मद सात : वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं (भाग तीन) खंड छह

बाइबल और परमेश्वर के सभी वर्तमान कथनों में जो कुछ भी तुमने देखा है, उसमें क्या परमेश्वर खूबियों, शिक्षा और ज्ञान की वकालत करता है? (नहीं।) इसके विपरीत परमेश्वर मानवीय ज्ञान और शिक्षा का गहन-विश्लेषण करता है। परमेश्वर खूबियों को कैसे परिभाषित करता है? अलौकिक क्षमताओं और विशेष प्रतिभाओं को वह कैसे परिभाषित करता है? तुम लोगों को समझना चाहिए कि खूबियाँ, अलौकिक क्षमताएँ और विशेष प्रतिभाएँ जीवन का प्रतिनिधित्व बिल्कुल नहीं करतीं। क्या इसका मतलब है कि वे जीवन का प्रतिनिधित्व नहीं करतीं? इसका मतलब है कि ये चीजें लोगों के सत्य पा लेने का परिणाम नहीं होतीं। ये चीजें वास्तव में आती कहाँ से हैं? क्या वे परमेश्वर से आती हैं? नहीं, परमेश्वर लोगों को ज्ञान या शिक्षा नहीं देता है और वह निश्चित रूप से लोगों को अधिक खूबियाँ नहीं देता ताकि वे सत्य का अनुसरण कर सकें। परमेश्वर इस तरह से कार्य नहीं करता। मैंने इस बात को ऐसे रखा है कि तुम लोग अब इसे समझ गए हो, है न? तो मसीह-विरोधियों की दुष्टता कहाँ अभिव्यक्त होती है? वे खूबियों, ज्ञानार्जन और ज्ञान को कैसे देखते हैं? वे इन चीजों को महत्व देते हैं, उनका अनुसरण करते हैं और यहाँ तक कि उन्हें पाने की इच्छा भी रखते हैं, विशेष रूप से खूबियों और अलौकिक क्षमताओं को पाने की। यदि तुम किसी मसीह-विरोधी से कहो कि “यदि तुम्हारे पास अलौकिक क्षमताएँ हों, तो तुम बुरी आत्माओं को आकर्षित करोगे,” तो वह कहेगा, “मैं नहीं डरता!” तुम जवाब में कहोगे कि “फिर भविष्य में तुम्हारे उद्धार की कोई उम्मीद नहीं होगी, तुम्हें अठारहवें स्तर के नरक में, आग और गंधक की झील में डाल दिया जाएगा,” फिर भी वह कहेगा कि “मुझे इसका डर नहीं है!” यदि तुमने उसे दस अलग-अलग भाषाओं में बोलने दिया होता और दूसरों से सम्मान पाने के लिए उसको दिखावा करने दिया होता, तो वह सहमत होता और ऐसा करने का इच्छुक होता। परमेश्वर सामान्य मानवता के भीतर बहुत सामान्य रूप से बोलता है और बहुत व्यावहारिक रूप से कार्य करता है और मसीह-विरोधी लोग कार्य के इस तरीके, रूप और सामग्री को स्वीकार नहीं करते—वे इसका तिरस्कार करते हैं। लोगों को इन मामलों में कैसे भेद करना चाहिए? उदाहरण के लिए कुछ लोग विभिन्न भाषाएँ बोल सकते हैं। क्या तुम इस तथ्य को स्वीकार कर सकते हो? क्या तुम्हें लगता है कि यह सामान्य है, या अजीब है? (अजीब।) इसलिए सामान्य मानवता की तर्कसंगत सीमा के भीतर यह अस्वीकार्य है। कोई ऐसा व्यक्ति जो सब कुछ याद रखता हो, जैसे रंग, आकार, चेहरे और नाम, और कोई किताब पढ़ने के बाद उसके सैकड़ों पन्ने याद रख सकता हो, उसे शुरू से अंत तक सुना सकता हो—ऐसे व्यक्ति से बातचीत करने के बाद क्या तुम्हें ऐसा महसूस नहीं होगा कि तुमने किसी असामान्य चीज का अनुभव किया है? (हाँ।) लेकिन मसीह-विरोधियों को ये चीजें पसंद हैं। मुझे बताओ कि जब तुम धार्मिक दुनिया के लोगों, तथाकथित इंजीलवादियों, उपदेशकों और पादरियों जिन्हें सामूहिक रूप से फरीसी के रूप में जाना जाता है के संपर्क में आते हो तो क्या तुम्हें लगता है कि ये वही लोग हैं जिनकी तुम्हारे हृदय को जरूरत है या तुम्हारे हृदय को व्यावहारिक परमेश्वर की जरूरत है? (परमेश्वर से संपर्क ही हमारे हृदय की जरूरत है।) सामान्य और व्यावहारिक परमेश्वर तुम्हारी आंतरिक जरूरतों के ज्यादा करीब है, ऐसा ही है न? तो इस बारे में बात करो कि जब तुम फरीसियों से बातचीत करते हो तो तुम्हें कैसा लगता है, इसके क्या फायदे और नुकसान हैं और क्या इससे कोई लाभ होता है। (यदि मैं फरीसियों से बातचीत करती हूँ, तो मुझे उनकी बातें नकली और दूर की लगती हैं। वे जिन चीजों के बारे में बात करते हैं, वे बहुत खोखली और झूठी होती हैं; उन्हें बहुत अधिक सुनने पर उबकाई आने लगती है और मैं अब उनके साथ और बातचीत नहीं करना चाहती।) फरीसियों द्वारा व्यक्त किए गए दृष्टिकोण सही हैं या बेतुके? (बेतुके।) उनके दृष्टिकोणों की प्रकृति बेतुकी है। इसके अलावा वे जो बातें कहते हैं वे अधिकतर व्यावहारिक होती हैं या खोखली? (खोखली।) क्या अधिकांश लोग उनकी बेतुकी और खोखली बातों, साथ ही साथ काल्पनिक और मनगढ़ंत बातों को सुनने से घृणा करते हैं या उन्हें सुनने में आनंद लेते हैं? (अधिकांश लोग इन बातों को सुनने से घृणा करते हैं।) अधिकांश लोग उन्हें नापसंद करते हैं और नहीं सुनना चाहते। उनके दृष्टिकोण और शब्दों को सुनने के बाद और उनके स्वभाव तथा झूठे और पाखंडी व्यवहार को देखने के बाद तुम अपने हृदय में क्या महसूस करते हो? क्या तुम और अधिक सुनना चाहते हो? क्या तुम उनके करीब जाने, उनके साथ गहराई से बातचीत करने और उनके बारे में और अधिक समझने के इच्छुक हो? (नहीं।) तुम उनसे संवाद नहीं करना चाहते। मुख्य मुद्दा यह है कि उनके शब्द बहुत खोखले हैं, सिद्धांतों और नारों से भरे हुए हैं; सदियों तक सुनने के बाद भी तुम्हें लगता है कि तुम्हें कुछ नहीं पता कि वे क्या कह रहे हैं। इसके अलावा उनका स्वभाव झूठा और दिखावे से भरा है; वे विनम्र, धैर्यवान और प्रेमपूर्ण होने का दिखावा करते हैं, और किसी ऐसे अनुभवी विश्वासी जैसा आचरण करते हैं जो पक्का “भक्त” होता है। जब तुम अंततः उनका असली चेहरा देखते हो तो तुम घृणा महसूस करते हो। तुम लोगों ने मेरे साथ बहुत गहरी बातचीत नहीं की है; तुम लोगों को मेरे दिए उपदेश कैसे लगते हैं? क्या उनमें और फरीसी जो बात करते हैं उनमें, कोई अंतर है? (हाँ।) क्या अंतर है? (परमेश्वर के उपदेश व्यावहारिक हैं।) यही मूल बात है। इसके अलावा मैं जो बात करता हूँ वह तुम लोगों के अभ्यास, अनुभवों और अपने कर्तव्यों के निर्वाह के क्रम में और वास्तविक जीवन में सामने आने वाले मामलों के विभिन्न पहलुओं से संबंधित है। यह अव्यावहारिक और अस्पष्ट नहीं है। इसके अलावा मैं जिस सत्य पर चर्चा करता हूँ या जिस दृष्टिकोण पर विचार करता हूँ, वह व्यावहारिक है या खोखला है? (व्यावहारिक है।) तुम इसे व्यावहारिक क्यों कहते हो? क्योंकि यह वास्तविक जीवन से अलग नहीं है, यह वास्तविक जीवन से ऊपर खोखले सिद्धांत उगलने वाली बात नहीं है। यह सब वास्तविक जीवन में लोगों के विवेक, समझ और अभ्यास और उन स्थितियों से संबंधित है जो तब उत्पन्न होती हैं जब लोग अपने कर्तव्यों का पालन करते समय विभिन्न मुद्दों का सामना करते हैं। संक्षेप में, इसमें ऐसे विषय शामिल हैं जिनका संबंध इस बात से है कि लोग परमेश्वर में विश्वास का अभ्यास कैसे करते हैं, परमेश्वर में विश्वास करने का उनका जीवन और अपने कर्तव्यों का पालन करते समय उनकी विभिन्न दशाएँ क्या होती हैं। हम उत्पत्ति या यशायाह की खोखली व्याख्या करने के लिए बाइबल नहीं निकालते, न ही हम प्रकाशितवाक्य के बारे में खोखली बातें करते हैं। मुझे प्रकाशितवाक्य पढ़ना सबसे अधिक नापसंद है और मैं इसके बारे में बात नहीं करना चाहता। इसके बारे में बात करने का क्या फायदा है? अगर मैं तुम्हें बताऊँ कि कौन सी विपत्ति सच हो गई, तो उसका तुमसे क्या मतलब होगा? यह परमेश्वर का मामला है। भले ही परमेश्वर का कार्य पूरा हो जाए, लेकिन उसका तुम पर क्या असर होगा? क्या तुम लोग इसके बाद भी तुम ही नहीं रहोगे? अगर मैं तुम लोगों को बता दूँ कि कौन सी विपत्ति सच हो गई, तो क्या तुम लोग अपना भ्रष्ट स्वभाव त्याग सकोगे? क्या यह इतना चमत्कारी होगा? नहीं। इसलिए जब लोग अंत तक अनुसरण करेंगे, तो उनमें से प्रत्येक को उसकी किस्म के अनुसार छाँटा जाएगा। वे जो सत्य स्वीकार सकते हैं, परमेश्वर के वचनों को पढ़ने का आनंद ले सकते हैं और सत्य का अभ्यास कर सकते हैं, वे अडिग रहेंगे। जो लोग परमेश्वर के वचनों को पढ़ने या उपदेशों को सुनने के लिए तैयार नहीं हैं, जो सत्य स्वीकारने से लगातार इनकार करते हैं और अपने कर्तव्यों के निर्वाह करने को तैयार नहीं हैं, वे अंततः बेनकाब कर निकाल दिए जाएँगे। यद्यपि वे सभाओं में भाग लेते हैं और उपदेश सुनते हैं लेकिन वे कभी सत्य का अभ्यास नहीं करते, अपरिवर्तित रहते हैं और उपदेश सुनने से विमुख रहते हैं—वे उन्हें सुनने के इच्छुक नहीं हैं। इसीलिए जब वे अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं, तब वह अनमने ढंग से होता है और कभी नहीं बदलता है। ये लोग बस छद्म-विश्वासी हैं। अगर परमेश्वर में निष्ठापूर्वक विश्वास करने वाले लोग अक्सर छद्म-विश्वासियों के साथ संपर्क में आएँ और साथ रहें, तो उन्हें कैसा लगेगा? न केवल उन्हें कोई लाभ या कोई शिक्षा ही नहीं मिलेगी, बल्कि उनके दिलों में खीझ भी बढ़ती जाएगी। मान लो कि तुम फरीसियों के संपर्क में आते हो और उन्हें बोलते हुए सुनते हो और तुम पाते हो कि वे स्पष्ट और तार्किक रूप से बोलते हैं और वे सभी नियमों और विनियमों को समझने योग्य तरीके से समझाते हैं और ऐसा प्रतीत होता है कि उनके शब्दों में गहरे सिद्धांत हैं, लेकिन सावधानीपूर्वक विश्लेषण करने पर उनमें से कोई भी सत्य वास्तविकता नहीं है और सब खोखले सिद्धांत भर हैं। उदाहरण के लिए, वे त्रिएकता के सिद्धांत, धर्मशास्त्र, परमेश्वर के बारे में सिद्धांतों, स्वर्ग में स्वर्गदूतों के साथ परमेश्वर कैसा है, परमेश्वर के देहधारण और प्रभु यीशु की परिस्थितियों पर चर्चा करते हैं—यह सब सुनने के बाद तुम कैसा महसूस करोगे? इस सब का परिणाम पौराणिक कहानियों को सुनने जैसा होगा। फिर मसीह-विरोधी इन मामलों को सुनने और इन पर चर्चा करने का आनंद क्यों लेते हैं और वे ऐसे व्यक्तियों के साथ जुड़ने के लिए क्यों तैयार होते हैं? क्या यह उनकी दुष्टता नहीं है? (हाँ, है।) उनकी दुष्टता से क्या देखा जा सकता है? हृदय की गहराई में उनकी एक निश्चित आवश्यकता है, जो उन्हें इस ज्ञान और शिक्षा की आराधना करने और फरीसियों के पास मौजूद इन चीजों की उपासना करने के लिए प्रेरित करती है। तो उनकी आवश्यकता क्या है? (दूसरों से अत्यधिक सम्मान प्राप्त करना।) उन्हें न केवल दूसरों से अत्यधिक सम्मान पाने की आवश्यकता होती है, बल्कि अपने दिल की गहराई में वे हमेशा महामानव, श्रेष्ठतर व्यक्ति या ज्ञानी हस्ती बनना चाहते हैं—वे बस साधारण नहीं रहना चाहते। महामानव बनने की उनकी इच्छा का क्या मतलब है? आम बोलचाल की भाषा में इसका मतलब है कि वे वास्तविकता से कटे हुए हैं। उदाहरण के लिए, ज्यादातर लोग हद से हद यह चाह सकते हैं कि “काश मैं हवाई जहाज से आसमान में ऊँची उड़ान भर पाता।” लोगों की ऐसी इच्छा हो सकती है, है न? लेकिन मसीह-विरोधियों की इच्छा क्या होती है? “मैं चाहता हूँ कि एक दिन मेरे पंख उग आएँ और मैं उड़ कर कहीं दूर चला जाऊँ!” उनकी ऐसी आकांक्षाएँ हैं—क्या तुम्हारी भी यही आकांक्षा है? (नहीं।) तुम्हारी आकांक्षा ऐसी क्यों नहीं है? क्योंकि यह यथार्थवादी नहीं है। अगर तुम्हें दो बड़े पंख लगा भी दिए जाएँ, तो क्या तुम उड़ पाओगे? तुम उस तरह के प्राणी नहीं हो, है न? (सही है।) मसीह-विरोधियों जैसे लोग हमेशा अपनी कल्पनाओं पर भरोसा करते हैं, लगातार अपनी इच्छाओं का अनुसरण करते हैं। क्या उन्हें बचाया जा सकता है? (नहीं।) ये ऐसे लोग नहीं हैं जिन्हें परमेश्वर बचाता है। परमेश्वर उन लोगों को बचाता है जो सत्य से प्रेम करते हैं, वास्तविकता पर ध्यान केंद्रित करते हैं और जमीनी तरीके से सत्य का अनुसरण करते हैं। जो लोग लगातार महामानव या श्रेष्ठतर व्यक्ति बनने की इच्छा रखते हैं, वे मानसिक रूप से बीमार हैं, वे सामान्य लोग नहीं हैं और परमेश्वर उन्हें नहीं बचाएगा।

मसीह-विरोधी जब देहधारी परमेश्वर के संपर्क में आते हैं तो वे कुछ विचित्र सवाल करते हैं। ऐसे सवाल पूछ पाना उनकी गहरी पैठी जरूरतों और उस बात को प्रदर्शित करता है जिसकी वे अपने हृदयों में आराधना करते हैं। शुरू में देहधारी परमेश्वर की गवाही देने पर कुछ लोग हमेशा पूछते थे, “क्या परमेश्वर घर पर बाइबल पढ़ता है? ऐसा नहीं है कि मैं अपने लिए पूछ रहा हूँ, वास्तव में इस मामले में मेरी कोई जिज्ञासा नहीं है; मैं तो केवल भाई-बहनों की ओर से पूछ रहा हूँ। उनमें से कई लोगों के मन में भी यही विचार है। वे अपने मन में सोच रहे हैं कि अगर परमेश्वर वास्तव में अक्सर बाइबल पढ़ता है तो बाइबल के बारे में बात कर पाना और सत्य व्यक्त कर पाना बिल्कुल सामान्य बात है। परंतु, अगर परमेश्वर बाइबल नहीं पढ़ता और फिर भी उसे समझा सकता है तो यह एक चमत्कार ही है, तब तो वह सचमुच परमेश्वर होगा!” बेशक, उन्होंने इसे बिल्कुल इस तरह से नहीं कहा था; उन्होंने सीधे पूछा था कि “क्या परमेश्वर घर पर बाइबल पढ़ता है?” तुम लोग क्या सोचते हो? मुझे इसे पढ़ना चाहिए या नहीं? क्या तुम लोग इसे पढ़ते हो? यदि तुम लोगों ने कभी यीशु पर विश्वास नहीं किया है तो इसे नहीं पढ़ना बिल्कुल सामान्य बात होगी। क्या उस पर विश्वास करने वाले लोग इसे पढ़ते हैं? (हाँ, वे पढ़ते हैं।) जिन्होंने विश्वास किया है वे निश्चित रूप से पढ़ते हैं। मैंने यीशु पर आस्था के साथ शुरुआत की तो मैं बाइबल कैसे नहीं पढ़ता? अगर मैं इसे नहीं पढ़ता तो क्या होता? (वह भी सामान्य है।) बाइबल पढ़ना सामान्य है, इसे नहीं पढ़ना भी निश्चित रूप से सामान्य है। इसे पढ़ना या नहीं पढ़ना क्या निर्धारित करता है? यदि मैं इस स्थिति में नहीं होता तो क्या कोई इस बात की परवाह करता कि मैंने बाइबल पढ़ी है या नहीं? (नहीं।) कोई भी यह नहीं पूछता कि मैंने क्या पढ़ा है। इस विशेष स्थिति में होने के कारण कुछ लोग इस मामले का अध्ययन करते हैं। वे हमेशा इसमें ताक-झाँक करते रहते हैं, पूछते हैं, “क्या उसने युवावस्था में बाइबल पढ़ी थी?” वे वास्तव में क्या जानना चाहते हैं? इसके दो संभावित स्पष्टीकरण हैं, जो इस पर निर्भर करते हैं कि मैंने इसे पढ़ा है या नहीं। अगर मैंने इसे पढ़ा है तो उन्हें लगता है कि बाइबल को समझा पाना कोई बड़ी बात नहीं है। हालाँकि, अगर मैंने बाइबल नहीं पढ़ी है और फिर भी इसे समझा सकता हूँ तो यह कुछ हद तक परमेश्वर-तुल्य है। यही वह परिणाम है जो वे चाहते हैं। वे इसकी तह तक जाना चाहते हैं; वे सोचते हैं, “अगर तुमने बाइबल नहीं पढ़ी है और फिर भी इतनी कम उम्र में ही उस पर चर्चा कर सकते हो तो यह जाँच के लायक बात है। यह तो परमेश्वर है!” यह उनका दृष्टिकोण है और वे इसी तरीके से परमेश्वर का अध्ययन करते हैं। अब, उन फरीसियों पर विचार करो जो शास्त्र के अच्छे जानकार थे। क्या वे शास्त्र के शब्दों को वास्तव में समझते थे? क्या उन्होंने शास्त्र से सत्य की खोज की थी? (नहीं।) अब, मेरे बाइबल पढ़ने के बारे में सवाल करने वालों में से किसी ने क्या इस बारे में सोचा? अगर उन्होंने इस पर विचार किया होता तो वे लगातार इस मामले की पड़ताल नहीं करते, वे इतना मूर्खतापूर्ण काम नहीं करते। जो लोग सत्य को बूझ नहीं पाते या आध्यात्मिक समझ नहीं रखते और परमेश्वर के सार और पहचान की थाह नहीं पा सकते, वे अंत में इसे हल करने के लिए ऐसे तरीकों का सहारा लेते हैं। क्या इस तरीके से समस्या हल हो सकती है? नहीं, इससे नहीं हो सकती। इस तरीके से केवल छोटी-मोटी जिज्ञासाओं का मुद्दा हल हो सकता है। दरअसल, मैं बाइबल भी पढ़ता हूँ। विश्वासियों में से कौन बाइबल नहीं पढ़ता? मैं इसका बुनियादी पाठ करता हूँ। कम से कम, मैं नए नियम के चार सुसमाचार पढ़ता हूँ, प्रकाशितवाक्य और उत्पत्ति को पढ़ता हूँ और यशायाह पर एक नजर डालता हूँ। तुम लोगों को क्या लगता है कि मुझे पढ़ने में सबसे ज्यादा क्या पसंद होगा? (अय्यूब की किताब।) बिल्कुल ठीक। अय्यूब की कहानी पूरी और विशिष्ट है, उसके शब्दों को समझना आसान है और इसके अलावा, यह कहानी मूल्यवान है और आज के लोगों के लिए मददगार और शिक्षाप्रद हो सकती है। तथ्यों से साबित हुआ है कि अय्यूब की कहानी का परवर्ती पीढ़ियों पर वास्तव में बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा है। उन्होंने अय्यूब के जरिये बहुत से सत्यों को समझा है—परमेश्वर के प्रति उसके रवैये से, साथ ही साथ उसके प्रति परमेश्वर के रवैये और परिभाषा से, उन्होंने परमेश्वर के इरादों को समझा है और यह भी समझा है कि परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद उन्हें किस तरह के रास्ते पर चलना चाहिए। मैं अय्यूब की पुस्तक का उपयोग उन खास तरीकों के बारे में संगति करने के लिए संदर्भ के रूप में करता हूँ, जिनसे लोग परमेश्वर का भय मानते हैं और बुराई से दूर रहते हैं, इसके साथ ही परमेश्वर के समक्ष समर्पण करने के कुछ तरीकों के बारे में भी संगति करने के लिए संदर्भ के रूप में इसका उपयोग करता हूँ—यह कहानी वाकई मूल्यवान है। यह कुछ ऐसा है जिसे हर किसी को अपने खाली समय में पढ़ना चाहिए। कुछ लोग जब परमेश्वर को देहधारी होते देखते हैं और परमेश्वर की व्यावहारिकता तथा सामान्यता के गवाह बनते हैं तो वे संभवतः पूरी तरह से यह पता लगाने में सक्षम नहीं होते कि वह वास्तव में परमेश्वर है कि नहीं, या भविष्य में क्या होगा। लेकिन, कुछ सत्यों को समझने के बाद वे इन सवालों को छोड़ देते हैं। वे इन मामलों पर शोध या इनकी परवाह करना बंद कर देते हैं और अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से करने, सही रास्ते पर चलने और उस काम को करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं जो उन्हें ठीक से करना चाहिए। लेकिन कुछ लोग इसे कभी नहीं छोड़ते; वे इसका अध्ययन करने पर जोर देते हैं। तुम लोग क्या सोचते हो, क्या मुझे इस मामले का ध्यान रखना चाहिए? क्या मुझे इस पर जरा भी ध्यान देना चाहिए? इस पर ध्यान देने की कोई जरूरत नहीं है। जो लोग सत्य स्वीकारते हैं वे स्वाभाविक रूप से इस पर शोध करना बंद कर देते हैं, जबकि जो लोग सत्य स्वीकार नहीं करते, वे इस काम में लगे रहते हैं। यह शोध क्या संकेत करता है? यह शोध प्रतिरोध का एक रूप है। परमेश्वर के वचनों में एक कहावत है। प्रतिरोध का नतीजा क्या है? (मृत्यु।) प्रतिरोध मृत्यु की ओर ले जाता है।

कुछ मसीह-विरोधी यद्यपि कार्य के इस चरण को स्वीकार कर चुके हैं, फिर भी इस बात को लेकर अक्सर चिंतित रहते हैं कि क्या देहधारी परमेश्वर द्वारा बोले गए वचनों और किए गए कार्य में कोई अलौकिक तत्व है, क्या उनमें सामान्य मानवता की सीमा से परे कोई तत्व हैं और क्या ऐसे तत्व हैं जिनसे परमेश्वर के रूप में उसकी पहचान साबित की जा सकती है। वे अक्सर ऐसे मामलों पर शोध करते हैं, अथक रूप से अध्ययन करते हैं कि मैं कैसे बोलता हूँ, बोलते समय मेरा तरीका और रूप कैसा होता है, साथ ही मेरे कार्यों के सिद्धांत क्या हैं। इस शोध के लिए वे किस चीज का उपयोग करते हैं? वे उन प्रतिष्ठित और महान लोगों की छवि या मानक के आधार पर इसे मापते हैं और इसका अध्ययन करते हैं जिन्हें उन्होंने समझ लिया होता है। कुछ लोग तो पूछ भी लेते हैं, “चूँकि तुम देहधारी परमेश्वर हो, इसलिए तुम्हारी पहचान और सार को निश्चित रूप से सामान्य लोगों से अलग होना चाहिए। तो तुम किस चीज में बेहतर हो? तुममें ऐसा क्या खास है कि हमें तुम्हारा अनुसरण करना चाहिए और तुम्हारी आज्ञा माननी चाहिए और तुम्हें परमेश्वर के रूप में स्वीकारना चाहिए?” इस सवाल ने मुझे वास्तव में निरुत्तर कर दिया। ईमानदारी से कहूँ तो मैं किसी भी चीज में अच्छा नहीं हूँ। मेरे पास ऐसी आँखें नहीं हैं जो सभी दिशाओं में देख सकें या ऐसे कान नहीं हैं जो सभी तरफ से सुन सकें। अगर पढ़ने की बात हो तो मैं एक नजर में दस पंक्तियाँ नहीं पढ़ सकता और थोड़ी देर पढ़ने के बाद, मैं भूल जाता हूँ कि मैंने क्या पढ़ा था। मैं संगीत के बारे में थोड़ा-बहुत जानता हूँ, लेकिन मैं लिपिबद्ध संगीत नहीं पढ़ सकता। अगर कोई दूसरा व्यक्ति किसी गाने को एक-दो बार गाता है तो मैं उसके साथ गा सकता हूँ, लेकिन क्या इसे गायन में अच्छा होना माना जाएगा? क्या मेरे पास कोई विशेष प्रतिभा है, जैसे कि धाराप्रवाह अंग्रेजी या कोई खास भाषा बोलना? मैं इनमें से कोई भी काम नहीं कर सकता। तो फिर मैं किस चीज में अच्छा हूँ? मैं संगीत, ललित कला, नृत्य, साहित्य, फिल्म और डिजाइन के बारे में थोड़ा-बहुत जानता हूँ। मुझे इन क्षेत्रों की सतही समझ है। विशेषज्ञों के साथ इनके सिद्धांतों पर चर्चा करने के लिहाज से, यह सब मेरे लिए शब्दजाल है, लेकिन मैं इसे देखकर समझ सकता हूँ। उदाहरण के लिए, वास्तुशिल्प डिजाइन में, अगर पेशेवर और तकनीकी डेटा शामिल हो तो मैं उसे नहीं समझ पाता। हालाँकि, अगर उसमें रंगों की छटाओं और शैलियों के सामंजस्य से जुड़ी बात हो तो मुझे इसके बारे में थोड़ी बहुत जानकारी और थोड़ी अंतर्दृष्टि है। लेकिन यह कहना कठिन है कि मैं इस क्षेत्र में विशेषज्ञ या कोई विशिष्ट प्रतिभा बनने के लिए पढ़ाई कर सकता हूँ या नहीं, क्योंकि मैंने इसकी पढ़ाई नहीं की है। इसके मद्देनजर कि लोग वर्तमान में किन चीजों तक पहुँच सकते हैं, संगीत, साहित्य, नृत्य, फिल्म और हमारी कलीसिया की परियोजनाओं के दायरे में आने वाली चीजों को थोड़ा-बहुत सीखने से मुझे इनकी बुनियादी समझ मिल सकती है। कुछ लोग कह सकते हैं, “अब मैं तुम्हारी पृष्ठभूमि जानता हूँ; तुम्हें केवल बुनियादी समझ है।” मैं झूठ नहीं बोलता; वास्तव में, मुझे केवल बुनियादी समझ ही है। हालाँकि, एक चीज है जिसे तुम लोग नहीं समझ सकते और वह मेरी विशेषज्ञता हो सकती है। वह विशेषज्ञता क्या है? मैं यह समझता हूँ कि किसी विशेष क्षेत्र से संबंधित पेशा कौन-सा है, कोई निश्चित कला कैसे व्यक्त की जाती है और इसका दायरा और इसके सिद्धांत क्या हैं। इनमें माहिर होने के बाद, मैं जानता हूँ कि इन उपयोगी चीजों को कलीसिया के काम में कैसे लागू किया जाए, सुसमाचार के कार्य में उनका उपयोग कैसे किया जाए और परमेश्वर के अंत के दिनों के सुसमाचार का प्रसार करने में प्रभावशीलता कैसे प्राप्त की जाए। क्या यह विशेषज्ञता है? (हाँ है।) आजकल मानवजाति में जिस बात की सबसे अधिक कमी है, उस संबंध में यदि कोई सही तरीकों का उपयोग कर सके और फिर प्रासंगिक सत्य को व्यक्त कर सके ताकि लोग उसे देख सकें और स्वीकार सकें तो यह सबसे ज्यादा प्रभावी बात है। यदि तुम ऐसा तरीका अपनाते हो जिसे लोग स्वीकार कर सकें और जो सत्य को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत कर सके तथा जो परमेश्वर के कार्य को समझा सके, कोई भी ऐसा तरीका जिसे सामान्य मानवीय सोच स्वीकार कर सके और उस तक पहुँचने में सक्षम हो सके—यह लोगों के लिए बहुत लाभदायी होगा। यदि हम अपने सतही ज्ञान का उपयोग कर सकें तथा इन सभी उपयोगी चीजों को लागू कर सकें तो ऐसी विशेषज्ञता का होना पर्याप्त है। मैं एक चीज में श्रेष्ठ हूँ, क्या तुम लोग यह जान सके हो? (परमेश्वर सत्य की संगति करने में श्रेष्ठ है।) क्या सत्य की संगति करने की गिनती कौशलों में होती है? क्या यह विशेषज्ञता नहीं है? तो, मैं किसमें अच्छा हूँ? मैं तुम सभी लोगों के भीतर के भ्रष्ट सार की खोज करने में श्रेष्ठ हूँ। यदि मैं यह करने में अच्छा नहीं होता तो मुझे बताओ कि जब भी तुम लोगों के सामने समस्याएँ आतीं और मुझे नहीं पता होता कि उनसे कौन-सा भ्रष्ट स्वभाव या प्रकृति सार प्रकट होता है तो मैं कार्य कैसे कर पाता? यह असंभव होता। क्या यह कहना ठीक है कि तुम लोगों के भ्रष्ट सार की खोज करना ही वह चीज है जिसमें मैं सबसे अच्छा हूँ? (हाँ।) यही वह चीज होनी चाहिए जिसमें मैं सबसे अच्छा हूँ। मैं व्यक्तियों के भ्रष्ट स्वभाव और उनके प्रकृति सार को पहचानने में सबसे अच्छा हूँ। मैं किसी व्यक्ति के प्रकृति सार के आधार पर यह समझने में माहिर हूँ कि वह किस रास्ते पर चल रहा है और परमेश्वर के प्रति उसका दृष्टिकोण क्या है। फिर उसकी अभिव्यक्तियों, व्यवहार और सार के माध्यम से मैं उसके साथ सत्य की संगति करता हूँ और विशिष्ट मुद्दों का निपटारा करते हुए उसे उसकी समस्याएँ हल करने और उनसे उभरने में उसकी मदद करता हूँ। वास्तव में, यह कोई कौशल नहीं है; यह मेरी सेवकाई है, यह वह कार्य है जो मेरी जिम्मेदारी के दायरे में आता है। क्या तुम लोग इस काम में कुशल हो? (नहीं, हम नहीं हैं।) तो तुम लोग किसमें कुशल हो? (भ्रष्टता प्रदर्शित करने में।) यह सही नहीं है कि तुम लोग भ्रष्टता प्रदर्शित करने में कुशल हो। तुम लोग सत्य को सुनने के बाद उससे अप्रभावित रहने, उसे हल्के में लेने और अपने कर्तव्य का अनमने ढंग से निर्वाह करने में कुशल हो। क्या ऐसा ही नहीं है? (हाँ।) मैं तुम लोगों को ये बातें खुल कर बताता हूँ; क्या फरीसी और मसीह-विरोधी भी तुमसे इसी तरह से बात कर सकते हैं? (नहीं, वे नहीं कर सकते।) वे इस तरह से बिल्कुल नहीं बोलते। क्यों नहीं बोलते? वे इसे शर्मनाक, मानवता में कमी, निजता और किसी की पृष्ठभूमि से जुड़ा मामला मानते हैं। वे कहते हैं, “मैं दूसरों को अपनी पृष्ठभूमि के बारे में कैसे बता सकता हूँ? ऐसा होने पर क्या मैं अपनी सारी पहचान, गरिमा और रुतबा नहीं खो दूँगा? तब मैं खुद को कैसे पेश करूँगा?” उनके मुताबिक, वे तो मर ही जाएँगे! तो मेरे द्वारा अपनी परिस्थितियों को तुम्हारे साथ इतने खुले तौर पर साझा किए जाने के बाद क्या परमेश्वर में तुम्हारी आस्था प्रभावित होती है? (नहीं, ऐसा नहीं होता।) अगर इस बारे में तुम लोगों का कोई भी विचार हो तो भी मुझे इसका डर नहीं है। मैं क्यों नहीं डरता? कुछ विचार होना सामान्य है; यह अस्थायी है। लोगों को समय-समय पर दृश्य और श्रव्य भ्रमों का अनुभव हो सकता है। एक अस्थायी, विकृत समझ या क्षणिक गलतफहमी की संभावना हमेशा होती है। क्या इसका मतलब यह है कि इसके कारण लोग अपना बोरिया-बिस्तर समेट लें या नकारात्मक और कमजोर हो जाएँ? लेकिन, तुम अगर वास्तव में सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति हो तो क्या तुम इन क्षणिक धारणाओं के कारण परमेश्वर को नकार सकते हो या छोड़ सकते हो? नहीं, तुम नहीं छोड़ सकते। जो लोग ईमानदारी से सत्य का अनुसरण करते हैं, वे इन मामलों को सही तरीके से देख और समझ सकते हैं, वे अनजाने में इन तथ्यों को सामान्य रूप से स्वीकार कर सकते हैं और धीरे-धीरे इन्हें परमेश्वर के सच्चे ज्ञान, वस्तुनिष्ठ और सटीक ज्ञान में बदल सकते हैं—यह सत्य की वास्तविक समझ है। कभी कोई कह सकता है, “देहधारी परमेश्वर बहुत दयनीय है; वह सत्य बोलने के अलावा कुछ नहीं कर सकता।” यह कैसा लहजा है? यह मसीह-विरोधी का लहजा है। क्या तुम लोग उससे सहमत हो? (मैं सहमत नहीं हूँ।) तुम सहमत क्यों नहीं हो? (उसका कथन तथ्यात्मक नहीं है।) उसका कथन तथ्यात्मक है। देहधारी परमेश्वर अपनी वाणी में सत्य व्यक्त करने में सक्षम होने के अलावा कुछ और करना नहीं जानता; उसके पास कोई विशेष कौशल नहीं है। क्या यह दयनीय है? क्या तुम लोग ऐसा सोचते हो? (नहीं।) तो तुम लोग क्या सोचते हो? कुछ लोग कहते हैं, “ऐसा होने की ठीक-ठीक वजह यह है कि परमेश्वर साधारण और सामान्य है, व्यावहारिक कार्य कर रहा है, कि भ्रष्ट मानवजाति के रूप में हमारे पास उद्धार प्राप्त करने का अवसर है। अन्यथा, हम सभी नरक में जाएँगे। अभी हमें एक बड़ा लाभ मिल रहा है, इसलिए आओ चुपचाप इसका आनंद लें!” क्या तुम लोगों को ऐसा लगता है? (हाँ।) लेकिन कुछ लोग अलग तरह के हैं। उन्हें लगता है कि “परमेश्वर बस बात कर रहा है; उसमें कुछ भी अलौकिक नहीं है। मुझे क्या मिल रहा है? परमेश्वर के बारे में मेरी अपनी धारणाएँ और विचार हैं और मैं पीठ पीछे परमेश्वर की आलोचना करता हूँ, लेकिन परमेश्वर ने मुझे अनुशासित नहीं किया। मुझे न तो कोई कष्ट सहना पड़ा और न ही कोई दंड भोगना पड़ा।” धीरे-धीरे उनका दुस्साहस बढ़ता जाता है और वे कुछ भी कहने का साहस करते हैं। कुछ लोग कहते हैं, “देहधारी परमेश्वर को तुम्हें इस तरह से जानना चाहिए : जब वह बोलता है, कार्य करता है और सत्य व्यक्त करता है तो उसके भीतर परमेश्वर का आत्मा काम कर रहा होता है और देह एक खोल, एक उपकरण मात्र है। सच्चा सार परमेश्वर का आत्मा है; यह परमेश्वर का आत्मा ही है जो बोल रहा है। यदि परमेश्वर का आत्मा न होता, तो क्या देह उन शब्दों को बोल सकता था?” जब तुम इन्हें सुनते हो तो ये शब्द सही लगते हैं, लेकिन इनका क्या अर्थ है? (ईशनिंदा।) बिल्कुल ठीक, ये ईशनिंदा है—कितना क्रूर स्वभाव है! वे क्या कहना चाह रहे हैं? वे कहना चाहते हैं कि “तुम बहुत ही साधारण व्यक्ति हो। तुम्हारा रूप-रंग भव्य नहीं है, तुम बहुत प्रभावशाली नहीं दिखते। तुम्हारी वाणी में वाक्पटुता या सैद्धांतिक परिष्कार नहीं है—तुम्हें कुछ भी कहने से पहले उस बारे में सोचना पड़ता है। तुम देहधारी परमेश्वर कैसे हो सकते हो? तुम इतने धन्य और भाग्यशाली क्यों हो? मैं देहधारी परमेश्वर क्यों नहीं हूँ?” अंत में वे कहते हैं, “यह सब कार्य परमेश्वर का आत्मा कर रहा है और बोल रहा है; देह केवल आत्मा के निकास का रास्ता है, यह एक उपकरण है।” ऐसा कहने से उन्हें समानता का एहसास होता है। यह ईर्ष्या है जो नफरत की ओर ले जाती है। इसका निहितार्थ यह है कि “तुम देहधारी परमेश्वर कैसे हो? तुम इतने भाग्यशाली क्यों हो? तुम्हें यह लाभ कैसे मिला? यह मुझे क्यों नहीं मिला? मुझे नहीं लगता कि तुम मुझसे बेहतर हो। तुम पर्याप्त वाक्पटु नहीं हो, उच्च शिक्षित नहीं हो, तुम मेरे जितने अच्छे नहीं दिखते और तुम मेरे जितने लंबे नहीं हो। किस तरह से तुम मुझसे बेहतर हो? तुम देहधारी परमेश्वर कैसे बने? मैं क्यों नहीं बना? यदि तुम देहधारी परमेश्वर हो तो बहुत से दूसरे लोग भी वही हैं। मुझे इसके लिए भी लड़ना है। हर कोई कहता है कि तुम परमेश्वर हो, मैं इस बारे में कुछ नहीं कर सकता, लेकिन मैं फिर भी इसी तरह तुम्हारी आलोचना करूँगा। इस तरह से बोलने से मेरी नफरत दूर हो जाती है!” क्या यह क्रूर नहीं है? (हाँ, है।) पद के लिए होड करने के लिए वे कुछ भी कहने की हिम्मत करते हैं—क्या यह मौत को बुलावा देना नहीं है? यदि तुम यह स्वीकार नहीं करना चाहते कि वह परमेश्वर है तो कौन तुम्हें ऐसा करने को मजबूर कर रहा है? क्या मैंने तुम्हें मजबूर किया? मैंने तो तुम्हें मजबूर नहीं किया, है ना? पहली बात तो यह है कि मैंने तुमसे विनती नहीं की कि तुम मुझे स्वीकार करो। दूसरी, मुझे स्वीकार करने के लिए तुम्हें बाध्य करने को मैंने किन्हीं चरम साधनों का इस्तेमाल नहीं किया। तीसरी, परमेश्वर के आत्मा ने कोई हस्तक्षेप नहीं किया है, उसने तुमसे नहीं कहा है कि तुम्हें मुझे स्वीकारना होगा, अन्यथा तुम्हें दंडित किया जाएगा। क्या परमेश्वर ने ऐसा किया है? नहीं। तुम्हारे पास स्वतंत्र चयन का अधिकार है; तुम स्वीकार न करने का विकल्प चुन सकते हो। तो, अगर तुम स्वीकार नहीं करना चाहते तो तुम आखिर स्वीकार क्यों करते हो? क्या तुम केवल आशीष नहीं चाहते? वे आशीष चाहते हैं लेकिन स्वीकार या आज्ञापालन नहीं कर सकते, या वे अब भी अनिच्छुक महसूस करते हैं, फिर वे क्या करते हैं? वे ऐसे दुर्भावनापूर्ण शब्द कहते हैं। क्या तुम लोगों ने पहले भी इस तरह के शब्द सुने हैं? कुछ लोगों के बीच मैंने ऐसे शब्दों को बहुत बार सुना है। कुछ लोग सोचते हैं “हमने तुम्हारे साथ-साथ परमेश्वर में विश्वास करना शुरु किया। उस समय तुम युवा थे, अक्सर परमेश्वर के वचनों को लिखते थे। बाद में, तुमने उपदेश देना शुरू किया। तुम बस एक साधारण व्यक्ति हो; हमें तुम्हारी पृष्ठभूमि पता है।” मेरी पृष्ठभूमि कैसी है? मैं तो एक साधारण व्यक्ति हूँ; मेरी सच्चाई यही है। क्या तुम्हारे अनिच्छुक होने का कारण केवल यह नहीं है कि मैं एक साधारण और सामान्य व्यक्ति हूँ, फिर भी इतने सारे लोग मेरा अनुसरण करते हैं? अगर तुम अनिच्छुक हो, तो विश्वास मत करो। यह परमेश्वर का कार्य है; मैं अपनी जिम्मेदारी से भाग नहीं सकता, मेरे पास कोई बहाना नहीं है और मैंने कोई ऐसा काम नहीं किया है जो किसी को चोट या नुकसान पहुँचाने वाला हो। तो तुम मुझसे इस नजरिये से क्यों पेश आते हो? अगर तुम अनिच्छुक हो तो विश्वास मत करो। तुम जिस पर विश्वास करने के इच्छुक हो, उस पर विश्वास करो; मेरा अनुसरण मत करो। मैंने तुम्हें मजबूर नहीं किया है। तुम मेरा अनुसरण क्यों कर रहे हो? कुछ लोग तो जाँच करने के लिए मेरे घर भी आए। वे क्या जाँच कर रहे थे? उन्होंने मुझसे पूछा, “क्या तुम घर वापस जाते हो? अभी घर पर तुम्हारी आर्थिक स्थिति कैसी है? तुम्हारे परिवार के सदस्य क्या करते हैं? वे कहाँ हैं? उनका जीवन कैसा है?” कुछ लोगों ने तो मेरे घर में पड़ी एक अतिरिक्त रजाई या कंबल की भी जाँच-पड़ताल की। ये लोग परमेश्वर में विश्वास करने के बिल्कुल भी इच्छुक नहीं हैं! वे इच्छुक क्यों नहीं हैं? क्योंकि वे सोचते हैं, “परमेश्वर को ऐसा नहीं होना चाहिए। परमेश्वर इतना छोटा, इतना सामान्य और व्यावहारिक और इतना आम और साधारण नहीं होना चाहिए। वह बहुत आम है, इतना आम कि हम उसे परमेश्वर के रूप में पहचान ही नहीं सकते।” क्या तुम्हारी आँखें जिन्हें आध्यात्मिक समझ नहीं है, परमेश्वर को पहचान सकती हैं? भले ही परमेश्वर तुम्हें यह बताने के लिए स्वर्ग से नीचे आ जाए, फिर भी तुम उसे नहीं पहचान सकोगे। क्या तुम परमेश्वर का वास्तविक व्यक्तित्व देखने के योग्य हो? परमेश्वर यदि तुम्हें स्पष्ट रूप से बताए कि वह परमेश्वर है, फिर भी तुम उसे स्वीकार नहीं करोगे। क्या तुम उसे पहचान सकते हो? ये किस तरह के लोग हैं? उनकी प्रकृति क्या है? (दुष्टता।) ये लोग वास्तव में “मेरे क्षितिज को व्यापक बनाते हैं।”

परमेश्वर के कार्य का दायित्व लेने के बाद इस पहचान और पद के साथ अपना कार्य करते हुए मैं कुछ व्यक्तियों के संपर्क में आया हूँ। विविध प्रकार के “प्रतिभाशाली लोगों” के समूहों का सामना करते हुए, मैंने पाया है कि मनुष्यों के भ्रष्ट स्वभाव से दो शब्दों को अलग नहीं किया जा सकता है : “बुरा” और “दुष्ट”—इन दोनों में वह समाहित है। वे हर दिन मेरे बारे में अध्ययन क्यों करते हैं? वे मेरी पहचान को स्वीकार करने के अनिच्छुक क्यों हैं? क्या यह इसलिए नहीं है कि मैं बहुत ही साधारण और सामान्य व्यक्ति हूँ? यदि मैं आध्यात्मिक देह के रूप में होता तो क्या उनकी ऐसी हिम्मत होती? वे इस तरह से मेरा अध्ययन करने की हिम्मत नहीं करते। यदि मेरा एक खास सामाजिक रुतबा होता, विशेष योग्यताएँ होतीं, किसी महान व्यक्ति की छवि और रूप होता और कुछ हद तक बुरा, दबंग और निर्दयी स्वभाव होता तो क्या ये लोग मेरे घर आकर मेरी जाँच करने और मेरा अध्ययन करने की हिम्मत करते? वे ऐसी हिम्मत बिल्कुल नहीं करते; वे मुझसे बचते, मुझे आते देखकर छिप जाते और निश्चित ही मेरा अध्ययन करने की हिम्मत नहीं करते, है ना? फिर, क्यों वे इस तरह से मेरा अध्ययन करने में सक्षम हैं? वे मुझे आसान लक्ष्य के रूप में देखते हैं। एक आसान लक्ष्य का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि मैं बहुत साधारण हूँ। “साधारण” का निहितार्थ क्या है? “तुम तो बस एक मनुष्य हो; तुम परमेश्वर कैसे हो सकते हो? तुम्हारे पास वह ज्ञान, शिक्षा, खूबियाँ, प्रतिभाएँ और योग्यताएँ बिल्कुल नहीं हैं जो परमेश्वर में होनी चाहिए। तुम किस तरह से परमेश्वर जैसे हो? तुम उसके जैसे नहीं हो! इसलिए, मेरे लिए यह स्वीकार करना मुश्किल है कि तुम परमेश्वर हो; तुम्हारा अनुसरण करना, तुम्हारे वचनों को सुनना और तुम्हारे प्रति समर्पण करना मुश्किल है। मुझे पूरी जाँच करने की जरूरत है : मुझे तुम पर निगरानी रखने की जरूरत है, तुम पर नजर रखने की जरूरत है और तुम्हें कुछ भी अनुचित नहीं करने देना है।” वे क्या करने की कोशिश कर रहे हैं? यदि मेरे पास सामाजिक प्रतिष्ठा और एक निश्चित स्तर की प्रसिद्धि होती, उदाहरण के लिए, यदि मैं आला दर्जे का गायक होता और एक दिन यह गवाही देता कि मैं परमेश्वर हूँ, मसीह हूँ तो क्या कम से कम कुछ लोग इस पर विश्वास नहीं करते? मेरा अध्ययन करने वाले लोगों की संख्या अपेक्षाकृत कम होती। केवल मेरे साधारण, सामान्य, व्यावहारिक और बहुत आम होने का तथ्य ही बहुत से लोगों को प्रकट करता है। यह उनमें क्या प्रकट करता है? यह उनकी दुष्टता को प्रकट करता है। यह दुष्टता कितनी दूर तक जाती है? यह दुष्टता इस हद तक जाती है कि जब मैं उनकी बगल से निकल जाता हूँ, तो भी वे लंबे समय तक मेरा अध्ययन करते रहते हैं, मेरी पीठ में परमेश्वर से समानता की तलाश करते हैं, यह जाँचते हैं कि क्या मेरी वाणी में कोई चमत्कार है। वे अक्सर अपने दिलों में अनुमान लगाते हैं, “ये शब्द कहाँ से आते हैं? क्या ये सीखे हुए शब्द थे? ऐसा नहीं लगता : लगता नहीं कि उसके पास अध्ययन करने का समय है। हाल के वर्षों में वह बहुत बदल गया है; यह सब सीखा हुआ नहीं लगता। तो, ये शब्द कहाँ से आते हैं? यह अनुमान लगाना कठिन है; मुझे सावधान रहने की आवश्यकता है” और वे अध्ययन करते रहते हैं। जो लोग लगातार अध्ययन करते हैं, वे मेरे साथ आमने-सामने संवाद या बातचीत नहीं करते; वे हमेशा मेरी पीठ पीछे चिंतन करते हैं, हमेशा मेरे वचनों में गलतियाँ ढूँढ़ना चाहते हैं और कुछ ऐसा पाना चाहते हैं जिसका लाभ उठा सकें। वे अपनी धारणाओं से मेल नहीं खाने वाले वाक्य का कई दिनों तक अध्ययन कर सकते हैं और जरा-सी कठोर टिप्पणी भी उनमें कोई धारणा विकसित कर सकती है। ये चीजें कहाँ से आती हैं? वे लोगों के दिमाग और ज्ञान से आती हैं। वे किस तरह के लोग हैं जो परमेश्वर का अध्ययन कर सकते हैं, जो लगातार अपने विचारों का उपयोग परमेश्वर के बारे में अटकलें लगाने के लिए कर सकते हैं? क्या उन्हें दुष्ट स्वभाव वाले लोगों के रूप में निरूपित किया जा सकता है? बिल्कुल! यह देखते हुए कि तुम्हारे पास समय और ऊर्जा है, बहुत अच्छा होगा कि तुम सत्य पर विचार करो! ऐसा कौन-सा सत्य है जिसके बारे में संगति करने और विचार करने में तुम्हें थोड़ा भी समय नहीं लगेगा? ऐसे बहुत से सत्य हैं जिन पर शायद तुम लोग इस जीवनकाल में विचार न कर सको। ऐसे बहुत से सत्य हैं जिन्हें समझने की आवश्यकता हर व्यक्ति को है। वे इस मामले को लेकर कोई बोझ महसूस नहीं करते, फिर भी वे उन बाहरी और सतही मामलों को कभी नहीं भूलते और हमेशा उनका अध्ययन करते रहते हैं। जैसे ही मैं बोलता हूँ, वे अपनी आँखें झपकाते हैं, मेरी आँखों की ओर टकटकी लगा कर देखते हैं, मेरे कार्यों और भावों की जाँच करते हैं और अपने मन में अनुमान लगाते हैं, “क्या वह इस पहलू में परमेश्वर जैसा दिखता है? इसकी वाणी तो उससे मिलती-जुलती नहीं है, उसका रूप भी बिल्कुल मेल नहीं खाता। मैं उसकी थाह कैसे पाऊँ? मैं यह कैसे देखूँ कि वह अपने दिल की गहराई में मेरे बारे में क्या सोचता है? वह इस मामले और उस मामले के बारे में क्या सोचता है? वह मुझे कैसे परिभाषित करता है?” वे हमेशा मन में ऐसे विचारों को रखते हैं। क्या यह दुष्टता नहीं है? (हाँ।) इसे नहीं बचाया जा सकता—यह बहुत दुष्ट है!

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