मद दस : वे सत्य का तिरस्कार करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग एक) खंड पाँच

क्या तुम लोगों के मन में और भी सवाल हैं? (परमेश्वर, क्या तुम इस बारे में थोड़ी-सी और संगति कर सकते हो कि परमेश्वर को परखने का अर्थ क्या होता है? लोगों में परमेश्वर को परखना किन तरीकों से अभिव्यक्त होता है?) जब लोग यह नहीं जानते कि परमेश्वर कैसे कार्य करता है और वे उसे जानते या समझते भी नहीं हैं, और इसलिए वे अक्सर उसके सामने कई अनुचित माँगें रखते हैं, तब यह परमेश्वर को परखना है। जैसे, जब कोई बीमार होता है तो हो सकता है कि वह खुद को ठीक करने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करे। “मैं इलाज नहीं करवा रहा हूँ—देखते हैं कि परमेश्वर मुझे ठीक करेगा या नहीं करेगा।” इसलिए कुछ समय तक प्रार्थना करने के बाद भी जब परमेश्वर की ओर से कुछ भी होता नहीं दिखता तो ऐसे लोग कहते हैं, “चूँकि परमेश्वर ने कुछ भी नहीं किया, इसलिए मैं दवाइयाँ लूँगा और देखूँगा कि क्या वह मुझे रोकता है। अगर दवाई मेरे गले में अटक जाती है या मुझसे थोड़ा-सा पानी छलक जाए तो यह मुझे रोकने या दवाइयाँ लेने से दूर रखने का परमेश्वर का तरीका हो सकता है।” इसे ही परीक्षा लेना कहते हैं। या मान लो कि तुम्हें सुसमाचार का प्रचार करने को कहा गया है। सामान्य परिस्थिति में हर कोई संगति और विचार विमर्श के जरिये तय कर लेता है कि तुम्हारे कर्तव्य तुमसे क्या माँग करते हैं और तुम्हें क्या करना चाहिए, फिर सही समय पर तुम कार्य करते हो। अगर कार्य करने के दौरान कुछ हो जाता है तो यह परमेश्वर की संप्रभुता है—अगर परमेश्वर तुम्हें रोकता है तो फिर वह ऐसा सक्रिय होकर करेगा। लेकिन, मान लो कि तुम प्रार्थना करते हो, “हे परमेश्वर, मैं आज सुसमाचार का प्रचार करने बाहर जा रहा हूँ। क्या यह तुम्हारे इरादे के अनुरूप है कि मैं बाहर निकलूँ? मैं नहीं जानता कि आज का संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता इसे स्वीकार कर सकता है या नहीं, न ही यह जानता हूँ कि तुम इस पर कैसे संप्रभुता रखोगे। मैं आपसे व्यवस्था, मार्गदर्शन और मुझे ये चीजें दिखाने की प्रार्थना करता हूँ।” प्रार्थना करने के बाद तुम वहाँ बिना हिले बैठे रहते हो और फिर कहते हो, “परमेश्वर इस बारे में कुछ क्यों नहीं कहता? हो सकता है कि मैं उसके वचन पर्याप्त रूप से नहीं पढ़ता, इसलिए वह मुझे ये चीजें नहीं दिखा सकता। अगर ऐसा है तो मैं सीधे निकल जाता हूँ। अगर मैं औंधे मुँह गिरता हूँ तो हो सकता है कि परमेश्वर मुझे जाने से रोकना चाहता है, और अगर सब कुछ सामान्य रूप से होता है और परमेश्वर मुझे नहीं रोकता तो इसका मतलब यह हो सकता है कि परमेश्वर मुझे जाने की अनुमति दे रहा है।” यह एक परीक्षा है। हम इसे परीक्षा क्यों कह रहे हैं? परमेश्वर का कार्य व्यावहारिक है; लोगों के लिए इतना ही ठीक है कि वे अपने कर्तव्य निभा लें, अपने दैनिक जीवन को व्यवस्थित रख लें और सामान्य मानवता के अपने जीवन को इस तरह जी लें कि यह सिद्धांतों के अनुरूप हो। यह परखने की जरूरत नहीं है कि परमेश्वर कैसे कार्य करने जा रहा है या वह क्या मार्गदर्शन प्रदान करेगा। अपना वास्ता सिर्फ उन्हीं कामों तक रखो जो तुम्हें करने चाहिए; हमेशा ऐसे अतिरिक्त विचार मत रखो जैसे, “क्या परमेश्वर मुझे ऐसा करने दे रहा है या नहीं? अगर मैं ऐसा करता हूँ, तो वह मुझे कैसे सँभालेगा? क्या मेरे लिए यह सही है कि मैं इसे इस तरह करूँ?” अगर कोई बात जाहिर तौर पर सही है तो सिर्फ इसे करने से ही वास्ता रखो; इधर-उधर के बारे में मत सोचो। प्रार्थना करना ठीक है, बेशक परमेश्वर का मार्गदर्शन पाने के लिए प्रार्थना करना, कि वह आज के दिन तुम्हारे जीवन का मार्गदर्शन करे, कि वह तुम्हारे आज के कर्तव्य निर्वहन में मार्गदर्शन करे। किसी व्यक्ति के पास आज्ञा मानने वाला दिल और रवैया होना ही काफी है। उदाहरण के लिए, तुम जानते हो कि अपने हाथ से बिजली को छूने से तुम्हें झटका लगेगा और तुम्हारी जान भी जा सकती है। फिर भी तुम यह सोचते हो : “घबराने की कोई बात नहीं है, परमेश्वर मेरी रक्षा कर रहा है। मुझे तो बस इसे छूकर आजमाना है, यह देखना है कि क्या परमेश्वर मेरी रक्षा करेगा और परमेश्वर की सुरक्षा कैसी होती है।” फिर तुम इसे अपने हाथ से छूते हो और नतीजे में झटका खाते हो—यह एक परीक्षा है। कुछ चीजें साफ तौर पर गलत होती हैं और इन्हें नहीं करना चाहिए। तब भी अगर तुम परमेश्वर की प्रतिक्रिया देखने के लिए ये चीजें करते हो तो यह एक परीक्षा है। कुछ लोग कहते हैं, “लोगों का खुद को भड़कीला बनाना और बहुत ज्यादा मेकअप करना परमेश्वर को पसंद नहीं है। तो फिर मैं ऐसा करता हूँ और देखता हूँ कि परमेश्वर से उलाहना पाकर अंदर से कैसा लगता है।” लिहाजा, सारा मेकअप करने के बाद वे आईना देखकर कहते हैं : “हे परमेश्वर, मैं तो जीते-जागते भूत की तरह लग रहा हूँ, लेकिन मुझे यह सिर्फ थोड़ा-सा घिनौना लग रहा है और मैं आईने के सामने खड़ा नहीं हो पा रहा हूँ। इसके अलावा तो और कोई एहसास नहीं हो रहा है—न मुझे परमेश्वर की घृणा महसूस हुई, न मुझे एक बार भी ऐसा लगा कि मुझ पर वार करने और मेरा न्याय करने के लिए उसके वचन सहसा आ पड़े हैं।” यह कैसा व्यवहार है? (परीक्षा लेने वाला।) अगर तुम कभी-कभी अपने कर्तव्य में लापरवाही बरतते हो और तुम साफ तौर पर जानते हो कि यह लापरवाही है तो तुम्हारे लिए इतना ही काफी है कि तुम बस पश्चात्ताप कर लो और खुद को बदल लो। लेकिन तुम हमेशा प्रार्थना करते रहते हो, “हे परमेश्वर, मैं लापरवाह हूँ—विनती है कि तुम मुझे अनुशासित कर दो!” तुम्हारा जमीर किस काम का है? अगर तुममें जमीर है तो तुम्हें अपने व्यवहार की जिम्मेदारी लेनी चाहिए। तुम्हें इसे वश में रखना चाहिए। परमेश्वर से प्रार्थना मत करो—यह प्रार्थना एक परीक्षा बन जाएगी। किसी बहुत ही गंभीर चीज को लेकर उसे मजाक बना देना, परीक्षा बना देना, ऐसी बात है जिससे परमेश्वर बेइंतहा नफरत करता है। जब किसी समस्या का सामना होने पर लोग परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं और उसे खोजते हैं तब, और साथ ही परमेश्वर के साथ पेश आने के उनके कुछ रवैयों, माँगों और कार्यशैली में अक्सर कुछ परीक्षाएँ सामने आएँगी। इन परीक्षाओं में मुख्य रूप से क्या-क्या शामिल होता है? यही कि तुम यह देखना चाहोगे कि परमेश्वर कैसे कार्य करता है या तुम यह देखना चाहोगे कि परमेश्वर कोई चीज कर सकता है या नहीं। तुम परमेश्वर की परीक्षा लेना चाहोगे; तुम इस मामले का उपयोग यह सत्यापित करने के लिए करना चाहोगे कि परमेश्वर कैसा है, यह सत्यापित करना चाहोगे कि परमेश्वर के कहे कौन-से वचन सही और सटीक हैं, कौन-से सच हो सकते हैं और कौन-से वह पूरे कर सकता है। ये सभी परीक्षाएँ हैं। क्या चीजों को करने के ये तरीके तुम लोग नियमित रूप से प्रकट करते हो? मान लो कि किसी चीज के बारे में तुम यह नहीं जानते कि क्या तुमने यह सही की या क्या यह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है। यहाँ दो तरीके यह पुष्टि कर सकते हैं कि इस मामले में तुमने जो किया वह परीक्षा है या फिर यह सकारात्मक बात है। एक तरीका है सत्य-खोजने वाले और विनम्र हृदय के साथ यह कहना, “मेरे साथ जो चीज हुई उसे मैंने इस तरह सँभाला और देखा है, और मेरे इस तरह से सँभालने के फलस्वरूप अब यह इस तरह है। मैं यह नहीं समझ पा रहा हूँ कि क्या मुझे इसे वास्तव में इसी तरह करना चाहिए था।” इस रवैये के बारे में तुम्हारा क्या ख्याल है? यह सत्य खोजने का रवैया है—इसमें कोई परीक्षा नहीं है। मान लो कि तुम कहते हो, “संगति के बाद इस चीज के बारे में हर व्यक्ति मिलकर फैसला करता है।” कोई पूछता है, “इसका प्रभारी कौन है? मुख्य निर्णयकर्ता कौन है?” और तुम कहते हो : “सब लोग।” तो तुम्हारा इरादा यह होता है : “अगर वे कहते हैं कि यह चीज सिद्धांतों के अनुसार की गई थी तो मैं कहूँगा कि यह मैंने की। अगर वे कहते हैं कि यह चीज सिद्धांतों के अनुसार नहीं की गई तो मैं यह छिपाने से शुरुआत करूँगा कि यह चीज किसने की और फैसला किसका था। इस तरह, अगर वे जोर देते भी रहे और दोष तय करने भी लगे तो वे मुझे दोष नहीं दे पाएँगे, और अगर किसी को अपमानित होना भी पड़ा तो अकेला मैं नहीं होऊँगा।” अगर तुम इस प्रकार के इरादे से बात करते हो तो यह एक परीक्षा है। कोई यह कह सकता है, “परमेश्वर को मनुष्य के सांसारिक चीजों के अनुसरण से घृणा होती है। वह मानवजाति के स्मृति दिवसों और त्योहारों जैसी चीजों से घृणा करता है।” अब जबकि तुम यह जान चुके हो तो जहाँ तक परिस्थितियाँ इजाजत दें, तुम ऐसी चीजों से बचने की भरसक कोशिश कर सकते हो। लेकिन मान लो कि किसी त्योहार पर तुम जानबूझकर सांसारिक चीजों का अनुसरण करते हो, और ऐसा करते हुए तुम अपने मन में यह इरादा पाल लेते हो : “मैं बस यह देख रहा हूँ कि क्या परमेश्वर इस काम के बदले मुझे अनुशासित करेगा, क्या वह मेरी ओर कोई ध्यान देगा। मैं तो बस यह देख रहा हूँ कि वास्तव में मेरे प्रति उसका रवैया क्या रहता है, वह मुझसे किस हद तक अत्यधिक घृणा करता है। वे कहते हैं कि परमेश्वर इससे बेइंतहा नफरत करता है, वे कहते हैं कि वह पवित्र है और बुराई से बेइंतहा नफरत करता है, इसलिए मैं देखना चाहता हूँ कि बुराई से उसकी बेइंतहा नफरत कैसी दिखती है और वह मुझे कैसे अनुशासित करेगा। जब मैं ये चीजें करता हूँ, तब अगर परमेश्वर मुझे उल्टी-दस्त लगवा दे, उसके कारण मुझे बुरी तरह से चक्कर आने लगें, मैं बिस्तर से न उठ पाऊँ, तभी ऐसा लगेगा कि परमेश्वर वास्तव में इन चीजों से बेइंतहा नफरत करता है। वह सिर्फ बातें नहीं बनाएगा—तथ्य खुद बोलेंगे।” अगर तुम हमेशा ऐसा नजारा देखने की उम्मीद करते हो तो तुम्हारा कैसा व्यवहार और कैसे इरादे हैं? ये परीक्षा लेने वाले व्यवहार और इरादे हैं। मनुष्य को कभी भी परमेश्वर को परखना नहीं चाहिए। जब तुम परमेश्वर को परखते हो तो वह तुमसे छिप जाता है और तुम्हारे समक्ष अपना चेहरा ढक लेता है और तुम्हारी प्रार्थनाएँ बेकार रहती हैं। कुछ लोग पूछ सकते हैं, “अगर मैं दिल से ईमानदार हूँ तो क्या तब भी नहीं चलेगा?” बिल्कुल, भले ही तुम दिल से सच्चे हो तब भी ऐसा नहीं चलेगा। परमेश्वर लोगों को अपनी परीक्षा नहीं लेने देता; वह बुराई से अत्यधिक घृणा करता है। जब तुम इन दुष्ट विचारों और दृष्टिकोणों को अपनाते हो तो परमेश्वर तुमसे खुद को छिपा लेगा। वह आइंदा तुम्हें प्रबुद्ध नहीं करेगा, बल्कि तुम्हें दरकिनार कर देगा, और तुम तब तक मूर्खतापूर्ण, गड़बड़ी पैदा करने और बाधा डालने वाले काम करते रहोगे जब तक कि तुम्हें प्रकट नहीं कर दिया जाता। लोगों द्वारा परमेश्वर को परखने से यही दुष्परिणाम निकलता है।

(परमेश्वर, मेरा एक सवाल है। मैं कलीसिया में उपकरणों की व्यवस्था देखता हूँ। इस कर्तव्य के प्रति मेरा रवैया हमेशा लापरवाही भरा और अगंभीर रहता है। भाई-बहनों ने मुझे मेरी गलतियाँ बताईं, मेरी काट-छाँट की और कभी परमेश्वर के दिए इस उदाहरण पर मेरे साथ संगति की कि एक व्यक्ति ने कैसे चुपके-से खाँसी की दवाई पी ली थी : इसे पीने पर परमेश्वर ने उसे अनुशासित नहीं किया या फटकार नहीं लगाई, बल्कि उसे निकाल दिया। परमेश्वर का स्वभाव मनुष्य के अपमानों को बर्दाश्त नहीं करता—मैं ये वचन जानता हूँ, लेकिन मेरा विचार है कि परमेश्वर दयालु और प्रेमी है, कि वह संभवतः मेरे साथ वैसा व्यवहार नहीं करेगा जैसा उसने उस व्यक्ति के साथ किया था। इसलिए मैं भयभीत नहीं हूँ। आज परमेश्वर की संगति के आधार पर मुझे लगता है कि उसके धार्मिक स्वभाव के प्रति मेरा रवैया शंकालु है, और मेरा व्यवहार मसीह-विरोधियों वाला है : अर्थात परमेश्वर की परीक्षा लेने और उससे कभी न डरने वाला।) किसी व्यक्ति के प्रति परमेश्वर का रवैया न तो इस पर आधारित होता है कि वह व्यक्ति उससे डरता है कि नहीं, न ही इस पर आधारित होता है कि किसी दिए गए मामले के प्रति उस व्यक्ति का क्षणिक रवैया क्या हो सकता है। कोई व्यक्ति जीवन के तुच्छ मामलों में जो बुरी आदतें और गैर-जिम्मेदाराना तौर-तरीके दिखा या प्रकट कर सकता है, परमेश्वर उन्हें गंभीर समस्या नहीं मानता। अपने अनिवार्य कर्तव्य में तुम खुद को झोंक सको और इसका उत्तरदायित्व ले सको, बस इतना ही काफी होता है। अगर तुम उपकरणों के प्रबंधन की जिम्मेदारी लेने में खुद को हमेशा असमर्थ पाते हो और इसे ठीक प्रकार से करने में अपनी पूरी ताकत नहीं झोंक सकते, तो यह क्या दिखाता है? आंशिक रूप से यह दिखाता है कि तुम प्रबंधन में कुशल नहीं हो; इसके अलावा यह दिखाता है कि तुम इस काम के लिए पूरी तरह उपयुक्त नहीं हो। अगर तुम्हें लगता है कि तुम्हारा इस काम पर बने रहना एक दिन आपदा का कारण बन सकता है तो बेहतर होगा कि तुम इसके लिए किसी और व्यक्ति की सिफारिश कर दो; कलीसिया में किसी ऐसे व्यक्ति को अपनी जगह आगे आने दो जो इस काम के लायक हो, फिर किसी ऐसे काम को पकड़ो जिसमें तुम अच्छे हो और जिसमें तुम्हारी दिलचस्पी हो, और उस कर्तव्य को वफादारी से निभाओ। यही नहीं, अगर कोई व्यक्ति सचमुच सत्य से प्रेम करता है और सचमुच परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना चाहता है, सम्मान के साथ जीना चाहता है और दूसरों से घृणा नहीं, बल्कि सम्मान पाना चाहता है, तो उसमें हर चीज अच्छे से करने का दृढ़ संकल्प होना चाहिए। और जब वह ऐसा करता है तो उसके पास परमेश्वर के सामने यह कहने का संकल्प होना चाहिए : हे परमेश्वर, अगर मैं खराब कार्य करूँ तो मुझे अनुशासित करना—अपना कार्य करना। लोग दूसरों के बुरे प्रबंधक होते हैं; हद-से-हद वे किसी को एक ही क्षेत्र की प्रतिभा बनना सिखा सकते हैं। लेकिन जब बात किसी व्यक्ति के चलने के मार्ग, जीवन के प्रति उसके विचार, जीवन में उसके द्वारा चुने गए लक्ष्यों और वह किस प्रकार का व्यक्ति बनना चाहता है, की आती है, तो कोई भी उसकी मदद नहीं कर सकता। परमेश्वर और परमेश्वर के वचन ही लोगों को बदल सकते हैं। यह कैसे साकार होता है? वो ऐसे कि लोग अपने आप में असहाय हैं—उन्हें चीजें परमेश्वर को सँभालने देनी चाहिए। इसलिए परमेश्वर कार्य करने के लिए राजी हो, इससे पहले किसी व्यक्ति को परमेश्वर को कार्य करने देने के लिए कौन-से मानदंड पूरे करने होंगे? उसके पास सबसे पहले तो संकल्प होना चाहिए, उसके पास ऐसी इच्छा होनी चाहिए और उसे कहना चाहिए, “मैं जानता हूँ कि मैं इस काम को कभी भी अच्छी तरह नहीं कर पाया हूँ। भाई-बहन संतुष्ट नहीं हैं—मैं खुद भी संतुष्ट नहीं हूँ—लेकिन मैं इसे अच्छी तरह से करना चाहता हूँ। मैं क्या करूँ? मैं परमेश्वर के समक्ष आकर प्रार्थना करूँगा और उसे मुझमें कार्य करने दूँगा।” अगर तुम चाहते हो कि परमेश्वर तुममें कार्य करे, तो सबसे पहले तुम्हें कष्ट सहने में सक्षम बनना होगा—परमेश्वर जब तुमको अनुशासित करे, जब वह तुम्हें फटकार लगाए तो तुम्हें इसे स्वीकारने में सक्षम होना पड़ेगा। आज्ञाकारी होना और दिल से स्वीकारना कोई भी चीज अच्छी तरह से करने की शुरुआत है। यह कहना उचित है कि पूरी तरह से बचाए जाने से पहले हर किसी के मन में परमेश्वर की धार्मिकता और सर्वशक्तिमत्ता के बारे में संदेह होंगे। अंतर यह है कि सामान्य, भ्रष्ट लोग अपने कोरे संदेहों के बावजूद अपना कर्तव्य सामान्य रूप से निभा सकते हैं, सत्य का अनुसरण कर सकते हैं और थोड़ा-थोड़ा करके परमेश्वर को जान सकते हैं; उनकी व्यक्तिपरक इच्छा सक्रिय और सकारात्मक होती है। मसीह-विरोधी बिल्कुल इसके उलट होते हैं : उनकी व्यक्तिपरक इच्छाएँ स्वीकारने वाली और आज्ञाकारी नहीं होती हैं, और वे स्वीकारने की इच्छा नहीं करते; बल्कि वे इसके प्रतिरोधी होते हैं। वे स्वीकार करने वाले नहीं होते हैं। तो फिर सामान्य, भ्रष्ट लोगों में अच्छा क्या है? वे अपने हृदय की गहराइयों से सकारात्मक चीजों को स्वीकारते और उनसे प्रेम करते हैं—बस अपने भ्रष्ट स्वभाव के कारण उनके सामने ऐसे मौके आते हैं जब वे खुद पर नियंत्रण नहीं रख पाते, जब वे खराब तरीके से काम करते हैं, चीजें उनके बस से बाहर, उनकी पहुँच से बाहर होती हैं, इसलिए वे अक्सर नकारात्मक और दिल से कमजोर पड़ जाते हैं, उन्हें लगता है कि परमेश्वर उन्हें नहीं चाहता, उनसे घृणा करता है। क्या यह एक अच्छा एहसास है? यह एक अच्छा एहसास होता है—इसका अर्थ है कि तुम्हारे पास बचाए जाने का मौका है, यह संकेत है कि तुम बचाए जा सकते हो। अगर तुम्हें यह भी एहसास न हो तो सत्य प्राप्त करने और बचाए जाने की तुम्हारी उम्मीदें काफी दूर हैं। वास्तव में यही एहसास होना यह दर्शाता है कि तुममें अभी भी जमीर है, गरिमा और ईमानदारी है—कि तुममें अभी भी तार्किकता है। अगर तुममें ये चीजें भी नहीं हैं तो फिर तुम वाकई एक मसीह-विरोधी, एक छद्म-विश्वासी हो। अभी तुममें छद्म-विश्वासी के केवल कुछ व्यवहार हैं, वे जो प्रकट करते हैं उसका थोड़ा-सा हिस्सा, उनके स्वभाव का जरा-सा हिस्सा तुम में है, फिर भी तुम छद्म-विश्वासी नहीं हो। परमेश्वर की निगाह में तुम उसमें विश्वास करते हो और तुम उसके अनुयायी हो, हालाँकि उसमें विश्वास की राह में, तुम्हारे अनुसरण में, तुम्हारे विचारों में और अपने व्यक्तिगत जीवन के हर पहलू में तुम्हारे लिए कई समस्याएँ और कमियाँ अभी भी बनी हुई हैं। तो फिर इन समस्याओं को कैसे हल किया जाए? यह सरल है। जब तक तुम अपने में जमीर और विवेक होने, सत्य का अनुसरण करने और सकारात्मक चीजों से प्रेम करने की बुनियादी अपेक्षाएँ पूरी करते हो, तब तक इन सभी समस्याओं का समाधान किया जा सकता है—यह केवल समय की बात है। अगर तुम सत्य और परमेश्वर की ताड़ना और अनुशासन को स्वीकार कर सकते हो, तो तुम पहली बाधा पहले ही पार कर चुके हो। दूसरी बाधा यह है कि अपनी ओर से तुम्हें अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करना सीखना होगा और जब तुम पर कोई बात आती है तो तुम्हारे अंदर जो विभिन्न स्थितियाँ उत्पन्न होती हैं उनका समाधान करना सीखना होगा, और परमेश्वर के वचन पढ़ते समय और संगति सुनते समय और भाई-बहनों की अनुभवजन्य गवाहियाँ सुनते समय तुम्हें परमेश्वर के वचनों से समस्याओं का समाधान करना सीखना होगा। इसका मतलब यही है कि तुम्हें अक्सर परमेश्वर के सामने आने, उसे अपनी परिस्थितियों और स्थितियों के बारे में बताने, साथ ही अपने सामने आने वाली समस्याओं के बारे में बताने, इनके बारे में खुलकर कहने, और ईमानदारी के साथ उसके हाथों अपनी काट-छाँट, उसका अनुशासन और ताड़ना स्वीकार करने, यहाँ तक कि तुम्हारे बारे में उसके प्रकाशन और तुम्हारे प्रति उसके रवैये को भी स्वीकारने में सक्षम होना आवश्यक है—तुम्हारा हृदय उसके लिए खुला रहना चाहिए, बंद नहीं। जब तक तुम्हारा हृदय खुला रहेगा, तुम्हारा जमीर और विवेक उपयोगी रहेगा, सत्य तुम में प्रवेश कर सकेगा और तुम में परिवर्तन ला सकेगा। तब ये सभी समस्याएँ हल की जा सकेंगी। ये समाधान से परे नहीं हैं; इनमें कोई भी बड़ी समस्या नहीं है। लोगों का अपने कर्तव्य निभाते समय लापरवाही बरतना आम बात है। समस्त भ्रष्ट मानवजाति में पाई जाने वाली यह सबसे आम स्थिति है। एक स्थिति है झूठ से भरा होना; दूसरी है कामचोरी करना, लापरवाह होना और सभी चीजों में गैर-जिम्मेदार होना, निरुद्देश्य भटकने की स्थिति में होना, खानापूरी करने की स्थिति में होना—यह समस्त भ्रष्ट मानवजाति की सामान्य स्थिति है। ये चीजें परमेश्वर के खिलाफ मनुष्य के प्रतिरोध और सत्य को ठुकराने की तुलना में बहुत कम भयावह हैं। वे ऐसी चीजें भी नहीं हैं जिन्हें परमेश्वर मनुष्य में देखता है। अगर परमेश्वर लोगों को इतनी बारीकी से मापता तो उनके मुँह से एक भी गलत बात निकलने पर परमेश्वर उन्हें नहीं चाहता; अगर वे एक बार भी कोई छोटी-सी गलती कर देते तो वह उन्हें नहीं चाहता; अगर लोग जवानी में उतावले होते और बेसब्री से कार्य करते तो परमेश्वर उन्हें पसंद नहीं करता, और तब वे ऐसे व्यक्ति होते जिन्हें उसने छोड़ दिया है और हटा दिया है। अगर चीजें ऐसी ही हों तो एक भी व्यक्ति बचाया नहीं जाएगा। कुछ लोग कहेंगे, “क्या तुमने यह नहीं कहा था कि परमेश्वर लोगों की निंदा करता है और उनके व्यवहार के आधार पर उनके परिणाम निर्धारित करता है?” यह अलग मामला है। स्वभाव में परिवर्तन लाने और उद्धार पाने के लिए लोगों के सत्य के अनुसरण के मार्ग पर मनुष्य में ऐसी स्थितियाँ होना परमेश्वर की नजरों में सबसे सामान्य चीजें हैं, इतनी ज्यादा साधारण और आम जितनी हो सकती हैं। परमेश्वर इनकी तरफ देखता तक नहीं है। वह क्या देखता है? वह यह देखता है कि क्या तुम्हारा कोई सकारात्मक अनुसरण है, और यह भी देखता है कि सत्य और सकारात्मक चीजों के प्रति और स्वभाव में परिवर्तन के अनुसरण के प्रति तुम्हारा रवैया क्या है। वह देखता है कि क्या तुममें ऐसी इच्छा है, क्या तुम प्रयास कर रहे हो। जब परमेश्वर यह देखता है कि तुममें ये चीजें हैं, कि तुम्हारा जमीर तुम्हें गलत कार्य करने पर झिड़कता है, कि तुम इससे नफरत करना जानते हो, कि तुम प्रार्थना में परमेश्वर के सामने आना जानते हो, और उसके सामने कबूलना और पश्चात्ताप करना जानते हो, तब वह कहता है कि तुम्हारे लिए उम्मीद बची है, कि तुम्हें नहीं हटाया जाएगा। क्या तुम्हें लगता है कि परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव, उसकी दया और प्रेम सभी खोखले जुमले हैं? इसका कारण वास्तव में यह है कि परमेश्वर का ऐसा सार है कि हर प्रकार के व्यक्ति के प्रति उसका एक रवैया है, और ये रवैये अत्यधिक व्यावहारिक हैं—ये बिल्कुल भी खोखले नहीं हैं।

मसीह-विरोधियों के सार के बारे में हम कुछ समय से ये जो चर्चा कर रहे हैं, यह सब लोगों के सुनने के लिए है, एक तो इसलिए कि वे मसीह-विरोधियों को समझ सकें और उनका भेद पहचान सकें, यह तय कर सकें कि वे कौन हैं और उन्हें अस्वीकार कर सकें; यह इसलिए भी सबको बताने के लिए है कि मसीह-विरोधियों की तरह हर किसी में मसीह-विरोधी स्वभाव होता है, लेकिन केवल असली मसीह-विरोधियों को ही हटाया और त्यागा जाना है, जबकि मसीह-विरोधी स्वभाव वाले साधारण लोग वे हैं जिन्हें परमेश्वर बचाएगा, न कि वे जिन्हें वह हटाएगा। मसीह-विरोधियों के सार और उनके स्वभाव के हरेक पहलू के बारे में लोगों के साथ संगति करना लोगों की निंदा करना नहीं है—इसका वास्ता लोगों को बचाने, उन्हें राह दिखाने से है, उन्हें साफ तौर पर यह दिखाने से है कि वास्तव में उनमें कौन-कौन से भ्रष्ट स्वभाव हैं, इसका वास्ता इन बातों से भी है कि मानवजाति को अपना शत्रु बताते हुए परमेश्वर वास्तव में क्या कहना चाहता है और वह ऐसा क्यों कहता है—मनुष्य में वास्तव में किस तरह के भ्रष्ट स्वभाव हैं, और परमेश्वर ने अपने विरुद्ध मानवजाति में प्रतिरोध और विद्रोहीपन के किन खुलासों के कारण ऐसा कहा और ये निंदाएँ कीं। परमेश्वर मनुष्य को बचाना चाहता है, वह मानवजाति को या अपने अनुयायियों को या अपने चुने हुए लोगों को त्यागता नहीं है, वास्तव में इसी कारण वह अथक रूप से इस तरह से बोलता और कार्य करता है। परमेश्वर के इस तरह बोलने और कार्य करने का संबंध सिर्फ लोगों को यह समझाने से नहीं है कि वह कितना प्यारा है, वह लोगों के प्रति कितना ईमानदार और धैर्यवान है, उसने कितना प्रयास किया है। इन चीजों को समझने से क्या फायदा? इन चीजों को समझकर लोगों के मन में परमेश्वर के प्रति थोड़ी-सी कृतज्ञता से अधिक कुछ नहीं होता—अभी उनके भ्रष्ट स्वभाव का बिल्कुल समाधान नहीं हुआ है। परमेश्वर इतने अटूट धैर्य के साथ इसलिए बोलता है ताकि लोग यह देख सकें कि परमेश्वर ने लोगों को बचाने के लिए प्रयास किए हैं और दृढ़ संकल्प लिया है—वह मजाक नहीं कर रहा है; परमेश्वर मानवजाति को बचाना चाहता है और वह इसके लिए कृतसंकल्प है। इसे कैसे देखा जाए? सत्य का ऐसा कोई पहलू नहीं है जिस पर परमेश्वर केवल एक पक्ष या एक कोण से बोलता है, न ही वह एक ही तरीके से बोलता है—इसके बजाय वह इसे अलग-अलग कोणों से, अलग-अलग शैलियों में, अलग-अलग भाषाओं में और अलग-अलग मात्राओं में लोगों को बताता है, ताकि लोग अपने भ्रष्ट स्वभाव और खुद को जानें, और इससे यह समझें कि उनका अनुसरण किस दिशा में होना चाहिए और उन्हें किस प्रकार का मार्ग अपनाना चाहिए। वह ऐसा इसलिए करता है ताकि लोग अपने शैतानी, भ्रष्ट स्वभाव को त्याग और बदल दें, और सांसारिक आचरण के वे फलसफे, जीवित रहने के वे तरीके, जीवन जीने के वे तरीके और साधन त्याग दे जिनसे शैतान लोगों को भ्रष्ट करता है, इसके बजाय वह चाहता है कि वे उन तरीकों, साधनों, दिशाओं और लक्ष्यों के अनुसार जीवन जिएँ जो परमेश्वर ने उन्हें दिखाए और बताए हैं। परमेश्वर यह सब इसलिए नहीं करता कि वह लोगों को इससे सहमत कर सके, उन्हें उसके श्रमसाध्य इरादे देखने दे या यह दिखाए कि वह जो कुछ करता है वह सब कितना कठिन है। तुम्हें यह जानने की जरूरत नहीं है। अपना ध्यान केवल यह जानने पर लगाओ कि तुम्हें परमेश्वर के वचनों में क्या अभ्यास करना चाहिए और इनमें सत्य और परमेश्वर के इरादों को समझो; सत्य वास्तविकता में प्रवेश करो; सत्य सिद्धांतों के अनुसार जियो और सत्य सिद्धांतों के अनुसार आचरण करो और कार्य करो, और परमेश्वर द्वारा दिए गए आदेश को इस तरह पूरा करो कि तुम्हें उद्धार प्राप्त हो जाए। इस प्रकार परमेश्वर संतुष्ट हो जाएगा और मनुष्य के उद्धार का मामला संपूर्ण रूप से पूरा हो जाएगा, इससे मनुष्य को भी लाभ होगा। और जहाँ तक ऐसे मौकों का संबंध है जब लोगों की कथनी में बहुत सारा धर्म-सिद्धांत हो, जब वे अपने कार्यकलापों में बहुत सतही हों, जब वे हमेशा लापरवाह रहते हों, जब उनकी घिनौनी हरकतें हावी हो जाएँ—खासकर युवाओं में, जो नियमों का अनुसरण करने में अच्छे नहीं होते, जो कभी-कभी देर तक सोना पसंद करते हैं, जिनकी कुछ आदतें बिल्कुल उचित या दूसरों के लिए शिक्षाप्रद नहीं हैं—इन चीजों को जबरदस्ती मत करो। धीरे-धीरे आगे बढ़ो। अगर तुम सत्य के अनुसरण के लिए तैयार हो, परमेश्वर के वचनों के साथ प्रयास कर सकते हो और परमेश्वर के लिए अपना दिल खोलकर अक्सर उसके सामने आ सकते हो, तो वह कार्य करेगा। मानवीय शक्ति या मानवीय साधनों से कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे को नहीं बदल सकता, यहाँ तक कि तुम्हारे माता-पिता भी तुम्हें नहीं बदल सकते।

तुम आज परमेश्वर के घर आए हो, यह परमेश्वर का कार्य है, और इस युग में भी तुम बुरी प्रवृत्तियों के बीच रहकर यहाँ सुरक्षित और स्थिर रूप से उपदेश सुन सकते हो, और एक भी पाई कमाए बिना अपना कर्तव्य निभाते हो—यह परमेश्वर का कार्य है। परमेश्वर ऐसा क्यों करता है? परमेश्वर तुममें क्या पसंद करता है? यही कि तुममें न्याय की भावना हो, तुममें जमीर हो; तुम बुरी प्रवृत्तियों से विमुख रहो और सकारात्मक चीजें पसंद करो; और तुम परमेश्वर के राज्य के आगमन, मसीह के शासन और सत्य की उम्मीद रखो। तुममें ये इच्छाएँ हैं और परमेश्वर तुममें ये पसंद करता है, इसीलिए वह तुम्हें अपने घर लाया है। क्या तुम्हें लगता है कि परमेश्वर तुम्हारे दोष और बुरी आदतों को नहीं देखता है? परमेश्वर तुम्हारे दोषों को देखता है—उसे इन सबकी जानकारी है। अगर वह इन्हें जानता है तो इनकी देखभाल क्यों नहीं करता? ऐसी चीजें कई मामलों में लोगों के दिलों में उलझन पैदा कर देती हैं। वे कहते हैं : “क्या परमेश्वर मुझ जैसे किसी इंसान को बचाएगा? क्या मेरे जैसा कोई इंसान उद्धार प्राप्त कर सकता है? मैं इतना दुष्ट और भ्रष्ट हूँ, अनुशासन के प्रति समर्पण का इतना अनिच्छुक हूँ, इतना विद्रोही हूँ—और मैं परमेश्वर का प्रतिरोध करता हूँ और उस पर संदेह करता हूँ। फिर भी परमेश्वर मुझे कैसे चुन लेगा?” तुम्हें कौन-सी चिंता खाए जा रही है? केवल परमेश्वर तुम्हें बचा सकता है; तुम्हें विश्वास रखना चाहिए कि वह ऐसा कर सकता है। तुम्हारे लिए इतना ही काफी है कि बस तुम परमेश्वर के वचन सुनने, उन्हें स्वीकार करने और उनका अभ्यास करने पर ध्यान केंद्रित कर लो। उन दूसरे मामलों में मत फँसो—उनके कारण हमेशा नकारात्मक मत रहो। कोई भी तुम्हारी गलतियों को तुम्हारे खिलाफ इस्तेमाल करने का प्रयास नहीं कर रहा है; किसी के पास तुम्हारे खिलाफ गोला-बारूद नहीं है। परमेश्वर इन चीजों को नहीं देखता। अगर दैनिक जीवन की ऐसी मामूली बातों से पैदा होने वाली बुरी आदतें, कमियाँ या मैलापन तुम्हारे उचित मार्ग और सत्य के अनुसरण में बाधा डालती हैं तो क्या यह नुकसान नहीं है? क्या यह व्यर्थ नहीं है? (व्यर्थ है।) इस समय ऐसी स्थिति में बहुत से लोग फँसे होंगे। कुछ लोग कहते हैं कि हड़बड़ी उनके व्यक्तित्व में है, कि वे हर चीज उजड्डता से करते हैं और उन्हें अध्ययन करना पसंद नहीं है। वे कहते हैं कि उनमें बुरी आदतें भी है : उन्हें सुबह जल्दी उठना और रात को जल्दी सोना पसंद नहीं है, और उन्हें गेम खेलना पसंद है; उन्हें कभी-कभी बेकार की बातें करना पसंद है और वे कभी-कभी चुटकुले सुनाना पसंद करते हैं। वे पूछते हैं : क्या परमेश्वर मुझे बचाएगा? तुम्हारे मन में अपने बारे में इतनी सारी धारणाएँ और कल्पनाएँ होना क्या एक समस्या नहीं है? तुम थोड़ा-सा खोजते क्यों नहीं हो? वास्तव में परमेश्वर का दृष्टिकोण क्या है और उसके वचन वास्तव में क्या कहते हैं? क्या उसके वचनों में इन चीजों का उल्लेख एक समस्या के रूप में किया गया है? कुछ लोग कहते हैं कि उन्हें सजना-सँवरना पसंद है और उन्हें खुद को हमेशा संयम में रखना चाहिए। दूसरों का कहना है कि उन्हें मांस खाना बहुत पसंद है और उनकी भूख भी बहुत ज्यादा है। ये छोटी-छोटी समस्याएँ हैं। ये दोष, ये व्यक्तित्व, ये जीवन की आदतें हद-से-हद किसी व्यक्ति की मानवता की कमियाँ हैं; इन्हें भ्रष्ट स्वभाव में नहीं गिना जाता। लोगों को वास्तव में जिस चीज का समाधान करने की जरूरत है वह है उनका भ्रष्ट स्वभाव। बड़े उद्देश्य से नजर मत हटाओ। जब तुम जान लेते हो कि तुम्हारा स्वभाव भ्रष्ट है, और तुम इस पर आत्म-चिंतन करने और इसका भेद पहचानने पर ध्यान केंद्रित करना शुरू करते हो, इस पर प्रयास करते हो और इससे नफरत करना शुरू करते हो तो तुम्हारी ये छोटी-छोटी कमियाँ धीरे-धीरे बदलने लगेंगी—वे कोई समस्या नहीं रह जाएँगी। कुछ युवाओं को मौज-मस्ती का शौक होता है। एक बार जब वे अपना काम ठीक से निपटा लेते हैं, तो कुछ समय मौज-मस्ती करना ठीक है। कुछ जवान महिलाओं को सुंदर दिखना, सजना-सँवरना और मेकअप करना पसंद होता है। यह भी ठीक है, बशर्ते वे अति न करें, अजीबो-गरीब वेशभूषा न अपनाएँ या भारी मेकअप न करें। यह सब ठीक है; उन्हें कोई नहीं रोक रहा है। इनमें से कोई भी चीज समस्या नहीं है। जीवन की ये आदतें, तुम्हारे जीवन की गुणवत्ता की माँगें और व्यक्तित्व की छोटी-छोटी समस्याएँ—इनमें से किसी के भी कारण तुम परमेश्वर का प्रतिरोध करने या सत्य के विरुद्ध जाने को मजबूर नहीं हो सकते। जो चीज सचमुच तुम्हें परमेश्वर का प्रतिरोध करने पर मजबूर करती है, जो तुम्हें उसके सामने आने से रोकती है और जो तुमसे उसके विरुद्ध विद्रोह करवाती है, वह है तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव। जब तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव का पता लगाकर इसे जान सकते हो और इससे नफरत कर सकते हो, और तुममें सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करने की व्यक्तिपरक इच्छा आ जाती है तो इन सभी छोटी-छोटी कमियों का समाधान किया जा सकता है। और तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव का समाधान हो जाने पर—सबसे बड़ी समस्या, यानी परमेश्वर के खिलाफ तुम्हारा प्रतिरोध सुलझ जाने पर—क्या तुम्हारी ये छोटी-छोटी कमियाँ अब भी समस्याएँ मानी जाएँगी? जब वह समय आएगा, तो ऐसी छोटी-छोटी बातें जैसे कि तुम कैसे आचरण करते हो, तुम कैसे रहते हो, तुम क्या खाते हो, क्या पीते हो, तुम कैसे आराम करते हो, तुम अपना कर्तव्य कैसे निभाते हो और तुम दूसरों के साथ कैसे घुलते-मिलते हो, ये सब थोड़ा-थोड़ा कर सिद्धांतों के अनुरूप होता जाएगा। तब तक तुम यह नहीं जान पाओगे कि व्यक्ति के भ्रष्ट स्वभाव का समाधान जीवन का सबसे बड़ा मसला था और रहेगा, कि जब किसी का भ्रष्ट स्वभाव हल हो जाता है तो अन्य सभी समस्याएँ भी हल हो जाती हैं। जब तुम परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह की समस्या का समाधान कर लेते हो, तभी तुम मानव के समान जीते हो, सम्मान के साथ जीते हो। हो सकता है कि अब तुम कुछ छोटी-मोटी कमियाँ प्रदर्शित न करो। लोग यह कहते हुए तुम्हारी प्रशंसा कर सकते हैं कि तुम एक अच्छे नौजवान हो, कि तुम परमेश्वर में अपने विश्वास के प्रति ईमानदार हो, कि तुम परमेश्वर में विश्वास करने वाले लगते हो। लेकिन अगर परमेश्वर यह कहता है कि तुम अब भी उसके खिलाफ विद्रोह कर सकते हो, तो तुम्हारे बाहरी सद्व्यवहार चाहे कितने ही अच्छे क्यों न हों, वे बेकार हैं। बुनियादी समस्या हल नहीं हुई है—तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव अभी तक हल नहीं हुआ है और तुम अभी भी परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह कर सकते हो। तुम अभी भी उद्धार से बहुत दूर हो! केवल सद्व्यवहार होना तुम्हारे किस काम का है? क्या तुम उनके जरिये खुद को धोखा तो नहीं दे रहे हो?

अब तुम्हारे लिए कौन-सी समस्या का समाधान अत्यंत महत्वपूर्ण है? (भ्रष्ट स्वभाव की समस्या।) कुछ लोग कह सकते हैं : “मुझे रंग-बिरंगे कपड़े पहनना पसंद है लेकिन यह परमेश्वर के घर को पसंद नहीं है इसलिए मैं इस व्यवहार के खिलाफ विद्रोह करूँगा।” तुम्हें ऐसा करने की जरूरत नहीं है—अगर तुम्हें पसंद हैं तो पहनो। कुछ लोग कहते हैं : “मुझे पाउडर लगाना और मेकअप करना पसंद है, मैं हर दिन लोगों से मिलते हुए आकर्षक दिखना चाहता हूँ—इससे बहुत अच्छा लगता है!” अगर तुम्हारे पास समय है तो यह ठीक है। कुछ लोग कहते हैं : “मुझे स्वादिष्ट भोजन पसंद है—मुझे मसालेदार और खट्टी चीजें भी पसंद हैं।” अगर तुम्हारे पास साधन, अवसर और खाली समय है, तुम जी भरकर ये चीजें खा सकते हो। भले ही तुम अतृप्त रहकर ये चीजें छोड़ दो, इन पर संयम रखो और इनसे विद्रोह कर दो, फिर भी तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव हल नहीं होगा। इन पर संयम रखने से भला क्या मिलेगा? तुम बहुत अधिक दैहिक कष्ट भोगोगे, लेकिन दिल से तुम्हें काफी बुरा लगेगा—और फिर इसके एवज में तुम्हें कैसे नकारात्मक नतीजे भुगतने पड़ेंगे? तुम्हें लगेगा कि तुमने परमेश्वर के लिए बहुत कष्ट उठाया है, कि तुमने सत्य प्राप्त कर लिया है, जबकि वास्तव में तुम्हारे पास कुछ नहीं होगा या तुम कुछ भी नहीं होगे। हो सकता है कि तुम सुरुचिपूर्ण ढंग से, गरिमापूर्ण और सादगीपूर्ण ढंग से कपड़े पहनते हो—हो सकता है तुम किसी भाई या बहन जैसे लगते हो और तुममें संयम हो—लेकिन तुम्हें कर्तव्य निभाने के लिए कहने पर अगर तुम सत्य सिद्धांत तक न खोज पाओ और अगर तुम कलीसिया के काम में गड़बड़ी पैदा करते रहो और बाधा डालते रहो तो क्या तुम्हारी मूलभूत समस्या का समाधान हो गया है? (नहीं।) इसलिए तुम इसे चाहे जैसे भी देख लो, सबसे बुनियादी चीज है परमेश्वर के वचनों को समझना, सत्य को समझना, सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना और अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करना। ऐसा न हो कि तुम अपने प्रयास कुछ तुच्छ समस्याओं और बाहरी व्यवहारों पर जाया कर दो, तुम उन्हीं के बारे में सोचते रहो और उन्हें त्याग न सको, दिल से हमेशा दोषी और ऋणी महसूस करते रहो, इन चीजों का समाधान हमेशा ऐसे करते रहो कि मानो ये बहुत बड़े मामले हों। इसका नतीजा यह निकलता है कि तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव हमेशा के लिए अनसुलझा रह जाता है। अगर तुम यह भी नहीं जानते कि तुम किस तरह के व्यक्ति हो या तुम्हारा किस तरह का भ्रष्ट स्वभाव है—अगर तुम्हें इसकी रत्तीभर भी समझ नहीं है तो क्या इससे चीजें गड़बड़ नहीं हो जाएँगी? जब तुम्हें अपने भ्रष्ट सार का पता चल जाएगा, तो तुम्हारी ये छोटी-छोटी समस्याएँ फिर कभी समस्याएँ नहीं रह जाएँगी। जैसे-जैसे तुम सत्य को समझने लगते हो और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करते हो, और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने में सक्षम होते हो तो तुम स्वाभाविक रूप से धीरे-धीरे उन छोटी समस्याओं से छुटकारा पा लोगे। यह वैसा ही है जैसा बेचैन व्यक्तित्व वाले लोगों या धीमे लोगों या बातूनी लोगों के साथ या अल्पभाषी लोगों के साथ होता है—ये समस्याएँ नहीं हैं। ये व्यक्तित्व के मसले हैं। कुछ लोगों के बोलने का अंदाज स्पष्ट होता है तो दूसरों का नहीं भी होता; कई लोग अधिक साहसी होते हैं और बहुत सारे लोगों के सामने बोलने का साहस कर लेते हैं, तो कुछ लोग कम साहसी होते हैं और अपने आसपास बहुत सारे लोगों के होने पर बोलने का साहस नहीं करते हैं; कुछ लोग बहिर्मुखी होते हैं तो कुछ अंतर्मुखी होते हैं। इनमें से कोई भी समस्या नहीं है। तो समस्या क्या होती है? परमेश्वर का प्रतिरोध करने वाला मसीह-विरोधियों का स्वभाव—यह एक समस्या है। यही सबसे बड़ी समस्या है, मनुष्य की सारी भ्रष्टता का स्रोत है। अगर तुम भ्रष्ट स्वभाव की समस्या का समाधान कर लेते हो तो कोई भी दूसरी समस्या आगे से समस्या नहीं रह जाती।

क्या कोई और सवाल है? (परमेश्वर, मेरे मन में एक सवाल है : सत्य का अनुसरण करते हुए मैं सामान्य आध्यात्मिक जीवन जी रहा हूँ, फिर भी सत्य से प्रेम करने और उसकी खोज करने वाला मेरा दिल इतना महान नहीं है। जब मुझे लगता है कि मेरी स्थिति गलत है तो मैं कुछ दिन लगन से प्रयास करता हूँ, लेकिन ये दिन बीतते ही मैं फिर ढीला पड़ जाता हूँ। यह स्थिति बार-बार आती है, और मैं जानता हूँ कि यह एक ऐसा स्वभाव है जो सत्य से विमुख है, लेकिन अभी भी मैं इसे जड़ से हल नहीं कर सका हूँ।) इससे बचने का कोई रास्ता नहीं है—मनुष्य का जीवन प्रवेश इसी तरह होता है। इस समस्या को हल करने की हमेशा इच्छा करके तुम गलती कर रहे हो। उदाहरण के तौर पर : अपने लिए पति ढूँढ़ने का प्रयास करते हुए कुछ महिलाओं का यह मानदंड होता है कि वह चाहे आम चेहरे-मोहरे वाला भी हो तो कोई बात नहीं, लेकिन वह रोमांटिक होना चाहिए। उसे यह याद रखना होगा कि वे पहली बार कब और कहाँ मिले, उसे उसका जन्म दिन, सालगिरह, वगैरा भी याद रहना चाहिए। उसे हर महत्वपूर्ण दिन याद रहना चाहिए और उसे समय-समय पर यह भी कहना याद रखना चाहिए, “मैं तुमसे प्यार करता हूँ, मेरी जान!” और समय-समय पर उसके लिए तोहफे खरीदना भी याद रखना चाहिए। वह उसकी परीक्षा लेती रहती है : “हमारी पहली डेट किस दिन थी? वैलेंटाइन डे कब है?” वे अक्सर इस तरह के रोमांस और उत्तेजना की ताक में रहती हैं, अगर उनका जीवन थोड़ा भी नीरस हो जाता है तो वे रूठकर अपने पति से शिकायत करती हैं : “जरा खुद को देखो, बुद्धू। तुम्हें रोमांस के बारे में नहीं पता। तुम्हारे साथ मेरी जिंदगी ऊब गई है! तुमने मेरी जिंदगी बर्बाद कर दी है!” क्या बहुत सी महिलाओं में यह कमी नहीं दिखाई पड़ती है? और जब तुम कहते हो कि किसी महिला का पति रोमांटिक है, वह महिला को मनाना जानता है, अपनी पत्नी को किसी रानी की तरह रखता है तो इन महिलाओं को असहनीय जलन होती है और वे उसके पति को छीनकर अपना बना लेना चाहती हैं। वे वास्तव में एक नीरस, साधारण जीवन जीने की इच्छुक नहीं हैं। क्या तुमने भी यह कमी दिखाई है? (हाँ।) जब परमेश्वर कार्य करता है और लोगों को बचाता है तो इसमें उतने ज्यादा रोमांचक, उत्तेजक अंश नहीं होते, और वह तुम्हारे लिए आश्चर्य के मौके उत्पन्न नहीं करता। यह नीरस और साधारण है—व्यावहारिक होने का यही अर्थ है। सत्य का अनुसरण करने के लिए अनुभूति की जरूरत नहीं है। जब तक तुम हृदय से अनुसरण करते हो; जब तक तुम कभी-कभार जाँच लेते हो कि तुम जिस रास्ते पर हो क्या वह भटक तो नहीं रहा है और तुम जो कर्तव्य निभाते हो क्या उसमें मानवीय त्रुटि के कारण कोई चूक या हानि तो नहीं हुई है, और इन विषयों पर संगति करते हो कि क्या इस दौरान भाई-बहनों के पास कर्तव्य निभाने के बारे में कोई नई अंतर्दृष्टि या ज्ञान है जिसकी तुममें कमी है, क्या जब तुम परमेश्वर के वचन पढ़ते हो तो इनके बारे में तुम्हारी समझ में विकृतियाँ होती हैं, क्या इनमें ऐसी चीजें हैं जो तुम्हारी समझ से परे हैं या जिन्हें तुमने अनुभव नहीं किया है या अनदेखा किया है, इत्यादि—जब तक ऐसे सभी रास्ते, लक्ष्य और दिशाएँ सामान्य और सही हैं तब तक यही काफी है। जब तक तुम्हारी सामान्य दिशा सही है, वह पर्याप्त है। उत्तेजना मत खोजो, आश्चर्य की तलाश मत करो। तुम्हें कोई भी चकित नहीं करने वाला। परमेश्वर में विश्वास और सत्य का अनुसरण करना वैसा ही है जैसे सामान्य लोग अपना जीवन जीते हैं। अधिकांश समय यह काफी नीरस होता है, क्योंकि तुम इस संसार में रहते हो जहाँ कुछ भी अलौकिक नहीं है और कुछ भी वास्तविक जीवन से अलग नहीं है। यह ऐसा ही नीरस है। लेकिन इस तरह के नीरस जीवन और विश्वास न करने वाले लोगों के जीवन के बीच एक अंतर है : जब तुम परमेश्वर में विश्वास करते हुए अपना कर्तव्य निभाते हो, तो तुम लगातार अपने भ्रष्ट स्वभाव के बारे में सीखते रहते हो, परमेश्वर के साथ अपने रिश्ते को लगातार सुधारते और बदलते रहते हो, और तुम जिन सत्यों को समझते नहीं हो उन्हें लगातार सीखते रहते हो, जिन सत्यों को जानते या समझते नहीं हो उन्हें जानते और स्वीकारते जाते हो। यही अंतर है। यही काफी बड़ा अंतर है—तो तुम लोगों को और क्या चाहिए? क्या परमेश्वर के घर में, कलीसिया में, तुम्हारे आसपास पर्याप्त चीजें घटित नहीं होती हैं? परमेश्वर के कार्य की शुरुआत से लेकर अब तक जो चीजें घटित हो चुकी हैं, वे लोगों के लिए विचार करने के लिए काफी हैं। दिन इतनी तेजी से बीतते हैं : दस, बीस साल एक ही झटके में गुजर जाते हैं, फिर एक और झटके में तीस, पचास साल गुजर जाते हैं। एक व्यक्ति के जीवन के लिए यही तकरीबन सही है। इसमें और कौन-सी उत्तेजना तलाशी जाए? यही चीजें काफी रोमांचक हैं। अपने आसपास होने वाली तमाम चीजों के कारण तुम्हें अनोखी चीजें खोजने, सत्य का पता लगाने और अचरज करने का मौका मिलना चाहिए। यह नीरस तो नहीं है, है क्या? (नहीं, यह नीरस नहीं है।) सत्य का अनुसरण करने का मतलब उत्तेजना की तलाश नहीं है। इस भौतिक संसार में अपनी सामान्य मानवता में जीने वाले लोगों के साथ यही बात है। उत्तेजना की तलाश में मत पड़ो—उत्तेजना और अनुभूति की तलाश में वही लोग लगे रहते हैं जिनके पास बहुत ही ज्यादा खाली समय होता है। अपने कर्तव्य निभाने और सत्य का अनुसरण करने में लोगों के पास हर दिन सीखने के लिए नए सबक होते हैं। कुछ लोग कहेंगे, “तो फिर मैं क्यों नहीं सीख रहा हूँ?” ठीक है, हो सकता है कि तुम्हारी प्रगति धीमी हो; अगर तुम हर महीने कुछ चीजें सीखते हो, तो यही काफी है। अगर तुम सत्य का अनुसरण और प्रगति कर रहे हो तो तुम्हारे पास यह दिखाने के लिए कुछ न कुछ होगा। क्या इस संगति से समस्या का समाधान हो गया है? (हाँ।) कैसे? किन वचनों से समाधान हुआ? (इसका समाधान इस अर्थ में हुआ है कि मैं जानता हूँ कि परमेश्वर में मेरे विश्वास में मेरे लक्ष्य के पीछे जो परिप्रेक्ष्य हैं वे व्यावहारिक नहीं हैं—मेरे पास अनुसरण करने के लिए कोई व्यावहारिक तरीका नहीं है। मैं हमेशा उत्तेजना पाने की ताक में रहता हूँ, हमेशा चीजों को महसूस करने की कोशिश करता हूँ और परमेश्वर से धारणाओं और कल्पनाओं से अधिक किसी और तरीके से पेश नहीं आता, उसके साथ सम्मानजनक दूरी का संबंध बनाए रखता हूँ, फिर भी इस बात की अनदेखी करता हूँ कि जीवन प्रवेश के दौरान लोगों में कमजोरी होगी, कि वे जैसे-जैसे जीवन प्रवेश करेंगे वैसे-वैसे प्रगति करेंगे और यह भी कि उन्हें तमाम तरह की परिस्थितियों का सामना करना पड़ेगा। यह सामान्य है।) तुमने इसे सही ढंग से समझा है। जब कोई परिस्थिति नहीं आई है, तो लोगों को अपने कर्तव्य वैसे ही निभाने चाहिए जैसा उचित है, और वैसे ही अनुसरण करना चाहिए जैसा उचित है। उत्तेजना की तलाश मत करो, या चीजों को महसूस मत करो; अत्यधिक संवेदनशील बनकर यह मत कहो “आज मेरा मिजाज क्यों खराब है? ओह, परमेश्वर के साथ मेरा संबंध दूर का है—मैं जल्दी से प्रार्थना करूँगा!” ऐसी अतिसंवेदनशीलता की कोई आवश्यकता नहीं है। परमेश्वर बुरा नहीं मानता; वह तुम्हारे उन तुच्छ मामलों से परेशान नहीं होता! तुम कह सकते हो, “मैंने कई दिनों से प्रार्थना नहीं की है, लेकिन जब मैं कार्य करता हूँ तो मैं अक्सर अपने दिल में परमेश्वर को खोजता हूँ और मेरे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है।” इसमें कोई समस्या नहीं है। कुछ लोग कहेंगे, “ओह, मैं अपने कर्तव्य में इतना व्यस्त हो गया हूँ कि मैंने कई दिनों से परमेश्वर के वचन नहीं पढ़े हैं।” तुम इस प्रक्रिया से नहीं गुजरे—तुमने इसे अनदेखा कर दिया—लेकिन अपना कर्तव्य निभाने के दौरान तुमने कई समस्याओं का पता लगाया है, और तुमने कुछ भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किया है, और तुमने उस अवधि में दूसरों की संगति सुनी, जिससे तुम्हें बहुत सीख मिली। क्या यह वास्तविक लाभ नहीं है? क्या तुम सत्य को समझने और हासिल करने के लिए परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ते? एक निश्चित तरीके या ढंग से ऐसा करने के तुम्हारे आग्रह का क्या फायदा? ठीक बात है। हम आज की संगति यहीं समाप्त करेंगे। अलविदा! (धन्यवाद परमेश्वर और अलविदा!)

30 मई 2020

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