मद दस : वे सत्य का तिरस्कार करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग चार) खंड दो
कुछ लोग परदे के पीछे कुछ चीजें करते हैं और फिर मुझसे मिलने पर मुझे बताते हैं, “लड़कपन में मैंने शुचिता भंग करने का पाप किया था।” मैं कहता हूँ, “कृपया इस बारे में मुझे मत बताओ। एकांत में ईमानदारी से प्रार्थना करो और सच्चे मन से पश्चात्ताप करो, तब समस्या का समाधान हो जाएगा और परमेश्वर इसे याद नहीं रखेगा। तुम्हें मुझे आमने-सामने बताने की जरूरत नहीं है; मैं इन मामलों की तह में नहीं जाता हूँ।” जब मैं उन्हें बोलने से रोकता हूँ तो उनके मन में ऐसे ख्याल आने लगते हैं, “क्या तुम वाकई परमेश्वर हो? मेरा दिल बहुत ईमानदार है, दिल में आग लगी हुई है और तुमने ठंडे पानी की बाल्टी उड़ेलकर इसे बुझा दिया। मैं तो बस तुम्हारे साथ दिल की बात करना चाहता था, तुम क्यों नहीं सुनना चाहते? अगर तुम सुन लोगे तो अच्छा रहेगा; मेरे पास बताने को और भी ब्योरा है।” मैं कहता हूँ, “अपने पाप कबूलने का तुम्हारा अंतिम उद्देश्य तो पश्चात्ताप करना है, बहुत सारे ब्योरे देना नहीं। अगर तुमने अपने दिल की गहराई से पश्चात्ताप कर लिया है, तो तुम्हारे कबूलने का रूप मायने नहीं रखता है; इस प्रक्रिया से गुजरना फिजूल है। मेरे सामने ये सारे विवरण और परिस्थितियाँ स्पष्ट करने का मतलब यह नहीं है कि तुमने पश्चात्ताप कर लिया है। अगर तुम सचमुच पश्चात्ताप कर चुके हो तो भले ही तुम कुछ भी न कहो तो भी तुम पश्चात्ताप कर चुके हो। और अगर तुमने पश्चात्ताप नहीं किया तो भले ही तुम इस बारे में सब कुछ बता दो, यह व्यर्थ है।” कुछ लोग समझते नहीं हैं, वे यह सोचते हैं कि मैं सब कुछ सुनना चाहता हूँ, जैसे कि परमेश्वर में विश्वास रखने से पहले वे शुचिता भंग कर चुके हैं, चोरी कर चुके हैं या दूसरों की निंदा कर चुके हैं और उन पर झूठे आरोप लगा चुके हैं। उन्हें लगता है कि मैं व्यक्तिगत जीवन के ये सारे मामले सुनने को तैयार हूँ, कि मैं हर व्यक्ति के गहनतम विचार और उनके सारे विगत अच्छे-बुरे क्रियाकलाप जानना और देखना चाहता हूँ। क्या यह मानवीय धारणा नहीं है? वे गलत समझ रहे हैं। मुझे तो केवल लोगों के भ्रष्ट स्वभाव, उनका सार और वे जिस रास्ते पर चलते हैं उसके बारे में जानने की जरूरत है; उनके उद्धार के महत्वपूर्ण मामले को संबोधित करने के लिए यह काफी है। हर व्यक्ति के वर्तमान या अगले जीवन के बारे में जानने की कोई जरूरत नहीं है; ऐसे विवरणों की कोई जरूरत नहीं है। लोग मान लेते हैं : “तुम भी सामान्य और व्यावहारिक हो। कुछ ऐसी चीजें हैं जिन्हें तुम जानते नहीं हो, इसलिए तुम शायद हर व्यक्ति की पारिवारिक पृष्ठभूमि, वह परिवेश जिसमें वह बड़ा हुआ, बड़े होने के दौरान के ये खास अनुभव समझना चाहते हो, ताकि कार्य के उद्देश्य से उन्हें भली-भाँति जान सको, वह बढ़त ले सको जिससे उनका न्याय और उन्हें उजागर कर सको।” क्या यह ऐसा ही है? (नहीं।) इन्हीं धारणाओं और कल्पनाओं को धारण किए कुछ लोग जब भी मुझसे मिलते हैं तो हमेशा अपने विगत कर्म यह कहकर मुझे बताना चाहते हैं, “ओह, तुम नहीं जानते, मेरा परिवार ऐसा हुआ करता था...।” मैं कहता हूँ, “अपने पारिवारिक मामलों के बारे में मुझे मत बताओ; परमेश्वर में विश्वास के बारे में कुछ अनुभव बताओ।” दूसरे लोग कहते हैं, “ओह, तुम नहीं जानते, पहले मेरे कितने सारे रोमांटिक साथी थे” या “तुम नहीं जानते कि मैं पहले किसे फँसा चुका हूँ।” क्या ये बातें बताने की कोई उपयोगिता है? (नहीं।) उन्हें लगता है कि देहधारी परमेश्वर वास्तव में ये मामले जानने को तैयार है, कि वह लोगों के अशोभनीय व्यवहार और लोगों के पतित जीवन के तमाम विस्तृत पहलू समझने को उत्सुक है। ऐसे लोगों का सामना करते समय मैं उनसे कहता हूँ, “अगर तुम कबूल करना और पश्चात्ताप करना चाहते हो तो परमेश्वर के समक्ष एकांत में प्रार्थना करो, मुझे मत बताओ। मैं तुम्हें केवल यह सिखाने के लिए जिम्मेदार हूँ कि अपना कर्तव्य अच्छी तरह कैसे निभाएँ और वास्तविक जीवन में परमेश्वर की आराधना कैसे करें ताकि उद्धार प्राप्त करने में तुम्हारी मदद कर सकूँ। जब हम मिलते हैं तो हम इनसे संबंधित किसी भी मामले पर चर्चा कर सकते हैं, लेकिन सबसे अच्छी बात यही होगी कि अप्रासंगिक मामलों को न छेड़ा जाए।” यह सुनकर कुछ लोग सोचने लगते हैं, “परमेश्वर के पास वाकई प्रेम का अभाव है, परमेश्वर सहनशील नहीं है।” उनकी नजर में किस प्रकार के मनुष्य के पास प्रेम होता है? एक मोहल्ला समिति का निदेशक जो विशेष रूप से दूसरे लोगों के दैनिक तुच्छ मामलों से निपटता है। क्या मुझे ऐसे मामले सँभालने चाहिए? मैं इन मामलों की बिल्कुल भी परवाह नहीं करता! तुम अपना जीवन कैसे जीते हो, तुम क्या खाते-पहनते हो, तुम धन कैसे कमाते हो, तुम्हारी माली हालत क्या है, तुम्हारी अपने पड़ोसियों से कैसे निभती है—मैं इनमें से किसी भी मामले में हस्तक्षेप नहीं करता। जब लोगों के मन में धारणाएँ होती हैं तो उनका मसीह के प्रति यही रवैया होता है। खासकर जब उनमें मसीह के वचनों के प्रति धारणाएँ उत्पन्न होती हैं या जब मसीह के वचन उनकी धारणाओं का पूरी तरह खंडन करते हैं तो मसीह-विरोधी अपनी धारणाओं को त्यागते नहीं हैं या सत्य को स्वीकार नहीं करते हैं, न ही वे अपनी धारणाओं का गहन-विश्लेषण करते हैं या सत्य खोजते हैं; इसके बजाय वे अपनी धारणाओं से चिपके रहते हैं और मसीह जो भी कहता है उसकी अपने दिल में चुपके से निंदा करते हैं।
इस अंतिम अवधि में परमेश्वर अंत के दिनों के न्याय के कार्य को कार्यान्वित कर रहा है। जैसे-जैसे परमेश्वर के राज्य का सुसमाचार फैलता रहा है, परमेश्वर के घर में विभिन्न पेशों से संबंधित बहुत-सी मदें आ गई हैं, जैसे कि संगीत-संबंधी कार्य, पाठ-आधारित कार्य, फिल्म निर्माण कार्य, वगैरह-वगैरह। इस कार्य के दौरान इन पेशों से संबंधित कार्य की कुछ मदों में बेशक मुख्य रूप से मार्गदर्शन देकर और कार्य की विभिन्न मदों की दिशा तय करके मसीह भी शामिल रहा है; वह इस दायरे के भीतर कार्य करता है। यह अवश्य संभव है कि मसीह इन विषयों से संबंधित कुछ ज्ञान या आम जानकारी से परिचित न हो और हो सकता है कि वह कुछ चीजें न समझता हो। क्या यह बहुत सामान्य बात नहीं है? ज्यादातर लोगों को यह पूरी तरह सामान्य बात लगती है और यह कोई बड़ी बात भी नहीं है क्योंकि हर कोई सीखने के दौर से गुजर रहा है और परमेश्वर की अगुआई के तहत हर प्रकार का कार्य अधिकाधिक निखरता ही जाएगा, अधिक से अधिक पूरी तरह से तैयार उत्पाद और उच्च-गुणवत्ता के आउटपुट तैयार होंगे। लेकिन मसीह-विरोधियों के लिए यह कोई छोटा मामला नहीं है। वे कहते हैं, “तुम एक अमुक विषय से पूरी तरह अपरिचित हो, यहाँ तक कि इस बारे में अज्ञानी हो। इसमें शामिल होने, हमें निर्देश देने और हमारा मार्गदर्शन करने का तुम्हें क्या अधिकार है? तुम्हारा निर्णय अंतिम क्यों होना चाहिए? हम सब तुम्हारी ही क्यों सुनें? क्या तुम्हें सुनना ही सही है? अगर हम तुम्हें सुनेंगे तो क्या हम अपने कार्य में गलत रास्ता नहीं चुनेंगे या गलतियाँ नहीं करेंगे? मैं इसके बारे में इतना निश्चित नहीं हूँ।” जब मसीह कार्यों में मार्गदर्शन देता है, तो कुछ लोग इसे संदेहपूर्ण रवैये के साथ लेते हैं : “पहले हमें यह देख लेना चाहिए कि क्या उसकी कही बातें सार्थक हैं और विशेषज्ञता के उचित दायरे में आती हैं, और क्या ये हमारे विचारों से श्रेष्ठ हैं। अगर ऐसा है तो हम इन्हें स्वीकार लेंगे और उसके मार्गदर्शन के अनुसार चलेंगे; अगर नहीं तो हम दूसरा विकल्प चुनेंगे, दूसरा तरीका ढूँढ़ेंगे।” लेकिन मसीह-विरोधियों में आंतरिक रूप से पूरी तरह अवज्ञा की मानसिकता होती है : “हम पेशेवर हैं, कई बरसों से इस क्षेत्र में कार्य कर चुके हैं। हम आँख मूँदकर यह काम कर सकते थे। तुम्हारे मार्गदर्शन का पालन करना तो सिर्फ आधे-अधूरे मन से कार्य करना होगा, है ना? हमें तुम्हारी बात क्यों सुननी चाहिए? क्या तुम्हारे सुझाव सिर्फ आधिकारिक बातें नहीं हैं? अगर हम तुम्हारी बात सुनेंगे तो क्या इससे हम वास्तव में नाकारा नजर नहीं आएँगे? लेकिन अब हर कोई सुन रहा है और मैं खड़े होकर तुम्हारे सामने एतराज नहीं जता सकता क्योंकि इसके कारण मुझे मसीह-विरोधी मानकर मुझसे निपटा जा सकता है। इसलिए मैं थोड़ा-सा ढोंग करूँगा, सुनने का स्वाँग करूँगा, आधे-अधूरे मन से कार्य करूँगा और बाद में बिना कोई प्रभाव छोड़े पहले की तरह चलता रहूँगा।” इसलिए मसीह चाहे कैसे भी सत्य सिद्धांतों पर संगति कर ले, वह चाहे कितने ही स्पष्ट ढंग से चीजों को समझा ले, मसीह-विरोधियों के पास हमेशा अपने जमे-जमाए विचार होते हैं और उन्हें हमेशा यह विश्वास होता है कि वे इस पेशे को समझते हैं, कि वे इस क्षेत्र में माहिर हैं और इस प्रकार वे यह समझने में विफल रहते हैं कि मसीह किन सत्य सिद्धांतों के बारे में संगति कर रहा है। मसीह जब भी उनके पेशों से जुड़े कार्यों पर मार्गदर्शन देता है, तो मसीह-विरोधियों के लिए यह मसीह से अपनी क्षमताओं और प्रतिभाओं की तुलना करने का क्षण बन जाता है। इससे भी बुरी बात, कभी-कभी मसीह जब मसीह-विरोधियों के पेशों से संबंधित मामलों पर कुछ कहता है तो वे उन बातों को मसीह के अज्ञानता प्रकट करने के रूप में देखते हैं और वे गुपचुप ढंग से मसीह का मजाक उड़ाते हैं और उसका तिरस्कार करते हैं, और न चाहते हुए भी अपने कार्य में मसीह के मार्गदर्शन के प्रति और भी ज्यादा प्रतिरोधी और विमुख महसूस करते हैं। वे अपने मन में पूरी तरह अनाश्वस्त होकर कहते हैं : “तुम हमें कभी ये तो कभी वो करने को कहते हो लेकिन तुम जानते ही क्या हो? क्या तुम इन क्षेत्रों से जुड़ी विभिन्न प्रक्रियाओं को समझते भी हो? क्या तुम ये विशिष्ट विवरण जानते हो कि ये कैसे कार्य करते हैं? जब तुम हमें फिल्म निर्माण में मार्गदर्शन देते हो, तो क्या यह जानते हो कि प्रामाणिक रूप से कैसे कार्य किया जाए या ध्वनि की रिकार्डिंग कैसे की जाए?” ऐसे मामलों से सामना होने पर मसीह-विरोधी हर पेशे से जुड़े सत्य सिद्धांतों को ईमानदारी के साथ दिल से नहीं सुनते हैं। बल्कि वे आंतरिक रूप से चुपके से मसीह से संघर्ष करते हैं, यहाँ तक कि वे मसीह का उपहास और मजाक उड़ाने के लिए तमाशबीन बनकर खड़े हो जाते हैं और उनके दिल अवज्ञा से भरे होते हैं। जब वे अपने कार्य को कार्यान्वित करने जाते हैं तो वे सतही तौर पर प्रक्रिया पूरी करते हैं, वे सबसे पहले परमेश्वर की संगति के नोट्स पर नजर डालकर यह देखते हैं कि परमेश्वर ने क्या कहा और फिर वे कार्य शुरू कर बस उसी पुराने ढर्रे से काम करते रहते हैं। कुछ लोग यह कह सकते हैं कि “परमेश्वर ने यह नहीं कहा, तुम इसे इस ढंग से क्यों कर रहे हो?” तो इस पर वे जवाब देते हैं, “परमेश्वर ने ऐसा नहीं कहा है, लेकिन क्या वह वास्तविक स्थिति जानता है? क्या हमें ही इसे वास्तव में पूरा नहीं करवाना है? परमेश्वर जानता क्या है? परमेश्वर ने तो बस एक सिद्धांत दिया है, लेकिन हमें इसे वास्तविक स्थिति के अनुसार सँभालना है। अगर यहाँ परमेश्वर होता भी, तो भी हमें इसी तरह इसे सँभालना होता। हम परमेश्वर के उन वचनों को सुनते हैं जिनका संबंध सत्य से होता है, लेकिन जब बात हमारे पेशेवर कार्य की हो और इसका सत्य से संबंध न हो तो हम खुद फैसले करते हैं।” उन्होंने उन सत्य सिद्धांतों को सुना जिन पर परमेश्वर ने संगति की, इनके नोट्स लिए और हर व्यक्ति ने इस प्रक्रिया से गुजरकर इन नोट्स की समीक्षा की, लेकिन जब चीजें करने के तरीके की बात आती है तो अंतिम निर्णय किसका होता है? उनके मामले में सत्य के पास शक्ति नहीं है, मसीह के पास शक्ति होने से तो इसका और भी कम संबंध है। तो फिर शक्ति किसके पास है? शक्ति एक मसीह-विरोधी के पास है; एक इंसान ही अंतिम निर्णय करता है। उनके दृष्टिकोण में सत्य तो हवा के समान है, महज उन धर्म-सिद्धांतों और नारों के समान है जिनका हल्के-फुलके ढंग से उल्लेख होता है और फिर इससे कोई वास्ता नहीं रहता—लोग अभी भी वही करते हैं जो उन्हें करने की जरूरत है, जैसा वे करना चाहते हैं। उस वक्त वे बहुत अच्छे ढंग से सहमत हो गए और उनका रवैया अत्यधिक ईमानदार प्रतीत हुआ, लेकिन जब वास्तविक जीवन की बात आती है तो हर चीज बदल जाती है; वैसा नहीं होता जैसा लगता था।
मसीह-विरोधी लोग देहधारी परमेश्वर के प्रति निरंतर धारणाएँ और प्रतिरोध पालने और आंतरिक रूप से आश्वस्त न होने के कारण वास्तव में उसे दिल से स्वीकार नहीं करते हैं; वे केवल स्वर्ग के परमेश्वर में विश्वास रखते हैं। वे बिल्कुल पौलुस की तरह हैं : वह देहधारी यीशु के प्रति वास्तव में आश्वस्त नहीं था, बल्कि उसके प्रति धारणाओं से भरा हुआ था। इसीलिए उसने अपने किसी भी पत्र में कभी भी यीशु की गवाही नहीं दी, यीशु के वचनों की सत्य के रूप में गवाही नहीं दी और कभी यह चर्चा नहीं की कि उसे यीशु से कोई प्रेम है या नहीं। ये ऐसी चीजें हैं जिन्हें लोग देख सकते हैं; पौलुस एक असली मसीह-विरोधी है। अब तुम सब लोग यह पहचान सकते हो कि पौलुस एक मसीह-विरोधी का ठेठ उदाहरण है। भले ही मसीह-विरोधियों की जमात के लोग परमेश्वर के व्यक्त वचनों को सत्य मानते हों, क्या वे सत्य को स्वीकार सकते हैं? क्या वे मसीह के प्रति समर्पण कर सकते हैं? क्या वे मसीह की गवाही दे सकते हैं? यह एक अलग मामला है। क्या वे मसीह के हर कार्य के प्रति समर्पण कर सकते हैं? अगर मसीह कार्य की व्यवस्था करता है या कार्य सौंपता है, लोगों को यह निर्देश देता है कि इसे किस तरीके से करना है तो क्या मसीह-विरोधी आज्ञा का पालन कर सकते हैं? यह मामला लोगों का सबसे स्पष्ट रूप से खुलासा करता है। मसीह-विरोधी आज्ञा का पालन नहीं कर सकते हैं; वे मसीह के वचनों को नहीं मानते और उन्हें तुच्छ समझते हैं। इसलिए किसी कार्य के लिए मसीह चाहे जो भी खास मार्गदर्शन दे या वह चाहे जो भी काम सौंपे, मसीह-विरोधी इन्हें कभी क्रियान्वित नहीं करेंगे। मसीह-विरोधी मसीह के प्रति समर्पण करने के लिए बिल्कुल अनिच्छुक रहते हैं। वह चाहे जैसे भी कार्य की व्यवस्था करे, वे इसे कार्यान्वित करने को तैयार नहीं होते, वे हमेशा यह मानते हैं कि उनके अपने ही विचार ज्यादा बुद्धिमत्तापूर्ण हैं और उन्हें लगता है कि अपनी ही योजनाओं का पालन करना सबसे अच्छा है। अगर तुम उनसे यह कहते हो कि “स्थितियों का सामना होने पर तुम लोगों को तीन-चार दूसरे लोगों के साथ सहयोग करना चाहिए, मिलकर विचार-विमर्श करना चाहिए, सत्य सिद्धांतों के बारे में अधिकाधिक संगति करनी चाहिए और उल्लंघन किए बिना उन सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना चाहिए,” तो क्या वे तुम्हारी बात सुनेंगे? वे बिल्कुल भी नहीं सुनते; उन्होंने बहुत पहले ही इन बातों को त्यागकर भुला-सा दिया है और वे खुद ही अंतिम निर्णय लेना चाहते हैं। तुम उनसे यह कहते हो कि “अगर किसी मसले का समाधान नहीं हो सकता तो तुम ऊपरवाले से खोज सकते हो,” लेकिन जब वाकई कोई समस्या सामने आती है और हर कोई ऊपरवाले से खोजने के बारे में सोचता है तो मसीह-विरोधी कहते हैं, “ऐसी तुच्छ बात के बारे में क्यों पूछना? इससे तो ऊपरवाला परेशान ही होगा। पूछने की जरूरत नहीं है, हम इसे खुद सँभाल सकते हैं। मेरा अंतिम निर्णय है और अगर कुछ गलत हुआ तो दुष्परिणाम मैं भुगत लूँगा!” ये शब्द कितने अच्छे लगते हैं, लेकिन वास्तव में कुछ गलत होने पर क्या वे वाकई दुष्परिणाम भुगत सकेंगे? अगर कलीसिया के कार्य को कोई नुकसान होता है, तो क्या वे इसके दुष्परिणाम भुगत सकेंगे? उदाहरण के लिए, अगर सभाओं की व्यवस्था करने में अगुआओं और कार्यकर्ताओं की लापरवाही के कारण सभा के दौरान भाई-बहनों को गिरफ्तार कर लिया गया, जिससे कुछ लोग निराश और कमजोर पड़कर लड़खड़ाने लगे, तो इसकी जिम्मेदारी कौन ले सकेगा? क्या मसीह-विरोधी अपने शब्दों को लेकर जिम्मेदार हैं? वे निपट गैर-जिम्मेदार हैं! कार्य के प्रति मसीह-विरोधियों का यही रवैया रहता है। मुझे बताओ, क्या मसीह के कहे वचनों को मसीह-विरोधी सचमुच स्वीकार कर सकते हैं और इन वचनों के प्रति समर्पण कर सकते हैं? (नहीं।) सत्य का अभ्यास करने और मसीह के प्रति समर्पण करने को लेकर मसीह-विरोधियों के दिल में क्या रवैया होता है? एक शब्द में कहें तो : विरोध। वे विरोध करते रहते हैं। और इस विरोध में निहित स्वभाव कैसा होता है? इसे कौन-सी चीज जन्म देती है? अवज्ञा इसे जन्म देती है। स्वभाव की बात करें तो यह सत्य से विमुखता है, यह उनके दिलों में अवज्ञा का होना है, यह उनकी समर्पण करने की इच्छा न रखना है। और इसलिए जब परमेश्वर का घर एक ही व्यक्ति द्वारा निर्णय लिए जाने के बजाय अगुआओं और कार्यकर्ताओं को मिलजुलकर सहयोग करना सीखने और चर्चा करने का तरीका सीखने के लिए कहता है तो मसीह-विरोधी अपने दिलों में क्या सोचते हैं? “लोगों के साथ हर बात पर चर्चा करने में बहुत परेशानी होती है! मैं इन चीजों के बारे में निर्णय ले सकता हूँ। दूसरों के साथ काम करना, इस पर उनके साथ बात करना, सिद्धांत के अनुसार काम करना—कितना कायराना और शर्मनाक है!” मसीह-विरोधी सोचते हैं कि वे सत्य को समझते हैं, उन्हें सब-कुछ स्पष्ट है, काम करने की उनकी अपनी अंतर्दृष्टियाँ और तरीके हैं, और इसलिए वे दूसरों के साथ सहयोग करने में अक्षम होते हैं, वे लोगों के साथ किसी चीज पर चर्चा नहीं करते, वे सब-कुछ अपने तरीके से करते हैं और किसी और के सामने नहीं झुकते! मसीह-विरोधी भले ही अपने मुँह से यही कहते हैं कि वे समर्पण करने और दूसरों के साथ सहयोग करने को तैयार हैं लेकिन उनके जवाब बाहर से चाहे कितने भी अच्छे लगते हों, उनके शब्द चाहे कितने भी कर्णप्रिय हों, वे अपनी विद्रोही दशा और अपना शैतानी स्वभाव बदलने में असमर्थ रहते हैं। अंदर से वे भयंकर विरोधी होते हैं—किस हद तक? अगर ज्ञान की भाषा में समझाया जाए, तो यह एक ऐसी घटना है जो दो अलग-अलग प्रकृति की चीजें एक-साथ रखने पर घटित होती है : प्रतिकर्षण, जिसकी व्याख्या हम “विरोध” के रूप में कर सकते हैं। मसीह-विरोधियों का ठीक यही स्वभाव होता है : ऊपरवाले का विरोध। उन्हें ऊपरवाले का विरोध करना अच्छा लगता है और वे किसी का आज्ञा पालन नहीं करते।
मसीह के वचनों से सामना होने पर मसीह-विरोधियों का एक ही रवैया होता है : अवज्ञा; और उनका एक ही तरीका है विरोध। उदाहरण के लिए, मैं कहता हूँ, “हमारा आँगन काफी बड़ा है और इसमें छाया नहीं है। सर्दियों में पूरे दिन सूरज चमकता रहता है और लोगों को धूप सेंकने को मिलती है, लेकिन गर्मियों में गर्मी थोड़ी कड़क हो जाती है। चलो कुछ पौधे खरीद लेते हैं, जो तेजी से बड़े होकर भविष्य में पर्याप्त छाया दें, अपेक्षाकृत साफ-सुथरे हों और देखने में सुंदर लगें।” इसमें कितने सिद्धांत निहित हैं? (तीन।) एक, पेड़ तेजी से बड़े हों, दूसरा, पेड़ साफ-सुथरे हों और अपेक्षाकृत देखने में अच्छे हों और तीसरा, वे भविष्य में पर्याप्त छाया दें, यानी उनकी शाखाएँ और पत्ते घने होने चाहिए। लोगों को सिर्फ इन्हीं तीन सिद्धांतों को लागू करना है; जहाँ तक किस प्रजाति के कितने पेड़ खरीदने हैं और उन्हें कहाँ लगाना है, इस बारे में भी मैंने बता दिया है। क्या इस काम को करना आसान है? (बिल्कुल।) क्या इसे कठिन काम माना जाता है? (नहीं।) यह कठिन काम नहीं है। यह कठिन क्यों नहीं है? ऐसी जगहें हैं जहाँ पेड़ बेचे जाते हैं, परमेश्वर का घर पैसा देता है और पेड़ खरीदने की सभी बुनियादी शर्तें पूरी की जाती हैं। अब काम सिर्फ इतना ही बचा है कि लोग इसे कार्यान्वित कर लें; इस काम को लेकर कुछ भी कठिन नहीं है। लेकिन किसी मसीह-विरोधी के लिए एक कठिनाई है : “क्या? पेड़ खरीदें? सिर्फ छाया पाने और परिवेश को सुंदर बनाने के लिए पैसे खर्च किए जाएँ? क्या यह दैहिक सुख-सुविधाओं का लालच करना नहीं है? यह पैसा परमेश्वर के लिए चढ़ावा है, क्या इसे इतनी लापरवाही से खर्च किया जा सकता है? थोड़ी-सी गर्मी लगे तो समस्या क्या है? सूरज को परमेश्वर ने बनाया है; क्या धूप में तपने से तुम मर जाओगे? इसे धूप सेंकना और बारिश के मजे लेना कहते हैं। अगर तुम धूप में नहीं निकलना चाहते तो अंदर रहो। और अब तुम इस सुख के लिए पैसा खर्च करना चाहते हो—तुम शायद ख्वाब देख रहे हो!” वे सोचते हैं : “इस मामले में मेरे पास अपने दम पर अंतिम निर्णय लेने का अधिकार नहीं होता है; अगर मैं इसका सीधे विरोध करूँगा, तो यह अच्छा नहीं रहेगा। मेरी निंदा हो सकती है और हो सकता है कि दूसरे सहमत न हों। इसलिए मैं इस बारे में निर्णायक समूह को सूचित कर दूँगा। साथ ही, यह सबसे अच्छा रहेगा कि भाई-बहनों को भी अपनी राय व्यक्त करने दी जाए। अगर निर्णायक मंडल स्वीकृति दे देता है तो हम पौधे खरीद लेंगे; अगर नहीं देता तो फिर हम नहीं खरीदेंगे, भले ही भाई-बहन राजी हो जाएँ।” वे सबको इकट्ठा करते हैं, मामला सामने रखते हैं और फिर सबको चर्चा करने और अपनी राय रखने देते हैं। हर व्यक्ति कहता है, “पेड़ खरीदना अच्छी बात है; इनसे सबको फायदा होता है।” मसीह-विरोधी यह सुनकर कहता है, “यह अच्छी बात कैसे है? सबको फायदा होने भर से क्या इसे उचित ठहराया जा सकता है? हर किसी को किसके पैसे से फायदा हो रहा है? यह तो परमेश्वर का पैसा खर्च करना हुआ; क्या यह चढ़ावे की बर्बादी नहीं है? क्या यह सिद्धांतों के अनुरूप है?” हर कोई सोचता है : “चढ़ावे को सबके फायदे के लिए, लोगों के हितों के लिए बर्बाद करना थोड़ा अनुचित तो लगता है।” हर पहलू पर चर्चा कर लेने के बाद अंतिम निर्णय यही होता है कि पौधे न खरीदे जाएँ। पैसा बचाया जाना चाहिए; चाहे कोई भी आज्ञा दे, यह नहीं किया जा सकता। ऐसी चर्चा के बाद निष्कर्ष निकल आता है। निष्कर्ष क्या है? “इस बार मसीह की आज्ञा के संबंध में हमारा अंतिम संकल्प इसका विरोध करने का है; हम चढ़ावा खर्च नहीं करेंगे या परमेश्वर के घर का एक भी पैसा बर्बाद नहीं करेंगे। विशिष्ट रूप से कहें तो इसका अर्थ है हम पेड़ नहीं खरीदेंगे, आँगन को हरा-भरा नहीं बनाएँगे।” यही फैसला ले लिया जाता है। कुछ दिन बाद यह देखकर कि अभी तक पेड़ नहीं खरीदे गए हैं, मैं पूछता हूँ, “तुमने पेड़ क्यों नहीं खरीदे?” “ओह, हम जल्द खरीदेंगे।” जब मौसम आने पर दूसरों के पेड़ों में नए पत्ते उग आए हैं तो इन लोगों ने अभी तक पेड़ क्यों नहीं खरीदे हैं? पूछताछ करने पर मुझे पता चला कि चर्चा करने के बाद वे पेड़ खरीदने पर सहमत नहीं हुए; मेरे वचन व्यर्थ हो गए। आपस में राय-मशविरा, चर्चा और विश्लेषण करने के बाद सबने मेरी आज्ञा को अस्वीकार करने का सामूहिक रूप से फैसला किया, इसका यही मतलब निकलता है : “यहाँ फैसले हम लेते हैं। तुम एक किनारे खड़े रहो। यह हमारा घर है, इसका तुमसे कोई वास्ता नहीं है।” यह कैसा रवैया है? क्या यह विरोध नहीं है? वे किस हद तक विरोध कर रहे हैं? उनके पास एक आधार है, वे यह दावा करते हैं कि परमेश्वर के घर का एक भी पैसा बेकार नहीं जाने देना है, परमेश्वर के चढ़ावे को खर्च नहीं करना है। इस आधार के बारे में तुम लोग क्या सोचते हो? क्या ये शब्द सही हैं? (नहीं।) अक्सर ये मसीह-विरोधी ही चढ़ावे को बर्बाद और उसका दुरुपयोग करने वाले लोग होते हैं। वे अंतिम निर्णय लेना चाहते हैं, इसलिए वे इस तरह के सिद्धांत गढ़कर बेवकूफ, अज्ञानी और अविवेकशील लोगों को गुमराह करने आते हैं। और वास्तव में कुछ लोग इस चाल में फँस जाते हैं और उनके कहे अनुसार कार्य करते हैं, जबकि मसीह-विरोधी मसीह के वचनों को बाधा और क्षति पहुँचाते हैं, जिससे इन्हें क्रियान्वित करने में विलंब होता है। इस समस्या की जड़ क्या है? इस समस्या की जड़ यह है कि परमेश्वर के चुने हुए लोग मसीह-विरोधियों के पाखंड की असलियत नहीं समझ पाते, चीजों के सतही पहलुओं से हमेशा गुमराह होते हैं और चीजों के सार को समझने में विफल रहते हैं। मसीह-विरोधी निरंकुश होकर इन लोगों के बीच बाधाएँ पैदा करते हैं जिससे परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से कुछ अविवेकशील लोग अक्सर उनसे गुमराह और नियंत्रित होते हैं।
अगर मसीह-विरोधी बाधाएँ न डालें तो कलीसिया में मसीह जो भी विशिष्ट कार्य व्यवस्थाएँ करता है और आज्ञाएँ देता है, वे सब तेजी से क्रियान्वित की जा सकती हैं। लेकिन जब कोई मसीह-विरोधी हस्तक्षेप करता है तो काम में देरी हो जाती है और इसे क्रियान्वित नहीं किया जा सकता। कभी-कभी मसीह लोगों से जो व्यवस्थाएँ और आज्ञाएँ क्रियान्वित करवाने का इरादा रखता है उन्हें मसीह-विरोधी किसी बहाने से फौरन खारिज कर देते हैं। ऐसा करते समय वे यह कहकर निर्णय लेने का ऐसा ढर्रा अपनाते हैं जिसमें सभी शामिल होते हैं, “इसे भाई-बहनों के मत से पारित किया गया है; यह सामूहिक निर्णय का नतीजा है, सिर्फ मेरा फैसला नहीं है।” इसका क्या आशय है? इसका यह आशय है कि भाई-बहनों के प्रस्ताव सत्य के अनुरूप हैं और कोई मसला उठने पर भाई-बहनों के सामूहिक निर्णय लेने का मतलब यह है कि सत्य का प्रभुत्व चल रहा है। लेकिन जब एक प्रभारी मसीह-विरोधी मसीह की कही बात का विरोध करता है तो क्या इसे सत्य का प्रभुत्व चलना कहेंगे? जाहिर है, यह दरअसल मसीह-विरोधी का प्रभुत्व चलना है। जब कोई मसीह-विरोधी पूरी स्थिति को नियंत्रित कर रहा हो तो इसे सत्य का प्रभुत्व कहना क्या बेतुका और कपटपूर्ण नहीं है? मसीह-विरोधी वाकई छद्म-वेश धारण करने में कुशल हैं! जब मसीह उन्हें कोई चीज क्रियान्वित करने के लिए कहता है, और सबको यह ज्ञात करा दिया जाता है कि यह परमेश्वर की करनी है, कि वह सबके प्रति विचारशील होकर कार्य कर रहा है और हर कोई परमेश्वर के अनुग्रह के लिए आभारी होता है, तो इससे मसीह-विरोधी अप्रसन्न और असहज हो जाते हैं। फिर तो वे इसमें बाधा डालने और इसे बर्बाद करने के लिए अपने दिमाग को मथ डालते हैं। लेकिन अगर पहल खुद उनकी ओर से हो और अंत में सब लोगों से उन्हें बहुत आभार और सराहना मिलनी हो तो वे इसे किसी दूसरे की तुलना में ज्यादा सक्रिय होकर क्रियान्वित करते हैं और कोई भी कष्ट सहने को तैयार रहते हैं। क्या मसीह-विरोधियों जैसे ये लोग घिनौने नहीं हैं? (हाँ।) यह कैसा स्वभाव है? (दुष्ट स्वभाव।) मसीह-विरोधी छद्म-वेश धारण करने में सक्षम होते हैं और दूसरों को गुमराह और आकर्षित करने के लिए भले मानुस होने का ढोंग करते हैं, यहाँ तक कि यह ढोंग भी करते हैं कि वे सत्य का अभ्यास कर रहे हैं। यह दुष्टता है। तुम कौन-से सत्य का अभ्यास कर रहे हो? तुम मसीह के दिए वचन और आज्ञाएँ अस्वीकार कर देते हो, तुम उनके प्रति समर्पण और उन्हें क्रियान्वित नहीं कर पाते हो। वह सत्य कहाँ है जिसका अभ्यास करने का तुम दावा करते हो? क्या तुम परमेश्वर के विश्वासी हो? क्या तुम परमेश्वर को परमेश्वर मानकर उससे पेश आते हो? तुम जिस परमेश्वर में विश्वास रखते हो वह तुम्हारा सहयोगी नहीं है, तुम्हारा सहकर्मी नहीं है, तुम्हारा दोस्त नहीं है; वह मसीह है, वह परमेश्वर है! क्या तुम इस बात को नहीं मानते? मसीह के वचनों का हमेशा विश्लेषण और पड़ताल करते जाना, उनके सहीपन का भेद पहचानने का प्रयास करते रहना, उनके गुण-दोषों को आँकते रहना—कहीं तुम खुद को गलत स्थिति में तो नहीं रख रहे हो? लोगों के शब्दों की पड़ताल और विश्लेषण करने में मसीह-विरोधी कुशल होते हैं और वे इस अनवरत पड़ताल को अंततः मसीह पर भी लागू कर बैठते हैं। इस ढंग से मसीह की पड़ताल करना और उससे व्यवहार करना—क्या वे परमेश्वर के अनुयायी हैं? क्या वे निरे छद्म-विश्वासी नहीं हैं? वे हमेशा मसीह की पड़ताल करते हैं, लेकिन क्या वे परमेश्वर के दिव्य सार को समझ पाते हैं? वे मसीह की जितनी ज्यादा पड़ताल करते हैं, उतने ही ज्यादा शंकालु बन जाते हैं और आखिरकार यह तय कर लेते हैं कि मसीह एक साधारण व्यक्ति है। क्या उनमें कोई सच्ची आस्था या समर्पण बचा है? बिल्कुल भी नहीं। मसीह-विरोधी के दिल में मसीह को महज एक साधारण इंसान माना जाता है। मसीह को इंसान मानना उन्हें स्वाभाविक लगता है, इसलिए उन्हें लगता है कि वे मसीह के वचनों और आज्ञाओं की अवहेलना कर सकते हैं, इन्हें वे दिल में नहीं उतारते, बल्कि इन्हें सभाओं में सिर्फ चर्चा और पड़ताल के लिए लाते हैं। आखिरकार, चीजें कैसे की जानी हैं यह फैसला करने वाला एक मसीह-विरोधी होता है, परमेश्वर नहीं। वे मसीह को किस रूप में देखते हैं? वे मसीह को सिर्फ एक साधारण अगुआ के रूप में देखते हैं, उसे परमेश्वर बिल्कुल भी नहीं मानते। क्या यह प्रकृति बिल्कुल वैसी ही नहीं है जैसी परमेश्वर में पौलुस की आस्था थी? पौलुस ने प्रभु यीशु के साथ कभी परमेश्वर मानकर व्यवहार नहीं किया, न कभी उसके वचन खाए-पिए, न कभी प्रभु यीशु के प्रति समर्पण करने का प्रयास किया। उसने हमेशा यही सोचा कि उसके लिए जीवित रहना मसीह है, वह प्रभु यीशु का स्थान लेने का प्रयास करता था; और नतीजतन उसे परमेश्वर से दंड मिला। चूँकि तुम यह स्वीकार चुके हो कि मसीह देहधारी परमेश्वर है, इसलिए तुम्हें मसीह के प्रति समर्पण करना चाहिए। मसीह चाहे जो भी कहे, तुम्हें स्वीकार और समर्पण करना चाहिए, यह पड़ताल और चर्चा नहीं करनी चाहिए कि क्या परमेश्वर के वचन सही हैं या क्या वे सत्य के अनुरूप हैं। परमेश्वर के वचन तुम्हारे लिए विश्लेषण और पड़ताल का विषय नहीं, बल्कि समर्पण और लागू करने के विषय हैं। चीजों को कैसे किया जाए और क्रियान्वयन के चरण कैसे तय किए जाएँ—यही तुम लोगों की संगति और चर्चा का विषय क्षेत्र है। चूँकि अपने दिलों में मसीह-विरोधी हमेशा मसीह के दिव्य सार पर संदेह करते हैं और हमेशा एक अवज्ञाकारी स्वभाव रखते हैं, इसलिए जब मसीह उन्हें कुछ कार्य करने को कहता है, तो वे हमेशा उन कार्यों की पड़ताल और उन पर चर्चा करते हैं, और लोगों से यह भेद पहचानने के लिए कहते हैं कि ये कार्य सही हैं या गलत। क्या यह एक गंभीर समस्या है? (हाँ।) वे इन चीजों को सत्य के प्रति समर्पण के दृष्टिकोण से नहीं लेते; इसके बजाय, वे इन्हें परमेश्वर के प्रति विरोध के दृष्टिकोण से लेते हैं। यही मसीह-विरोधियों का स्वभाव है। जब वे मसीह की आज्ञाएँ और कार्य-व्यवस्थाएँ सुनते हैं, तो वे उन्हें स्वीकार कर उनके प्रति समर्पण नहीं करते, बल्कि चर्चा करना शुरू कर देते हैं। और वे किस बात पर चर्चा करते हैं? क्या वे इस बात पर चर्चा करते हैं कि समर्पण का अभ्यास कैसे किया जाए? (नहीं।) वे यह चर्चा करते हैं कि मसीह के वचन और आज्ञाएँ सही हैं या गलत, और जाँच करते हैं कि उन्हें कार्यान्वित किया जाना चाहिए या नहीं। क्या उनका रवैया वास्तव में इन चीजों को कार्यान्वित करना चाहने का होता है? नहीं—वे ज्यादा लोगों को प्रोत्साहित करना चाहते हैं कि वे उनकी तरह बनें, इन चीजों को न करें। और क्या इन्हें न करना समर्पण के सत्य का अभ्यास करना है? बिल्कुल भी नहीं। तो वे क्या कर रहे हैं? (विरोध।) न केवल वे खुद परमेश्वर का विरोध कर रहे हैं, बल्कि वे सामूहिक विरोध भी चाहते हैं। यह उनके कर्मों की प्रकृति है, है न? सामूहिक विरोध : सबको अपने जैसा बनाना, सबको अपने जैसा सोचने, अपने जैसा कहने, अपने जैसा निर्णय करने पर मजबूर करना, मसीह के निर्णय और आज्ञाओं का सामूहिक रूप से विरोध करना। मसीह-विरोधियों की यही कार्य-प्रणाली होती है। मसीह-विरोधियों का विश्वास यह होता है, “अगर हर कोई ऐसा करता है, तो यह कोई अपराध नहीं है” और इसलिए वे दूसरों को भी उनके साथ मिलकर परमेश्वर का विरोध करने के लिए बढ़ावा देते हैं, और सोचते हैं कि ऐसा होने पर परमेश्वर का घर उन पर कोई कार्रवाई नहीं कर सकता। क्या यह बेवकूफी नहीं है? मसीह-विरोधियों की परमेश्वर का विरोध करने की क्षमता अत्यंत सीमित है, वे बिल्कुल अकेले हैं। इसलिए वे लोगों को सामूहिक रूप से परमेश्वर का विरोध करने के लिए भर्ती करने की कोशिश करते हैं, और अपने दिलों में सोचते हैं कि “मैं लोगों के एक समूह को गुमराह करूँगा और उन्हें अपनी तरह सोचने और कार्य करने के लिए प्रेरित करूँगा। हम एक-साथ मसीह के वचनों को नकारेंगे, और परमेश्वर के वचनों को बाधित करेंगे, और उन्हें क्रियान्वित होने से रोकेंगे। और जब कोई मेरे कार्य की जाँच करने आएगा, तो मैं कहूँगा कि सबने इसे इसी तरह करने का फैसला किया था—और फिर हम देखेंगे कि तुम इसे कैसे सँभालते हो। मैं इसे तुम्हारे लिए नहीं करने वाला, मैं इसे पूरा नहीं करने वाला—और देखते हैं, तुम मेरे साथ क्या करते हो!” उन्हें लगता है कि उनके पास सत्ता है, कि परमेश्वर का घर उनसे निपटने के लिए कुछ नहीं कर सकता, न मसीह कुछ कर सकता है। तुम लोगों को क्या लगता है, क्या ऐसे व्यक्ति से निपटना आसान है? ऐसे व्यक्ति से कैसे निपटना चाहिए? सबसे सरल तरीका उसे बर्खास्त करना और उसकी जाँच-पड़ताल करना है। जब कोई दानव अपना खुलासा कर देता है तो उसे एक ही ठोकर में हटा दो और बात यहीं खत्म। परमेश्वर का घर तुम्हें अगुआ बनने की अनुमति देता है लेकिन तुम समर्पण नहीं करते हो और परमेश्वर का विरोध करने तक की जुर्रत करते हो; क्या तुम दानव नहीं हो? परमेश्वर का घर तुम्हें अगुआई करने का जिम्मा सौंपता है ताकि तुम वास्तविक कार्य कर सको, ताकि तुम परमेश्वर के घर की कार्य व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करो और अच्छे से अपना कर्तव्य निभा सको। तुम्हें परमेश्वर के वचन स्वीकार कर उनके प्रति समर्पण करना चाहिए; परमेश्वर जो कुछ भी कहे, तुम्हें उसके वचन स्वीकार कर उन्हें क्रियान्वित करना चाहिए, न कि उसका विरोध करना चाहिए। तुम तो परमेश्वर के विरोध को अपना कर्तव्य मान बैठे हो—तो फिर ठीक है, माफ करो, लेकिन तुम्हें बर्खास्त करना सबसे सरल समाधान है। परमेश्वर के घर के पास तुम्हारा उपयोग करने का अधिकार है तो तुम्हें बर्खास्त करने का अधिकार भी है। कुछ लोग कहते हैं, “मैं एक अगुआ के रूप में बिल्कुल ठीक-ठाक कार्य कर रहा था, मुझे क्यों बर्खास्त कर दिया गया? क्या यह गधे से अनाज पिसवाने के बाद उसे मार डालने वाली बात नहीं है?” जब तुम्हें बर्खास्त किया गया तो क्या तुम वाकई बिल्कुल ठीक-ठाक काम कर रहे थे? जो गधा अकारण दुलत्ती मारे और काटे, जो कैसा भी प्रशिक्षण पाने के बावजूद अपने उचित कामों पर ध्यान न दे, उसे “अनाज पिसवाने के बाद” वास्तव में मार डालना ही पड़ेगा। जहाँ तक यह सवाल है कि उसे कब मारना है, यह उसके प्रदर्शन पर निर्भर होता है। मुझे बताओ, क्या कोई एक अच्छे गधे से सहर्ष छुटकारा पाना चाहेगा? अनाज पीसने में गधा सबसे जरूरी और महत्वपूर्ण सहायक होता है। जब गधे की सबसे ज्यादा जरूरत हो, तो क्या कोई इतना मूर्ख होगा कि उसे मार डाले, पिसाई रोक दे और अनाज के बिना रहना पसंद करे? क्या कोई ऐसा करता है? (नहीं।) सिर्फ एक स्थिति में ऐसा हो सकता है : गधा प्रशिक्षण पर ध्यान न दे और वहशीपन से दुलत्ती मारता रहे और काटता रहे, जिससे कुछ भी पिसवाना संभव न हो। तभी तुम्हें पिसाई रोककर गधे का वध करना पड़ेगा, है ना? (हाँ।) जो लोग इस मामले में विवेकशील हैं, वे इसे स्पष्ट रूप से समझ सकते हैं। तो फिर जो मसीह-विरोधी अवज्ञाकारी और उद्दंड हैं और कोई भी कार्य क्रियान्वित करने में नाकाम रहते हैं, उनसे कैसे निपटना चाहिए? सबसे सरल तरीका यही है कि उन्हें सबसे पहले पद से बर्खास्त कर दो। कुछ लोग पूछते हैं, “क्या बर्खास्तगी ही इसका अंत है?” जल्दी क्या है? उनके व्यवहार पर नजर रखो। एक बार बर्खास्त होने और अपनी सत्ता गँवाने के बाद भी अगर वे परमेश्वर के घर में मजदूरी कर सकते हैं तो उन्हें निष्कासित नहीं किया जाएगा। लेकिन अगर वे मजदूरी नहीं करते, बल्कि धारणाएँ फैलाकर बुरे काम करके और सब जगह बाधाएँ पैदा कर वे चीजों को और बिगाड़ते हैं तो फिर सिद्धांतों के अनुसार उन्हें निष्कासित कर देना चाहिए। कुल मिलाकर, क्या ये चीजें, जो मसीह-विरोधियों में प्रकट होती हैं, घृणित नहीं हैं? (ये बेहद घृणित हैं।) और कौन-सी चीज इन्हें घृणित बनाती है? ये मसीह-विरोधी परमेश्वर के घर में सत्ता हथियाना चाहते हैं, वे मसीह के वचनों को क्रियान्वित नहीं कर सकते, वे इन्हें क्रियान्वित नहीं करेंगे। निस्संदेह, एक अन्य प्रकार की स्थिति में भी लोग मसीह के वचनों के प्रति समर्पण करने में असमर्थ रहते हैं : कुछ लोगों की काबिलियत कम होती है, वे परमेश्वर के वचन सुनकर उन्हें समझ नहीं पाते, और नहीं जानते कि उन्हें कैसे कार्यान्वित किया जाए; भले ही तुम उन्हें सिखा दो कि कैसे क्रियान्वित करना है, फिर भी वे नहीं कर पाते। यह एक अलग मामला है। जिस विषय पर हम अभी संगति कर रहे हैं, वह है मसीह-विरोधियों का सार, जो इस बात से संबंधित नहीं है कि लोग काम करने में सक्षम हैं या नहीं, या उनकी काबिलियत कैसी है; यह मसीह-विरोधियों के स्वभाव और सार से संबंधित है। वे पूरी तरह से मसीह, परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्थाओं और सत्य सिद्धांतों का विरोध करते हैं। उनमें जरा भी समर्पण नहीं होता, केवल विरोध होता है। एक मसीह-विरोधी ऐसा ही होता है।
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