मद दस : वे सत्य का तिरस्कार करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग तीन) खंड एक

II. उस देह का तिरस्कार करना जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है

पिछली संगति का विषय था मसीह-विरोधियों की दसवीं अभिव्यक्ति—सत्य का तिरस्कार करना, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाना और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करना। इस मद को विस्तृत संगति के लिए तीन और खंडों में बाँट दिया गया है। पहला खंड है परमेश्वर की पहचान और सार का तिरस्कार करना, दूसरा है उस देह का तिरस्कार करना जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है और तीसरा खंड है परमेश्वर के वचनों का तिरस्कार करना। इन तीनों खंडों का उपयोग मसीह-विरोधियों की विभिन्न अभिव्यक्तियों संबंधी दसवीं मद का गहन-विश्लेषण करने के लिए किया गया है। पहले खंड पर संगति हो चुकी है और दूसरे खंड, उस देह का तिरस्कार करना जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है, को संगति के लिए चार भागों में बाँटा गया है। ये चार भाग क्या हैं? (पहला, खुशामद, चापलूसी और अच्छे लगने वाले शब्द; दूसरा, जिज्ञासा के साथ, जाँच-पड़ताल और विश्लेषण; तीसरा, मसीह के साथ उनका व्यवहार उनकी मनःस्थिति पर निर्भर करता है; और चौथा, मसीह जो कहता है उसे केवल सुनना, लेकिन न तो उसका आज्ञापालन करना और न ही उसके प्रति समर्पण करना है।) पिछली बार पहले दो भागों पर संगति की गई थी; इस बार हम तीसरे भाग पर संगति करेंगे।

ग. मसीह के साथ उनका व्यवहार उनकी मनःस्थिति पर निर्भर करता है

तीसरा भाग है “मसीह के साथ उनका व्यवहार उनकी मनःस्थिति पर निर्भर करता है”; इस सरल वाक्यांश के आधार पर हम मसीह-विरोधियों की विभिन्न अभिव्यक्तियों पर नजर डालेंगे। तुम लोगों के मन में बनी छवि में या जो कुछ तुम लोगों ने देखा और अनुभव किया है उसमें क्या इस भाग से संबंधित कुछ उदाहरण नहीं होने चाहिए? कुछ लोग कहते हैं : “मेरा मसीह से कभी संपर्क नहीं रहा; मैंने केवल उसके धर्मोपदेश सुने हैं। मुझे इस अभिव्यक्ति का कोई वास्तविक अनुभव नहीं है, न ही मैंने दूसरों को इसे वास्तविकता में प्रदर्शित करते देखा है।” तुम लोगों में से जिन्हें इस भाग का वास्तविक अनुभव है, क्या तुम्हारे पास इसके अनुरूप कोई भावना या समझ है? कोई नहीं? फिर तो हमें वास्तव में गहन संगति की जरूरत है, है ना? (हाँ।) ऊपरी तौर पर लगता है कि जब लोग मसीह के संपर्क में आते हैं तो इस भाग का संबंध विभिन्न रवैयों और अभिव्यक्तियों से होता है। वास्तव में इस भाग से कोई व्यक्ति न सिर्फ परमेश्वर ने जिस देह में देहधारण किया है उसके प्रति लोगों की तमाम अभिव्यक्तियाँ और रवैये देख सकता है, बल्कि जिस देह में परमेश्वर ने देहधारण किया है उसके प्रति लोगों के व्यवहार में परमेश्वर के लिए उनके सच्चे रवैयों और अभिव्यक्तियों को भी पहचान सकता है। यानी इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि लोग परमेश्वर की पहचान और सार रखने वाले स्वयं परमेश्वर से किस रवैये से पेश आते हैं और क्या उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय, सच्ची आस्था और सच्चा समर्पण है। विभिन्न स्थितियों का सामना करते समय मसीह के प्रति लोगों के रवैये उस परमेश्वर के प्रति उनके रवैयों को प्रकट कर देते हैं जिसमें वे विश्वास रखते हैं। इस साधारण व्यक्ति मसीह से पेश आते समय तुममें कोई धारणा, सच्ची आस्था या सच्चा समर्पण है या नहीं, इससे यह संकेत मिल जाता है कि क्या स्वयं परमेश्वर यानी जिस परमेश्वर में तुम विश्वास रखते हो उसके प्रति तुममें सच्ची आस्था और सच्चा समर्पण है या नहीं। लोग स्वर्ग के परमेश्वर के प्रति व्यवहार में—अपने रवैयों, विचारों और वास्तविक सोच में—बिल्कुल अस्पष्ट होते हैं, वे परमेश्वर के प्रति अपने वास्तविक रवैये प्रकट नहीं करते हैं। लेकिन जब लोग वास्तव में परमेश्वर का सामना करते हैं और उस मूर्त, हाड़-मांस के शरीर को देखते हैं जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है तो परमेश्वर के प्रति उनके सच्चे रवैयों का पूरी तरह से खुलासा हो जाता है। लोग जो शब्द बोलते हैं, उनके मन में जो विचार हैं, वे अपने दिलों में जो दृष्टिकोण अपनाते और कायम रखते हैं और यहाँ तक कि मसीह के प्रति उनके दिलों के विचार और रवैये दरअसल इस बात की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं कि वे परमेश्वर के साथ कैसा व्यवहार करते हैं। चूँकि स्वर्ग का परमेश्वर अदृश्य और अमूर्त है, इसलिए लोग उसके बारे में कैसे सोचते हैं, वे उसके साथ कैसा व्यवहार करते हैं, वे उसे कैसे सीमांकित करते हैं और क्या वे आज्ञाकारी हैं, यह मापने के लिए लोगों के पास दरअसल कोई मानक नहीं है कि क्या उनकी अभिव्यक्तियाँ सही हैं या नहीं अथवा सत्य के अनुरूप हैं या नहीं। लेकिन जब परमेश्वर मसीह के रूप में देहधारण करता है तो यह सब बदल जाता है : परमेश्वर के प्रति लोगों की इन सभी अभिव्यक्तियों और रवैयों को मापने के लिए एक मानक बन जाता है, जिससे परमेश्वर के प्रति लोगों के सच्चे रवैये स्पष्ट दिखने लगते हैं। अक्सर लोग यह सोचते हैं कि उन्हें परमेश्वर में अपार आस्था और सच्चा विश्वास है, उन्हें लगता है कि परमेश्वर महान, सर्वोच्च और प्यारा है। लेकिन क्या ये उनके वास्तविक आध्यात्मिक कद का प्रतिबिंब हैं या महज एक मनःस्थिति हैं? यह तय करना कठिन है। जब लोग परमेश्वर को देख नहीं पाते तो उससे व्यवहार करने के प्रति लोगों के इरादे चाहे कितने ही अच्छे क्यों न हों, उसके प्रति उनके व्यवहार में हमेशा अस्पष्टता, खोखलेपन और अव्यावहारिकता की मिलावट होती है, यह हमेशा कुछ खोखली कल्पनाओं से भरा होता है। जब लोग वास्तव में परमेश्वर को देखते हैं और उसके संपर्क में आते हैं तो परमेश्वर में उनकी आस्था की सीमा, परमेश्वर के प्रति उनके समर्पण का स्तर और क्या उनमें परमेश्वर के प्रति सच्चा प्रेम है, इन सबका पूरी तरह से खुलासा हो जाता है। इसलिए जब परमेश्वर देहधारी हो जाता है, खासकर जब वह सभी लोगों के लिए यथासंभव साधारण व्यक्ति बन जाता है, तो यह देह, यह साधारण व्यक्ति हर किसी के लिए एक परीक्षण बन जाता है और प्रत्येक व्यक्ति की आस्था और वास्तविक आध्यात्मिक कद का भी खुलासा कर देता है। हो सकता है कि जब तुमने पहली बार परमेश्वर के अस्तित्व को स्वीकारा हो तो तुम उसका अनुसरण करने में सक्षम रहे हो, लेकिन जब तुम देहधारी परमेश्वर को स्वीकारते हो तो परमेश्वर को एक साधारण व्यक्ति बना देखकर तुम्हारा मन धारणाओं से भर जाता है। तब जिस मसीह में तुम विश्वास रखते हो—यह साधारण व्यक्ति—तुम्हारे विश्वास के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन जाता है। तो फिर चलो आज इस बात पर संगति करते हैं कि यह साधारण व्यक्ति, वह देह जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है यानी मसीह लोगों पर क्या प्रभाव डालता है, और इस साधारण व्यक्ति मसीह के प्रति लोग ऐसी कौन-सी वास्तविक अभिव्यक्तियाँ प्रकट करते हैं जो परमेश्वर के प्रति उनके तमाम सच्चे रवैयों और दृष्टिकोणों का खुलासा करती हैं।

तीसरे भाग की मुख्य विषयवस्तु यह है कि लोगों का मसीह के साथ व्यवहार उनकी मनःस्थिति पर निर्भर करता है। वास्तव में इस मनःस्थिति का आशय क्या है, यही आज की संगति का केंद्र बिंदु है, मुख्य विषय है। बेशक यह मनःस्थिति तो सिर्फ एक अनुनाम है, एक सामान्यीकरण है। यह मनःस्थिति नहीं है; इसके पीछे लोगों की विभिन्न धारणाएँ और कल्पनाएँ, साथ ही उनके तमाम भ्रष्ट स्वभाव, यहाँ तक कि उनका शैतानी प्रकृति सार भी घात लगाकर छिपे रहते हैं। जब व्यक्ति परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य निभाने में किसी बाधा का सामना नहीं करता, कोई भी चीज उसकी मनःस्थिति को प्रभावित नहीं करती और सब कुछ सुचारु रूप से चलता है, तो वह अक्सर परमेश्वर के सामने प्रार्थना कर सकता है और सुख और शांति से भरा बहुत ही नियमित जीवन जी सकता है। उसके आसपास का परिवेश भी सहज होता है, अधिकतर भाई-बहन एक-दूसरे के साथ मिलजुल कर रहते हैं, परमेश्वर अक्सर उन्हें कर्तव्य निभाने के दौरान और पेशेवर कौशल सीखने में मार्गदर्शन देता है, प्रबोधन और रोशनी प्रदान करता है, और अभ्यास के सिद्धांत उनके मन में अपेक्षाकृत स्पष्ट होते हैं—सब कुछ बहुत सामान्य और आसानी से चल रहा होता है। इस समय लोगों को लगता है कि उन्हें परमेश्वर में बहुत आस्था है, वे अपने दिल में खुद को परमेश्वर के बेहद करीब महसूस करते हैं, प्रार्थना करने और मन की बात कहने के लिए अक्सर परमेश्वर के समक्ष आ सकते हैं, खुद को परमेश्वर के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ महसूस कर सकते हैं और परमेश्वर को विशेष रूप से प्यारा पा सकते हैं। इस समय उनकी मनःस्थिति बहुत अच्छी होती है; वे अक्सर शांति और आनंद से रहते हैं, सभाओं में सक्रिय रूप से बोलते हैं, वे नियमित रूप से हर दिन परमेश्वर के वचनों का प्रार्थना-पाठ करने और भजन सीखने में सक्षम होते हैं। जब सब कुछ इतने अच्छे और सुचारु ढंग से चल रहा होता है, तो लोग लगातार अपने दिल में परमेश्वर को धन्यवाद दे रहे होते हैं, मौन होकर परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं और खुद को जीवन भर परमेश्वर के लिए खपाने, अपना सब कुछ उसे अर्पित करने और कठिनाइयों को सहने और अपने कर्तव्य अच्छे से निभाने के लिए कीमत चुकाने का संकल्प लेते हैं। उन्हें लगता है कि परमेश्वर इतना महान है, इतना प्यारा है और उनमें खुद को परमेश्वर को अर्पित करने, अपना पूरा जीवन उसे समर्पित करने का संकल्प और इच्छा होती है। क्या यह स्थिति बहुत ही सक्रिय और सकारात्मक नहीं है? यहाँ से ऐसा लगता है कि हम लोगों की वफादारी, परमेश्वर के लिए उनका प्रेम और उनका त्याग देख सकते हैं। सब कुछ बहुत अद्भुत, शांतिपूर्ण और सहज प्रतीत होता है। इन सभी अभिव्यक्तियों से ऐसा लगता है कि लोग बिना किसी प्रतिकूलता के अपनी ओर से बस सक्रिय रूप से प्रयास कर रहे हैं, परमेश्वर के कार्यों और उसकी अपेक्षाओं के अनुसार सहयोग कर रहे हैं। इस प्रकार वे अपने दिलों में लगातार परमेश्वर को धन्यवाद देते हैं, स्वर्ग के परमेश्वर को धन्यवाद देते हैं और पृथ्वी पर मसीह को धन्यवाद देते हैं और मसीह के प्रति अनंत प्रेम और श्रद्धा से भरे होते हैं। जब भी वे “इस तुच्छ व्यक्ति” शब्दों वाला भजन गाते हैं तो वे यह सोचकर अत्यधिक द्रवित हो जाते हैं, “वास्तव में इस तुच्छ व्यक्ति ने ही मुझे बचाया, मुझे यह अवसर दिया, आज मुझे परमेश्वर के घर में एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने दिया है!” यहाँ तक कि कुछ लोग सीधे प्रार्थना करते हैं : “हे व्यावहारिक परमेश्वर, देहधारी परमेश्वर, मसीह : मैं तुम्हें धन्यवाद देता हूँ, तुम्हारी स्तुति करता हूँ, क्योंकि तुमने मुझे ये सभी आशीष दिए हैं, तुमने मुझ पर अनुग्रह किया है। परमेश्वर तुम मेरे दिल के परमेश्वर हो, तुम सृष्टिकर्ता हो, एक तुम ही हो जिसका मैं अनुसरण करना चाहता हूँ। मैं उम्र भर खुद को तुम्हारे लिए खपाना चाहता हूँ।” ये सभी दृश्य इतने शांतिपूर्ण, इतने सुंदर और इतने सामंजस्यपूर्ण लगते हैं कि मानो बचाया जाना बहुत आसान और सहज हो। लेकिन क्या यह सामंजस्य और शांति वास्तव में हमेशा कायम रह सकती है? क्या यह अपरिवर्तित रह सकती है? यह उतना आसान नहीं है।

1. काट-छाँट किए जाने से सामना होने पर उनका व्यवहार

लोगों के अपने कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया में यह लाजमी है कि वे अपने भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करें, परिस्थितियों का सामना करते हुए बड़बड़ाएँ, अपने ही विचार पालें और इससे भी बढ़कर मनमाने ढंग से और लापरवाही से काम करें। ऐसी स्थितियों में लोगों को अनिवार्य रूप से काट-छाँट का सामना करना पड़ता है। जब काट-छाँट का सामना करना पड़ता है, तो जो व्यक्ति उत्साह से भरा होता है, परमेश्वर के बारे में कल्पनाओं और धारणाओं से भरा होता है, क्या उसमें वास्तव में इन सबका सामना करने, ईमानदारी से इन सबका अनुभव करने और ऐसी स्थितियों से सफलतापूर्वक पार पड़ने लायक आध्यात्मिक कद होता है? इससे एक सवाल खड़ा होता है और यहीं समस्या निहित है। जब लोगों को लगता है कि सब कुछ बहुत अद्भुत है, जब उन्हें लगता है कि परमेश्वर इतना प्यारा है, परमेश्वर लोगों से बहुत प्रेम करता है, उसका प्रेम इतना महान और इतना वास्तविक है, तभी उन्हें काट-छाँट होने, प्रकट होने का सामना करना पड़ता है तब जो लोग सत्य को नहीं समझते वे अक्सर हतप्रभ और भ्रमित, भयभीत और आशंकित महसूस करते हैं। उन्हें एकाएक लगता है जैसे उनके सामने अँधेरा छा गया है, वे आगे का रास्ता नहीं देख पाते, वे नहीं जानते कि मौजूदा स्थिति का सामना कैसे करें। जब वे परमेश्वर के सामने आते हैं, तो अपनी पहले जैसी ही भावनाओं की खोज करते हैं, पहली जैसी ही मनःस्थिति, विचारों, दृष्टिकोण और रवैये के साथ प्रार्थना करते हैं। लेकिन तभी उन्हें लगता है कि वे अब परमेश्वर का आभास नहीं कर पा रहे हैं। जब उन्हें यह लगता है कि उन्हें परमेश्वर का आभास नहीं हो पा रहा है तो वे सोचने लगते हैं : “क्या परमेश्वर अब मुझे नहीं चाहता? क्या परमेश्वर मेरा तिरस्कार कर रहा है? कहीं ऐसा तो नहीं कि भ्रष्ट स्वभाव के कारण परमेश्वर अब मुझे नापसंद कर रहा है? क्या परमेश्वर मुझे हटाने वाला है? अगर ऐसा है तो क्या मेरा काम तमाम नहीं हो गया? अब मेरे अस्तित्व का क्या मतलब रह गया है? परमेश्वर में विश्वास रखने का क्या तुक है? मैं विश्वास न रखूँ तो भी ठीक है। अगर मैं विश्वास न रखता तो शायद आज मेरे पास एक अच्छी नौकरी होती, एक सामंजस्यपूर्ण परिवार होता, उज्ज्वल भविष्य होता! अब तक परमेश्वर में विश्वास रखकर मुझे कुछ नहीं मिला, अगर मैं विश्वास रखना सचमुच बंद कर दूँ तो क्या इसका अर्थ यह नहीं होगा कि मेरी पिछली सारी मेहनत बेकार हो गई, मेरा पहले का खपना और त्याग करना सब बेकार रहा?” ये विचार घिर आने पर वे यह सोचते हुए अचानक चारों तरफ से एकाकी और असहज महसूस करते हैं, “स्वर्ग का परमेश्वर बहुत दूर है और पृथ्वी का यह परमेश्वर संगति करने और सत्य प्रदान करने के अलावा भला मेरी और क्या मदद कर सकता है? वह मुझे और क्या दे सकता है? वह इतना तुच्छ और दूसरों का ख्याल न रखने वाला लगता है। थोड़ा-सा भ्रष्ट स्वभाव होना कौन-सी बड़ी बात है? अगर इसे मानवीय तरीके से लिया जाता तो परमेश्वर लोगों के थोड़े-से भ्रष्ट स्वभाव को अनदेखा कर देता; वह इसे उदारता से निपटाता और लोगों की छोटी-मोटी गलतियों में बाल की खाल नहीं निकालता। परमेश्वर इतनी छोटी-सी बात पर क्यों इस तरह मेरी काट-छाँट कर मुझे अनुशासित कर रहा है, यहाँ तक कि मुझे अनदेखा भी कर रहा है? इस तरह की स्थिति में ऐसा भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करना कोई बड़ी बात नहीं है, लेकिन परमेश्वर वास्तव में मुझसे घृणा करता है। वह सचमुच लोगों से प्रेम करता भी है या नहीं? उसका प्रेम कहाँ प्रकट होता है? वह वास्तव में लोगों से कैसे प्रेम करता है? वैसे भी इस समय अब मैं परमेश्वर के प्रेम को महसूस नहीं कर सकता।” जब वे परमेश्वर के प्रेम को महसूस नहीं कर पाते तो उसी क्षण वे स्वर्ग के परमेश्वर से बहुत दूर महसूस करते हैं और पृथ्वी पर इस मसीह, इस साधारण व्यक्ति से तो और भी अधिक दूर महसूस करते हैं। जब वे अपने दिल में यह तनहाई महसूस करते हैं तो वे बार-बार प्रार्थना करते हैं और खुद को बारम्बार दिलासा देते हैं, “डरो मत, स्वर्ग के परमेश्वर में आशा रखो। परमेश्वर मेरी ढाल है, परमेश्वर मेरी ताकत है, परमेश्वर अभी भी लोगों से प्रेम करता है।” इस समय वह परमेश्वर कहाँ है जिसकी वे बात करते हैं? स्वर्ग में सभी चीजों के बीच एक वह परमेश्वर ही है जो सचमुच लोगों से प्रेम करता है, वह परमेश्वर जिसका लोग आदर करते हैं और जिससे स्नेह करते हैं, जो उनकी ढाल बन सकता है, उनके लिए सदा-हाजिर मदद बन सकता है और उनके दिलों को दिलासा दे सकता है। वह उनकी आत्मा, हृदय और देह के लिए आसरा है। लेकिन यह देखते हुए कि पृथ्वी का यह परमेश्वर क्या करने में सक्षम है, लोगों के दिलों में अब कोई भरोसा नहीं बचा है। उनका रवैया बदल जाता है। यह किस स्थिति में बदलता है? जब उन्हें अपनी काट-छाँट और खुलासे का सामना करना पड़ता है, और नाकामी हाथ लगती है तो उनकी असली आस्था प्रकट हो जाती है।

जब लोगों को काट-छाँट का सामना करना पड़ता है तो उनकी तथाकथित सच्ची आस्था तुरंत स्वर्ग के अज्ञात परमेश्वर में आसरा ढूँढ़ लेती है। जहाँ तक पृथ्वी के दिखाई देने वाले परमेश्वर का सवाल है, उसके प्रति उनका रवैया क्या होता है? लोगों की पहली प्रतिक्रिया उसे नकारने और जाने देने की होती है, वे उस पर आगे से भरोसा या विश्वास न कर उससे बचना, छिपना और खुद को दूर कर लेना चाहते हैं। लोगों की ऐसी ही मनःस्थिति होती है। काट-छाँट का सामना होने पर लोग जिस सत्य को समझते हैं वह, और उनकी तथाकथित सच्ची आस्था, निष्ठा, प्रेम और समर्पण बहुत कमजोर पड़ जाते हैं। जब ये सभी परिस्थितियाँ बदल जाती हैं तो उसी के अनुरूप देहधारी परमेश्वर के प्रति उनका रवैया भी बदल जाता है। उनके पहले के त्याग—तथाकथित तौर पर उनकी वफादारी, उनका खपना और उनके द्वारा चुकाई गई कीमत, साथ ही उनका तथाकथित समर्पण—इस समय किसी भी प्रकार की वफादारी या सच्चे समर्पण के रूप में नहीं, बल्कि केवल उत्साह के रूप में प्रकट होते हैं। और इस उत्साह में किस चीज की मिलावट होती है? इसमें मानवीय भावनाओं, मानवीय अच्छाई और मानवीय निष्ठा की मिलावट होती है। इस निष्ठा को उग्रता के रूप में भी समझा जा सकता है, जैसे कि इस बात में, “अगर मैं किसी का अनुसरण करता हूँ, तो मुझे सच्चे भाईचारे की निष्ठा दिखानी होगी, उसके लिए अपना जीवन त्यागने को तैयार रहना होगा, अपना दमखम लगाना होगा, उसके लिए बंदूक की गोली खानी होगी, उसके लिए सब कुछ अर्पित करना होगा,” जोकि मानवीय उग्रता की अभिव्यक्ति है। ऐसी ही मानवीय अभिव्यक्तियाँ इस क्षण प्रकट होती हैं। ये क्यों प्रकट होती हैं? क्योंकि ऐसा लगता है कि लोगों ने अपने विचारों और दृष्टिकोणों में तो यह स्वीकार कर लिया है कि यह साधारण व्यक्ति देहधारी परमेश्वर है, मसीह है, परमेश्वर है और उसमें परमेश्वर की पहचान है—लेकिन उनके वास्तविक आध्यात्मिक कद को देखा जाए, उनके द्वारा समझे गए सत्य और परमेश्वर को लेकर उनके ज्ञान को देखा जाए तो उन्होंने इस साधारण व्यक्ति को न तो वास्तव में स्वीकार किया है, न ही उसे मसीह के रूप में, परमेश्वर के रूप में माना है। जब सब कुछ ठीक चल रहा हो, जब सब कुछ वैसा हो जैसा कोई चाहता हो, जब लोगों को लगता हो कि परमेश्वर उन्हें आशीष दे रहा है, रोशनी दे रहा है, उनकी अगुआई कर रहा है और उन पर अनुग्रह कर रहा है, और जब लोगों को परमेश्वर से जो मिल रहा है वह उनकी धारणाओं और कल्पनाओं से मेल खाता हो तो वे व्यक्तिपरक रूप से स्वीकार सकते हैं कि परमेश्वर ने जिस साधारण व्यक्ति की गवाही दी है वह मनुष्य का परमेश्वर है। लेकिन जब ये सभी परिस्थितियाँ बदल जाती हैं, जब परमेश्वर इन सभी चीजों को छीन लेता है और जब लोगों में सच्ची समझ नहीं होती है और उनके पास सच्चा आध्यात्मिक कद नहीं होता, तो उनके बारे में हर चीज का खुलासा हो जाता है और वे जो व्यक्त करते हैं वह वास्तव में परमेश्वर के प्रति उनका सच्चा रवैया होता है। यह सच्चा रवैया कैसे उत्पन्न होता है? उसकी उत्पत्ति कहाँ से होती है? यह लोगों के भ्रष्ट स्वभाव से और परमेश्वर के बारे में उनके ज्ञान की कमी से उत्पन्न होता है। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? लोगों में यह भ्रष्ट स्वभाव क्या है? (शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जाने के बाद लोग आंतरिक रूप से परमेश्वर के खिलाफ पहरा बैठा देते हैं और उसके खिलाफ एक अवरोध खड़ा कर देते हैं। परमेश्वर चाहे जो भी करे, वे हमेशा यही सोचते हैं, “क्या परमेश्वर मुझे नुकसान पहुँचाने जा रहा है?”) क्या लोगों और परमेश्वर के बीच रिश्ता महज एक अवरोध होने का मामला है? क्या यह इतना आसान है? यह सिर्फ एक अवरोध होने की बात नहीं है; यह दो अलग-अलग सार होने की समस्या है। मनुष्यों का भ्रष्ट स्वभाव होता है—क्या परमेश्वर का स्वभाव भ्रष्ट होता है? (नहीं।) तो फिर लोगों और परमेश्वर के बीच मतभेद क्यों है, लोग परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण क्यों होते हैं? इसका कारण किसमें निहित है? क्या यह परमेश्वर में है या लोगों में? (लोगों में।) उदाहरण के लिए अगर दो लोग आपस में झगड़ा कर बात करना बंद कर दें, तो उनके दिलों में अवरोध होने से, भले ही वे बातचीत करें, यह सतही ही होगी। यह अवरोध कैसे बनता है? इसका कारण यह है कि उनके अलग-अलग दृष्टिकोण होते हैं जो आपस में मेल नहीं खा सकते, और उनमें से कोई भी अपना दृष्टिकोण छोड़ने को तैयार नहीं होता जिससे एकता में रुकावट पैदा होती है। लोगों के बीच इसी तरह अवरोध खड़े हो जाते हैं। लेकिन अगर हम लोगों और परमेश्वर के बीच के रिश्ते को केवल एक अवरोधयुक्त होने के रूप में वर्णित करते हैं तो क्या यह न्यूनोक्ति नहीं होगी, यह इस मसले की अधूरी व्याख्या नहीं होगी? यह सच है कि एक अवरोध है, लेकिन अगर हम लोगों के भ्रष्ट स्वभाव की समस्या को समझाने के लिए “अवरोध” शब्द का उपयोग करते हैं तो यह बहुत हल्का होगा। ऐसा इसलिए है कि शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जाने के बाद लोगों के पास शैतानी भ्रष्ट स्वभाव और सार होता है; उनकी मूल प्रकृति परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण होने की होती है। शैतान परमेश्वर से शत्रुता रखता है। क्या वह परमेश्वर को परमेश्वर मानता है? क्या इसमें परमेश्वर के प्रति आस्था या समर्पण होता है? उसमें न तो सच्ची आस्था होती है और न ही सच्चा समर्पण होता है—शैतान ऐसा ही है। लोग भी शैतान के समान हैं; उनमें शैतान का भ्रष्ट स्वभाव और सार है और उनमें परमेश्वर के प्रति सच्ची आस्था और समर्पण भी नहीं होता है। तो क्या हम कह सकते हैं कि सच्ची आस्था और समर्पण की कमी के कारण लोगों और परमेश्वर के बीच एक अवरोध है? (नहीं।) यह केवल यह दर्शाता है कि लोग परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण हैं। जब परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह लोगों की रुचियों, मनःस्थितियों और जरूरतों के अनुरूप होता है, उनकी प्राथमिकताओं को संतुष्ट करता है और सब कुछ सुचारु रूप से और उनकी इच्छा के अनुसार करता है, तब लोगों को लगता है कि परमेश्वर बहुत प्यारा है। लेकिन क्या ऐसे समय में परमेश्वर के प्रिय होने की यह भावना वास्तविक है? (नहीं।) यह सिर्फ लोगों का फायदा उठाना है, बदले में कुछ अच्छे शब्द पेश करना है; इसे ही लाभ बटोरना और फिर अच्छाई का दिखावा करना कहा जाता है। ऐसी स्थितियों में लोगों के कहे शब्द क्या परमेश्वर के बारे में उनका सच्चा ज्ञान दर्शाते हैं? क्या परमेश्वर के बारे में यह ज्ञान असली है या नकली? (नकली।) यह ज्ञान न तो सत्य के अनुरूप है, न ही परमेश्वर के सार के अनुरूप है। यह सच्चा ज्ञान नहीं है, बल्कि एक कल्पना है, मानवीय भावनाओं और उग्रता से उत्पन्न धारणा है। जब यह धारणा टूटती है, उजागर और प्रकट होती है तो लोग हताश महसूस करते हैं; इसका यह आशय होता है कि वे जो कुछ हासिल करना चाहते थे वह सब छिन चुका है। क्या लोगों की इस विगत सोच की आलोचना और निंदा नहीं हो चुकी है कि परमेश्वर प्यारा है और विभिन्न रूपों में अच्छा है? यह उनकी विगत सोच के ठीक विपरीत है। क्या लोग इस तथ्य को स्वीकार कर सकते हैं? (नहीं।) जब परमेश्वर तुम्हें कुछ नहीं देता तो वह तुम्हें बस अपने वचनों के अनुसार जीने देता है, बोलने और कार्य करने देता है, अपना कर्तव्य निभाने देता है, परमेश्वर की सेवा करने देता है, दूसरों के साथ मिल-जुलकर रहने देता है, वगैरह-वगैरह, यह सब उसके शब्दों के अनुसार होता है। जब तुम वास्तव में उसके वचनों के अनुसार जीते हो, परमेश्वर के श्रमसाध्य इरादे महसूस कर सकते हो और तुम वास्तव में परमेश्वर से प्रेम और उसके प्रति समर्पण कर सकते हो तो तुममें अशुद्धियाँ कम होती हैं और तुम परमेश्वर की जो मनोहरता और सार महसूस करते हो वह वास्तविक होता है।

जब लोगों को अनुशासन और काट-छाँट का सामना करना पड़ता है, तो वे परमेश्वर के बारे में धारणाएँ, शिकायतें और गलतफहमियाँ विकसित कर लेते हैं। जब ये चीजें सामने आती हैं तो लोग अचानक महसूस करते हैं कि परमेश्वर दूसरों का ख्याल नहीं रखता, मानो कि वह उतना प्यारा नहीं है जितनी उन्होंने कल्पना की थी : “हर कोई कहता है कि परमेश्वर प्यारा है, लेकिन मैं इसे महसूस क्यों नहीं कर सकता? अगर परमेश्वर वास्तव में प्यारा है, तो उसे मुझे आशीष और दिलासा देना चाहिए। जब मैं कोई गलती करने वाला होता हूँ तो उसे मुझको चेतावनी देनी चाहिए, न कि मुझे शर्मिंदा होने देना या गलती करने देना चाहिए; मेरे गलती करने से पहले उसे ये कार्य करने चाहिए, मुझे गलतियाँ करने या गलत रास्ता पकड़ने से रोकना चाहिए!” जब लोग मुश्किलों का सामना करते हैं तो उनके मन में ऐसी धारणाएँ और विचार उमड़ते-घुमड़ते हैं। इस समय, लोगों के बोलने और कार्य करने के तरीके में कम खुलापन होता है। जब लोगों का सामना काट-छाँट से होता है, जब उनका वास्ता मुश्किलों से पड़ता है तो उनकी मनःस्थिति और ज्यादा बिगड़ जाती है; उन्हें लगने लगता है कि परमेश्वर उनसे उतना प्रेम नहीं करता है या उन पर उतना अनुग्रह नहीं दिखाता है, कि उन पर उतनी कृपा नहीं की जाती है। वे अपने मन में सोचते हैं : “अगर परमेश्वर मुझसे प्रेम नहीं करता, तो मुझे उससे प्रेम क्यों करना चाहिए? मैं भी परमेश्वर से प्रेम नहीं करूँगा।” पहले परमेश्वर के साथ बातचीत में, परमेश्वर जो कुछ भी पूछता था, वे उत्तर दे देते थे; वे बहुत सक्रिय होते थे। वे हमेशा अधिक बातें साझा करना चाहते थे, उनके पास बताने के लिए कभी भी बातों की कमी नहीं होती थी, वे अपने दिल की हर बात व्यक्त करना और बताना चाहते थे, परमेश्वर का विश्वासपात्र बनना चाहते थे। लेकिन जब उन्हें काट-छाँट का सामना करना पड़ता है, तो उन्हें लगता है कि परमेश्वर अब उतना प्यारा नहीं रहा, कि परमेश्वर अब उन्हें उतना अधिक प्रेम नहीं करता है, और वे खुद भी अब परमेश्वर से प्रेम नहीं करना चाहते हैं। जब परमेश्वर कुछ पूछता है तो वे केवल संक्षेप में और लापरवाही से जवाब देते हैं, केवल इक्का-दुक्का शब्दों में जवाब देते हैं। अगर परमेश्वर पूछता है, “इन दिनों तुम अपने कर्तव्य कितनी अच्छी तरह निभा रहे हो?” तो वे जवाब देते हैं, “ठीक-ठाक।” “क्या तुम्हें कोई कठिनाई होती है?” “कभी-कभी।” “क्या तुम भाई-बहनों के साथ सामंजस्यपूर्ण ढंग से सहयोग कर सकते हो?” अपने मन में वे सोचते हैं, “मैं अपना ही ध्यान नहीं रख पा रहा हूँ तो दूसरों के साथ सामंजस्यपूर्ण ढंग से कैसे सहयोग कर सकता हूँ?” “क्या तुममें कोई कमजोरी है?” “मैं ठीक हूँ।” वे ज्यादा बातें करने के इच्छुक नहीं रहते, पूरी तरह से नकारात्मक और शिकायती रवैया दिखाते हैं। उनका पूरा अस्तित्व उदासी और हताशा से भर जाता है, शिकायतों और अन्याय होने की भावना से भर जाता है, वे जितना जरूरी है उससे ज्यादा बोलने के इच्छुक नहीं होते हैं। ऐसा क्यों है? क्योंकि अभी उनकी मनःस्थिति ठीक नहीं है, उनकी दशा अपेक्षाकृत हताशा से भरी है, और वे किसी से भी बात करने की मनःस्थिति में नहीं हैं। जब पूछा जाता है, “क्या तुमने हाल ही में प्रार्थना की है?” तो वे उत्तर देते हैं, “मेरी प्रार्थनाएँ अब भी उन्हीं पहले जैसे शब्दों वाली हैं।” “तुम्हारी दशा इन दिनों ठीक नहीं रही है; क्या तुमने कठिनाइयों का सामना करने पर सत्य को खोजा?” “मैं हर चीज समझता हूँ, मैं बस सकारात्मक नहीं बन सकता।” “तुमने परमेश्वर के बारे में गलतफहमियाँ पाल ली हैं। क्या तुम समझ सकते हो कि तुम्हारी समस्या कहाँ है? कौन-से भ्रष्ट स्वभाव तुम्हें परमेश्वर के समक्ष आने से रोक रहे हैं? तुम किस कारण से इतने नकारात्मक हो गए हो कि तुम्हारा मन प्रार्थना के लिए भी परमेश्वर के समक्ष आने का नहीं करता?” “मुझे नहीं पता।” यह किस प्रकार का रवैया है? (नकारात्मक और टकरावपूर्ण।) सही कहा, उनमें समर्पण का कोई संकेत नहीं है, बल्कि वे शिकवे-शिकायतों से भरे हुए हैं। अपने आध्यात्मिक और मानसिक संसार में वे परमेश्वर को बुद्ध या बोधिसत्व के स्वरूप के समान मानते हैं जैसा कि इंसान वर्णन करता है। लोग चाहे जो भी करते हों या जैसे भी रहते हों, बुद्ध या बोधिसत्व के ये स्वरूप कभी एक शब्द भी नहीं बोलते, बस खुद को लोगों की हेराफेरी के आगे समर्पित कर देते हैं। वे मानते हैं कि परमेश्वर को उनकी काट-छाँट नहीं करनी चाहिए, उन्हें नुकसान तो बिल्कुल नहीं पहुँचाना चाहिए; वे चाहे जो भी गलत करें, परमेश्वर को उन्हें केवल सांत्वना देनी चाहिए, उनकी काट-छाँट नहीं करनी चाहिए, उन्हें उजागर या प्रकट नहीं करना चाहिए और उन्हें अनुशासित तो बिल्कुल भी नहीं करना चाहिए। वे परमेश्वर में विश्वास रखना चाहते हैं और अपनी मनःस्थितियों और स्वभावों के अनुसार अपना कर्तव्य निभाना चाहते हैं, जो जी में आए वैसा करना चाहते हैं, यह सोचकर कि वे चाहे जो कुछ भी करें, परमेश्वर को संतुष्ट, खुश और स्वीकार होना चाहिए। लेकिन चीजें वैसी नहीं होतीं जैसा वे चाहते हैं; परमेश्वर इस तरह से कार्य नहीं करता है। तब लोग सोचते हैं, “अगर वह वैसे कार्य नहीं करता जैसा मैंने सोचा था, तो क्या वह अभी भी परमेश्वर है? क्या वह अभी भी इस लायक है कि मैं उसमें निवेश करूँ, उसके लिए खपूँ और त्याग करूँ? अगर ऐसा नहीं है तो उसे अपना सच्चा दिल अर्पित करना मूर्खता होगी, है ना?” इस तरह जब काट-छाँट का समय आता है तो लोगों की प्रारंभिक प्रतिक्रिया एक सृजित प्राणी के परिप्रेक्ष्य से यह सुनने की नहीं होती कि परमेश्वर क्या कह रहा है या उसकी अपेक्षाएँ क्या हैं, न यह कि वे कौन-सी मानवीय समस्याएँ, दशाएँ या स्वभाव हैं जिन्हें परमेश्वर उजागर करता है, न ही यह कि मनुष्य को इन चीजों को कैसे स्वीकार करना चाहिए, उनसे कैसे पेश आना चाहिए या उनके प्रति कैसे समर्पण करना चाहिए। ऐसी बातें लोगों के मन में नहीं होतीं। परमेश्वर लोगों से चाहे जैसे बात करे या चाहे जैसे उनका मार्गदर्शन करे, यदि उसका लहजा या बोलने का तरीका बेलिहाज है—यदि उनकी मनःस्थितियों, आत्म-सम्मान और कमजोरी को ध्यान में नहीं रखा जाता—तो लोगों के मन में धारणाएँ पैदा हो जाती हैं और वे परमेश्वर को परमेश्वर मानकर उससे पेश नहीं आना चाहते, न ही वे सृजित प्राणी होना चाहते हैं। यहाँ सबसे बड़ी समस्या यह है कि जब परमेश्वर उन्हें सुखद समय प्रदान करता है, लोग जैसा चाहते हैं सब कुछ वैसा ही होने देता है, तब तो लोग सृजित प्राणियों की तरह व्यवहार करने को तैयार हो जाते हैं, लेकिन जब परमेश्वर लोगों को अनुशासित करने और उनका खुलासा करने के लिए, उन्हें सबक सिखाने के लिए, उन्हें सत्य समझाने और अपने इरादे से अवगत कराने के लिए प्रतिकूल परिस्थितियाँ प्रस्तुत करता है—तो उस समय लोग तुरंत उससे मुँह मोड़ लेते हैं और फिर सृजित प्राणी नहीं बने रहना चाहते। जब कोई व्यक्ति सृजित प्राणी नहीं बने रहना चाहता, तो उस दृष्टिकोण और स्थिति से, क्या वह परमेश्वर को समर्पण कर सकेगा? क्या वह परमेश्वर की पहचान और सार को स्वीकार कर पाएगा? नहीं कर पाएगा। जब अच्छी मनःस्थितियों, अच्छी दशाओं और उत्साह का समय—वह समय जब लोग परमेश्वर के विश्वासपात्र बनना चाहते हैं—ऐसे समय में बदल जाता है, जब लोग परमेश्वर के हाथों काट-छाँट और उसके द्वारा इंतजाम किए गए परिवेशों के कारण उसका परित्याग कर देना चाहते हैं, तो यह कितना नाटकीय परिवर्तन होता है! वास्तव में क्या है इस मामले की सच्चाई? वह क्या है, जो लोगों को जानना चाहिए? क्या इंसान को यह नहीं जानना चाहिए कि एक सृजित प्राणी के रूप में उसका रवैया परमेश्वर के प्रति कैसा होना चाहिए? वे कौन-से सिद्धांत हैं, जिनका पालन करने की आवश्यकता है? एक इंसान—एक भ्रष्ट इंसान—के रूप में उसे परमेश्वर द्वारा दी जाने वाली हर चीज और उसके द्वारा इंतजाम किए गए परिवेशों के प्रति क्या दृष्टिकोण और स्थान अपनाना चाहिए? लोगों को परमेश्वर के हाथों अपनी काट-छाँट के प्रति क्या रवैया अपनाना चाहिए? उन्हें इससे कैसे पेश आना चाहिए? क्या लोगों को ऐसे मामलों पर विचार नहीं करना चाहिए? (करना चाहिए।) लोगों को इस तरह की चीजों पर चिंतन और विचार करना चाहिए। इंसान परमेश्वर से कभी भी और कैसे भी व्यवहार करे, लेकिन वास्तव में इंसान की पहचान नहीं बदलती; लोग हमेशा सृजित प्राणी ही रहते हैं। यदि तुम एक सृजित प्राणी के रूप में अपनी स्थिति से सामंजस्य नहीं बिठाते, तो इसका मतलब है कि तुम विद्रोही हो और तुम अपने स्वभाव में बदलाव लाने, परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने से बहुत दूर हो। यदि तुम एक सृजित प्राणी के रूप में अपनी स्थिति से सामंजस्य बिठा लेते हो, तो परमेश्वर के प्रति तुम्हारा रवैया किस प्रकार का होना चाहिए? (बिना शर्त समर्पण वाला।) तुम्हारे अंदर कम-से-कम यह चीज तो होनी ही चाहिए : बिना शर्त समर्पण। इसका मतलब है कि किसी भी समय परमेश्वर जो भी करता है, वह कभी गलत नहीं होता; केवल लोग गलतियाँ करते हैं। चाहे जो भी परिवेश सामने आए—विशेष रूप से मुश्किलों में, और खासकर जब परमेश्वर लोगों को प्रकट या उजागर करे—सबसे पहले इंसान को परमेश्वर के सामने आकर आत्म-चिंतन करना चाहिए और अपने शब्दों, कर्मों और भ्रष्ट स्वभाव की जाँच करनी चाहिए, न कि यह जाँच, अध्ययन और आलोचना करनी चाहिए कि परमेश्वर के वचन और कार्य सही हैं या गलत। यदि तुम अपने उचित स्थान पर टिके रहते हो तो तुम्हें पता होना चाहिए कि तुम्हें वास्तव में क्या करना चाहिए। लोगों का स्वभाव भ्रष्ट है और वे सत्य को नहीं समझते। यह कोई ज्यादा बड़ी समस्या नहीं है। लेकिन जब लोगों का स्वभाव भ्रष्ट होता है और वे सत्य को नहीं समझते, और फिर भी वे सत्य को नहीं खोजते—तब बड़ी समस्या होती है। तुममें भ्रष्ट स्वभाव है और तुम सत्य को नहीं समझते, तुम मनमाने ढंग से परमेश्वर के बारे में राय बना सकते हो और उसके साथ वैसा व्यवहार और मिलना-जुलना कर सकते हो जैसा हुक्म तुम्हारी मनोदशा, पसंदगियाँ और भावनाएँ देती हैं। लेकिन अगर तुम सत्य को नहीं खोजते, उसका अभ्यास नहीं करते, तो चीजें इतनी सरल नहीं होंगी। तब तुम न केवल परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं कर पाओगे, बल्कि तुम उसे गलत समझ सकते हो और उसकी शिकायत कर सकते हो, उसकी निंदा कर सकते हो, उसका विरोध कर सकते हो, यहाँ तक कि मन-ही-मन उसे फटकार कर उसे अस्वीकार सकते हो और कह सकते हो कि वह धार्मिक नहीं है, कि वह जो कुछ भी करता है, जरूरी नहीं कि वह सही हो। क्या यह खतरनाक नहीं है कि तुम अभी भी ऐसी चीजें पनपा सकते हो? (खतरनाक है।) यह बहुत ही खतरनाक है। सत्य को न खोजने से व्यक्ति की जान जा सकती है! और यह किसी भी समय और किसी भी स्थान पर हो सकता है। इस समय तुम्हारी भावनाएँ, संकल्प, इच्छाएँ या आकांक्षाएँ कितनी भी उफान पर हों, और इस समय तुम्हारे मन में परमेश्वर के लिए कितना भी प्रेम क्यों न हो, यह सब अस्थायी है। यह बिल्कुल वैसी ही बात है जब कोई पादरी विवाह कराते समय दोनों पक्षों से पूछता है, “क्या तुम उसे अपना पति (या पत्नी) स्वीकार करती (या करते) हो? बीमारी और सेहत में, आपदा में, गरीबी आदि में, क्या तुम उसके (पति या पत्नी) साथ अपना जीवन बिताने के लिए तैयार हो?” दोनों पक्ष अपनी आँखों में आँसू और भावनाओं से भरे दिलों के साथ एक-दूसरे के लिए अपना जीवन समर्पित करने और एक-दूसरे की आजीवन जिम्मेदारी लेने की कसम खाते हैं। उस क्षण की ये गंभीर प्रतिज्ञाएँ क्या होती हैं? ये केवल लोगों की क्षणभंगुर भावनाएँ और कामनाएँ होती हैं। लेकिन क्या दोनों पक्षों में वास्तव में ऐसी सत्यनिष्ठा होती है? क्या उनमें सचमुच ऐसी मानवता होती है? यह उस वक्त अनजानी बात होती है; सच्चाई अगले दस, बीस या तीस वर्षों के बाद सामने आ जाएगी। कुछ जोड़े तीन से पाँच साल के बाद तलाक ले लेते हैं, कुछ दस साल बाद और कुछ तीस साल के बाद बिना सोच-विचार किए रिश्ता तोड़ देते हैं। उनकी शुरुआती इच्छाएँ कहाँ चली गईं? उनकी गंभीर प्रतिज्ञाओं का क्या हुआ? वे बहुत पहले ही भुला दी गई थीं। ये गंभीर प्रतिज्ञाएँ क्या भूमिका निभाती हैं? कोई भी नहीं; वे सिर्फ इच्छाएँ हैं, क्षणिक भावनाएँ हैं—भावनाएँ और इच्छाएँ कुछ भी निर्धारित नहीं करती हैं। एक जोड़े को वास्तव में एक साथ जीवन बिताने के लिए, साथ-साथ बूढ़े होने के लिए किस चीज की जरूरत होती है? आदर्श रूप से कहें तो दोनों व्यक्तियों के पास कम-से-कम सत्यनिष्ठा और ईमानदार चरित्र होना चाहिए। कुछ और ठोस रूप से कहें तो अपने जीवन के दौरान उन्हें कई चीजों का सामना करना पड़ेगा—बड़ी और छोटी, अच्छी और बुरी, कठिनाइयाँ, असफलताएँ और मुश्किलें और ज्यादातर ऐसी चीजें जो वांछित नहीं हैं। इसके लिए दोनों पक्षों को अंत समय तक एक-दूसरे का समर्थन करने के लिए सच्ची सहनशीलता, धैर्य, प्रेम, विचारशीलता, देखभाल और मानवता से जुड़ी अन्य अपेक्षाकृत सकारात्मक चीजों की जरूरत होती है। इन गुणों के बिना केवल विवाह के समय की प्रतिज्ञाओं और आकांक्षाओं, इच्छाओं और कल्पनाओं पर भरोसा करते हुए वे निश्चित रूप से अंत तक साथ नहीं रह सकते हैं। यही बात परमेश्वर में विश्वास रखने पर भी लागू होती है; अगर व्यक्ति सत्य की खोज नहीं करता है, बल्कि केवल थोड़े-से उत्साह और इच्छा पर निर्भर रहता है तो वह निश्चित रूप से दृढ़ नहीं रह सकता है और अंत तक परमेश्वर का अनुसरण नहीं कर सकता है।

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