मद छह : वे कुटिल तरीकों से व्यवहार करते हैं, वे स्वेच्छाचारी और तानाशाह होते हैं, वे कभी दूसरों के साथ संगति नहीं करते, और वे दूसरों को अपने आज्ञापालन के लिए मजबूर करते हैं (खंड तीन)

II. मसीह-विरोधियों के स्वेच्छाचारी और तानाशाही व्यवहार के साथ-साथ इस बात का गहन-विश्लेषण कि वे किस तरह लोगों को अपने आज्ञापालन के लिए मजबूर करते हैं

मसीह-विरोधी स्वेच्छाचारी और तानाशाह ढंग से काम करते हैं, कभी दूसरों के साथ संगति या परामर्श नहीं करते, मनमर्जी करते हैं और दूसरों को अपने आज्ञापालन के लिए मजबूर करते हैं। यह कहा जा सकता है कि मसीह-विरोधी चाहे जो भी करें, चाहे जो व्यवस्था करें या जो निर्णय लें, वे दूसरों के साथ संगति नहीं करते, आम सहमति तक नहीं पहुँचते, समस्याएँ हल करने के लिए सत्य की तलाश नहीं करते और उन सिद्धांतों को नहीं खोजते जिन्हें अपने कर्तव्यों को पूरा करने में लागू किया जाना चाहिए। इसके अलावा, वे लोगों को यह नहीं समझने देते कि वे किसी खास तरीके से काम क्यों कर रहे हैं, जिससे लोग भ्रमित हो जाते हैं और उनकी बात सुनने के लिए बाध्य हो जाते हैं। अगर कोई नहीं समझ पाता और उनसे इस बारे में पूछता है, तो मसीह-विरोधी संगति या व्याख्या करने के लिए तैयार नहीं होता। इस मामले में मसीह-विरोधी क्या स्थिति बरकरार रखना चाहता है? किसी को भी विवरण जानने की अनुमति नहीं होती; किसी को भी सूचित किए जाने का अधिकार नहीं होता। वे जो चाहे करते हैं और जो उन्हें सही लगता है उसे पूरी तरह से लागू किया जाना चाहिए। दूसरों को सवाल करने का कोई अधिकार नहीं होता, और वे उनके साथ सहयोग करने के योग्य तो बिल्कुल भी नहीं होते; उनकी भूमिका केवल आज्ञा मानने और समर्पण करने की है। मसीह-विरोधी इसे किस तरह देखता है? “चूँकि तुमने मुझे एक अगुआ के रूप में चुना है, इसलिए तुम लोग मेरे प्रबंधन के अधीन हो और तुम्हें मेरी बात सुननी चाहिए। यदि तुम लोग मेरी बात नहीं सुनना चाहते, तो तुम्हें मुझे नहीं चुनना चाहिए था। यदि तुमने मुझे चुना है, तो तुम्हें मेरी बात सुननी होगी। हर चीज में मेरा निर्णय अंतिम होता है!” उसकी नजर में, उसके और भाई-बहनों के बीच क्या संबंध होता है? वह आदेश देने वाला है। भाई-बहन सही और गलत का विश्लेषण नहीं कर सकते, पूछताछ नहीं कर सकते, और उन्हें आरोप लगाने, भेद पहचानने, सवाल करने या संदेह करने की अनुमति नहीं है; ये सब वर्जित हैं। मसीह-विरोधी योजनाएँ, बयान और तरीके भर प्रस्तावित कर दे, और सभी को बिना सवाल किए गुणगान करना चाहिए और सहमत होना चाहिए। क्या यह थोड़ा जबर्दस्ती नहीं है? यह किस तरह की रणनीति है? यह स्वेच्छाचार और तानाशाही है। यह किस तरह का स्वभाव है? (क्रूरता।) सतही तौर पर, “स्वेच्छाचार” का अर्थ है अकेले निर्णय लेना, अंतिम निर्णय लेना; और “तानाशाही” का अर्थ है कि अपने मन से कोई राय बनाना या कोई फैसला करना, फिर हर किसी को उसे कार्यान्वित करना होगा, उन्हें अलग राय रखने या बयान देने या यहाँ तक कि सवाल पूछने का अधिकार नहीं होगा। स्वेच्छाचारी और तानाशाह होने का अर्थ है कि किसी स्थिति का सामना करने पर, क्या करना है इस पर निर्णय लेने से पहले वे खुद ही विचार करते और गौर करते हैं। वे बिना किसी और की राय के, चीजों को करने के बारे में पर्दे के पीछे स्वतंत्र रूप से निर्णय ले लेते हैं; यहाँ तक कि उनके अपने सहकर्मी, साझेदार या उच्चतर-स्तरीय अगुआ भी हस्तक्षेप नहीं कर सकते—स्वेच्छाचारी और तानाशाह होने का यही अर्थ है। चाहे वे जिस स्थिति का सामना करें, जो लोग इस तरह से कार्य करते हैं, वे लगातार अपने ही दिमाग में चीजों पर सोचते रहते हैं और विचार करने में अपना दिमाग खपाते रहते हैं, कभी दूसरों से सलाह नहीं लेते। वे अपने दिमाग में कभी इधर तो कभी उधर की सोचते हैं, लेकिन वे वास्तव में क्या सोच रहे होते हैं, कोई नहीं जानता। कोई भी क्यों नहीं जानता? क्योंकि वे बोलते नहीं हैं। कुछ लोगों को लगेगा कि ऐसा सिर्फ इसलिए है क्योंकि वे बातूनी नहीं हैं, लेकिन क्या वास्तव में ऐसा ही है? यह व्यक्तित्व का मामला नहीं है; यह दूसरों को अंधेरे में रखने के लिए जानबूझकर किया गया चुनाव है। वे अपने आप काम करना चाहते हैं, उनका अपना गणित होता है। वे क्या हिसाब लगा रहे होते हैं? उनका गणित उनके अपने हितों, रुतबे, प्रसिद्धि, लाभ और प्रतिष्ठा के इर्द-गिर्द घूमता है। वे सोचते हैं कि अपने पक्ष में कैसे काम करें, अपने रुतबे और प्रतिष्ठा को नुकसान से कैसे बचाएँ, दूसरों को अपनी असलियत जाने दिए बगैर कैसे काम करें और सबसे महत्वपूर्ण बात, ऊपरवाले से अपने कार्यों को कैसे छिपाएँ, ताकि अंततः किसी को कोई दोष पता न चले और वे फायदा उठा पाएँ। वे सोचते हैं, “अगर मैं क्षणिक चूक कर देता हूँ और कुछ गलत कहता हूँ, तो हर कोई मेरी असलियत जान जाएगा। अगर कोई कुछ ऐसा कह दे जो उसे नहीं कहना चाहिए और ऊपरवाले से मेरी शिकायत कर दे, तो ऊपरवाला मुझे बर्खास्त कर सकता है और मैं अपना रुतबा खो दूँगा। इसके अलावा, अगर मैं हमेशा दूसरों के साथ संगति करता हूँ, तो क्या मेरी सीमित क्षमताएँ सभी को स्पष्ट नहीं हो जाएँगी? क्या दूसरे मुझे नीची नजर से देखेंगे?” अब मुझे बताओ, अगर उनकी असलियत सच में पता चल जाए, तो यह अच्छा होगा या बुरा? वास्तव में, जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं, उनके और ईमानदार लोगों के लिए उनकी असलियत का पता चल जाना और कुछ इज्जत या प्रतिष्ठा कम हो जाना बहुत मायने नहीं रखता। वे इन चीजों को लेकर बहुत चिंतित नहीं दिखते; वे इनके बारे में कम ही सचेत दिखते हैं और इन्हें बहुत ज्यादा तवज्जो नहीं देते। लेकिन मसीह-विरोधी इसके बिल्कुल विपरीत होते हैं; वे सत्य का अनुसरण नहीं करते, और वे अपने रुतबे और अपने बारे में दूसरों की समझ और रवैये को जीवन से भी अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं। उनसे उनकी मन की बात कहलवाना या सत्य बोलने के लिए कहना अत्यधिक कठिन होता है; यहाँ तक कि कई लाभ प्रदान करना भी शायद पर्याप्त न होगा। यदि उनसे अपने रहस्य या निजी मामलों को प्रकट करने के लिए कहा जाए, तो उनके लिए यह और भी कठिन होगा—उनका जीवन दाँव पर लगा हो तब भी वे ऐसा नहीं कर सकते। यह किस तरह की प्रकृति है? क्या ऐसा व्यक्ति सत्य स्वीकार सकता है? क्या उसे बचाया जा सकता है? निश्चित रूप से नहीं। आखिरकार, “कुत्ते की दुम कभी सीधी नहीं होती।”

मसीह-विरोधी अपने आत्म-मूल्य, रुतबे, इज्जत को और अपनी सत्ता बनाए रखने वाली किसी भी चीज को विशेष महत्व देते हैं। तुम उनके साथ संगति करते हुए कहते हो, “कलीसिया का काम करते समय, चाहे बाहरी मामले हों या आंतरिक प्रशासन, कर्मियों का समायोजन, या कुछ और, तुम्हें भाई-बहनों के साथ संगति करनी चाहिए। दूसरों के साथ सहयोग करना सीखने का पहला कदम संगति करना सीखना होता है। संगति बेकार की बातें करना या केवल अपनी खुद की नकारात्मकता या परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह व्यक्त करना नहीं होता। तुम्हें दूसरों को प्रभावित करने के लिए अपनी नकारात्मक या विद्रोही दशाओं को बाहर नहीं निकालना चाहिए। मुख्य बात इस पर संगति करना है कि परमेश्वर के वचनों में सिद्धांतों को कैसे खोजें और सत्य कैसे समझें।” हालाँकि, चाहे तुम जैसे भी सत्य की संगति करो, यह उन्हें प्रभावित नहीं कर सकता या उन्हें अपने सिद्धांतों और दिशा को बदलने के लिए मजबूर नहीं कर सकता कि वे कैसे काम करते हैं और कैसे आचरण करते हैं। यह किस तरह का स्वभाव है? इसे हल्के ढंग से कहें तो यह अड़ियलपन है; गंभीरता से कहें तो यह क्रूरता है। वास्तव में, इसे क्रूरता कहना उचित है। सोचो कि एक भेड़िए के जबड़े में भेड़ है और वह अपने शिकार का आनंद ले रहा है; अगर तुम उससे यह कहते हुए मोल-भाव करो कि, “मैं तुम्हें खरगोश दूँगा और तुम भेड़ को जाने दो, ठीक है?” तो वह सहमत नहीं होगा। तुम कहते हो, “मैं तुम्हें गाय दूँगा, कैसा रहेगा?” वह बिल्कुल सहमत नहीं होगा। वह पहले भेड़ को खाएगा और फिर गाय को खाएगा। वह सिर्फ एक से संतुष्ट नहीं है; वह दोनों चाहता है। यह किस तरह का स्वभाव है? (तृप्त न होने वाला लालची और बेहद क्रूर।) यह सब बहुत क्रूरतापूर्ण है! इसी तरह, मसीह-विरोधियों के बेहद क्रूर स्वभाव के संबंध में, सत्य की संगति करने, उनकी काट-छाँट करने या सलाह देने से काम नहीं चलता। इनमें से कोई भी रुतबे को लेकर उनके गहरे अनुसरण या दूसरों को नियंत्रित करने की उनकी इच्छा को नहीं बदल सकता, जब तक कि तुम उन्हें ऊँचे रुतबे या अधिक लाभों से आकर्षित न करो। अन्यथा, जो शिकार उनके मुँह में पहले से है, वे उसे बिल्कुल नहीं छोड़ेंगे। इस छोड़ने से पूरी तरह इनकार का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि एक बार जब उन्हें एक निश्चित रुतबा मिल जाता है, तो वे इस अवसर का उपयोग जोरदार प्रदर्शन करने और खुद का दिखावा करने के लिए करेंगे। किसका दिखावा करेंगे? अपनी विभिन्न प्रतिभाओं और गुणों, अपनी पृष्ठभूमि, शिक्षा, मूल्य और समाज में अपने रुतबे का प्रदर्शन करेंगे, यह दिखाएँगे कि वे कितने सक्षम और कुशल हैं, वे लोगों के साथ कैसे खिलवाड़ कर सकते हैं और कैसे उन्हें बहका सकते हैं, वे लोगों को कैसे काबू कर सकते हैं। जो सत्य या विवेक से हीन होते हैं, यह सुनकर महसूस करते हैं कि ऐसे मसीह-विरोधी बहुत प्रभावी होते हैं; वे खुद को कमतर महसूस करने लगते हैं, और वे स्वेच्छा से मसीह-विरोधी के नियंत्रण में आ जाते हैं।

कुछ मसीह-विरोधी विशेष रूप से चालाक होते हैं और गहरी साजिशें रचते रहते हैं। वे एक सर्वोच्च शैतानी फलसफे का पालन करते हैं, जो यह है कि किसी भी स्थिति में शायद ही कभी बोलना और किसी भी स्थिति में अपने रुख को आसानी से व्यक्त न करना, केवल तभी बोलना जब ऐसा करने के लिए पूरी तरह से मजबूर होना पड़े। वे बस हर किसी के कार्यों को ध्यान से देखते रहते हैं, मानो उनका उद्देश्य बोलने या कुछ करने से पहले अपने आसपास के लोगों को अच्छी तरह से समझना और जानना है। वे पहले इसकी पहचान करते हैं कि कौन उनका शिकार हो सकता है और कौन उनका सहायक बन सकता है, और उन्हें “राजनीतिक दुश्मन” के रूप में किनसे सावधान रहने की आवश्यकता है। कभी-कभी वे बोलते नहीं हैं या कोई रुख नहीं अपनाते हैं, शांत रहते हैं, फिर भी वे अंदर ही अंदर मंथन करते और हिसाब करते रहते हैं; ये व्यक्ति दिल से चालाक होते हैं और कभी-कभार ही बोलते हैं। क्या तुम लोग कहोगे कि ऐसा व्यक्ति काफी शातिर है? यदि वे अक्सर नहीं बोलते, तो तुम उन्हें कैसे पहचान सकते हो? क्या उन्हें पहचानना आसान होता है? बहुत मुश्किल होता है। ऐसे लोगों के दिल पूरी तरह से शैतानी फलसफे से भरे हुए होते हैं। क्या यह कुटिलता नहीं है? मसीह-विरोधी मानते हैं कि अगर वे बहुत ज्यादा बात करेंगे, लगातार अपने विचार व्यक्त करेंगे और दूसरों के साथ संगति करेंगे, तो हर कोई उनकी असलियत जान जाएगा; उन्हें लगेगा कि मसीह-विरोधी में गहराई नहीं है, वह सिर्फ एक साधारण व्यक्ति है, और उनका सम्मान नहीं करेगा। मसीह-विरोधी के लिए सम्मान खोने का क्या मतलब होता है? इसका मतलब होता है दूसरों के दिलों में अपनी प्रतिष्ठित स्थिति खोना, औसत दर्जे का, अज्ञानी और साधारण दिखना। यही वह है जो मसीह-विरोधी देखने की उम्मीद नहीं करते। इसलिए, जब वे कलीसिया में दूसरों को हमेशा अपनी नकारात्मकता, परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह, पिछले दिन की गई गलतियों या आज ईमानदार न होने से होने वाले असहनीय दर्द को स्वीकार करते देखते हैं, तो मसीह-विरोधी इन लोगों को मूर्ख और भोला समझते हैं, क्योंकि वे कभी भी ऐसी बातें स्वीकार नहीं करते, अपने विचारों को छिपाए रखते हैं। कुछ लोग खराब काबिलियत या सरल-मन, जटिल विचारों की कमी के कारण कम बोलते हैं, लेकिन मसीह-विरोधियों का कभी-कभार बोलना इस कारण से नहीं होता; यह स्वभाव की समस्या होती है। वे दूसरों से मिलते समय शायद ही कभी बोलते हैं और आसानी से मामलों पर अपने विचार व्यक्त नहीं करते। वे अपने विचार क्यों व्यक्त नहीं करते? सबसे पहले, उनमें निश्चित रूप से सत्य की कमी होती है और वे चीजों की असलियत नहीं समझ पाते। यदि वे बोले, तो वे गलतियाँ कर सकते हैं और उनकी असलियत सामने आ सकती है; उन्हें नीचा दिखाए जाने का डर होता है, इसलिए वे चुप रहने का दिखावा करते हैं और गंभीरता का ढोंग करते हैं, जिससे दूसरों के लिए उन्हें पहचानना मुश्किल हो जाता है, वे बुद्धिमान और प्रतिष्ठित दिखते हैं। इस दिखावे के साथ, लोग मसीह-विरोधी को कम आँकने की हिम्मत नहीं करते, और बाहर से उनके शांत और संयमित रूप को देखकर वे उन्हें और अधिक सम्मान देते हैं और उन्हें तुच्छ समझने की हिम्मत नहीं करते। यह मसीह-विरोधियों का कुटिल और दुष्ट पहलू होता है। वे आसानी से अपने विचार व्यक्त नहीं करते क्योंकि उनके अधिकांश विचार सत्य के अनुरूप नहीं होते, बल्कि केवल मानवीय धारणाएँ और कल्पनाएँ होती हैं, जो सबके सामने लाने योग्य नहीं होतीं। इसलिए, वे चुप रहते हैं। अंदर से वे कुछ प्रकाश प्राप्त करने की आशा करते रहते हैं ताकि उसे वे प्रशंसा प्राप्त करने के लिए फैला सकें, लेकिन चूँकि उनके पास इसका अभाव होता है, वे सत्य की संगति के दौरान चुप और छिपे रहते हैं, मौका तलाश रहे भूत की तरह अंधेरे में दुबके रहते हैं। जब वे दूसरों को प्रकाश के बारे में बोलते हुए पाते हैं, तो वे इसे अपना बनाने के तरीके खोज लेते हैं, इसे दूसरे तरीके से व्यक्त करके दिखावा करते हैं। मसीह-विरोधी इतने ही चालाक होते हैं। वे चाहे जो भी करें, वे दूसरों से अलग दिखने और श्रेष्ठ बनने का प्रयास करते हैं, क्योंकि तभी वे प्रसन्न महसूस करते हैं। यदि उन्हें अवसर नहीं मिलता, तो वे पहले चुपचाप रहते हैं, और अपने विचार अपने तक सीमित रखते हैं। यह मसीह-विरोधी लोगों की चालाकी होती है। उदाहरण के लिए, जब परमेश्वर के घर से कोई उपदेश जारी किया जाता है, तो कुछ लोग कहते हैं कि यह परमेश्वर के वचनों जैसा लगता है, और अन्य लोग सोचते हैं कि यह ऊपरवाले की ओर से संगति जैसा लगता है। अपेक्षाकृत सरल हृदय वाले लोग वही बोलते हैं जो उनके मन में होता है, लेकिन मसीह-विरोधियों के पास भले ही इस बारे में कोई राय हो, वे इसे छिपाए रखते हैं। वे ध्यान से देखते रहते हैं और बहुमत के दृष्टिकोण का पालन करने को तैयार रहते हैं, लेकिन वास्तव में वे स्वयं इसे पूरी तरह से नहीं समझ पाते। क्या ऐसे चालाक और धूर्त लोग सत्य समझ सकते हैं या उनमें वास्तविक विवेक हो सकता है? जो सत्य नहीं समझता, वह किसकी असलियत जान सकता है? वह किसी भी चीज की असलियत नहीं जान सकता। कुछ लोग चीजों की असलियत नहीं जान पाते फिर भी वे गंभीर होने का दिखावा करते हैं; वास्तव में, उनमें विवेक की कमी होती है और उन्हें डर बना रहता है कि दूसरे लोग उन्हें पहचान जाएँगे। ऐसी परिस्थितियों में सही रवैया यह होता है : “हम इस मामले की असलियत नहीं जान पा रहे हैं। चूँकि हम नहीं जानते, इसलिए हमें लापरवाही से नहीं बोलना चाहिए। गलत तरीके से बोलने से नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। मैं इंतजार करूँगा और देखूँगा कि ऊपरवाला क्या कहता है।” क्या यह ईमानदारी से बोलना नहीं है? यह बहुत सरल भाषा है, और फिर भी मसीह-विरोधी ऐसे क्यों नहीं कहते? वे अपनी सीमाओं को जानते हैं और अपनी असलियत बाहर आने नहीं देना चाहते; लेकिन इसके पीछे एक घृणित इरादा भी होता है—प्रशंसा पाना। क्या यह सबसे घिनौनी बात नहीं है? जब सभी बोल लेते हैं, यह देखकर कि अधिकांश लोग कहते हैं कि ये परमेश्वर के वचन हैं और कुछ कहते हैं कि ये नहीं है, मसीह-विरोधी को भी लगता है कि उपदेश शायद परमेश्वर के वचन न हों, लेकिन वे इसे सीधे तौर पर नहीं कहते। वे कहते हैं, “मैं इस मामले पर निर्णय लेने में जल्दबाजी नहीं कर सकता; मैं बहुमत के साथ चलूँगा।” वे अपनी अंतर्दृष्टि की कमी को स्वीकार नहीं करते, बल्कि इस बयान का उपयोग रूप बदलने और छिपाने के लिए करते हैं, इस दौरान वे सोचते रहते हैं कि वे बहुत बुद्धिमान हैं, कि उनके तरीके शानदार हैं। फिर दो दिन बाद जब परमेश्वर का घर घोषणा करता है कि उपदेश परमेश्वर के ही वचन थे, तो मसीह-विरोधी तुरंत कहता है, “देखो, मैंने तुमसे क्या कहा था? मुझे हमेशा से पता था कि ये परमेश्वर के वचन थे, लेकिन मैं तुम लोगों में से उनकी कमजोरी को लेकर चिंतित था जो उन्हें पहचान नहीं पाए, इसलिए मैं यह कह नहीं पाया। अगर मैंने कहा होता कि ये परमेश्वर के वचन हैं, तो क्या मैं तुम लोगों की निंदा नहीं कर रहा होता? तुम लोग कितने दुखी होते! क्या मैं यह जानकर निश्चिंत हो पाता कि तुम लोग कितने कमजोर हो? फिर मैं किस तरह का अगुआ होता?” भेस बदलने का ऐसा उस्ताद! मसीह-विरोधी जो कुछ भी कहते हैं उसके पीछे उनके इरादे और उद्देश्य होते हैं; जब भी वे अपना मुँह खोलते हैं, तो यह अपने बारे में शेखी बघारने, अपनी उपलब्धियों, पिछले अच्छे कर्मों और पिछली महिमाओं पर इतराने के लिए होता है। जब भी वे बोलते हैं, तो यह इन्हीं चीजों के बारे में होता है। जो लोग उनकी असलियत नहीं जान पाते वे उन्हें पूजते हैं, जबकि जो लोग उनकी असलियत जान जाते हैं वे उन्हें बेहद धूर्त और धोखेबाज पाते हैं—मसीह-विरोधी कभी भी अपनी कमियों को स्वीकार नहीं करते। मसीह-विरोधी गुप्त रूप से काम करते हैं और गोल-मोल बातें करते हैं; वे जो कुछ भी कहते हैं, उसमें से ज्यादातर बकवास होती है, और वे किसी भी चीज की असलियत जानने या किसी भी सत्य को समझने में असमर्थ होते हैं। इससे भी बदतर, वे किसी भी सत्य को न समझने के बाद भी उसे समझने का दिखावा करते हैं और हर चीज में शामिल होना चाहते हैं, फैसले लेना चाहते हैं और सभी मामलों में अंतिम निर्णय सुनाना चाहते हैं, अपने आसपास के लोगों को जानने का कोई अधिकार नहीं देते। इससे आखिरकार क्या स्थिति पैदा होती है? हर कोई जो उनके साथ सहयोग करता है या उनके साथ कर्तव्य करता है, उसे लगता है कि भले ही वे सतही तौर पर वफादार और कीमत चुकाने को तैयार दिखते हों, लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है। यहाँ तक कि जो लोग वर्षों से मसीह-विरोधी के करीब रहे हैं, वे भी उनकी असलियत नहीं जान पाते कि वे क्या सोच रहे हैं या नहीं जान पाते कि वे क्या करने में सक्षम हैं—ज्यादातर लोग उनकी असलियत नहीं जान पाते। वे जो कुछ भी कहते हैं, वह सब झूठ और खोखले शब्द, दोहरी और भ्रामक बातें होती हैं। वे हर चीज में शामिल होना चाहते हैं और सभी निर्णय लेना चाहते हैं, लेकिन एक बार जब वे निर्णय ले लेते हैं, तो वे संभावित नतीजों की कोई जिम्मेदारी नहीं लेते, और वे इस व्यवहार को सही ठहराने के लिए बहाने ढूँढ़ लेते हैं। निर्णय लेने के बाद वे दूसरों को काम करने देते हैं, जबकि वे अन्य मामलों में हस्तक्षेप करने के लिए आगे बढ़ जाते हैं। जहाँ तक इस बात का सवाल है कि मूल मामले की खोज-खबर ली जाती है या नहीं, उसे लागू किया जाता है या नहीं, उसके निष्पादन की प्रभावशीलता क्या है, क्या अधिकांश अन्य लोगों की दृष्टिकोण के बारे में कोई राय है, क्या इससे परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचता है, या क्या भाई-बहनों को इसके बारे में समझ है, वे इसकी परवाह नहीं करते, ऐसा व्यवहार करते हैं जैसे यह उनकी चिंता का विषय नहीं है, कि इससे उनका कोई लेना-देना नहीं है—वे थोड़ी सी भी परवाह नहीं करते। उन्हें केवल किस चीज की परवाह होती है? वे केवल उन मामलों की परवाह करते हैं जिनमें वे दिखावा कर सकें और दूसरों से प्रशंसा प्राप्त कर सकें; वे ऐसा करने के अवसरों को कभी नहीं छोड़ते। अपने काम में, वे आदेश देने और विनियमों को लागू करने के अलावा कुछ नहीं करते। वे केवल सत्ता के खेल खेलने और लोगों के साथ हेराफेरी करने में सक्षम होते हैं, जबकि वे आत्म-संतुष्ट होते हैं और सोचते हैं कि वे अपने काम में निपुण हैं। वे अपने काम करने के तरीके के परिणामों से पूरी तरह अनजान होते हैं—वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नुकसान पहुँचा रहे होते हैं, कलीसिया के काम में गड़बड़ी और बाधाएँ पैदा कर रहे होते हैं। वे परमेश्वर की इच्छा कार्यान्वित करने में बाधा डाल रहे होते हैं और अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करने की कोशिश कर रहे होते हैं।

“स्वेच्छाचारी और तानाशाह होना, दूसरों के साथ कभी संगति न करना और दूसरों को अपने आज्ञापालन के लिए मजबूर करना”—मसीह विरोधियों के इस व्यवहार का सार मुख्य रूप से क्या संकेत देता है? उनका स्वभाव दुष्ट और क्रूरतापूर्ण होता है, और उनके पास दूसरों को नियंत्रित करने की असाधारण रूप से प्रबल इच्छा होती है, जो सामान्य मानवीय तर्क-शक्ति की सीमाओं से परे होती है। इसके अतिरिक्त, अपने कर्तव्य निभाने के प्रति उनकी समझ या दृष्टिकोण और रवैया क्या होता है? यह उन लोगों से किस तरह अलग होता है जो सचमुच अपना कर्तव्य निभाते हैं? जो लोग सचमुच अपना कर्तव्य निभाते हैं, वे अपने काम के लिए सिद्धांतों की तलाश करते हैं, जो एक बुनियादी आवश्यकता है। लेकिन मसीह-विरोधी अपने द्वारा निभाए जाने वाले कर्तव्य को कैसे समझते हैं? उनके कर्तव्य के निर्वहन के माध्यम से कौन से स्वभाव और सार प्रकट होते हैं? वे एक ऊँचे पद पर आकर अपने से नीचे के लोगों को नीचा दिखाते हैं। एक बार जब उन्हें अगुआई करने के लिए चुना जाता है, तो वे खुद को रुतबे और पहचान वाले व्यक्ति के रूप में देखना शुरू कर देते हैं। वे अपने कर्तव्य को परमेश्वर से स्वीकार नहीं करते। एक निश्चित पद प्राप्त करने पर उन्हें लगता है कि उनका रुतबा महत्वपूर्ण है, उनकी सत्ता महान है, और उनकी पहचान अद्वितीय है, जिससे उन्हें अपने ऊँचे पद से दूसरों को नीचा दिखाने की अनुमति मिल जाती हैं। साथ ही, उन्हें लगता है कि वे आदेश जारी कर सकते हैं और अपने विचारों के अनुसार कार्य कर सकते हैं, और उन्हें ऐसा करने को लेकर कोई संदेह करने की भी जरूरत नहीं है। उन्हें लगता है कि वे अधिकार को लेकर अपनी लालसा पूरी करने, दूसरों पर शासन करने और सत्ता के साथ अगुआई करने की अपनी इच्छा और महत्वाकांक्षा को संतुष्ट करने के लिए कर्तव्य निभाने के अवसर का उपयोग कर सकते हैं। यह कहा जा सकता है कि उन्हें लगता है कि आखिरकार उनके पास निर्विरोध रूप से अपना अधिकार जमाने का मौका मौजूद है। कुछ लोग कहते हैं : “मसीह विरोधियों की अभिव्यक्तियाँ स्वेच्छाचारी और तानाशाह होना, और कभी भी दूसरों के साथ संगति नहीं करना होती हैं। हालाँकि हमारे अगुआ में भी मसीह-विरोधियों का स्वभाव और प्रकाशन होता है, फिर भी वे अक्सर हमारे साथ संगति करते हैं!” क्या इसका मतलब यह है कि वे मसीह-विरोधी नहीं हैं? मसीह-विरोधी कभी-कभी दिखावा कर सकते हैं; प्रत्येक के साथ संगति करने और प्रत्येक के विचार समझने और जानने के बाद—यह पहचान करने के बाद कि कौन उनके पक्ष में है और कौन नहीं—वे उन्हें वर्गीकृत करते हैं। भविष्य के मामलों में वे केवल उन लोगों के साथ संवाद करते हैं जिनके उनके साथ अच्छे संबंध हैं और जो उनके साथ संगत हैं। जो लोग उनके साथ तालमेल नहीं रखते उन्हें अक्सर अधिकांश मामलों के बारे में अंधेरे में रखा जाता है, और वे उन्हें परमेश्वर के वचनों की पुस्तकें देने से इनकार भी कर सकते हैं। क्या तुम लोगों ने कभी इस तरह से काम किया है, स्वेच्छाचारी और तानाशाह होकर, दूसरों के साथ कभी संगति नहीं की है? स्वेच्छाचारी और तानाशाह होना निश्चित रूप से होता है, लेकिन दूसरों के साथ कभी संगति न करना जरूरी नहीं है; कभी-कभी तुम संगति कर सकते हो। हालाँकि, संगति करने के बाद भी चीजें वैसे ही होती हैं जैसा तुमने कहा। कुछ लोग सोचते हैं : “हमारी संगति के बावजूद, मैंने वास्तव में बहुत पहले ही एक योजना तय कर ली है। मैं तुम्हारे साथ बस औपचारिकता के नाते संगति करता हूँ, बस तुम्हें यह बताने के लिए कि मैं जो करता हूँ उसमें मेरे अपने सिद्धांत हैं। क्या तुम्हें लगता है कि मुझे तुम्हारे बारे में अंदाजा नहीं है? अंत में, तुम्हें अभी भी मेरी बात सुननी होगी और मेरे रास्ते पर चलना होगा।” वास्तव में, उन्होंने बहुत पहले ही अपने दिल में फैसला कर लिया होता है। वे मानते हैं, “मैं अपनी बातों से लोगों से जो चाहे मनवा सकता हूँ और किसी भी तर्क को अपने पक्ष में मोड़ सकता हूँ; कोई भी मुझसे बहस में जीत नहीं सकता, इसलिए स्वाभाविक रूप से लोग मेरी अगुआई का अनुसरण करेंगे।” वे बहुत पहले ही अपनी गणना कर चुके होते हैं। क्या इस तरह की स्थिति मौजूद होती है? स्वेच्छाचारी और तानाशाह होना कोई ऐसा व्यवहार नहीं है जिसका खुलासा कभी-कभार अचानक होता हो; यह एक निश्चित स्वभाव से नियंत्रित होता है। हो सकता है कि उनके बोलने या कार्य करने के तरीके से यह स्वेच्छाचारी और तानाशाह जैसा न लगे, लेकिन उनके स्वभाव और उनके कार्यकलापों की प्रकृति से, वे वास्तव में स्वेच्छाचारी और तानाशाह होते हैं। वे औपचारिकताओं से गुजरते हैं और दूसरों की राय “सुनते हैं,” दूसरों को बोलने देते हैं, उन्हें हालात के विवरणों से अवगत कराते हैं, चर्चा करते हैं कि परमेश्वर के वचन की आवश्यकता क्या है—लेकिन वे दूसरों को अपने साथ आम सहमति तक पहुँचने के लिए मार्गदर्शन करने के लिए एक खास शब्दाडंबर या वाक्यांश का उपयोग करते हैं। और अंतिम परिणाम क्या होता है? सब कुछ उनकी योजना के अनुसार आगे बढ़ता जाता है। यह उनका धूर्त पहलू है; इसे दूसरों को उनकी बात मानने के लिए मजबूर करना भी कहते हैं, यह एक तरह की “सौम्य” बाध्यता होती है। वे सोचते हैं, “तुम सुन नहीं रहे हो, है न? तुम नहीं समझते, है न? मैं समझाता हूँ।” व्याख्या करते हुए वे अपने शब्दों को बुनते और घुमाते हैं, दूसरों को अपने तर्क में ले जाते हैं। उन्हें इधर-उधर घुमाने के बाद लोग सुनते हैं और सोचते हैं, “तुम जो कहते हो वह सही है; तुम जैसा कहोगे हम वैसा ही करेंगे, इतना गंभीर होने की कोई जरूरत नहीं है,” और मसीह-विरोधी प्रसन्न हो जाता है। अधिकांश लोग उनकी बातों का भेद नहीं पहचान पाते। क्या तुम लोगों में विवेक है? ऐसी परिस्थितियों का सामना करने पर तुम्हें क्या करना चाहिए? उदाहरण के लिए, जब किसी मामले का सामना करना पड़े, तो तुम्हें लगता है कि कोई समस्या है; तुम उस समय सटीक समस्या नहीं बता पाते, फिर भी तुम्हें लगता है कि तुम्हें आज्ञापालन के लिए मजबूर किया जा रहा है। तब तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें प्रासंगिक सिद्धांतों की तलाश करनी चाहिए, ऊपरवाले से मार्गदर्शन लेना चाहिए, या संबंधित व्यक्ति के साथ संगति करनी चाहिए। इसके अलावा, जो लोग सत्य समझते हैं, वे इस मामले के बारे में एक साथ चर्चा और संगति कर सकते हैं। कभी-कभी, पवित्र आत्मा का कार्य और मार्गदर्शन तुम्हें मसीह-विरोधियों या मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलने वालों द्वारा प्रस्तुत प्रस्तावों या सिद्धांतों में समस्याओं और उनके गुप्त उद्देश्य को समझने का मौका देगा। एक-दूसरे के साथ संगति करने से तुम समझ पाओगे। लेकिन शायद तुम संगति न करो, इसके बजाय सोचो, “यह कोई बड़ा मुद्दा नहीं है, उसे जो अच्छा लगे करने देते हैं। आखिरकार, मैं मुख्य रूप से जिम्मेदार नहीं हूँ, मुझे इन मामलों से परेशान होने की जरूरत नहीं है। अगर कुछ गलत हुआ तो मैं जवाबदेह नहीं रहूँगा; वही इसे सहेगा।” यह किस तरह का व्यवहार है? यह अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठाहीनता है। क्या अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठाहीनता परमेश्वर के घर के हितों के साथ विश्वासघात नहीं है? यह यहूदा की तरह है! कई लोग जब दमनकारी शक्ति का सामना करते हैं, तो समझौता कर लेते हैं और इस शक्ति से धमकाने वालों के साथ हो लेते हैं, जो उनके कर्तव्य के प्रति निष्ठाहीनता की अभिव्यक्ति है। चाहे तुम्हारा सामना किसी मसीह-विरोधी से हो या किसी ऐसे व्यक्ति से जो लापरवाही से काम करता है और तुम्हें आज्ञापालन के लिए मजबूर करता है, तुम्हें कौन से सिद्धांतों को बरकरार रखना चाहिए? तुम्हें किस मार्ग का अनुसरण करना चाहिए? अगर तुम्हें लगता है कि तुम जो कर रहे हो वह परमेश्वर के वचनों और कार्य व्यवस्थाओं के विरोध में नहीं है या उनसे भटकता नहीं, तो तुम्हें दृढ़ रहना चाहिए। सत्य से जुड़े रहना सही है और परमेश्वर इसकी स्वीकृति देता है, लेकिन शैतान, दुष्ट शक्तियों, बुरे लोगों के सामने झुकना और उनसे समझौता करना विश्वासघात का व्यवहार है, यह एक बुरा कर्म है, जिससे परमेश्वर घृणा करता है और शाप देता है। जब मसीह-विरोधी किसी ऐसे व्यक्ति का सामना करते हैं जो उनसे बहस करता है, वे अक्सर कहते हैं, “इस मामले में मेरा कहना अंतिम है, और इसे मेरे तरीके से ही किया जाना चाहिए। अगर कुछ भी गलत हुआ, तो मैं जिम्मेदारी लूँगा!” यह कथन किस स्वभाव का प्रतिनिधित्व करता है? कोई व्यक्ति जो इस तरह से बोलता और अभ्यास करता है, क्या उसमें सामान्य मानवता हो सकती है? वे दूसरों को अपने आज्ञापालन के लिए क्यों मजबूर करते हैं? जब समस्याएँ आती हैं तो वे उन्हें हल करने के लिए सत्य की तलाश क्यों नहीं करते? वे सत्य का अभ्यास करने के सिद्धांतों को निर्धारित क्यों नहीं कर पाते? यह साबित करता है कि उनमें सत्य की कमी है। क्या तुम लोग इस कथन में समस्या का भेद पहचान सकते हो? ऐसी बातें कहना यह साबित करने के लिए पर्याप्त है कि उनमें मसीह-विरोधी का स्वभाव है; यह मसीह-विरोधी का व्यवहार है। हालाँकि एक अधिक चालाक मसीह-विरोधी, दूसरों द्वारा पहचाने जाने के डर से कुछ ऐसी बातें अवश्य कहेगा जिससे सभी सहमत हों और जो लोगों को गुमराह करने और पैर जमाने के अपने लक्ष्य पाने के लिए सही लगती हों। फिर, वे इस बात पर विचार करेंगे कि परमेश्वर के चुने हुए लोगों को कैसे नियंत्रित किया जाए।

मसीह-विरोधियों की स्वेच्छाचारी और तानाशाह होने की अभिव्यक्तियों के कई उदाहरण होने चाहिए, क्योंकि इस तरह का व्यवहार, स्वभाव और गुण मसीह-विरोधियों में ही नहीं हर भ्रष्ट व्यक्ति में देखे जा सकते हैं। क्या तुम लोग कुछ ऐसे उदाहरणों के बारे में सोच सकते हो, जब तुम स्वेच्छाचारी और तानाशाह थे? उदाहरण के लिए, अगर कोई कहता है कि तुम छोटे बालों में अच्छे लगते हो, और तुम जवाब देते हो, “छोटे बालों में ऐसा क्या अच्छा है? मुझे लंबे बाल पसंद हैं, और मुझे जैसा अच्छा लगेगा, वैसे रखूँगा,” तो क्या यह स्वेच्छाचारी और तानाशाह होना है? (नहीं।) यह सिर्फ एक व्यक्तिगत वरीयता है, जो सामान्य मानवता का हिस्सा है। कुछ लोग चश्मा पहनना पसंद करते हैं, भले ही उनकी दृष्टि ठीक हो। अगर कुछ लोग उनकी आलोचना करते हैं, कहते हैं, “तुम सिर्फ अच्छा दिखने की कोशिश कर रहे हो, तुम्हें वास्तव में चश्मे की जरूरत नहीं है!” और वे जवाब देते हैं, “तो क्या हुआ अगर मैं ऐसा कर रहा हूँ? मैं तो उन्हें पहनूँगा!”—क्या यह स्वेच्छाचारी और तानाशाह होना है? नहीं, यह एक व्यक्तिगत वरीयता है, ज्यादा से ज्यादा यह दुराग्रह है, और इसमें उनके स्वभाव की कोई समस्या शामिल नहीं है; अगर उन्हें लगता है तो वे कुछ दिन बाद चश्मा पहनना छोड़ सकते हैं। तो मुख्य रूप से स्वेच्छाचारी और तानाशाह होना क्या होता है? इसमें मुख्य रूप से व्यक्ति द्वारा लिया गया मार्ग, उसका स्वभाव और उसके कार्यकलापों के पीछे के सिद्धांत और प्रेरणाएँ शामिल होती हैं। उदाहरण के लिए, एक विवाह में जहाँ पति को कार पसंद है और परिवार के पास केवल 20,000 युआन हैं, और पति जहाँ से भी हो सके, पैसे उधार लेकर अनावश्यक रूप से 200,000 युआन की कार खरीद लेता है, जिससे परिवार भोजन का खर्च उठाने में असमर्थ हो जाता है, और पत्नी को खरीद के बारे में पता भी नहीं होता, क्या यह पति स्वेच्छाचारी और तानाशाह है? यह वास्तव में स्वेच्छाचारी और तानाशाह होना है। स्वेच्छाचारी और तानाशाह होने का अर्थ है दूसरों की भावनाओं, विचारों, राय, रवैये या दृष्टिकोणों का ख्याल न रखना, केवल अपने आप पर ध्यान केंद्रित करना। सीधे कहें तो, रोजमर्रा की जिंदगी में इसका मतलब है अपने दैहिक सुखों और इच्छाओं को संतुष्ट करना, अपने स्वार्थ को संतुष्ट करना, और जब इसमें कर्तव्य शामिल हो, तो इसका मतलब है अपनी महत्वाकांक्षा और रुतबे और सत्ता के अनुसरण की इच्छा को संतुष्ट करना। यहाँ एक उदाहरण है : कलीसिया के पास एक घर था, और उसके बगल में एक सड़क बनाई जानी थी। सड़क की उचित चौड़ाई घर और अहाते के आकार से निर्धारित होनी चाहिए, जिसका उद्देश्य सौंदर्य और व्यावहारिकता दोनों होना चाहिए। इस घर और अहाते के बड़े क्षेत्र को देखते हुए सड़क की चौड़ाई कम से कम दो मीटर होनी चाहिए। प्रभारी व्यक्ति ने कहा : “मैंने फैसला किया है, हम इसे एक मीटर चौड़ा बनाएँगे।” दूसरों ने कहा, “हर दिन कई लोग आते-जाते रहते हैं, और कभी-कभी हमें सामान ले जाना पड़ता है; एक मीटर से काम नहीं चलेगा, यह बहुत संकरी है।” लेकिन प्रभारी व्यक्ति ने अपने दृष्टिकोण पर जोर दिया, और चर्चा के लिए तैयार नहीं हुआ। पूरा होने के बाद हर किसी ने देखा कि सड़क बहुत संकरी थी; यह घर और अहाते के साथ असंगत थी और अव्यावहारिक थी—इसे फिर से बनाने की आवश्यकता थी, जिसके कारण फिर से काम करना पड़ा। तब प्रत्येक ने इस व्यक्ति के बारे में शिकायत की। वास्तव में, सड़क का निर्माण शुरू होने से पहले कुछ लोगों ने आपत्तियाँ जताई थीं, लेकिन यह व्यक्ति असहमत था और अपने ही दृष्टिकोण पर जोर देता रहा, दूसरों को अपनी इच्छा के अनुसार काम करने के लिए मजबूर करता रहा, जिसकी वजह से ऐसे परिणाम सामने आए। यह व्यक्ति दूसरों के सुझावों को क्यों स्वीकार नहीं कर सका? जब राय अलग-अलग थीं, तो वह सभी पहलुओं पर विचार क्यों नहीं कर पाया और सही दृष्टिकोण क्यों नहीं पा सका? अगर कोई सलाह-मशविरा करने वाला न हो, तो अपने फैसले खुद लेना ठीक होता है, लेकिन अब जब सलाह-मशविरा करने वाले लोग हैं और बेहतर सुझाव भी उपलब्ध हैं, तो वे उन्हें क्यों नहीं मान सकते? यह किस तरह का स्वभाव है? कम से कम दो संभावनाएँ होती हैं : एक तो यह कि व्यक्ति विचारहीन है, भ्रमित इंसान है; दूसरी यह कि उसका स्वभाव बहुत अहंकारी और आत्म-तुष्ट है, हमेशा खुद को सही मानता है, दूसरों की बात स्वीकार नहीं कर पाता, चाहे वे कितने भी सही क्यों न हों—यह इतना अहंकारी होना है कि इससे विवेक खत्म हो जाता है। इतनी छोटी-सी बात से उनका स्वभाव बेनकाब हो गया। अत्यधिक अहंकार से तर्क-शक्ति खत्म हो जाती है। तर्क-शक्ति की कमी का क्या मतलब है? किस तरह की चीज में तर्क-शक्ति की कमी होती है? जानवरों में तर्क-शक्ति की कमी होती है। अगर किसी व्यक्ति में तर्क-शक्ति की कमी होती है, तो वह जानवर से अलग नहीं होता; उसके मन में आकलन की क्षमता नहीं होती, और उसमें तर्क-शक्ति नहीं होती। अगर कोई व्यक्ति इतना अहंकारी हो जाए कि वह विवेक खो दे, और उसमें तर्क-शक्ति की कमी हो, तो क्या वह जानवर जैसा नहीं है? (हाँ।) वे बस ऐसे ही हैं; मानवीय तर्क-शक्ति की कमी का मतलब है कि वे मानव नहीं हैं। क्या मसीह-विरोधियों में ऐसी तर्क-शक्ति होती है? (नहीं।) मसीह-विरोधियों में तो इसका और भी अभाव होता है; वे जानवरों से भी बदतर होते हैं, वे दानव हैं। जैसे जब परमेश्वर ने शैतान से पूछा, “तू कहाँ से आता है?” परमेश्वर का प्रश्न वास्तव में बहुत स्पष्ट था; परमेश्वर ने क्या संदेश दिया? (वह शैतान से पूछ रहा था कि वह कहाँ से आया।) यह वाक्य स्पष्ट रूप से एक प्रश्नचिह्न पर समाप्त होता है; यह एक प्रश्न है, जो “शैतान” को “तुम” उद्देश्य के साथ संदर्भित करता है : “तुम कहाँ से आए हो?” व्याकरण एकदम सही है, और परमेश्वर का प्रश्न आसानी से समझ में आता है। शैतान ने कैसे जवाब दिया? (“पृथ्वी पर इधर-उधर घूमते-फिरते और डोलते-डालते आया हूँ” (अय्यूब 1:7)।) यह शैतान का प्रसिद्ध उद्धरण है। क्या शैतान के उत्तर में कोई तार्किकता दिखाई देती है? (नहीं।) इसमें तार्किकता की कमी है। जब परमेश्वर ने उससे फिर से पूछा कि वह कहाँ से आया, तो उसने वही उत्तर दोहराया, मानो वह परमेश्वर के वचनों को समझ नहीं पा रहा हो। क्या लोग समझ सकते हैं कि शैतान ने क्या कहा? क्या उसकी वाणी में कोई तार्किकता है? (नहीं।) इसमें तार्किकता का अभाव है—तो क्या वह सत्य समझ सकता है? परमेश्वर के इतने सरल प्रश्न का भी उसने उस तरह उत्तर दिया; वह परमेश्वर द्वारा बोले गए सत्य को समझने में और भी कम सक्षम है। कहा जा सकता है कि मसीह-विरोधियों में भी तार्किकता का अभाव होता है; जो लोग कुटिलता से कार्य करते हैं, जो परमेश्वर के वचनों या सत्य को नहीं समझ सकते, वे सभी तर्कहीन होते हैं। चाहे तुम सत्य का अभ्यास करने, सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने, सिद्धांतों की खोज करने और अपने कर्तव्य को निभाते समय दूसरों के साथ संगति करने के बारे में कितनी भी बात कर लो—जिसके बारे में वे कहते हैं कि वे समझते हैं और जानते हैं—जब कार्रवाई करने की बात आती है, तो वे तुम्हारे शब्दों को दिल से नहीं लेते और मनमानी करते हैं। यह एक राक्षसी प्रकृति है! ऐसी राक्षसी प्रकृति वाले लोग सत्य नहीं समझते और उनमें तार्किकता का अभाव होता है। उनका सबसे अनुचित और बेशर्म पहलू क्या होता है? मनुष्य परमेश्वर द्वारा बनाए गए हैं, और परमेश्वर लोगों को चुनता है और उन्हें किस उद्देश्य से अपने सामने लाता है? उसका उद्देश्य लोगों को परमेश्वर के वचनों पर ध्यान दिलाना और उन्हें समझना सिखाना होता है, ताकि वे जीवन में परमेश्वर के निर्देशानुसार सही मार्ग पर चलें और अंततः सही और गलत, सकारात्मक और नकारात्मक चीजों में अंतर करने में सक्षम हो पाएँ। यही परमेश्वर का इरादा है; इस तरीके से, जो लोग परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, वे उत्तरोत्तर बेहतर होते जाते हैं। और मसीह-विरोधी किस हद तक विवेकहीन होते हैं? वे सोचते हैं, “परमेश्वर, तुम लोगों को अपने सामने लाते हो, इसलिए मैं भी वैसा ही करूँगा; तुम लोगों को चुन सकते हो, और उनका आयोजन और उन पर शासन कर सकते हो, इसलिए मैं भी वैसा ही करूँगा; तुम लोगों से अपने आगे समर्पण करा सकते हो और अपनी बात सुना सकते हो, तुम सीधे आदेश देते हो और उनसे अपना कहा करा सकते हो, इसलिए मैं भी वैसा ही करूँगा।” क्या यह अतार्किकता नहीं है? (हाँ, है।) क्या तर्कहीन होने का मतलब यह नहीं है कि उनमें शर्म की कोई भावना नहीं है? (हाँ।) क्या लोग तुम्हारे हैं? क्या उन्हें तुम्हारा अनुसरण करना चाहिए? उन्हें तुम्हारी बात क्यों सुननी चाहिए? तुम तो केवल नन्हे सृजित प्राणियों में से एक हो, तुम कैसे हर चीज से ऊपर होने की आकांक्षा रख सकते हो? क्या यह अतार्किकता नहीं है? (हाँ, है।)

The Bible verses found in this audio are from Hindi OV and the copyright to the Bible verses belongs to the Bible Society of India. With due legal permission, they are used in this production.

परमेश्वर का आशीष आपके पास आएगा! हमसे संपर्क करने के लिए बटन पर क्लिक करके, आपको प्रभु की वापसी का शुभ समाचार मिलेगा, और 2025 में उनका स्वागत करने का अवसर मिलेगा।

WhatsApp पर हमसे संपर्क करें