मद दस : वे सत्य का तिरस्कार करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग तीन) खंड दो

कोई व्यक्ति अपनी मनःस्थिति पर निर्भर हुए बिना और अपनी मनःस्थिति और परिवेश से प्रभावित हुए बिना किस प्रकार परमेश्वर में विश्वास रखकर उसका अनुसरण कर सकता है? कोई भला इसे कैसे हासिल कर सकता है? परमेश्वर में विश्वास रखने के लिए न्यूनतम अपेक्षा क्या है? इसके लिए सत्य से प्रेम करने और सत्य को खोजने के रवैये की जरूरत होती है। कुछ लोग पूछते हैं, “क्या संकल्प होना और प्रतिज्ञाएँ करना महत्वपूर्ण है?” ये अपरिहार्य हैं लेकिन ये विश्वास के चरण पर निर्भर करते हैं। अगर किसी व्यक्ति को विश्वास रखे हुए अभी शुरुआती एक-दो साल ही हुए हैं तो इनके बिना उसका उत्साह नहीं जग सकता है। उत्साह के बिना जो व्यक्ति परमेश्वर में विश्वास रखने लगता है, हो सकता है वह उदासीन हो जाए, न तो अपने अनुसरण में बहुत जोशीला रहे, न ही पीछे हटे, बस जो कहा जाए, वही करता रहे। ऐसा व्यक्ति आगे बढ़ने के लिए संघर्ष करता है और उसका स्पष्ट रवैया नहीं होता है। इसलिए नए विश्वासियों को इस उत्साह की जरूरत है। यह उत्साह किसी व्यक्ति के लिए कई सकारात्मक चीजें लेकर आ सकता है, जिससे वे सत्य, दर्शन और परमेश्वर के कार्य के लक्ष्य को जल्दी से समझ सकते हैं, और जल्दी से एक बुनियाद रख सकते हैं। इसके अलावा, जब लोग सक्रियता और उत्साह के साथ खुद को खपाते हैं और कीमत चुकाते हैं तो वे अधिक तेजी से सत्य वास्तविकता में प्रवेश करते हैं। शुरुआत में व्यक्ति को इस उत्साह की जरूरत होती है और उसमें संकल्प और आकांक्षाएँ होनी चाहिए। लेकिन परमेश्वर में तीन साल से अधिक विश्वास रखने के बाद भी अगर व्यक्ति उत्साह के चरण में ही रहता है तो खतरा हो सकता है। यह खतरा कहाँ होता है? लोग हमेशा परमेश्वर में अपने विश्वास और अपने स्वभावगत बदलाव के मामलों से अपनी कल्पनाओं और धारणाओं के आधार पर पेश आते हैं। वे अपनी कल्पनाओं और धारणाओं के आधार पर परमेश्वर को जानने और उसके कार्यों और मनुष्य के लिए उसकी अपेक्षाओं की समझ हासिल करने का प्रयास करते हैं। क्या ऐसे लोग सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हैं या परमेश्वर के इरादों को समझ सकते हैं? (नहीं।) अगर कोई व्यक्ति सत्य को नहीं समझ सकता, तो समस्याएँ पैदा होती हैं। क्या कोई ऐसा व्यक्ति है जो परमेश्वर में विश्वास रखता हो और अपना पूरा जीवन लाड़-प्यार वाले परिवेश में हमेशा अनुग्रह और आशीष के साथ जीता हो? नहीं, हर व्यक्ति को देर-सबेर वास्तविक जीवन और उन तमाम परिवेशों का सामना करना ही होगा जिनकी व्यवस्था परमेश्वर ने उसके लिए की है। जब तुम इन विभिन्न परिवेशों का सामना करते हो और वास्तविक जीवन में विभिन्न मसलों से रू-ब-रू होते हो, तो तुम्हारा उत्साह क्या भूमिका निभा सकता है? यह तुम्हें केवल खुद को संयमित रखने, कीमत चुकाने, कष्ट सहने के लिए प्रेरित कर सकता है, लेकिन यह तुम्हें सत्य को या परमेश्वर के इरादों को समझने के लिए प्रेरित नहीं कर सकता है। लेकिन अगर तुम सत्य को खोजते और समझते हो, तो यह अलग बात होती है। यह किस प्रकार से अलग है? जब तुम सत्य को समझते हो और इन स्थितियों का सामना करते हो, तो तुम इनसे अपने उत्साह या धारणाओं के आधार पर पेश नहीं आते हो। जब भी तुम्हारा सामना किसी चीज से होता है, तुम सबसे पहले खोजने और प्रार्थना करने, सत्य सिद्धांतों का पता लगाने के लिए परमेश्वर के सामने आते हो। तब तुम आज्ञाकारी बन सकते हो और ऐसी जागरूकता और रवैया रख सकते हो। यह रवैया और जागरूकता महत्वपूर्ण है। हो सकता है कि किसी विशेष परीक्षण में तुम कुछ हासिल न कर पाओ, सत्य में बहुत अधिक गहराई तक प्रवेश न कर पाओ और यह न समझ पाओ कि सत्य की वास्तविकता क्या है। लेकिन इस परीक्षण के दौरान इस तरह की आज्ञाकारी जागरूकता और रवैया रखने से तुम वास्तव में यह अनुभव कर लेते हो कि सृजित प्राणी के बतौर लोगों को कैसे कार्य करना चाहिए और परमेश्वर के समक्ष सर्वाधिक सामान्य और उचित होने के लिए क्या करना चाहिए। भले ही हो सकता है कि तुम परमेश्वर के इरादों को न समझ सको या ठीक से न जान पाओ कि परमेश्वर ऐसे परिवेश में तुमसे क्या हासिल या प्राप्त कराना चाहता है, फिर भी तुम्हें लगता है कि तुम परमेश्वर और ऐसी परिस्थितियों के प्रति समर्पण कर सकते हो। अपने अंतर्मन से तुम उस परिवेश को स्वीकार कर सकते हो जिसकी व्यवस्था परमेश्वर ने तुम्हारे लिए की है। तुम्हें लगता है कि तुमने सृजित प्राणी के रूप में अपना उचित स्थान बनाए रखा है, परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह या उसका विरोध नहीं किया है और तुम्हारा हृदय सुरक्षित महसूस करता है। सुरक्षित महसूस करते हुए स्वर्ग के परमेश्वर पर तुम्हारी निर्भरता अस्पष्ट नहीं है, और तुम्हें पृथ्वी के परमेश्वर से दूरी महसूस नहीं होती और तुम उसे अस्वीकार नहीं करते हो। इसके बजाय, तुम्हारे दिल की गहराई में थोड़ा-सा और भय और थोड़ी-सी अधिक निकटता आ जाती है। इस पर गौर करो, सत्य को खोजने और समर्पण कर सकने वाले व्यक्ति और एक ऐसे व्यक्ति में अंतर है जो उत्साह पर निर्भर रहता है और जिसमें थोड़ा-सा ही संकल्प है—क्या यह अंतर ज्यादा है? अंतर बहुत बड़ा है। एक व्यक्ति जो उत्साह पर निर्भर रहता है और जिसके पास केवल संकल्प है, वह परिस्थितियों का सामना होने पर प्रतिरोध करेगा, बहस करेगा, शिकायत करेगा और महसूस करेगा कि उसके साथ अन्याय हुआ है। ऐसे लोग यह सोच सकते हैं, “परमेश्वर मेरे साथ ऐसा व्यवहार क्यों कर रहा है? मैं अभी भी जवान हूँ, परमेश्वर मुझे क्यों नहीं मनाता? परमेश्वर मेरी पिछली उपलब्धियों को क्यों नहीं गिनता? मुझे पुरस्कार देने के बजाय दंड क्यों दिया जा रहा है? मैं अभी भी बहुत छोटा हूँ, मुझे पता ही क्या है? मेरे माता-पिता ने भी घर पर मेरे साथ कभी ऐसा व्यवहार नहीं किया; उन्होंने मुझे अपने अनमोल बच्चे, अपने नन्हे मुन्ने के रूप में सँजोया। अब जबकि मैं परमेश्वर के घर में आने के बाद काफी बड़ा हो गया हूँ, तो परमेश्वर का मेरे साथ ऐसा व्यवहार करना बहुत ही अविचारशील लगता है!” वे इसी तरह के दोषपूर्ण तर्क देते हैं। ऐसे दोषपूर्ण तर्क कैसे उपजते हैं? अगर कोई व्यक्ति सत्य को खोजता और समझता है, तो क्या तब भी उसके पास ऐसे दोषपूर्ण तर्क हो सकते हैं? अगर कोई व्यक्ति सामान्य रूप से अपने कर्तव्य निभाते समय इन सत्यों को समझता और जानता है, तो क्या स्थितियों का सामना करते समय उसके पास भी ऐसी शिकायतें और उतावलापन हो सकता है? (नहीं।) वह निश्चित रूप से इस तरह से नहीं बोलेगा। इसके बजाय वह खुद को एक सामान्य सृजित प्राणी के रूप में देखेगा और उम्र, लिंग या प्रतिष्ठा और रुतबे की परवाह किए बिना परमेश्वर के समक्ष आएगा और बस समर्पण करेगा और परमेश्वर के वचन सुनेगा। जब लोग परमेश्वर के कहे वचनों और उसकी अपेक्षाओं पर गौर कर सकते हैं तो उनके दिलों में समर्पण होता है। जब कोई व्यक्ति सचेत होकर समर्पण कर सकता है, जब उसमें समर्पण का रवैया होता है तो वह सचमुच एक सृजित प्राणी के स्थान पर खड़ा होता है, उसमें परमेश्वर के प्रति प्रेम, समर्पण और भय होता है, वह अपनी मनःस्थिति और भावनाओं पर निर्भर नहीं रहता। जब लोगों को काट-छाँट का सामना करना पड़ता है तो ये उनकी कुछ प्रतिक्रियाएँ होती हैं। मुख्य प्रतिक्रियाएँ क्या होती हैं? वे बुरा महसूस कर रहे हैं, कुंठित महसूस कर रहे हैं, महसूस कर रहे हैं कि उनके साथ अन्याय हुआ है और उन्हें दिलासे की जरूरत है। जब उन्हें दिलासा और स्नेह नहीं मिलता, तो वे अपने दिलों में परमेश्वर के प्रति शिकायतें और गलतफहमियाँ पालने लगते हैं। वे अब परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करना चाहते हैं और भीतर कहीं गहरे वे परमेश्वर का परित्याग करने पर विचार करते हैं, उससे दूरी बना लेना चाहते हैं—स्वर्ग के परमेश्वर से भी और पृथ्वी के परमेश्वर से भी। कुछ लोग ऐसे हैं, जिनकी अगर मैं थोड़ी-सी भी काट-छाँट करूँ, तो अगली बार जब हम मिलेंगे तो वे मुझसे बचना चाहेंगे, मेरे साथ बातचीत नहीं करना चाहेंगे। आम तौर पर जब उनकी काट-छाँट नहीं की जा रही होती है तो वे हमेशा मेरे आसपास रहते हैं, मेरे लिए चाय लाते हैं, पूछते हैं कि क्या मुझे किसी चीज की जरूरत है, अच्छी मनःस्थिति में रहते हैं, मेहनती, बातूनी और परमेश्वर के साथ अपने रिश्ते में घनिष्ठ होते हैं। लेकिन जब उनकी काट-छाँट की जाती है, तो पहले जैसी बात नहीं रह जाती है—वे अब न तो चाय लाते हैं, न ही अभिवादन करते हैं और अगर मैं उनसे कुछ और सवाल पूछता हूँ तो वे बस चले जाते हैं, फिर कभी दिखाई नहीं देते हैं।

पहले जब मैं मुख्य भूमि चीन में था तो मैं कुछ भाई-बहनों के घरों में ठहरा था। इनमें से कुछ लोगों में खराब मानवता थी, कुछ नए विश्वासी थे, कुछ ने हमारे पहले संपर्क में ही अनगिनत धारणाएँ विकसित कर ली थीं और वे सत्य को नहीं समझते थे, और दूसरे लोग बिल्कुल भी सत्य का अनुसरण नहीं कर रहे थे। इन लोगों को भ्रष्टता प्रकट करते देखकर मैं उनकी काट-छाँट नहीं कर सका; मुझे विनम्रता और चतुराई से बात करनी पड़ी। अगर तुम सचमुच उनकी काट-छाँट कर दोगे, तो उनमें धारणाएँ और विद्रोहशीलता विकसित हो जाएँगी, इसलिए तुम्हें उन्हें मनाना होगा और बातचीत करनी होगी, और उनका मार्गदर्शन करने के लिए सत्य पर अधिक संगति करनी होगी। अगर तुम बातचीत नहीं करते हो या संगति नहीं करते हो और केवल सीधी माँगें करते हो तो इससे बिल्कुल भी काम नहीं होगा। उदाहरण के लिए, तुम कह सकते हो, “यह भोजन कुछ ज्यादा ही नमकीन है; हो सके तो अगली बार थोड़ा-सा कम नमक डालना। ज्यादा नमक खाना तुम्हारी सेहत के लिए ठीक नहीं है। परमेश्वर के विश्वासियों के रूप में तुम्हें सामान्य समझ का प्रयोग करना चाहिए और अज्ञानी नहीं बनना चाहिए; तुम्हें सकारात्मक चीजें स्वीकार करनी होंगी। अगर तुम मुझ पर विश्वास नहीं करते, तो तुम पारंपरिक चीनी चिकित्सकों से गुर्दों पर बहुत अधिक नमक से पड़ने वाले दुष्प्रभावों के बारे में पूछ सकते हो।” यह दृष्टिकोण उनके लिए स्वीकार्य है। लेकिन अगर तुम कहते हो कि “इस भोजन में बहुत ज्यादा नमक है, क्या तुम नमक खिलाकर किसी को मारने की कोशिश कर रहे हो? इसमें हमेशा इतना नमक क्यों छिड़कते हो? यह इतना नमकीन है कि खाया ही नहीं जा सकता! तुम इतने अज्ञानी कैसे हो सकते हो? अगली बार इसे इतना नमकीन मत बनाना!” तो इससे बात नहीं बनेगी। हो सकता है कि अगली बार वे खाने में बिल्कुल नमक न डालें। तब तुम कहते हो, “यह इतना बेस्वाद क्यों है?” “बेस्वाद? क्या तुमने पहले यह नहीं कहा था कि यह बहुत नमकीन है? बहुत अधिक नमक गुर्दों को नुकसान पहुँचाता है, तो क्या नमक बिल्कुल न डालना बेहतर नहीं है? तब यह गुर्दों को नुकसान नहीं पहुँचाएगा।” बहुत अधिक कठोर होने से बात नहीं बनेगी; तुम्हें बातचीत करने और मनाने की जरूरत है। बहुत-से लोग काफी तकलीफदेह होते हैं; उनसे बात करते समय तुम्हें अपने बोलने के तरीके और समय के बारे में सावधान रहना होगा और उनकी मनःस्थिति पर भी विचार करना होगा—तुम्हें कुछ सुलझी हुई बातचीत करनी होगी। कभी-कभी अगर तुम संयोग से कुछ ज्यादा ही कठोरता से बोलते हो तो तुम उन्हें ठेस पहुँचा सकते हो और वे मन-ही-मन प्रतिरोध कर सकते हैं। ऊपरी तौर पर हो सकता है कि यह ज्यादा न लगे, लेकिन अंदर से बात अलग होती है। आम तौर पर जब तुम उनसे कुछ करने के लिए कहते हो तो वे तुरंत ऐसा कर देते हैं, लेकिन अगर तुम उनकी भावनाओं को ठेस पहुँचाते हो, तो वे काम करने के प्रति कम उत्साहित होते हैं, जानबूझकर देरी करते हैं और बिल्कुल अनिच्छुक हो जाते हैं। वे कहते हैं, “जब मेरी मनःस्थिति खराब है तो मैं तुम्हारे लिए अच्छा कैसे बन सकता हूँ? जब मेरी मनःस्थिति अच्छी होगी तो मैं ज्यादा भला बन जाऊँगा, लेकिन मनःस्थिति ठीक न रही तो कामचलाऊ होना काफी रहेगा।” आखिर यह किस तरह का प्राणी है? क्या लोगों से निपटना कठिन नहीं है? (बिल्कुल।) लोग ऐसे ही होते हैं, विवेक से प्रभावित न होने वाले और तर्क से परे। बाद में आत्म-चिंतन करते समय वे अपना सिर झुका लेंगे, अपने पाप कबूल कर लेंगे और फूट-फूट कर रो भी लेंगे, लेकिन जब वे एक बार फिर ऐसे मसलों का सामना करते हैं और उनकी काट-छाँट की जाती है, तब भी वे पहले जैसी ही प्रतिक्रिया करते हैं। क्या यह ऐसा इंसान है जो सत्य को खोजता है? (नहीं।) यह किस प्रकार का इंसान है? ऐसा इंसान स्वेच्छाचारी होता है और सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करता है। जब लोगों को काट-छाँट का सामना करना पड़ता है और जब वे मुश्किलों का सामना करते हैं, तो परमेश्वर के प्रति उनका रवैया इसी प्रकार का होता है। संक्षेप में कहें तो वे समर्पित नहीं हैं, वे सत्य को स्वीकार नहीं कर सकते और जब उन्हें ठेस पहुँचती है तो वे परमेश्वर के साथ उतावलेपन से पेश आते हैं। क्या यह एक गंभीर समस्या नहीं है? जब मेरी मुलाकात कुछ लोगों से होती है, तो उनकी काट-छाँट करने से पहले ही हाथ में लिए मामले के बारे में सुनते ही उनके चेहरे उतर जाते हैं, वे मुँह फुलाकर बोलते हैं, उनका रवैया खराब होता है, यहाँ तक कि वे चीजें भी फेंक देते हैं। तुम उनसे खुलकर बात नहीं कर सकते; तुम्हें घुमा-फिराकर बात करनी होती है और चतुराई से काम लेना पड़ता है। क्या मैं लोगों की तरह घुमा-फिरा कर बात कर सकता हूँ? चाहे तुम इसे स्वीकार कर सको या न कर सको, मुझे वही कहना है जो सच है—परमेश्वर के घर में चीजें सत्य सिद्धांतों के अनुसार होनी चाहिए। जब कुछ लोगों की काट-छाँट की जाती है तो वे कोई बाहरी प्रतिक्रिया नहीं दिखाते हैं परंतु अंदर-ही-अंदर वे खीझते हैं। क्या ऐसा व्यक्ति अपना कर्तव्य अच्छे से निभा सकता है? (नहीं।) अगर ऐसे लोग अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभा सकते और गलतियाँ करते रहते हैं, तो कलीसिया को उनसे सिद्धांतों के अनुसार निपटना होगा।

2. मसीह के प्रति उनका तब का व्यवहार जब उसका पीछा किया जा रहा था और उसके पास सिर टिकाने की भी जगह नहीं थी

मुख्य भूमि चीन में परमेश्वर में विश्वास रखने और उसका अनुसरण करने में हर दिन खतरा है। इसके लिए यह असाधारण रूप से कठोर माहौल है, जिसमें किसी व्यक्ति को कभी भी गिरफ्तार किया जा सकता है। तुम सब लोगों ने पीछा किए जाने के माहौल का अनुभव किया है—और क्या मैंने भी नहीं किया है? तुम और मैं एक ही माहौल में रहते थे, इसलिए उस माहौल में मुझे अक्सर खुद को छिपाना पड़ता था। कई बार मुझे दिन में दो-तीन बार जगह बदलनी पड़ती थी; कई बार ऐसा भी होता था, जब मुझे किसी ऐसी जगह जाना पड़ता था, जहाँ जाने के बारे में मैंने सपने में भी नहीं सोचा था। सबसे कठिन समय वह था जब मेरे पास जाने के लिए कोई जगह नहीं थी—मैं दिन में सभा आयोजित करता था, फिर रात में मुझे पता नहीं रहता था कि सुरक्षा कहाँ है। कभी-कभी कड़ा संघर्ष करके कोई जगह ढूँढ़ने के बाद मुझे अगले ही दिन चले जाना पड़ता था, क्योंकि बड़ा लाल अजगर वहाँ बढ़ा चला आता था। ऐसा दृश्य देखकर परमेश्वर में सच्चा विश्वास करने वाले लोग क्या सोचते हैं? “परमेश्वर का मनुष्य को बचाने के लिए देहधारी होकर पृथ्वी पर आना ही वह कीमत है, जो उसने चुकाई है। यह उन कष्टों में से एक है, जो उसने सहे हैं, और यह उसके इन वचनों को पूरी तरह से साकार करता है, ‘लोमड़ियों के भट और आकाश के पक्षियों के बसेरे होते हैं; परन्तु मनुष्य के पुत्र के लिये सिर धरने की भी जगह नहीं है’ (मत्ती 8:20)। चीजें वास्तव में ऐसी ही हैं—और देहधारी मसीह व्यक्तिगत रूप से ऐसे कष्ट का अनुभव करता है, वैसे ही जैसे मनुष्य झेलता है।” जो लोग वास्तव में परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, वे सभी देख सकते हैं कि मनुष्य को बचाने का उसका कार्य कितना कठिन है, और इसके लिए वे परमेश्वर से प्रेम करेंगे और उस कीमत के लिए उसका धन्यवाद करेंगे, जो वह मानवजाति के लिए चुकाता है। जो लोग बहुत ही खराब मानवता वाले हैं, जो दुर्भावनापूर्ण हैं और सत्य को पूरी तरह अस्वीकार करते हैं, और साथ ही जो केवल जिज्ञासावश या चमत्कार देखने की इच्छा से मसीह का अनुसरण करते हैं, वे जब ऐसे दृश्य देखते हैं तो इस तरह से नहीं सोचते हैं। वे मन-ही-मन सोचते हैं, “तुम्हारे पास रहने का कोई ठिकाना नहीं है? तुम परमेश्वर हो, लोगों को बचाने के लिए कार्य कर रहे हो, फिर भी तुम खुद को ही नहीं बचा सकते और यह भी नहीं जानते कि कल तुम कहाँ रहोगे। अब तुम्हारे पास शरण लेने के लिए भी जगह नहीं है—मैं तुममें कैसे विश्वास रख सकता हूँ या कैसे तुम्हारा अनुसरण कर सकता हूँ?” परिस्थितियाँ जितनी ज्यादा जोखिमभरी होती हैं, वे यह सोचकर उतना ही अधिक आनंदित होते हैं, “सौभाग्य से मैंने सब कुछ पूरी तरह से नहीं त्यागा; सौभाग्य से मैंने अपने लिए एक सहायक योजना रखी है। देखा? अब तुम्हारे पास अपना घर कहने को कोई जगह नहीं है! मैं जानता था कि यह नौबत आएगी—तुम्हारे पास अपना सिर टिकाने की कोई जगह नहीं है और तुम्हें शरण दिलाने के लिए मुझे जगह तलाशने में भी मदद करनी होगी।” ऐसे लोगों का खुलासा हो गया, है ना? अगर ऐसे लोगों को प्रभु यीशु को सूली पर चढ़ाए जाने का दृश्य देखना पड़ता तो वे कैसा व्यवहार करते? जब प्रभु यीशु क्रूस को गोलगोथा की पहाड़ी की ओर ले जा रहा था तो ऐसे लोग कहाँ थे? क्या वे उसका अनुसरण करते रहे? (नहीं।) उन्होंने परमेश्वर की पहचान, उसके सार और यहाँ तक कि उसके अस्तित्व को भी नकार दिया। वे भाग खड़े हुए, अपनी गुजर-बसर खुद करने के लिए दूर चले गए और परमेश्वर का अनुसरण करना बंद कर दिया। उन्होंने पहले चाहे कितने ही धर्मोपदेश सुने हों, वे सब उनके दिलों से मिट गए, उनका नामो-निशान तक न रहा। वे मानते थे कि उन्होंने अपने सामने जो कुछ भी देखा वह वास्तविक था और मानवीय मूल का था, जिसका परमेश्वर से कोई संबंध नहीं था। उन्हें लगता था, “यह व्यक्ति सिर्फ एक इंसान है; उसमें परमेश्वर की पहचान या सार कहाँ है? अगर वह परमेश्वर होता तो क्या वह खुद को इस तरह छिपाता और गुप्त रखता, शैतान उसका इस तरह पीछा करता कि उसके पास सिर टिकाने और शरण लेने के लिए कोई जगह न होती? अगर वह परमेश्वर होता तो अपना पीछा किए जाने पर उसे अचानक रूप बदलकर सबकी नजरों से गायब हो जाना चाहिए, ऐसा बन जाना चाहिए कि कोई भी उसे देख न सके और यह जानना चाहिए कि खुद को अदृश्य कैसे किया जाए—तब वह परमेश्वर होता!” मुख्य भूमि चीन के खतरनाक माहौल में कुछ भाई-बहनों ने यह देखकर कि मैं उनके यहाँ गया था, मेरी मेजबानी और सुरक्षा करने के लिए अपनी सुरक्षा जोखिम में डाल ली, जबकि दूसरे लोग भाग गए, अपना कोई निशान छोड़े बिना गायब हो गए। कुछ ने तो दूर से मनोरंजन के साथ देखा। ये लोग कौन हैं? वे छद्म-विश्वासी हैं, मसीह-विरोधी हैं। जब उन्होंने देखा कि मसीह का पीछा एक शहर से दूसरे शहर तक किया जा रहा है तो उन्होंने इस स्थिति को किस रूप में भाँपा? उन्होंने इसे कैसे समझा? “मसीह भी खतरे में है। अगर उसे गिरफ्तार कर लिया गया, तो कलीसिया का कार्य बरबाद हो जाएगा और परमेश्वर के घर का कार्य रुक जाएगा। इससे साबित हो जाएगा कि परमेश्वर ने जो गवाही दी वह गलत है—कि यह परमेश्वर की तरफ से नहीं, बल्कि इंसान की तरफ से आती है। बेहतर होगा कि मैं अपना खुद का जीवन जीने के लिए जल्द घर चला जाऊँ; मैं खूब पैसा कमाने जा रहा हूँ!” यह एक मसीह-विरोधी का व्यवहार है। जब मसीह का पीछा किया जा रहा था और उसके पास छिपने और सिर टिकाने के लिए कोई जगह नहीं थी तो ऐसे माहौल में परमेश्वर के साथ एकदिल होकर पीड़ा सहने और उसके साथ कलीसिया का कार्य जारी रखने के बजाय वे तमाशबीन बन गए और उसे देखकर खिल्ली उड़ाने लगे। उन्होंने तो दूसरों को भी तोड़फोड़ करने, गड़बड़ी करने और बाधा डालने को उकसाया; यही नहीं, जब कुछ लोगों ने देखा कि मेरे पास छिपने और बसने के लिए कोई जगह नहीं है तो उन्होंने इसे कलीसिया के कार्य में बाधा डालने और परमेश्वर के घर की संपत्ति को जब्त करने के मौके के रूप में इस्तेमाल किया। यह बिल्कुल वैसा ही है जैसा यीशु को सूली पर चढ़ाते समय कई छद्म-विश्वासियों और मसीह-विरोधियों ने सोचा था, “कलीसिया खत्म हो गई है, परमेश्वर का कार्य नष्ट हो गया है, शैतान ने इसे पूरी तरह ध्वस्त कर दिया है। बेहतर है कि हम भाग जाएँ और सामान आपस में बाँटना शुरू कर दें!” वे चाहे कैसी भी परिस्थितियों का सामना करें, ये छद्म-विश्वासी और मसीह-विरोधी हमेशा अपने क्रूर स्वभाव प्रकट करेंगे, छद्म-विश्वासियों के असली लक्षण प्रकट करेंगे। कलीसिया को जब भी परेशानी या प्रतिकूल परिस्थितियों का हल्का-सा भी संकेत मिलता है तो वे तुरंत भाग जाना चाहते हैं, इस बात के लिए उत्सुक रहते हैं कि सभी भाई-बहन तितर-बितर हो जाएँ, पीछे हट जाएँ और आइंदा मसीह का अनुसरण न करें। उनकी दिली इच्छा होती है कि यह धारा गलत हो और परमेश्वर का कार्य अधूरा छूट जाए। मसीह-विरोधियों के यही असली लक्षण हैं। ऐसी परिस्थितियों का सामना करते समय मसीह के प्रति उनका यही रवैया होता है।

3. मसीह के बारे में धारणाओं को जन्म देने के समय उनका व्यवहार

एक अन्य मद है मसीह-विरोधियों की उस समय की अभिव्यक्तियाँ जब उनके मन में देहधारी परमेश्वर के देह के बारे में धारणाएँ होती हैं। उदाहरण के लिए, जब वे देहधारी परमेश्वर को कुछ ऐसे कार्य करते हुए या कुछ ऐसे वचन कहते हुए देखते हैं जो निहायत मनुष्य-जैसे हैं तो दिव्यता का लेशमात्र भी संकेत न भाँपकर उनके अंतर्मन में प्रतिरोध पैदा हो जाता है, धारणाएँ और निंदा उपजने लगती हैं और वे सोचते हैं, “उस व्यक्ति को मैं चाहे जैसे भी देखूँ, वह परमेश्वर जैसा नहीं लगता; वह बस एक साधारण इंसान जैसा दिखता है। अगर वह मनुष्य जैसा है, तो क्या तब भी वह परमेश्वर हो सकता है? अगर वह एक इंसान है तो क्या इस तरह उसका अनुसरण करना निपट मूर्खता नहीं होगी?” वे मसीह की वाणी और क्रियाकलापों, मसीह की जीवनशैली, उसके पहनावे और रूप-रंग, यहाँ तक कि उसके बोलने के तरीके, उसके लहजे, उसके शब्द-चयन इत्यादि के बारे में धारणाएँ बना लेते हैं—वे इन सबके बारे में धारणाएँ बना सकते हैं। जब ये धारणाएँ उपजती हैं तो वे इनसे कैसे पेश आते हैं? वे ये विचार पाल लेते हैं और इन्हें जाने नहीं देते हैं, वे मानते हैं कि इन धारणाओं पर पकड़ रखना कुंजी हाथ लगने जैसा है। उन्हें लगता है कि यह “कुंजी” बिल्कुल ठीक समय पर मिली है, कि जब वे ये धारणाएँ पाल लेते हैं तो इससे वे फायदे की स्थिति में रहते हैं, और जब वे फायदे की स्थिति में होते हैं तो सँभालना आसान हो जाता है। मसीह-विरोधी इसी तरह सोचते हैं; उन्हें लगता है कि धारणाएँ होना फायदे की स्थिति में होने के बराबर है, और इसलिए वे कभी भी और कहीं भी मसीह को नकार सकते हैं और इस तथ्य को भी नकार सकते हैं कि जिस देह में परमेश्वर ने देहधारण किया है उसमें परमेश्वर का सार है। कुछ लोग पूछते हैं, “मसीह-विरोधी ऐसे इरादे क्यों पालते हैं?” मुझे बताओ, मसीह-विरोधी यानी शैतान के गिरोह के लोग परमेश्वर के कार्यों के सफल समापन की आशा करते हैं या नहीं? (वे नहीं करते हैं।) वे इसकी आशा क्यों नहीं करते? यह क्या प्रकट करता है? मसीह-विरोधी बुनियादी तौर पर सत्य से विमुख होते हैं जबकि परमेश्वर द्वारा व्यक्त सभी वचन सत्य हैं, जो उनके दिल को पूरी तरह घृणित लगते हैं और वे इन्हें सुनने या स्वीकारने के इच्छुक नहीं रहते हैं। परमेश्वर के जो वचन मानवजाति को उजागर कर उसका न्याय करते हैं वे इन मसीह-विरोधियों और बुरे लोगों की निंदा होते हैं और वे जब ये वचन सुनते हैं तो इन्हें अपनी निंदा, न्याय और धिक्कार मानकर असहज और बेचैन हो जाते हैं। वे अपने दिलों में क्या सोचते हैं? “परमेश्वर के कहे हुए ये सारे वचन मेरा न्याय और मेरी निंदा कर रहे हैं। ऐसा लगता है कि मेरे जैसे व्यक्ति को बचाया नहीं जा सकता; मैं उस प्रकार का व्यक्ति हूँ जिसे हटा दिया जाता है, अस्वीकृत कर दिया जाता है। जब मुझे बचाए जाने की कोई उम्मीद नहीं है, तो परमेश्वर में विश्वास रखने का क्या मतलब है? लेकिन तथ्य यह है कि वह अभी भी परमेश्वर है, वह वही देह है जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है, जिसने इतने सारे वचन बोले हैं और जिसके इतने सारे अनुयायी हैं। इसके बारे में मुझे क्या करना चाहिए?” यह बात उन्हें व्याकुल कर देती है; अगर वे कोई चीज हासिल नहीं कर सकते तो वे नहीं चाहते कि यह दूसरों को भी मिले। अगर यह उन्हें न मिले और दूसरों को मिल जाए, तो वे बुरी तरह से द्वेषपूर्ण और नाखुश हो जाते हैं। वे उम्मीद करते हैं कि देहधारी परमेश्वर काश परमेश्वर न हो और वह जो कार्य करता है वह नकली हो और परमेश्वर का किया हुआ न हो। अगर यह बात है, तो वे अंदर से संतुलित महसूस करेंगे और समस्या जड़ से हल हो जाएगी। वे मन-ही-मन सोचते हैं, “अगर यह व्यक्ति देहधारी परमेश्वर न हुआ तो क्या इसका मतलब यह है कि उसका अनुसरण करने वाले लोग मूर्ख बनाए जा रहे हैं? अगर यह बात है तो देर-सबेर ये लोग तितर-बितर हो जाएँगे। अगर वे तितर-बितर हो गए और उनमें से किसी को भी कुछ हासिल नहीं हुआ तो यह जानकर भी मैं निश्चिंत और संतुलित हो लूँगा कि मुझे कुछ नहीं मिला, है ना?” उनकी यह मानसिकता होती है; वे कुछ भी हासिल नहीं कर सकते, इसलिए वे नहीं चाहते कि दूसरों को भी कुछ हासिल हो। दूसरों को कुछ भी हासिल करने से रोकने का सबसे अच्छा हथकंडा है मसीह को नकार देना, मसीह के सार को नकार देना, मसीह के किए कार्यों को नकार देना और मसीह के कहे सभी वचनों को नकार देना। इस तरह से उनकी निंदा नहीं होगी और कुछ भी हासिल न करने को वे स्वीकार लेंगे और शांत रहेंगे और उन्हें इस मामले को लेकर फिर कभी चिंतित होने की जरूरत नहीं पड़ेगी। मसीह-विरोधियों जैसे लोगों का यही प्रकृति सार है। तो क्या उनमें मसीह को लेकर धारणाएँ होती हैं? और जब उनमें धारणाएँ होती हैं तो क्या वे उन्हें हल करते हैं? क्या वे इन्हें जाने दे सकते हैं? वे ऐसा नहीं कर सकते। उनकी धारणाएँ कैसे उपजती हैं? उनके लिए धारणाएँ बनाना आसान है : “जब तुम बोलते हो तो मैं तुम्हारी पड़ताल करता हूँ, तुम्हारे वचनों के पीछे के मकसद और उनके स्रोत को समझने का प्रयास करता हूँ। क्या ये वचन तुमने सुने हैं या सीखे हैं या किसी ने तुम्हें ये बोलने का निर्देश दिया है? क्या किसी ने तुम्हारे पास कोई सूचना या शिकायत दर्ज कराई है? तुम किसे उजागर कर रहे हो?” वे इस तरह पड़ताल करते हैं। क्या वे सत्य को समझ सकते हैं? वे सत्य को कभी नहीं समझ सकते; वे अपने हृदय से इसका प्रतिरोध करते हैं। वे सत्य से विमुख हैं, इसका प्रतिरोध और इससे नफरत करते हैं और वे इस प्रकार के प्रकृति सार के साथ धर्मोपदेश सुनते हैं। सिद्धांतों और धर्म-सिद्धांतों के अलावा वे बस धारणाएँ ही जुटाते हैं। किस तरह की धारणाएँ? “मसीह इस प्रकार बोलता है, कभी-कभी चुटकुले भी सुनाता है; यह श्रद्धासूचक तो नहीं है! कभी वह प्रतीकात्मक कहावतों का प्रयोग करता है; यह गंभीरता की बात नहीं है! उसकी वाणी में वाक्पटुता नहीं है; वह बहुत अधिक पढ़ा-लिखा नहीं है! कभी-कभी उसे अपने शब्द-चयन के लिए सोच-विचार करना पड़ता है; उसने विश्वविद्यालय में पढ़ाई नहीं की, क्या उसने की? कभी-कभी उसकी वाणी किसी व्यक्ति विशेष को निशाना बनाती है—वह कौन है? क्या किसी ने शिकायत दर्ज कराई है? वह कौन था? जब मसीह बोलता है, तो हमेशा मेरी आलोचना क्यों करता है? क्या वह दिन भर मुझे देख रहा है और मेरी निगरानी कर रहा है? क्या वह पूरा दिन लोगों के बारे में सोचने में बिताता है? मसीह अपने दिल में क्या सोच रहा है? देहधारी परमेश्वर की वाणी ऐसी नहीं लगती कि वह एकछत्र अधिकार वाले स्वर्ग के परमेश्वर की गरजदार आवाज हो—वह जो अभिव्यक्त करता है वह इतना मनुष्य-जैसा क्यों लगता है? मैं उसे चाहे जैसे भी देखूँ, वह बस एक इंसान ही है। क्या देहधारी परमेश्वर में कोई कमजोरी है? क्या वह अपने दिल में लोगों से नफरत करता है? क्या लोगों के साथ बातचीत करने के लिए उसके पास सांसारिक आचरण का कोई फलसफा है?” क्या ये धारणाएँ प्रचुर नहीं हैं? (बिल्कुल हैं।) मसीह-विरोधियों के विचार ऐसी चीजों से भरे होते हैं जिनका सत्य से संबंध नहीं होता, ये सभी विचार शैतान की सोच और तर्क से उपजते हैं, शैतान के सांसारिक आचरण के फलसफे से उत्पन्न होते हैं। वे अंदर तक दुष्टता से भरे होते हैं, सत्य से विमुख दशा और स्वभाव से भरे होते हैं। वे सत्य को खोजने या प्राप्त करने के लिए नहीं, बल्कि परमेश्वर की पड़ताल करने आते हैं। उनकी धारणाएँ कभी भी, कहीं भी उत्पन्न हो सकती हैं, और वे निरीक्षण और पड़ताल करते समय धारणाएँ बनाते हैं। उनकी धारणाएँ उनके न्याय और उनकी निंदा के दौरान उपजती हैं और वे इन धारणाओं को अपने दिलों में कसकर थामते हैं। जब वे देहधारी परमेश्वर के मानवीय पक्ष को देखते हैं, तब धारणाएँ बना लेते हैं। जब वे दिव्य पक्ष को देखते हैं तो जिज्ञासु और चकित हो जाते हैं, इससे भी धारणाएँ पैदा होती हैं। मसीह के प्रति और उस देह के प्रति जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है, उनका रवैया समर्पण भरा या दिल की गहराई से वास्तविक स्वीकृति का नहीं होता है। बल्कि वे मसीह के विरुद्ध खड़े होते हैं, उसकी एकटक दृष्टि, उसके विचारों और व्यवहार को देखते और उनकी पड़ताल करते हैं, यहाँ तक कि मसीह की हर अभिव्यक्ति को देखते और पड़ताल करते हैं, हर तरह के लहजे, बोलने की लय और शब्द-चयन, मसीह की वाणी में आए संदर्भों वगैरह को सुनते और उन पर गौर करते हैं। जब मसीह-विरोधी लोग मसीह का इस तरह निरीक्षण और पड़ताल करते हैं, तो उनके रवैये में यह मंशा नहीं होती कि सत्य को खोजें और उसे समझ लें ताकि वे मसीह को अपना परमेश्वर स्वीकार सकें, मसीह को अपना सत्य मान सकें और अपना जीवन बना सकें। इसके विपरीत वे इस व्यक्ति की पड़ताल करना चाहते हैं, पूरी तरह पड़ताल कर उसे समझना-बूझना चाहते हैं। वे किस चीज को समझने-बूझने की कोशिश कर रहे हैं? वे इस बात की पड़ताल कर रहे हैं कि यह व्यक्ति किस प्रकार से परमेश्वर के समान है, और अगर वह सच में परमेश्वर के समान लगता है तो वे उसे स्वीकार लेते हैं। वे उसकी चाहे कितनी भी पड़ताल कर लें, अगर वह परमेश्वर जैसा न लगे, तो वे उसे स्वीकारने के विचार को पूरी तरह त्याग देते हैं और देहधारी परमेश्वर के बारे में धारणाओं पर कायम रहते हैं या यह मानते हुए कि आशीष पाने की कोई आस नहीं है, वे जल्द रफूचक्कर हो जाने की ताक में रहते हैं।

परमेश्वर ने जिस देह में देहधारण किया है उसके बारे में धारणाएँ बनाना मसीह-विरोधियों के लिए बिल्कुल सामान्य बात है। अपने मसीह-विरोधी सार के कारण, अपने सत्य-विमुख सार के कारण उनके लिए अपनी धारणाओं को त्याग देना असंभव है। जब कुछ नहीं हो रहा होता है तो वे परमेश्वर के वचनों की पुस्तक को पढ़कर इन वचनों को परमेश्वर के रूप में देखते हैं, लेकिन देहधारी परमेश्वर के संपर्क में आने पर और उसे परमेश्वर के समान न पाकर उनके मन में तुरंत धारणाएँ उत्पन्न होने लगती हैं और उनका रवैया बदल जाता है। जब वे देहधारी परमेश्वर के संपर्क में नहीं होते हैं तो वे महज परमेश्वर के वचनों की पुस्तक थामकर उसके वचनों को परमेश्वर मानते हैं, और अभी भी वे आशीष पाने को लेकर एक अस्पष्ट कल्पना और इरादा पाल सकते हैं ताकि अनिच्छा से कुछ प्रयास करें, कुछ कर्तव्य निभाएँ और परमेश्वर के घर में एक भूमिका निभाएँ। लेकिन जैसे ही वे उस देह के संपर्क में आते हैं जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है, उनके मन में धारणाएँ उमड़ने लगती हैं। भले ही उनकी काट-छाँट न की जाए, फिर भी हो सकता है कि अपना कर्तव्य निभाने के प्रति उनका उत्साह काफी क्षीण हो जाए। मसीह-विरोधी लोग परमेश्वर के वचनों के साथ और उस देह के साथ जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है, इसी तरह व्यवहार करते हैं। वे अक्सर परमेश्वर के वचनों को उस देह से अलग कर देते हैं जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है, वे परमेश्वर के वचनों को परमेश्वर मानते हैं और जिस देह में परमेश्वर ने देहधारण किया है उसे इंसान मानते हैं। जिस देह में परमेश्वर ने देहधारण किया है जब वह उनकी धारणाओं से मेल नहीं खाती या इनका उल्लंघन करती है तो वे तुरंत परमेश्वर के वचनों की ओर रुख कर इनका प्रार्थना-पाठ करते हैं, अपनी धारणाओं को जबरन दबाने और कैद करने की कोशिश करते हैं। फिर वे परमेश्वर के वचनों की आराधना ऐसे करते हैं मानो वे स्वयं परमेश्वर की आराधना कर रहे हों और ऐसा लगता है मानो उनकी धारणाएँ दूर हो गई हों। लेकिन वास्तविकता में मसीह के प्रति उनका आंतरिक गैर-अनुपालन, आक्रोश और अवमानना बिल्कुल भी दूर नहीं हुई है। मसीह से व्यवहार करते हुए मसीह-विरोधी अपने मन में लगातार धारणाओं को जन्म देते रहते हैं और उनसे मृत्यु-पर्यंत हठपूर्वक चिपके रहते हैं। जब उनमें धारणाएँ नहीं होतीं तो वे पड़ताल और विश्लेषण करते हैं; जब उनमें धारणाएँ होती हैं तो वे न केवल पड़ताल और विश्लेषण करते हैं बल्कि इन पर हठपूर्वक कायम भी रहते हैं। वे न तो अपनी धारणाओं को दूर करते हैं और न ही सत्य खोजते हैं; वे इस बात से आश्वस्त होते हैं कि वे सही हैं। क्या वे शैतान के नहीं हैं? (बिल्कुल।) जब मसीह-विरोधियों के मन में देहधारी परमेश्वर के बारे में धारणाएँ होती हैं, तो उनकी यही अभिव्यक्तियाँ होती हैं।

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