मद दस : वे सत्य का तिरस्कार करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग तीन) खंड चार
हमने अभी-अभी जो उजागर किया वह यह है कि मसीह-विरोधी कलीसिया की परिस्थितियों के अनुसार कलीसिया के साथ और उस देह के साथ कैसा व्यवहार करते हैं जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है और वे परमेश्वर का कार्य फैलाने से कैसे पेश आते हैं। यह इस बात का एक पहलू है कि मसीह-विरोधी अपनी मनःस्थिति के आधार पर मसीह से कैसा व्यवहार करते हैं। मैंने जिन चीजों पर चर्चा की, क्या ये कलीसिया में हो रही हैं? क्या ये गंभीर मामले हैं? क्या ये जिक्र करने लायक हैं? (हाँ।) इन मामलों पर संगति करने का क्या महत्व है? क्या इसका मतलब यह है कि यह संगति सुनने के बाद कुछ लोग अब इन मामलों के बारे में पूछताछ करने की हिम्मत नहीं करेंगे, कलीसिया की स्थिति और परिस्थितियों के बारे में जिज्ञासु होने की हिम्मत नहीं करेंगे? क्या यही एकमात्र महत्व है? (नहीं।) तो फिर, इन चीजों को उजागर करने का क्या महत्व है? लोगों को इससे कौन-सा सत्य समझना चाहिए? अगर तुम लोगों ने अभी तक इस बारे में नहीं सोचा तो तुम बोलने से बच सकते हो। मैं तुम लोगों के साथ इस पर अंत में संगति करूँगा। ये मामले तुम लोगों से बहुत दूर के हैं, इसलिए इन्हें तुरंत स्पष्ट रूप से व्यक्त कर पाने में तुम लोगों को कठिनाई हो सकती है। तुम्हें अपने विचारों और अपनी भाषा को व्यवस्थित करने की जरूरत है; हो सकता है तुम यह न जानते हो कि कहाँ से शुरू करना है या हो सकता है तुम इसे स्पष्ट रूप से व्यक्त न कर पाओ। लोग बहुत कम चीजें समझते हैं, यह बहुत दयनीय बात है। किसी मामले के सार और कारण को स्पष्ट रूप से न बता पाना चीजों की असलियत न जानने का संकेत है।
जब लोग स्वर्ग के परमेश्वर में विश्वास रखते हैं और परमेश्वर के लिए खुद को खपाते और अपने कर्तव्य निभाते हैं, तो कोई यह कह सकता है कि कलीसिया, परमेश्वर का घर और परमेश्वर लोगों के लिए मूल रूप से एक ही अवधारणा हैं। कलीसिया में अपना कर्तव्य निभाना परमेश्वर के लिए खुद को खपाना समझा जाता है; परमेश्वर के घर के लिए कार्य करना कलीसिया के लिए कार्य करने के समान ही है और यह परमेश्वर के प्रति वफादार होना और परमेश्वर के आदेश को स्वीकार करना भी है। एक के स्थान पर दूसरे पर भी चर्चा की जा सकती है और इन्हें एक ही अवधारणा के रूप में देखा जाता है। लेकिन जब परमेश्वर देहधारी होकर एक साधारण व्यक्ति के रूप में प्रकट होता है, तो अधिकतर लोग कलीसिया, परमेश्वर का घर और परमेश्वर (यानी मसीह) को आसानी से अलग कर पाते हैं। लोग सोचते हैं, “कलीसिया के लिए कार्य करना परमेश्वर के घर के लिए, परमेश्वर के लिए कार्य करने के समान ही है; परमेश्वर के घर के लिए कार्य करना अपना कर्तव्य निभाना है। लेकिन जब मसीह के लिए कार्य करने की बात आती है तो मैं उतना सुनिश्चित नहीं हूँ। क्या इसका आशय किसी व्यक्ति की सेवा करना नहीं है? यह एक तरह से एक व्यक्ति के लिए कार्य करने जैसा लगता है।” कई लोगों के दिल की गहराइयों में इन तीन चीजों के बीच स्पष्ट भेद कर पाना और इन्हें आपस में जोड़ना कठिन होता है। परमेश्वर के घर में कर्तव्य निभाते समय लोग किसके लिए कर्तव्य निभा रहे हैं, इस बारे में अधिकतर की मूल अवधारणा यह होती है : जब वे कलीसिया के भीतर अपने कर्तव्य निभाते हैं तो वे उस इकाई, उस पदनाम की खातिर अपने कर्तव्य निभा रहे होते हैं जो कि कलीसिया है। तो फिर कलीसिया का तथाकथित प्रमुख कौन है? बेशक यह स्वर्ग का परमेश्वर है जिसको लेकर किसी के मन में कोई संदेह नहीं है। परमेश्वर के घर के लिए कार्य करने को अधिकतर लोग भाई-बहनों की उपाधि और समूह की सेवा करने के रूप में समझते हैं और इसे निश्चित रूप से अपना कर्तव्य निभाने की श्रेणी में रखा जा सकता है; यह अपना कर्तव्य निर्वहन है, जो निःसंदेह परमेश्वर की ओर भी निर्देशित है। इसलिए लोगों के मन में कलीसिया, भाई-बहन और परमेश्वर का घर समतुल्य हो सकते हैं, और ये सब स्वर्ग के अज्ञात परमेश्वर की ओर लक्ष्य करते हैं। इसका आशय क्या है? अधिकतर लोगों के अनुसार, वे परमेश्वर के घर में चाहे अपने कर्तव्य निभा रहे हों या मामले सँभाल रहे हों, वे यह कार्य कलीसिया रूपी एक अमूर्त संस्थान के लिए, भाई-बहनों के यथार्थ समूह के लिए और खासकर स्वर्ग के अज्ञात, अदृश्य परमेश्वर के लिए कर रहे हैं—इन्हीं तीनों के लिए वे अपने कर्तव्य निभाते हैं। जहाँ तक देहधारी परमेश्वर की बात है, लोग उसे कलीसिया का सदस्य या भाई-बहनों के बीच सर्वोच्च अगुआ मान सकते हैं और बेशक कुछ लोग मसीह को परमेश्वर के घर का प्रवक्ता या प्रतिनिधि भी समझते हैं। इसलिए कलीसिया में लोग किसके लिए अपना कर्तव्य निभा रहे हैं, यह अवधारणा अनेक लोगों के लिए बहुत अस्पष्ट है। उदाहरण के लिए, अगर किसी व्यक्ति को भाई-बहनों के लिए कुछ करने या कोई सेवा प्रदान करने के लिए कहा जाता है, तो उन्हें ऐसा करना पूरी तरह उचित लगता है। या अगर उन्हें कलीसिया के लिए या परमेश्वर के घर के लिए कोई कार्य करने के लिए कहा जाता है तो वे इसे अपना निर्विवाद कर्तव्य मानते हुए निभाकर खुश होते हैं। लेकिन अगर देहधारी मसीह एक वैसा ही कार्य उन्हें देता या सौंपता है तो वे निराश महसूस करते हैं : “एक व्यक्ति के लिए कार्य करना होगा? मैं परमेश्वर में विश्वास रखने इसलिए नहीं आया हूँ कि लोगों की सेवा करूँ; मैं अपना कर्तव्य निभाने आया हूँ। मैं यहाँ किसी की खिदमत करने नहीं आया हूँ, मैं यहाँ किसी के लिए सेवा या काम करने नहीं आया हूँ!” कलीसिया में बहुत-से लोग अपना कर्तव्य निभा रहे हैं। अगर तुम उनसे कलीसिया के लिए कुछ करने, परमेश्वर के घर के लिए या भाई-बहनों के लिए कुछ करने के लिए कहते हो तो वे खुशी-खुशी ये कार्य स्वीकार कर लेते हैं, उन्हें लगता है कि ऐसा करने के लिए उनके पास एक ठोस आधार है। कौन-सा आधार? “मैं इसे परमेश्वर से स्वीकार करता हूँ; यह मेरा कर्तव्य है, मेरी जिम्मेदारी है।” लेकिन जब देहधारी परमेश्वर उनसे कुछ करने के लिए कहता है तो “इसे परमेश्वर से स्वीकार करने” का उनका सैद्धांतिक आधार छूमंतर हो जाता है और वे यह कार्य करने के लिए अनमने, अप्रसन्न और अनिच्छुक हो जाते हैं। वे सोचते हैं, “यदि यह कलीसिया के लिए है तो ठीक है, क्योंकि मैं कलीसिया के लिए कार्य करने वाला व्यक्ति हूँ; अगर यह भाई-बहनों के लिए है तो भी ठीक है, क्योंकि वे सब परमेश्वर के घर के हैं, परमेश्वर के हैं; अगर यह परमेश्वर के घर के लिए है तो ‘परमेश्वर के घर’ का नाम इतना पावन, इतना भव्य और श्रेष्ठ है, ऐसे में परमेश्वर के घर के लिए ये चीजें करना पूरी तरह से उचित है; और यह महिमा और पहचान प्रदान करता है। लेकिन तुम्हारे जैसे किसी तुच्छ व्यक्ति के लिए कोई कार्य करना, वह क्या है? क्या वह अपना कर्तव्य निभाना है? यह सही या उचित नहीं लगता। यह अपना कर्तव्य निभाना नहीं है, न ही यह कार्य है। मुझे इसे किस रूप में लेना चाहिए?” वे एक दुविधा का सामना करते हैं, वे इसे सँभालने को लेकर अनिश्चित होते हैं। वे विचार करते हैं, “यह कोई कार्य नहीं है, न ही यह अपना कर्तव्य निभाना है, और इससे भाई-बहनों को भी निश्चित रूप से कोई लाभ नहीं हो रहा है। अगर तुम मुझसे कहते हो कि यह मैं तुम्हारे लिए कर दूँ तो ठीक है, मैं इसे सरल ढंग से कर दूँगा, लेकिन इससे मैं खुश या संतुष्ट नहीं होऊँगा। यह सही या उचित नहीं लगता! कौन याद रखेगा या जानेगा कि मैं तुम्हारे लिए क्या करता हूँ? क्या इसे किसी की प्रशंसा मिल सकती है? क्या इससे मुझे कोई ईनाम मिलेगा? क्या यह मेरा कर्तव्य निर्वहन माना जाएगा? क्या मुझे इसे सत्य सिद्धांतों के अनुसार करना चाहिए?” वे दिल से अनिच्छुक होते हैं, उन्हें लगता है कि यह एक असुविधा है, अनावश्यक कार्य है, मानो एक ऐसा कार्य स्वीकार करना है जिसे उन्हें स्वीकार नहीं करना चाहिए। वे असहज महसूस करते हैं और इसे अनिच्छा से करते हैं, पूरे समय कुछ लाभ पाने की आशा करते हैं और मुखर रूप से यह कहकर बड़ी अनिच्छा भी दिखाते हैं कि “मैं यह नहीं करना चाहता।” मैं कहता हूँ कि अगर तुम यह कार्य नहीं करना चाहते तो तुम्हें ऐसा करने की जरूरत नहीं है। मैं अपनी खातिर व्यक्तिगत कार्य करने के लिए किसी को बाध्य नहीं करता। अगर तुम इसे करना चाहते हो तो करो; अगर नहीं करना चाहते तो मैं किसी और को ढूँढ़ लूँगा। जो भी इच्छुक होगा, मैं उसे कह दूँगा। क्या यह सरल-सी बात नहीं है? परमेश्वर के घर में जब इतने सारे लोग अनुसरण कर रहे हैं, तो किसी ऐसे व्यक्ति को ढूँढ़ना आसान है जो सहमत हो और काम करने के लिए तैयार हो जाए। मैं ऐसा व्यक्ति ढूँढ़ सकता हूँ। तुम्हें चुनना अनिवार्य नहीं है; यह बहुत आसान है! क्या परमेश्वर के घर में किसी भरोसेमंद, निष्कपट और कार्यकुशल व्यक्ति को ढूँढ़ना मुश्किल है? (नहीं।) भले ही मैंने निजी तौर पर किसी भी व्यक्ति के साथ खूब घनिष्ठ या अच्छे संबंध विकसित नहीं किए हैं, न ही मेरी किसी से कोई निजी मित्रता या गहरा भावनात्मक जुड़ाव है, फिर भी इन तीस वर्षों में ये सब मेरे वचन ही हैं जो सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया में हर किसी ने खाए, पिए और गौर से सुने हैं। ये लोग मुझमें विश्वास रखते हैं और मेरा अनुसरण करते हैं, फिर ऐसा चाहे सार रूप में हो या दिल की गहराई से, ऊपरी तौर पर हो या मौखिक रूप से हो। भले ही मैंने सीधे तौर पर किसी को विशेष लाभ नहीं दिए हैं या वादे नहीं किए हैं, न ही मैंने सीधे तौर पर किसी की प्रशंसा की है या उसे आगे बढ़ाया है, फिर भी शुरुआत से अब तक मेरा अनुसरण करने वाले हर व्यक्ति ने परमेश्वर के भरपूर वचन खाए-पिए हैं। मैंने जो कुछ कहा उसके माध्यम से इन लोगों ने चाहे कुछ सत्य समझ लिए हों या आत्म-आचरण के धर्म-सिद्धांत समझ लिए हों, क्या उन सबने काफी कुछ हासिल नहीं कर लिया है? (हाँ।) इस नजरिये से मुझे तुम लोगों का जरा भी कर्जदार नहीं होना चाहिए, है ना? मुझे यह बात कहनी तो नहीं चाहिए, लेकिन आज यहाँ मुझे इसका जिक्र करने की जरूरत है। क्या तुम लोगों को मेरा ऋणी नहीं होना चाहिए? (हाँ।) इसलिए अगर मैं तुममें से किसी से कुछ करने के लिए व्यक्तिगत तौर पर कहता हूँ, तो तुम लोगों को अनिच्छुक नहीं होना चाहिए, है ना? (हम इच्छुक हैं।) चाहे किसी भी नजरिये से हो, जब मैं तुम लोगों से कुछ करने के लिए कहता हूँ, तो क्या मुझे तुम लोगों को मनाना होगा, तुम लोगों की खुशामद करनी होगी, या तुम लोगों से मीठे बोल बोलने होंगे या वादे करने होंगे? (नहीं।) लेकिन कुछ लोग यह कहते हुए अनिच्छुक होते हैं : “तुम्हारे लिए कुछ करना इतना अप्रेरणादायक क्यों होता है? इससे कोई फायदा तो होता नहीं, उलटे यह थकाऊ और दिक्कततलब भी होता है!” यह सुनकर तुम लोगों को कैसा लगता है? (क्रोध आता है।) अगर दुनिया की नजरों में एक साधारण व्यक्ति के पास ऐसा कोई आला अधिकारी आए जिसने उसे कोई काम सौंपा है तो हो सकता है वह बहुत खुश और सम्मानित महसूस करते हुए हर तरह से उसकी चापलूसी करने की कोशिश करे, और उस छोटे-से काम को जीवन भर न भूले। अगर लोग किसी रुतबे वाले व्यक्ति के साथ इस तरह का व्यवहार कर सकते हैं तो वे मसीह के लिए ऐसा क्यों नहीं कर सकते? यह उनकी पहुँच से बाहर क्यों होता है? ऐसा कैसे हो जाता है? (क्योंकि मनुष्य स्वाभाविक रूप से परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण होता है।) यह सही है; यह इस बात को सिद्ध ही करता है। लोग ऊँचे दर्जे के शैतान से तो संगत बैठा सकते हैं लेकिन अपने दिल से वे मसीह का तिरस्कार करते हैं, उसका प्रतिरोध करते हैं, उसे खारिज करते हैं, उसे नकारते हैं और उसका परित्याग कर देते हैं। अगर किसी दानव के आगे घुटने टेकने और उसकी आराधना करने के लिए कहा जाए तो लोग खुशी से घुटनों के बल रेंगने लगेंगे, लेकिन जब मसीह की बात आती है, इस साधारण व्यक्ति की बात आती है, जिससे वे इतना ज्यादा पा चुके हैं तो वे परमेश्वर के साथ बराबरी पर खड़े होने, बोलने या बातचीत करने के अनिच्छुक होते हैं। ये कैसे प्राणी हैं? ये दानव हैं, ये मनुष्य नहीं हैं। बाद में मैंने किसी और को यह काम सँभालने के लिए कहा और वह व्यक्ति ठीक-ठाक था। इस बारे में संदेश पहुँचाने वाले व्यक्ति ने कहा : “इस बार काम सँभालने वाला व्यक्ति वास्तव में खुश है, वह परमेश्वर के लिए कुछ करने को बहुत इच्छुक है।” मैंने कहा, “ठीक है, अगर वह इच्छुक है तो यह अच्छा है। लेकिन इतना छोटा-सा काम करना कौन-सी बड़ी बात है? यह अपेक्षित है, इसकी घोषणा करने के लिए संदेश भेजने की जरूरत नहीं है।” यह जो संदेश दिया गया, उसके बारे में तुम लोग क्या सोचते हो? इसे सुनकर तुम्हें कैसा लगता है? क्या यह तुम लोगों को निराश महसूस कराता है? (हाँ, कराता है।) यह तुम्हें निराश क्यों कर देता है? (यह कुछ ऐसा है जो लोगों को करना चाहिए, लेकिन वे परमेश्वर के सामने कृपापात्र बनने की कोशिश कर रहे हैं, मानो परमेश्वर के लिए कुछ करके वे उस पर बहुत बड़ा उपकार कर रहे हों।) तो जिसने यह कहा वह कैसा इंसान है? ऐसे लोगों का चरित्र कैसा है? (वे नीच चरित्र के हैं, उनमें अंतरात्मा नहीं होती है।) यह मानवता की कमी है।
परमेश्वर के अनुग्रह और आशीष, और मनुष्य को परमेश्वर द्वारा पोषण दिए जाने के बारे में सुनते ही कुछ लोगों के हृदय बहुत द्रवित हो जाते हैं और वे निरंतर परमेश्वर को धन्यवाद देते हैं : “परमेश्वर मनुष्य से बहुत प्रेम करता है!” वे बहुत ज्यादा जोश में आ जाते हैं! जब कभी इन विषयों का जिक्र छिड़ता है, इन लोगों की आँखें डबडबा जाती हैं, इनके हृदय द्रवित हो जाते हैं और वे खुद को पूरी लगन से परमेश्वर के लिए खपाने का संकल्प लेते हैं। लेकिन जब उनसे इस साक्षात और मूर्त देहधारी परमेश्वर के लिए थोड़ा-सा कुछ करने को कहा जाता है तो वे बेहद अपमानित, अनिच्छुक और अनुत्सुक महसूस करते हैं। यहाँ क्या चल रहा है? (वे एक अज्ञात परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, देहधारी परमेश्वर में नहीं। वे स्वर्ग के अज्ञात परमेश्वर को भव्य मानते हैं लेकिन देहधारी परमेश्वर को तुच्छ मानते हैं।) मैंने सुना है कि कुछ लोग भाई-बहनों के जूते साफ करने, मोजे और कपड़े-लत्ते धोने के लिए कुछ ज्यादा ही तत्पर रहते हैं, लेकिन जब उनसे मसीह के लिए थोड़ा-सा भी कुछ करने को कहा जाता है तो वे इच्छुक नहीं होते हैं। दूसरे लोग यह देखकर सह नहीं सकते और वे कहते हैं, “इस इंसान को क्या परेशानी है? यह मसीह के बजाय भाई-बहनों के लिए काम करना पसंद करता है। यह कैसा इंसान है?” कुछ लोगों को जब मैं कोई कार्य सौंपता हूँ और उन्हें परमेश्वर के घर के सिद्धांतों और कलीसिया के विनियमों के अनुसार कार्य करने को कहता हूँ तो वे इसे सुनने के बाद गंभीरता से नहीं लेते हैं। वे कहते हैं : “तुम किस बारे में बात कर रहे हो? मुझे भाई-बहनों से पूछना होगा; मुझे भाई-बहनों का ख्याल रखना है, ताकि उनमें से अधिकतर को फायदा हो सके।” उदाहरण के लिए, मैंने कुछ लोगों को फलदार पौधे लगाने की जिम्मेदारी सौंपकर उन्हें यह निर्देश भी दिया कि वे बाजार जाकर पता लगाएँ कि इस इलाके में किस प्रकार के फलदार पौधे खेती के लिए उपयुक्त हैं। एक लिहाज से उन्हें स्थानीय जलवायु और मिट्टी के लिए अनुकूल होना चाहिए, तो दूसरे लिहाज से हमें यह देखना चाहिए कि स्थानीय लोग किन फलों को उच्च पोषण वाला मानते हैं और हमें उन्हें ही उचित मात्रा में रोपने के लिए चुनना चाहिए। मेरी बात पूरी होने पर सुनने वालों को कैसा कार्य करना चाहिए? (तुमने जो कहा उसे तुरंत क्रियान्वित करना चाहिए।) उन्हें इसे कैसे क्रियान्वित करना चाहिए? (उन्हें संगत जानकारी खोजनी चाहिए, जानकार लोगों से पूछना चाहिए, कुछ ब्योरों के बारे में जानना चाहिए और फिर इसे क्रियान्वित करना चाहिए।) इस तरह से क्रियान्वित करना मेरे निर्देशों का पालन करना है, जिनमें स्थानीय जलवायु को ध्यान में रखना और यह भी जाँचना शामिल है कि कौन-से फल पौष्टिक हैं। तो क्या तुम लोग मानते हो कि मेरे विचार समग्र और व्यावहारिक थे? लेकिन मेरे वचन सुनने वालों ने उन्हें कैसे क्रियान्वित किया? उन्होंने स्थानीय कलीसिया के सभी भाई-बहनों की राय माँगी, हर एक से पूछा कि उसे कौन-सा फल खाना पसंद है और फिर मात्रा और अनुपात के अनुसार रोपण के लिए सबके पसंदीदा फलों की गणना की। इस तरह से उन्होंने इसे क्रियान्वित किया। उन्होंने अपने दिल में इस समूह को, इस पदवी को सर्वोच्च मानकर भाई-बहनों की राय ली। भाई-बहनों की सेवा उनके कर्तव्य का प्रयोजन और लक्ष्य है। वे मानते हैं कि भाई-बहनों की सेवा करना परमेश्वर के घर की सेवा करना है, और परमेश्वर के घर की सेवा करना भाई-बहनों की सेवा करना है। अगर भाई-बहन खुश और संतुष्ट हैं तो परमेश्वर भी खुश और संतुष्ट है। भाई-बहन परमेश्वर के पूर्ण प्रतिनिधि हैं, सत्य के प्रतीक और परमेश्वर के प्रवक्ता हैं। भाई-बहनों का निर्णय अंतिम होता है; वे परमेश्वर के घर का मुख्य आधार हैं। इसलिए चाहे कुछ भी किया जाए, उसे भाई-बहनों की पदवी और समूह से अलग नहीं किया जा सकता है। परमेश्वर के घर में कार्य करने वाले या अपना कर्तव्य निभाने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए केवल भाई-बहन ही उनकी सेवा का उचित लक्ष्य हैं। उन्होंने इसी तरह इसे क्रियान्वित किया; मैंने जो कहा वह कोई महत्व नहीं रखता था। मेरे निर्देश चाहे कितने ही विस्तृत थे, उनके लिए तो ये केवल खोखले धर्म-सिद्धांत, नारे मात्र थे। वे मानते थे कि भाई-बहनों को पूरी तरह से अपनी राय व्यक्त करने देना, उन्हें पर्याप्त बोलने और निर्णय लेने का अधिकार देना और परमेश्वर के घर में लोकतंत्र का अभ्यास करना ही सर्वोच्च सत्य है। मैंने चाहे जो भी कहा, उन्होंने उसे इसी नजरिये से देखा : “तुम बस बिना नतीजे पाए गोलियाँ चला रहे हो, औपचारिकताएँ निभा रहे हो, और फिर अब यह भाई-बहनों का मामला है, तुम्हारा नहीं। तुम एक तरफ खड़े रह सकते हो! हम क्या खाते-पीते हैं, इसका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है; तुम तो बस पैसा देने से मतलब रखो और बस इतना ही। हमारे पास खाना-पीना है और यही सर्वोच्च सत्य है। परमेश्वर के घर की सेवा करना, भाई-बहनों की सेवा करना, उन्हें खुश करना, उन्हें पूर्ण मानव अधिकारों और स्वतंत्रता का आनंद लेने देना, यही सर्वोच्च सत्य है।” ये किस तरह के लोग हैं? क्या यह वो नहीं है जो मसीह-विरोधी करेंगे? मसीह-विरोधियों के सत्य से विमुख होने की पहली अभिव्यक्ति यह है कि वे सत्य की निंदा करते हैं और इसे नकारते हैं; फिर वे ऐसे सिद्धांतों और नारों का एक वैकल्पिक समूह ढूँढ़ते हैं जिन्हें वे लागू करने के लिए व्यवहार्य और तर्कसंगत मानते हैं, वे खुलेआम सत्य का उल्लंघन करते हैं, खुलेआम मसीह की निंदा और उसे अस्वीकार करते हैं। इतनी छोटी-सी बात में ही मसीह-विरोधियों का खुलासा हो जाता है। क्या ये सत्य को स्वीकार करने वाले लोग हैं? (नहीं।)
मैं कुछ लोगों को अक्सर यह कहते सुनता हूँ, “अरे देखो, भाई-बहन कितने उदास हैं”; या “अरे देखो, भाई-बहन कितने खुश हैं”; या “अरे देखो, भाई-बहन कितने गंभीर रूप से पीड़ित हैं; वे वास्तव में कष्ट भोग रहे हैं।” उनके दिलों में भाई-बहनों का इतना ऊँचा स्थान क्यों है? वे भाई-बहनों से इतना प्रेम क्यों करते हैं? इतने सारे लोगों से प्रेम करने के लिए वे कितने बड़े दिल वाले होंगे? तो ठीक है; मैं कुछ कहूँगा, और जैसा मैं कहूँ तुम वैसा ही करना, ठीक है? तुम इतने सारे लोगों को समायोजित कर लेते हो तो मुझ जैसे सिर्फ एक और व्यक्ति को जोड़ लेना कोई समस्या नहीं होनी चाहिए, है ना? मुझे समायोजित करने में भी तुम्हें सक्षम होना चाहिए? इसके विपरीत, मैं जो कहता हूँ वे उसका समायोजन नहीं कर पाते हैं, न ही वे मुझे समायोजित कर पाते हैं। वे सारे भाई-बहनों को समायोजित कर सकते हैं, वे कलीसिया में हरेक को समायोजित कर सकते हैं, लेकिन वे बस मसीह को समायोजित नहीं कर पाते हैं। ये कैसे प्राणी हैं? क्या ये इंसान हैं? क्या ऐसा कोई व्यक्ति मसीह का अनुयायी होने योग्य है? (नहीं।) तो फिर हमें उन्हें कैसे निरूपित करना चाहिए? (दानव, मसीह-विरोधी के रूप में।) क्या वे परमेश्वर के घर में लोकतांत्रिक चुनावों के विचार का गलत अर्थ नहीं निकाल रहे हैं? परमेश्वर के घर के मामलों में भाई-बहनों को शामिल करना, उन्हें अपनी राय व्यक्त करने देना, उन्हें अगुआओं को चुनने और बर्खास्त करने देना और उन्हें निर्णय लेने देना—क्या उन्हें लगता है कि परमेश्वर के घर में भाई-बहन सर्वोच्च हैं? क्या यह परमेश्वर के घर में लोकतांत्रिक चुनावों की गलत समझ नहीं है? लोकतांत्रिक चुनावों का सिद्धांत क्या है? क्या भाई-बहनों को लोकतांत्रिक तरीके से मतदान करने की अनुमति देने का मतलब यह है कि अंतिम निर्णय उन्हीं का है? क्या इसका यह मतलब है कि अंतिम निर्णय लोगों के भ्रष्ट स्वभाव को लेने दिया जाए? क्या इसका मतलब दानवों और शैतानों को सत्ता अपने हाथ में लेने देना है? नहीं, इसका मतलब है भाई-बहनों के दिलों में समझे गए सत्य को सत्ता लेने देना, न कि खुद भाई-बहनों को, इन स्वाभाविक और भ्रष्ट मनुष्यों को सत्ता लेने देना। यह उतावलेपन को सत्ता लेने देना नहीं है, मानवीय धारणाओं को सत्ता लेने देना नहीं है, मानवीय विद्रोह और प्रतिरोध को सत्ता लेने देना नहीं है और लोगों के दुष्ट स्वभावों को सत्ता लेने देना नहीं है—यह सत्य को सत्ता लेने देना है। कुछ लोग पूछते हैं, “कलीसिया के कुछ चुनावों में आखिरकार मसीह-विरोधियों को क्यों चुन लिया जाता है या कलीसिया के अगुआ और कार्यकर्ता गलत निर्णय क्यों लेते हैं?” ऐसा इसलिए है कि लोगों का आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है; वे सत्य को नहीं समझते और लोगों की असलियत नहीं पहचान सकते हैं। लेकिन कलीसियाई चुनावों का सिद्धांत सत्य सिद्धांतों पर आधारित है; इसकी बुनियाद सत्य पर टिकी है। तो ये मसीह-विरोधी—जिन्हें आध्यात्मिक समझ नहीं है—वे गलत ढंग से क्या विश्वास करते हैं? वे सोचते हैं कि परमेश्वर के घर में भाई-बहनों को महान मानकर सम्मानित किया जाता है, कि भाई-बहनों को ऊँचा माना जाता है, कि भाई-बहनों की पदवी और समूह को परमेश्वर की दृष्टि में सम्माननीय माना जाता है। लेकिन वास्तव में क्या भाई-बहन सम्माननीय हैं? क्या उनके पास सत्य है? अधिकतर भाई-बहनों के पास सत्य वास्तविकता नहीं होती है, उनके क्रियाकलापों में सिद्धांत नहीं होते और वे परमेश्वर के घर की विभिन्न कार्य परियोजनाओं में अराजकता भी पैदा कर सकते हैं। अगर ऊपरवाला हस्तक्षेप न करे, सुधार और समस्याओं का समाधान समय पर न करे तो क्या ये भाई-बहन अपने कर्तव्य अच्छी तरह निभा सकते हैं? वे न केवल अपने कर्तव्य अच्छी तरह नहीं निभा सकते, बल्कि वे कई गड़बड़ियाँ और बाधाएँ भी पैदा कर सकते हैं। क्या इन लोगों के पास सत्य है? क्या वे महान माने जाने योग्य हैं? वे नहीं हैं। तो फिर मसीह-विरोधी अभी भी इस तरह क्यों कार्य करते हैं? यह उनकी जन्मजात प्रकृति है, वे सत्य को नकारने और मसीह की निंदा करने का बहाना ढूँढ़ते हैं—क्या यह उनकी जन्मजात प्रकृति नहीं है? उनकी प्रकृति शैतान की है; वे बेलगाम होकर इससे प्रेरित होते हैं!
आज की संगति मुख्य रूप से इस बात पर केंद्रित है कि मसीह के साथ मसीह-विरोधियों का व्यवहार उनकी मनःस्थिति पर निर्भर करता है। हम जो संगति कर रहे हैं उसका हर पहलू मसीह-विरोधियों की मनःस्थिति से संबंधित है। ऊपरी तौर पर ऐसा ही प्रतीत होता है लेकिन वास्तव में यह मनःस्थिति उत्पन्न कैसे होती है? यह मसीह-विरोधियों के भ्रष्ट स्वभाव और सार से निर्धारित होता है। मसीह-विरोधी वाला सार होने के कारण उनमें तमाम तरह के विचार पैदा होते हैं, और इन तमाम विचारों के अधीन होकर वे विभिन्न धारणाएँ, दृष्टिकोण, परिप्रेक्ष्य और रुख उत्पन्न करते हैं जिसके फलस्वरूप विभिन्न मनःस्थितियाँ पैदा होती हैं। इन मनःस्थितियों के उपजने पर मसीह-विरोधी स्वर्ग के परमेश्वर और पृथ्वी के परमेश्वर—मसीह—के साथ विभिन्न तौर-तरीकों और रवैयों के साथ पेश आते हैं। ये तौर-तरीके और रवैये मसीह-विरोधियों के सार को सत्य विमुख, सत्य के प्रति शत्रुतापूर्ण, मसीह को नकारने और मसीह की निंदा करने वाला साबित करने के लिए पर्याप्त हैं। जब भी उनका सामना सत्य और देहधारी परमेश्वर के सार और पहचान से जुड़े मामलों से होता है तो वे जानबूझकर परमेश्वर के विरोध में खड़े होकर परमेश्वर के शत्रुओं की भूमिका निभाते हैं। जब कुछ गलत नहीं हो रहा होता है तो वे परमेश्वर का नाम पुकारते रहते हैं, यहाँ तक कि बोलचाल में लगातार “परमेश्वर, मेरे परमेश्वर” कहा करते हैं। वे जो कुछ भी कहते हैं, वह इसी संबोधन से शुरू होना होता है : “परमेश्वर, देखो,” “परमेश्वर, क्या तुम जानते हो,” “परमेश्वर, मेरी बात सुनो,” “परमेश्वर, मुझे एक मामले में खोजना है,” “परमेश्वर, यह स्थिति है,” इत्यादि। “परमेश्वर” को पुकारते समय वे अपने हृदय में मसीह के प्रति धारणाओं, शत्रुता और अवमानना से भरे होते हैं। जब कलीसिया, परमेश्वर का घर और मसीह विभिन्न परिवेशों और परिस्थितियों का सामना करते हैं, तो मसीह और परमेश्वर के प्रति मसीह-विरोधियों का रवैया बार-बार बदलकर विभिन्न परिवर्तनों से गुजरता है। जब मसीह उनसे माँग करता है और उन्हें दयालुता और मिलनसारिता दिखाता है तो उनका रवैया काफी सौम्य और नम्र लगता है; जब मसीह उनके प्रति कठोर होता है, उनकी काट-छाँट करता है तो मसीह के प्रति उनका रवैया प्रतिकर्षण, घृणा और अवमानना, यहाँ तक कि उससे बचने और उसे अस्वीकार करने वाला हो जाता है। जब मसीह स्पष्ट रूप से उन्हें पुरस्कार और आशीष देने का वादा करता है, तो वे मन ही मन चोरी-छिपे खुशी मनाते हैं, यहाँ तक कि ये लाभ पाने के लिए अपनी गरिमा और सत्यनिष्ठा त्यागने का संकोच न कर उसकी वाहवाही, खुशामद और चापलूसी करते हैं। लेकिन उनका रवैया कैसा भी हो, उनमें कभी भी मसीह के प्रति सच्ची स्वीकृति और आस्था नहीं होती है, और वे वास्तव में उसके प्रति समर्पण तो बिल्कुल भी नहीं करते हैं। मसीह के प्रति उनका रवैया हमेशा टालने, निंदा करने और सतर्कतायुक्त संकोच का होता है, वे उसे अपने दिल की गहराई से खारिज करते हैं। वे चाहे जहाँ हों या उनकी मनःस्थिति चाहे जैसी हो, उनका सार अपरिवर्तित रहता है। भले ही उनके व्यवहार में कभी-कभार कुछ अप्रत्याशित बदलाव या मोड़ दिखते हों लेकिन ये अस्थायी होते हैं। इसका कारण यह है कि मसीह-विरोधियों का प्रकृति सार मसीह के प्रति शत्रुतापूर्ण होता है, इसलिए वे इस साधारण व्यक्ति को कभी भी ईमानदारी से अपना प्रभु, अपना परमेश्वर नहीं मानेंगे।
मसीह के साथ मसीह-विरोधियों का व्यवहार उनकी मनःस्थिति पर निर्भर करता है, इसके विभिन्न पहलुओं पर वास्तव में संगति की जा चुकी है। जैसा कि मैंने तुम लोगों से पहले पूछा था, समाधान करने योग्य आखिरी मसला यह है कि इन मामलों को उजागर करने का क्या महत्व है और वह कौन-सा सत्य है जो लोगों को समझना चाहिए। इन मामलों को उजागर करने का महत्व सरल ढंग से दो पहलुओं से बताया जा सकता है। एक पहलू यह उजागर करता है कि परमेश्वर के प्रति लोगों के सच्चे रवैयों का सार वास्तव में क्या है, जिससे लोग मानवजाति की भ्रष्टता की विभिन्न अभिव्यक्तियों को पहचान सकते हैं। यह खुद को जानने और लोगों के भ्रष्ट स्वभावों को जानने के लिए फायदेमंद है। दूसरा पहलू यह है कि यह लोगों को जानने देता है कि परमेश्वर के प्रति सही रवैया वास्तव में क्या होना चाहिए। हो सकता है तुम्हें यह लगता हो कि परमेश्वर के साथ तुम्हारे पेश आने का तरीका पहले से ही उसे परमेश्वर मानकर पेश आने वाला है, लेकिन दरअसल इसमें बहुत अशुद्धता है, बहुत सारे तत्व हैं जो शैतान के हैं—ये मसीह-विरोधियों की अभिव्यक्तियाँ हैं, जिन्हें परमेश्वर मान्यता या स्वीकृति नहीं देता है। यह एक अशुद्धि है जिसे शुद्ध करने की आवश्यकता है। इसमें सकारात्मक और नकारात्मक दोनों परिप्रेक्ष्यों से महत्व है : नकारात्मक नजरिए से कम-से-कम यह तुम्हें यह जानने देता है कि ये चीजें नकारात्मक हैं, ये एक मसीह-विरोधी की अभिव्यक्तियाँ हैं। सकारात्मक पहलू यह है कि यह तुम्हें यह जानने देता है कि परमेश्वर इन चीजों को पसंद नहीं करता, वह अपने साथ तुम्हारा इस तरह का व्यवहार स्वीकार नहीं करता है। मतलब यह है कि, लोग परमेश्वर के प्रति अपने व्यवहार को चाहे कितना भी सही, कितना भी अच्छा, कितना भी तार्किक या मानवीय भावनाओं के अनुरूप क्यों न मानते हों, परमेश्वर इससे सहमत नहीं होता है। अगर परमेश्वर इससे सहमत नहीं होता है तो तुम्हें क्या करना चाहिए? अगर तुम यह कहते हो कि “मैं इसे इस तरह से करूँगा, मुझे विश्वास है कि यह अच्छा है और मैं इसी पर कायम रहूँगा; चाहे तुम इससे सहमत हो या नहीं, मैं बस ईमानदार रहूँगा,” तो क्या यह ठीक है? (नहीं।) हम इस बात पर चर्चा नहीं करेंगे कि दूसरे मामलों के लिहाज से यह रवैया सही है या नहीं; परमेश्वर के साथ व्यवहार करते समय इस तरह से व्यवहार करना बहुत खतरनाक है और तुम्हें अपना रास्ता पलट लेना चाहिए। जिन चीजों को परमेश्वर स्वीकार नहीं कर सकता, उनके प्रति लोगों का रवैया क्या होना चाहिए? लोगों का एकमात्र रवैया यह होना चाहिए कि वे परमेश्वर से आने वाली हर चीज को स्वीकार करें; चाहे उन्हें यह अच्छी लगे या खराब, चाहे यह सुखद लगे या कठोर और अप्रिय, उन्हें बिना शर्त स्वीकार करना चाहिए और समर्पण करना चाहिए, इसे सत्य मानकर खुद को बदलना और शुद्ध करना चाहिए। इन मामलों को उजागर करने का क्या महत्व है? क्या इसे नकारात्मक और सकारात्मक दोनों पहलुओं से संबोधित नहीं किया गया है? तो फिर वह कौन-सा सत्य है जो लोगों को समझना चाहिए? (परमेश्वर सत्य है, परमेश्वर सृष्टिकर्ता है। चाहे वह देहधारण करता हो या किसी अन्य रूप में प्रकट होता हो, वह जो वचन बोलता है वे सत्य हैं, और हमें बिना शर्त समर्पण और स्वीकार करना चाहिए।) क्या हर कोई इस कथन पर आमीन कह सकता है? (आमीन।) मैं भी उस पर आमीन कहता हूँ; बिना शर्त स्वीकार और समर्पण करना, यही सत्य है। परमेश्वर लोगों के बीच चाहे किसी रूप में या किसी तरीके से प्रकट हो और रहे, परमेश्वर चाहे किसी रूप में विद्यमान हो, परमेश्वर सदैव परमेश्वर है। यही सत्य है और यही वह सत्य है जिसे लोगों को सबसे अधिक समझना चाहिए। दूसरी बात, परमेश्वर के प्रति एक सृजित प्राणी का रवैया बिना शर्त समर्पण वाला होना चाहिए। इसके अलावा लोग एक और बिंदु नहीं समझते हैं : लोग परमेश्वर का अनुसरण क्यों करते हैं? क्या यह ऊब दूर करने के लिए है? क्या यह उनके दिमाग को समृद्ध करने और उनके आध्यात्मिक खालीपन को संबोधित करने के लिए है? क्या यह उनके भविष्य की नियति का समाधान करने के लिए है? क्या यह निर्मल बनने के लिए है या सत्य के विश्वविद्यालय में जाने के लिए है? परमेश्वर का अनुसरण करके लोग क्या हल करना चाहते हैं? लोगों का यह जानना आवश्यक है। (वे अपने भ्रष्ट स्वभावों का समाधान करना चाहते हैं।) सही है। लोग अपने भ्रष्ट स्वभाव के समाधान के लिए परमेश्वर का अनुसरण करते हैं। क्या लोग अपने भ्रष्ट स्वभावों का समाधान स्वयं कर सकते हैं? क्या शोहरत, ज्ञान और शिक्षा वाले लोग इसका समाधान कर सकते हैं? क्या मानवजाति में ऐसा कोई है जो इस समस्या का समाधान कर सकता है? (कोई भी इसका समाधान नहीं कर सकता।) परमेश्वर आज इस समस्या का समाधान करने आया है; केवल देहधारी परमेश्वर, केवल स्वयं परमेश्वर ही इसका समाधान कर सकता है। इस समस्या का समाधान क्यों देहधारी मसीह कर सकता है जो बिल्कुल मनुष्य के समान प्रतीत होता है? मनुष्यजाति के पास भाषा, विचार और अवधारणाएँ हैं, तो वह इसका समाधान क्यों नहीं कर सकती है? अंतर कहाँ है? (परमेश्वर ही सत्य, मार्ग और जीवन है; मनुष्यों के पास सत्य नहीं है।) परमेश्वर ही सत्य, मार्ग और जीवन है। केवल इस तथ्य को स्वीकारने और जिस देह में परमेश्वर ने देहधारण किया है उस देह का सर्वस्व स्वीकारने से लोगों के भ्रष्ट स्वभावों का समाधान किया जा सकता है। इसका आशय यह है कि लोग अपने भ्रष्ट स्वभाव हल करने के लिए परमेश्वर के समक्ष आते हैं, जिसका अर्थ है सत्य प्राप्त करने के लिए परमेश्वर के पास आना। सत्य प्राप्त करके ही लोगों के भ्रष्ट स्वभावों का समाधान किया जा सकता है। सत्य प्राप्त किए बिना तुम उन्हें कैसे हल कर लोगे? क्या धर्म-सिद्धांत भ्रष्ट स्वभाव का समाधान कर सकते हैं? क्या ज्ञान कर सकता है? क्या धारणाएँ और कल्पनाएँ कर सकती हैं? ये नहीं कर सकते। केवल व्यावहारिक देहधारी परमेश्वर ही इसे सुलझाने में तुम्हारी मदद कर सकता है। इसलिए किसी प्रसिद्ध हस्ती, महान व्यक्ति या ऋषि की आराधना करना व्यर्थ है; वे तुम्हारी वास्तविक कठिनाइयों का समाधान नहीं कर सकते या तुम्हें बचा नहीं सकते। यही नहीं, किसी भी विषय, पेशे या ज्ञान के निकाय को सीखने से तुम्हारी असली कठिनाइयों या वास्तविक मुद्दों का समाधान नहीं हो सकता है। अगर तुम कहते हो कि “मैं इस साधारण व्यक्ति को बिल्कुल हेय दृष्टि से देखता हूँ,” तो तुम्हारे दृष्टिकोण को बदलने की जरूरत है। तथ्य तो यथावत है; परमेश्वर ने इसी प्रकार कार्य किया है। अगर तुम परमेश्वर को अपने जीवन के रूप में स्वीकार करना चाहते हो, तो तुम्हें परमेश्वर के कहे हर वाक्य और उसके हर कार्य को स्वीकार करना चाहिए। अगर तुम परमेश्वर को सत्य के रूप में मान्यता देते हो तो तुम्हें इस तथ्य की स्पष्टता और निरपेक्षता पर विश्वास करना और इसे मान्यता देना चाहिए कि परमेश्वर चाहे किसी भी तरीके से या रूप में मौजूद हो या प्रकट हो, वह हमेशा सत्य है। इस तथ्य को स्वीकारने के बाद तुम्हें उस देह से जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है, इस साधारण व्यक्ति से, किस रवैये के साथ व्यवहार करना चाहिए? जिस सत्य को खोजना है वह इसी में निहित है।
मसीह के साथ मसीह-विरोधियों का व्यवहार उनकी मनःस्थिति पर निर्भर करता है, इस मद की अभिव्यक्तियों को उजागर करते हुए, वह अंतर्निहित सत्य क्या है जिसे लोगों को समझना चाहिए? कुछ मदों को संक्षेप में बताओ ताकि वे स्पष्ट हो जाएँ और तुम इस सत्य को समझ लो और इसके बारे में स्पष्ट हो लो। (हमने चार मदों को संक्षेप में प्रस्तुत किया है : पहली यह कि परमेश्वर हमेशा परमेश्वर है और यह सत्य है। दूसरी यह है कि परमेश्वर के प्रति एक सृजित प्राणी का रवैया बिना शर्त समर्पण वाला होना चाहिए। तीसरी यह है कि परमेश्वर ही सत्य, मार्ग और जीवन है और केवल इस तथ्य को स्वीकारने और जिस देह में परमेश्वर ने देहधारण किया है उस देह का सर्वस्व स्वीकारने से लोगों के भ्रष्ट स्वभावों का समाधान हो सकता है। चौथी यह है कि अगर लोग परमेश्वर को सत्य के रूप में मान्यता देते हैं तो उन्हें इस तथ्य की स्पष्टता पर विश्वास करना और इसे मान्यता देना चाहिए कि परमेश्वर चाहे किसी तरीके से या रूप में मौजूद या प्रकट हो, वह हमेशा सत्य है।) क्या ये चार मदें महत्वपूर्ण हैं? (हाँ।) दरअसल हर कोई इन मदों को धर्म-सिद्धांत के संदर्भ में जानता है, लेकिन जब यह बात आती है कि मसीह के साथ व्यवहार के मामले में कौन-से सत्य सिद्धांत शामिल होते हैं तो वास्तविक स्थितियों का सामना करने पर लोग भ्रमित हो जाते हैं। वे नहीं जानते कि उनका अभ्यास कैसे किया जाए, और वे पहले जिन सत्यों को समझते थे वे मात्र धर्म-सिद्धांत बन जाते हैं जिन्हें लागू नहीं किया जा सकता है। यह पर्याप्त रूप से दर्शाता है कि लोग चाहे जितने धर्म-सिद्धांत समझते हों, ये बेकार हैं; सत्य को समझे बिना उनकी समस्याओं का समाधान अभी भी नहीं किया जा सकता है।
20 जून 2020
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