मद दस : वे सत्य का तिरस्कार करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग दो) खंड दो

कुछ लोग थोड़ा-सा इतिहास सीख लेते हैं, थोड़ी-सी राजनीति को समझते हैं और एक हिसाब से वे दिखावा करना पसंद करते हैं; दूसरे हिसाब से वे सोचते हैं, “देहधारी परमेश्वर के पास परमेश्वर का सार और सत्य होता है। वह इस तथ्य को जानता है कि परमेश्वर सभी चीजों का संप्रभु है और वह इसमें निहित विवरणों को भी समझता है। इसलिए अगर मैं राजनीति और इतिहास को समझ लूँ तो क्या मैं परमेश्वर की जरूरतों को पूरा कर सकता हूँ? क्या मैं इन सारी चीजों को लेकर उसकी जिज्ञासा शांत कर सकता हूँ?” मैं तुम्हें बता दूँ, तुम गलत हो! मैं सबसे ज्यादा घृणा जिस चीज से करता हूँ उसमें पहले स्थान पर राजनीति है और दूसरे स्थान पर इतिहास। अगर तुम समय बिताने के लिए इतिहास के बारे में बातें करते हो, विनोदपूर्ण, कहानीनुमा प्रसंग या अनौपचारिक बातचीत करते हो, तो यह ठीक है। लेकिन अगर तुम यह सोचकर इन शब्दों, इन मामलों से पेश आते हो कि ये मेरे साथ चर्चा करने के लिए, खुशामद करने और संबंध बनाने के लिए कोई गंभीर चीजें हैं तो फिर तुम गलत हो; मुझे ये बातें सुनने की कोई लालसा नहीं है। कुछ लोग गलत ढंग से सोचते हैं, “तुम सत्य पर संगति करते हो और लोगों के लिए सभाएँ आयोजित करते हो क्योंकि तुम्हें ऐसा करना ही चाहिए; मन-ही-मन तुम्हें जो चीज सबसे अधिक पसंद है वह है दुनिया में भारी उथल-पुथल। तुम्हें लगता है कि दुनिया में पर्याप्त उथल-पुथल नहीं है। जब कभी आपदा आती है तो तुम पर्दे के पीछे न जाने कितने खुश होते होगे, शायद जश्न मनाने के लिए आतिशबाजी भी कर रहे होगे!” मैं तुम्हें बता दूँ कि ऐसी बात नहीं है। भले ही बड़ा लाल अजगर नष्ट हो जाए और ढह जाए, मैं जैसा हूँ वैसा ही रहूँगा। कुछ लोग पूछते हैं, “अगर बड़ा लाल अजगर ढह जाए तो क्या तुम खुश नहीं होगे? जब बड़े लाल अजगर को नष्ट और दंडित कर दिया जाएगा तो क्या तुम्हें आतिशबाजी नहीं करनी चाहिए? क्या तुम्हें एक शानदार दावत देकर परमेश्वर के चुने हुए लोगों के साथ जश्न नहीं मनाना चाहिए?” मुझे बताओ, क्या मुझे यही सब करना चाहिए? ऐसा करना सही है या गलत? क्या यह सत्य के अनुरूप है? कुछ लोग कहते हैं : “बड़े लाल अजगर ने परमेश्वर के चुने हुए लोगों को बहुत सताया है, परमेश्वर के बारे में बेबुनियाद अफवाहें फैलाई हैं और उसके नाम को बदनाम किया है, परमेश्वर की निंदा और आलोचना की है। क्या उसे उसका प्रतिफल मिलने पर हमें थोड़ा-सा भी जश्न नहीं मनाना चाहिए?” अगर तुम लोग जश्न मनाते हो तो मेरी ओर से छूट है क्योंकि तुम्हारी अपनी मनःस्थिति है। अगर तुम सभी लोग खुश हो, तीन दिन और रात जागते हो, परमेश्वर के वचन पढ़ने के लिए एक साथ इकट्ठा होते हो, परमेश्वर की धार्मिकता की स्तुति करने के लिए भजन गाते हो और नृत्य करते हो, इस बात से खुश हो कि परमेश्वर ने बड़े लाल अजगर को, दुश्मन को आखिरकार नष्ट कर पैरों तले रौंद दिया है, और परमेश्वर के चुने हुए लोग अब इसके उत्पीड़न और यातनाएँ नहीं सहेंगे, अब अपने घर लौटने में असमर्थ नहीं होंगे और अंततः अपने-अपने परिवार के पास लौट सकते हैं, तो हर एक की मनःस्थिति समझी जा सकती है। अगर तुम लोग इस तरह से जश्न मनाना और तनावमुक्त होना चाहते हो तो मैं सहमत हूँ। परंतु जहाँ तक मेरी बात है, मैं वही करूँगा जो मुझे करना चाहिए; मैं इन गतिविधियों में शामिल नहीं होता। कुछ लोग पूछते हैं : “तुम्हारा रवैया ऐसा क्यों है? क्या इससे लोगों का उत्साह कम नहीं होता? तुम कुछ जुनून क्यों नहीं दिखाते? अगर तुम सबसे महत्वपूर्ण क्षण में उपस्थित नहीं रहोगे तो हम कैसे जश्न मना सकते हैं?” जश्न मनाना गलत नहीं है लेकिन हमें एक चीज पर स्पष्ट रूप से संगति करने की जरूरत है : मान लो कि बड़े लाल अजगर को दंडित किया गया है, परमेश्वर ने उसे हटा दिया है; इस दानव राजा को, जो कभी परमेश्वर के चुने हुए लोगों को पूर्ण बनाने का काम करता था, नष्ट कर जड़ से मिटा दिया जाता है—तो परमेश्वर के चुने हुए लोगों के आध्यात्मिक कद का क्या? तुम कितना सत्य समझ चुके हो? अगर तुम सभी लोग मानक-स्तर तक अपने कर्तव्य पूरे कर सकते हो, तुम सभी मानक-स्तर के सृजित प्राणी हो, परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में सक्षम हो, जिसके साथ प्रत्येक व्यक्ति के पास अय्यूब और पतरस जैसा आध्यात्मिक कद है, और सभी पहले ही बचा लिए गए हों तो यह वास्तव में खुशी का क्षण है, उत्सव मनाने की बात है। लेकिन एक दिन अगर बड़े लाल अजगर का पतन हो जाता है और तुम लोगों का आध्यात्मिक कद वफादारी से अपने कर्तव्य निभाने के स्तर तक नहीं पहुँच पाया है, अगर तुम लोगों के मन में अभी भी परमेश्वर का कोई भय नहीं है और तुम बुराई से दूर नहीं रह पाते हो, अय्यूब और पतरस के आध्यात्मिक कद से अत्यंत दूर हो, परमेश्वर की संप्रभुता के प्रति सच्चे मन से समर्पण करने में असमर्थ हो और तुम मानक-स्तर के सृजित प्राणी नहीं माने जा सकते हो तो फिर तुम्हारे लिए खुश होने की क्या बात है? क्या यह केवल व्यर्थ आनंद मनाना नहीं है? ऐसा जश्न निरर्थक और मूल्यहीन है। कुछ लोग कहते हैं : “बड़ा लाल अजगर हमें बहुत सताता है; तो बेशक उससे नफरत करना ठीक है? उसके सार को पहचानना ठीक रहेगा, है ना? उसने हम पर इतना जुल्म किया है; तो भला उसके हटने से हम खुश क्यों नहीं हो सकते?” खुश होना, अपनी भावनाओं को व्यक्त करना ठीक है। लेकिन तुम अगर यह सोचते हो कि बड़े लाल अजगर का विनाश परमेश्वर की प्रबंधन योजना के समापन को दर्शाता है, कि मानवजाति को बचा लिया गया है, बड़े लाल अजगर के विनाश को परमेश्वर की प्रबंधन योजना के पूरा होने के साथ-साथ अपनी मुक्ति और पूर्णता के बराबर समझते हो, तो क्या यह समझ गलत नहीं है? (यह गलत है।) तो तुम लोग अब क्या समझते हो? जहाँ तक परमेश्वर के शत्रु, बड़े लाल अजगर की, उसकी नियति और उसके स्वरूप की बात है, ये परमेश्वर के मामले हैं और इनका तुम्हारे स्वभाव में बदलाव या उद्धार के अनुसरण से कोई संबंध नहीं है। बड़ा लाल अजगर केवल एक विषमता है, सेवा करने वाला है, जो परमेश्वर के आयोजनों के अधीन है। वह क्या करता है और सेवा लेने के लिए परमेश्वर उसका उपयोग कैसे करता है, यह परमेश्वर का काम है, जिसका लोगों से कोई संबंध नहीं है। इसलिए अगर तुम इसके भाग्य को लेकर बहुत चिंतित हो, इससे अपने दिल को विचलित होने देते हो, तो फिर यह परेशानी की बात है, एक समस्या है। परमेश्वर सभी चीजों पर संप्रभुता रखता है, जिसमें बड़ा लाल अजगर, और सभी दानव और शैतान भी शामिल हैं, इसलिए दानव और शैतान जो कुछ भी करते हैं, चाहे वे जैसे भी हों, उसका तुम्हारे जीवन प्रवेश या स्वभावगत बदलाव से कोई संबंध नहीं है। तुम्हारा वास्ता किस चीज से होना चाहिए? तुम्हें परमेश्वर के प्रति इसके प्रतिरोध के दुष्ट और क्रूर सार को, परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण और उसका दुश्मन होने के इसके सार को पहचानने की जरूरत है—तुम्हें यही बात समझने की जरूरत है। जहाँ तक बाकी बातें हैं, परमेश्वर उस पर क्या आपदाएँ बरसाता है, परमेश्वर उसके भाग्य को कैसे आयोजित करता है, इसका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है और इसे जानने का कोई फायदा नहीं है। इसका कोई फायदा क्यों नहीं है? क्योंकि अगर तुम जानते भी हो, तो भी तुम यह नहीं समझ सकते कि परमेश्वर इस तरह से कार्य क्यों करता है। अगर तुम इसे देख भी लेते हो तो भी तुम यह नहीं जान पाओगे कि परमेश्वर ने उस तरह से कार्य करने का फैसला क्यों किया, तुम इसके पीछे के सत्य को पूरी तरह नहीं जान सकते। मैं बस इन संक्षिप्त टिप्पणियों के साथ इस विषय को यहीं समाप्त करता हूँ।

खुशामद, चापलूसी और अच्छे लगने वाले शब्दों का प्रयोग करने संबंधी मसीह-विरोधियों की अभिव्यक्तियाँ बेशक सामान्य भ्रष्ट लोगों में भी पाई जाती हैं, लेकिन मसीह-विरोधियों को सामान्य भ्रष्ट लोगों से कौन-सी चीज अलग करती है? उनकी खुशामद, चापलूसी और अच्छे लगने वाले शब्दों में कोई सम्मान नहीं है, कोई ईमानदारी नहीं है। बल्कि उनका लक्ष्य देहधारी परमेश्वर से खिलवाड़ करना, उसका परीक्षण और इस्तेमाल करना होता है, इस प्रकार ये परिपाटियाँ पनपने लगती हैं; उनके अपने ही उद्देश्य होते हैं। वे खुशामद, चापलूसी और अच्छे लगने वाले शब्दों के जरिये उस सामान्य व्यक्ति के साथ खिलवाड़ करना चाहते हैं जिसे वे अपने सामने देखते हैं, इससे वे मसीह को धोखा देने की कोशिश करते हैं जिससे मसीह उनकी यह असलियत जानने में असमर्थ हो जाता है कि वे वास्तव में कौन हैं, उनके किस तरह के भ्रष्ट स्वभाव हैं, किस प्रकार की सत्यनिष्ठा है, उनमें किस प्रकार का सार है और वे किस किस्म के व्यक्ति हैं। वे धोखा देना और छल करना चाहते हैं, है ना? (बिल्कुल।) क्या उनकी खुशामद, चापलूसी और अच्छे लगने वाले शब्दों में एक भी ईमानदार शब्द होता है? एक भी नहीं है। मसीह-विरोधियों का इरादा और उद्देश्य धोखा देना, छल करना और खिलवाड़ करना है। क्या ये अभ्यास सत्य से तिरस्कार करने वाले मसीह-विरोधियों का सार नहीं हैं? (बिल्कुल हैं।) वे सोचते हैं कि साधारण लोग सुखद बातें सुनना, चापलूसी का आनंद लेना और दूसरों का अपने आगे गिड़गिड़ाना पसंद करते हैं जिससे उन्हें अपनी अहमियत का एहसास होता है और उनका रुतबा औसत व्यक्ति की तुलना में अधिक सम्मानित और शानदार दिखाई देता है। इसके विपरीत अगर कोई व्यक्ति मसीह के सामने अत्यधिक दासों जैसा व्यवहार करे, उसमें निष्ठा और गरिमा का अभाव हो, वह अस्पष्ट बात करे, हमेशा धोखा देने की कोशिश करे, और हमेशा तथ्य छिपाने की कोशिश करे, मसीह के साथ झूठ-फरेब का व्यवहार करे तो मसीह न सिर्फ इस पर विश्वास नहीं करेगा, बल्कि वह अपने दिल में तुमसे नाराज हो जाएगा। किस हद तक? परमेश्वर कहेगा कि यह व्यक्ति घृणित है, एक भी सत्य नहीं बोलता है, बस चाटुकारिता करने के उपायों के बारे में सोचता है, वह अच्छा व्यक्ति नहीं है, यह सकारात्मक चरित्र का नहीं है—ऐसा व्यक्ति गैर-भरोसेमंद और अविश्वसनीय है। गैर-भरोसेमंद और अविश्वसनीय; ऐसे लोगों की यही परिभाषा दी गई है। ऊपरी तौर पर ये केवल दो वाक्यांश हैं, लेकिन वास्तव में ऐसा व्यक्ति सत्य से प्रेम नहीं करता, सत्य हासिल नहीं कर सकता और उसके बचाए जाने की संभावना नहीं है। अगर ऐसा व्यक्ति सत्य को हासिल नहीं कर सकता और उसके बचाए जाने की संभावना कम हो तो उसके परमेश्वर में विश्वास करने की क्या सार्थकता और मूल्य है? अगर वह गड़बड़ी पैदा नहीं करता और विघ्न नहीं डालता तो वह बड़े लाल अजगर की तरह परमेश्वर के घर में केवल एक विषमता या सेवा करने वाले की भूमिका निभा सकता है। किसी चीज की भूमिका निभाने का क्या मतलब है? इसका अर्थ होता है अस्थायी रूप से, जहाँ तक हो सके वहाँ तक कार्य करना, जैसे किसी गाड़ी को तब तक खींचते रहना जब तक वह पलट न जाए। उन्हें भूमिका निभाने को क्यों कहा जाता है? क्योंकि ऐसे लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं। वे अपने दिल में सत्य का इतना तिरस्कार और निरादर करते हैं, सत्य का इतना उपहास उड़ाते हैं और उससे खिलवाड़ करते हैं कि उनका अंतिम हश्र पौलुस की तरह होना तय है जो अंत तक पहुँचने में असमर्थ रहा। इसलिए इस किस्म का व्यक्ति परमेश्वर के घर में केवल अस्थायी सेवाकर्ता की भूमिका निभा सकता है। एक लिहाज से देखें तो ये वास्तव में सत्य का अनुसरण करने वाले लोगों का विवेक और समझदारी बढ़ाने में मदद करते हैं। दूसरे लिहाज से देखें तो वे परमेश्वर के घर में वो सब करते हैं जो कुछ करने में सक्षम हैं, यथासंभव सेवा करते हैं क्योंकि ऐसे लोग मार्ग के अंत तक नहीं पहुँच पाते हैं।

एक दिन जब मैं बाहर गया तो अचानक मेरी मुलाकात एक परिचिता से हो गई। मैं कुछ बोल पाता, उससे पहले उसी ने कह दिया, “हमें मिले हुए इतना लंबा समय हो चुका है। मैं यहाँ रोज तुम्हारा इंतजार करती रही हूँ, तुम्हारी इतनी याद आती है कि मैं घर पर नहीं रह सकती। मैं यहाँ आने-जाने वाली भीड़ के बीच बस तुम्हें ही ढूँढ़ती रहती हूँ!” मैंने मन-ही-मन सोचा, यह मानसिक रूप से थोड़ी अस्वस्थ हो सकती है। क्या मैंने तुम्हारे साथ मुलाकात तय की थी? तुम क्यों रोज यहाँ मेरा इंतजार करती हो? चूँकि हम संयोग से मिल ही गए हैं तो चलो कुछ सार्थक बात कर लेते हैं। मैंने उससे पूछा, “इन दिनों तुम्हारी जिंदगी कैसी चल रही है?” उसने उत्तर दिया, “ओह, मत पूछो। तुमसे पिछली मुलाकात के बाद से ही मेरा मन तुम्हारे बारे में इतना खोया रहता है कि मेरी भूख और नींद उड़ गई है। मैं बस इसी आस में रही कि किसी दिन तुमसे मुलाकात होगी।” मैंने कहा, “चलो कुछ सार्थक बातें कर लेते हैं। इस अवधि में तुम्हारी दशा कैसी रही?” “काफी अच्छी। सही ही रही है।” “क्या तुम लोगों की कलीसिया में चुनाव हुए? क्या अगुआ अभी भी वही है?” “नहीं, वहाँ अमुक व्यक्ति को चुन लिया गया है।” “वह कैसा है?” “वह ठीक-ठाक है।” “तो फिर कलीसिया के पिछले अगुआ को क्यों बर्खास्त किया गया?” “मुझे पता नहीं; वह ठीक ही था।” “थोड़ा और विशिष्टता से बताओ, सिर्फ ‘ठीक-ठाक’ मत कहती रहो। क्या वह ठोस कार्य नहीं कर सका?” “मुझे लगा कि वह ठीक-ठाक है।” “नवनिर्वाचित अगुआ की मानवता कैसी है? सत्य की उसकी समझ कैसी है? क्या वह ठोस कार्य कर सकता है?” “वह ठीक-ठाक है।” मैंने उससे जो भी सवाल पूछा, उसने जवाब में हर बार “ठीक-ठाक” कहा, इससे बातचीत करना असंभव हो गया। इसलिए मैं चला गया। तुम इस कहानी के बारे में क्या सोचते हो? इस कहानी का शीर्षक क्या होना चाहिए? (“ठीक-ठाक है।”) यह कहानी है “ठीक-ठाक है।” कई लोगों के साथ बातचीत में मैं देखता हूँ कि चंद लोग ही मानवीय विवेक के आधार पर बोल पाते हैं, सत्य सिद्धांतों के अनुसार बोलना तो रहने ही दो। अधिकतर लोगों के मुँह झूठ, बकवास, भ्राँतियों और भ्रम और धृष्ट शब्दों से भरे होते हैं; एक भी सच्चा कथन नहीं होता है। मैं तो यह माँग भी नहीं करता कि तुम्हारा हर वाक्य सत्य के अनुरूप हो या इसमें सत्य वास्तविकता हो, लेकिन कम-से-कम तुम्हें एक इंसान की तरह बोलने में सक्षम होना चाहिए, कुछ ईमानदारी दिखानी चाहिए, कुछ सच्ची भावना दिखानी चाहिए। क्या इसके बिना आपस में संवाद हो सकता है? नहीं हो सकता। तुम हमेशा खोखली बातें करते हो और झूठ बोलते हो; जब स्थितियों का सामना करते हो तो बकवास बातें, भ्राँतियाँ, अपशब्द और धृष्ट शब्द सामने आ जाते हैं, और अपना औचित्य साबित करने वाले और अपना बचाव करने वाले शब्द सामने आ जाते हैं, जिससे आपस में पटरी खाना या संवाद करना असंभव हो जाता है, है ना? (सही बात है।)

बहुत-से लोग परमेश्वर के वचनों को यह मानकर खाते-पीते हैं कि ये वचन केवल स्वर्ग के परमेश्वर से संबंधित हैं, केवल परमेश्वर के आत्मा से और केवल उस परमेश्वर से संबंधित हैं जो अदृश्य और अमूर्त है। चूँकि वह परमेश्वर इतनी दूर है, इसलिए उसके वचन इतने गहरे मान लिए जाते हैं कि इन्हें सत्य कहा जा सके। लेकिन उनके सामने यह साधारण व्यक्ति, जो दिखाई देता है और बोलते समय सुनाई देता है, इस व्यक्ति का सत्य से, परमेश्वर से या परमेश्वर के सार से बहुत कम संबंध माना जाता है। इसका कारण यह है कि वह दिखता है और वह लोगों के बहुत करीब है, वह उनके दिल या उनकी आँखों पर कोई असर नहीं डालता और वह उनमें कोई रहस्यमयी जिज्ञासा की भावना पैदा नहीं करता है। लोगों को लगता है कि इस साधारण, मूर्त और बोलने वाले व्यक्ति का पता लगाना बहुत आसान है, बहुत पारदर्शी है। वे तो यह भी सोचते हैं कि वे एक ही नजर में उसे समझ और उसकी असलियत जान सकते हैं। लिहाजा लोग अनजाने में ही मसीह से ठीक उसी तरह पेश आते हैं जैसे वे किसी इंसान से पेश आते हैं, जैसे किसी रुतबे वाले या सत्ताधारी इंसान से पेश आते हैं। क्या यह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है? मसीह की तुलना रुतबे वाले और सत्ताधारी भ्रष्ट इंसानों से कैसे की जा सकती है? जब लोग रुतबे वाले और सत्ताधारी भ्रष्ट व्यक्तियों की खुशामद और चापलूसी करते हैं तो वे उनसे फायदे और सराहना पाते हैं। भ्रष्ट लोगों को इसमें आनंद आता है; वे चाहते हैं कि दूसरे लोग उनकी खुशामद, चापलूसी और चाटुकारिता करें क्योंकि इससे वे अधिक कुलीन और श्रेष्ठ दिखते हैं, साथ ही उनके रुतबे और सत्ता पर अधिक जोर दिया जाता है। लेकिन मसीह, जिसके पास परमेश्वर का सार है, वह बिल्कुल विपरीत है। जब किसी व्यक्ति के पास रुतबा और प्रसिद्धि होती है तो इसका कारण यह नहीं होता कि उसका सार या चरित्र कुलीन है; इसलिए अपनी प्रसिद्धि और रुतबा दिखाने के लिए उसे ऐसे तमाम हथकंडे अपनाने पड़ते हैं जिससे दूसरे लोग उसे अपना आदर्श मानें और उसकी चापलूसी करें। इसके विपरीत, मसीह, जिसके पास परमेश्वर का सार है, उसके पास स्वाभाविक रूप से परमेश्वर की पहचान और दर्जा होता है, जो किसी भी सृजित प्राणी के सार और रुतबे से कहीं ऊँची चीजें हैं। उसकी पहचान और सार का वस्तुगत रूप से अस्तित्व है, उसे सत्यापन के लिए किसी सृजित प्राणी से चाटुकारिता की जरूरत नहीं है; न ही उसे अपनी पहचान, सार या अपना महान दर्जा दिखाने के लिए किसी सृजित प्राणी की खुशामद या चापलूसी की दरकार है। ऐसा इसलिए कि मसीह के पास परमेश्वर का सार होना एक अंतर्निहित तथ्य है; यह उसे किसी व्यक्ति ने नहीं दिया है, इसे मानवजाति के बीच वर्षों के अनुभव से तो बिल्कुल भी अर्जित नहीं किया गया है। कहने का आशय यह है कि सभी सृजित प्राणियों के बिना भी परमेश्वर की पहचान और सार यथावत कायम रहते हैं; किसी भी सृजित प्राणी से अपनी आराधना या अनुसरण कराए बिना भी परमेश्वर का सार अपरिवर्तित रहता है—यह तथ्य बदलता नहीं है। मसीह-विरोधी गलत ढंग से यह मान लेते हैं कि मसीह चाहे जो कुछ भी कहे या करे, लोगों को अच्छे लगने वाले शब्द इस्तेमाल करना चाहिए, जयकारा लगाना चाहिए, उसका अनुसरण करना चाहिए, उसकी प्राथमिकताओं को तुष्ट करने के लिए खुशामद करनी चाहिए और उसके इरादों के खिलाफ नहीं जाना चाहिए, और वे सोचते हैं कि इससे शायद मसीह को अपनी पहचान और अपने दर्जे के अस्तित्व का एहसास हो जाए। यह एक भयंकर भूल है! भ्रष्ट मानवजाति में कोई भी प्रसिद्ध, सत्ता और रुतबे वाला व्यक्ति प्रसिद्धि और शक्ति कैसे अर्जित करता है? (खुशामद और चाटुकारिता से।) यह एक पहलू है। इसके अलावा, ये चीजें मुख्य रूप से लोगों के बीच संघर्ष और जद्दोजहद करके, जोड़-तोड़ करके और तमाम तरीकों से भी पाई या कब्जाई जाती हैं। यह महज एक प्रतिष्ठा है, लोगों के बीच एक उच्च पद या श्रेणी है। यह उच्च प्रतिष्ठा, उच्च श्रेणी और ऊँचा रुतबा व्यक्ति को भीड़ के बीच अलग खड़ा करता है, एक अगुआ बनाता है, निर्णय लेने का अधिकार रखने वाला निर्णयकर्ता बनाता है। लेकिन रुतबे और प्रसिद्धि वाले इस व्यक्ति का सार क्या है, जो लोगों के बीच दूसरों के ऊपर खड़ा है? क्या उसमें और दूसरे लोगों में कोई अंतर है? उसकी पहचान और सार बिल्कुल किसी सामान्य भ्रष्ट इंसान के समान है; वह शैतान की सत्ता में भ्रष्ट किया गया एक सामान्य प्राणी है, जो सत्य और सकारात्मक चीजों से विश्वासघात करने, सही और गलत को उलटने, तथ्यों के खिलाफ जाने, बुराई करने, परमेश्वर का प्रतिरोध करने और स्वर्ग की अवहेलना और उसे कोसने में सक्षम है। ऐसे लोगों की असली पहचान और सार वही है जो शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए व्यक्ति की होती है, जो परमेश्वर का प्रतिरोध कर सकता है, जिससे उनकी प्रसिद्धि और रुतबा महज खोखली उपाधियाँ बन जाती हैं। जो लोग काफी निर्दयी, क्रूर और दुर्भावनायुक्त होते हैं, जो रुतबे और प्रसिद्धि के लिए दूसरों को मारते या नुकसान पहुँचाते हैं, वे उच्च पद प्राप्त करते हैं। जो लोग कपटी चालें चल सकते हैं, जिनके पास हथकंडे हैं और जो साजिश रच सकते हैं, वे दूसरों के अगुआ बन जाते हैं। ये लोग सामान्य भ्रष्ट लोगों की तुलना में ज्यादा दुर्भावनापूर्ण, क्रूर और दुष्ट हैं। वे चाहते हैं कि उनके साथ केवल अच्छे लगने वाले शब्दों, चाटुकारिता, खुशामद, और चापलूसी से पेश आया जाए। अगर तुम उनसे सत्य बोलते हो तो तुम अपनी जान जोखिम में डाल लेते हो। मसीह-विरोधी लोग खेल के इन सांसारिक नियमों और सांसारिक आचरण के फलसफों को परमेश्वर के घर में ले आते हैं और इन्हें मसीह के साथ बातचीत में अपनाते हैं। वे मानते हैं कि अगर मसीह अपने को मजबूती से स्थापित करना चाहता है, तो उसे अपनी खुशामद और चापलूसी कराना और अच्छे लगने वाले शब्द सुनना भी पसंद होगा। ऐसा करके वे धीमे से देहधारी परमेश्वर की देह को महज भ्रष्ट मानवजाति का एक सदस्य मानकर पेश आते हैं, जो कि मसीह-विरोधियों का दृष्टिकोण है। इसलिए मसीह के साथ बातचीत में मसीह-विरोधी जो स्वभाव प्रकट करते हैं वह निःसंदेह दुष्टतापूर्ण होता है। वे दुष्ट स्वभाव के हैं, वे लोगों के विचारों के बारे में अटकलें लगाते हैं और सोचते-विचारते हैं, दूसरे लोगों के शब्दों और हाव-भावों को आँकना पसंद करते हैं, और मसीह से पेश आने और उससे बातचीत करने से जुड़े मामलों में कुछ ऐसे तौर-तरीके और नियम अपनाना पसंद करते हैं जिनका इस्तेमाल सांसारिक लोग किया करते हैं। वे सबसे गंभीर गलती क्या करते हैं? वे इस तरह से क्यों पेश आ पाते हैं? इसकी जड़ कहाँ है? परमेश्वर कहता है कि देहधारी परमेश्वर एक साधारण व्यक्ति है। यह सुनकर मसीह-विरोधी फूले नहीं समाते और कहते हैं : “तो ठीक है, मैं तुम्हें एक सामान्य व्यक्ति मानकर पेश आऊँगा; तुमसे कैसे पेश आना है, अब इसके लिए मेरे पास एक आधार है।” जब परमेश्वर कहता है कि जिस देह में परमेश्वर ने देहधारण किया है उसमें परमेश्वर का सार है, तो मसीह-विरोधियों का उत्तर होता है : “परमेश्वर का सार? यह मुझे क्यों नहीं दिखता? यह कहाँ है? यह कैसे प्रकट होता है? उसमें परमेश्वर का सार है, यह साबित करने के लिए वह क्या प्रकट करता है? मैं केवल रुतबे वाले लोगों की खुशामद और चापलूसी करना जानता हूँ। मैं लोगों की खुशामद और चापलूसी करने में कभी गलती नहीं कर सकता; यह हमेशा सटीक रहा है। कुछ भी हो, यह सच बोलने से तो बेहतर है।” यही मसीह-विरोधियों की दुष्टता है। इसी प्रकार मसीह-विरोधी सत्य में विश्वास नहीं करते या इसे स्वीकार नहीं करते, वे केवल शैतान के फलसफे के अनुसार जीते हैं।

कुछ लोग कहते हैं : “हर कोई उन्हीं लोगों को पसंद करता है जो खुशामद और चापलूसी कर सकते हैं और अच्छे लगने वाले शब्द बोलते हैं; ऐसे लोगों को केवल परमेश्वर ही पसंद नहीं करता। तो फिर परमेश्वर वास्तव में किस तरह के व्यक्ति को पसंद करता है? परमेश्वर के साथ व्यक्ति कैसे बातचीत करे कि वह उसे पसंद करने लगे?” क्या तुम लोग जानते हो? (परमेश्वर को ईमानदार लोग पसंद हैं, ऐसे लोग जो परमेश्वर से अपने दिल की बात कहते हैं, ऐसे लोग जो अपना दिल खोल देते हैं और निष्कपट होकर परमेश्वर के साथ संगति करते हैं।) और कुछ? (जिनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होता है, जो परमेश्वर के वचन सुन और स्वीकार कर पाते हैं।) (जिनका दिल परमेश्वर के घर की ओर होता है, जिनका दिल परमेश्वर से एकाकार हो गया है।) तुम सभी लोगों ने एक ईमानदार व्यक्ति होने के अनेक पहलुओं का उल्लेख किया है, जिनका अभ्यास किया जाना चाहिए। ईमानदार व्यक्ति होना मनुष्य से परमेश्वर की एक अपेक्षा है। यह एक सत्य है जिसका मनुष्य को अभ्यास करना चाहिए। तो वे कौन-से सिद्धांत हैं जिनका मनुष्य को परमेश्वर के साथ व्यवहार करते समय पालन करना चाहिए? ईमानदार रहो : यही वह सिद्धांत है, जिसका परमेश्वर के साथ बातचीत करते समय पालन किया जाना चाहिए। चापलूसी या खुशामद करने की अविश्वासियों की प्रथा में संलग्न न हो; परमेश्वर को मनुष्य की खुशामद या चापलूसी की आवश्यकता नहीं है। ईमानदार होना ही पर्याप्त है। और ईमानदार होने का क्या मतलब है? इसे अभ्यास में कैसे लाया जाना चाहिए? (बस कोई दिखावा किए बिना या कुछ छिपाए बिना या कोई रहस्य रखे बिना परमेश्वर के सामने खुलना, परमेश्वर से सच्चे दिल से बातचीत करना और बिना किसी बुरे इरादे या फरेब के स्पष्टवादी होना।) सही कहा। ईमानदार होने के लिए तुम लोगों को पहले अपनी निजी इच्छाओं को एक तरफ रखना होगा। यह ध्यान देने की बजाय कि परमेश्वर तुम्हारे साथ किस तरह का व्यवहार करता है, तुम्हें परमेश्वर के सामने अपना दिल खोलकर रख देना चाहिए और जो कुछ तुम्हारे दिल में है वह कह देना चाहिए। यह चिंतन या विचार मत करो कि तुम्हारे शब्दों का क्या दुष्परिणाम होगा; जो कुछ तुम सोच रहे हो वह कह दो, अपनी मंशाओं को एक तरफ रख दो, और बस किसी मकसद को हासिल करने के लिए बातें मत कहो। तुम्हारे अनेक व्यक्तिगत इरादे और मिलावटी विचार होते हैं; तुम हमेशा यह सोचते हुए तोलकर बातें करते हो कि “मुझे इस बारे में बात करनी चाहिए, उस बारे में नहीं, मैं जो कहता हूँ उसके बारे में सावधान रहना चाहिए। मैं इसे उस तरह कहूँगा जिससे मुझे फायदा हो और जो मेरी कमियाँ ढक दे, और परमेश्वर पर अच्छा प्रभाव छोड़े।” क्या यह मंसूबे पालना नहीं है? मुँह खोलने से पहले तुम्हारा दिमाग कुटिल विचारों से भरा होता है, तुम जो कहना चाहते हो उसे कई बार संशोधित करते हो, जिससे जब शब्द तुम्हारे मुँह से निकलते हैं तो वे इतने शुद्ध नहीं होते, और जरा भी वास्तविक नहीं होते, और उनमें तुम्हारे अपने इरादे और शैतान के षड्यंत्र शामिल होते हैं। यह ईमानदार होना नहीं है; यह कुटिल मंशाएँ और बुरे इरादे रखना है। और तो और, जब तुम बात करते हो, तो तुम हमेशा लोगों के चेहरे के हाव-भाव और उनकी आँखों के रुख से अपने संकेत लेते हो : अगर उनके चेहरों पर सकारात्मक अभिव्यक्ति होती है तो तुम बात करते रहते हो; अगर नहीं होती तो तुम बात दबा लेते हो और कुछ नहीं कहते; अगर उनकी आँखों का रुख बिगड़ा हुआ होता है और ऐसा लगता है कि वे जो सुन रहे हैं वह उन्हें पसंद नहीं है तो तुम इसके बारे में ध्यानपूर्वक सोचते हो और मन में कहते हो, “ठीक है, मैं वही कहूँगा जो तुम्हें रुचिकर लगे, जो तुम्हें खुश कर दे, जिसे तुम पसंद करोगे और जो तुम्हें मेरे अनुकूल बना दे।” क्या यह ईमानदार होना है? यह ईमानदार होना नहीं है। कुछ लोग जब कलीसिया में किसी को बुराई करते और बाधा डालते देखते हैं तो इसकी रिपोर्ट नहीं करते हैं। वे सोचते हैं, “अगर मैं इसके बारे में रिपोर्ट करने वाला पहला व्यक्ति हुआ तो उस व्यक्ति को नाराज कर बैठूँगा, और अगर मैं गलत निकला तो मेरी काट-छाँट की जाएगी। मुझे इंतजार करना चाहिए कि दूसरे लोग इसकी रिपोर्ट करें और फिर मैं उनके साथ शामिल हो जाऊँगा। भले ही हम गलत निकले तो भी कोई बात नहीं—आखिरकार, तुम किसी भीड़ को दोषी नहीं ठहरा सकते। जैसी कि कहावत भी है, ‘जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है।’ मैं वह पक्षी नहीं बनूँगा; कोई मूर्ख ही होगा जो अपनी गर्दन उठाने की जिद करेगा।” क्या यह ईमानदार होना है? बिल्कुल भी नहीं। ऐसा व्यक्ति वास्तव में धूर्त है; यदि वह कलीसिया का अगुआ या पर्यवेक्षक बन जाता है तो क्या वह कलीसिया के कार्य को नुकसान नहीं पहुँचाएगा? बिल्कुल पहुँचाएगा। ऐसे व्यक्ति का उपयोग कतई नहीं करना चाहिए। क्या तुम लोग इस प्रकार के व्यक्ति का भेद पहचान सकते हो? उदाहरण के लिए, मान लो, किसी अगुआ ने कुछ बुरे काम कर कलीसिया के कार्य में बाधा डाली है, फिर भी कोई नहीं समझता कि इस व्यक्ति के साथ वास्तव में क्या हो रहा है, न ही ऊपरवाले को पता है कि वह किस प्रकार का व्यक्ति है—सिर्फ तुम्हीं जानते हो कि उसका क्या मामला है। तो क्या ऐसी परिस्थिति में तुम ऊपरवाले को ईमानदारी से यह मसला बताओगे? यही मसला व्यक्ति को सबसे ज्यादा बेनकाब करता है। अगर तुमने इस मामले को छिपाया और किसी को कुछ नहीं बताया, यहाँ तक कि परमेश्वर को भी नहीं, बल्कि उस दिन का इंतजार करते रहे जब वह अगुआ इतनी बुराई कर चुका होगा कि इससे कलीसिया का कार्य बिगड़ चुका होगा और हर कोई उसे उजागर कर उससे निपट चुका होगा, तब तुम खड़े होकर कहो, “मैं हमेशा से जानता था कि वह अच्छा इंसान नहीं है। कुछ लोग सोचते थे कि वह अच्छा है; अगर मैं कुछ कहता तो कोई भी मुझ पर विश्वास नहीं करता। इसलिए मैं कुछ नहीं बोला। अब जबकि वह कुछ बुरे काम कर चुका है और हर कोई उसकी असलियत जान चुका है तो मैं बता सकता हूँ कि उसके साथ वास्तव में क्या मामला था,” तो क्या यह ईमानदार होना है? (नहीं।) हर बार जब किसी की समस्याएँ उजागर होती हैं या किसी समस्या की सूचना दी जाती है, तब अगर तुम भीड़ का अनुसरण करते हो और उसे उजागर करने या समस्या की सूचना देने में सबसे अंत में खड़े होते हो तो क्या तुम ईमानदार हो? इनमें से कुछ भी ईमानदार होना नहीं है। अगर तुम किसी को नापसंद करते हो या किसी ने तुम्हें नाराज कर दिया है, और तुम जानते हो कि वह कोई बुरा व्यक्ति नहीं है, लेकिन क्षुद्र होने के कारण तुम उससे नफरत करने लगते हो और उससे बदला लेना चाहते हो और उसे शर्मिंदा करना चाहते हो तो हो सकता है कि तुम ऊपरवाले को उसके बारे में कुछ बुरी बातें बताने के तरीके और मौके तलाशने लगो। हो सकता है कि तुम केवल तथ्य बता रहे हो, उस व्यक्ति की निंदा नहीं कर रहे हो, लेकिन वे तथ्य बताते समय तुम्हारी मंशा प्रकट हो चुकी है : तुम उससे निपटने के लिए ऊपरवाले के हाथ का लाभ उठाना चाहते हो या परमेश्वर से कुछ कहलवाना चाहते हो। ऊपरवाले को समस्याओं के बारे में सूचना देकर तुम अपना लक्ष्य साधने का प्रयास कर रहे हो। इसमें निश्चित रूप से व्यक्तिगत इरादों की मिलावट है और यह ईमानदार होना बिल्कुल नहीं है। अगर वह कलीसिया के कार्य में बाधा डालने वाला बुरा व्यक्ति है और तुम उस कार्य की सुरक्षा के लिए ऊपरवाले को सूचना देते हो और उससे भी बढ़कर तुम जिन समस्याओं की सूचना दे रहे हो वे पूरी तरह से तथ्यात्मक हैं तो यह चीजों से निपटने के शैतानी फलसफों से अलग है। यह न्याय और जिम्मेदारी की भावना से उपजता है और यह अपनी वफादारी को अच्छे से निभाना है; ईमानदार होना इसी तरह से अभिव्यक्त होता है।

परमेश्वर उन लोगों को पसंद नहीं करता जो खुशामद और चापलूसी करते हैं या अच्छे लगने वाले शब्द बोलते हैं। तो परमेश्वर को किस प्रकार का व्यक्ति पसंद है? परमेश्वर के अनुसार उसके साथ लोगों को किस तरह से बातचीत और संगति करनी चाहिए? परमेश्वर को ईमानदार लोग पसंद हैं, वह पसंद करता है कि लोग उसके प्रति सच्चे रहें। तुम्हें उसके लहजे और हाव-भाव पर गौर करने या उसकी वाहवाही करने की जरूरत नहीं है; तुम्हें बस ईमानदार होने की जरूरत है, तुम्हारा सच्चा दिल होना चाहिए, तुम्हारे दिल में कोई छिपाव, पर्दा या छद्म-वेश नहीं होना चाहिए और तुम्हारा बाहरी रूप तुम्हारे दिल से मेल खाना चाहिए। यानी जब तुम मसीह के साथ पेश आओ और बातचीत करो तो तुम्हें कोई प्रयास करने, पहले से कोई “होमवर्क” या तैयारी या कुछ करने की जरूरत नहीं है; इनमें से कुछ भी जरूरी नहीं है। परमेश्वर को ईमानदारी पसंद है : खुले दिल से, सामान्य, स्वाभाविक बातचीत और मेलजोल। भले ही तुम कुछ गलत कह दो या अनुचित शब्दों का प्रयोग कर दो, यह कोई समस्या नहीं है। उदाहरण के लिए, मान लो कि मैं किसी जगह जाता हूँ और रसोइया पूछता है, “क्या तुम खाने में कोई पाबंदी बरतते हो? तुम कौन-से खाद्य पदार्थ खाते हो और कौन-से नहीं? मैं क्या खाना बनाऊँ?” मैं कहता हूँ : “खाना न अधिक नमकीन हो, न मसालेदार हो, और साथ ही ज्यादा तेल वाला न हो और कोई तला हुआ खाना न हो। ठोस आहार के रूप में चावल या नूडल्स ठीक रहेंगे।” क्या ये गहन निर्देश हैं? (नहीं।) जो भी खाना बनाना जानता है वह इन्हें तुरंत समझ जाएगा, उसे अटकलें लगाने, सोच-विचार करने या किसी से विशेष मार्गदर्शन या स्पष्टीकरण लेने की जरूरत नहीं है। बस अपने अनुभव के अनुसार खाना बनाओ, यह साधारण-सा मामला है। लेकिन भ्रष्ट स्वभाव और स्वार्थ के होने के कारण लोगों के लिए सरल से भी सरल काम करना असंभव हो जाता है। मैं कहता हूँ खाना अधिक तैलीय न हो, फिर भी वह एक छोटी-सी कटोरी भर सब्जी में एक बड़ा चम्मच तेल डाल देता है, वास्तव में वह इसे तल ही देता है, जो स्वाद में बहुत तैलीय होता है। मैं कहता हूँ नमक बहुत ज्यादा न हो, और वह बस थोड़ा-सा नमक डालकर इसे लगभग फीका बना देता है। इतना अधिक तेल और इतना फीका स्वाद होने के कारण भला क्या यह लुभा सकता है? रसोइया यह छोटा-सा काम भी ठीक से नहीं कर पाता और यहाँ तक कहता है, “परमेश्वर के इरादों को समझना कठिन है। परमेश्वर का प्रत्येक शब्द सत्य है; इसे अभ्यास में लाना लोगों के लिए कठिन है!” “अभ्यास में लाना कठिन है” का क्या आशय है? ऐसा नहीं है कि इसे अभ्यास में लाना कठिन है, बल्कि बात यह है कि तुम इसका अभ्यास नहीं करते हो। तुम्हारा स्वार्थ बहुत अधिक है; तुम्हारे हमेशा अपने इरादे और व्यक्तिगत मिलावटें होती हैं। तुम चीजों को हमेशा अपनी इच्छानुसार करना चाहते हो, हर चीज को अपनी पसंद के अनुसार करते हो। मैं कहता हूँ : “मसालेदार व्यंजन मत बनाओ। अगर तुम सब लोगों को मसालेदार खाना पसंद है तो मेरे लिए कोई बिना मसालों का व्यंजन बना दो।” लेकिन खाना पकाते समय वह इसे मसालेदार बनाने पर तुला रहता है; वह खाने पर टूट पड़ता है और सोचता है कि यह बहुत उम्दा है। मैं कहता हूँ : “मैंने कहा था कि इसे मसालेदार न बनाना। तुमने क्यों नहीं सुना?” “यह व्यंजन मसालेदार ही होना चाहिए। मसालों के बिना इसमें स्वाद नहीं आता, यह बेमजा हो जाता है।” यह कैसा व्यक्ति है? क्या उसके इरादे अच्छे हैं? कुछ लोगों को मांसाहार पसंद है; मैं कहता हूँ, “तुम्हें मांसाहार पसंद है तो अपने लिए भरपूर मांस का व्यंजन बना लो। मेरे लिए कम मांस वाला या केवल सब्जियों का व्यंजन बनाना।” वे तुरंत हामी भर लेते हैं मगर खाना बनाते समय वे मेरा आग्रह नहीं मानते, बर्तन में मांस के बड़े-बड़े टुकड़े ही नहीं, पिसी मिर्च भी डाल देते हैं। मांस में पहले ही भरपूर चिकनाई होती है, और वे इसे पकाते समय तलते भी हैं और सब कुछ अपने तीखे स्वाद के अनुरूप बनाते हैं। अगर मैं उन्हें ऐसा करने से रोकता हूँ तो उन्हें यह गवारा नहीं होता; वे यहाँ तक कह देते हैं : “तुम्हें खुश करना बहुत कठिन है। यह स्वादिष्ट है! बाकी सारे तो इसे खाते हैं, तुम क्यों नहीं खाते? क्या मैंने यह तुम्हारे लिए नहीं बनाया? तुम्हारे लिए थोड़ा ज्यादा भोजन करना अच्छा है, इससे ताकत मिलती है। अगर तुम सेहतमंद रहोगे तो क्या तुम और अधिक उपदेश नहीं दे सकते? मैं तुम्हारे लिए भी विचार कर रहा हूँ और कलीसिया के भाई-बहनों के लिए भी।” क्या यह व्यक्ति अत्यंत कष्टकारी नहीं है? हर चीज में उसकी प्रबल इच्छाएँ होती हैं, हर चीज में उसकी अपनी राय और विचार होते हैं। उसके पास कोई सत्य होने या न होने की क्या बात की जाए, उसमें बुनियादी मानवता भी नहीं है। क्या यह ईमानदार होना है? (नहीं।) शुरुआत में जब इस व्यक्ति ने मेरी राय पूछी थी तो ऐसा लगा कि वह शालीन है, कि वह अच्छा खाना बना लेता होगा। लेकिन भोजन परोसे जाने के बाद मैंने जान लिया—वह अच्छी तरह से बात करता है, वह मेरे प्रति भला नजर आता है, लेकिन असल में वह सिर्फ स्वार्थी और घिनौना इंसान है।

मैं अक्सर एक ऐसी ही महिला को देखता हूँ; वह स्वाभाविक रूप से चालाक और होशियार है। मुझसे मिलते-जुलते समय अगर मैं अपनी दवा ले रहा होता हूँ तो वह पानी लेकर हाजिर हो जाती है; जब मैं बाहर निकलने वाला होता हूँ, वह तुरंत मेरा थैला ले आती है और बाहर सर्दी देखकर वह मेरे लिए गुलूबंद और दस्ताने भी ले आती है। मैं सोचता हूँ : वह फुर्तीली है लेकिन उसका व्यवहार मुझे इतना अजीब क्यों लगता है? चाहे मैं अंदर जा रहा हूँ या बाहर, जूते-कपड़े या टोपी पहन रहा हूँ, हमेशा कोई मुझसे तेज होता है। तुम लोगों के हिसाब से मेरे मन में क्या भावना होती होगी? मुझे खुश होना चाहिए या परेशान? (परेशान।) क्या तुम लोगों को इस तरह के व्यवहार से खीझ होगी? (बिल्कुल।) अगर तुम लोगों को परेशानी होती है तो क्या तुम्हें लगता है मुझे भी परेशानी होती होगी? (बिल्कुल।) कुछ लोग मेरे लिए यह सब करने के बाद काफी खुश होते हैं और खुद पर गर्व महसूस करते हुए कहते हैं : “जब मैं काम करता था तो मेरा बॉस मुझे पसंद करता था। मैं जहाँ भी जाता हूँ, लोग मुझे पसंद करते हैं क्योंकि मैं तेज दिमाग वाला हूँ।” निहितार्थ यह है कि वे चाटुकारिता, खुशामद और चापलूसी करना जानते हैं; वे बुद्धू, सुस्त या मूर्ख नहीं हैं; वे काम में तेज और तीक्ष्ण बुद्धि वाले हैं, इसलिए वे जहाँ भी जाते हैं उन्हें पसंद किया जाता है। वे कहते हैं कि हर कोई उन्हें पसंद करता है, यानी मुझे भी उन्हें पसंद करना चाहिए। क्या मैं उन्हें पसंद करता हूँ? मैं उनसे पूरी तरह परेशान रहता हूँ! जब कभी मैं ऐसे लोगों को देखता हूँ तो उनसे बचता हूँ। कुछ दूसरे लोग जब यह देखते हैं कि अपराध-जगत के आकाओं और प्रमुख राक्षसों के अंगरक्षक और चापलूस चाकर किस तरह उनके कार के दरवाजे खोलते हैं और दुनिया में अपने आकाओं के सिर की रक्षा करते हैं तो वे मेरे साथ भी ऐसा ही करते हैं। इससे पहले कि मैं कार में बैठूँ, वे दरवाजा खोलने के लिए हाथ बढ़ा देते हैं, फिर अपने हाथों से मेरे सिर को बचाते हैं, वे मेरे साथ वैसे ही पेश आते हैं जैसे अविश्वासी लोग एक लीडिंग कैडर के साथ पेश आते हैं। मुझे इन लोगों से घिन आती है। ये लोग जो सत्य का जरा-सा भी अनुसरण नहीं करते हैं, इनकी मानवता स्वार्थी, घृणित और पतित होती है और इनमें शर्म की कोई भावना नहीं होती है। जब तुम दूसरों के साथ बातचीत करते हो, रुतबे वाले और प्रसिद्ध लोगों की खुशामद और चापलूसी करते हो और लगातार चाटुकारिता करते हो तो कुछ ईमानदार लोगों को भी यह घृणित लगता है और वे ऐसे लोगों को हेय दृष्टि से देखते हैं। अगर तुम लोग मेरे साथ ऐसे पेश आते हो तो मुझे यह और भी अधिक घृणित लगता है। मेरे साथ कभी भी इस तरह का व्यवहार मत करो; मुझे इसकी जरूरत नहीं है, इससे मुझे घृणा होती है। मुझे तुम्हारी खुशामद, चापलूसी या चाटुकारिता नहीं चाहिए। मैं चाहता हूँ कि तुम मेरे प्रति ईमानदार रहो, जब हम मिलें तो दिल से दिल की बात करें, तुम्हारी समझ, तुम्हारे अनुभवों और तुम्हारी कमियों के बारे में बात करें, इन बातों पर चर्चा करें कि अपना कर्तव्य निभाते हुए तुम कौन-सी भ्रष्टता प्रकट करते हो और तुम्हें अपने अनुभवों में किन चीजों की कमी नजर आती है। तुम इन सभी चीजों के संबंध में खोज और संगति में जुट सकते हो और तुम उनका अन्वेषण भी कर सकते हो। हम चाहे जिस विषय पर संगति या बातचीत करें, तुम्हें ईमानदार होने और इसी प्रकार का दिल और रवैया रखने की जरूरत है। यह मत सोचो कि खुशामद, चाटुकारिता, चापलूसी या वाहवाही करके तुम एक अच्छा प्रभाव छोड़ सकते हो—यह पूरी तरह से बेकार है। इसके विपरीत ऐसे व्यवहार का न केवल कोई लाभ नहीं होता, बल्कि इसके कारण तुम्हें बड़ी शर्मिंदगी भी उठानी पड़ सकती है और तुम्हारी मूर्खता भी उजागर हो सकती है।

जो लोग मसीह के प्रति भी ईमानदार नहीं हो सकते, वे आखिर किस तरह के लोग हैं? यदि तुम दूसरों के प्रति अपने व्यवहार में ईमानदार हो, तो तुम डरते हो कि वे तुम्हारी वास्तविक स्थिति जान सकते हैं और तुम्हें नुकसान पहुँचा सकते हैं, तुम डरते हो कि वे तुम्हें धोखा दे सकते हैं, तुम्हारा शोषण, उपहास या तिरस्कार कर सकते हैं। लेकिन मसीह के प्रति ईमानदार होने में तुम्हें किस बात का डर है? अगर तुम्हारे मन में शंकाएँ हैं, तो यह एक समस्या है। अगर तुम ईमानदार नहीं हो सकते, तो यह भी तुम्हारी समस्या है; यह एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ तुम्हें सत्य का अनुसरण करना चाहिए और परिवर्तन के लिए प्रयास करना चाहिए। अगर तुम वास्तव में विश्वास करते और मानते हो कि तुम्हारे सामने वाला व्यक्ति वही परमेश्वर है जिसमें तुम विश्वास करते हो, वही परमेश्वर है जिसका तुम अनुसरण करते हो तो बेहतर होगा कि तुम उसके साथ खुशामदी, चापलूसी और अच्छे लगने वाले शब्दों में बातचीत न करो। बल्कि ईमानदार रहो, अपने दिल की बात कहो और तथ्यात्मक बातें करो। ऐसी बातें मत कहो जो तुम्हारे मनोभावों को छिपाती हैं, न झूठ बोलो न फरेब करो, न ही चालाकी या छल-प्रपंच करो। मसीह के साथ बातचीत करने का यही सबसे अच्छा तरीका है। क्या तुम ऐसा कर सकते हो? सकारात्मक कौन-सा है : ईमानदार होना या खुशामद और चापलूसी करना? (ईमानदार होना।) ईमानदार होना सकारात्मक है, जबकि खुशामद और चापलूसी करना नकारात्मक है। यदि लोग ईमानदार होने जैसी सकारात्मक चीज हासिल नहीं कर पाते हैं तो यह बताता है कि उनमें एक समस्या है, भ्रष्ट स्वभाव है। क्या मेरी यह अपेक्षा बहुत ज्यादा है? अगर तुम लोग सोचते हो कि यह बहुत ज्यादा है, अगर तुम्हें लगता है कि मैं इस तरह के व्यवहार के लायक नहीं हूँ, इस बात के लायक नहीं हूँ कि तुम लोग मेरे साथ इतने ईमानदार तरीके से और इतने ईमानदार रवैये के साथ बातचीत करो तो क्या तुम लोगों के पास कोई बेहतर तरीका, बेहतर मार्ग है? (नहीं।) तो फिर इस दृष्टिकोण का अभ्यास करो। इस विषय पर अपनी संगति को इसी बिंदु पर समाप्त करते हैं।

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