसरों के सामने इनकी व्याख्या करते हैं, ऐसे असंगत और बचकाने शब्द बोलते हैं जिनसे लोगों को घिन आती है, उनकी नैतिक उन्नति नहीं होती, बल्कि लोगों के विचार गड़बड़ा जाते हैं। यह वाकई घृणास्पद है! जब ऐसे लोगों से सामना हो तो तुम लोगों को क्या करना चाहिए? (वे जो कह रहे हैं, हमें उसके भ्रामक अंशों का गहन विश्लेषण अवश्य करना चाहिए।) तुम्हें यह किस ढंग से करना चाहिए? दरअसल, यह काफी आसान है। तुम उनसे कहो : “परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद इस बारे में तुम्हारी समझ मुझे बहुत ज्यादा नजर नहीं आती है।” वे जवाब देंगे : “मैं ऐसा नहीं मानता, मुझे लगता है कि यह अच्छी है।” तुम कहते हो : “तुम्हें लगता है कि चाहे कुछ भी हो यह अच्छी है, तो फिर तुम्हारे तर्कों के अनुसार चलें तो क्या इसका यह अर्थ है कि परमेश्वर के वचन मनुष्य की भ्रांतियों और पाखंडों के समतुल्य हैं? अगर तुम इन भ्रांतियों और पाखंडों से सहमत होते हो तो फिर तुम परमेश्वर के वचन पढ़ते ही क्यों हो? तुम्हें इन्हें पढ़ने की जरूरत नहीं है। तुम्हारी यह समस्या अब गंभीर हो चुकी है—परमेश्वर के वचनों को तुम दुष्ट मानव जाति के सांसारिक आचरण के फलसफे जैसा मान रहे हो, तुम इन्हें दुष्ट मानव जाति के ऐसे तरीकों जैसा मान रहे हो जिनसे वह चीजों और विचारों से निपटती है। तुम्हारी दृष्टि में परमेश्वर जिन ईमानदार लोगों की बात करता है वे बिल्कुल निष्कपट, बहुत बड़े मूर्ख और अनाड़ियों जैसे हैं। तुम परमेश्वर के कहे हर वचन की व्याख्या इंसानी शब्दावली से कर इसे दुष्ट मानव जाति की भ्रांतियों और कहावतों के समान मानते हो। तो क्या परमेश्वर के वचनों से तुम्हारा यह आशय है कि ये मनुष्य के शब्द, मनुष्य की भाषा और मनुष्य की भ्रांतियाँ और पाखंड हैं? परमेश्वर के वचनों को इस तरीके से समझकर तुम उन्हें समझ नहीं रहे हो; तुम उनके विरुद्ध ईश-निंदा कर रहे हो और तुम परमेश्वर की ईश-निंदा कर रहे हो।” क्या तुम सब लोग ये शब्द स्पष्ट रूप से कह पाओगे? अगर परमेश्वर के वचनों का वही अर्थ होता जो मसीह-विरोधी बताते हैं तो फिर परमेश्वर सीधे उन्हीं शब्दों को क्यों न कह देता? जब परमेश्वर लोगों को ईमानदार होने के लिए कहता है तो वह उन्हें बस निष्कपट और नेक बंदे होने की बात कहकर वहीं पर क्यों नहीं रुक जाता? क्या यह सिर्फ शब्दों का अंतर है? (नहीं।) परमेश्वर के वचन सत्य हैं और उन्हीं में लोगों के लिए अभ्यास का मार्ग निहित है। अगर लोग परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य करते और जीते हैं तो वे परमेश्वर का भय मानने वाले और बुराई से दूर रहने वाले लोग बन सकते हैं, ऐसे लोग बन सकते हैं जो परमेश्वर के इरादों के अनुरूप हैं। इस बीच मनुष्य जो कहते हैं उसके अनुसार कार्य करना और जीना व्यक्ति को पूर्ण रूप से भ्रमित इंसान बना देता है, ठेठ जीता-जागता शैतान बना देता है। क्या तुम लोग इस बिंदु को पहचानते हो? ईमानदार व्यक्ति होने के संबंध में परमेश्वर ने जो कहा है, अगर तुम लोगों ने उसके अनुसार कार्य और अभ्यास किया होता तो इसका नतीजा क्या होता? और मनुष्य जिसे नेक या निष्कपट व्यक्ति कहते हैं, अगर तुम लोग उसके अनुसार कार्य और अभ्यास करते हो तो उसका नतीजा क्या होता? क्या नतीजे अलग-अलग नहीं होते? (हाँ, होते।) तो फिर एक ईमानदार व्यक्ति के रूप में जीने का नतीजा क्या होता है? (सामान्य मानवता होना, परमेश्वर की आराधना कर पाना, खरी बातें करना और परमेश्वर के साथ बेबाक और साफ-दिल होना। अगर कोई व्यक्ति मनुष्यों की परिभाषा के अनुसार निष्कपट या नेक व्यक्ति के रूप में आचरण करता है तो वह अधिकाधिक चालाक और छद्मवेश धारण करने में कुशल होता जाता है, वह सिर्फ कर्णप्रिय बातें करता है, सांसारिक आचरण के शैतानी फलसफे के अनुसार जीता है और एक जीता-जागता शैतान बन जाता है।) तुम देखते हो कि अंतर है, है न? परमेश्वर जिसे ईमानदार व्यक्ति के अनुसार कार्य करना और जीना कहता है उससे मनुष्य का दिल अधिकाधिक शुद्ध बनता जाता है; उसका हृदय परमेश्वर के सामने खुलता जाता है और वह वेश बदले बिना, धोखाधड़ी किए बिना और मिथ्यारोपण के बिना परमेश्वर को अपना दिल दे सकता है। वह परमेश्वर से अपने दिल को छिपाता नहीं है, बल्कि निष्कपट होकर उसके सामने खोलकर रखता है; वह अपने अंदर जो सोचता है, उसे ही बाहर प्रकट करता और जीता है, और वह बाहर जो प्रकट करता है और जीता है वह उसी के अनुरूप होता है जो कुछ उसके अंदर है। यही परमेश्वर चाहता है; यही सत्य है। दूसरी ओर लोग जिन्हें निष्कपट या नेक बताते हैं उनके अपने आचरण के सिद्धांत और अभ्यास के सिद्धांत क्या होते हैं? दरअसल, सब कुछ छद्म आवरण है। वे जो कुछ सोच रहे होते हैं वह आसानी से कहते नहीं हैं, न वे किसी और को यह समझने देते हैं। वे दूसरों के आत्म-सम्मान या हितों को उतावले होकर चोट नहीं पहुँचाते, लेकिन दूसरों को नुकसान न पहुँचाने का उद्देश्य भी खुद को सुरक्षित रखना होता है। वे अंदर से सावधान रहते हैं और बाहर से छद्म आवरण ओढ़े रहते हैं, वे बहुत ही धर्मनिष्ठ, सहनशील, धैर्यवान और करुणावान दिखते हैं। लेकिन कोई नहीं समझ पाता कि वे अंदर से क्या सोच रहे हैं; उनके अंदर भ्रष्टता, प्रतिरोध और विद्रोह होता है लेकिन दूसरे लोग इन्हें देख नहीं पाते। बाहर से वे विशेष रूप से शिक्षाप्रद, सौम्य और दयालु होने का दिखावा करते हैं। वे चाहे कितनी ही बुरी चीजें करते हों या अंदर से वे चाहे कितने ही विद्रोही और दुष्ट हों, कोई नहीं जान पाता। बाहरी तौर पर वे दूसरों की मदद करने और जरूरतमंदों को दान देने को भी तैयार रहते हैं, हमेशा उत्तर देने के लिए तैयार रहते हैं, जीते-जागते ली फंग होते हैं। वे मुस्कराते हुए दूसरों को हमेशा अपना अच्छा पहलू दिखाते हैं और एकांत में उन्होंने चाहे कितने ही आँसू बहाए हों, दूसरों के सामने वे हमेशा मुस्कराते रहते हैं जिससे लोग शिक्षाप्रद महसूस करते हैं। क्या इसे ही लोग अच्छा व्यक्ति नहीं कहते? इस अच्छे व्यक्ति की तुलना एक ईमानदार व्यक्ति से की जाए तो इनमें सकारात्मक कौन है? किसके पास सत्य वास्तविकता होती है? (ईमानदार व्यक्ति के पास।) ईमानदार लोगों में सत्य वास्तविकता होती है, उन्हें परमेश्वर प्रेम करता है और वे परमेश्वर-अपेक्षित मानकों पर खरे उतरते हैं जबकि अच्छे और निष्कपट लोग ऐसा नहीं कर पाते; ये ठीक वही लोग हैं जिनकी परमेश्वर निंदा और तिरस्कार करता है। जब मसीह-विरोधी लोग परमेश्वर-अपेक्षित ईमानदार लोगों की सिर्फ अच्छे या निष्कपट लोगों के रूप में मनमानी व्याख्या करते हैं तो क्या यह परमेश्वर की कही बातों की एक तरह की सूक्ष्म निंदा नहीं है? क्या यह परमेश्वर के वचनों की ईश-निंदा नहीं है? क्या यह सत्य की ईश-निंदा नहीं है? यह एक स्पष्ट तथ्य है। मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों को नहीं समझते, सत्य क्या है यह तो बिल्कुल भी नहीं समझते, फिर भी वे दोषपूर्ण तर्कों का सहारा लेकर बिना सोचे-समझे अपनी व्याख्याएँ लागू करते हैं, जब उन्हें कुछ समझ में नहीं आता तो वे समझ का दिखावा करते हैं, परमेश्वर के वचनों की मनमाने ढंग से ऊटपटाँग व्याख्या करते हैं और दूसरों को गुमराह और बाधित करते हैं। क्या तुम लोग इस तरह से पेश आओगे? परमेश्वर के वचनों को स्पष्ट रूप से न समझते हुए भी इन्हें समझने का दिखावा करना और अपनी शाब्दिक समझ के आधार पर परमेश्वर के वचनों की व्याख्या करने और सीमा निर्धारित करने के लिए अपनी शब्दावली, अभिव्यक्तियों और दृष्टिकोणों का उपयोग करना—यही मसीह-विरोधियों का स्वभाव होता है।
परमेश्वर और मनुष्य के वचनों में और सत्य और धर्म-सिद्धांत में सारभूत अंतर क्या होता है? परमेश्वर के वचनों के कारण लोग विवेक और जमीर में, सिद्धांत के साथ कार्य करने में, विकास हासिल करते हैं, और वे जो जीते हैं उसमें सकारात्मक चीजों की वास्तविकता से ज्यादा-से-ज्यादा लैस होते हैं। दूसरी ओर, इंसान के शब्द लोगों की रुचियों और धारणाओं के साथ पूरी तरह से सही बैठते हुए प्रतीत हो सकते हैं, लेकिन वे सत्य नहीं होते, वे छिपे हुए जालों, प्रलोभनों, पाखंडों और भ्रांतियों से छलकते हैं, और इसलिए यदि लोग इन शब्दों के अनुसार काम करते हैं, तो वे जो जीवन जीते हैं वह परमेश्वर से, और परमेश्वर के मानकों से, और भी दूर भटक जाएगा। इससे भी अधिक गंभीर बात यह है कि लोगों के जीने का तरीका और भी अधिक बुरा और शैतान जैसा हो जाएगा। जब लोग पूरी तरह से इंसान के पाखंडों और भ्रांतियों के द्वारा जीते और कार्य करते हैं, जब वे इन तर्कों को पूरी तरह से गले लगा लेते हैं, तो वे शैतान की तरह जीते हैं। और क्या शैतान की तरह जीने का मतलब यह नहीं होता कि वे शैतान ही हैं? (बिल्कुल।) इसलिए वे “सफलतापूर्वक” जीते-जागते शैतान बन गए हैं। कुछ लोग कहते हैं, “मैं इसे नहीं मानता। मैं तो बस एक ऐसा निष्कपट व्यक्ति बनना चाहता हूँ, जिसे दूसरे लोग पसंद करें। मैं तो एक ऐसा व्यक्ति बनना चाहता हूँ जिसे ज्यादातर लोग अच्छा मानते हों, और फिर मैं देखूँगा कि परमेश्वर मुझसे खुश होता है या नहीं।” यदि परमेश्वर जो कहता है उसे तुम नहीं मानते हो, तो जाओ और निगाहें डालो, और—देखो कि क्या परमेश्वर के वचन सत्य हैं या मनुष्य की धारणाएँ सत्य हैं। यह परमेश्वर के वचनों और मनुष्य के शब्दों का सारभूत अंतर है। यह सत्य और पाखंडों तथा भ्रांतियों के बीच का सारभूत अंतर है। चाहे पाखंड और भ्रांतियाँ लोगों की रुचियों के साथ कितने भी मिलते हों, वे कभी उनका जीवन नहीं बन सकते हैं; इस बीच, चाहे परमेश्वर के वचन कितने भी सरल प्रतीत होते हों, कितने भी देसी, लोगों की धारणाओं के साथ चाहे कितने भी बेमेल लगते हों, लेकिन उनका सार सत्य होता है, और अगर लोग जो करते हैं और जीते हैं, वो परमेश्वर के वचनों के सिद्धांतों के अनुसार हो, तो अंततः, एक दिन वे मानक-स्तर के सच्चे सृजित प्राणी बन जाएँगे, और वे परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में सक्षम होंगे। इसके उलट अगर लोग परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास नहीं करते और परमेश्वर की माँगों के अनुसार कार्य नहीं करते हैं तो वे मानक-स्तर के सृजित प्राणी नहीं बन सकते हैं। उनके क्रियाकलापों और वे जिस मार्ग पर चलते हैं उसका परमेश्वर तिरस्कार ही करेगा : यह एक तथ्य है। इस संगति के जरिए क्या तुम लोगों को परमेश्वर के वचनों की नई समझ या अवधारणा मिली है? परमेश्वर के वचन क्या हैं? वे सत्य, मार्ग और जीवन हैं—इसमें कोई झूठापन नहीं है। जन्मजात रूप से सकारात्मक चीजों से विमुख रहने वाले और इनसे नफरत करने वाले मसीह-विरोधी ही परमेश्वर के वचनों से तिरस्कारपूर्ण व्यवहार करते हैं, वे परमेश्वर के वचनों को सत्य नहीं मानते और वे इस तथ्य को नकारते हैं कि परमेश्वर के वचन सत्य, मार्ग और जीवन हैं। वे परमेश्वर के वचनों को कभी भी अपना जीवन नहीं मानेंगे; वे लोगों का ऐसा समूह हैं जिसे बचाया नहीं जा सकता। ऐसी संगति के बाद कुछ लोग समझते हैं कि ये अभिव्यक्तियाँ परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ और उनकी मनमानी व्याख्या के बराबर हैं, जो मसीह-विरोधियों की अभिव्यक्तियाँ होती हैं। क्या तुम लोग कहते हो कि इसमें वे लोग भी शामिल हैं जो परमेश्वर के वचनों को व्यवस्थित करते हैं? (हाँ।) वाकई? छेड़छाड़ करने का क्या अर्थ होता है? (इसका अर्थ है मनमाने ढंग से कोई बात हटा या जोड़ देना, परमेश्वर के वचनों का मूल अर्थ बदल देना। यह छेड़छाड़ है। अगर उसके वचनों को सिद्धांतों के अनुरूप व्यवस्थित किया गया है तो फिर यह छेड़छाड़ नहीं है।) सही कहा, तुम्हें यही बात समझने की जरूरत है। इस समझ के साथ जब तुम लोग परमेश्वर के वचनों को व्यवस्थित करोगे तो तुम्हें कोई चिंता नहीं होगी, है न? क्या तुम अब सिद्धांतों में ठीक से माहिर हो सकते हो? जब तुम लोगों को व्यवस्थित करने को कहा जाता है तो यह तुम्हें छेड़छाड़ करने का न्योता देना नहीं होता। ऐसे भी लोग हैं जो अनुवाद का कार्य करते हैं—इन लोगों से परमेश्वर के वचनों का सीधा अनुवाद करने और परमेश्वर के वचनों के मूल अर्थ का और परमेश्वर के अपने ही वचनों का दूसरी भाषा में अनुवाद करने को कहा जाता है, न कि अनुवाद के दौरान परमेश्वर के वचनों की व्याख्या करने को कहा जाता है। तुम इस योग्य नहीं हो कि व्याख्या कर सको और तुम्हें इस बात पर ध्यान देना चाहिए और सावधानी बरतनी चाहिए। सिद्धांतों में अच्छी तरह माहिर होना, यह समझना कि किसे छेड़छाड़ माना जाता है और किसे नहीं—इन सिद्धांतों में माहिर हो जाओ, फिर ऐसी गलतियाँ करना कठिन होगा। अगर तुम इन सिद्धांतों को नहीं समझते और व्यवस्थित करते समय हमेशा अर्थ जोड़ना या बदलना चाहते हो, हमेशा यह सोचते हो कि परमेश्वर के कहने का तरीका बहुत आदर्श नहीं है या उसके कहने का तरीका अनुचित लगता है, यह सोचते हो कि इसे किसी खास ढंग से कहना चाहिए तो फिर ऐसे विचारों के कारण तुम छेड़छाड़ की गलती की ओर उन्मुख हो जाओगे। जहाँ तक उन अनुवादकों की बात है जो यह कहते हैं कि “मैं जानता हूँ कि परमेश्वर के वचनों के इस वाक्य का अर्थ क्या है, इसलिए मैं उसी अर्थ के आधार पर इसका अनुवाद करूँगा। एक बार इसका अनुवाद हो जाए तो क्या पाठक इसे समझ नहीं लेगा और बात खत्म? खोजने या प्रार्थना-पाठ करने की जरूरत नहीं होगी; वे सीधे प्रबोधन और रोशनी प्राप्त कर लेंगे”—क्या यह गलती नहीं है? इससे सिद्धांतों का उल्लंघन होता है; यह परमेश्वर के वचनों की मनमाने ढंग से व्याख्या करना है। संक्षेप में कहें तो परमेश्वर के वचनों के साथ कभी भी ऐसा व्यवहार मत करो जैसा तुम मनुष्य के शब्दों के साथ करते हो, यह मत मानो कि ये कोई उपन्यास हैं, किसी मशहूर व्यक्ति का लेखन हैं या किसी विद्वतापूर्ण चर्चा से संबंधित कोई चीज हैं। इनके साथ छेड़छाड़ न करने या मनमाने ढंग से व्याख्या न करने के अलावा व्यक्ति को परमेश्वर के वचनों को खाते-पीते और इनका प्रार्थना-पाठ करते समय इन्हें खोज, स्वीकृति और समर्पण के रवैये के साथ लेना चाहिए। केवल तभी व्यक्ति सत्य को समझ सकता है, परमेश्वर के इरादे समझ सकता है, परमेश्वर के वचनों में अभ्यास का मार्ग पा सकता है और अपने भ्रष्ट स्वभाव और उन विभिन्न कठिनाइयों का समाधान कर सकता है जिनका सामना अपना कर्तव्य निभाते हुए और जीवन में होता है। यह नतीजा हासिल करने से साबित होता है कि परमेश्वर के वचनों के प्रति तुम्हारा रवैया सही है। मसीह-विरोधियों की परमेश्वर के वचनों का तिरस्कार करने की पहली अभिव्यक्ति—मनमाने ढंग से परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ और उनकी व्याख्या करने—पर हमारी संगति इसी बिंदु पर समाप्त होती है।
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