मद छह : वे कुटिल तरीकों से व्यवहार करते हैं, वे स्वेच्छाचारी और तानाशाह होते हैं, वे कभी दूसरों के साथ संगति नहीं करते, और वे दूसरों को अपने आज्ञापालन के लिए मजबूर करते हैं (खंड पाँच)
मसीह-विरोधी स्वेच्छाचारी और तानाशाह होते हैं, कभी दूसरों के साथ संगति नहीं करते, और सभी मामलों में अंतिम निर्णय अपना ही रखेंगे—क्या ये सभी समस्याएँ स्पष्ट रूप से दिखाई नहीं देतीं? दूसरों के साथ संगति करना और सिद्धांतों की खोज करना औपचारिकता या सतही प्रक्रिया नहीं होती; इसका उद्देश्य क्या होता है? (सिद्धांतों के साथ अपने कर्तव्यों का पालन करना, और उनका निर्वहन करने में एक मार्ग रखना।) सही है; यह अपने कर्तव्यों के निर्वहन में सिद्धांतों और मार्ग को रखने में सक्षम होना है। तुम्हें पहले यह समझना चाहिए कि केवल परमेश्वर के वचनों में सत्य की खोज करके और सिद्धांतों को समझकर ही कोई व्यक्ति अपने कर्तव्य को प्रभावी ढंग से निभा सकता है। यदि तुम समस्याओं को हल करने के लिए सत्य पर संगति करते हो, तो क्या दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए? किन लोगों को शामिल करना चाहिए? सही व्यक्तियों को चुना जाना चाहिए; तुम्हें मुख्य रूप से अच्छी काबिलियत वाले कुछ लोगों के साथ संगति करनी चाहिए जो सत्य को समझ सकते हैं, क्योंकि इससे प्रभावी परिणाम प्राप्त होंगे। यह आवश्यक है। यदि तुम ऐसे भ्रमित और खराब काबिलियत वाले लोगों को चुनते हो, जिनमें समझ की कमी है, जिनके लिए कोई भी चर्चा उन्हें सत्य को समझने या उस तक पहुँचने नहीं देती, तो भले ही प्रचुरता के साथ सत्य की संगति की जाए, इससे कोई परिणाम नहीं निकलेगा। कलीसिया में जो भी समस्याएँ उत्पन्न होती हैं, उसके बावजूद, परमेश्वर के चुने हुए लोगों को हक है कि उन्हें सूचित किया जाए और उन्हें कलीसिया के कार्य की स्थिति और मौजूदा समस्याओं के बारे में पता होना चाहिए। यदि अगुआ और कार्यकर्ता अपने से ऊपर के लोगों को धोखा देते हैं और अपने से नीचे के लोगों से सत्य को छिपाते हैं, दूसरों को गलत साबित करने के तरीके अपनाते हैं, तो परमेश्वर के चुने हुए लोगों को उन्हें उजागर करने और उनकी रिपोर्ट करने, या मामले को उच्च अधिकारियों तक ले जाने का अधिकार है। यह परमेश्वर के चुने हुए लोगों का कर्तव्य और दायित्व भी है। कुछ नकली अगुआ स्वेच्छाचारी और तानाशाही तरीके से काम करते हैं, कलीसिया में परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नियंत्रित करते हैं। यह परमेश्वर का प्रतिरोध और विरोध है, यह मसीह-विरोधियों का निरंतर अभ्यास होता है। यदि परमेश्वर के चुने हुए लोग इसे उजागर नहीं करते और रिपोर्ट नहीं करते, और कलीसिया के काम में अड़चन पैदा होती है या वह थम जाता है, तो इसके लिए सिर्फ अगुआ और कार्यकर्ता ही जिम्मेदार नहीं होते, बल्कि परमेश्वर के चुने हुए लोग भी जिम्मेदार होते हैं, क्योंकि ये परमेश्वर के चुने हुए लोग ही होते हैं जो नकली अगुआओं और मसीह-विरोधियों द्वारा कलीसिया में सत्ता का इस्तेमाल किए जाने पर पीड़ित होते हैं, जो संभावित रूप से उद्धार प्राप्त करने के उनके अवसर को खतरे में डाल देता है। इसलिए परमेश्वर के चुने हुए लोगों के पास नकली अगुआओं और मसीह-विरोधियों की रिपोर्ट करने और उन्हें उजागर करने का अधिकार और जिम्मेदारी होती है, जो कलीसिया के काम और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश के लिए फायदेमंद है। कुछ अगुआ और कार्यकर्ता कहते हैं : “तुम सभी लोग कहते हो कि मैं स्वेच्छाचारी और तानाशाह हूँ, है न? इस बार मैं ऐसा नहीं रहूँगा। मैं सभी को अपनी राय व्यक्त करने दूँगा। एक दिन, दो दिन—तुम्हें उसे साझा करने में जितना भी समय लगे, इंतजार करूँगा।” कभी-कभी कुछ विशेष मुद्दों से जूझते समय बिना समाधान के कई दिनों तक विवाद चलते रहते हैं, और वे बस इंतजार करते रहते हैं। वे काम को आगे बढ़ाने से पहले सभी के आम सहमति पर पहुँचने तक इंतजार करते हैं। इससे काम में कितनी देरी होती है? इससे चीजों में बहुत ज्यादा देरी होती है; यह स्पष्ट रूप से गैरजिम्मेदारी की अभिव्यक्ति है। अगर कोई अगुआ या कार्यकर्ता निर्णय नहीं ले सकता तो वह कलीसिया के काम का प्रभावी ढंग से प्रबंधन कैसे कर सकता है? कलीसिया के काम में अगुआओं और कार्यकर्ताओं के पास निर्णय लेने का अधिकार होता है, तो भाई-बहनों को सूचित किए जाने का अधिकार होता है। हालाँकि, अंततः यह अगुआ और कार्यकर्ता ही होते हैं जिन्हें निर्णय लेना चाहिए। यदि कोई अगुआ या कार्यकर्ता निर्णय लेने में असमर्थ होता है, तो उसकी काबिलियत बहुत खराब होती है, और वे अगुआई की भूमिकाओं के लिए उपयुक्त नहीं होते। भले ही वे अगुआ हों, वे वास्तविक काम नहीं कर सकते या अपने कर्तव्य ऐसे तरीके से नहीं कर सकते जो मानक स्तर का हो। कुछ अगुआ और कार्यकर्ता एक ही मुद्दे पर लंबे समय तक बहस करते रहते हैं, निर्णय लेने में असमर्थ होते हैं, और अंत में जो भी अधिक ताकतवर होता है, वे उसके साथ चले जाते हैं। क्या यह दृष्टिकोण सिद्धांत-सम्मत है? (नहीं।) ये किस तरह के अगुआ हैं? ये बस भ्रमित लोग हैं। अगर तुम कहते हो, “मसीह-विरोधी स्वेच्छाचारी और तानाशाह होते हैं, और मुझे उन जैसा हो जाने का डर है; मैं मसीह-विरोधी के रास्ते पर नहीं चलना चाहता। मैं सभी के अपनी राय व्यक्त करने का इंतजार करूँगा, और फिर निष्कर्ष निकालूँगा और निर्णय के लिए एक उदार दृष्टिकोण का सारांश दूँगा”—क्या यह स्वीकार्य है? (नहीं।) क्यों नहीं? अगर परिणाम सत्य सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है, तो भले ही तुम इस तरीके से आगे बढ़ो, क्या यह प्रभावी हो सकता है? क्या यह परमेश्वर को संतुष्ट करेगा? अगर यह प्रभावी नहीं है और परमेश्वर को संतुष्ट नहीं करता, तो समस्या गंभीर है। सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य न करना, अपने कर्तव्य को निभाने में गैर-जिम्मेदार होना, लापरवाह होना और शैतान के फलसफे के अनुसार काम करना परमेश्वर से वफादारी न करना है। यह परमेश्वर को धोखा देना है! मसीह-विरोधी के रूप में संदेह किए जाने या आलोचना से बचने के लिए, तुम उन जिम्मेदारियों से बचते हो जो तुम्हें पूरी करनी चाहिए और शैतान के फलसफे के “समझौतावादी” दृष्टिकोण को अपना लेते हो। परिणामस्वरूप, तुम परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नुकसान पहुँचाते हो और कलीसिया के काम को प्रभावित करते हो। क्या यह सिद्धांतहीन नहीं है? क्या यह स्वार्थी और घृणित होना नहीं है? एक अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में तुम्हें सिद्धांतों के साथ बोलना और कार्य करना चाहिए, अपने कर्तव्यों को परिणामों और दक्षता के साथ पूरा करना चाहिए। तुम्हें उन तरीकों से कार्य करना चाहिए जो हर तरह से परमेश्वर के घर के काम को लाभ पहुँचाते हैं और सत्य सिद्धांतों की ओर होते हैं। उदाहरण के लिए, कलीसिया के लिए वस्तुएँ व्यावहारिक परिणाम को ध्यान में रखते हुए खरीदी जानी चाहिए। वस्तुओं की कीमत उचित होनी चाहिए और वे काम में आने लायक होनी चाहिए। यदि तुम सिद्धांतों के बिना लापरवाही से पैसा खर्च करते हो, तो यह परमेश्वर के घर के हितों और परमेश्वर की भेंटों को नुकसान पहुँचा सकता है। तुम लोग ऐसी स्थिति को कैसे सँभालोगे? (ऊपरवाले से मार्गदर्शन माँगेंगे।) ऊपरवाले से मार्गदर्शन माँगना एक तरीका है। इसके अलावा, आलसी मत बनो। अच्छी तरह से शोध करो, विस्तार से पूछताछ करो, अधिक से अधिक पूछो, विवरणों को समझो और पर्याप्त रूप से तैयारी करो; शायद तब अपेक्षाकृत उपयुक्त समाधान मिल सके। यदि तुम यह आधारभूत कार्य नहीं करते और विवरणों को समझे बिना लापरवाही से कार्य करते हो, जिसके परिणामस्वरूप बहुत सारा पैसा बरबाद होता है, तो इसे क्या कहा जाता है? इसे लापरवाह होना कहा जाता है। कुछ लोग इस तरह से अपना कर्तव्य निभाते हैं, जो वे करते हैं उसमें पारदर्शिता की कमी होती है। उन्हें जो रिपोर्ट करना चाहिए उसका केवल आधा ही रिपोर्ट करते हैं, बाकी छिपा लेते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि पूरी तरह से पारदर्शी होने से उन पर मुसीबत आएगी और उन्हें आगे अनुसंधान और सुधार करने की आवश्यकता होगी। इसलिए, वे बस दूसरों से वास्तविक स्थिति और विवरण छिपा लेते हैं, जल्दी से कार्य पूरा करते हैं और फिर परमेश्वर के घर से भुगतान माँगते हैं। लेकिन निरीक्षण करने पर कार्य मानक के अनुसार नहीं होता और उसे फिर से करने की आवश्यकता होती है, और इससे और अधिक पैसा बरबाद होता है। क्या इससे परमेश्वर के घर को नुकसान नहीं पहुँच रहा है? क्या यह यहूदा का व्यवहार नहीं है? (हाँ।) यहूदा के व्यवहार में विशेष रूप से परमेश्वर के घर के हितों को धोखा देना शामिल होता है। परिस्थितियों से सामना होने पर ऐसा व्यक्ति कलीसिया के बाहर के लोगों का पक्ष लेता है, केवल अपने दैहिक हितों के बारे में सोचता है और परमेश्वर के घर के हितों के बारे में बिल्कुल नहीं सोचता। क्या उसमें परमेश्वर के प्रति कोई वफादारी होती है? (नहीं।) जरा सी भी वफादारी नहीं होती। उन्हें परमेश्वर के घर के हितों के साथ विश्वासघात करने और कलीसिया के काम को नुकसान पहुँचाने में मजा आता है—यह यहूदा का व्यवहार है। एक और स्थिति भी होती है : कुछ कर्तव्यों में अन्य क्षेत्रों में विशेष ज्ञान या विशेषज्ञता की जरूरत होती है जिससे हर कोई अपरिचित हो सकता है। ऐसे मामलों में तुम्हें परेशानी से बचना नहीं चाहिए। प्रचुर जानकारी के इस युग में तुम्हें आलसी नहीं होना चाहिए बल्कि सक्रिय रूप से प्रासंगिक आँकड़े और सूचना की खोज करनी चाहिए। सबसे बुनियादी जानकारी प्राप्त करने से शुरू करके तुम पेशे या क्षेत्र की बुनियादी समझ हासिल कर लेते हो, और फिर धीरे-धीरे उस क्षेत्र के दायरे में और अधिक पहलुओं के बारे में सीखते हो, चाहे वे आँकड़े हों या विभिन्न पेशेवर शब्द, तुम खुद को मूल रूप से उससे परिचित बनाते हो। तुम्हारे इस स्तर पर पहुँचने के बाद क्या अपने कर्तव्य वफादारी से और मानक स्तर वाले तरीके से पूरा करने के लिए यह ज्यादा फायदेमंद नहीं है? (हाँ।) तो अपने कर्तव्य का पालन करते समय इस सभी तैयारी के काम का उद्देश्य क्या है? शोध करना, विवरणों को समझना, और फिर संगति और आलोचनात्मक चर्चा के माध्यम से व्यवहार्य समाधान खोजना, ये सभी अपने कर्तव्य मानक स्तर वाले तरीके से पूरा करने की तैयारी का हिस्सा हैं। इन तैयारियों को अच्छी तरह से करना अपने कर्तव्य को निभाने में वफादारी को दर्शाता है; यह उन लोगों को भी प्रकट करता है जो लापरवाह हैं। छद्म-विश्वासियों और उन लोगों के रवैये के बारे में क्या जो अपने कर्तव्यों को निभाते समय वास्तव में खुद को परमेश्वर के लिए नहीं खपाते? वे पूरी तरह से लापरवाह होते हैं; चाहे वे कलीसिया के लिए कुछ भी खरीदें, वे ऊपरवाले से मार्गदर्शन लिए बिना अपनी मर्जी से बेतहाशा पैसा खर्च करते हैं, यह सोचते हुए कि वे सब कुछ समझते हैं। नतीजतन, वे परमेश्वर के घर का पैसा बरबाद करते हैं। क्या वे बरबादी करने वाले, आपदा के अग्रदूत नहीं हैं? वे परमेश्वर की भेंटों को नुकसान पहुँचाते हैं और यह भी नहीं समझते कि वे बुराई कर रहे हैं और परमेश्वर का प्रतिरोध कर रहे हैं; उनके दिलों में किसी भी तरह का पश्चात्ताप नहीं होता। केवल जब परमेश्वर के चुने हुए लोग उन्हें उजागर करते हैं और पहचानते हैं, और उन्हें बाहर निकालने और निष्कासित करने के लिए वोट दिया जाता है, तब उन्हें कुछ जागरूकता मिलती है और वे पछताना शुरू करते हैं। उन्हें एहसास ही नहीं था कि उनके कार्यों के इतने गंभीर परिणाम होंगे—सच में, वे तब तक आँसू नहीं बहाएँगे जब तक वे अपनी ही कब्र नहीं देख लेते! ऐसे लोग ज्यादातर मूर्ख होते हैं जो बहुत तेज नहीं होते हैं, फिर भी वे अगुआ और कार्यकर्ता बनने और परमेश्वर के घर के लिए कार्य करने की आकांक्षा रखते हैं। वे ऐसे ही हैं जैसे लिपस्टिक लगाकर घूमते सूअर—निहायत ही बेशर्म। ये लोग छद्म-विश्वासी हैं; चाहे वे कितने भी वर्षों से विश्वास करते आ रहे हों, वे कोई सत्य नहीं समझते। फिर भी वे हमेशा परमेश्वर के घर में अगुआ और कार्यकर्ता बनना चाहते हैं, हमेशा शक्ति का इस्तेमाल करना चाहते हैं और अंतिम निर्णय लेना चाहते हैं—क्या वे ढिठाई से बेशर्म नहीं हैं? ऐसे लोगों को छद्म-विश्वासी क्यों माना जाता है? ऐसा इसलिए है क्योंकि कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करने और इतने सारे धर्मोपदेश सुनने के बावजूद वे कोई सत्य नहीं समझते और किसी भी सत्य को व्यवहार में नहीं ला पाते, जो उन्हें छद्म-विश्वासी बनाता है। क्या तुम लोगों में से कोई इस तरह का व्यवहार प्रदर्शित करता है? जो लोग करते हैं, वे अपने हाथ उठाएँ। क्या तुम सभी? तो तुम सभी छद्म-विश्वासी हो, और यह एक गंभीर समस्या है। जो लोग ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास करते हैं, अगर वे लगातार धर्मोपदेश सुनते हैं, वे कुछ सत्य समझेंगे और कुछ प्रगति करेंगे, अपनी कथनी और करनी में अधिक भरोसेमंद बनेंगे। अगर कोई बिना किसी प्रगति के वर्षों तक धर्मोपदेश सुनता है, तो वह एक भ्रमित, जानवर, एक छद्म-विश्वासी होता है। कुछ लोग परमेश्वर में विश्वास करने के तीन से पाँच साल के भीतर काफी कुछ समझ जाते हैं और अपनी कथनी और करनी में सत्य की तलाश कर सकते हैं। यदि वे अपने कर्तव्य को निभाने में खामियाँ देखते हैं या परमेश्वर के घर को कुछ नुकसान पहुँचाते हैं, तो वे व्यथित हो जाते हैं, आत्म-ग्लानि महसूस करते हैं, और खुद से घृणा करते हैं; उन्हें लगता है कि उनकी क्षणिक गलतियाँ, निष्ठा की कमी, आलस्य, या देह सुख में लिप्तता के कारण ऐसी महत्वपूर्ण खामियाँ हुईं और इतना बड़ा नुकसान हुआ, और वे इसके लिए खुद से घृणा करते हैं। पश्चात्तापी हृदय वाले ऐसे लोगों में कुछ मानवता होती है और वे उद्धार प्राप्त करने के बिंदु तक पहुँच सकते हैं। यदि कोई व्यक्ति कई वर्षों तक धर्मोपदेश सुनने के बाद भी कोई सत्य नहीं समझता, अपने कर्तव्य को निभाने में गलतियाँ करता रहता है, हमेशा परमेश्वर के घर के लिए परेशानी खड़ी करता है और कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँचाता है, और उसके पास पश्चात्तापी हृदय भी नहीं है, तो ऐसे व्यक्ति में कोई मानवता नहीं होती, वह सूअरों और कुत्तों से भी बदतर है। क्या वह अभी भी अपना कर्तव्य ठीक से निभा सकता है? भले ही वह कर्तव्य निभा ले, यह लापरवाही ही होती है, और उसे परमेश्वर की स्वीकृति नहीं मिलेगी।
कुछ लोग हमेशा बोलते समय परमेश्वर के घर को “हमारा परिवार” कहते हैं, बातचीत में लगातार “हमारे परिवार” का जिक्र करते रहते हैं। वे इसे कितनी मिठास से कहते हैं! यह “हमारा परिवार” क्या है, जिसके बारे में वे बात करते हैं? केवल परमेश्वर का घर होता है, परमेश्वर का परिवार होता है, कलीसिया होती है। क्या हमेशा “हमारा परिवार” कहना उचित है? यह मुझे ठीक नहीं लगता। “हमारा परिवार” शब्दों का इस्तेमाल किया जा सकता है, लेकिन यह तभी उचित है जब जो कहा जा रहा है वह वास्तविकता से मेल खाता हो। अगर तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति नहीं हो, अगर तुम अक्सर अपने कर्तव्यों का पालन लापरवाही से करते हो, कलीसिया के काम को बिल्कुल भी कायम नहीं रखते, कलीसिया के काम को बिल्कुल भी गंभीरता से नहीं लेते, और फिर भी तुम लोग “हमारा परिवार” कहते हो, तो यह अनुचित है। इसमें झूठ और दिखावे का संकेत है, जिससे नाराजगी और तेज नफरत पैदा होती है; हालाँकि, अगर तुम ऐसे व्यक्ति हो जिसके पास वास्तव में सत्य वास्तविकता है और जो कलीसिया के काम को कायम रखता है, तो परमेश्वर के घर को “हमारा परिवार” कहना स्वीकार्य है। दूसरों को यह सच्चा लगता है, उन्हें इसमें झूठ नहीं दिखता और वे तुम्हें भाई या बहन के रूप में देखेंगे, तुम्हें पसंद करेंगे और तुम्हारी प्रशंसा करेंगे। यदि तुम अपने दिल में सत्य से प्रेम नहीं करते, न ही सत्य को स्वीकार करते हो, और अपने कर्तव्यों को निभाने में गैर-जिम्मेदार हो, तो परमेश्वर के घर के लिए “हमारा परिवार” मत कहो। तुम्हें ईमानदारी से सत्य का अनुसरण करना चाहिए, अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से पूरा करना चाहिए, और कलीसिया के काम को बनाए रखने में सक्षम होना चाहिए ताकि परमेश्वर के चुने हुए लोग महसूस करें कि तुम परमेश्वर के घर का हिस्सा हो। फिर जब तुम “हमारा परिवार” कहते हो, तो यह दूसरों को विकर्षण की किसी भावना के बिना निकटता का एहसास कराता है, क्योंकि अपने दिल में तुम वास्तव में परमेश्वर के घर को अपना घर मानते हो, और अपने कर्तव्यों को निभाने के दौरान तुम वास्तव में जिम्मेदार होते हो और कलीसिया के काम को बनाए रखते हो। जब तुम “हमारा परिवार” कहते हो, तो यह पूरी तरह से उपयुक्त लगता है, जिसमें झूठ का कोई अंश नहीं होता। यदि कोई व्यक्ति कलीसिया के कार्य के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं दिखाता, जो भी कर्तव्य उसके हैं, उन्हें अनमने ढंग से निभाता है, जमीन से चीजें उठाने, गंदे कमरे साफ करने, बर्फ हटाने या सर्दियों में आँगन को साफ करने की भी जहमत नहीं उठाता, वह परमेश्वर के घर के सदस्य की तरह नहीं बल्कि एक बाहरी व्यक्ति की तरह लगता है, तो क्या ऐसा व्यक्ति परमेश्वर के घर को “हमारा परिवार” कहने के योग्य है? वे केवल सेवाकर्मी, अस्थायी कर्मचारी, जीवनहीन लोग हैं जो शैतान के हैं, परमेश्वर के घर से बिल्कुल भी संबंधित नहीं हैं। और वे अभी भी अक्सर बेशर्मी से परमेश्वर के घर को “हमारा परिवार” कहते हैं, जब भी वे अपने मुँह खोलते हैं, इतनी आत्मीयता से कहते हैं, भाई-बहनों को बहुत गर्मजोशी से संबोधित करते हैं—लेकिन वे कोई वास्तविक कार्य नहीं करते। जब वे कार्य करते हैं, तो गलतियाँ करते हैं, जिससे परमेश्वर के घर को नुकसान पहुँचता है। क्या वे बस पाखंडी नहीं हैं? ऐसे लोग पूरी तरह से अनैतिक होते हैं, उनमें किसी भी तरह की अंतरात्मा और विवेक नहीं होता। परमेश्वर में विश्वास करने वाले के रूप में सबसे बुनियादी गुण जो किसी में होने चाहिए वे हैं अंतरात्मा और विवेक, और उन्हें सत्य को स्वीकार करने में भी सक्षम होना चाहिए। यदि उनमें अंतरात्मा और विवेक भी नहीं है, और वे सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते, तो क्या वे अभी भी परमेश्वर के घर को “हमारा परिवार” कहने के लायक हैं? वे केवल अस्थायी कर्मचारी और सेवाकर्मी हैं; वे शैतान के हैं और परमेश्वर के घर से उनका कोई लेना-देना नहीं है। परमेश्वर ऐसे लोगों को स्वीकार नहीं करता; उसकी नजर में वे बुरे लोग हैं। बहुत से लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं लेकिन बिल्कुल भी सत्य का अनुसरण नहीं करते, परमेश्वर के घर के मामलों के प्रति उदासीनता दिखाते हैं। वे अपने सामने आने वाली समस्याओं को अनदेखा करते हैं, अपनी जिम्मेदारियों की उपेक्षा करते हैं, मुश्किल में फँसे भाई-बहनों से दूर रहते हैं, और उन लोगों के प्रति कोई नफरत नहीं दिखाते जो बुरे काम करते हैं और परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाते हैं या कलीसिया के काम को बरबाद करते हैं। उनमें बड़े सही और गलत मामलों में जागरूकता की कमी होती है; परमेश्वर के घर में जो कुछ भी होता है, उससे उन्हें कोई सरोकार नहीं होता। क्या वे परमेश्वर के घर को अपना घर मानते हैं? स्पष्ट रूप से नहीं। ये लोग परमेश्वर के घर को “हमारा परिवार” कहने के लायक नहीं हैं; जो लोग ऐसा करते हैं वे केवल पाखंडी हैं। कौन-से लोग “हमारा परिवार” कहने के लायक हैं? हाल ही में, मैंने देखा है कि कुछ लोग वास्तव में बुरे नहीं हैं, हालाँकि निस्संदेह वे अल्पसंख्यक हैं। फिलहाल हम इस बारे में नहीं बोलेंगे कि वे कितना सत्य समझते हैं, या उनका आध्यात्मिक कद या आस्था कितनी बड़ी है, लेकिन ये लोग सचमुच परमेश्वर में विश्वास करते हैं, वास्तविक कार्य कर सकते हैं, और जो भी कर्तव्य निभाते हैं, उसमें वास्तव में जिम्मेदार होते हैं—उनमें मानवता की कुछ झलक होती है। केवल ऐसे लोगों को ही वास्तव में परमेश्वर के घर का हिस्सा माना जा सकता है। जब वे “हमारा परिवार” कहते हैं, तो यह स्नेहपूर्ण और सचमुच दिल से कहा गया महसूस होता है। उदाहरण के लिए, कलीसिया को एक मेज की आवश्यकता थी, जिसे खरीदने पर छह या सात सौ डॉलर खर्च होते। कुछ भाई-बहनों ने कहा, “यह बहुत महँगी है। हम लकड़ी खरीदकर और इसे स्वयं बनाकर बहुत सारा पैसा बचा सकते हैं। यह उतना ही अच्छा काम करेगी, कोई अंतर नहीं होगा।” यह सुनने के बाद मुझे दिल में कैसा महसूस हुआ? मैं कुछ हद तक द्रवित हो गया : “ये लोग बुरे नहीं हैं; वे परमेश्वर के घर के लिए पैसे बचाना जानते हैं।” ऐसे लोग उन लोगों की तुलना में बहुत बेहतर हैं जो भेंटें बरबाद करते हैं, कम से कम उनके पास थोड़ी अंतरात्मा और विवेक, और थोड़ी मानवीय भावना तो है। कुछ लोग अनजाने ही परमेश्वर के घर को सैकड़ों या हजारों डॉलर का नुकसान पहुँचा देते हैं, यहाँ तक कि वे कहते हैं कि यह उनकी चिंता का विषय नहीं है, उनका दिल उन्हें थोड़ी भी उलाहना नहीं देता। दूसरी ओर कुछ ऐसे भी लोग हैं जो कहते हैं, “आठ-दस डॉलर बचाना भी सार्थक है। हमें उन चीजों पर बेवजह पैसे खर्च नहीं करने चाहिए जिन्हें हम खुद ठीक कर सकते हैं। जहाँ बचा सकते हैं, हमें वहाँ बचाना चाहिए। ऐसे पैसे नहीं खर्च करने चाहिए जिन्हें खर्च करने की जरूरत नहीं है। हमारे लिए थोड़ी कठिनाई और मेहनत सहना सही है।” केवल वही लोग ऐसी बातें कह सकते हैं, वे अंतरात्मा और विवेक वाले लोग हैं, जिनमें सामान्य मानवता है, और जो वास्तव में परमेश्वर के घर की तरफ हैं। ये लोग परमेश्वर के घर को सही मायने में “हमारा परिवार” कह सकते हैं क्योंकि वे परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करते हैं। कुछ लोग परमेश्वर के घर के हितों के बारे में बिल्कुल नहीं सोचते। क्या ऐसा है कि वे ऐसे विचार कर पाने में असमर्थ हैं? जब बात उनके अपने जीवन की आती है, तो वे बेहद मितव्ययी होते हैं, एक-एक पैसे पर कंजूसी करते हैं, हमेशा सबसे सस्ती और सबसे व्यावहारिक चीजें खरीदना चाहते हैं, जहाँ भी संभव हो बचत करते हैं, यहाँ तक कि कीमतों पर मोल-तोल भी करते हैं, सावधानीपूर्वक हिसाब-किताब करते हैं, जाहिर तौर पर अपने जीवन का प्रबंधन करने में वे माहिर होते हैं। लेकिन जब परमेश्वर के घर के लिए काम करने की बात आती है, तो वे इस तरह से काम नहीं करते। परमेश्वर के घर के पैसे का उपयोग करते समय वे बेतहाशा खर्च करते हैं, अपनी मर्जी से जैसे चाहे खर्च करते हैं, मानो इसे खर्च न करना बरबादी होगी। क्या यह बेहद बुरे चरित्र का संकेत नहीं है? ऐसे लोग बेहद स्वार्थी होते हैं, परमेश्वर के घर के बारे में बिल्कुल भी नहीं सोचते, केवल खुद को संतुष्ट करने की कोशिश करते हैं। वे स्वर्ग के राज्य में छिपकर घुसने और कम से कम कीमत पर बड़े आशीष प्राप्त करने की उम्मीद करते हैं। ऐसे स्वार्थी और नीच लोग अभी भी ऐसी महान महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं को पालते हैं; यह उनके चरित्र में गंभीर कमी को दर्शाता है!
क्या अब हमने अपनी संगति में मूल रूप से मसीह-विरोधियों की इस अभिव्यक्ति को पूरी तरह से समाविष्ट कर लिया है, कि वे कुटिलता से व्यवहार करते हैं और स्वेच्छाचारी और तानाशाह होते हैं? (हाँ।) तो चलो इसे सारांशित करते हैं। मसीह-विरोधियों का कुटिलता से काम करना, और उनका स्वेच्छाचारी और तानाशाह होना, दो अलग-अलग लेकिन समान रूप से महत्वपूर्ण और समवर्ती व्यवहार हैं जो उनके बीच आम होते हैं। यह अभिव्यक्ति मसीह-विरोधियों के दो प्राथमिक स्वभावों को उजागर करती है—दुष्टता और क्रूरता; वे दुष्ट और क्रूर दोनों होते हैं। कभी-कभी तुम उनका क्रूर पक्ष नहीं देख पाते, लेकिन तुम उनका दुष्ट पक्ष देख सकते हो। वे नरमी से काम कर सकते हैं, जिससे उनके किसी भी बलपूर्वक किए गए व्यवहार या बर्बर व्यवहार को देखना मुश्किल हो जाता है। वे बाहर से उग्र नहीं दिखते, न ही वे तुम्हें कुछ करने के लिए मजबूर करते हैं, लेकिन वे तुम्हें अन्य दुष्ट तरीकों से फँसाते हैं, तुम्हें अपने नियंत्रण में रखते हैं, तुम्हें उनके उद्देश्य पूरे करने के लिए मजबूर करते हैं—और इस तरह तुम उनके द्वारा शोषित होते हो। अनजाने में तुम उनके जाल में फँस जाते हो, स्वेच्छा से उनकी हेराफेरी और खिलवाड़ के आगे झुक जाते हो। वे ऐसे परिणाम क्यों ला पाते हैं? मसीह-विरोधी अक्सर तुम्हें निर्देश देने और प्रभावित करने के लिए सही कथनों और कहावतों का उपयोग करते हैं, तुम्हें कुछ चीजें करने के लिए उकसाते हैं, तुम्हें यह महसूस कराते हैं कि वे जो कुछ भी कहते हैं वह सही है, कि तुम्हें इसे कार्यान्वित करना चाहिए और तुम्हें इसे इसी तरह से करना चाहिए, अन्यथा तुम्हें लगेगा कि तुम सत्य के विरुद्ध जा रहे हो, तुम्हें लगेगा कि उनकी अवज्ञा करना परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करना है। ऐसा करने में तुम स्वेच्छा से उनकी आज्ञा का पालन करते हो। इसका अंतिम परिणाम क्या होता है? भले ही लोग उनके शब्दों का पालन करें और जो वे कहते हैं उसका अभ्यास करें, क्या वे सत्य को समझते हैं? क्या परमेश्वर के साथ उनका संबंध लगातार करीबी हो रहा है या इसमें दूरी आती जा रही है? परिस्थितियों का सामना करने पर, लोग न केवल परमेश्वर के सामने आने और उससे प्रार्थना करने में विफल रहते हैं, बल्कि यह भी नहीं जानते कि परमेश्वर के वचनों में सत्य सिद्धांतों की तलाश कैसे करें, न ही जानते हैं कि परमेश्वर के इरादों और अपेक्षाओं को कैसे समझें। इसके बजाय वे एक अविश्वसनीय बयान देते हैं : “मैंने इतने सालों तक परमेश्वर पर विश्वास किया है, मुख्य रूप से समर्थन और पोषण के लिए अगुआओं पर निर्भर रहा हूँ। चाहे कुछ भी हो, जब तक अगुआ संगति देते हैं, तब तक आगे बढ़ने का रास्ता है। अगुआओं के बिना काम चल ही नहीं सकता।” वे कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करते रहे हैं और उनका आध्यात्मिक कद बस इतना ही है, अब भी वे अगुआओं के बिना काम करने में असमर्थ हैं। क्या यह दयनीय नहीं है? यहाँ निहितार्थ क्या है? निहितार्थ यह है कि वे नहीं जानते कि परमेश्वर के आगे प्रार्थना कैसे करें, परमेश्वर पर निर्भर कैसे रहें, परमेश्वर की ओर कैसे देखें, या परमेश्वर के वचनों को कैसे खाएँ और पिएँ। इन सभी बातों को समझने के लिए अगुआओं द्वारा उनका समर्थन किया जाना चाहिए; अगुआ उस परमेश्वर की जगह ले सकता है जिस पर वे विश्वास करते हैं। यह कहा जा सकता है कि ऐसे व्यक्ति का परमेश्वर में विश्वास वास्तव में उनके अगुआओं में विश्वास है। वे अगुआओं की हर बात सुनते हैं, और जो कुछ भी वे कहते हैं उस पर विश्वास करते हैं। वे सचमुच किस पर विश्वास कर रहे हैं, अनुसरण कर रहे हैं और किसकी आज्ञा का पालन कर रहे हैं—परमेश्वर की या अगुआओं की? क्या यह धार्मिक लोगों की तरह नहीं है जो नाममात्र के लिए प्रभु में विश्वास करते हैं, लेकिन वास्तव में अपने पादरियों पर विश्वास करते हैं, उनका अनुसरण करते हैं और उन पर भरोसा करते हैं? क्या उसे मनुष्यों द्वारा नियंत्रित नहीं किया जा रहा है? तुम सभी मामलों में अगुआओं की आराधना करते हो, उनकी बात सुनते हो। यह मनुष्यों पर विश्वास करना और उनका अनुसरण करना है, लोगों द्वारा बेबस और नियंत्रित होना है। परमेश्वर ने इतना स्पष्ट रूप से कहा है और फिर भी तुम उसके वचन नहीं समझ पाते, न ही तुम जानते हो कि उनका अभ्यास कैसे करना है, लेकिन तुम राक्षसों और शैतानों के कुछ शब्द बोलते ही उन्हें समझ जाते हो? तुम वास्तव में क्या समझते हो? कभी-कभी तुम किसी विनियम या धर्म-सिद्धांत को समझ लेते हो—क्या इसे सत्य को समझना माना जाता है? (नहीं।) यह सत्य समझना नहीं है; यह गुमराह होना है। यह बिल्कुल ऐसा ही है।
मसीह-विरोधियों के कुटिलता से व्यवहार करने और स्वेच्छाचारी और तानाशाह होने की अभिव्यक्ति में, उनके प्राथमिक स्वभाव दुष्टता और क्रूरता के होते हैं। उनकी दुष्टता कहाँ अभिव्यक्त होती है? यह उनके कुटिल व्यवहार में प्रकट होती है। और उनकी क्रूरता कहाँ प्रकट होती है? (स्वेच्छाचारी और तानाशाह होने में।) यह मुख्य रूप से उनके स्वेच्छाचारी और तानाशाह होने में, और दूसरों को अपनी आज्ञा का पालन कराने के लिए मजबूर करने में प्रकट होती है; उनका मजबूर करना एक क्रूर स्वभाव को दर्शाता है। परमेश्वर अपेक्षा करता है कि लोग उसके और सत्य के प्रति समर्पित हों। परमेश्वर के काम करने का तरीका क्या है? परमेश्वर अपने वचनों को व्यक्त करने के बाद लोगों से कहता है कि परमेश्वर में विश्वास करने में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वे सत्य और परमेश्वर के वचनों के प्रति समर्पित हों। तुम इस सत्य को जानते हो, जानते हो कि यह वाक्यांश सही है, लेकिन इस बारे में कि क्या तुम समर्पित होते हो और तुम कैसे समर्पित होते हो, परमेश्वर का रवैया क्या होता है? तुम्हारे पास स्वतंत्र इच्छा है, चुनने का अधिकार है। यदि तुम समर्पित होना चाहते हो, तो तुम समर्पित हो जाओ; यदि तुम समर्पित नहीं होना चाहते, तो मत होओ। हालाँकि, समर्पित न होने के क्या परिणाम हो सकते हैं, परमेश्वर लोगों में क्या पड़ताल करता है और उनके बारे में उसके निष्कर्ष क्या हैं, इन मामलों में परमेश्वर कुछ भी अतिरिक्त नहीं करता। वह तुम्हें चेतावनी नहीं देता, तुम्हें धमकाता नहीं, या तुम्हें मजबूर नहीं करता, तुम्हें कीमत चुकाने या सजा देने के लिए मजबूर नहीं करता। परमेश्वर इस तरह से कार्य नहीं करता। जब परमेश्वर लोगों को बचा रहा होता है, उस अवधि के दौरान जब वह मनुष्यों के पोषण के लिए वचन व्यक्त कर रहा होता है, परमेश्वर लोगों को गलतियाँ करने, गलत रास्ता अपनाने, और लोगों को अपने विरुद्ध विद्रोह करने और मूर्खतापूर्ण कार्य करने देता है। लेकिन अपने वचनों और अपनी कुछ कार्य विधियों के माध्यम से, परमेश्वर धीरे-धीरे लोगों को यह समझने देता है कि उसकी अपेक्षाएँ क्या हैं, सत्य क्या है, और क्या सही है और क्या गलत है—उदाहरण के लिए, काट-छाँट, ताड़ना और अनुशासन के जरिए और प्रोत्साहन के माध्यम से भी। कभी-कभी वह तुम्हें कुछ अनुग्रह देता है, तुम्हें आंतरिक रूप से प्रेरित करता है, या तुम्हें कुछ रोशनी और प्रबोधन देता है, जिससे तुम्हें पता चलता है कि क्या सही है और क्या गलत है, परमेश्वर की अपेक्षाएँ वास्तव में क्या हैं, मनुष्य को कौन-सी स्थिति अपनानी चाहिए, और लोगों को क्या अभ्यास करना चाहिए। तुम्हें समझाते हुए वह तुम्हें एक विकल्प भी देता है। यदि तुम कहते हो, “मैं विद्रोही हो जाऊँगा, मैं हठधर्मी हो जाऊँगा, मैं सही चीज का चुनाव नहीं करना चाहता, मैं वफादार नहीं होना चाहता, मैं बस इसी तरह कार्य करना चाहता हूँ!” तो अंततः तुम अपने गंतव्य और परिणाम के लिए स्वयं जिम्मेदार हो। तुम्हें अपने कार्यों की जिम्मेदारी लेनी होगी और कीमत चुकानी होगी; परमेश्वर इस संबंध में कुछ नहीं करता। परमेश्वर निष्पक्ष और धार्मिक रहता है। यदि तुम उसकी अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करते हो और ऐसे व्यक्ति हो जो परमेश्वर के प्रति समर्पित है, या इसके विपरीत यदि तुम परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार कार्य नहीं करते और ऐसे व्यक्ति नहीं हो जो परमेश्वर के प्रति समर्पित है, तो दोनों ही मामलों में तुम्हारा गंतव्य जो होगा, परमेश्वर ने उसे बहुत पहले ही निर्धारित कर दिया है। परमेश्वर को कुछ अतिरिक्त करने की आवश्यकता नहीं है। ऐसा नहीं है कि यदि तुम आज परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार कार्य नहीं करते, तो वह तुम्हें अनुशासित करेगा, ताड़ना देगा, या दंड देगा, तुम पर विपत्तियाँ लाएगा—परमेश्वर इस तरह से कार्य नहीं करता। जहाँ तक परमेश्वर की बात है, वह लोगों से समर्पण की अपेक्षा करता है ताकि वे समर्पण के बारे में सत्य समझ सकें; इसमें “मजबूरी” का कोई तत्व नहीं है। परमेश्वर लोगों को समर्पण करने या सत्य के इस पहलू का अभ्यास करने के लिए बाध्य नहीं करता। इसलिए परमेश्वर के तरीके में, चाहे वह लोगों को आयोजित करे, उनके भाग्य पर शासन करे, उनकी अगुआई करे, या उन्हें सत्य प्रदान करे, इन कार्यों का आधार मजबूरी पर आधारित नहीं है, न ही यह अनिवार्यता है। यदि तुम परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य करते हो, तो तुम धीरे-धीरे सत्य को अधिक से अधिक समझते जाओगे, और परमेश्वर के समक्ष तुम्हारी स्थिति में सुधार होता जाएगा—तुम एक अच्छी स्थिति बनाए रखोगे, और परमेश्वर तुम्हें दैनिक जीवन के उन पहलुओं में भी प्रबुद्ध करेगा जिन्हें तुम नहीं समझते। हालाँकि, यदि तुम सत्य का अभ्यास नहीं करते, परमेश्वर के प्रति समर्पित नहीं होते, और सत्य का अनुसरण करने के अनिच्छुक हो, तो तुम जो प्राप्त करोगे वह बहुत सीमित होगा। इन दोनों के बीच यही स्पष्ट अंतर है। परमेश्वर पक्षपात नहीं करता; वह सभी के प्रति निष्पक्ष रहता है। कुछ लोग कहते हैं : “यदि बस परमेश्वर मुझे मजबूर कर दे तो क्या मैं अभ्यास नहीं करूँगा?” परमेश्वर लोगों को मजबूर नहीं करता; यह काम शैतान करता है। परमेश्वर इस तरह से काम नहीं करता। यदि तुम केवल मजबूर होने पर ही परमेश्वर के प्रति समर्पित हो सकते हो, तो इससे तुम क्या बन जाते हो? क्या तुम वास्तव में परमेश्वर के प्रति समर्पित होते हो? यह उस प्रकार का समर्पण नहीं है जिसकी परमेश्वर इच्छा रखता है। परमेश्वर जिस समर्पण की बात करता है वह ऐसा है जहाँ सत्य को समझने के आधार पर एक व्यक्ति अंतरात्मा और विवेक से स्वेच्छा से परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करता है। समर्पण का यही अंतर्निहित अर्थ है। इसमें किसी तरह की मजबूरी, प्रतिबंध, धमकी या किसी तरह का बंधन या नियंत्रण शामिल नहीं होता। इसलिए, जब तुम किसी मामले में विशेष रूप से बँधे हुए या बेबस महसूस करते हो, तो यह निश्चित रूप से परमेश्वर का काम नहीं है। एक तरफ यह मानवीय विचारों या विकृत समझ और खुद को बेबस करने से उत्पन्न हो सकता है। दूसरी तरफ, यह कोई और हो सकता है जो तुम्हें बेबस करने की कोशिश कर रहा हो, तुम्हें बेबस करने के लिए विनियमों या कुछ सही लगने वाले तर्क या सिद्धांत का उपयोग कर रहा हो, जिससे तुम्हारी सोच में कुछ विकृतियाँ विकसित हो रही हों। यह तुम्हारी समझ में समस्या की ओर इशारा करता है। यदि तुम स्वेच्छा से और खुशी से परमेश्वर के प्रति समर्पित महसूस करते हो, तो यह पवित्र आत्मा के कार्य से और सच्ची मानवता, अंतरात्मा और विवेक से भी आता है।
परमेश्वर के घर में कुछ लोग ऐसे होते हैं जो सत्य के प्रति समर्पित नहीं होते, परमेश्वर के घर की कार्य व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित नहीं होते, और कलीसिया की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित नहीं होते। परमेश्वर का घर इसे कैसे सँभालता है? क्या इसे हल करने के लिए बलपूर्वक कार्यान्वयन के कोई तरीके इस्तेमाल किए जाते हैं? यदि कोई अगुआ वास्तविक कार्य नहीं करता, कार्य व्यवस्थाओं के अनुसार काम नहीं करता, और सत्य का अभ्यास नहीं करता, या वास्तविक कार्य नहीं कर सकता, तो परमेश्वर का घर इसे कैसे सँभालता है? (परमेश्वर का घर उन्हें बर्खास्त कर देता है।) उन्हें सीधे बर्खास्त कर दिया जाता है, लेकिन क्या उन्हें निष्कासित किया जाता है? (नहीं।) जिन्होंने बुराई नहीं की है उन्हें निष्कासित नहीं किया जाता। साधारण भाई-बहनों के मामले में, यदि उन्हें एक निश्चित कर्तव्य निभाने के लिए नियुक्त किया जाता है और वे मना कर देते हैं, तो क्या इसे समर्पण न करना माना जाता है? यदि वे नहीं जाते, तो किसी और को खोजा जा सकता है; क्या किसी को कर्तव्य निभाने के लिए मजबूर किया जाएगा? (नहीं।) कोई जबरदस्ती नहीं होती है। यदि सत्य की संगति के माध्यम से वे स्वीकार करने और समर्पण करने के लिए तैयार हो जाते हैं, तो ठीक है। इसे जबरदस्ती नहीं माना जाता; यह उनकी व्यक्तिगत सहमति और इच्छा की स्थिति में इस कर्तव्य को निभाने के लिए व्यवस्था करना है। उदाहरण के लिए, कुछ लोगों को खाना बनाना पसंद है, लेकिन उन्हें सफाई करने के लिए नियुक्त किया जाता है, और वे कहते हैं, “अगर मुझे सफाई करने के लिए कहा जाता है, तो मैं सफाई करूँगा। मैं परमेश्वर के घर की व्यवस्था के लिए समर्पित हूँ।” क्या यहाँ कोई जबरदस्ती है? क्या इसमें किसी की इच्छा के विरुद्ध कोई जबरदस्ती है? (नहीं।) यह उनकी इच्छा और समर्पण के साथ व्यवस्थित किया जाता है, इसमें किसी को भी मुश्किल स्थिति में नहीं डाला जाता या किसी को कुछ करने के लिए मजबूर नहीं किया जाता। ऐसे मामले भी हो सकते हैं, जहाँ किसी कर्तव्य के लिए अस्थायी रूप से कोई नहीं मिल पाता, और तुम्हें अस्थायी रूप से उस जगह को भरने के लिए व्यवस्थित किया जाता है; हो सकता है कि तुम व्यक्तिगत रूप से इच्छुक न हो, लेकिन यह कार्य के लिए अनिवार्य होता है, यह एक विशेष मामला है। तुम परमेश्वर के घर के सदस्य हो, तुम परमेश्वर के घर से भोजन प्राप्त करते हो और वहाँ अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हो—चूँकि तुम खुद को ऐसे व्यक्ति के रूप में स्वीकार करते हो जो परमेश्वर में विश्वास करता है और उसका अनुसरण करता है, तो क्या तुम इस छोटे से मामले में अपने देहसुख के खिलाफ विद्रोह नहीं कर सकते? इसे तो वास्तव में समर्पण या कठिनाई के रूप में भी नहीं गिना जाता; यह केवल अस्थायी होता है, तुमसे इस कर्तव्य को दीर्घकालिक रूप से निभाने के लिए नहीं कहा जाता। कुछ लोग शिकायत करते हैं कि उन्हें जो काम करने के लिए कहा जाता है वह गंदा और थकाऊ है, और वे इसे करने के लिए तैयार नहीं होते। यदि वे इस मामले को उठाते हैं, तो उन्हें तुरंत दूसरी जगह नियुक्त किया जाना चाहिए। हालाँकि, यदि वे केवल मौखिक रूप से ऐसा जता रहे हैं, लेकिन वास्तव में समर्पण करने और कष्ट सहने के लिए तैयार हैं, तो उन्हें अपना कर्तव्य निभाते रहना चाहिए। क्या यह दृष्टिकोण उचित है? (हाँ।) क्या यह सिद्धांत सही है? (हाँ।) परमेश्वर का घर लोगों को उनकी इच्छा के विरुद्ध बिल्कुल भी मजबूर नहीं करता। एक और स्थिति होती है जिसमें कुछ लोग, चाहे वे कोई भी कर्तव्य क्यों न निभाएँ, आलसी, गैर-जिम्मेदार होते हैं और उनमें निष्ठा की कमी होती है। कभी-कभी वे गुप्त रूप से बुरे काम भी करते हैं। जब वे अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाते, तो बहाने बनाते हैं, दावा करते हैं कि यह कर्तव्य उनके लिए उपयुक्त नहीं है, वह उनका मजबूत पक्ष नहीं है, या वे संबंधित क्षेत्र को नहीं समझते। लेकिन वास्तव में हर कोई स्पष्ट रूप से देख रहा होता है कि उनके बेहतर प्रदर्शन करने में नाकाम रहना इन कारणों से नहीं है। ऐसे लोगों को कैसे सँभाला जाना चाहिए? यदि वे कहीं और कोई और कर्तव्य निभाने का अनुरोध करते हैं, तो क्या इसे मान लेना चाहिए? (नहीं।) तो फिर क्या किया जाना चाहिए? ऐसे लोग कर्तव्य निभाने के लिए उपयुक्त नहीं हैं; वे अनिच्छा से और उचित रवैये के बिना ऐसा करते हैं, इसलिए उन्हें चलता कर देना चाहिए। एक और तरह का व्यक्ति होता है जो कर्तव्य निभाने के लिए कहे जाते ही जिद्दी और प्रतिरोधी हो जाता है। वह बेहद अनिच्छुक और निरुत्सुक होता है, मुश्किल से ही अपने असंतोष को दबा पाता है, यह सोचकर कि, “मैं यहाँ चुपचाप पड़ा रहूँगा और कुछ सालों तक किसी तरह गुजारा करूँगा, कौन जाने कि उसके बाद मैं कहाँ पहुँच जाऊँ!” ऐसे इरादों वाले लोगों को कर्तव्य निभाने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए, और यदि वे अन्य कर्तव्य निभाना भी चाहें, तो भी इसकी अनुमति नहीं देनी चाहिए। ऐसे मामलों को बलपूर्वक सँभाला जाना चाहिए। ऐसा क्यों? क्योंकि उनका सार पता चल जाता है—जो लोग उन्हें समझते हैं वे कहते हैं कि वे छद्म-विश्वासी हैं; उनके आसपास के लोग भी कहते हैं कि वे कर्तव्य निभाने के लिए उपयुक्त नहीं हैं। ऐसे लोग अविश्वासी होते हैं, और उन्हें दूर कर देना चाहिए। यदि नहीं, तो वे केवल बाधाएँ ही पैदा कर सकते हैं, गलत काम कर सकते हैं, और कलीसिया के अंदर परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नुकसान पहुँचा सकते हैं, जो पूरी तरह से अस्वीकार्य है। ऐसे मामलों को कलीसिया में कर्तव्यों का पालन करने वालों के साथ व्यवहार करने के सिद्धांतों के अनुसार सँभाला जाना चाहिए; उनकी अनिच्छा कोई कारक नहीं होती। क्या यह जबरदस्ती है? यह जबरदस्ती नहीं है; यह सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना है, परमेश्वर के घर के हितों और कार्य को बनाए रखना है। यह छद्म-विश्वासियों और उन लोगों को दूर करने के बारे में है जो परमेश्वर के घर में मुफ्तखोरी के लिए मौजूद हैं। यदि तुम मुफ्तखोरी करना चाहते हो, तो कहीं और करो, यहाँ नहीं। परमेश्वर का घर एक सेवानिवृत्ति गृह नहीं है; यह आवारा लोगों को आसरा नहीं देता। समझे?
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