मद दस : वे सत्य का तिरस्कार करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग एक) खंड तीन

ख. परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता का तिरस्कार करना

मसीह-विरोधी लोग परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता को कैसे देखते हैं? यह कहना ठीक है कि किसी मसीह-विरोधी के लिए “सर्वशक्तिमत्ता” बहुत ही जज्बाती शब्द है, एक ऐसा शब्द जो उसकी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं को भड़का सकता है। इसका कारण यह है कि वह बहुत हद तक वैसा ही व्यक्ति बनना चाहता है। सर्वशक्तिमान, सर्वक्षमतावान और सर्वव्यापी होना, हर चीज में समर्थ होना, कुछ भी करने के तरीके जानना, कुछ भी कर लेने में सक्षम होना—अगर किसी में यह क्षमता आ जाए, अगर उसमें यह योग्यता हो तो फिर उसके लिए हर चीज करना आसान हो जाएगा। उसे किसी से डरना नहीं पड़ेगा; उसके पास सर्वोच्च अधिकार होगा, सर्वोच्च रुतबा होगा और वह दूसरों पर शासन कर सकेगा। उसके पास दूसरे लोगों को नियंत्रित करने और उनके साथ हेरफेर करने की निरंकुश शक्ति होगी। यह किसी मसीह-विरोधी की पहुँच से बहुत दूर की बात है और यह उसकी महत्वाकांक्षाओं, उसकी इच्छाओं और उसके असली रंग को उजागर करती है। इसका एक पक्ष यह है कि “परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता” वाक्यांश उसे तमाम तरह की कल्पनाओं, जिज्ञासा और धारणाओं से भर देता है। दूसरा पक्ष यह है कि वह परमेश्वर में आस्था के जरिये उसकी सर्वशक्तिमत्ता को लेकर अंतर्दृष्टि पाना चाहता है ताकि वह अपने क्षितिज का विस्तार कर सके, अधिक अंतर्दृष्टि पा सके और अपनी जिज्ञासा संतुष्ट कर सके। एक और पक्ष यह है कि वह सर्वक्षमतावान बनने का प्रयास करता है, हजारों लोगों से अपनी आराधना करवाने, अधिकाधिक लोगों से अपने आगे दंडवत करवाने और अपने लिए उनके दिलों में जगह बनाने का प्रयास करता है। तो क्या मसीह-विरोधियों को परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता का सच्चा ज्ञान होता है? इसमें क्या उन्हें सच्ची आस्था होती है? फिर से, यह ठीक वैसा ही है जैसा परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को लेकर है—मसीह-विरोधी न सिर्फ धारणाओं, तथ्यों से मेल नहीं खाने वाली अस्पष्ट और खोखली कल्पनाओं से भरे होते हैं—वे परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता को लेकर भारी संदेह भी पैदा करते हैं। वे संदिग्ध हैं; वे इसमें विश्वास नहीं करते : “सर्वशक्तिमत्ता? इस दुनिया में ऐसा कोई है ही कहाँ जो सर्वशक्तिमान हो? इस दुनिया में ऐसा कोई है ही कहाँ जो सर्वव्यापी और सर्वक्षमतावान हो? ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है! दुनिया में बहुत सारे महान और मशहूर लोग हैं और ऐसे भी बहुत सारे लोग हैं जिनके पास अलौकिक शक्तियाँ हैं : जैसे नबी और तमाम तरह के ज्योतिषी और भविष्यवाणी को समझाने वाले लोग, और ये भी सर्वक्षमतावान नहीं हैं। ‘परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता’ पर प्रश्नचिह्न लगाने की अभी भी जरूरत है, इस पर पूरी तरह शोध करने की जरूरत है।” इसलिए एक मसीह-विरोधी के लिए परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता का सार होता ही नहीं है क्योंकि जैसा कि वे मानते हैं, “मैं यह सोच या समझ नहीं सकता कि परमेश्वर सर्वशक्तिमान कैसे हो सकता है, इसलिए उसकी इस ‘सर्वशक्तिमत्ता’ का अस्तित्व है ही नहीं। मैं इसे नहीं मानता। परमेश्वर की क्षमताएँ और योग्यताएँ वास्तव में कितनी बड़ी हैं? इन्हें अतीत, वर्तमान या भविष्य में न किसी ने देखा है, न ही कोई देखेगा।” मसीह-विरोधी लगातार संदेह करते रहते हैं और दिल से अनिश्चित होते हैं, इसलिए कलीसिया में और भाई-बहनों के साथ घटने वाली सभी चीजें मसीह-विरोधियों के लिए शोध का विषय और दायरा बन जाती हैं। वे क्या शोध कर रहे होते हैं? वे अपने सामने आने वाली हर चीज पर शोध कर रहे होते हैं, हर उस चीज पर जो किसी समूह में या किसी व्यक्ति के साथ होती है, परमेश्वर ने क्या किया है, उसने कैसे कार्य किया है, क्या इसमें कोई संकेत और चमत्कार तो नहीं हैं, क्या कोई नई और अनोखी घटनाएँ तो नहीं हैं जो मनुष्य की सोच से परे हों या मनुष्य की क्षमता और पहुँच से परे हों। इसके अलावा वे यह शोध कर रहे होते हैं कि क्या किसी भाई-बहन ने परमेश्वर द्वारा उनके अंदर किए गए किसी ऐसे कार्य के अनुभव के बारे में बात की है जो मनुष्य की अपेक्षाओं से परे हो। इसका एक उदाहरण लोक-कथा जैसी वह लड़की है जो घोंघे के कवच से बाहर निकलकर उनके लिए तब भोज तैयार करती है जब वे सबसे ज्यादा भूखे होते हैं। एक और उदाहरण, कंगाली के समय अकस्मात उनके घर में ही सोने का खजाना मिल जाए या जब उनका पीछा किया जा रहा हो तो पीछा करने वाले अचानक अंधे होकर कुछ भी न देख पाएँ और तब कोई फरिश्ता नीचे उतरकर उनसे कहे, “बच्चे, डरो मत—तुम्हारी मदद करने के लिए मैं हूँ ना।” एक अन्य उदाहरण यह है कि जब भाई-बहन निर्मम मार और क्रूर यातनाएँ सह रहे हों तो परमेश्वर की तीव्र रोशनी आततायियों को अंधा कर उन्हें फर्श पर लुढ़का दे, वे दया की भीख माँगने लगें और फिर कभी भाई-बहनों को पीटने का साहस न कर सकें और परमेश्वर उनसे बदला ले; या, परमेश्वर के वचन पढ़ते समय जब उन्हें कितनी भी कोशिश करने के बावजूद भी कुछ भी समझ में न आए और नींद आने लगे तो धुँधलके में उन्हें कोई साया दिखाई दे जो उनसे कहे, “सोओ मत; जागो—मेरे वचनों का यह अर्थ है”; या जब कोई चीज हो और वे गलती करने ही वाले हों तो वे किसी सशक्त, आंतरिक फटकार और अनुशासन से सतर्क हो जाएँ कि ऐसा करना गलत रहेगा और ऐसा करना सही रहेगा। साधारण लोगों को इनमें से किसी भी चीज का अनुभव नहीं होता, न वे इसे अनुभव करने में सक्षम हैं मगर यह अगर कलीसिया में, परमेश्वर के घर में, परमेश्वर का अनुसरण करने वाले किसी भी व्यक्ति के साथ घटित हो जाए तो यह पर्याप्त सबूत रहेगा कि परमेश्वर सर्वशक्तिमान है। अगर ऐसी कोई चीज घटित न हो या यदा-कदा ही घटे और अगर घटे भी तो यह सिर्फ सुनी-सुनाई बात हो और ऐसे में उसकी तथ्यात्मकता और विश्वसनीयता बहुत ज्यादा घट जाए तो क्या तब भी परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता एक तथ्य है या नहीं है? क्या परमेश्वर में सर्वशक्तिमत्ता का सार होता है या नहीं होता? मसीह-विरोधी अपने दिल में इन विचारों पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं।

मसीह-विरोधी हमेशा इन संकेतों, चमत्कारों और अलौकिक शक्तियों का अनुसरण कर रहे हैं जबकि परमेश्वर कार्य करता है, बात करता है और मनुष्य को बचाता है। वे ऐसी चीजों का अनुसरण करते हैं जो वास्तविकता या तथ्यों से मेल नहीं खाती हैं। वे जिन चीजों का अनुसरण करते हैं उनका मनुष्य को बचाने के परमेश्वर के कार्य या सत्य या मनुष्य के स्वभाव परिवर्तन से कोई लेना-देना नहीं होता। फिर भी वे इनका अनुसरण करने पर तुले रहते हैं। परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता को लेकर उनमें कौतूहल भरा रहता है। वे अक्सर अपनी प्रार्थनाओं में परमेश्वर से विनती करते हैं : “हे परमेश्वर, क्या तुम मेरे सामने अपनी सर्वशक्तिमत्ता प्रकट करोगे? हे परमेश्वर, क्या तुम सर्वशक्तिमान नहीं हो? अगर हो तो मैं कहता हूँ कि इस मामले को मेरे लिए सुलझा दो। परमेश्वर, अगर तुम सर्वशक्तिमान, सर्वक्षमतावान और सर्वव्यापी हो तो मैं तुमसे अपनी मदद की विनती करता हूँ क्योंकि मैं चुनौतियों का सामना कर रहा हूँ। हे परमेश्वर, अगर तुम सर्वशक्तिमान हो तो मैं चाहता हूँ कि तुम मेरे शरीर के रोग हर लो, मैं जिन परिस्थितियों का सामना कर रहा हूँ उन्हें मुझसे दूर कर दो, खतरे को दूर करने में मेरी मदद करो। हे परमेश्वर, अगर तुम सर्वशक्तिमान हो तो विनती है कि जब मैं अपना कर्तव्य निभाता हूँ तो तुम मुझे रातों रात होशियार और चतुर, प्रतिभाशाली और गुणी बना दो ताकि मैं बिना पढ़े ही पेशेवर हुनर सीख जाऊँ, पारंगत हो जाऊँ और दूसरों से अलग नजर आऊँ। हे परमेश्वर, अगर तुम सर्वशक्तिमान हो तो तुमसे उन लोगों को दंडित करने और उनसे प्रतिशोध लेने की विनती करता हूँ जो तुम्हारे प्रति मेरी आस्था को बदनाम करते हैं और उसका मजाक उड़ाते हैं। उन्हें अंधा और बहरा कर दो, उनके सिर पर फोड़े उग आएँ और उनके पैरों के तलुवों से पीप बहने लगे। उन्हें कुत्ते की मौत मरने दो। हे परमेश्वर, अगर तुम सर्वशक्तिमान हो तो विनती है कि तुम मुझे अपनी सर्वशक्तिमत्ता दिखाओ।” परमेश्वर ने इतने सारे वचन कहे हैं और इतना सारा कार्य किया है लेकिन मसीह-विरोधी इस तरफ आँख मूँदकर इसे अनदेखा कर देते हैं; वे परमेश्वर के वचनों को कभी दिल में नहीं उतारते, न ही वे उसके कार्यों और मनुष्य को बचाने के उसके अहम कार्य के हर चरण को दिल में उतारते हैं या गंभीरता से लेते हैं। इसके बजाय वे संकेतों और चमत्कारों की माँग करने पर तुले रहते हैं, इस बात पर अड़े रहते हैं कि परमेश्वर अपने कार्यों के दौरान चमत्कार दिखाए, यह माँग करते हैं कि परमेश्वर अपने अस्तित्व और अपने सर्वशक्तिमान होने को साबित करने के लिए ऐसी विशेष चीजें करे जो उनकी आँखें खोल दें और उनके कौतूहल को शांत कर दें। इससे भी हास्यास्पद बात तो यह है कि मसीह-विरोधी प्रार्थना में यह विनती तक करते हैं : “हे परमेश्वर, मैं तुम्हें देख नहीं सकता, इसलिए मेरी आस्था कम है। मैं तुमसे अपना वास्तविक स्वरूप प्रकट करने की विनती करता हूँ, फिर चाहे यह सपने में ही क्यों न हो—मैं तुमसे अपनी सर्वशक्तिमत्ता प्रकट करने की विनती करता हूँ, जिससे मैं तुम में आस्था रख सकूँ और निश्चित होकर तुम्हारे अस्तित्व पर विश्वास कर सकूँ। अगर तुम ऐसा नहीं करते हो तो तुम में विश्वास को लेकर मेरे मन में हमेशा संदेह रहेंगे।” वे परमेश्वर का अस्तित्व नहीं देख पाते या उसके कार्यों और वचनों में उसका सार और स्वभाव नहीं जान पाते, बल्कि उससे अतिरिक्त चीजें कराना चाहते हैं, ऐसी चीजें जो मनुष्य के लिए अकल्पनीय हैं ताकि वे मजबूत बन सकें और अपनी आस्था स्थापित कर सकें। परमेश्वर ने अनेक वचन कहे हैं और काफी कार्य किया है, फिर भी उसके वचन चाहे कितने ही व्यावहारिक हों, वह जो सत्य लोगों को बताता है वे चाहे कितने ही शिक्षाप्रद हों, उनके लिए इन्हें समझना चाहे कितना ही अत्यावश्यक हो, मसीह-विरोधियों की इनमें रुचि नहीं होती और वे इन्हें अपने दिल में नहीं उतारते हैं। वास्तव में परमेश्वर जितना ज्यादा बोलता है, जितना ज्यादा विशिष्ट कार्य करता है, मसीह-विरोधी उतने ही ज्यादा विकर्षण, चिढ़ और प्रतिरोध महसूस करते हैं। यही नहीं, उनमें परमेश्वर की निंदा और उसके विरुद्ध ईशनिंदा भी आ जाती है; वे उसके खिलाफ शोर मचाते हैं : “क्या तुम्हारी सर्वशक्तिमत्ता इन्हीं वचनों में है? क्या तुम बस यही करते हो—वचन व्यक्त करना? अगर तुम बोलोगे नहीं तो क्या सर्वशक्तिमान नहीं रहोगे? अगर तुम सर्वशक्तिमान हो तो फिर बोलो मत। हमें जीवन प्राप्त करने और स्वभाव परिवर्तन हासिल करने में सक्षम बनाने के लिए अपनी वाणी या सत्य पर संगति करने और मनुष्य का सत्य से पोषण करने का उपयोग मत करो। अगर तुम हमें रातों रात देवदूत बना दो, अपने संदेशवाहक बना दो—तो, यह सर्वशक्तिमत्ता होगी!” जैसे-जैसे परमेश्वर अपने वचन सुनाता जाता है और अपना कार्य करता जाता है तो धीरे-धीरे मसीह-विरोधियों की प्रकृति बिना किसी दुराव-छिपाव के प्रकट और उजागर होती जाती है, साथ ही सत्य से विमुख होने और इसके प्रति प्रतिरोधी होने का उनका सार पूरी तरह उघड़कर सामने आ जाता है। जैसे-जैसे समय बीतता है और परमेश्वर अपने कार्य में निरंतर आगे बढ़ता रहता है, परमेश्वर की पहचान और उसके सार का तिरस्कार करने वाला मसीह-विरोधियों का स्वभाव और सार भी धीरे-धीरे उजागर और प्रकट होता जाता है। मसीह-विरोधी अस्पष्ट चीजों का अनुसरण करते हैं; वे संकेत और चमत्कार देखने के पीछे भागते हैं—और वास्तविकता से मेल नहीं खाने वाली इस महत्वाकांक्षा और इच्छा के वश में होकर सत्य से विमुख होने और इससे नफरत करने वाली उनकी प्रकृति सामने आ जाती है। इसके विपरीत जो लोग वास्तव में वास्तविकता और सत्य का अनुसरण करते हैं, जो सकारात्मक चीजों में विश्वास करते हैं और इनसे प्रेम करते हैं, वे परमेश्वर के कार्यों और वचनों की प्रक्रिया में उसकी सर्वशक्तिमत्ता देखते हैं—और ये लोग जो देख सकते हैं, जो हासिल कर सकते हैं और जो जान सकते हैं वो वास्तव में वही चीजें हैं जिन्हें मसीह-विरोधी जानने और हासिल करने में सदा असमर्थ रहते हैं। मसीह-विरोधी मानते हैं कि अगर लोग परमेश्वर से जीवन हासिल करेंगे तो संकेतों और चमत्कारों की जरूरत है; वे मानते हैं कि संकेतों और चमत्कारों के बिना सिर्फ परमेश्वर के वचनों से जीवन और सत्य प्राप्त करना, और उसके फलस्वरूप स्वभाव परिवर्तन हासिल करना और उद्धार प्राप्त करना असंभव बात है। एक मसीह-विरोधी के लिए यह शाश्वत असंभव बात है—इसमें दम नहीं है। इसीलिए वे इस उम्मीद में अथक रूप से प्रतीक्षा और प्रार्थना करते हैं कि परमेश्वर संकेत और चमत्कार दिखाएगा और उनके लिए चमत्कार करेगा—और अगर वह ऐसा नहीं करता तो फिर उसकी सर्वशक्तिमत्ता है ही नहीं। इसका निहितार्थ यह है कि अगर परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता का अस्तित्व नहीं है तो फिर निश्चित रूप से परमेश्वर का अस्तित्व नहीं है। यही मसीह-विरोधियों का तर्क है। वे परमेश्वर की धार्मिकता की भर्त्सना करते हैं और उसकी सर्वशक्तिमत्ता की भर्त्सना करते हैं।

जब परमेश्वर लोगों को बचा रहा होता है तो मसीह-विरोधियों को उसके वचनों, उसकी विभिन्न अपेक्षाओं और उसके इरादों में कोई दिलचस्पी नहीं होती है। वे दिल की गहराई से इन चीजों का प्रतिरोध करते हैं और इनसे विमुख रहते हैं। उनकी रुचि न तो सभी सकारात्मक चीजों की वास्तविकता में होती है, न ही उद्धार में और पूर्ण बनाए जाने में होती है जिन्हें मनुष्य सत्य का अनुसरण और परमेश्वर के आयोजनों के प्रति समर्पण करके हासिल कर सकता है। तो फिर उनकी रुचि किस चीज में होती है? उनकी रुचि इस बात में होती है कि परमेश्वर उन्हें दिखाने के लिए संकेत और चमत्कार दिखाए और चमत्कार करे, कि वह ऐसा करके उन्हें अंतर्दृष्टि प्राप्त करने में सक्षम बनाए, उन्हें उल्लेखनीय व्यक्तियों, अतिमानवों, विशेष शक्तियों वाले लोगों और असाधारण लोगों में बदलने में सक्षम बनाए। परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता के जरिये वे खुद को साधारण लोगों, आम लोगों और भ्रष्ट लोगों जैसे पदनामों, पहचानों और रुतबों से मुक्ति दिलाना चाहते हैं। इसलिए परमेश्वर के कार्य के बीच उनके सामने जो भी धारणाएँ या समस्याएँ आएँ, वे इन्हें हल करने के लिए सत्य नहीं खोजते। वे सत्य को समझने या स्वभाव परिवर्तन हासिल करने में ही असमर्थ नहीं रहते—बल्कि, वे परमेश्वर के बारे में फैसला भी सुनाते हैं, उसकी निंदा भी करते हैं, उसका प्रतिरोध करते हैं क्योंकि वह जो कुछ भी करता है वह सब उनकी धारणाओं से मेल नहीं खाता है। मसीह-विरोधियों की निगाह में, परमेश्वर का सारा व्यावहारिक कार्य ऐसा है जिसे वे स्वीकृति नहीं देते—वे इसकी निंदा करते हैं। अंत में यही विचार और परमेश्वर की यही परिभाषाएँ उन्हें दिल से परमेश्वर के सार का अस्तित्व पूरी तरह से नकारने की ओर ले जाती हैं, और उससे भी ज्यादा परमेश्वर के सार के अस्तित्व की भर्त्सना करने, उसे मलिन करने और उसकी ईशनिंदा करने की ओर ले जाती हैं। इसका कारण यह है कि परमेश्वर पर उनका विश्वास इस आधार पर टिका है कि परमेश्वर सर्वशक्तिमान है, कि परमेश्वर उनकी शिकायतों का समाधान करेगा, कि वह उनकी ओर से बदला लेगा, कि उनके लिए वह उन सबको पराजित करेगा जिनसे वे नफरत करते हैं और जिन्हें वे तुच्छ निगाह से देखते हैं—कि परमेश्वर उनकी इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ पूरी करेगा। परमेश्वर में उनके विश्वास की बुनियाद यही है। लेकिन यहाँ तक पहुँचने के बाद ये बुरे लोग अब देख रहे हैं कि ऐसे परमेश्वर का अस्तित्व नहीं है और इस बात की कोई संभावना नहीं है कि परमेश्वर उनके लिए कुछ करेगा। उनके नजरिये से उनके लिए यह खासी प्रतिकूल स्थिति है—यह भयावह है। इसलिए कई चीजों का अनुभव कर चुकने के बाद परमेश्वर के प्रति उनके सवाल और संदेह और भी मजबूत होते जाते हैं, जब तक कि वे परमेश्वर और उसके घर को छोड़ने, संसार का अनुसरण करने, बुरी प्रवृत्तियों के अनुसार चलने और खुद को शैतान के आगोश में सौंपने का मन नहीं बना लेते। इन लोगों के लिए चीजें अंततः ऐसे ही समाप्त होती हैं। परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव और उसकी सर्वशक्तिमत्ता के प्रति मसीह-विरोधियों के रवैये के आधार पर आकलन करते हुए, मसीह-विरोधी वास्तव में छद्म-विश्वासी हैं। उनके मन में परमेश्वर के प्रति लेशमात्र भी आस्था नहीं होती, न ही परमेश्वर जो कुछ करता है उसके प्रति लेशमात्र भी समर्पण या स्वीकार्यता होती है। जब सकारात्मक चीजों और सत्य की बात आती है तो वे इनसे घृणा करते हैं और इनके प्रति प्रतिरोधी बने रहते हैं। इसीलिए तुम इसे चाहे किसी भी ढंग से देखो, मसीह-विरोधियों का छद्म-विश्वासी सार वास्तव में विद्यमान होता है। यह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे दूसरे लोग उन पर थोपते हों, न ही यह तिल का ताड़ बनाने जैसी बात है—उनका यह सार उन सारे विचारों और पेश आने के तरीकों से परिभाषित होता है जो वे तब प्रकट करते हैं जब चीजें उनके साथ घटित होती हैं।

मसीह-विरोधी बरसों तक परमेश्वर में विश्वास करते हैं लेकिन यह तथ्य नहीं देख पाते कि परमेश्वर मनुष्य की नियति पर संप्रभुता रखता है। वे इस तथ्य को समझ नहीं सकते। वे एक तथ्य को समझ नहीं पाते जबकि यह उनकी आँखों के सामने रखा है—क्या यह अंधापन नहीं है? परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव और उसकी सर्वशक्तिमत्ता अक्सर कलीसिया के कार्य में, उसके चुने हुए लोगों में और घटित होने वाली तमाम चीजों में प्रकट होते हैं। वह लोगों को ये चीजें सब जगह देखने देता है—लेकिन अंधे होने के कारण मसीह-विरोधी इन्हें देख नहीं सकते। जब मसीह-विरोधी बरसों परमेश्वर का अनुसरण कर चुके होते हैं तो वे यह मशहूर जुमला सुनाते हैं : “मैं इतने बरसों से परमेश्वर में विश्वास कर रहा हूँ मगर मुझे मिला क्या?” ऐसा लगता है कि उन्हें वास्तव में कुछ भी हासिल नहीं हुआ। परमेश्वर ने मनुष्य के लिए अपना जीवन उँडेल दिया है लेकिन मसीह-विरोधियों को कुछ भी हासिल नहीं हुआ। क्या यह दयनीय बात नहीं है? वास्तव में ऐसी ही बात है! मसीह-विरोधियों का यह जुमला समस्या को बखूबी स्पष्ट करता है। जो भी व्यक्ति परमेश्वर के वचन सुनता है और उसके कार्यों को अनुभव करता है, जो उसके वचनों को अपने जीवन के रूप में स्वीकार करता है, वह यही कहेगा : “हमने परमेश्वर में इतने वर्षों से विश्वास किया है और उससे इतना अधिक हासिल किया है। उसका अनुग्रह और आशीष, उसकी सुरक्षा और उसकी दया ही नहीं—इससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि परमेश्वर से हमने इतने अधिक सत्य समझे और हासिल किए हैं। हम मानव के समान, गरिमा के साथ जीते हैं। हम जानते हैं कि आचरण कैसे करना है। हम परमेश्वर के इतने ऋणी हैं। वह जितनी कीमत चुकाता है, वह हमारे लिए जो कुछ करता है, उसकी तुलना में हमारी छोटी-सी कठिनाइयाँ उल्लेख करने लायक भी नहीं हैं। मनुष्य को परमेश्वर के प्रेम का प्रतिदान करना चाहिए।” लेकिन मसीह-विरोधी तो बिल्कुल उलटे हैं। वे कहते हैं, “परमेश्वर इन पिछले कुछ बरसों से कार्य कर रहा है, तो ऐसा क्यों है कि मुझे कुछ भी हासिल नहीं हुआ है? तुम सभी लोग कहते हो कि तुमने ये हासिल किया, वो हासिल किया, यह या वह अनुभव प्राप्त किया—लेकिन क्या ये अनुभव तुम्हारा पेट भर पाएँगे? उन अनुभवों का क्या महत्व है? आशीषों और अनुग्रह की तुलना में, संकेत और चमत्कार दिखाई देने की तुलना में, क्या ये अनुभव पूरी तरह उल्लेख के अयोग्य नहीं हैं? इसीलिए मुझे लगता है कि परमेश्वर में वर्षों के विश्वास में मैंने कुछ भी नहीं पाया। परमेश्वर के लिए मैंने जो पीड़ा सही है, जो कुछ त्यागा और खपाया है, उसकी तुलना में मैंने जो चीजें पाई हैं वे बिल्कुल भी इसके लायक नहीं हैं! सत्य कुछ कथनों और सिद्धांतों के सिवाय है ही क्या? यह कुछ धर्म-सिद्धांतों के सिवाय है ही क्या? मैंने ये वचन सुने हैं, ये सत्य सुने हैं और मुझे नहीं लगता कि मुझमें कोई बहुत बड़ा बदलाव आया है! पहली बात तो यह है कि जब मैं चीजों के बारे में सोचता हूँ तो मेरा दिमाग उतना चुस्त नहीं रहता। यही नहीं, मेरी उम्र ढलती जा रही है और मेरी सेहत पहले से बेहतर नहीं हो रही है। मेरे बाल पक चुके हैं, मेरे चेहरे पर झुर्रियाँ बढ़ चुकी हैं—यहाँ तक कि मेरे कुछ दाँत भी गिर चुके हैं और दुबारा एक भी नया दाँत नहीं निकला है। परमेश्वर कहता है कि जो लोग बचाए जाते हैं वे ताजा, जिंदादिल बच्चों जैसे होंगे और यहाँ मैं हड्डियों का ढाँचा, बूढ़े चेहरे वाला बनकर रह गया हूँ। मैं तो बच्चे में नहीं बदला हूँ। परमेश्वर के वचनों की मानें तो पके बालों वाले बूढ़े लोग काले-चमकते बालों वाले नौजवानों में बदल सकते हैं। तो फिर मैं क्यों नहीं बदला हूँ? परमेश्वर कहता है कि वह लोगों का कायाकल्प कर देगा मगर मेरे साथ तो ऐसा नहीं हुआ; मैं तो नया इंसान नहीं बना हूँ। मैं तो अभी भी मैं ही हूँ और जब मेरे साथ चीजें घटित होंगी तो मुझे खुद पता लगाना पड़ेगा कि इन्हें अपने बलबूते कैसे सँभालना है। मेरी दैहिक कठिनाइयाँ भी बढ़ती जा रही हैं—मैं अक्सर दुर्बल और नकारात्मक पड़ जाता हूँ। यही नहीं, पिछले दो बरस से मेरी याददाश्त भी खराब है। मैं परमेश्वर के वचन इतना ज्यादा पढ़ता हूँ, लेकिन उसने मेरी याददाश्त मजबूत नहीं की है। क्या परमेश्वर लोगों को थोड़ी-सी विशेष क्षमता नहीं दे सकता जो उनके शरीर को बूढ़ा होने से बचाए? मुझे लगता है कि इस समय सबसे बड़ा मसला लोगों को पूरी तरह बदलने का है; सत्य इस समस्या का समाधान करने में सक्षम नहीं लगता है। अगर परमेश्वर कुछ ऐसा कहेगा जो वास्तव में किसी को एक ऐसे नए इंसान में बदल सके जिसका रूप एक दमकते हुए फरिश्ते की तरह हो, जो शरीर से अलग हो सके, जो ठोस दीवारों के आर-पार निकल सके, जो उत्पीड़न और खतरे का सामना करने पर मंत्र मारकर गायब हो सके और हमेशा पकड़ से दूर रहे—अगर अक्सर परमेश्वर के वचन पढ़ने से लोगों के बाल सफेद न हों, उनके चेहरों पर झुर्रियाँ न पड़ें और टूटे हुए दाँतों की जगह नए दाँत निकल जाएँ—तो यह कितना अच्छा रहेगा! इसी को पूरा कायाकल्प कहते हैं! अगर परमेश्वर ऐसी चीजें करेगा तो मैं बिना किसी संकोच के विश्वास करूँगा कि वह परमेश्वर है। अगर वह सत्य सुनाता रहा और इसका उपदेश देता रहा तो फिर मेरी आस्था जल्द ही क्षीण पड़ जाएगी; जल्द ही मैं विश्वास करना जारी नहीं रख पाऊँगा, और शायद मैं आगे अपना कर्तव्य नहीं निभा पाऊँगा। मैं ऐसा करना नहीं चाहूँगा।” परमेश्वर के अनुसरण के दौरान मसीह-विरोधी के मन में परमेश्वर से कोई न कोई माँग उठती रहेगी, उनकी धारणाओं में अक्सर तमाम तरह के संदेह और सख्त माँगें उठती रहेंगी, और उनके परिवेशों और व्यक्तिगत इच्छाओं की प्रतिक्रिया में उनके मन में तमाम तरह के विचित्र विचार आते रहेंगे। लेकिन सिर्फ एक चीज है : वे परमेश्वर के कहे वचन नहीं समझ सकते और यह तथ्य नहीं समझ सकते कि परमेश्वर मनुष्य को बचाने के लिए कार्य करता है, उनके लिए यह बात समझना तो और भी दूर की बात है कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है उस सबका उद्देश्य मनुष्य को बचाना है, कि इस सबका उद्देश्य मनुष्य को स्वभाव परिवर्तन हासिल करने में सक्षम बनाना है। इसलिए जैसे-जैसे वे विश्वास करते जाते हैं, वे उत्साह खो देते हैं; जैसे-जैसे वे विश्वास करते जाते हैं, उनके दिल में निराशा और मायूसी की भावनाएँ उत्पन्न होती हैं और उनमें पीछे हटने और हार मान लेने की भावनाएँ और विचार आते हैं। जहाँ तक परमेश्वर के सार की बात है, यह तो भूल ही जाओ कि वे इसमें विश्वास करेंगे या इसे मानेंगे या इसे स्वीकार करेंगे—जैसे-जैसे वे विश्वास करते जाते हैं, वे इस मसले के बारे में चिंता करने की सोचते तक नहीं हैं। इसीलिए, जब तुम संगति में कहते हो कि कोई चीज परमेश्वर की धार्मिकता और उसकी सर्वशक्तिमत्ता और संप्रभुता है और लोगों को इसे जानना और इसके प्रति समर्पण करना चाहिए तो मसीह-विरोधी बाहरी तौर पर कोई शोर नहीं करेंगे—वे कतई कोई विचार व्यक्त नहीं करेंगे। लेकिन अंदरूनी तौर पर उनके अंदर विकर्षण पैदा होगा : वे सुनना नहीं चाहेंगे; वे सुनने के लिए तैयार नहीं होंगे; उनमें से कुछ बस खड़े होकर चल देंगे। जब हर कोई धर्मोपदेश सुन रहा होता है, जब दूसरे लोग परमेश्वर के वचनों पर संगति कर रहे होते हैं, जब भाई-बहन पूरे जोश से अपनी अनुभवजन्य गवाहियों के बारे में संगति कर रहे होते हैं तो मसीह-विरोधी क्या कर रहे होते हैं? वे चाय पी रहे होते हैं, पत्रिकाएँ पढ़ रहे होते हैं, अपने फोन से खेल रहे होते हैं और निठल्ले बैठकर गप्पें मार रहे होते हैं। और इन मौन कार्यकलापों से विरोध और प्रतिरोध करते हुए वे अपने व्यवहारों से यह पुष्टि करने का प्रयास करते हैं कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह सब बेकार है : “तुम लोग महज चीजों को तर्कसंगत ठहराने की कोशिश कर रहे हो, खुद को मूर्ख बना रहे हो—परमेश्वर और सत्य का वास्तव में अस्तित्व नहीं है, और यह बिल्कुल असंभव है कि मानवजाति को परमेश्वर बचा लेगा!” उनकी निगाह में जो लोग सत्य में विश्वास करते हैं, परमेश्वर के प्रति समर्पण करते हैं और इस तथ्य पर विश्वास करते हैं कि परमेश्वर मानवजाति को बचा लेगा, वे सभी मूर्ख हैं—वे सभी बुद्धिहीन हैं और उन सभी को ठगा गया है। वे मानते हैं कि मनुष्य की किस्मत उसके अपने हाथ में है, कि वह दूसरों को इसकी योजना बनाने की अनुमति नहीं दे सकता, कि लोग कठपुतली नहीं हैं, बल्कि उनमें दिमाग है और उनमें समस्याओं के बारे में स्वतंत्र होकर सोचने की योग्यता है—और अगर कोई अपनी किस्मत का नियंत्रण भी अपने हाथ में नहीं ले सकता तो फिर वह कूड़ा है, हीन व्यक्ति है। इसलिए चाहे जो हो जाए, वे अपनी किस्मत का नियंत्रण परमेश्वर को नहीं सौंपना चाहते हैं। परमेश्वर जो कुछ भी करता है उसके प्रति मसीह-विरोधियों का यही रवैया होता है। वे शुरू से अंत तक ऐसे तमाशबीन और छद्म-विश्वासी बने रहते हैं जो शैतान के सेवकों की भूमिका निभाते हैं। वे मुफ्तखोर और उपद्रवी हैं—वे ऐसे कुकर्मी हैं जो चोरी-छिपे अंदर घुस आए हैं।

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