मद दस : वे सत्य का तिरस्कार करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग एक) खंड एक

आज अपनी संगति शुरू करने से पहले हम एक बातचीत सुनेंगे। दो लोग आपस में बात कर रहे हैं। पहला कहता है : “अगर मेरी काट-छाँट की गई तो भाई-बहन आगे से अपने कर्तव्य नहीं निभाना चाहेंगे।” दूसरा कहता है : “वे अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहेंगे? कौन सी बड़ी बात है। अगर मुझे बर्खास्त किया गया तो भाई-बहन नकारात्मक और कमजोर हो जाएँगे।” बातों में खुद को पिछड़ते देख पहले वाले ने कहा : “अगर मैं विश्वास रखना बंद कर दूँ तो मैं जहाँ हूँ वहाँ के सारे भाई-बहन मेरा अनुसरण करने लगेंगे।” यह सुनकर दूसरा बोला : “ठीक है, फिर तो तुम्हारी अहमियत मुझसे ज्यादा है। फिर भी, अगर मुझे बाहर निकाल दिया गया तो इस कलीसिया में बहुत-से लोग विश्वास रखना बंद कर देंगे। इस बारे में तुम क्या सोचते हो? मेरी अहमियत तुमसे ज्यादा है, है ना?” क्या तुम समझते हो कि इस बातचीत में वे क्या कह रहे हैं? उन दोनों में किस चीज के लिए होड़ मची है? (उनमें यह होड़ लगी है कि लोगों को जीतने में कौन ज्यादा सक्षम है, स्वतंत्र राज्य स्थापित करने में कौन ज्यादा सक्षम है; वे यह देख रहे हैं कि उनमें से कौन दूसरे की तुलना में थोड़ा अधिक चालाक है।) वे इस बात के लिए स्पर्धा कर रहे हैं कि कौन ज्यादा चालाक है, कौन ज्यादा क्षमतावान है, किसमें ज्यादा योग्यता है और उनमें से किसने ज्यादा लोगों को जीता है। क्या वे इस बात के लिए स्पर्धा कर रहे हैं कि किसमें ज्यादा सत्य वास्तविकता है? किसमें ज्यादा मानवता है? उनमें से सत्य को कौन ज्यादा समझता है? (नहीं। उनमें यह होड़ लगी है कि अगर उन्हें बर्खास्त कर दिया जाता है या बाहर निकाल दिया जाता है तो उनमें से कौन ज्यादा लोगों को अपने बचाव में जुटा लेगा।) यह कैसी योग्यता है जिसे लेकर उनमें होड़ मची है? उनमें यह होड़ मची है कि लोगों को नियंत्रित करने, जाल में फँसाने और गुमराह करने की क्षमता किसमें ज्यादा है। अंदाजा लगाओ : ये दोनों कैसे व्यक्ति हैं? (वे दोनों मसीह-विरोधी हैं।) वे क्या हैं? क्या वे दोनों ही बुरे लोगों, आततायियों की जोड़ी नहीं हैं? (हैं।) साफ-साफ देख सकते हैं कि वे बुरे लोगों की जोड़ी हैं—उनमें खुलेआम यह होड़ मची है कि बुराई करने की क्षमता किसमें ज्यादा है, लोगों को गुमराह और नियंत्रित करने में कौन ज्यादा सक्षम है, लोगों को जीतने में कौन ज्यादा सक्षम है, परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए उससे स्पर्धा करने में कौन ज्यादा सक्षम है। उनमें जो भी ज्यादा लोगों को नियंत्रित कर सके, उसी की क्षमता ज्यादा है। इसी बात पर उनमें होड़ मची है। मुझे बताओ, क्या ऐसे मसीह-विरोधी हैं जो ऐसी प्रतिस्पर्धाएँ करते हों? (हैं।) क्या वे इन्हें सरेआम करते हैं या फिर एक दूसरे से गुपचुप होड़ करते हैं? (गुपचुप।) तो क्या इस कहानी में दोनों के बीच हुई बातें असल में भी देखने को मिलती हैं? क्या यह वास्तविक है? (बिल्कुल।) यह देखते हुए कि वे एक दूसरे से गुपचुप होड़ लेते हैं, क्या वे ऐसी चीजें खुल्लम-खुल्ला कहेंगे? मसीह-विरोधियों की बड़ी तादाद चालाक और दुष्ट है; वे ऐसा सरेआम या सीधे तौर पर नहीं कहेंगे, ताकि लोगों को अपने खिलाफ ही गोला-बारूद न दे बैठें। लेकिन गुपचुप वे ऐसा ही सोचते हैं और यही वास्तव में करते भी हैं। लेकिन भले ही वे चीजों पर पर्दा डालने की कोशिश करते हों, चीजों को छिपाते हों और खुद छद्मवेश धारण करते हों, फिर भी उनकी मसीह-विरोधी प्रकृति और दुर्भावनापूर्ण प्रकृति छिपाई नहीं जा सकती है। इसका खुलासा होकर रहता है। हो सकता है कि वे कुछ भी ऊँचे स्वर में न कहें, और दूसरों के सुनने के लिए इसमें कुछ भी स्पष्ट नहीं होता, लेकिन वे कार्य करते हुए रत्तीभर भी आड़ नहीं लेते या अस्पष्टता की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ते, इसमें कोई लुकाव-छिपाव नहीं होता। वे लोगों के पीठ पीछे भी नहीं जाते, कोई छूट लेना तो दूर रहा। लोगों को जाल में फँसाने, गुमराह और नियंत्रित करने और स्वतंत्र राज्य स्थापित करने के लिए उनके व्यवहार और कार्यों में कोई अस्पष्टता या लापरवाही नहीं होती है। वे खुल्लम-खुल्ला परमेश्वर का विरोध करते हैं, वे खुल्लम-खुल्ला लोगों को जाल में फँसाते हैं और गुमराह करते हैं। उन्हें उम्मीद रहती है कि अगर उनकी काट-छाँट की गई तो कई भाई-बहन उनके बचाव में सामने आ जाएँगे, परमेश्वर और उसके घर का विरोध करेंगे, नकारात्मक होकर सुस्त पड़ जाएँगे और अपने कर्तव्य नहीं निभाएँगे। इससे वे खुश होंगे और उनकी इच्छा पूरी होगी। अगर उन्हें बर्खास्त कर दिया जाता है तो वे इस बात के लिए उतावले हो जाते हैं कि पर्दे के पीछे रहकर कई लोग नकारात्मक हो जाएँ, उनके लिए आवाज उठाएँ, उनके बचाव में आगे आएँ, उनकी ओर से सफाई और दलीलें दें। वे इस बात के लिए उतावले रहते हैं कि लोग उनकी खूबियों की फेहरिश्त दें, उनके सही होने का बचाव करें—यहाँ तक कि परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की आलोचना और निंदा करें, मन ही मन चुपचाप परमेश्वर के विरुद्ध हो जाएँ, उसकी धार्मिकता को नकारें, इस बात को नकारें कि परमेश्वर जो कुछ कहता और करता है वही सत्य है, कि ये सब सकारात्मक चीजें हैं। और अगर वे विश्वास रखना बंद कर दें तो वे इस बात के लिए उतावले हो जाते हैं कि हर कोई विश्वास न कर उनका अनुसरण करने लगे, उनके साथ ही चला आए, उनका अनुयायी बन जाए; वे इस बात के लिए उतावले रहते हैं कि हर व्यक्ति यह नकार दे कि परमेश्वर सत्य है, और यह विश्वास कर ले कि उनके पास सत्य है, कि वे जो कुछ भी करते हैं वह सही है और यह भी कि वे लोगों को बदल सकते हैं और उन्हें बचा सकते हैं। अगर बुराई करने पर कलीसिया उन्हें बहिष्कृत या निष्कासित कर देती है तो इस बात के लिए उतावले हो जाते हैं कि बहुत सारे लोग परमेश्वर का वजूद नकारकर संसार में लौट जाएँ और विश्वास न रखने वाले लोग बन जाएँ। इससे उन्हें खुशी मिलती है। इससे उनके दिल का संतुलन बहाल हो जाता है और उन्हें मुक्ति मिलती है। शैतानी स्वभाव के ये खुलासे, ये व्यवहार, ये सार और यहाँ तक कि ये जटिल, विस्तृत ख्याल और विचार—वे किसका प्रतिनिधित्व करते हैं? क्या ये लोग सच्चे भाई-बहन हैं? क्या उनकी परमेश्वर में सच्ची आस्था है? क्या वे वास्तव में परमेश्वर के प्रति समर्पण करते हैं? क्या वे रत्ती भर भी परमेश्वर का भय मानते हैं? (नहीं।) इससे यह देखा जा सकता है कि मसीह-विरोधी लोग सार से परमेश्वर के विरोधी हैं और वे परमेश्वर के दुश्मन हैं। क्या यह कथन सही है? क्या यह सत्य है? (यह सही है और सत्य है।) शत प्रतिशत ऐसा ही है। यह कथन सत्य है, सत्य से लेशमात्र भी कम नहीं है क्योंकि यह एक तथ्य है, ऐसा तथ्य है जो कभी नहीं बदलने वाला है। मसीह-विरोधी इसी तरह सोचते हैं और यही करते हैं। उनके सभी कार्य और कर्म उनकी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं से संचालित होते हैं और मसीह-विरोधियों की प्रकृति से संचालित और प्रेरित होते हैं। तो क्या मसीह-विरोधियों जैसे लोग बचाए जा सकते हैं? (नहीं।) वे हर मोड़ पर परमेश्वर के विरोधी हैं, हर मोड़ पर सत्य के विरोधी हैं। जो भी उनकी नजरों में उनके हितों को चोट पहुँचाता है, उनकी प्रतिष्ठा को नुकसान पहुँचाता है, उन्हें उनकी इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं से वंचित रखता है, उन्हें आशीष पाने की उम्मीद से वंचित रखता है, वे उनके प्रतिरोध में खड़े होकर उनके शत्रु बन जाएँगे—फिर उन्होंने जो भी किया वह चाहे सही हो या गलत। मसीह-विरोधियों की यही प्रकृति है। यही कारण है कि मसीह-विरोधियों जैसे लोगों ने चाहे जो भी गलत या बुरा किया हो या चाहे उनके किए हुए काम सिद्धांतों और परमेश्वर के घर की कार्य व्यवस्थाओं के विरुद्ध ही क्यों न हों, वे दूसरों को अपनी काट-छाँट करने या अपने को उजागर करने और सँभालने नहीं देंगे। जैसे ही ये चीजें उनके सिर पर आन पड़ती हैं तो वे न सिर्फ उनके प्रति समर्पण कर उन्हें स्वीकारने में विफल रहेंगे या यह मानने में विफल रहेंगे कि उन्होंने जो किया वह बुरा कर्म था—बल्कि, वे झूठे प्रत्यारोप लगाएँगे और जो भी तरीका जरूरी हुआ उससे अपनी प्रतिष्ठा को बहाल करने की कोशिश करेंगे। उनके पास जो भी साधन उपलब्ध हो उससे वे अपने पाप, अपनी गलतियाँ किसी दूसरे के सिर पर मढ़ने की कोशिश करेंगे और खुद कोई जिम्मेदारी नहीं लेंगे। और उससे भी आगे : उनकी सबसे बड़ी इच्छा यही रहती है कि लोगों को धोखा देकर गुमराह किया जाए ताकि वे उनके बुरे कर्मों के पक्ष में बहाने बनाएँ और उनके बचाव में दलीलें दें और अधिक से अधिक लोग उनके पक्ष में खड़े होकर उनकी तरफदारी कर सकें। यही वे सबसे ज्यादा देखना चाहते हैं।

हम यह कहानी यहीं खत्म करेंगे। तुम लोगों ने सही अनुमान लगाया : ये दोनों वाकई मसीह-विरोधी हैं। मसीह-विरोधियों के बीच ही ऐसी बातचीत हो सकती है, वे ऐसी चीजें कह सकते हैं और ऐसी चीजें चाह सकते हैं। सामान्य, भ्रष्ट लोगों के कभी-कभी ऐसे कुछ विचार हो सकते हैं लेकिन जब उनके साथ वास्तव में कुछ होता है तो वे खोजने और प्रार्थना करने के लिए परमेश्वर के समक्ष लौटेंगे। थोड़ा-थोड़ा करके वे समर्पण करने लगेंगे। जो भी सच्चे विश्वासी हैं, जो भी जमीर और विवेक वाले हैं, जब उनकी काट-छाँट की जाएगी या उन्हें बर्खास्त किया जाएगा तो उन सबमें कुछ न कुछ मात्रा में परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होगा। उनके पास समर्पण का रवैया होगा, समर्पण की इच्छा होगी। वे परमेश्वर के विरुद्ध खड़े होकर उससे शत्रुता नहीं करना चाहते। भ्रष्ट स्वभाव वाले एक साधारण व्यक्ति को इसी तरह पेश आना चाहिए। लेकिन मसीह-विरोधियों में ऐसा कुछ नहीं होता। वे चाहे कितने ही धर्मोपदेश सुन लें, वे अपनी इच्छाएँ नहीं त्याग पाएँगे और वे अपनी ऐसी महत्वाकांक्षाएँ नहीं त्याग पाएँगे जैसे कि लोगों को नियंत्रित करना, उन्हें जीतना और गुमराह करना। यही नहीं, ये चीजें बिल्कुल भी कम नहीं होंगी; जैसे-जैसे समय गुजरता है और परिस्थिति बदलती है, उनकी इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ और भी ज्यादा बदतर हो जाएँगी, और भी ज्यादा बढ़ जाएँगी। मसीह-विरोधियों और साधारण, भ्रष्ट लोगों के प्रकृति सार में यही मौलिक अंतर होता है।

अब हम मसीह-विरोधियों की विभिन्न अभिव्यक्तियों की मद नौ पर अपनी संगति समाप्त कर चुके हैं। इस समय हम मद दस पर संगति करेंगे : वे सत्य का तिरस्कार करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं। सत्य का तिरस्कार करना, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाना और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करना—इनमें से कोई एक भी अपने आप में काफी गंभीर है और कोई भी साधारण, भ्रष्ट स्वभाव का खुलासा नहीं है। व्यक्ति इनमें से किसी में भी यह देख सकता है कि ये मसीह-विरोधियों का जो सार अपने में समेटे हुए हैं उसमें क्रूरता और दुष्टता है। ये दो स्पष्ट और गंभीर तत्व हैं। इस उदाहरण में, मसीह-विरोधियों का सार बताने के लिए क्या अहंकार, हठधर्मिता और कपट जैसे विशेषणों का उपयोग किया जा सकता है? (नहीं।) इन विशेषणों के जरिये एक मसीह-विरोधी के सार की विशेषताओं के मर्म को समझना काफी मुश्किल होगा। मसीह-विरोधियों के सार को संक्षेप में बताने के लिए केवल दो स्वभावों—क्रूरता और दुष्टता—का इस्तेमाल किया जा सकता है।

हम एक-एक कर इन्हें देखेंगे। वे सत्य का तिरस्कार करते हैं—यहाँ “तिरस्कार” का क्या अर्थ है? (किसी चीज को हेय दृष्टि से देखना।) (किसी चीज को कमतर आँकना, उसकी उपेक्षा करना और उसे तुच्छ मानना।) (यह सोचना कि कोई चीज निंदा के लायक भी नहीं है।) तुम लोग जिन शब्दों का उपयोग कर रहे हो, उनका अर्थ काफी कुछ एक जैसा ही है। किसी चीज का “तिरस्कार” करने का अर्थ है इसका अनादर करना, इसे हेय दृष्टि से देखना, तुच्छ मानना, कमतर मानना और इसका तिरस्कार करना। आम तौर पर कहें तो इसका मतलब है किसी चीज का प्रतिरोध करना, इससे प्रतिकर्षित होना, अपने दिल की गहराई से इससे नफरत करना, इसे स्वीकार न करना और यहाँ तक कि इसकी द्वेषपूर्ण आलोचना और बदनामी करने के साथ ही इसकी भर्त्सना भी करना। तुम लोगों ने जो कहा उसकी तुलना में यह कैसा है? (यह अधिक ब्योरेवार और विशिष्ट है।) तुम लोगों ने जो कहा उससे यह अधिक विशिष्ट और व्यावहारिक है। तुम लोगों ने जो अधिकांश परिभाषाएँ दीं वे “तिरस्कार” की समानार्थी थीं। मैंने जो कहा वह “तिरस्कार” करने वाले कार्य और व्यवहार के सार का परिष्कार है; यह सत्य का तिरस्कार करने वाले व्यवहार और सार का ठोस और ब्योरेवार वर्णन है। इसका अर्थ यह है कि जब कोई व्यक्ति सत्य का तिरस्कार करता है तो वह जो करता है उससे, वह अपने दैनिक जीवन में सत्य से जैसे पेश आता है उससे और सत्य और सकारात्मक चीजों से जुड़े मामलों के प्रति वह दिल से जो रवैया अपनाता है उससे, लोग यह देख सकते हैं कि सत्य के प्रति उसका रवैया यही होता है : इसकी अस्वीकृति, इसका प्रतिरोध और इसके प्रति विमुखता—और यही नहीं इसकी आलोचना, निंदा और बदनामी भी। ये सब विशिष्ट तरीके हैं जिनमें “सत्य का तिरस्कार” अभिव्यक्त और प्रकट होता है—ये इतने विशिष्ट हैं कि इनमें सत्य के प्रति ऐसे व्यक्ति के रवैये और इससे पेश आने के तरीके का हर पहलू आ जाता है : वे सत्य से, परमेश्वर के वचनों से और सकारात्मक चीजों से प्रतिकर्षित होते हैं। वे अपने दिल की गहराई से इनका प्रतिरोध करते हैं और इन्हें स्वीकारते नहीं हैं। जब तुम उन्हें किसी चीज के बारे में बताते हो कि ये परमेश्वर के वचन हैं, कि यह सत्य है तो उनका रवैया क्या होगा? “परमेश्वर के वचन, सत्य—इनकी परवाह कौन करता है! तुम परमेश्वर के वचनों और सत्य को हर चीज की जगह इस्तेमाल करते हो। हम लोग जो जीवन जीते हैं क्या उसमें परमेश्वर के वचनों के अलावा कोई और चीज नहीं है? हमने इतनी ज्यादा किताबें पढ़ी हैं, हमने इतनी ज्यादा शिक्षा प्राप्त की है—क्या यह सब बेकार था? लोगों में मन-मस्तिष्क होता है; उनमें स्वतंत्र होकर समस्याओं के बारे में सोचने की क्षमता होती है। हर चीज को परमेश्वर के वचनों और सत्य के आधार पर देखना—क्या यह कुछ ज्यादा ही हठधर्मिता नहीं है?” जब उनके साथ कुछ होता है और तुम उनसे कहते हो कि उन्हें परमेश्वर से प्रार्थना करने, उसे खोजने और उसके वचन पढ़ने की जरूरत है तो उनका रवैया क्या होगा? “‘परमेश्वर के वचन पढ़ूँ’? जब हमें कुछ होता है तो यह हमारी अपनी समस्या होती है। इंसान की समस्याओं का परमेश्वर से क्या लेना-देना है? इनका सत्य से क्या वास्ता है? क्या तुम्हें वाकई लगता है कि परमेश्वर के वचनों में सब कुछ है, कि ये कोई विश्वकोश हैं? जरूरी नहीं कि परमेश्वर के वचनों में हर चीज का उल्लेख हो। लोगों को समस्याएँ खुद सँभालनी होती हैं और विशिष्ट समस्याओं के लिए विशिष्ट समाधान की आवश्यकता होती है। और अगर तुम किसी चीज को सँभाल नहीं सकते तो इंटरनेट में देखो या इसके बारे में किसी विशेषज्ञ से सलाह लो। यहाँ हमारी कलीसिया में तो कॉलेज के प्रोफेसर भी हैं और बहुत सारे भाई-बहन कॉलेज के छात्र हैं। क्या हम सब लोग मिलकर सत्य की बराबरी नहीं कर सकते हैं?” जैसे ही तुम परमेश्वर को खोजने और सत्य को खोजने का उल्लेख करते हो, जैसे ही तुम कहते हो कि उन्हें परमेश्वर के वचन पढ़ने चाहिए, तो वे तुम्हें तुच्छ समझने लगते हैं। वे इस तरह अभ्यास नहीं करना चाहते; वे इसे बहुत ही कमतर और अपमानजनक मानते हैं और उन्हें लगता है कि इससे वे नालायक नजर आएँगे। क्या किसी चीज के प्रति तिरस्कार इसी रूप में सामने नहीं आता है? सत्य का तिरस्कार करने की यह एक असली अभिव्यक्ति है, एक असली व्यवहार है। ऐसे लोगों की कोई कमी नहीं है। हो सकता है वे अक्सर धर्मोपदेश सुनते हों और परमेश्वर के वचनों के ग्रंथ अपने हाथों में उठाए रहते हों और परमेश्वर के घर में कर्तव्य निभाते हों लेकिन जब उनके साथ कुछ होता है और उन्हें सत्य खोजने और परमेश्वर के वचन पढ़ने को कहा जाता है तो उन्हें यह हास्यास्पद लगता है और वे इससे विमुख महसूस करते हैं। वे इसे स्वीकार नहीं पाते; वे इससे प्रतिकर्षित भी होते हैं। इसीलिए जब उनके साथ कुछ होता है तो इसे हल करने के लिए वे इंसानी तरीके इस्तेमाल कर दावा करते हैं : “विशिष्ट मामलों के लिए विशिष्ट समाधान की आवश्यकता होती है, और लोगों की समस्याएँ लोगों को ही हल करनी होती हैं। परमेश्वर को खोजने की कोई जरूरत नहीं है। परमेश्वर को हर चीज का ख्याल रखने की जरूरत नहीं है। यही नहीं, कुछ चीजें ऐसी होती हैं जिनका ख्याल परमेश्वर नहीं रख सकता है। ये हमारे निजी मामले होते हैं जिनका परमेश्वर से कोई लेना-देना नहीं है और सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। परमेश्वर को हमारी निजी स्वतंत्रता में दखल नहीं देना चाहिए और उसे हमारे निजी मामलों में दखल नहीं देना चाहिए। अपने विकल्प चुनने का हमें अधिकार है—और हमें यह चुनने का अधिकार है कि हम कैसे जिएँ, हम कैसे आचरण करें और कैसे बोलें। सत्य और परमेश्वर के वचन तो सबसे बड़ी जरूरत के समय के लिए हैं, संकट काल के लिए हैं, सबसे बड़ी लाचारी के समय के लिए हैं, जब किसी व्यक्ति के साथ कुछ ऐसा हो जाए जिसे वह हल न कर सके, जिससे निपटने का कोई उपाय न हो—यही वह समय होता है जब उसे परमेश्वर के वचन निकालकर इन्हें थोड़ा पढ़ना चाहिए ताकि उसे राहत मिले और थोड़ी-सी आध्यात्मिक दिलासा मिले। यही काफी है।” इसमें यह देखा जा सकता है कि मसीह-विरोधियों जैसे लोगों का सत्य के प्रति रवैया स्पष्ट रूप से ऐसा है जो यह नहीं मानता कि सत्य मनुष्य का जीवन हो सकता है या लोगों के असल जीवन में जो कुछ भी होता है उससे परमेश्वर के वचन संबंधित हैं। और वे इस तथ्य को तो और भी कम मानते हैं कि मनुष्य का सब कुछ परमेश्वर के हाथ में है।

मसीह-विरोधी लोग सत्य का तिरस्कार करते हैं; इसका दायरा बहुत बड़ा है। मसीह-विरोधी लोग सत्य का तिरस्कार करते हैं यह कहने का क्या अर्थ है? इसका विषय क्षेत्र क्या है? हम इसे गहन-विश्लेषण के लिए तीन मदों में बाँटेंगे। इस तरीके से तुम लोगों को ज्यादा स्पष्टता मिल जाएगी। पहली बात, वे परमेश्वर की पहचान और सार का तिरस्कार करते हैं। क्या परमेश्वर की पहचान और सार सत्य का संकेत नहीं देते? (देते हैं।) दूसरी बात, वे उस देह का तिरस्कार करते हैं जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है। परमेश्वर ने जो देह धारण की और वह जो कार्य करता है, क्या वे सत्य नहीं हैं? (सत्य हैं।) जो बच गई वह बात है कि वे परमेश्वर के वचनों का तिरस्कार करते हैं। पहली बात है कि वे परमेश्वर की पहचान और सार का तिरस्कार करते हैं; दूसरी बात को संक्षेप में यह कह सकते हैं कि वे मसीह का तिरस्कार करते हैं; और तीसरी बात, वे परमेश्वर के वचनों का तिरस्कार करते हैं। हम इनमें से हरेक का अलग-अलग गहन-विश्लेषण करेंगे।

I. परमेश्वर की पहचान और सार का तिरस्कार करना

हम सबसे पहले इस बारे में संगति करेंगे कि परमेश्वर की पहचान और सार के प्रति मसीह-विरोधियों का कैसा रवैया होता है जो यह दिखाएगा कि इस मामले में वे सत्य का तिरस्कार करते हैं। परमेश्वर की पहचान और सार के प्रति एक मसीह-विरोधी का रवैया क्या होता है? इन चीजों के बारे में वह क्या सोचता है? वह इन्हें कैसे परिभाषित करता है? वह इन्हें कैसा मानता है? परमेश्वर के सार में क्या निहित है? उसका धार्मिक स्वभाव, उसकी सर्वशक्तिमत्ता, उसकी पवित्रता और उसकी विशिष्टता। जहाँ तक इस तथ्य की बात है कि उसकी पहचान सृष्टिकर्ता की है, वह समस्त मानवजाति की नियति का संप्रभु है तो क्या मसीह-विरोधी भी ऐसा मानते हैं? (नहीं।) तो उनके ऐसा न मानने की अभिव्यक्ति खास तौर पर कैसे होती है? (मसीह-विरोधी रोज अपने सामने परमेश्वर से आने वाले लोगों, घटनाओं या चीजों को स्वीकार नहीं करते; बल्कि वे सिर्फ इन मसलों का जरूरत से ज्यादा विश्लेषण करते हैं और मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर इनसे निपटते हैं।) वे मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर इनसे निपटते हैं? तुमने जो कहा उसका पहला हिस्सा सही था : जब किसी मसीह-विरोधी के साथ कुछ होता है तो वह सिर्फ मसले का जरूरत से ज्यादा विश्लेषण करता है। लेकिन दूसरा हिस्सा जिसमें तुमने कहा कि वे मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर चीजों से निपटते हैं—ये ऐसे व्यवहार हैं जो साधारण, भ्रष्ट लोग करते हैं। हम यहाँ जिस बारे में संगति और जिसे उजागर कर रहे हैं वह यह है कि मसीह-विरोधी सत्य का और इस तथ्य का तिरस्कार करते हैं कि मानवजाति की नियति पर परमेश्वर की संप्रभुता है। इसके साक्ष्य ढूँढ़ने के लिए तुम्हें मसीह-विरोधियों के प्रासंगिक तौर-तरीके और व्यवहार खोजने पड़ेंगे। वास्तव में मसीह-विरोधियों के शब्दों में ही कहें तो वे यह तो मानते हैं कि “मनुष्य को परमेश्वर ने बनाया है, मनुष्य की नियति परमेश्वर के हाथ में है और लोगों को परमेश्वर के प्रभुत्व के प्रति समर्पण करना चाहिए”—लेकिन जब उनके साथ चीजें घटित होती हैं तो क्या वे तब भी ऐसा ही स्वीकार करते हैं? उनके ये शब्द बहुत अच्छे और सही हैं लेकिन जब उनके साथ कुछ घटित होता है तो वे इस तरीके से अभ्यास नहीं करते हैं। अपने साथ कुछ घटित होने पर चीजों से निपटने का उनका तरीका और रवैया ही यह प्रकट कर देते हैं कि वे जो शब्द कहते हैं वे जुमले होते हैं, सच्चा ज्ञान नहीं। जब उनके साथ चीजें घटित होती हैं तो उनका किस प्रकार का दृष्टिकोण, उनके कौन-से विचार, कथन और रवैये यह साबित करते हैं कि उनमें एक मसीह-विरोधी का सार है? जब मसीह-विरोधी के साथ कोई चीज घटित होती है तो क्या वह अपनी पहली प्रतिक्रिया में इस तथ्य को स्वीकार पाता है? शांत होकर परमेश्वर के समक्ष समर्पण करना और परमेश्वर द्वारा इंतजाम किए गए परिवेश को स्वीकार करना, फिर चाहे यह अच्छा हो या बुरा और चाहे इससे उसे लाभ हो या न हो—क्या उसका इसी तरह का रवैया होता है? जाहिर है, उसका ऐसा कोई रवैया नहीं होता। जब उसके साथ कुछ होता है तो उसका पहला विचार यही होता है कि इससे उसके हितों और पद पर किस प्रकार असर पड़ेगा; फिर वह इससे निकलने के प्रपंच रचता है, इसे टालकर बाहर निकलने का रास्ता ढूँढ़ता है। वह उस चीज की जिम्मेदारी नहीं लेना चाहता और परोक्ष रूप से तर्क-वितर्क और बहाने ढूँढ़ता है; इसके समाधान के लिए मानवीय तौर-तरीके इस्तेमाल करता है और समस्या का विश्लेषण करने और समाधान निकालने के लिए अपने दिमाग का इस्तेमाल करता है। यहाँ तक कि वह जिम्मेदारी दूसरों पर डाल देता है, शिकायत करता है कि यह व्यक्ति गलत है और वह व्यक्ति जैसा कहा जाता है वैसा नहीं करता, इस बात पर पछताता है कि वह शुरू से ही लापरवाही और अनदेखी कर रहा था, कि उसने शुरू से ही अमुक-अमुक तरीके से कार्य किया। अपने सामने आने वाली परिस्थितियों के प्रति, उन परिस्थितियों के प्रति जिनकी योजना परमेश्वर बनाता है, वह स्पष्ट रूप से प्रतिरोध करने, टालने, नकारने और अस्वीकार करने का रवैया अपनाता है। उन परिस्थितियों के प्रति उसकी पहली प्रतिक्रिया उनके आगमन का विरोध करने की होती है; उनकी दूसरी प्रतिक्रिया उन्हें निपटाने के लिए मानवीय तौर-तरीके इस्तेमाल करने, मानवीय साधनों से तूफान को शांत करने, यहाँ तक कि तथ्यों को छिपाने और अपने कारण कलीसिया के कार्य और भाई-बहनों के जीवन प्रवेश को हुए नुकसान को छिपाने के लिए मानवीय साधनों का उपयोग करने की होती है। वह अपने बुरे कर्मों को लुकाने-छिपाने के लिए मानवीय साधनों का इस्तेमाल करने में अपनी सारी मानसिक ऊर्जा लगा देता है। उसने जो बुरी चीजें की हैं वह उनकी प्रकृति को स्वीकार नहीं करता, न ही यह स्वीकार करता है कि उसने किन सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन किया है, यहाँ तक कि वह अपने आसपास के लोगों को निर्देश देता है : “यह बात बाहर मत जाने देना। हममें से कोई भी कुछ न बताए; कोई दूसरा न जान पाए।” न केवल वे समर्पण नहीं करते हैं और इन परिस्थितियों को स्वीकार करने से इनकार करते हैं—बल्कि वे झूठे प्रत्यारोप भी लगाते हैं, धोखा देते हैं और तथ्यों को दबाते हैं, इस उम्मीद में तथ्यों की असलियत छिपाने की कोशिश करते हैं कि वे पहाड़ को फिर से राई बना देंगे, इसका महत्व घटाने की कोशिश करते हैं ताकि उनसे बड़े अगुआ और परमेश्वर इस बारे में न जान पाएँ। मसीह-विरोधी लोग अपने पर आन पड़ी चीजों को इसी तरह सँभालते हैं। क्या चीजों को सँभालने का उनका तरीका उनके बोले जुमलों से मेल खाता है? उनके जुमलों और चीजें घटित होने पर उनके रवैये में से कौन-सी चीज उनके प्रकृति सार का खुलासा है? (चीजें घटित होने के समय उनका रवैया।) तो फिर यह रवैया वास्तव में क्या है? क्या उनमें समर्पण का रवैया होता है? क्या उनमें ऐसा रवैया होता है कि वे परमेश्वर के अनुशासन और अपनी काट-छाँट को विनम्रतापूर्वक स्वीकार कर लें? क्या उनमें परमेश्वर की संप्रभुता के प्रति समर्पण करने की इच्छा होती है? क्या उनका रवैया और वास्तविक व्यवहार इस सच्चे विश्वास वाला है कि उनके साथ चाहे जो हो जाए, वह परमेश्वर ही है जिसकी संप्रभुता मनुष्य की समस्त चीजों पर है? (नहीं।) बिल्कुल भी नहीं। तो फिर उनका रवैया कैसा है? यह बिल्कुल स्पष्ट है : चीजों को ठुकराने, चीजों को छिपाने और धोखा देने का उनका इरादा होता है; परमेश्वर का अंत तक विरोध करने और उसे कार्य न करने देने और संप्रभु न होने देने का इरादा होता है। उन्हें लगता है कि उनमें हर चीज को सही कर देने की काबिलियत और क्षमता है। उनके क्षेत्र में कोई उनके कार्य में दखल नहीं दे सकता या उन्हें नियंत्रित नहीं कर सकता—वे सबसे बड़े हैं। तो क्या उस समय उस परमेश्वर का अभी भी अस्तित्व होता है जिसमें वे विश्वास रखते हैं? बिल्कुल भी नहीं—वह अब खोखला खोल है। तो फिर उस क्षण उनकी आस्था कैसी होती है? यह अस्पष्ट और थोथी होती है और इसमें कपट होता है। उनमें वास्तविक आस्था नहीं होती है।

जब मसीह-विरोधियों के साथ कुछ घटित नहीं होता तो वे धर्मोपदेश सुनने, परमेश्वर के वचन पढ़ने और भजन सीखने का दिखावा करते हैं। वे कलीसियाई जीवन में हिस्सा लेते हैं और कलीसिया की सारी कार्य परियोजनाओं में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हुए अक्सर कहते हैं : “हम परमेश्वर में विश्वास करते हैं, इसलिए हमें उसकी संप्रभुता में विश्वास करना होगा और उसकी संप्रभुता के आगे समर्पण करना होगा। सब कुछ परमेश्वर के हाथ में है और वह सब अच्छा करता है।” यही नहीं, वे अक्सर दूसरों को निर्देश देते हैं : “लोगों को अपने ही अनुसार कदम उठाने पर अड़ना नहीं चाहिए। जब कुछ हो जाता है तो उन्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए क्योंकि सब कुछ उसी के हाथ में है।” वे ये जुमले बिल्कुल बुलंद आवाज में सुनाते हैं और उनका रवैया काफी दृढ़ और सुनिश्चित लगता है—लेकिन वे इस लिहाज से उम्मीदों पर खरे नहीं उतर पाते कि जब उनके साथ कुछ घटित होता है तो तथ्यों की सच्चाई और वे सही मायने में जो प्रकट करते हैं, उससे उनका सच्चा आध्यात्मिक कद और सार सरासर और पूरी तरह से उजागर हो जाता है। यह उजागर हो जाता है कि वे न तो सृष्टिकर्ता की पहचान और सार में विश्वास रखते हैं, न ही परमेश्वर के सब चीजों के ऊपर संप्रभु होने के तथ्य पर विश्वास करते हैं। वे इन तथ्यों को स्वीकार करने के इच्छुक नहीं होते, इन्हें मानना तो दूर की बात है। वे इन्हें मानने या स्वीकारने में नाकाम ही नहीं रहते, बल्कि इससे भी भयंकर बात यह है कि वे अंत तक हठपूर्वक विरोधी बने रहते हैं। जब उनके साथ कुछ होता है तो वे एक चीज को नहीं तो दूसरी चीज के बारे में शिकायत करते हैं। वे परमेश्वर की इच्छाओं और इरादों को खोजने के लिए उसके समक्ष शालीन और समर्पित भाव से पेश नहीं आते; वे समर्पित भाव से परमेश्वर के समक्ष आकर उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण नहीं करते और उसके आयोजनों और संप्रभुता को स्वीकार नहीं करते; और वे समर्पित भाव से उसके अनुशासन को स्वीकार नहीं करते। बल्कि, वे मानवीय तरकीबों और चालाकियों और मानवीय साधनों से मामले को निपटाना चाहते हैं—मामले को खत्म करना चाहते हैं, दूसरों और परमेश्वर की आँखों में धूल झोंकना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि अगर वे मामले को शांत कर देते हैं तो वे इसे आसानी से दबा देंगे। उनका मानना है कि अगर वे इस मामले को शांत कर देते हैं और उनकी गलतियाँ और उनका भ्रष्ट स्वभाव ढक जाता है और किसी को भी इन चीजों के बारे में पता नहीं चलता है और कोई भी उनके साथ किसी भी गड़बड़ का पता नहीं लगा पाता है या मामले को आगे नहीं बढ़ा पाता है तो वे कोई बड़ा काम पूरा कर चुके होंगे। तब वे निश्चिंत महसूस करेंगे। एक मसीह-विरोधी के साथ जब कुछ घटित होता है तो उसके शब्द और व्यवहार, कर्मों और कार्यों के आधार पर आकलन किया जाए और साथ ही उसके व्यवहार और प्रदर्शन के सार के आधार पर देखा जाए तो वह परमेश्वर की संप्रभुता का घोर प्रतिरोधी होता है। वह इससे अंत तक हठपूर्वक लड़ेगा। उसने जो भी गड़बड़ी की हो, वह परमेश्वर को अपनी काट-छाँट करने या उसे अनुशासित करने के लिए परिवेशों का इंतजाम करने की अनुमति नहीं देगा, और परमेश्वर को उसे बेनकाब करने और उजागर करने की अनुमति तो बिल्कुल नहीं देगा। जैसे ही उसे उजागर किया जाता है, जैसे ही उसकी पोल खुलती है, वह घबरा जाता है, परेशान और कुपित हो जाता है; यहाँ तक कि वह पासा पलटने की कोशिश करता है और अपने बचाव में पहले से ही यह आरोप लगाने लगता है कि परमेश्वर ने उसकी रक्षा नहीं की, कि उसे आशीष नहीं दिया, कि वह पक्षपाती है—वरना ऐसा क्यों होता है कि जब उसके साथ और दूसरों के साथ एक जैसी चीजें होती हैं तो परमेश्वर दूसरे व्यक्ति का खुलासा नहीं करता, सिर्फ उसी का करता है? वरना ऐसा क्यों होता है कि जब एक जैसी चीजें होती हैं तो परमेश्वर दूसरे व्यक्ति को अनुशासित नहीं करता, उसी को करता है? वह यहाँ तक कहता है कि, “यह देखते हुए कि परमेश्वर धार्मिक नहीं है, मुझे अपनी रक्षा मानवीय तौर-तरीकों से, अपने तौर-तरीकों से करनी पड़ेगी।” ऐसे लोग मानते हैं कि जब वे कुछ गलत करते हैं तो परमेश्वर को उन्हें अनुशासित और उजागर नहीं करना चाहिए, बल्कि उनकी गलतियों को छिपाना चाहिए, हर मोड़ पर उन्हें आसान रास्ता देकर आगे बढ़ने देना चाहिए, उनके हर गलत कृत्य को प्रश्रय देना चाहिए। वे मानते हैं कि परमेश्वर यही करेगा। अगर परमेश्वर उन्हें बेनकाब करता है और उनके साथ कुछ चीजें घटित होने पर उन पर खास मेहरबानी नहीं करता और उन्हें विशेष दृष्टि नहीं देता या उनकी अगुआई नहीं करता तो उन्हें लगता है कि ऐसा परमेश्वर प्यारा नहीं है, कि वह उनकी नियति का संप्रभु बनने के लायक नहीं है। इसलिए जब उनके साथ कुछ होता है तो वे एक सृजित प्राणी के रूप में परमेश्वर के सामने समर्पण नहीं करना चाहते और जो कुछ भी उससे आता है उसे स्वीकार नहीं करना चाहते; बल्कि, वे चाहते हैं कि परमेश्वर उनकी सेवा करे, हर स्थिति में उन्हें फायदे पहुँचाए, यहाँ तक कि उनके किसी भी अपराध के लिए या उनकी किसी भी भ्रष्टता, विद्रोहीपन या प्रतिरोध के लिए उन्हें न फटकारे या अनुशासित न करे। मसीह-विरोधियों के हर व्यवहार और अभिव्यक्ति में यह देखा जा सकता है कि उन्हें परमेश्वर में सच्ची आस्था नहीं होती है। उनकी तथाकथित सच्ची आस्था बस फायदे बटोरने और लाभ कमाने का प्रयास है। ऐसे लोग परमेश्वर के आयोजनों के प्रति समर्पण नहीं करते, बल्कि वे परमेश्वर का आयोजन करते हैं, वे परमेश्वर का यह फायदा उठाना चाहते हैं कि परमेश्वर उनके लिए सभी कार्य करे और उनके लिए द्वार खोले। भ्रष्ट सृजित प्राणी के रूप में वे परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं को या उसके उद्धार को नहीं स्वीकारते। बल्कि, उन्हें लगता है कि परमेश्वर में विश्वास कर वे उस पर असाधारण कृपा कर रहे हैं और परमेश्वर को यह बात याद रखनी चाहिए, उनकी रक्षा करनी चाहिए, उन्हें बिना शर्त आशीष देना चाहिए, चाहे उन्होंने जैसी भी बुरी चीजें की हों उन्हें विशेष क्षमादान देकर क्षमा कर देना चाहिए। मसीह-विरोधी किस्म के लोग वास्तव में बुरे होते हैं। उनमें बिल्कुल भी शर्म नहीं होती। वे यह भी नहीं जानते कि वे किस किस्म की चीज हैं या वे कौन हैं। इसलिए जब उनके साथ कुछ होता है तो वे निर्लज्ज होकर बहाने और स्पष्टीकरण पेश करते हैं, अपने पक्ष में दलीलें पेश करते हैं, अपनी जिम्मेदारी दूसरों के सिर पर डालते हैं और तथ्यों को छिपाते हैं—वे अंत तक परमेश्वर का विरोध करते हैं। वे डरते हैं कि अगर उन्हें बेनकाब कर दिया गया और लोग उनकी असलियत जान गए तो उनके पास कभी भी रुतबा या प्रतिष्ठा नहीं रहेगी। परमेश्वर में उनकी आस्था उनकी जुबान तक सीमित रहती है; वे खुद को बिल्कुल भी नहीं खपाते, वास्तविक ढंग से समर्पण नहीं करते, स्वीकार करने के करीब तो वे बिल्कुल भी नहीं पहुँचते हैं। इसलिए परमेश्वर की पहचान के तथ्य के लिहाज से किसी मसीह-विरोधी के सार में यह देखा जा सकता है कि वह अपने दिल की गहराई में प्रतिरोधी है—वह परमेश्वर को न तो अपनी नियति का संप्रभु बनने देना चाहता है, न अपनी सारी चीजों की योजना बनाने देना चाहता है। ऐसे लोग परमेश्वर को संप्रभु नहीं होने देना चाहते हैं—वे किसे संप्रभु होने देना चाहेंगे? वे चाहते हैं कि अंतिम निर्णय उन्हीं का चले, जिसका निहितार्थ है : शैतान को चीजों में हेरफेर करने देना, भ्रष्ट स्वभाव और शैतान के भ्रष्ट सार को अपना जीवन बनने देना और अपने दिल पर राजा की तरह राज करने देना। ऐसा ही होता है। और जहाँ तक परमेश्वर के सार की बात है, एक मसीह-विरोधी इससे कैसे पेश आता है? परमेश्वर के सार के तत्वों पर एक मसीह-विरोधी संदेह करता है। वह विश्वास नहीं करता; संदेह करता है; इन सभी तत्वों को लेकर उसके मन में भर्त्सना के साथ ही धारणाएँ भी होती हैं। समय-समय पर वह इन तत्वों का विश्लेषण और व्याख्या करने के लिए अपनी कल्पनाओं, ज्ञान और दिमाग का इस्तेमाल तक करता है। कुछ मूर्ख लोग तो यहाँ तक मानते हैं कि उनकी व्याख्याएँ काफी अच्छी, आध्यात्मिक, न्यायसंगत और व्यावहारिक होती हैं। यह तो और भी घिनौनी बात है।

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