मद दस : वे सत्य का तिरस्कार करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग दो) खंड एक
आज हम मसीह-विरोधियों की विभिन्न अभिव्यक्तियों की दसवीं मद पर संगति जारी रखते हैं : वे सत्य का तिरस्कार करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं। पिछली बार हमने सत्य का तिरस्कार करने के विषय पर केंद्रित कुछ विशेष संगति की थी, इसलिए हम पहले इसी पर दुबारा नजर डाल लेते हैं। पिछली बार तुम लोगों ने “तिरस्कार” को कैसे समझाया था? (हमने इसे सत्य को महत्व न देने, सत्य को हेय दृष्टि से देखने, इसका तिरस्कार करने और इसे तुच्छ समझने और सत्य के प्रति अवहेलना दिखाने के रूप में समझाया था।) क्या तुम लोग व्यावहारिक शब्दावली का प्रयोग करके इस शब्द के सार को स्पष्ट रूप से समझा चुके हो? (हमारी व्याख्या केवल तिरस्कार के समानार्थी शब्दों तक सीमित थी; यह सतही थी और सत्य का तिरस्कार करने के विवरण को स्पष्ट नहीं करती थी, और न ही सत्य से पेश आने के हमारे रवैये और अभिव्यक्तियों को स्पष्ट करती थी। हम इसका सार समझाने में नाकाम रहे।) इस तरह की व्याख्या की प्रकृति क्या है? यह किस श्रेणी में आती है? (शब्द और धर्म-सिद्धांत।) और कुछ? क्या यह ज्ञान का हिस्सा है? (हाँ।) यह ज्ञान कैसे हासिल किया गया था? यह ज्ञान स्कूलों से, शिक्षकों से और किताबों व शब्दकोशों से भी हासिल किया गया था। तो मेरी और तुम लोगों की व्याख्या में क्या अंतर है? (परमेश्वर की संगति का संबंध सत्य के प्रति प्रत्येक व्यक्ति के रवैये से है—यानी, लोग इसका प्रतिरोध करते हैं, इसका तिरस्कार करते हैं, अपने दिल की गहराई से इससे नफरत करते हैं, इसे स्वीकार नहीं करते हैं और यहाँ तक कि इसकी निंदा भी करते हैं, इसके प्रति शत्रुतापूर्ण राय बनाते हैं और इसे बदनाम करते हैं। परमेश्वर की व्याख्या सत्य के प्रति लोगों के रवैये के सार से आती है।) मैं “तिरस्कार” शब्द का सार विभिन्न सारभूत व्यवहारों, अभ्यासों, रवैयों और दृष्टिकोणों के परिप्रेक्ष्य से समझाता हूँ। कौन-सी व्याख्या वास्तव में सत्य है? (परमेश्वर की व्याख्या सत्य है।) तो तुम लोगों की व्याख्या में कमी कहाँ रह जाती है? (हम सत्य नहीं समझते हैं। हम चीजों को सतह पर देखते हैं और इनकी शाब्दिक व्याख्या करते हैं और मसलों को देखने के लिए ज्ञान और धर्म-सिद्धांतों के भरोसे रहते हैं।) तुम लोग इस शब्द की व्याख्या उस ज्ञान के आधार पर करते हो जो तुमने समझा है और शाब्दिक अर्थ की अपनी समझ के अनुसार करते हो, लेकिन तुम बिल्कुल भी नहीं जानते कि यह शब्द किसी व्यक्ति के प्रकृति सार और भ्रष्ट स्वभाव से कैसे जुड़ा हुआ है। ज्ञान व धर्म-सिद्धांत और सत्य के बीच यही अंतर है। क्या तुम लोग आमतौर पर परमेश्वर के वचन पढ़ते समय और सत्य पर संगति करते समय भी इस पद्धति और परिप्रेक्ष्य का उपयोग करते हो? (हाँ।) यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि अधिकतर लोग चाहे जैसे भी परमेश्वर के वचन पढ़ें, यह नहीं समझ पाते हैं कि इनमें वास्तव में सत्य क्या है। इसीलिए बहुत-से लोगों को परमेश्वर में विश्वास करते हुए बहुत साल हो चुके हैं मगर उन्होंने सत्य वास्तविकता को समझा या इसमें प्रवेश नहीं किया है। इसीलिए हमेशा यह कहा जाता है, “लोग सत्य को नहीं समझते और उनमें इसे समझने की क्षमता नहीं होती है।”
हम मसीह-विरोधियों की अभिव्यक्तियों की दसवीं मद पर संगति करना जारी रखेंगे : वे सत्य का तिरस्कार करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं। पिछली सभा में, हमने सत्य का तिरस्कार करने को तीन मदों में बाँटा था। ये तीन मदें क्या थीं? (पहला, परमेश्वर की पहचान और सार का तिरस्कार करना, दूसरा, उस देह का तिरस्कार करना जिसे परमेश्वर ने धारण किया है, तीसरा, परमेश्वर के वचनों का तिरस्कार करना।) आओ, इन तीन मदों पर आधारित विषय “मसीह-विरोधियों द्वारा सत्य का तिरस्कार करना, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाना और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करना” का गहन-विश्लेषण करें। पिछली बार, हमने आम तौर पर पहली मद को कमोबेश पूरा समझा दिया था लेकिन परमेश्वर के सार की पवित्रता और विशिष्टता के बारे में बहुत अधिक विस्तार से संगति नहीं की थी, जिसका उद्देश्य तुम लोगों के लिए चिंतन-मनन की गुंजाइश छोड़ना और मैंने जो परमेश्वर की धार्मिकता और सर्वशक्तिमत्ता के पहलुओं पर संगति की थी, उन पहलुओं के आधार पर तुमसे अधिक विशेष रूप से संगति करना था। आज हम दूसरी मद पर संगति करेंगे, जिसमें यह शामिल है कि मसीह-विरोधी उस देह के साथ कैसा व्यवहार करते हैं जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है ताकि हम इस विषय का गहन-विश्लेषण कर सकें कि कैसे मसीह-विरोधी सत्य का तिरस्कार करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं।
II. उस देह का तिरस्कार करना जिसे परमेश्वर ने धारण किया है
देहधारी परमेश्वर—यानी मसीह—के प्रति मसीह-विरोधियों के परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण और उसके साथ संबंध की भी कुछ विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ और अनिवार्य खुलासे होते हैं। अगर हमें लोगों की कुछ खास अभिव्यक्तियों या कुछ लोगों के खास अभ्यासों को सपाट तरीके से पेश करना होता तो तुम लोगों को यह प्रस्तुति थोड़ी अस्पष्ट लग सकती थी। इसके बजाय आओ, इसे कुछ मदों में बाँट देते हैं, ताकि इनसे यह समझ लें कि जिस देह में परमेश्वर देहधारण करता है उसके प्रति मसीह-विरोधियों का रवैया वास्तव में क्या है और यह सत्यापित और गहन-विश्लेषण कर लें कि कैसे मसीह-विरोधी सत्य का तिरस्कार करते हैं। पहली मद है, खुशामद, चापलूसी और अच्छे लगने वाले शब्द; दूसरी मद है, जाँच-पड़ताल, विश्लेषण और जिज्ञासा; तीसरी है, मसीह के साथ उनका व्यवहार उनकी मनःस्थिति पर निर्भर करता है; चौथी है, मसीह जो कहता है उसे केवल सुनना, लेकिन न तो उसका आज्ञापालन करना और न ही उसके प्रति समर्पण करना। इनमें से प्रत्येक मद की अभिव्यक्तियों के आधार पर, साथ ही उन विचारों और अभिव्यक्तियों के आधार पर जिन्हें तुम लोग उनके शाब्दिक अर्थ से समझ सकते हो, आकलन करें तो क्या इनमें से प्रत्येक मद सकारात्मक है? क्या कोई ऐसा विषय है जो काफी सकारात्मक लगता है? “सकारात्मक” का क्या मतलब है? कम-से-कम इसका आशय मानवता और विवेक होने से है। इसे समर्पण होने के स्तर तक उठाने या उस रवैये या रुख तक उठाने की जरूरत नहीं है जो एक सृजित प्राणी में होना चाहिए। केवल मानवीय विवेक के पैमाने का उपयोग करते हुए इनमें से कौन-सा मानक पर खरा उतरता है?
सबसे पहले, आओ पहली मद को देखते हैं : खुशामद, चापलूसी और अच्छे लगने वाले शब्द। क्या इन तीन शब्दों को मानवीय भाषा में प्रशंसात्मक या सकारात्मक माना जाता है? (नहीं।) आमतौर पर ये शब्द किस प्रकार के लोगों की कथनी और व्यवहार को चित्रित करते हैं? (कपटी, गद्दार, नीच और चापलूस लोगों की।) गद्दार, नीच और स्वधर्मभ्रष्ट; ऐसे लोग जो कपट, नीचता और दुष्टता से संबंधित हैं। ऐसे लोगों के कार्यकलाप दूसरों की नजरों में ज्यादातर घृणित और नीच, लोगों के प्रति बेईमान और दयाविहीन होते हैं। वे अक्सर खुशामद करते हैं, चापलूसी करते हैं और उन्हें अच्छे लगने वाले शब्द बोलते हैं, प्रभावशाली और ऊँचे रुतबे वाले लोगों की खुशामद और चापलूसी करते हैं। ऐसा करने वाले व्यक्ति से दूसरे लोग तिरस्कार करते हैं और आमतौर पर उसे एक नकारात्मक व्यक्ति के रूप में देखा जाता है।
आओ, दूसरी मद पर नजर डालें : जाँच-पड़ताल, विश्लेषण और जिज्ञासा। ये शब्द प्रशंसात्मक माने जाते हैं या अपमानजनक? (अपमानजनक।) अपमानजनक? जरा मुझे समझाओ, तुम उन्हें अपमानजनक श्रेणी में क्यों रखोगे? संदर्भ के बिना ये शब्द तटस्थ हैं और इन्हें प्रशंसात्मक या अपमानजनक नहीं कहा जा सकता। उदाहरण के लिए, किसी वैज्ञानिक परियोजना के प्रति जाँच-पड़ताल अपनाना, समस्या के सार का विश्लेषण करना, कुछ चीजों के प्रति जिज्ञासु होना—इन अभिव्यक्तियों को मूल रूप से सकारात्मक या नकारात्मक नहीं कहा जा सकता है और ये काफी तटस्थ हैं। लेकिन यहाँ एक संदर्भ है : लोगों की जाँच-पड़ताल, विश्लेषण और जिज्ञासा का लक्ष्य ऐसा कोई विषय नहीं है जो मानव अनुसंधान के लिए उपयुक्त हो, बल्कि वह देह है जिसमें परमेश्वर देहधारण करता है। इसलिए स्पष्ट है कि इस अतिरिक्त संदर्भ के साथ देखते हुए इस प्रकार के लोगों द्वारा किए गए कार्यों के साथ ही साथ उनकी अभिव्यक्तियों और व्यवहारों के आधार पर ये शब्द यहाँ अपमानजनक हो जाते हैं। किस प्रकार के लोग आमतौर पर उस देह की जाँच-पड़ताल और विश्लेषण करते हैं जिसमें परमेश्वर देहधारण करता है? क्या ये वे लोग हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं या वे हैं जो सत्य का अनुसरण नहीं करते? क्या ये वे लोग हैं जो वास्तव में अपने हृदय से मसीह में विश्वास करते हैं या वे हैं जो मसीह के प्रति संदेहपूर्ण रवैया रखते हैं? जाहिर है, ये वे लोग हैं जो संदेहपूर्ण रवैया रखते हैं। उन्हें मसीह में वास्तविक आस्था नहीं है, और जाँच-पड़ताल और विश्लेषण के अलावा वे बेहद जिज्ञासु भी हैं। वे वास्तव में किस बारे में उत्सुक हैं? हम शीघ्र ही इन अभिव्यक्तियों और सार के विवरण के बारे में खास तौर पर संगति करेंगे।
इसके बाद, आओ हम तीसरी मद को देखें : मसीह के साथ उनका व्यवहार उनकी मनःस्थिति पर निर्भर करता है। इस मद में प्रशंसात्मक या अपमानजनक अर्थ का विश्लेषण करने के लिए विशिष्ट शब्द नहीं हैं। ऐसे लोगों की इस प्रकार की अभिव्यक्ति और विशिष्ट अभ्यास से कौन-सा तथ्य प्रकट होता है? जो व्यक्ति ऐसी चीजें करता है और ऐसी अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित करता है उसका स्वभाव किस प्रकार का है? सबसे पहले, क्या वे दूसरों के प्रति अपने व्यवहार में निष्पक्ष होते हैं? (नहीं।) यह निष्कर्ष किस वाक्यांश से निकाला जा सकता है? (“उनकी मनःस्थिति पर निर्भर करता है।”) इस वाक्यांश का यह अर्थ है कि ऐसे लोग बिना किसी सिद्धांत के, बिना किसी आधार रेखा के और विशेष रूप से बिना किसी जमीर या विवेक के कार्य करते हैं और दूसरे लोगों या मामलों से पेश आते हैं—वे पूरी तरह अपनी मनःस्थिति से संचालित होते हैं। अगर कोई किसी साधारण व्यक्ति के साथ अपनी मनःस्थिति के आधार पर पेश आता है तो हो सकता है यह कोई बड़ा मसला न हो; यह प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन नहीं करेगा या परमेश्वर के स्वभाव को अपमानित नहीं करेगा, और केवल यह दर्शाता है कि यह व्यक्ति मनमानी करता है, सत्य का अनुसरण नहीं करता, सिद्धांतों के बिना कार्य करता है और अपनी मनोदशा और प्राथमिकताओं के आधार पर जो अच्छा लगे वो करता है, दूसरों की भावनाओं की नहीं, बल्कि सिर्फ अपनी दैहिक इच्छाओं और भावनाओं की परवाह करता है और दूसरों के प्रति कोई सम्मान प्रकट नहीं करता है। यह एक साधारण व्यक्ति के साथ उसके व्यवहार पर आधारित व्याख्या है—लेकिन यहाँ उनकी मनःस्थिति पर आधारित व्यवहार किसके साथ किया जा रहा है? यह कोई साधारण व्यक्ति नहीं है, बल्कि वह देह है जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है—मसीह। अगर तुम मसीह से अपनी मनोदशा के आधार पर व्यवहार करते हो तो यह एक गंभीर समस्या है, जिसके विस्तार पर हम अभी चर्चा नहीं करेंगे।
अब, चौथी मद पर नजर डालते हैं : मसीह जो कहता है उसे केवल सुनना, लेकिन न तो उसका आज्ञापालन करना और न ही उसके प्रति समर्पण करना। यह क्या है, इसे ठीक-ठीक निरूपित करने के लिए यहाँ कोई विशिष्ट शब्द नहीं हैं; यह एक तरह की अभिव्यक्ति है, एक आदतन दशा है और चीजों से पेश आने का लोगों का एक विशिष्ट रवैया है, और इसका संबंध व्यक्ति के स्वभाव से है। ऐसे लोगों का स्वभाव क्या होता है? वे सुनते हैं, लेकिन वे न तो आज्ञा मानते हैं और न ही समर्पण करते हैं। ऊपरी तौर पर वे अब भी सुन सकते हैं, लेकिन क्या वे बाहर से भी वही दिखाते हैं जो वे मन में सोचते हैं या जो उनका असली रवैया होता है? (नहीं।) बाहरी तौर पर लग सकता है कि वे सुसभ्य हैं और सुन रहे हैं, लेकिन अंदर से ऐसा नहीं है। आंतरिक रूप से अवज्ञा की मनःस्थिति और रवैये के साथ-साथ प्रतिरोध की मनःस्थिति और रवैया भी होता है। वे सोचते हैं : “मैं अपने हृदय में तुम्हारी आज्ञा नहीं मानता; मैं तुम्हें यह कैसे स्पष्ट दिखा सकता हूँ कि मैं आज्ञा का पालन नहीं करता? मैं केवल तुम्हारे कहे वचनों को सुनता हूँ, लेकिन मैं उन्हें बिल्कुल भी दिल में नहीं उतारता या उन पर अमल नहीं करता। मैं तुम्हारे विरुद्ध रुख अपनाकर तुम्हारा विरोध करूँगा!” आज्ञापालन और समर्पण न करने का यही मतलब है। अगर ऐसे लोग साधारण व्यक्तियों के संपर्क में आते हैं और उनके साथ बातचीत करते हैं, सामान्य लोग जो कहते हैं उसके साथ इसी प्रकार की दशा, दृष्टिकोण और रवैये से पेश आते हैं, फिर चाहे यह एक स्पष्ट या पता लग सकने वाली अभिव्यक्ति हो या न हो, तो ऐसे लोगों का स्वभाव कैसा होता है? क्या उन्हें ऐसा व्यक्ति माना जा सकता है जिन्हें दूसरे मानवता और तार्किकता वाले नेक लोग कहते हैं? क्या उन्हें सकारात्मक व्यक्तियों के रूप में वर्गीकृत किया जाता है? बिल्कुल भी नहीं। “केवल सुनना, लेकिन न तो आज्ञापालन करना और न ही समर्पण करना” वाक्यांश के आधार पर आँकने पर ये लोग अहंकारी हैं। वे कितने अहंकारी हैं? बहुत ही ज्यादा, वे तार्किकता खोने, पूरी तरह से बावले, किसी की बात न मानने और उसकी बुरी तरह अनदेखी करने की हद तक अहंकारी हैं। दूसरों से मिलते-जुलते समय उनका यह रवैया रहता है : “मैं तुमसे बात कर सकता हूँ, मैं तुमसे जुड़ सकता हूँ, लेकिन किसी के भी शब्द मेरे हृदय में प्रवेश नहीं कर सकते, न ही किसी के शब्द मेरे कार्यकलापों के सिद्धांत और मार्गदर्शन बन सकते हैं।” उनके मन में केवल उनके अपने विचार होते हैं, वे केवल अपने भीतर की आवाज पर ध्यान देते हैं। वे किसी भी सही या सकारात्मक कथन और सिद्धांत को न तो सुनते हैं और न ही स्वीकार करते हैं, बल्कि अपने दिल में उनका प्रतिरोध करते हैं। क्या जनसाधारण के बीच ऐसे लोग हैं? किसी समूह में ऐसे लोगों को तार्किक माना जाता है या तर्कहीन? उन्हें सकारात्मक व्यक्तियों के रूप में वर्गीकृत किया जाता है या नकारात्मक? (नकारात्मक व्यक्ति।) तो फिर समूह के अधिकतर लोग आमतौर पर उन्हें कैसे देखते हैं और उनसे कैसे पेश आते हैं? वे उनके साथ व्यवहार में कैसे तरीके इस्तेमाल करते हैं? क्या अधिकतर लोग ऐसे लोगों के संपर्क में आने और उनसे बातचीत करने को तैयार रहते हैं? (नहीं।) कलीसिया में अधिकतर लोगों की ऐसे व्यक्तियों के साथ नहीं निभती—इसका क्या कारण है? क्यों हर कोई ऐसे लोगों को नापसंद करता है और उनसे घृणा महसूस करता है? इस मसले को दो वाक्य समझा सकते हैं। पहला, ये लोग किसी के साथ सहयोग नहीं करते हैं, वे अंतिम निर्णय खुद लेना चाहते हैं और किसी की नहीं सुनते; उनसे किसी की बातों पर गौर करवाना बेहद कठिन है, और उनके लिए दूसरों से राय लेना और उनके विचार जानना या दूसरे की बात सुनना असंभव है। दूसरा, वे किसी के साथ भी सहयोग नहीं कर पाते। क्या ये दो वाक्य इस प्रकार के व्यक्ति की सबसे विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ नहीं हैं? क्या ये ऐसे व्यक्ति का सार नहीं हैं? (बिल्कुल हैं।) पहले तो, उनके स्वभाव के मद्देनजर, वे किसी की नहीं सुनते और किसी के प्रति समर्पण नहीं करते। वे अंतिम निर्णय खुद लेना चाहते हैं, दूसरों को नहीं सुनना चाहते हैं और उनके साथ असहयोग करते हैं। उनके दिल में न तो दूसरों के लिए कोई जगह होती है, न ही सत्य और कलीसिया के सिद्धांतों के लिए जगह होती है—ऐसे लोगों का इस प्रकार का मसीह-विरोधी स्वभाव होता है। यही नहीं, वे किसी के साथ सहयोग करने या तालमेल बैठाने में असमर्थ होते हैं, और भले ही उन्हें लगे कि उनका दिल अनिच्छा से ही सही सहयोग करने को तैयार है, तो भी वे समय आने पर दूसरों के साथ सहयोग नहीं कर पाते। यहाँ चल क्या रहा है? क्या इसका संबंध किसी खास दशा से नहीं है? वे दूसरों को नीची दृष्टि से देखते हैं, उनकी बात नहीं सुनते हैं और दूसरों की बातें चाहे सिद्धांतों के कितनी ही अनुरूप क्यों न हों, वे उन्हें स्वीकार नहीं करते हैं। जब दूसरों के साथ सहयोग करने की बात आती है, तो यह केवल उनके तरीके से ही किया जा सकता है। क्या यह सामंजस्यपूर्ण सहयोग है? यह सहयोग नहीं है; यह मनमानी कार्रवाई करना है, जहाँ एक व्यक्ति ही फैसले करता है। यही वह स्वभाव है जो ऐसे लोगों का दूसरों के साथ बातचीत में होता है, और वे मसीह के साथ भी ऐसा ही व्यवहार करते हैं। क्या यह गहन-विश्लेषण के लायक है? यह मुद्दा गंभीर है और गहन-विश्लेषण के योग्य है! इसके बाद, चलो हर मद में मसीह-विरोधियों की विशिष्ट अभिव्यक्तियों और अभ्यासों के बारे में बात करें, और इन विशिष्ट अभिव्यक्तियों और अभ्यासों के माध्यम से मसीह-विरोधियों के सार को समझें—सत्य का तिरस्कार करना, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाना और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करना। आओ, पहली मद से गहन-विश्लेषण शुरू करें।
क. खुशामद, चापलूसी और अच्छे लगने वाले शब्द
खुशामद, चापलूसी और अच्छे लगने वाले शब्द—ऊपरी तौर पर हर किसी को पता होना चाहिए कि इन शब्दों का क्या अर्थ है और इन्हें मूर्त रूप देने वाले व्यक्ति हर जगह मिल जाते हैं। खुशामद करना, चापलूसी करना और अच्छे लगने वाले शब्द बोलना अक्सर दूसरों से कृपा, प्रशंसा या किसी प्रकार का लाभ पाने के लिए अपनाए जाने वाले बोलने के तरीके हैं। यह उन लोगों के बोलने का सबसे आम तरीका है जो खुशामद और चाटुकारिता करते हैं। यह कहा जा सकता है कि सभी भ्रष्ट मनुष्य किसी न किसी हद तक यह अभिव्यक्ति दर्शाते हैं जो शैतानी फलसफे का बोलने का एक तरीका है। तो क्या लोग देहधारी परमेश्वर के सामने ऐसी ही अभिव्यक्तियाँ और अभ्यास प्रदर्शित करते हैं, जो शायद कुछ लाभ पाने के लिए भी हो? निःसंदेह, यह इतना आसान नहीं है। जब लोग उस देह के प्रति खुशामद और चापलूसी करते हैं जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है, तो उनके दिलों में मसीह के बारे में किस प्रकार के दृष्टिकोण या विचार के कारण ऐसा व्यवहार उपजता है? आम तौर पर यह ऐसा व्यवहार है जो लोग दूसरे लोगों के प्रति प्रदर्शित करते हैं। अगर लोग देहधारी परमेश्वर के प्रति भी इस तरह से पेश आएँ तो यह अप्रत्यक्ष रूप से एक समस्या प्रकट करता है : वे देहधारी परमेश्वर, मसीह को भ्रष्ट मानवजाति के बीच महज एक साधारण व्यक्ति मानते हैं। बाहरी परिप्रेक्ष्य से देखें तो मसीह हाड़-मांस वाला है और इंसान का स्वरूप धारण किए हुए है। इससे लोगों के मन में भ्रम उत्पन्न होता है, इससे वे यह मान बैठते हैं कि मसीह महज इंसान है, जिससे वे ढिठाई के साथ, मनुष्यों के साथ पेश आने के तर्क और सोच के आधार पर मसीह से पेश आने लगते हैं। मनुष्यों से पेश आने के तर्क और सोच के अनुसार, आमतौर पर किसी रुतबे वाले और प्रतिष्ठित व्यक्ति के साथ पेश आते समय आसानी से लाभ या भविष्य में पदोन्नति पाने के लिए एक अच्छा प्रभाव छोड़ने की सबसे अच्छी रणनीति यह है कि ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जाए जो सुनने में मधुर और व्यवहारकुशल लगें जिससे यह सुनिश्चित हो जाए कि सुनने वाला सहज और खुश है। व्यक्ति को सौम्य भाव-भंगिमा अपनानी चाहिए और उग्र या गंभीर चेहरा नहीं दिखाना चाहिए, और अपने बोलचाल में ऐसे शब्द नहीं प्रयोग करने चाहिए जो तीखे, दुर्भावनापूर्ण या कठोर हों या दूसरों की गरिमा को चोट पहुँचाते हों। केवल ऐसी अभिव्यक्तियों और बोली से ही कोई व्यक्ति किसी दूसरे के सामने अच्छा प्रभाव छोड़ सकता है और उन्हें प्रतिकर्षित नहीं करेगा। ऐसा लगता है कि मधुर ढंग से बोलना, खुशामद और चापलूसी करना ही दूसरों के प्रति सम्मान का सबसे सच्चा रूप माना जाता है। इसी तरह, लोगों का मानना है कि मसीह के प्रति सम्मान प्रकट करने और समरसता बनाए रखने के लिए उन्हें इस तरह का व्यवहार करने के लिए हरसंभव प्रयास करना चाहिए, यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उनकी कथनी में कुछ भी आहत करने वाले शब्द या कथ्य न हों और निश्चित रूप से कुछ भी अपमानजनक बातें न हों। लोग सोचते हैं कि मसीह के साथ मिलने-जुलने और बातचीत करने का यह सबसे अच्छा तरीका है। परमेश्वर ने जिस देह में देहधारण किया है, उसे वे एक सामान्य, भ्रष्ट स्वभाव वाला सबसे साधारण इंसान मानते हैं और यह सोचते हैं कि उससे व्यवहार करने या किसी दूसरी तरह पेश आने का कोई बेहतर तरीका नहीं है। इसलिए मसीह के सामने जब कोई मसीह-विरोधी आता है, तो उसके दिल में भय, सम्मान या सच्ची ईमानदारी नहीं होती, बल्कि उसमें मधुर और व्यवहारकुशल भाषा का उपयोग करने की इच्छा होती है, यहाँ तक कि जिस देह में परमेश्वर ने देहधारण किया है, उसके प्रति वह खुलेआम खुशामद और चापलूसी करने के लिए भ्रमों का सहारा लेता है। वह मानता है कि सभी मनुष्य इस तरीके से आसानी से प्रभावित होंगे और चूँकि जिस देह में परमेश्वर ने देहधारण किया है वह भी मानव है, इसलिए वह भी इस तरीके पर प्रतिक्रिया जताएगा और इसका समर्थन करेगा। इसलिए मसीह यानी परमेश्वर ने जिस देह में देहधारण किया उस देह के साथ पेश आते समय मसीह-विरोधी दिल से यह स्वीकार नहीं करते कि मसीह में परमेश्वर का सार है। बल्कि जिस देह में परमेश्वर ने देहधारण किया है उससे पेश आते समय वे कुछ मानवीय रणनीतियों, सांसारिक आचरण के मानवीय फलसफों और दूसरों के साथ व्यवहार और हेरफेर करने की सामान्य मानवीय चालों का उपयोग करते हैं। क्या इन व्यवहारों का सार इस तथ्य को प्रदर्शित करता है कि मसीह-विरोधी उस देह का तिरस्कार करते हैं जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है? (बिल्कुल।)
मसीह-विरोधी जैसे भ्रष्ट मनुष्यों से पेश आते हैं वैसे ही मसीह से पेश आते हैं, वे मसीह को देखकर केवल खुशामदी और चापलूसी भरे शब्द बोलते हैं और फिर मसीह की प्रतिक्रियाएँ देखते हैं और उसकी पसंद का ख्याल रखने का प्रयास करते हैं। कुछ लोग मसीह को देखकर कहते हैं : “मैंने तुम्हें दूर से ही पहचान लिया था। तुम भीड़ में अलग दिखते हो। प्रभामंडल विहीन दूसरे लोगों के विपरीत तुम्हारे सिर पर एक प्रभामंडल है। मुझे तुरंत पता चल गया कि तुम कोई सामान्य व्यक्ति नहीं हो। परमेश्वर के घर में मसीह के अलावा और कौन है जो साधारण नहीं है? तुम्हें देखते ही मैं जान गया कि यह बिल्कुल सच है। परमेश्वर ने जिस देह में देहधारण किया है वह वास्तव में दूसरों से भिन्न है।” क्या यह घोर बकवास नहीं है? मेरी शक्ल साधारण है, आम है। अगर मैं भीड़ में कुछ नहीं करता या कुछ नहीं कहता तो एक या दो साल बाद भी शायद ही कोई मुझे पहचान पाए कि मैं कौन हूँ। मैं किसी भी समूह में सिर्फ एक साधारण सदस्य हूँ; कोई भी मुझमें कुछ भी विशेष नहीं देख सकता। अब मैं कलीसिया में काम कर रहा हूँ और परमेश्वर की गवाही के कारण जब मैं तुम लोगों के बीच बोलता हूँ तो तुम लोग मुझे सुनते हो। लेकिन परमेश्वर की गवाही न हो तो कितने लोग मेरी बात सुनेंगे या इस पर ध्यान देंगे? यह एक अज्ञात प्रश्न बना हुआ है। कुछ लोग कहते हैं : “वह मुझे बिल्कुल परमेश्वर जैसा दिखता है। मुझे हमेशा यही लगा कि वह असाधारण है, दूसरों से अलग है।” मैं किस प्रकार अलग हूँ? क्या मेरे तीन सिर और छह भुजाएँ हैं? तुम लोग कैसे अंतर कर सकते हो? परमेश्वर ने एक बार कहा था : मैं जानबूझकर अपने में दिव्यता का एक भी संकेत लोगों को नहीं देखने देता हूँ। अगर परमेश्वर लोगों को अपनी दिव्यता नहीं देखने देता तो तुम लोग इसे ऐसे कैसे देख सकते हो? ये लोग जो कहते हैं क्या वह समस्या की बात नहीं है? यह स्पष्ट रूप से घिनौने चाटुकारों की निरर्थक बातों के अलावा और कुछ नहीं है, जिनकी बातों में कोई ठोस तत्त्व नहीं है। देहधारी परमेश्वर का बाहरी स्वरूप एक सामान्य व्यक्ति का है। मानवीय आँखें मसीह की दिव्यता को कैसे पहचान सकती हैं? अगर मसीह कार्य न करे और बोले नहीं, तो कोई भी उसे पहचान नहीं सकता या उसकी पहचान और सार को नहीं जान सकता। यह सच है। फिर उन लोगों के बारे में क्या कहोगे जो यह कहते हैं, “मैं पहली नजर में बता सकता हूँ कि तुम वह देह हो जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है, तुम दूसरों से अलग हो” या “तुम्हें देखते ही मुझे पता चल गया था कि तुम महान कार्य कर सकते हो”? ये कैसे कथन हैं? वे बिल्कुल बकवास हैं! जब तक परमेश्वर ने अपनी गवाही नहीं दी थी तो कितनी ही बार देखने के बावजूद तुम यह भेद कैसे नहीं जान पाए थे? परमेश्वर की गवाही के बाद जब मैंने अपना कार्य शुरू किया तो तुम इसे पहली नजर में कैसे समझ गए? ये साफ तौर पर भ्रामक शब्द हैं, सरासर पागलपन है।
कुछ लोग मुझसे मिलते या बातचीत करते समय अपनी खूबियाँ प्रदर्शित करते हैं। वे सोचते हैं : “देहधारी परमेश्वर से बार-बार मिलना नहीं होता है; यह जीवन में एक बार मिलने वाला अवसर है। मुझे ठीक से प्रदर्शन करना चाहिए, परमेश्वर में बरसों के विश्वास के नतीजे बताने चाहिए और अपनी वे अच्छी उपलब्धियाँ भी बतानी चाहिए जो मैंने उसका वर्तमान चरण का कार्य स्वीकार करने के बाद अर्जित की हैं ताकि परमेश्वर इन्हें जान ले।” मुझे बताने से उनका क्या मतलब है? वे तरक्की पाने का मौका मिलने की उम्मीद करते हैं। अगर यह कलीसिया के अंदर की बात होती तो उन्हें अपने जीवन काल में अलग दिखने या तरक्की पाने का मौका शायद कभी नहीं मिलता; उनका चुनाव कोई नहीं करता। उन्हें लगता है कि मौका अब आया है, इसलिए वे यह मनन करते हैं कि किस प्रकार बोलें कि उनकी कोई समस्या प्रकट न हो और यह न दिखाई दे कि वे अपनी खूबियाँ प्रदर्शित करने की कोशिश कर रहे हैं। उन्हें और व्यवहार-कुशल और दक्ष होने की जरूरत है, कुछ तरकीबें और चालाकियाँ बरतनी होंगी और तुच्छ हथकंडे अपनाने होंगे। वे कहते हैं : “हे परमेश्वर, इन वर्षों में तुममें विश्वास कर हमें वास्तव में खूब लाभ हुआ है! हमारा पूरा परिवार विश्वास करता है, सबने खुद को परमेश्वर के लिए खपाते हुए सब कुछ त्याग दिया है। यह सबसे महत्वपूर्ण बात नहीं है। सबसे महत्वपूर्ण तो यह है कि तुम्हारे वचन इतने महान हैं और तुमने इतना अधिक कार्य किया है। हम सब अपने कर्तव्य निभाने और खुद को परमेश्वर के लिए खपाने को तैयार हैं।” इस पर मैं कहता हूँ : “लेकिन इसमें कोई फायदा नहीं है।” “फायदा है—परमेश्वर ने जो अनुग्रह दिया है वह भरपूर है। परमेश्वर के वचनों में हमें बहुत सारी नई रोशनी प्राप्त हुई है, अंतर्दृष्टि और समझ मिली है। सारे भाई-बहन इतनी ऊर्जा से भरे हैं, सभी परमेश्वर के लिए खपने के लिए तैयार हैं।” “क्या कोई कमजोर और नकारात्मक है? क्या कोई ऐसा है जो गड़बड़ियाँ पैदा करता हो और बाधाएँ खड़ी करता हो?” “नहीं, हमारा कलीसियाई जीवन बहुत अच्छा है। सारे भाई-बहन परमेश्वर को प्रेम करने का अनुसरण करते हैं और सुसमाचार का प्रचार करने के लिए सब कुछ त्याग देते हैं। परमेश्वर जो भी कहता है वह अच्छा है। हम सब अभिप्रेरित हैं, अब हम पहले की तरह विश्वास नहीं कर सकते कि अनुग्रह खोजने और भरपेट निवाले खाने की कोशिश में लगे रहें। हमें परमेश्वर के लिए सब कुछ त्याग देना होगा, खुद को परमेश्वर को अर्पित करना होगा और खुद को परमेश्वर के लिए खपाना होगा।” “तो फिर इन पिछले कुछ वर्षों में तुम लोगों को परमेश्वर के वचनों की कोई समझ हासिल हुई है?” “बिल्कुल। परमेश्वर, तुम्हारे वचन इतने महान हैं कि हर वाक्य सीधे हमारे महत्वपूर्ण मसलों पर चोट करता है और हमारे प्रकृति सार को उजागर करता है! हमें खुद को समझने में और तुम्हारे वचनों में बहुत रोशनी मिली है। परमेश्वर, तुम हमारे पूरे परिवार, हमारी पूरी कलीसिया के जीवनरक्षक हो। तुम न होते तो हम बहुत पहले न जाने कहाँ खत्म हो चुके होते। तुम न होते तो हम जान ही नहीं पाते कि कैसे चलते रहना है। हमारी कलीसिया में हर व्यक्ति तुम्हें देखने को तरसता रहता है, अपने सपनों में तुमसे मिलने के लिए रोज प्रार्थना करता है, रोज तुम्हारे साथ होने की आशा करता है!” क्या इनकी बातों में वास्तव में दिल को छूने वाले या ईमानदार शब्द कहे गए हैं? (नहीं।) तो फिर ये कैसे शब्द हैं? ये पाखंडपूर्ण, खोखले और अनुपयोगी शब्द हैं। जब मैं उनसे आत्म-ज्ञान के बारे में बात करने को कहता हूँ तो वे कहते हैं, “परमेश्वर का कार्य स्वीकारने के बाद से मुझे लगता है कि मैं दानव या शैतान हूँ, मुझमें मानवता नहीं है।” “तुममें मानवता किस तरह नहीं है?” “मैं सिद्धांतहीन ढंग से कार्य करता हूँ।” “तुम्हारे किन कार्यों में सिद्धांत नहीं होते हैं?” “मैं दूसरों के साथ सामंजस्यपूर्ण ढंग से सहयोग नहीं कर सकता, दूसरों के साथ मेरे मेलजोल में सिद्धांत नहीं होते हैं, लोगों के साथ मेरे आचरण में सिद्धांत नहीं होते हैं। मैं दानव और शैतान हूँ, मैं शैतान की उपज हूँ, मुझे शैतान गहराई तक भ्रष्ट कर चुका है। मैं हर मोड़ पर परमेश्वर का प्रतिरोध करता हूँ, लगातार परमेश्वर का विरोध करता हूँ और उससे टक्कर लेता हूँ।” ये शब्द सुनने में ऊपरी तौर पर अच्छे लगते हैं। जब मैं उनसे पूछता हूँ, “तुम्हारी कलीसिया में अमुक व्यक्ति अब कैसा है?” तो वे कहते हैं, “अब वह अच्छा कार्य कर रहा है। पहले उसे कलीसिया के अगुआ के पद से बर्खास्त कर दिया गया था लेकिन उसने पश्चात्ताप कर लिया और भाई-बहनों ने उसे दुबारा चुन लिया।” “क्या वह व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है?” “अगर परमेश्वर कहता है कि वह व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है तो वह करता है; अगर परमेश्वर कहता है कि वह नहीं करता तो फिर वह नहीं करता है।” “यह व्यक्ति उत्साही नजर आता है लेकिन उसकी काबिलियत बहुत कम है, है ना?” “कम? हाँ, थोड़ी-सी कम है। वरना पिछली बार भाई-बहन उसे बर्खास्त करते ही क्यों?” “अगर उसकी काबिलियत कम है तो क्या वह ठोस कार्य कर सकता है? क्या वह कलीसिया के अगुआ का दायित्व अच्छे से निभा सकता है?” मेरे वचन सुनकर वे इनका यह अर्थ निकालते हैं कि कम काबिलियत वाला कोई व्यक्ति अच्छे से दायित्व नहीं निभा सकता और कहते हैं, “तो फिर वह इसे नहीं निभा सकता। भाई-बहनों ने उसे अंधों में काना राजा चुना था; कोई और उससे अच्छा नहीं था, इसलिए उन्होंने उसे चुन लिया। सारे भाई-बहन यही कहते हैं कि उसकी काबिलियत औसत है, लेकिन वह अब भी हमारी अगुआई कर सकता है। अगर उसकी काबिलियत कम है तो मुझे लगता है कि भाई-बहन उसे अगली बार नहीं चुनेंगे। परमेश्वर, क्या मुझे भाई-बहनों को प्रभावित करने का कार्य करना चाहिए?” “यह मामला तुम्हारी कलीसिया के भाई-बहनों के आध्यात्मिक कद पर निर्भर करता है। उन्होंने सिद्धांतों के आधार पर किसी को अच्छा समझकर चुना—यह सही प्रक्रिया है, लेकिन कुछ लोग मूर्ख होते हैं और लोगों या मामलों की असलियत नहीं जानते हैं, वे कभी-कभी गलत व्यक्ति को चुन लेते हैं।” मेरा यह कहने का क्या अर्थ था? मैं तो सिर्फ एक तथ्य बता रहा था, मेरा लक्ष्य जानबूझकर इस व्यक्ति को बर्खास्त करना नहीं था। लेकिन यह बात सुनकर मसीह-विरोधी इसे किस रूप में समझते हैं? उन्होंने यह बात जोर से तो नहीं कही मगर अपने मन में सोचा, “क्या यह इस व्यक्ति को बर्खास्त करने के लिए परमेश्वर का संकेत है? तो फिर ठीक है, मुझे और आगे यह जाँच करनी चाहिए कि परमेश्वर का अभिप्राय वास्तव में क्या है? अगर इस व्यक्ति को बर्खास्त कर दिया जाता है तो फिर कलीसिया की अगुआई और कौन कर सकता है, इस कार्य को कौन कर सकता है?” मसीह-विरोधी परमेश्वर के प्रति अंधे होते हैं, उनके हृदय में उसके लिए कोई स्थान नहीं होता। मसीह से सामना होने पर वे उसे एक साधारण व्यक्ति से अलग नहीं मानते, लगातार उसकी अभिव्यक्ति और स्वर से संकेत लेते रहते हैं, स्थिति के अनुरूप अपनी धुन बदल लेते हैं, कभी नहीं कहते कि वास्तव में क्या हो रहा है, कभी कुछ ईमानदारी से नहीं कहते, केवल खोखले शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलते रहते हैं, अपनी आँखों के सामने खड़े व्यावहारिक परमेश्वर को धोखा देने और उसकी आँखों में धूल झोंकने की कोशिश करते हैं। उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल बिल्कुल भी नहीं होता। वे परमेश्वर के साथ दिल से बात करने, कुछ भी वास्तविक बात कहने तक में सक्षम नहीं होते हैं। वे ऐसे बात करते हैं जैसे एक साँप रेंगता है, लहरदार और टेढ़ा-मेढ़ा रास्ता चुनते हुए। उनके शब्दों का अंदाज और दिशा खरबूजे की उस बेल की तरह है जो किसी खंभे पर उसके अनुरूप चढ़ती है। उदाहरण के लिए, जब तुम कहते हो कि किसी में भरपूर योग्यता है और उसे आगे बढ़ाया जा सकता है, तो वे फौरन बताने लगते हैं कि वे कितने अच्छे हैं, और उनमें क्या अभिव्यक्त और प्रकट होता है; और अगर तुम कहते हो कि कोई बुरा है, तो वे यह कहने में देर नहीं लगाते कि वे कितने बुरे और दुष्ट हैं, और वे किस तरह कलीसिया में व्यवधान और गड़बड़ी पैदा करते रहते हैं। जब तुम किसी वास्तविक स्थिति के बारे में पूछते हो तो उनके पास कहने के लिए कुछ नहीं होता; वे टालमटोल करते रहते हैं और इंतजार करते हैं कि तुम खुद ही कोई निष्कर्ष निकाल लो, वे तुम्हारे शब्दों का अर्थ टटोलते हैं, ताकि अपने शब्दों को तुम्हारे विचारों के अनुरूप ढाल सकें। वे जो कुछ भी कहते हैं वे सिर्फ सुनने में अच्छे लगने वाले शब्द होते हैं, चापलूसी और निचले दर्जे की चाटुकारिता होती है; उनके मुँह से एक भी ईमानदार शब्द नहीं निकलता। वे इसी तरह लोगों के साथ बातचीत करते हैं और परमेश्वर के साथ व्यवहार करते हैं—वे इतने धूर्त होते हैं। यही एक मसीह-विरोधी का स्वभाव होता है।
कुछ लोग मेरे संपर्क में आते समय यह नहीं जानते कि मुझे किस प्रकार के शब्द या मामले सुनना पसंद हैं; फिर भी बिना जाने हुए ही वे एक उपाय ढूँढ़ लेते हैं। वे मेरे साथ चर्चा करने के लिए यह सोचकर कुछ विषय चुन लेते हैं कि “शायद ये विषय तुम्हें रुचिकर लगें, शायद तुम इन्हें जानना या सुनना चाहते हो लेकिन विनम्रतावश पूछ नहीं पाते हो, इसलिए मैं ही तुम्हें बताने की पहल करता हूँ।” जब हम मिलते हैं तो वे कहते हैं, “हाल ही में हमारे इलाके में मूसलाधार बरसात हुई जिससे पूरा शहर बाढ़ में डूब गया। सार्वजनिक व्यवस्था भी बिगड़ रही है; अब चोर-उचक्के बढ़ गए हैं। जब कोई बाहर जाता है तो उसके लुटने या उसका सामान चोरी होने का जोखिम रहता है। मैंने सुना कि कुछ जगह कई बच्चे अगवा कर लिए गए और लोग दहशत की स्थिति में हैं। अविश्वासी कहते हैं कि समाज बहुत ज्यादा अराजक बन गया है, पूरी तरह असामान्य हो गया है। धर्मावलंबी लोग अभी भी हाथों में बाइबल लेकर सुसमाचार का प्रचार कर रहे हैं, वे कह रहे हैं कि अंत के दिन आ चुके हैं, परमेश्वर उतरने वाला है और हम पर महा विनाश आ चुके हैं।” और कुछ लोग ऐसे भी हैं जो मुझसे मिलते ही कहते हैं, “कुछ दिन पहले एक ही जगह आसमान में तीन चाँद दिखाई दिए और कई लोगों ने इनके फोटो खींच लिए। कुछ लोक भविष्यवक्ता कहते हैं कि आसमान में महान दर्शन होने वाले हैं, सच्चा प्रभु प्रकट हो चुका है।” वे ऐसी ही बातें करते हैं—वे सामाजिक अराजकता, आपदाएँ और विभिन्न असामान्य घटनाएँ और खगोलीय परिघटनाएँ घटित होने के बारे में खास तौर पर रुचि लेकर सूचनाएँ जमा करते हैं। जब वे मुझसे मिलते हैं तो मेरे साथ करीबी संबंध बनाने के लिए वे इन सूचनाओं को बातचीत का विषय बनाते हैं। कुछ लोग मानते हैं, “देहधारी परमेश्वर एक साधारण व्यक्ति है। उसके और दूसरे लोगों के बीच सिर्फ यही फर्क है कि वह परमेश्वर का कार्य और परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करता है। इस प्रकार अधिकतर लोग जहाँ यह उम्मीद करते हैं दुनिया में शांति रहे, मनुष्य जाति सामंजस्य और संतुष्टि के साथ जिए, वहीं देहधारी मसीह सामान्य लोगों से भिन्न है। वह यह उम्मीद करता है कि विश्व में भारी उथल-पुथल हो, दर्शन हों और महा विनाश आएँ, परमेश्वर का महान कार्य तेजी से पूरा हो और परमेश्वर का प्रबंधन कार्य तेजी से समाप्त हो ताकि उसके कहे वचन पूरे हों। परमेश्वर इन्हीं विषयों की परवाह करता है और इन्हीं में उसे रुचि होती है। इसलिए उससे मिलते समय मैं इन चीजों के बारे में बात करूँगा तो वह अत्यधिक प्रसन्न होगा। उसके प्रसन्न होने से शायद मुझे तरक्की मिल जाए, शायद उसके करीब अधिक दिन बिताने का अवसर मिल जाए।” क्या ऐसे भी लोग हैं? मैं एक बार एक नवयुवती से मिला जो मीठा बोलती थी; वह वाक्पटु और हाजिर-जवाब थी, यह जानती थी कि वास्तव में किससे क्या बात कहनी है, वह दूसरे पक्ष को खुश और संतुष्ट करने के लिए उसकी पहचान, रुतबा, प्राथमिकताएँ या परिस्थिति देखकर अपनी बातचीत की विषयवस्तु और बोलने का अंदाज बदलने और हर दिशा में चमकने में माहिर थी, सत्ता में बैठे और रुतबे वाले लोगों के साथ बातचीत करने में वह खास तौर पर कुशल थी। मुझसे मिलते समय जब उसने मुझसे बात की तो तुरंत बोली : “अमुक-अमुक जगह अपराध जगत का राज है; यहाँ तक कि स्थानीय पुलिस के पास भी गिरोह के सदस्य हैं। एक गिरोह के मुखिया ने स्थानीय स्तर पर बहुत से बुरे काम किए थे। एक दिन उसका सामना सड़क पर एक बड़े अफसर, प्रमुख राक्षस से हुआ। उसने अपनी कार प्रमुख राक्षस की कार से आगे निकाल ली तो प्रमुख राक्षस ने अपने अंगरक्षक से कहा, ‘यह किसकी कार है? वह मुझे दुबारा नहीं दिखना चाहिए!’ अगले दिन उसका काम तमाम हो गया।” क्या समाज में ऐसी चीजें हो रही हैं? (बिल्कुल।) ऐसी चीजें जरूर होती हैं लेकिन क्या इन्हें मुझसे मिलते समय बातचीत का मुख्य विषय बनाना उपयोगी है? ये ऐसे विषय नहीं हैं जिनकी मैं परवाह या सुनना पसंद करता हूँ लेकिन वह यह नहीं जानती थी। उसने सोचा कि मुझे ये रोमांचक कहानियाँ सुनना पसंद है। मुझे बताओ, क्या आपदाएँ, दर्शन, प्राकृतिक और मानवजनित विपदाएँ ऐसे विषय हैं जिनकी मैं परवाह करता हूँ, जिन्हें सुनना चाहता हूँ? (नहीं।) समय बिताने के लिए इन चीजों को सुनना ठीक है लेकिन अगर तुम सोचते हो कि मैं इन्हें सुनना वास्तव में पसंद करता हूँ तो तुम गलत हो। इन चीजों में मेरी दिलचस्पी नहीं है, मैं इनके बारे में सुनने की परवाह नहीं करता। कुछ लोग कहते हैं, “जब लोग इन चीजों के बारे में बात करते हैं तो क्या तुम सुनते हो?” मैं सुनने का विरोध नहीं करता लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि मुझे सुनना पसंद है, न ही यह अर्थ है कि मैं यह जानकारी और कहानियाँ जुटाना चाहता हूँ। इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ यह है कि अपने दिल की गहराई से मेरी इन मामलों को लेकर कोई जिज्ञासा नहीं है, कोई रुचि नहीं है। कुछ लोग तो यह भी सोचते हैं, “क्या तुम दिल ही दिल में बड़े लाल अजगर से खास तौर पर नफरत नहीं करते? अगर तुम बड़े लाल अजगर से नफरत करते हो तो मैं तुम्हें बड़े लाल अजगर को मिली एक सजा के बारे में बताता हूँ : बड़े लाल अजगर के आला अफसरों में अंतर्कलह चल रही है, कुछ गुट आपस में लड़ रहे हैं, वे एक मुख्य राक्षस को लगभग मार ही चुके थे। ये मुख्य राक्षस हत्या के कई प्रयासों से बचे हैं, बहुत ही खतरनाक स्थिति है! क्या तुम्हें यह सुनकर खुशी होगी?” क्या तुम सब लोगों को ऐसी चीजें सुनकर खुशी होगी? अगर तुम्हें खुशी होगी तो फिर हो; अगर तुम्हें यह सुनना पसंद नहीं है तो फिर मत सुनो—इसका मुझसे वास्ता नहीं है। संक्षेप में कहें तो जहाँ तक ऐसे मामलों की बात है कि क्या किसी देश में महामारी फैली है, महामारी कैसे आई, कितने लोग मरे, किस देश में बड़ी आपदा आई, किसी देश की सरकार की स्थिति, किसी देश के उच्च तबके में आंतरिक संघर्ष या सामाजिक उथल-पुथल कितनी पाशविक है, ये चीजें अगर सुनने में आती हैं तो मैं शायद सुन लूँ लेकिन सिर्फ इसलिए कि मुझे जानकारी नहीं है, मैं इन घटनाओं के बारे में विशेष ब्योरा जुटाने का कोई प्रयास नहीं करूँगा, खबरें नहीं सुनूँगा, अखबार नहीं पढ़ूँगा या ऑनलाइन सामग्री नहीं खोजूँगा। मैं ऐसे काम बिल्कुल नहीं करूँगा, कभी नहीं करूँगा। इन मामलों में मेरी रुचि है ही नहीं। कुछ लोग कहते हैं : “यह सब तुम्हारे नियंत्रण में है, यह सब तुम्हारी ही करनी है; इसीलिए तुम्हारी रुचि नहीं है।” क्या यह कथन सही है? यह धर्म-सिद्धांत के रूप में सही है, लेकिन सार रूप में ऐसी बात नहीं है। परमेश्वर तो मनुष्य की नियति से लेकर हर नस्ल, हर जन समूह, हर युग का संप्रभु है। हर युग में कुछ आपदाएँ और असामान्य घटनाएँ घटना बिल्कुल सामान्य बात है—यह सब कुछ परमेश्वर के हाथ में है। चाहे कोई भी युग हो, चाहे बड़ी घटनाएँ घटें या छोटी, जब किसी युग के बदलने का समय आता है तो भले ही एक भी घास-पात में कोई बदलाव न हो, वह युग बदलकर रहेगा। यह परमेश्वर की संप्रभुता का मामला है। अगर किसी युग का अंत नहीं होना है तो भले ही खगोलीय परिघटनाओं में या धरती की सारी चीजों में बड़े-बड़े बदलाव हो जाएँ, युग का अंत नहीं होगा। ये सारे परमेश्वर के मामले हैं, ये मनुष्य के हस्तक्षेप या सहायता से परे के मामले हैं। लोगों को अधिक से अधिक बस यही करना चाहिए कि वे इन मामलों से वास्ता न रखें, अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए इन मामलों के बारे में सबूत और जानकारी न जुटाएँ। जहाँ तक परमेश्वर के कार्यों का सवाल है, तुम जितना समझ सकते हो उतना समझो और जहाँ संभव न हो, वहाँ अपना दिमाग मत लड़ाओ। भ्रष्ट मानवजाति के बीच ये मामले बहुत ही सामान्य हैं, बहुत ही आम हैं। ये सभी मामले—युगों का बदलना, विश्व व्यवस्था का बदलना, किसी नस्ल की नियति, किसी राज का शासन और रुतबा, वगैरह-वगैरह—परमेश्वर के हाथ में हैं, सब कुछ उसकी संप्रभुता के अधीन है। लोगों को सिर्फ विश्वास, स्वीकार और समर्पण करना चाहिए; यही काफी है। यह सोचकर अधिक रहस्य समझने का विचार मत पालो कि तुम जितने ज्यादा रहस्य समझोगे, यह उतनी ही ज्यादा प्रचलित बात लगेगी, मानो परमेश्वर में विश्वास करके तुम्हारा आध्यात्मिक कद बढ़ गया हो और आध्यात्मिकता बढ़ गई हो। ऐसी मानसिकता होने का यही तात्पर्य है कि परमेश्वर में विश्वास का तुम्हारा दृष्टिकोण ही गलत है। ये मामले महत्वपूर्ण नहीं हैं। वास्तविक महत्वपूर्ण मामला जिससे लोगों को सबसे ज्यादा वास्ता रखना चाहिए, वो है परमेश्वर की प्रबंधन योजना का मुख्य भाग—मानवता का उद्धार, परमेश्वर की प्रबंधन योजना के कार्य के तहत मनुष्यजाति को बचाए जाने में सक्षम बनाना। यही सबसे बड़ा और सबसे केंद्रीय मामला है। अगर तुम इस मामले से जुड़े सत्यों और दर्शनों को समझते हो तो फिर परमेश्वर तुममें जो कार्य करता है और तुम्हें जो सत्य प्रदान करता है उन्हें स्वीकार करो, और अपनी काट-छाँट, न्याय और ताड़ना की हर घटना को स्वीकार करो, अगर तुम इन सब चीजों को स्वीकार कर लेते हो तो फिर यह खगोलीय परिघटनाओं, रहस्यों, आपदाओं या राजनीति पर शोध करने से ज्यादा मूल्यवान है।
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