मद दस : वे सत्य का तिरस्कार करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग चार) खंड तीन

यह विचार करो और भेद पहचानो कि नीचे दी गई स्थिति मसीह-विरोधियों की पहले बताई जा चुकी किस अभिव्यक्ति की श्रेणी में आती है। एक अगुआ रोज सवेरे से साँझ तक काम करता था और काफी जिम्मेदार लगता था। फिर भी वह कभी-कभार ही दिखता था, जिससे यह आभास होता था कि वह काम में बहुत व्यस्त है, संभवतः निठल्ला नहीं है और लगता है अपने कर्तव्य निभाने के लिए कीमत चुका रहा है। बाद में जब आवासीय परिसर और आँगन में काम करना था तो हमने काम में उसका मार्गदर्शन करने के लिए किसी की व्यवस्था की। जब हम आसपास नहीं होते थे तो उसे मार्गदर्शन में मदद करने और काम के प्रति जिम्मेदार होने के लिए आगे आना चाहिए था; उसे पहल करनी चाहिए थी। क्या यह उचित और उपयुक्त बात नहीं है? क्या मुझे इन घरेलू दैनिक कार्यों और कामों की देखरेख के लिए हमेशा वहाँ रहना चाहिए? (नहीं।) अधिकांश समय इस प्रकार के श्रमसाध्य काम वास्तव में सत्य को स्पर्श नहीं करते हैं। लोगों को केवल लगन से काम करना होता है, विनाशकारी कार्यों में लिप्त नहीं होना होता है, आज्ञाकारी बनना होता है और जो कहा गया है वह करना होता है—यह सरल और आसानी से साध्य है। बाद में जब उस क्षेत्र के कार्य मुख्य रूप से पूरे हो गए, लेकिन अभी प्रबंधन करते रहने की जरूरत थी तो मैंने इस अगुआ को जिम्मेदारी सौंप दी। मैंने उससे क्षेत्र में साफ-सफाई रखने और यह सुनिश्चित करने के लिए कहा कि रखरखाव की जरूरत वाली हर चीज का अच्छी तरह ख्याल रखा जाए। इसमें मुख्य रूप से दो बातें थीं : एक, अंदर-बाहर सभी स्थिर जगहों और कमरों को साफ-सुथरा और व्यवस्थित रखें। दूसरा, पौधों की अच्छी देखभाल करें; उदाहरण के लिए, नए रोपे गए पौधों को पानी दें ताकि वे मर न जाएँ, मौसम और उनकी बढ़त के अनुरूप जरूरत के अनुसार उनकी काट-छाँट करें और जरूरत पड़ने पर उनमें खाद डालें। केवल ये दो काम थे—क्या तुम लोगों को लगता है कि यह बहुत ज्यादा है? क्या यह थकाऊ हो सकता है? (नहीं।) ये दो काम अधिक नहीं हैं; बस भोजन के बाद टहलते हुए कोई इन्हें पूरा कर सकता है। यही नहीं, क्या तुम्हें अपने रहने के परिवेश का भी ध्यान नहीं रखना है? एक इंसान के रूप में इसी तरह जीना होता है; इस प्रकार के काम सामान्य मानव जीवन के लिए अनिवार्य हैं। तुम्हें अपने रहने के परिवेश का प्रबंधन स्वयं करना होता है। अगर तुम ऐसा नहीं करते तो तुम जानवरों से अलग नहीं हो। क्या तब भी तुम्हें मानव कहा जा सकता है? जानवर अपने परिवेश का प्रबंधन नहीं करते; उनके पास अपनी शारीरिक जरूरतों के लिए तय जगह नहीं होती है, न ही उनके लिए खाने और सोने के पक्के ठिकाने होते हैं। इस लिहाज से इंसान जानवरों से श्रेष्ठ हैं; इंसान अपने परिवेश का प्रबंधन करते हैं, स्वच्छता का ख्याल रखते हैं और अपने परिवेश के लिए मानक अपनाते हैं। इसलिए उससे मेरी अपेक्षा कोई बहुत ज्यादा नहीं थी, है ना? (सही कहा।) ये काम सौंपकर मैं दूसरी जगह चला गया और फिर अमुक कार्य अगुआ को लागू करना था। एक दिन मैं यह जाँचने पहुँच गया कि वहाँ के परिवेश का प्रबंधन कैसे किया जा रहा है तो रास्ते भर वहाँ का परिवेश देखकर मेरा मन बहुत खिन्न हो गया, मुझे चिड़चिड़ाहट होने लगी और गुस्सा आने लगा! तुम लोग क्या सोचते हो क्या हुआ होगा? मन में इस प्रकार की भावनाएँ क्यों आई होंगी? (उसने परमेश्वर की आज्ञाओं और व्यवस्थाओं को कार्यान्वित नहीं किया।) बिल्कुल सही कहा, यह बताने का यही एकमात्र तरीका है—उसने उन्हें क्रियान्वित नहीं किया। जिस दौरान मैं बाहर था, तब मौसम ज्यादा शुष्क नहीं था, लेकिन नए रोपे गए कई पौधों की पत्तियाँ पीली पड़ चुकी थीं, कुछ तो झड़ने भी लगी थीं। भड़काने वाली बात तो यह थी कि दो प्रसिद्ध फूलदार पेड़ों के हरे-भरे पत्ते बैंगनी-लाल, लगभग पीले पड़ चुके थे। क्या यह सुनकर तुम लोगों को गुस्सा आता है? इससे भी ज्यादा भड़काने वाली बात यह थी कि प्रवेशद्वार पर सीमेंट से बना चबूतरा टोकरियों, प्लास्टिक की थैलियों, कूड़े-कचरे, लकड़ी के टुकड़ों, कीलों, औजारों से अटा पड़ा था—सब कुछ बिखरा हुआ था, गंदा और अस्त-व्यस्त नजारा था! यह देखकर कौन नहीं भड़केगा? केवल एक किस्म के लोग नहीं भड़केंगे—वे जो जानवरों की श्रेणी में आते हैं, जिनके पास अपने परिवेश को लेकर मानक नहीं हैं या जो इस बारे में संवेदनशील नहीं हैं, जो बदबू, साफ-सफाई या सुख के प्रति उदासीन हैं और जो अच्छे-बुरे के बारे में निपट अनजान हैं। अपने परिवेश के लिए मानक और सोचने की क्षमता रखने वाला कोई भी सामान्य मानवतायुक्त व्यक्ति ऐसी स्थिति देखकर क्रोधित हो जाएगा। वहाँ लोगों का एक बड़ा समूह रहता था, फिर भी वे यह छोटा-सा काम नहीं सँभाल पाए। ये किस तरह के लोग हैं? मेरे निर्देश देने के बाद भी वे उनसे इसी तरीके से पेश आए, उन्होंने यही किया। यहाँ परिवेश का प्रबंधन करना और इन कुछ चीजों का ख्याल रखना कोई थकाऊ काम नहीं है, है ना? यह तुम्हारी किसी भी गतिविधि में बाधा नहीं डालता है, है कि नहीं? यह तुम्हारी सभाओं, प्रार्थनाओं या परमेश्वर के वचनों का पाठ करने को प्रभावित नहीं करता है, है ना? तो फिर इसे क्यों नहीं किया जा सकता? जब मैं आसपास होता हूँ, खुद देखरेख और निगरानी करता हूँ तो ये लोग कुछ कार्य कर लेते हैं, लेकिन जैसे ही मैं चला जाता हूँ वैसे ही वे रुक जाते हैं; कोई भी जिम्मेदारी नहीं लेता। यहाँ क्या चल रहा है? क्या वे इस जगह को अपना घर मानते हैं? (नहीं।) वे अभी भी कहते हैं कि मसीह का राज्य उनका गर्मजोशी भरा घर है, लेकिन क्या वे वास्तव में ऐसा सोचते हैं? क्या वे वास्तव में ऐसे ही कार्य करते हैं? नहीं। वे जिस परिवेश में रहते हैं, उसका प्रबंधन भी नहीं करते। मेरे निर्देश देने के बाद भी न तो कोई जिम्मेदारी लेता है, न ही कोई परवाह करता है। जब उन्हें काम करने को कहा जाता है तो वे जरा-सा काम करते हैं, लेकिन काम पूरा करने के बाद वे अपने औजारों को लापरवाही से एक तरफ फेंककर सोचते हैं, “जिसे परवाह है, वही इससे निपटे, इससे मेरा सरोकार नहीं है। अगर मेरे पास भोजन और आश्रय है, तो मैं ठीक हूँ।” यह कैसी मानवता है? यह कैसी नैतिकता है? क्या ऐसे व्यक्ति में लेशमात्र भी सामान्य मानवता होती है? इतने बरसों तक परमेश्वर में विश्वास रखकर भी अपने में कोई बदलाव न लाना सचमुच समझ से परे बात है! मैंने तुम लोगों के लिए ये चीजें करने के लिए, सारी चीजों की इतनी अच्छी व्यवस्था करने के लिए इतनी ज्यादा मेहनत की है। मैं तो यहाँ नहीं रहता, मुझे इसका कोई आनंद नहीं मिलता—यह सब तुम लोगों के लिए है। तुम लोगों को एहसान मानने की जरूरत नहीं है; बस अपने रहन-सहन वाले परिवेश का प्रबंधन करो, इतना ही ठीक है—ऐसा करना इतना कठिन क्यों है? बाद में मुझे यह एहसास हुआ कि इस व्यवहार के पीछे एक कारण है। लोग परमेश्वर के घर में चाहे अपने परिवार और करियर को पीछे छोड़कर आए हों या अपनी पढ़ाई और भविष्य की संभावनाओं को छोड़कर आए हों, वे अपना कर्तव्य निभाने के लिए यहाँ आते हैं, न कि मेरे लिए दीर्घकालिक कार्यकर्ता बनने के लिए। क्यों? उन्हें एक भी पैसा नहीं मिलता, इसलिए वे मेरी बात क्यों सुनें? वे मेरे लिए परिवेश का प्रबंधन क्यों करें? वे मेरे लिए यह प्रयास क्यों खपाएँ? वे इसी तरह सोचते हैं। उन्हें लगता है कि अपना काम ठीक से करना और अपने कर्तव्य अच्छी तरह निभाना ही काफी है, कि अपने कार्यक्षेत्र के मामलों का ख्याल रखने से उनकी जिम्मेदारियाँ पूरी हो जाती हैं। मैं अलग से कोई भी चीज करने के लिए कहूँ और अगर यह उनके कर्तव्य और पेशे से संबंधित हो, तो वे उस पर विचार कर सकते हैं, लेकिन बाकी चीजें करने के लिए मुझे किसी और को ढूँढ़ना चाहिए। यहाँ निहित संदेश यह है, “हम राज्य के लोग हैं; हम इतना गंदा और थकाऊ काम कैसे कर सकते हैं? हम श्रेष्ठ मनुष्य हैं; हमसे हमेशा कमतर और अपमानजनक काम करवाने से हमारी छवि बिगड़ती है! हमारी एक खास पहचान है, तुम हमारे लिए चीजें मुश्किल क्यों बनाते रहते हो?” यह बात समझने के बाद मुझे इस बारे में कुछ अंतर्दृष्टि मिली कि अधिकतर लोग काम करने के प्रति विमुख, प्रतिरोधी और अनिच्छुक क्यों रहते हैं, वे क्यों अपनी तुलना दूसरों से करते हैं और काम करते समय वे अपने कर्तव्यों से बचने के लिए चालाकी का सहारा क्यों लेते हैं—इसका कारण यह है कि अधिकतर लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं। सत्य का अनुसरण न करना एक आम कथन है, लेकिन वास्तविकता में बहुत-से लोगों में आरामतलबी और कार्य से नफरत करने की सहज प्रवृत्ति होती है। वे हर दिन जैसे-तैसे दिन काटने की अपनी मानसिकता से नियंत्रित होने के साथ ही यह मानते हैं कि सत्य का अनुसरण करने का मतलब एक साथ बैठना, बातचीत और चर्चा करना है, ठीक उसी तरह जैसे बड़े लाल अजगर के राष्ट्र में होता है जहाँ लोग निरंतर बैठकें करते हैं, अखबार पढ़ते रहते हैं और चाय की चुस्कियाँ लेते रहते हैं—इसे ही वे परमेश्वर में विश्वास रखना और अपना कर्तव्य निभाना मानते हैं। जैसे ही किसानों की तरह काम और मजदूरी करने का सवाल उठता है, बहुत-से लोग सोचते हैं कि इस तरह के जीवन यापन से हम ईसाइयों का कोई लेना-देना नहीं है। एक ईसाई का जीवन “तुच्छ सुखों” से दूर होता है। निहितार्थ से वे मानते हैं कि वे संसार के नीरस कार्यों से ऊपर हैं—साफ-सफाई, कीट नियंत्रण, खेती-बाड़ी, काट-छाँट, फूल-पौधे लगाना, इत्यादि, ये सब उनसे जुड़े कार्य नहीं हैं; वे बहुत पहले ही ऐसी तुच्छ जीवनशैली से परे निकल चुके हैं। क्या अधिकतर लोगों की यही दशा नहीं है? (हाँ।) क्या इस प्रकार की दशा को सुधारना आसान है? कुछ लोगों को जब मशीनरी चलाना सीखने के लिए कहा जाता है तो वे इसे गंभीरता से नहीं लेते और जानबूझकर इसे गलत ढंग से चलाते भी हैं जिससे कुछ ही दिनों में मशीन खराब हो जाती है। नई खरीदी गई मशीनें टूट जाती हैं और मरम्मत की लागत सस्ती नहीं होती है। वे सोचते हैं : “क्या तुमने मुझे सीखने के लिए नहीं कहा था? अब जबकि मुझसे मशीन टूट गई और कोई दूसरी मशीन भी नहीं है तो मेरे पास आराम फरमाने का बहाना है, है ना? मुझे अब और काम नहीं करना पड़ेगा, है कि नहीं? तुम मुझे सीखने के लिए कहते रहे और इसका यह नतीजा निकला। क्या तुम यही देखना चाहते थे?” कुछ मशीनों की मरम्मत की लागत लगभग उतनी ही अधिक होती है जितनी नई मशीनों की कीमत। कुछ लोगों को ऐसी गलतियाँ करने के बावजूद बिल्कुल बुरा नहीं लगता या ग्लानि नहीं होती है। जब तुम इसकी तुलना पहले चर्चा में आ चुकी इस धारणा से करते हो कि “परमेश्वर के घर का एक भी पैसा खर्च न करना क्योंकि यह परमेश्वर का चढ़ावा है,” तो कौन-सा कथन ईमानदारी से कहा गया है और कौन-सा व्यवहार वास्तविकता है? वे मशीनरी को बर्बाद कर देते हैं और दो-चार बार मरम्मत कराने की लागत एक नई मशीन खरीदने के बराबर होती है। यह फिजूलखर्ची का व्यवहार वास्तविकता है जबकि चढ़ावे को फिजूलखर्च न करने का कथन झूठा, कपटपूर्ण और भ्रामक है। अगर हमें पहले वाले उदाहरण को एक मसीह-विरोधी के स्वभाव या सार के तहत श्रेणीबद्ध करना होता तो इसका संबंध आज की चर्चा के किस पहलू से होता? इसे किस पहलू के तहत रखा जाएगा? वे कहते हैं, “मैं यहाँ अपना कर्तव्य निभाने आया हूँ, तुम्हारा दीर्घकालिक मजदूर बनने नहीं।” क्या यह कथन सही है? तुम यहाँ अपना कर्तव्य निभाने तो आए हो लेकिन यह किसने तय किया कि इस कर्तव्य में क्या-क्या शामिल है और क्या शामिल नहीं है? क्या ये काम तुम्हारे उस कार्य का हिस्सा नहीं हैं, जो तुम्हें करना चाहिए? जैसा कि दैनिक जीवन में होता है, ठीक उसी तरह अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए पैसे कमाने बाहर जाना तुम्हारी जिम्मेदारी है। अगर तुम्हें साग-सब्जियाँ चाहिए और तुम इन्हें खुद उगाना तय करते हो, तो यह तुम्हारी अपनी पसंद है, लेकिन क्या इसका यह मतलब है कि दूसरे घरेलू काम तुम्हारी जिम्मेदारी नहीं हैं? यह कथन सही है कि तुम यहाँ अपना कर्तव्य निभाने आए हो लेकिन यह कहना कि तुम यहाँ दीर्घकालिक मजदूर बनने नहीं आए हो, समस्याजनक है। “दीर्घकालिक मजदूर” का क्या अर्थ है? तुम्हें ऐसा कौन मान रहा है? तुम्हें दीर्घकालिक मजदूर कोई नहीं मानता और ये काम करके या थोड़ा-सा प्रयास करके तुम ऐसा नहीं बन जाते। मैं तुम्हें दीर्घकालिक मजदूर के रूप में नहीं देखता, न ही परमेश्वर का घर इस रूप में तुम्हारा उपयोग करता है। तुम वह कार्य करते हो जो तुम्हारी जिम्मेदारी है; ये सभी तुम्हारे कर्तव्य के दायरे में आते हैं। छोटे पैमाने पर इसका संबंध तुम्हारे दैनिक जीवन को बनाए रखने, तुम्हारे शारीरिक स्वास्थ्य और सामान्य शारीरिक कार्यों को सुनिश्चित करने और यह सुनिश्चित करने से है कि तुम अच्छी तरह से जियो। बड़े पैमाने पर देखें तो हर काम परमेश्वर के कार्य को फैलाने से संबंधित है। तो फिर तुम इनमें से कुछ काम करने के लिए क्यों तैयार हो लेकिन दूसरे काम नहीं? तुम अपनी पसंद के आधार पर क्यों चुनते हो? तुम थोड़ा-सा प्रयास करने, कुछ साफ-सफाई करने और अपने परिवेश का प्रबंधन करने को एक दीर्घकालिक मजदूर का काम, मामूली मजदूरी क्यों मानते हो? इसके पीछे एक कारण है : जब मसीह की आज्ञाओं और उसकी सभी अपेक्षाओं की बात आती है तो लोग जो काम करना चाहते हैं उन्हें अपने कर्तव्य का हिस्सा मानते हैं जबकि वे जो काम करने के इच्छुक नहीं होते या जिन कामों का प्रतिरोध करते हैं उन्हें दीर्घकालिक मजदूर का काम मान लेते हैं। क्या यह तथ्यों को तोड़ना-मरोड़ना नहीं कहलाएगा? यह लोगों की समझ में विचलन है। यह विचलन किस कारण से होता है? लोगों की प्राथमिकताएँ। और ये प्राथमिकताएँ किस ओर झुकती हैं? वे इस बात पर निर्भर करती हैं कि देह को कष्ट होता है या नहीं। अगर देह को सुख नहीं मिल सकता, अगर उसे कठिनाई या थकान होती है तो लोग प्रतिरोधी बन जाते हैं। वे जो काम करने के इच्छुक होते हैं, जो काम आकर्षक और सम्मानजनक होते हैं, उन्हें बेमन से स्वीकार कर अपना कर्तव्य निर्वहन मान लेते हैं। क्या इस रवैये को मसीह का विरोध करने की श्रेणी में रखा जा सकता है? लोग जिन कामों को करने के इच्छुक नहीं होते उनका दृढ़ता से विरोध करते हैं और इन्हें करने से इनकार कर देते हैं; चाहे तुम कितना ही अच्छा तर्क दे दो, वे बस इनकार कर देते हैं और विरोध करते हैं। क्या लोगों की इन दशाओं और समस्याओं का समाधान आसान है? यह सब इस पर निर्भर करता है कि कोई व्यक्ति सत्य से कितना प्रेम करता है। अगर कोई व्यक्ति सत्य से बिल्कुल भी प्रेम नहीं करता और उससे विमुख होता है तो वह कभी नहीं बदलेगा। लेकिन अगर तुममें कष्ट सहने का संकल्प है, तुम देह के विरुद्ध विद्रोह कर सकते हो और तुममें वास्तविक समर्पण और समर्पण का रवैया है तो इन मसलों को आसानी से पूरी तरह पलटा जा सकता है, है ना? (बिल्कुल।) व्यक्ति के जीवन में कोई कार्य न करने जैसी कोई चीज नहीं होती। कुछ लोग कहते हैं, “अतीत में सम्राट कोई कार्य नहीं करते थे।” क्या यह वास्तव में सच है? अधिकतर सम्राटों ने अपने सारे दिन राजमहल की जिंदगी के मजे लेने में नहीं बिताए। कुछ सम्राट कम उम्र में ही कविता और साहित्य का अध्ययन करने लगे थे और सवेरे से शाम तक कार्य करते थे। राजगद्दी सँभालने के बाद वे लोगों का दुख-दर्द समझने के लिए गुप्त दौरे किया करते थे और राष्ट्रीय संकट के समय में कुछ सम्राट रणक्षेत्र में भी उतर जाते थे। भले ही ऐसे सम्राटों की संख्या ज्यादा नहीं थी, फिर भी कुछ तो ऐसे अवश्य थे। जैसा कि कुछ लोग मानते हैं, ऐसे सम्राट भी थे जिन्होंने बहुत कम या कुछ भी काम नहीं किया, लेकिन उनकी संख्या बहुत कम थी। जो व्यक्ति कोई भी उचित कार्य नहीं करता, फिर भी सर्वोत्तम चीजों का ही मजा लेने के ख्वाब देखता है, तो वह केवल सपने देख रहा है।

बहुत-से लोगों को शारीरिक श्रम करना हमेशा नीच काम लगता है। क्या यह नजरिया सही है? ऐसे लोग भी हैं जो इस तरह के प्रयास को मजदूरी के रूप में देखते हैं, वे मानते हैं कि केवल अगुआओं और कार्यकर्ताओं का कलीसिया का कार्य करना ही कर्तव्य का निर्वहन माना जाता है—क्या ऐसी समझ सही है? (नहीं।) तुम्हें इस मामले को इस तरह समझना चाहिए : परमेश्वर लोगों से जो भी कार्य करने की अपेक्षा करता है वह सब करने के लिए और परमेश्वर के घर में सभी प्रकार के तमाम कार्य करने के लिए लोगों की जरूरत पड़ती है—ये सारे ही काम लोगों के कर्तव्य माने जाते हैं। लोग चाहे कोई भी कार्य करें, यह वह कर्तव्य है जो उन्हें निभाना चाहिए। कर्तव्यों का दायरा बहुत व्यापक होता है और इसमें कई क्षेत्र शामिल होते हैं—लेकिन तुम चाहे कोई भी कर्तव्य निभाओ, सीधे तौर पर कहें तो यह तुम्हारा दायित्व है और यह तुम्हें करना चाहिए। अगर तुम उसे अपने दिल से अच्छी तरह निभाने का प्रयास करोगे, तो परमेश्वर तुम्हारा अनुमोदन करेगा और तुम्हें परमेश्वर का सच्चा विश्वासी मानेगा। तुम चाहे कोई भी हो, अगर तुम अपने कर्तव्य से बचने या जी चुराने की कोशिश करोगे, तो फिर यह समस्या है। नरमी से कहा जाए तो तुम बहुत आलसी हो, बहुत धूर्त हो, तुम निठल्ले और आरामपसंद हो और श्रम से घृणा करते हो। इसे अधिक गंभीरता से कहा जाए तो तुम अपना कर्तव्य निभाने के इच्छुक नहीं हो और तुममें कोई वफादारी या समर्पण नहीं है। यदि तुम इस छोटे-से कार्य का जिम्मा लेने के लिए शारीरिक प्रयास भी नहीं कर सकते, तो तुम क्या कर सकते हो? तुम ठीक से क्या करने में सक्षम हो? यदि कोई व्यक्ति वास्तव में अपने कर्तव्य के प्रति वफादार है और उसमें जिम्मेदारी की भावना है, तो अगर परमेश्वर किसी चीज की अपेक्षा करता है, अगर परमेश्वर के घर को किसी चीज की आवश्यकता है, तो वह अपनी पसंद देखे बिना वो सब-कुछ करेगा जो उससे करने के लिए कहा जाता है। क्या यह कर्तव्य-निर्वहन का ही एक सिद्धांत नहीं है कि व्यक्ति जो कुछ भी करने में सक्षम है और जो कुछ उसे करना चाहिए, वह उसकी जिम्मेदारी ले और उसे अच्छी तरह करे? (हाँ।) बाहर शारीरिक श्रम करने वाले कुछ लोग इससे असहमत होकर कहते हैं, “तुम लोग तो सारा दिन अपने कमरे में हवा और धूप से सुरक्षित रहकर अपना कर्तव्य निभाते हुए बिताते हो। इसमें जरा भी कठिनाई नहीं होती, तुम्हारा कर्तव्य हमारी तुलना में बहुत आरामदेह है। खुद को हमारी परिस्थिति में रखो, तो देखें क्या तुम बाहर चलती हवा और बारिश में रहना और कई घंटे काम करना सह सकते हो।” वास्तव में, हर कार्य में कुछ कठिनाई रहती है। शारीरिक श्रम में शारीरिक कठिनाई रहती है और मानसिक श्रम में मानसिक कठिनाई; हर एक की अपनी कठिनाइयाँ हैं। हर चीज कहनी आसान है, करना कठिन। जब लोग वास्तव में किसी काम की जिम्मेदारी लेते हैं, तो एक लिहाज से यह महत्वपूर्ण है कि उनका चरित्र कैसा है और दूसरे लिहाज से, क्या वे सत्य से प्रेम करते हैं या नहीं। पहले चरित्र के बारे में बात करते हैं। यदि व्यक्ति अच्छे चरित्र का है, तो वह हर चीज का सकारात्मक पक्ष देखता है, और चीजों को सकारात्मक दृष्टिकोण से और सत्य के आधार पर स्वीकार करने और समझने में सक्षम होता है; अर्थात् उसका हृदय, चरित्र और आत्मा ईमानदार हैं—यह चरित्र के दृष्टिकोण से है। इसके बाद, चलो हम दूसरे पहलू के बारे में बात करें—वह सत्य से प्रेम करता है या नहीं। सत्य से प्रेम करने का अर्थ सत्य को स्वीकार करने में सक्षम होना है अर्थात् चाहे तुम परमेश्वर के वचनों को समझते-बूझते हो या नहीं, और चाहे तुम परमेश्वर का इरादा समझते हो या नहीं, चाहे उस कार्य के बारे में, उस कर्तव्य के बारे में जिसे निभाने की तुमसे अपेक्षा की जाती है, तुम्हारा विचार, मत और दृष्टिकोण सत्य के अनुरूप हो या नहीं, अगर तुम फिर भी उसे परमेश्वर से स्वीकार लेते हो, और आज्ञाकारी और ईमानदार हो, तो यह काफी है, यह तुम्हें अपना कर्तव्य निभाने के योग्य बनाता है, और यह न्यूनतम अपेक्षा है। अगर तुम आज्ञाकारी और ईमानदार हो, तो कोई कार्य करते हुए तुम लापरवाह नहीं रहोगे और धोखेबाजी से ढिलाई नहीं बरतोगे, बल्कि उसमें अपना सारा दिल और शक्ति झोंक दोगे। अगर व्यक्ति की भीतरी दशा खराब है और उनमें नकारात्मकता पैदा होती है, तो उनका जोश ठंडा पड़ जाता है और वे लापरवाह होना चाहते हैं; वे अपने हृदय में अच्छी तरह जानते हैं कि उनकी दशा ठीक नहीं है, फिर भी वे सत्य को खोजकर उसे ठीक करने की कोशिश नहीं करते। ऐसे लोगों को सत्य से प्रेम नहीं होता, वे केवल अपना कर्तव्य निभाने के थोड़े-बहुत ही इच्छुक होते हैं; वे कोई प्रयास करने या कठिनाई सहने के इच्छुक नहीं होते हैं और वे हमेशा धोखेबाजी से ढिलाई बरतने की कोशिश करते हैं। वास्तव में, परमेश्वर इन सबकी पहले ही पड़ताल कर चुका है—तो वह इन लोगों पर ध्यान क्यों नहीं देता? परमेश्वर बस यह प्रतीक्षा कर रहा है कि उसके चुने हुए लोग जाग जाएँ, उन लोगों का भेद पहचान कर उन्हें उजागर करें और उन्हें हटा दें। लेकिन, ऐसे लोग फिर भी अपने मन में यही सोचते हैं, “देखो मैं कितना चतुर हूँ। हम वही खाना खाते हैं, लेकिन काम करने के बाद तुम लोग पूरी तरह से थक जाते हो और मैं बिल्कुल भी नहीं थकता। मैं चतुर हूँ। मैं उतनी कड़ी मेहनत नहीं करता; जो कोई कड़ी मेहनत करता है, वह मूर्ख है।” क्या उनका ईमानदार लोगों को इस नजरिये से देखना सही है? नहीं। वास्तव में, जो लोग अपना कर्तव्य निभाते हुए कड़ी मेहनत करते हैं, वे सत्य का अभ्यास कर रहे होते हैं और परमेश्वर को संतुष्ट कर रहे होते हैं, इसलिए वे ही सबसे चतुर लोग हैं। वे किस कारण चतुर हैं? वे कहते हैं, “मैं ऐसा कुछ भी नहीं करता जो परमेश्वर मुझसे करने के लिए नहीं कहता, और मैं वह सब करता हूँ जो वह मुझसे करने के लिए कहता है। वह जो कुछ भी करने को कहता है, मैं करता हूँ, और उसमें अपना दिल और अपनी पूरी ताकत लगा देता हूँ, मैं बिल्कुल भी आधे-अधूरे मन से काम नहीं करता। मैं यह कार्य किसी व्यक्ति के लिए नहीं, बल्कि परमेश्वर के लिए करता हूँ। परमेश्वर मुझसे बहुत प्यार करता है, मुझे परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए यह करना चाहिए।” यह सही मनःस्थिति है। लिहाजा जब कलीसिया लोगों को दूर करती है, तो जो लोग अपना कर्तव्य निभाने में धूर्त होते हैं, वे सभी हटा दिए जाते हैं, जबकि वो ईमानदार लोग जो परमेश्वर की पड़ताल को स्वीकार करते हैं, वे बने रहते हैं। इन ईमानदार लोगों की दशाएँ सुधरती जाती हैं और उनके साथ जो भी चीजें घटित होती हैं उनमें परमेश्वर उनकी रक्षा करता है। और उन्हें यह सुरक्षा किस कारण से मिलती है? इस कारण से कि वे दिल से ईमानदार हैं। वे अपना कर्तव्य निभाते हुए कठिनाई या थकावट से नहीं डरते, और उन्हें जो भी काम सौंपा जाता है उसमें वे मीनमेख नहीं निकालते; वे कभी प्रश्न नहीं पूछते, जैसा कहा जाता है वे बस वैसा ही करते हैं, वे बिना कोई जाँच-पड़ताल या विश्लेषण किए बिना या किसी भी अन्य बात पर विचार किए बिना आज्ञा का पालन करते हैं। वे कोई चाल नहीं चलते, बल्कि वे सभी चीजों में आज्ञाकारी होने में सक्षम होते हैं। उनकी आंतरिक दशा हमेशा बहुत सामान्य होती है। खतरे से सामना होने पर परमेश्वर उनकी रक्षा करता है; जब उन्हें कोई बीमारी या महामारी होती है, तब भी परमेश्वर उनकी रक्षा करता है—और भविष्य में वे सिर्फ आशीषों का आनंद उठाएँगे। कुछ लोग इस मामले की असलियत समझ ही नहीं पाते। जब वे ईमानदार लोगों को कर्तव्य निभाते हुए स्वेच्छा से कष्ट और थकावट सहते देखते हैं तो उन्हें लगता है कि ये ईमानदार लोग बेवकूफ हैं। मुझे बताओ, क्या यह बेवकूफी है? यह ईमानदारी है, यही सच्ची आस्था है। कई ऐसी चीजें हैं जिन्हें व्यक्ति सच्ची आस्था के बिना वास्तव में कभी समझ या समझा नहीं सकता है। वास्तव में हो क्या रहा है, यह बात सबसे स्पष्ट रूप से सिर्फ वो लोग जानते हैं जो सत्य को समझते हैं, जो हमेशा परमेश्वर के समक्ष रहते हैं, उसके साथ सामान्य संबंध रखते हैं और जो वास्तव में परमेश्वर के प्रति समर्पण करते हैं और ईमानदारी से उसका भय मानते हैं। ये लोग ही क्यों जानते हैं जबकि दूसरे नहीं जानते? उन्हें यह उपलब्धि सत्य का अभ्यास और ईमानदार व्यक्ति बनने का अभ्यास करने के जरिए अर्जित अनुभव से मिलती है। यह अनुभव कोई व्यक्ति नहीं दे सकता, न ही इसे कोई चुरा या छीन सकता है। क्या यह एक आशीष नहीं है? ऐसा आशीष आम लोगों को नहीं मिल सकता। और ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है कि लोग बहुत धोखेबाज और दुष्ट हैं; उनमें ईमानदारी की कमी है, वे ईमानदार इंसान बनने में असमर्थ हैं और उनमें ईमानदार दिल नहीं होता, इसलिए उन्हें जो कुछ मिलता है वह सीमित है। जहाँ तक मसीह-विरोधियों की बात है, उनका जिक्र करने की तो और भी कम जरूरत है। तमाम मामलों में उनके रवैये के आधार पर, साथ ही उनके प्रकृति सार के आधार पर और खासकर मसीह के प्रति उनके रवैये के आधार पर, मसीह-विरोधियों जैसे लोगों को यह आशीष कभी नहीं मिलेगा। ऐसा क्यों है? इसलिए कि उनके दिल बहुत दुष्ट और शातिर हैं! वे लोगों के साथ हर व्यक्ति को देखकर अलग-अलग व्यवहार करते हैं, वे गिरगिट की तरह रंग बदलते हैं, उनके विचार हमेशा चलायमान रहते हैं, वे जब तक कोई लाभ नहीं दिखता, काम शुरू नहीं करते हैं, वे परमेश्वर के प्रति ईमानदार नहीं होते हैं, उसके प्रति उनमें कोई समर्पण नहीं होता और उसके साथ वे केवल लेन-देन करते हैं। ऐसे रवैयों और सार का दुष्परिणाम क्या निकलता है? यही कि वे किसी भी मामले में विभिन्न लोगों और स्थितियों के सार के साथ ही इन स्थितियों में शामिल सत्यों की असलियत नहीं जान पाते या इन्हें समझ नहीं पाते हैं। परमेश्वर के वचन उनके सामने रखे हुए हैं, वे शिक्षित हैं, पढ़ना और विश्लेषण करना जानते हैं, उनमें बुद्धि है और वे पड़ताल करना भी जानते हैं, तो फिर वे समझ क्यों नहीं सकते? वे चाहे जितनी बड़ी उम्र तक जिएँ, भले ही यह 80 साल तक हो, फिर भी वे नहीं समझेंगे। वे क्यों नहीं समझेंगे? सबसे बड़ी वजह यह है कि उनकी आँखों पर काली पट्टी बाँध दी गई है। कुछ लोग कहते हैं, “लेकिन हमने तो उनकी आँखों पर पट्टी बँधी हुई नहीं देखी है।” दरअसल उनके दिलों को ढक दिया गया है। ढके होने से क्या आशय है? इसका अर्थ यह है कि उनके हृदय प्रबुद्ध नहीं हैं; वे सदा ढके रहते हैं। पहले, यह कहा जाता था कि “लोगों की अक्ल पर पत्थर पड़ गए हैं।” तो मसीह-विरोधियों की अक्ल पर पत्थर किसने रख दिए? वास्तव में यह परमेश्वर ही है जिसने उन्हें प्रबुद्ध नहीं किया है। उसका इरादा उन्हें पूर्ण बनाने या बचाने का नहीं है। वह तो सिर्फ उचित समय पर, नाजुक और महत्वपूर्ण मौकों पर हस्तक्षेप करता है ताकि उन पर थोड़ी-सी लगाम लगा सके और परमेश्वर के घर के हितों को चोट पहुँचने से रोक सके। लेकिन ज्यादातर बार जब परमेश्वर के वचनों, सत्य, परमेश्वर के प्रति समर्पण करने, खुद को जानने और परमेश्वर को जानने की बात आती है तो परमेश्वर उन्हें कभी प्रबुद्ध नहीं करता है। कुछ लोग कह सकते हैं, “यह सही नहीं है। तुम कैसे कह सकते हो कि परमेश्वर उन्हें प्रबुद्ध नहीं करता? कुछ लोग जिन्हें मसीह-विरोधियों के रूप में निरूपित किया गया है बहुत चतुर हैं। अगर धर्मोपदेश सुनने के बाद तुम तीन घंटे बोले, तो वे छह घंटे बोल सकते हैं। क्या वह प्रबोधन नहीं है?” वे चाहे कितने ही घंटे बोल लें, भले ही 30 घंटे बोल लें, यह सिर्फ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों की पोटली होती है। क्या फरीसी और शास्त्री इन लोगों से बेहतर बोल सके थे? उनमें से हरेक उपदेश देने में निपुण था, उनमें से हरेक वाक्पटु था, लेकिन इससे क्या भला हुआ? जब परमेश्वर आया तब भी उन्होंने उसका प्रतिरोध कर उसकी निंदा की। इससे उन्हें क्या नतीजा हासिल हुआ? यह उनके लिए विनाश, अधोपतन और महा आपदा लेकर आया। बाहर से देखने में तो परमेश्वर के घर में हर कोई अपना कर्तव्य निभा रहा है, हर व्यक्ति दिन में तीन वक्त का भोजन करता है, दिन में अपने कर्तव्य निभाता है और रात में आराम करता है। लेकिन कुछ वर्ष बाद विभिन्न प्रकार के लोगों में अंतर बहुत प्रत्यक्ष हो जाते हैं और विभिन्न प्रकार के लोगों के परिणाम बेनकाब और भिन्न हो जाते हैं। कुछ लोग मौखिक रूप से यह दावा तो करते हैं कि वे परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, लेकिन वे सही रास्ते पर नहीं चलते, बल्कि नरक की ओर भागते हैं। दूसरे लोग सत्य से प्रेम करते हैं और इसके लिए लगातार प्रयास करते हैं, इसलिए वे धीरे-धीरे सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर लेते हैं। कुछ लोग हमेशा आरामदायक जीवन जीना चाहते हैं, वे अपने कर्तव्य निर्वहन में अधिकाधिक धूर्त बनते जाते हैं और अंततः हटा दिए जाते हैं। कुछ लोग सत्य को स्वीकार कर सकते हैं, अपने दिलों में अधिक-से-अधिक ईमानदार बन सकते हैं, अपने जीवन स्वभाव में बदलाव का अनुभव कर सकते हैं, और परमेश्वर और लोगों दोनों के ही प्रिय पात्र बन जाते हैं। कुछ लोग हमेशा शब्द और धर्म-सिद्धांतों का उपदेश देने पर ध्यान केंद्रित करते हैं और उनके बार-बार के इस प्रचार के कारण परमेश्वर उनका तिरस्कार कर देता है और इस प्रकार वे तबाह हो जाते हैं। कुछ लोगों को आध्यात्मिक समझ नहीं होती है, वे जितना ज्यादा धर्मोपदेश सुनते हैं, उतने ही ज्यादा भ्रमित हो जाते हैं, सत्य में उनकी रुचि कम हो जाती है, वे कम आज्ञाकारी हो जाते हैं, स्वेच्छाचारी और सनकी ढंग से कार्य करना चाहते हैं, हमेशा अपनी इच्छाएँ पूरा करने में लगे रहते हैं और उनका लक्ष्य प्रसिद्धि, लाभ और रुतबा होता है—यह खतरनाक है। कुछ लोग कई वर्षों तक परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, और परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने और कई चीजों का अनुभव करने के बाद वे कई सत्यों को समझने लगते हैं, परमेश्वर में उनकी आस्था बढ़ती जाती है और वे उसका अनुमोदन प्राप्त कर लेते हैं। ये सभी लोग परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, कलीसियाई जीवन जीते हैं और अपने कर्तव्य निभाते हैं, तो फिर आठ-दस वर्ष के बाद क्यों उनके नतीजे अलग-अलग होते हैं, हरेक अपनी किस्म के अनुसार छाँटा जाता है? यह क्या दर्शाता है? क्या लोगों के प्रकृति सार में अंतर नहीं होते हैं? (हाँ।)

यहाँ एक और मामला है जिसे गौर से सुनकर तुम लोगों को यह विचार करना है कि हमने मसीह-विरोधियों की जिन अभिव्यक्तियों की चर्चा की उनमें यह मामला किस श्रेणी से संबंधित है। कुछ कलीसियाओं में स्पष्ट रूप से बुरे लोग अत्याचारी और अनुचित तरीके से कार्य कर रहे हैं। वे कोई ठोस कार्य नहीं कर सकते, फिर भी वे हमेशा सत्ता पर अधिकार जमाना चाहते हैं। वे जो भी कार्य अपने हाथ में लेते हैं, उसमें व्यवधान और विनाश पैदा करते हैं और सिद्धांतों का पालन नहीं करते हैं, और वे जो भी कार्य करते हैं उसमें कभी कीमत चुकाने के बजाय हमेशा यही चाहते हैं कि दूसरे लोग उनकी बातों को गौर से सुनें। संक्षेप में कहें तो जब तक कलीसिया में ऐसा व्यक्ति रहेगा, कई दूसरे लोग उससे बाधित होंगे और परमेश्वर के घर के कार्य और कलीसिया की व्यवस्था पर असर पड़ेगा और उसे नुकसान होगा। भले ही ऐसे लोगों ने कोई स्पष्ट रूप से बड़ा बुरा कृत्य नहीं किया है या भाई-बहनों को नुकसान नहीं पहुँचाया है, फिर भी जब तुम उनकी मानवता, उनके सार और विभिन्न मामलों पर उनके दृष्टिकोण के साथ ही भाई-बहनों, परमेश्वर के घर के कार्य और उनके अपने कर्तव्यों के प्रति उनके रवैये देखते हो तो वे शुद्ध रूप से बुरे लोगों की श्रेणी में आते हैं। भाई-बहनों के ध्यान में आने से पहले अगर मेरा सामना ऐसे किसी व्यक्ति से हो जाए तो मुझे उससे किस तरह निपटना चाहिए? क्या उसे बाहर निकालने और दूर भेज देने के लिए मुझे उस घड़ी का इंतजार करना चाहिए जब वह कोई गंभीर गलती न कर दे या कोई बड़ा कहर न ढा दे, या फिर “कोई बड़ा तहलका न मचा दे”? क्या ऐसा करना जरूरी है? (नहीं।) तो फिर मुझे क्या करना चाहिए? मुझे कम-से-कम उसे उसके कर्तव्य से बर्खास्त कर देना चाहिए। इसके बाद मुझे उसे अलग-थलग कर देना चाहिए या बाहर निकाल देना चाहिए और अपना कर्तव्य निभाने से रोक देना चाहिए ताकि वह दूसरों को प्रभावित न करे। परमेश्वर के घर के अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य में ऐसे बुरे लोगों की मौजूदगी की इजाजत नहीं है—क्या यह सिद्धांत सही है? अगर वे बेनकाब नहीं हुए हैं तो ठीक है, लेकिन एक बार उनके बेनकाब हो जाने के बाद जब उन्हें स्पष्ट रूप से देख लिया गया हो और उन्हें बुरे लोगों के रूप में निरूपित किया जा चुका हो तो क्या उन्हें दूर करना सही है? (हाँ।) कुछ लोग कह सकते हैं, “यह कारगर नहीं रहेगा। तुमने उनकी असलियत देख ली है, लेकिन दूसरों ने तो नहीं देखी है। उन्हें दूर करने से दूसरों पर असर पड़ेगा। अगर तुम उन्हें सिर्फ इसलिए दूर कर देते हो क्योंकि तुमने उनकी असलियत देख ली है तो क्या इसका यह मतलब नहीं होगा कि तुम अकेले ही निर्णय ले रहे हो? क्या यह वास्तव में सत्य का प्रभुत्व होने देना है? हमें भाई-बहनों को इकट्ठा कर संगति करनी चाहिए, उनके साथ गहन-विश्लेषण करना चाहिए, उन पर वैचारिक कार्य करना चाहिए और आगे बढ़ने से पहले सामग्री जुटाकर सबकी स्वीकृति ले लेनी चाहिए। तुम्हें प्रक्रियाओं का पालन करना होगा और अगर तुम ऐसा नहीं करते हो तो क्या तुम कलीसिया की कार्य व्यवस्थाओं का उल्लंघन नहीं कर रहे हो? क्या यह गलत नहीं होगा? पहले तुम्हें खुद कलीसिया की कार्य व्यवस्थाओं का पालन करना चाहिए; तुम उन्हें ध्वस्त नहीं कर सकते। इसके अलावा क्या हर चीज, चाहे वह कुछ भी हो, भाई-बहनों का ख्याल रखते हुए नहीं की जाती है? चूँकि यही सच्चाई है, ऐसे में तुम्हें सभी भाई-बहनों को इसके बारे में पूरी जानकारी देकर सत्य के इस पहलू को स्पष्ट रूप से समझाने की जरूरत है। तुम उन्हें भ्रम में डालकर नहीं छोड़ सकते; तुम्हें सभी भाई-बहनों को इस मामले का भेद पहचानने में सक्षम बनाना होगा।” अगर इन प्रक्रियाओं का पालन न किया जाए और मैं किसी को हटा देने को कहूँ तो तुम लोग कैसे आगे बढ़ोगे? तुम असमंजस में पड़ जाओगे, है ना? तुम लोग खुद को फँसा हुआ पाओगे, जिससे यह साबित होता है कि तुम लोगों के ऐसे दृष्टिकोण हैं। मैं जो बता रहा हूँ वही हो गया। एक बार, एक महत्वपूर्ण कार्य स्थल में एक बुरी मानवता वाला शैतान था जो अपना कर्तव्य निभाने के दौरान कठिनाई और थकावट से बचने की कोशिश में छलपूर्वक ढिलाई बरतने लगा। उसने हर मोड़ पर कलीसिया के कार्य में विघ्न-बाधा डाली और गड़बड़ी पैदा की, और जब उसकी काट-छाँट की गई तो उसने उद्दंड होकर सत्य को पूरी तरह खारिज कर दिया। वह हमेशा पद पर बने रहकर खुद निर्णय लेना चाहता था और साथ ही दूसरों पर हुक्म भी चलाना चाहता था, और उसने केवल अपनी प्राथमिकताओं के आधार पर कार्य करते हुए कभी भी कलीसिया के हितों के बारे में नहीं सोचा, और न ही सिद्धांतों का पालन किया। कार्य का प्रभारी रहने के दौरान उसने मेरे बताए अनेक कार्यों की अनदेखी की, उसने मानो मेरे वचनों को एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल दिया। उसने अपने काम तो किए नहीं, उलटे व्यवधान भी पैदा किए। कलीसिया अपने कर्तव्य निभाने का एक महत्वपूर्ण कार्यस्थल है—अगर उसने यह सोचा कि वह यहाँ अपना कर्तव्य निभाने नहीं, बल्कि राजसी ऐशो-आराम से रहने या समयपूर्व सेवानिवृत्ति का मजा लेने आया है, तो वह भ्रम में था। परमेश्वर का घर न तो कोई खैराती संस्था है और न ही पनाहगाह। इस इंसान जैसे कमीने लोग जहाँ कहीं जाते हैं वहाँ अच्छे नहीं रहते; वे अपने किसी भी कर्तव्य के प्रति कभी वफादार नहीं रहते, हमेशा लापरवाह रहते हैं और सिर्फ निरुद्देश्य भटकते रहते हैं। इसलिए मैंने कहा कि उसे तुरंत बाहर निकालो। क्या इसे अभ्यास में लाना आसान होता? (हाँ।) लेकिन एक खास तरह के इंसान के लिए इतना सरल मामला क्रियान्वित करना भी कठिन होता है। मेरे कहने के तीन महीने बाद आखिरकार इस बुरे व्यक्ति को बलपूर्वक निकाला गया। इसका कारण क्या था? जब मैंने इस व्यक्ति को बाहर निकालने की आज्ञा दी तो उस कलीसिया के अगुआ ने काम को “क्रियान्वित” करना शुरू किया। उसने इसे किस प्रकार क्रियान्वित किया? उसने इस निर्णय पर मतदान कराने के लिए सबकी सभा बुलाई। काफी चर्चा के बाद आखिरकार बहुमत उसे बाहर निकालने के पक्ष में रहा, लेकिन एक मत इसके खिलाफ पड़ गया, इसलिए इस मामले को रोक दिया गया। इस अगुआ ने कहा कि उसे उस असहमत व्यक्ति पर काम करने, उससे चर्चा करने और उसकी सहमति लेने की जरूरत है। इस बीच मैंने दो बार पूछ लिया कि क्या उस आदमी को निकाल दिया गया है, और अगुआ ने जवाब दिया कि उसे अभी नहीं निकाला गया है, कि वे अभी सामग्री जुटाकर इसका सारांश बना रहे हैं। मेरी पीठ पीछे उसने यह भी कहा, “जब तक एक भी व्यक्ति असहमत है, हम उसे बाहर नहीं निकाल सकते।” उसके इस कथन का यही अर्थ था कि वह इस आदमी को बाहर नहीं निकालना चाहता, इसलिए उसने यह बेतुका कारण खोज लिया। हकीकत में वे दूसरों को ठग रहे थे; वे इस आदमी की नाराजगी मोल लेने से डरते थे और उसे बाहर निकालने की हिम्मत उनमें नहीं थी। अंत में ऊपरवाले से अंतिम चेतावनी आई : “इस आदमी को बाहर निकाल देना चाहिए। अगर वह नहीं निकाला जाता तो फिर तुम्हें जाना होगा। तुम लोगों में से एक को जाना ही होगा; चुनना तुम्हें है!” यह सुनकर उसने सोचा, “मैं नहीं जा सकता; अभी मैंने अपने पद का भरपूर मजा नहीं लिया है!” तब जाकर उसने इस दानव को बाहर निकाला। मुझे बताओ, इस अगुआ ने दानव की रक्षा क्यों की? क्या यह एक मसीह-विरोधी का दृष्टिकोण नहीं है? यह बिल्कुल एक मसीह-विरोधी का व्यवहार है।

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