मद सात : वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं (भाग तीन) खंड चार
फरीसियों की दुष्टता कैसे अभिव्यक्त होती है? सबसे पहले, अपनी चर्चा इस बात से शुरू करते हैं कि फरीसियों ने देहधारी परमेश्वर के साथ कैसा व्यवहार किया, और तब तुम लोग थोड़ा बेहतर समझ सकोगे। देहधारी परमेश्वर के बारे में बात करते हुए हमें सबसे पहले इस बारे में बात करनी चाहिए कि दो हजार साल पहले देहधारी परमेश्वर का जन्म किस प्रकार के परिवार और पृष्ठभूमि में हुआ था। पहली बात यह कि प्रभु यीशु का जन्म किसी धनी परिवार में नहीं हुआ था—उसका वंश बहुत प्रतिष्ठित वंश नहीं था। उसके पालक पिता, जोसेफ, बढ़ई थे और उसकी माँ, मरियम, एक सामान्य विश्वासी महिला थीं। उसके माता-पिता की पहचान और सामाजिक स्थिति उस पारिवारिक पृष्ठभूमि को दर्शाती है जिसमें प्रभु यीशु का जन्म हुआ था, और यह स्पष्ट है कि उसका जन्म एक सामान्य परिवार में हुआ था। “सामान्य” का क्या अर्थ है? इसका तात्पर्य आम जनता से है, समाज के निचले पायदान पर मौजूद एक औसत परिवार से है, जिसका कुलीन परिवारों से कोई संबंध नहीं है, जो किसी महत्त्वपूर्ण पद से जुड़ा नहीं है, और कुलीन तो निश्चित रूप से नहीं है। यह स्पष्ट है कि किसी भी उल्लेखनीय सामाजिक स्थिति या विशिष्ट पारिवारिक पृष्ठभूमि से रहित, सामान्य माता-पिता के यहाँ एक साधारण परिवार में जन्मे प्रभु यीशु की पृष्ठभूमि और उसका परिवार उतने ही सामान्य थे जितने किसी अन्य के हो सकते हैं। क्या बाइबल में यह दर्ज है कि प्रभु यीशु ने कोई विशेष शिक्षा प्राप्त की थी? क्या उसने किसी सेमिनेरी से शिक्षा प्राप्त की थी? क्या उसे किसी महायाजक ने प्रशिक्षित किया था? क्या उसने पौलुस की तरह कई किताबें पढ़ी थीं? क्या उसका अभिजात्य वर्ग या यहूदी धर्म के उच्च याजकों के साथ कोई निकट संपर्क या व्यवहार था? नहीं, ऐसा नहीं था। प्रभु यीशु जिस परिवार में जन्मा उसकी सामाजिक स्थिति को देखते हुए यह स्पष्ट है कि वह ऊपरी दर्जे के यहूदी शास्त्रियों और फरीसियों के संपर्क में नहीं आया होगा; मूलतः वह सामान्य यहूदियों के बीच रहने तक ही सीमित था। कभी-कभी, वह यहूदी उपासनागृह जाता था, और वहाँ जिन लोगों से उसका सामना होता था वे सभी आम लोग होते थे। इससे क्या दिखता है? औपचारिक रूप से अपना काम शुरू करने से पहले प्रभु यीशु जैसे-जैसे बड़ा हो रहा था, जिस पृष्ठभूमि में उसका पालन-पोषण हुआ उसमें कोई बदलाव नहीं हुआ था। उसकी आयु बारह वर्ष की होने के बाद भी उसका घर समृद्ध नहीं हुआ था, वे लोग अमीर नहीं हुए थे, समाज या धार्मिक दुनिया के उच्च वर्गों के लोगों के साथ बातचीत करने का मौका तो दूर, उसके पालन-पोषण के दौरान उसे तो उच्च शिक्षा पाने का भी मौका नहीं मिल सका था। बाद की पीढ़ियों को इससे क्या संदेश मिलता है? यह साधारण एवं सामान्य व्यक्ति, जो देहधारी परमेश्वर था, के पास उच्च शिक्षा प्राप्त करने का न तो अवसर था और न ही परिस्थितियाँ। वह आम लोगों की ही तरह था, वह एक सामान्य सामाजिक माहौल में एक साधारण परिवार में रहता था, और उसमें कुछ भी खास नहीं था। ठीक इसी वजह से, प्रभु यीशु के उपदेशों और कार्यों के बारे में सुनने के बाद उन शास्त्रियों और फरीसियों ने उसका विरोध करने और खुले तौर पर उसकी आलोचना, ईशनिंदा और भर्त्सना करने का साहस किया। उन लोगों के पास प्रभु यीशु की निंदा करने का क्या आधार था? निस्संदेह, यह सब पुराने नियम के कानूनों और विनियमों के आधार पर था। सबसे पहले, प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों को विश्राम के दिन, सब्त का पालन न करने के लिए प्रेरित किया—वह सब्त के दिन भी काम करता था। इसके अलावा, उसने कानूनों और विनियमों का पालन नहीं किया और वह मंदिर नहीं जाता था, और पापियों से सामना होने पर कुछ लोगों ने उसे बताया कि उनके साथ कैसे व्यवहार किया जाए, लेकिन उसने प्रचलित कानून के अनुसार व्यवहार नहीं किया बल्कि उन पर दया दिखाई। प्रभु यीशु के कार्यों का कोई भी पहलू फरीसियों की धार्मिक धारणाओं के अनुरूप नहीं था। चूँकि वे सत्य से प्रेम नहीं करते थे और इसलिए प्रभु यीशु से घृणा करते थे, इसलिए उन्होंने प्रभु यीशु की जमकर निंदा करने के लिए कानून के उल्लंघन का बहाना बनाया और निर्धारित किया कि उन्हें मौत के घाट उतार दिया जाना चाहिए। यदि प्रभु यीशु का जन्म किसी प्रतिष्ठित और विशिष्ट परिवार में हुआ होता, यदि वह उच्च शिक्षित होता, और यदि उसका इन शास्त्रियों और फरीसियों के साथ घनिष्ठ संबंध होता, तो उस समय उसके लिए वैसी चीजें नहीं होतीं, जैसी बाद में हुईं—वे बदल सकती थीं। निश्चित रूप से उसकी साधारणता, उसकी सामान्यता और उसके जन्म की पृष्ठभूमि के कारण ही फरीसियों ने उसकी निंदा की थी। प्रभु यीशु की निंदा करने का उनका आधार क्या था? इसका आधार वे कानून और विनियम थे जिनके बारे में उनका विश्वास था कि वे अनंत काल तक कभी नहीं बदलेंगे। फरीसियों ने जिन धर्मशास्त्रीय सिद्धांतों को समझा उसे उन्होंने ज्ञान और लोगों की प्रशंसा या निंदा करने का औजार माना, यहाँ तक कि उसका प्रयोग प्रभु यीशु पर भी किया गया। इस तरह प्रभु यीशु की निंदा की गई। वे लोग जिस तरह से किसी व्यक्ति का मूल्यांकन या उससे व्यवहार करते थे, वह व्यक्ति के सार पर कभी निर्भर नहीं करता था, न ही इस बात पर निर्भर करता था कि उस व्यक्ति ने जो उपदेश दिया है वह सत्य है या नहीं, और इससे भी कम इस बात पर निर्भर करता था कि उस व्यक्ति द्वारा कहे गए शब्दों का स्रोत क्या है—जिस तरह से फरीसी किसी व्यक्ति का मूल्यांकन या उसकी निंदा करते थे वह केवल बाइबल के पुराने नियम के उन विनियमों, शब्दों और धर्म-सिद्धांतों पर निर्भर करता था जो उन्होंने सीखे थे। हालाँकि फरीसी अपने दिलों में जानते थे कि प्रभु यीशु ने जो कहा और किया वह पाप या किसी कानून का उल्लंघन नहीं था, फिर भी उन्होंने उसकी निंदा की, क्योंकि उसने जो सत्य व्यक्त किए और जो संकेत दिए और चमत्कार किए, उनके कारण बहुत से लोग उसके अनुगामी और प्रशंसक बन गए थे। फरीसियों के मन में उसके प्रति घृणा बढ़ती जा रही थी, और यहाँ तक कि वे उसे परिदृश्य से ही हटा देना चाहते थे। उन्होंने यह नहीं जाना कि प्रभु यीशु ही वह मसीहा था जो आने वाला था, न ही उन्होंने यह स्वीकार किया कि उसके वचनों में सत्य था, और यह भी नहीं देखा कि उसका कार्य सत्य का पालन करता था। उन्होंने प्रभु यीशु को राक्षसों के राजकुमार बील्जेबब के माध्यम से राक्षसों को बाहर निकालने वाला और अभिमानपूर्ण बातें करने वाला माना। प्रभु यीशु पर इन पापों को थोपना प्रदर्शित करता है कि फरीसियों के मन में प्रभु के लिए कितनी नफरत थी। इसलिए, उन्होंने इस बात को नकारने के लिए पूरी लगन से काम किया कि प्रभु यीशु को परमेश्वर ने भेजा था, और वह परमेश्वर का पुत्र था, और वह मसीहा था। उनके कहने का मतलब था कि “क्या परमेश्वर इस तरह से कार्य करेगा? यदि परमेश्वर देहधारण करता, तो उसका जन्म किसी बहुत ही संभ्रांत परिवार में होता। और उसे शास्त्रियों तथा फरीसियों से शिक्षा भी स्वीकार करनी होती। ‘देहधारी परमेश्वर’ का नाम ग्रहण करने में सक्षम होने से पहले उसने पवित्र शास्त्रों का व्यवस्थित अध्ययन किया होता, उसे शास्त्रीय ज्ञान की समझ होती, और वह शास्त्रों के सम्पूर्ण ज्ञान से लैस हुआ होता।” लेकिन प्रभु यीशु इस ज्ञान से लैस नहीं था, इसलिए उन्होंने उसकी निंदा करते हुए कहा, “सबसे पहले तो तुम इस प्रकार योग्य नहीं हो, इसलिए तुम परमेश्वर नहीं हो सकते; दूसरे, इस शास्त्रीय ज्ञान के बिना परमेश्वर होना तो दूर, तुम परमेश्वर का कार्य भी नहीं कर सकते; तीसरे, तुम्हें मंदिर के बाहर काम नहीं करना चाहिए—अभी तुम मंदिर में काम नहीं करते, बल्कि हमेशा पापियों के बीच में रहते हो, इसलिए तुम जो काम करते हो वह शास्त्रों के दायरे से परे है, जिसके कारण तुम्हारा परमेश्वर होना और भी कम संभव है।” उनकी निंदा का आधार कहाँ से आया? शास्त्र से, मनुष्य के दिमाग से, और उन्हें प्राप्त धर्मशास्त्रीय शिक्षा से। क्योंकि फरीसी धारणाओं, कल्पनाओं और ज्ञान से भरे हुए थे, और उनका विश्वास था कि वह ज्ञान सही है, सत्य है, वैध आधार है, और परमेश्वर कभी भी इन चीजों का उल्लंघन नहीं कर सकता। क्या उन्होंने सत्य की तलाश की थी? उन्होंने ऐसा नहीं किया था। उन्होंने क्या तलाशा था? एक अलौकिक परमेश्वर जो आध्यात्मिक शरीर के रूप में प्रकट होता था। इसलिए, उन्होंने परमेश्वर के कार्यों के मानदंड निर्धारित किए, उसके कार्य को नकार दिया, और मनुष्य की धारणाओं, कल्पनाओं और ज्ञान के आधार पर परमेश्वर के सही या गलत होने के बारे में निर्णय करने लगे। और इसका अंतिम परिणाम क्या हुआ? उन्होंने न केवल परमेश्वर के कार्य की निंदा की, बल्कि उन्होंने देहधारी परमेश्वर को सूली पर चढ़ा दिया। परमेश्वर का मूल्यांकन करने के लिए अपनी धारणाओं, कल्पनाओं और ज्ञान का उपयोग करने से यही हुआ, और यही तो उनकी दुष्टता है।
ज्ञान और विद्वत्ता के प्रति फरीसियों के सम्मान को देखें तो उनमें दुष्टता कहाँ होती है? यह कैसे अभिव्यक्त होती है? हम ऐसे लोगों की दुष्ट प्रकृति को कैसे ढूँढ़ सकते हैं और उसका गहन विश्लेषण कैसे कर सकते हैं? फरीसियों का ज्ञान और विद्वत्ता के प्रति सम्मान जगजाहिर है और इस बारे में विस्तृत वार्ता की कोई आवश्यकता नहीं है। तो, उनके मामले में प्रकट होने वाली दुष्ट प्रकृति वास्तव में क्या है? हम ऐसे लोगों की दुष्ट प्रकृति का गहन विश्लेषण करके उसे ठीक से कैसे समझ सकते हैं? कोई बताए। (वे परमेश्वर के सार का विरोध करने के लिए सैद्धांतिक ज्ञान का उपयोग करते हैं; यह उनकी दुष्टता की अभिव्यक्तियों में से एक है।) विरोध एक क्रिया है, तो उन्होंने विरोध क्यों किया? विरोध करने में थोड़ा-बहुत दुष्ट स्वभाव शामिल होता है, लेकिन तुमने अभी तक दुष्टता को नहीं छुआ है। उन्होंने विरोध क्यों किया? क्या यह परमेश्वर को पसंद करने या नापसंद करने का मामला था? वे ऐसे परमेश्वर को नापसंद करते थे, क्योंकि उनका मानना था कि “परमेश्वर को स्वर्ग में होना चाहिए, तीसरे स्वर्ग में, सभी द्वारा प्रशंसित, मनुष्यों के लिए अप्राप्य, गूढ़, और ऐसा जिसकी ओर पूरी मानवता, सभी सृजित प्राणी और यहाँ तक कि ब्रह्मांड के सभी जीव आदर से देखें—वही परमेश्वर होता है! अब परमेश्वर आया है, लेकिन तुम एक बढ़ई के घर में पैदा हुए हो, साधारण माता-पिता के घर में और वह भी एक अस्तबल में। तुम्हारे जन्म की पृष्ठभूमि सिर्फ साधारण ही नहीं, साधारण से एक कदम नीचे और सामान्य से भी नीचे है—लोग इसे कैसे स्वीकार कर सकते थे? अगर परमेश्वर को वास्तव में आना होता, तो वह इस तरह नहीं आ सकता था!” क्या लोग इसी तरह से परमेश्वर को सीमित नहीं करते? प्रत्येक व्यक्ति इसी तरह से परमेश्वर को सीमित करता है। वास्तव में, मन की गहराई में वे यह भी महसूस करते थे कि प्रभु यीशु कोई साधारण व्यक्ति नहीं था, कि प्रभु यीशु जो कहता था वह सही था और लोगों ने उस पर जिन पापों का आरोप लगाया था, वे वास्तव में तथ्यों से मेल नहीं खाते थे। प्रभु यीशु बीमारों को चंगा कर सकता था और दानवों को निकाल सकता था और वे उसके बोले वचनों और उसके उपदेशों में न तो कोई गलती ढूँढ़ सके और न ही कुछ पकड़ पाए, लेकिन फिर भी वे उसके परमेश्वर होने की बात स्वीकार नहीं कर सके और उनके दिलों में संदेह था : “क्या परमेश्वर वास्तव में ऐसा ही है? स्वर्ग में परमेश्वर बहुत महान है, इसलिए यदि वह देहधारी होकर पृथ्वी पर आता है, तो उसे और भी महान होना चाहिए, सभी की प्रशंसा का पात्र होना चाहिए, कुलीन परिवारों में उसका आना-जाना होना चाहिए, उसे वाक्पटु होना चाहिए और कभी भी किसी मानवीय दोष या कमजोरी को प्रकट नहीं करना चाहिए। इसके अलावा, सबसे पहले उसे अपने ज्ञान, विद्वता और अपने कौशल का उपयोग उपासना-गृह के पुरोहित वर्ग को वश में करने के लिए करना चाहिए। उसे पहले इन लोगों को जीतना चाहिए; परमेश्वर का इरादा यही होगा।” प्रभु यीशु ने जो किया, फरीसियों ने वह सब स्वीकार नहीं किया, न ही वे इस तथ्य को स्वीकारना चाहते थे। वे इस तथ्य को स्वीकारना नहीं चाहते थे यह कोई बड़ी बात नहीं है; उनके अंदर इससे भी घातक कुछ और था : यदि ऐसा व्यक्ति परमेश्वर था, तो सभी पुरोहित वर्ग परमेश्वर हो सकता था, वे सभी स्वयं परमेश्वर से भी अधिक परमेश्वर के समान थे और वे सभी प्रभु यीशु से भी अधिक मसीह होने के योग्य थे। क्या यह परेशान करने वाली बात नहीं है? (हाँ, है।) जब वे प्रभु यीशु की निंदा कर रहे थे, तो वे देह से जुड़ी उस पृष्ठभूमि के हर पहलू का विरोध और उपहास भी कर रहे थे जिसे परमेश्वर ने इस बार अपने देहधारण के लिए चुना था। हमने अभी तक इस पर चर्चा नहीं की है कि फरीसियों की दुष्टता किसमें है—चलो अपनी संगति जारी रखें।
परमेश्वर साधारण व्यक्ति के रूप में देहधारी होता है, जिसका अर्थ है कि परमेश्वर स्वयं को ऊँची छवि, पहचान और सबसे पहले पद से गिरा कर पूरी तरह से साधारण व्यक्ति बन जाता है। जब वह एक साधारण व्यक्ति बनता है, तो वह एक प्रतिष्ठित, धनी परिवार में जन्म लेना नहीं चुनता; उसके जन्म की पृष्ठभूमि बहुत ही सामान्य, यहाँ तक कि दुर्दशापूर्ण होती है। यदि हम इस मामले को किसी ऐसे साधारण व्यक्ति के दृष्टिकोण से देखें जिसके पास विवेक, तर्क और मानवता है, तो परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह लोगों की श्रद्धा और प्रेम के योग्य है। लोगों को इसे कैसे देखना चाहिए? (श्रद्धा के साथ।) परमेश्वर का अनुसरण करने वाले किसी साधारण और सामान्य व्यक्ति को तो इसी तथ्य के लिए परमेश्वर की सुंदरता की प्रशंसा करनी चाहिए कि परमेश्वर स्वयं को एक ऊँचे दर्जे से हटाकर एक असाधारण रूप से साधारण व्यक्ति बना लेता है—परमेश्वर की यह विनम्रता और अदृश्यता बहुत प्यारी है! यह कुछ ऐसा है जिसे न तो कोई भ्रष्ट व्यक्ति कर सकता है और न ही दानव और शैतान कर सकते हैं। यह सकारात्मक बात है या नकारात्मक? (सकारात्मक बात है।) यह सकारात्मक बात, यह परिघटना और यह तथ्य सटीक रूप से क्या दर्शाते हैं? परमेश्वर की विनम्रता और अदृश्यता, परमेश्वर की सुंदरता और प्रियता। एक और तथ्य यह है कि परमेश्वर लोगों से प्रेम करता है; परमेश्वर का प्रेम असली है, झूठा नहीं है। परमेश्वर का प्रेम खोखला भाषण नहीं है, यह एक नारा नहीं है और न ही यह एक भ्रम है, बल्कि यह वास्तविक और तथ्यात्मक है। परमेश्वर स्वयं देहधारण करता है और मानवजाति की गलतफहमियों के साथ-साथ उसके द्वारा किए गए उपहास, बदनामी और ईशनिंदा को भी सहन करता है। वह विनम्र होकर साधारण व्यक्ति बन जाता है, जो दिखने में भव्य नहीं होता, जिसमें कोई विशेष प्रतिभा और निश्चित रूप से कोई गहन ज्ञान या विद्वता नहीं होती—यह सब वह किस उद्देश्य से करता है? यह उन लोगों तक पहुँचने के लिए करता है जिन्हें उसने चुना है और जिन्हें वह इस पहचान तथा एक ऐसे मानवीय स्वरूप के साथ बचाने का इरादा रखता है जो उनकी बिल्कुल आसान पहुँच में हो। यह सब जो परमेश्वर करता है क्या यह वह कीमत नहीं है जो उसने चुकाई है? (हाँ, है।) क्या कोई और ऐसा कर सकता है? कोई भी नहीं कर सकता। उदाहरण के लिए कुछ महिलाएँ, जिन्हें सुंदरता से विशेष प्रेम होता है, हमेशा मेकअप करती हैं और इसके बिना बाहर नहीं जाती हैं। यदि आप ऐसी किसी महिला से सादे चेहरे में बाहर जाने या बिना मेकअप के मंच पर आने के लिए कहें, तो क्या वह ऐसा कर सकती है? वह नहीं कर सकती। इस मामले में उसका कोई अपमान भी नहीं किया गया है, बात सिर्फ इतनी है कि बिना मेकअप के बाहर जाना उसके लिए असंभव है, वह उस थोड़े-से दिखावे, थोड़े-से दैहिक लाभ को भी नहीं छोड़ सकती। तो परमेश्वर के बारे में क्या कहना है? परमेश्वर जब समाज के सबसे निचले तबके में सबसे साधारण व्यक्ति के रूप में जन्म लेने की विनम्रता दिखाता है, तो वह किस चीज का त्याग करता है? वह अपनी गरिमा त्यागता है। परमेश्वर किस लिए अपनी गरिमा का त्याग करने में सक्षम है? (लोगों से प्रेम करने और उन्हें बचाने के लिए।) यह सब लोगों से प्रेम करने और उन्हें बचाने के लिए ही है जिससे परमेश्वर का स्वभाव प्रकट होता है। तो, इससे गरिमा कम कैसे होती है? इस मामले को कैसे देखा जाना चाहिए? कुछ लोग कहते हैं, “परमेश्वर ने कौन-सी गरिमा खोई? क्या देहधारण के बाद भी तुम्हारे पास परमेश्वर वाली पहचान नहीं है? क्या अब भी तुम्हारे पास ऐसे लोग नहीं हैं जो तुम्हारे उपदेश सुनते हैं और उनका अनुसरण करते हैं? क्या तुम अभी भी अपना परमेश्वर वाला कार्य नहीं कर रहे हो—इससे तुम्हारी कौन-सी गरिमा कम हुई?” इस “गरिमा की क्षति” के कई पहलू हैं। एक लिहाज से यह सब करने के पीछे परमेश्वर की प्रेरणा लोगों का हित है, लेकिन क्या लोग इसे समझ सकते हैं? यहाँ तक कि जो लोग उसका अनुसरण करते हैं वे भी इसे नहीं समझ सकते। समझ की इस कमी में क्या निहित है? इसमें कुछ लोगों की गलतफहमी, गलत व्याख्या और अजीब या तिरस्कार भरी नजरें शामिल हैं। इन सारी चीजों के बीच परमेश्वर आध्यात्मिक क्षेत्र में है और सारी मानवता परमेश्वर के कदमों तले है, लेकिन अब जब परमेश्वर देहधारी बन गया है, तो यह उसके लिए लोगों के साथ उसी वातावरण में बराबरी से रहने जैसा है। उसे मानवता के उपहास, बदनामी, गलतफहमी और व्यंग्य का सामना करना पड़ता है, साथ ही लोगों की धारणाओं, शत्रुता और आलोचना का भी सामना करना पड़ता है—उसे इन चीजों का सामना करना पड़ता है। जब वह इन चीजों का सामना कर रहा होता है, तो क्या तुम लोगों को लगता है कि उसकी कोई गरिमा है? परमेश्वर की पहचान के अनुसार उसे ये चीजें नहीं झेलनी चाहिए, लोगों को परमेश्वर के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए और उसे इन चीजों को सहन नहीं करना चाहिए; ये ऐसी चीजें नहीं हैं जिन्हें परमेश्वर को सहन करना चाहिए, लेकिन जब परमेश्वर देहधारी होता है तो उसे यह सब स्वीकारना पड़ता है, उसे यह सब सहना पड़ता है और कुछ भी नहीं बचता। भ्रष्ट मानवजाति स्वर्ग में रहने वाले परमेश्वर को तो सुखद लगने वाली कई बातें कह सकती है, लेकिन उसके मन में देहधारी परमेश्वर के लिए कोई सम्मान नहीं है। लोग सोचते हैं, “क्या परमेश्वर देहधारी हुआ है? तुम तो बहुत साधारण और सामान्य हो, तुममें कुछ भी खास नहीं है; ऐसा लगता है कि तुम मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते!” वे कुछ भी कहने का दुस्साहस करते हैं! जब बात उनके अपने लाभ या उनकी प्रतिष्ठा की आती है, तो वे कोई भी आलोचना या निंदा करने की हिम्मत रखते हैं। इसलिए जब परमेश्वर देहधारी होता है, तो जब वह मनुष्यों के साथ बातचीत करता है और भ्रष्ट मानवता के साथ रहता है, उसके पास यह रुतबा होता है और वह इस पहचान का आनंद लेता है, इसके साथ ही उसे अपनी पहचान के कारण हर तरह का अपमान भी सहना पड़ता है। वह अपनी सारी गरिमा खो देता है—यह वह पहली चीज है जो परमेश्वर को भ्रष्ट मानवजाति के उसके प्रति सभी भ्रम, गलतफहमियाँ, संदेह, परीक्षा, विद्रोह, आलोचनाएँ और कपट आदि का सामना करते हुए सहनी पड़ती है। उसे यह सब सहना पड़ता है—यह उसकी गरिमा की क्षति है। और क्या? देहधारण और आत्मा के बीच अनिवार्य रूप से कोई अंतर नहीं है—क्या यह बात ठीक है? (हाँ।) मूलतः इनमें कोई अंतर नहीं है, लेकिन एक पहलू है : देह कभी भी आत्मा की जगह नहीं ले सकता। यानी देह अपनी कई क्रियाओं द्वारा सीमाबद्ध है। उदाहरण के लिए, आत्मा अंतरिक्ष में यात्रा कर सकती है, समय, जलवायु या विभिन्न वातावरणों का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है और वह सर्वव्यापी है, जबकि देह इन मामलों में सीमाओं के अधीन है। परमेश्वर की गरिमा को क्या क्षति पहुँचाई गई है? इस मामले में कठिनाई क्या है? स्वयं परमेश्वर में यह क्षमता है, पर क्योंकि वह देह द्वारा सीमाबद्ध है, इसलिए अपने कार्य की अवधि में उसे कार्य पूरा होने तक सजगता से, शांति से और आज्ञाकारिता से देह के कार्य में लगे रहना पड़ता है। जिस दौरान परमेश्वर देह में कार्य कर रहा होता है, उस समय लोग परमेश्वर का जो कुछ देख पाते हैं और अपनी धारणाओं से जो समझ सकते हैं, वह वही देह है जिसे उनकी आँखें देख पाती हैं। तो, उनकी कल्पनाओं और धारणाओं के भीतर क्या परमेश्वर की महानता, सर्वशक्तिमत्ता, बुद्धि और यहाँ तक कि अधिकार भी कुछ सीमाओं के अधीन नहीं होते? (हाँ, होते हैं।) काफी हद तक वे चीजें कुछ सीमाओं के अधीन होती हैं। इन सीमाओं का कारण क्या है? (देहधारी होना।) ये सीमाएँ उसके देहधारी होने के कारण होती हैं। यह कहा जा सकता है कि देहधारी होना स्वयं परमेश्वर के लिए एक प्रकार की कठिनाई का कारण बनता है। बेशक, यहाँ “आफत” शब्द का उपयोग करना थोड़ा सटीक नहीं है, लेकिन इसे इसी तरह से कहना उचित है—इसे केवल इसी तरह से कहा जा सकता है। क्या इस आफत का लोगों की परमेश्वर के बारे में समझ पर कोई निश्चित प्रभाव पड़ता है और क्या परमेश्वर से प्रेम करने और उसके प्रति समर्पित होने के क्रम में लोगों के परमेश्वर के साथ सच्चे जुड़ाव और संवाद पर भी कोई प्रभाव पड़ता है? (हाँ।) इसका एक निश्चित प्रभाव पड़ता है। जब तक किसी व्यक्ति ने परमेश्वर को देह में देखा है, जब तक उसका परमेश्वर की देह के साथ व्यवहार रहा है, जब तक उसने परमेश्वर के देह को बोलते सुना है, तब तक यह संभव है कि उस व्यक्ति के जीवनकाल में उसके लिए परमेश्वर की छवि, परमेश्वर की बुद्धि, परमेश्वर का सार और परमेश्वर का स्वभाव हमेशा वैसा ही बना रहेगा जैसा उसने परमेश्वर के देह में पहचाना, देखा और समझा है। यह परमेश्वर के साथ अन्याय है। क्या यह ऐसा ही मामला नहीं है? (हाँ, है।) यह स्थिति परमेश्वर के साथ अन्याय है। तो, परमेश्वर फिर भी ऐसा क्यों करता है? क्योंकि केवल परमेश्वर के देहधारण के माध्यम से ही परमेश्वर लोगों के शुद्धिकरण और उन्हें बचाने के काम में सर्वोत्तम परिणाम प्राप्त कर सकता है—परमेश्वर इसी मार्ग को चुनता है। परमेश्वर देहधारण करता है और लोगों के बीच आमने-सामने रहता है जिससे लोग उसके वचनों को सुन सकें, उसकी हर गतिविधि देख सकें और उसके स्वभाव, यहाँ तक कि उसके व्यक्तित्व और उसके सुख-दुःख को देख सकें। चाहे यह स्वभाव और ये सुख-दुःख, देखने वाले लोगों के मन में धारणाएँ विकसित कर सकते हों, जो परमेश्वर के सार के बारे में लोगों की समझ को प्रभावित करते हैं और लोगों की समझ को सीमित करते हैं, भले ही परमेश्वर को इनके कारण गलत समझा जाए, फिर भी वह लोगों को बचाने के लिए यही तरीका चुनेगा जिससे सर्वोत्तम परिणाम पाए जा सकें। इसलिए परमेश्वर के मूल चेहरे और उसकी सच्ची पहचान, स्थिति और सार के बारे में लोगों की समझ के दृष्टिकोण से उसने अपनी गरिमा का त्याग किया है। क्या ऐसा नहीं कहा जा सकता? यह इसी दृष्टिकोण से है। इस पर ध्यान से विचार करो : लोगों की समझ के अनुसार परमेश्वर ने जो कीमत चुकाई है और जो किया है, उसके विभिन्न पहलुओं में से क्या कुछ भी ऐसा है जो फरीसियों और मसीह-विरोधियों के उन सिद्धांतों और नारों के समतुल्य हो? ऐसा कुछ भी नहीं है। उदाहरण के लिए जब फरीसी कहते थे कि “परमेश्वर सम्माननीय है,” तो वे इस सम्माननीयता को कैसे समझते थे? उनकी नजर में परमेश्वर की सम्माननीयता को कैसे महसूस किया जाना चाहिए? बस इतना ही कि वह बहुत ऊँचा है। क्या यह एक धर्म-सिद्धांत नहीं है कि “परमेश्वर सम्माननीय है, परमेश्वर बहुत सम्माननीय है”? (हाँ।) परमेश्वर की सम्माननीयता के बारे में उनका क्या विश्वास है? उनका विश्वास यह है कि यदि परमेश्वर संसार में आया, तो उसके पास महत्वपूर्ण पद होगा, सर्वोच्च ज्ञान और प्रतिभा होगी, सर्वोच्च योग्यता होगी, अव्वल दर्जे की वाक्पटुता होगी और अव्वल दर्जे की पसंदीदा शक्ल-सूरत होगी। वह सम्माननीयता क्या है जिस पर वे विश्वास करते थे? यह वह है जो लोगों को दिख सके। क्या यह कुछ वैसी ही सम्माननीयता नहीं है जैसी शैतान करता है? (हाँ।) परमेश्वर ऐसा नहीं करता है! देखो कि परमेश्वर ने अपने चुने हुए लोगों में किस प्रकार के लोगों को चुना है और यह भी देखो कि किस प्रकार के लोग शैतान की दुनिया के उत्कृष्ट कुलीनों में शामिल हैं। इस तरह से उनकी तुलना करने पर तुम्हें पता चल जाएगा कि किस प्रकार के व्यक्ति को परमेश्वर बचाता है और किस प्रकार के व्यक्ति को नहीं बचाया जा सकता। जो लोग विशेष रूप से अभिमानी, आत्मतुष्ट, गुणी और प्रतिभाशाली हैं, उन्हीं के द्वारा सत्य स्वीकारने की संभावना सबसे कम होती है। उनकी वाणी ज्ञान से परिपूर्ण है, अत्यंत वाक्पटु है और लोगों को उनकी आराधना और प्रशंसा करने पर मजबूर कर देती है, लेकिन सत्य स्वीकार नहीं करना उनकी सबसे बड़ी कमजोरी है और वे सत्य से विमुख हैं तथा उससे घृणा करते हैं, जिससे तय होता है कि वे विनाश का मार्ग अपनाएँगे। पुनश्च, परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से किसी के पास कोई विशेष गुण या प्रतिभा नहीं है, लेकिन वे सत्य स्वीकार सकते हैं, परमेश्वर के प्रति समर्पित हो सकते हैं, परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए अपनी कीर्ति, लाभ और रुतबे को त्याग सकते हैं और अपना कर्तव्य करने के लिए तैयार होते हैं। ये ऐसे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर बचाता है। अविश्वासी किसकी आराधना करते हैं? वे सभी उच्च-स्तरीय बुद्धिजीवियों और प्रतिष्ठित पारिवारिक स्थिति वाले लोगों की आराधना करते हैं। विशेष गुणों, विशेषज्ञताओं और पारिवारिक स्थिति को देखें तो हमारे पास इनमें से कुछ भी नहीं है—हम एक जैसे हैं। तुम लोग इस बारे में क्या सोचते हो? परमेश्वर ऐसे काम नहीं करता—क्या यह इतनी सरल बात है? परमेश्वर ने इसे इस तरह से व्यवस्थित क्यों नहीं किया? परमेश्वर का इरादा ऐसा ही है। परमेश्वर के लिए ये सब व्यवस्था करना बहुत आसान है कि कोई व्यक्ति किस परिवार में जन्म लेगा और वह क्या ज्ञान प्राप्त कर सकेगा। क्या परमेश्वर इस तरह से कार्य कर सकता है? (हाँ।) वह वास्तव में ऐसा कर सकता है! तो फिर परमेश्वर ने हमारे लिए धनी और प्रतिष्ठित परिवारों में जन्म लेने की व्यवस्था क्यों नहीं की? यही परमेश्वर की सुंदरता है, यही परमेश्वर के सार का प्रकाशन है और केवल सत्य समझने वाले लोग ही इस मामले को समझ सकते हैं। परमेश्वर के देहधारी होने के बाद लोगों की धारणाएँ चाहे कितनी भी भव्य हों, परमेश्वर को अपने कार्य में चाहे कितनी भी बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़े, उसे चाहे कितनी भी बड़ी बाधाओं का सामना करना पड़े, उसे चाहे कितने भी भारी उपहास और अपमान का सामना करना पड़े और इस तरह से देहधारण के बाद उसकी गरिमा चाहे कितनी ही कम हो जाए, क्या वह इसकी परवाह करता है? उसे परवाह नहीं है। तो उसे किस बात की परवाह है? अगर तुम लोग इस बात को समझ सकते हो, तो तुम सचमुच जानते हो कि परमेश्वर प्यारा है। परमेश्वर किस बात की परवाह करता है? इस कीमत को चुकाने और इतना बड़ा प्रयास करने के पीछे परमेश्वर का श्रमसाध्य इरादा क्या है? उसने यह वास्तव में किस लिए किया? (इस समूह के लिए जिसे परमेश्वर ने खुद को बेहतर ढंग से समझने, उसके देहधारी स्वरूप के माध्यम से परमेश्वर के साथ बेहतर संपर्क रखने, और फिर परमेश्वर की सच्ची समझ प्राप्त करने में सक्षम होने के लिए चुना है।) परमेश्वर की सच्ची समझ प्राप्त करने—तो क्या यह स्थिति परमेश्वर के लिए अब भी बहुत लाभदायक है? क्या परमेश्वर ने इस एक लक्ष्य के लिए इतना कुछ चुकाया है? हाँ या नहीं? क्या परमेश्वर ने 6,000 वर्षों तक इसलिए कड़ी मेहनत की कि वह लोगों को परमेश्वर के बारे में समझा सके? मुझे बताओ, परमेश्वर द्वारा लोगों के सृजन के बाद जब मानवजाति ने खुद को परमेश्वर से दूर कर लिया और शैतान का अनुसरण किया और लोगों ने अपना जीवन एक जीवित राक्षस की तरह बिताना शुरू कर दिया तो सबसे ज्यादा खुश कौन हुआ? (शैतान।) पीड़ित कौन है? (लोग।) तो सबसे ज्यादा दुःखी कौन है? (परमेश्वर।) क्या तुम लोग सबसे ज्यादा दुखी हो? (नहीं।) वास्तव में कोई भी इन चीजों के आर-पार नहीं देख सकता। कोई भी स्वयं इन चीजों को नहीं जानता : वे जो भी बनने के लिए जीते हैं, उसे स्वीकारते हैं। जब तुम उनसे सत्य का अभ्यास करने के लिए कहते हो, तो उन्हें नहीं लगता कि इससे कोई फायदा होगा। वे लगातार अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार जीते हैं और हमेशा परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करते हैं। सबसे दुःखी और सबसे ज्यादा भग्न-हृदय व्यक्ति वास्तव में परमेश्वर है। परमेश्वर ने मानवजाति को बनाया; क्या तुम लोगों को लगता है कि परमेश्वर को मानव अस्तित्व की वर्तमान स्थिति की परवाह है या इसकी परवाह है कि उनका जीवन अच्छा है या नहीं? (उसे परवाह है।) परमेश्वर सबसे अधिक चिंतित है और शायद इसमें शामिल लोग इस बात को महसूस नहीं करते और वास्तव में वे स्वयं इसे नहीं समझते। इस दुनिया में रहते हुए मानवजाति सौ साल पहले भी ऐसी ही थी और अब भी यह ऐसी ही है, पीढ़ी-दर-पीढ़ी बढ़ती जा रही है और पीढ़ी-दर-पीढ़ी इसी तरह जी रही है, कुछ लोग बढ़िया जीवन जी रहे हैं, कुछ गरीब हैं—जीवन उतार-चढ़ाव से भरा है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी लोग आते हैं, अलग-अलग कपड़े पहनते हैं, एक जैसा ही भोजन खाते हैं, लेकिन सामाजिक संरचना और व्यवस्थाएँ धीरे-धीरे बदलती हैं; लोग अनजाने में वर्तमान में पहुँच जाते हैं—क्या वे जागरूक हैं? वे जागरूक नहीं हैं। तो सबसे अधिक जागरूक कौन है? (परमेश्वर।) यह परमेश्वर है जो इन बातों की सबसे ज्यादा परवाह करता है। एक बात जो परमेश्वर नहीं भूलता वह यह है कि उसने जिन लोगों को बनाया है, वे कैसे जीते हैं, उनके जीवन की वर्तमान स्थिति क्या है, क्या वे अच्छी तरह से जी रहे हैं, वे क्या खाते और पहनते हैं, उनका भविष्य कैसा होगा और वे हर दिन अपने दिलों में क्या सोचते हैं। यदि सभी लोग हर दिन बुरा सोचते हैं, उनकी सोच यही रहती है कि प्रकृति के नियम कैसे बदलने हैं और कैसे इन नियमों के विरुद्ध जाना है, कैसे स्वर्ग के खिलाफ लड़ना है, कैसे दुनिया की बुरी प्रवृत्तियों का अनुसरण करना है, तो क्या परमेश्वर को यह सब देख कर अच्छा लगता है? (नहीं, उसे अच्छा नहीं लगता।) तो परमेश्वर को अच्छा नहीं लगता और बस बात खत्म? क्या उसे इसके बारे में कुछ करना नहीं होगा? (हाँ, उसे करना होगा।) इन लोगों को अच्छी तरह से जीना सिखाने के लिए उसे एक रास्ता खोजना होगा, लोगों को स्वयं के आचरण के सिद्धांतों को समझाने के लिए, उन्हें परमेश्वर की आराधना करना सिखाने के लिए, प्रकृति के नियमों के प्रति समर्पण करना सिखाने के लिए, परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना सिखाने के लिए उसे एक रास्ता खोजना होगा ताकि लोग मानव सदृश जीवन जी सकें और परमेश्वर को राहत मिल सके। परमेश्वर इन लोगों को छोड़ दे तो भी वे शैतान से तनिक भी पीड़ित हुए बिना ऐसे वातावरण में सामान्य रूप से रह सकें—यही परमेश्वर का इरादा है। जब शैतान देखता है कि लोग परमेश्वर के प्रति समर्पित हो सकते हैं और मानव सदृश जीवन जी सकते हैं, तो वह पूरी तरह से अपमानित और असफल हो जाता है, इसलिए वह इन लोगों को पूरी तरह से त्याग देता है और फिर कभी उन पर ध्यान नहीं देता। तो शैतान किसकी परवाह करता है? वह केवल उन लोगों की परवाह करता है जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं लेकिन सत्य का अनुसरण नहीं करते, जो परमेश्वर के वचनों का पाठ नहीं करते और परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते, जो अपने कर्तव्य आधे-अधूरे मन से करते हैं और जो हमेशा कोई ऐसा व्यक्ति तलाशना चाहते हैं जिससे विवाह करें, परिवार शुरू करें और करियर बनाएँ। वह इन लोगों को बहकाना चाहता है, उन्हें परमेश्वर से दूर करने, अपना कर्तव्य न करने और परमेश्वर को धोखा देने के लिए इतना गुमराह करना चाहता है कि वे परमेश्वर द्वारा निकाल दिए जाएँ—तभी वह पूरी तरह से खुश होता है। जितना अधिक तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, वह उतना ही अधिक खुश होता है, तुम जितना अधिक कीर्ति, लाभ और पद के पीछे दौड़ते हो और जितनी अधिक अपने कर्तव्य निर्वहन में लापरवाही करते हो, वह उतना ही अधिक खुश होता है। यदि तुम खुद को परमेश्वर से दूर कर लो और उसे धोखा दो, तो शैतान और भी अधिक खुश हो जाता है—क्या यही शैतान की मानसिकता नहीं है? क्या मसीह-विरोधियों की मानसिकता भी ऐसी ही नहीं है? शैतान जैसे सभी लोगों की यही मानसिकता होती है। वे हर उस व्यक्ति को बहकाना चाहते हैं जो जैसा कि वे देखते हैं, परमेश्वर में ईमानदारी से विश्वास नहीं करता, जो ज्ञान प्राप्ति, कीर्ति, लाभ और रुतबा हासिल करने पर ध्यान देता है और जो अपने कर्तव्य निर्वहन में अपने मुख्य कार्य पर ध्यान नहीं देता। जब वे ऐसे लोगों से मिलते हैं, तो वे उनके साथ उन्हीं की भाषा में बात करते हैं, जब वे साथ होते हैं तो उनके पास कहने के लिए बहुत कुछ होता है और वे बिना किसी संकोच के अपने मन की बात खुलकर कहते हैं। परमेश्वर जब देखता है कि ये लोग सत्य का अनुसरण नहीं कर रहे हैं, तो उसे कैसा महसूस होता है? उसे चिंता होती है! इसलिए परमेश्वर ने जो इतनी कीमत चुकाई है उसका कारण क्या है? यह सब मानवता के लिए उसकी चिंता, परवाह और परेशानी के कारण है। परमेश्वर के हृदय में लोगों के बारे में ये चिंताएँ, परवाह और परेशानियाँ होती हैं और चूँकि परमेश्वर लोगों के प्रति ऐसा दृष्टिकोण रखता है इसलिए उसका कार्य चरणबद्ध तरीके से होता है। लोगों की नजरों में परमेश्वर चाहे विनम्र और छिपा हुआ है, वह लोगों से सच्चा प्यार करता है, वह वफादार है या चाहे वह महान है, परमेश्वर का मानना है कि ये सभी कीमतें उचित हैं और इनका पुरस्कार मिल सकता है। इस पुरस्कार का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि जिन चीजों के बारे में वह अपने दिल में परेशान रहता है, वे फिर कभी नहीं होंगी और जिन लोगों के बारे में वह अपने दिल में चिंतित है, वे उसके इरादों के अनुसार उसके सिखाए और निर्दिष्ट तरीके और दिशा के अनुसार जी सकते हैं और इन लोगों को शैतान अब भ्रष्ट नहीं कर सकेगा—वे अब और पीड़ा में नहीं रहेंगे और परमेश्वर की परेशानियाँ खत्म हो जाएँगी और परमेश्वर को राहत मिलेगी। तो परमेश्वर ने जो कुछ भी किया है, उसके संबंध में उसकी प्राथमिक प्रेरणा चाहे जो हो, उसकी योजना कितनी ही बड़ी या छोटी हो—क्या ये सब सकारात्मक नहीं है? (हाँ, है।) ये सभी सकारात्मक चीजें हैं। इस बात की परवाह किए बिना कि परमेश्वर के कार्य करने का तरीका लोगों के लिए अदृश्य है, कि वह उल्लेख करने योग्य है भी या नहीं, लोगों का न्याय करने और उन्हें बचाने के लिए किए जाने वाले परमेश्वर के कार्य के तरीके के बारे में लोग कैसी भी राय दें, परमेश्वर ने जो कुछ किया है और जो कीमत वह चुका सकता है उसे देखते हुए क्या परमेश्वर प्रशंसनीय नहीं है? (हाँ, वह प्रशंसनीय है।) तो परमेश्वर महान है या क्षुद्र? (वह महान है।) बहुत महान! मानवजाति में से कोई भी ऐसी कीमत नहीं चुका सकता। कुछ लोग कहते हैं कि “माँ का प्रेम मानवजाति में सबसे महान है।” पर क्या माँ का प्रेम इसके जितना महान है? आम तौर पर बच्चे जब स्वतंत्र रूप से अपना जीवन जीने लगते हैं, तो उनकी माताएँ उनके बारे में तब तक चिंता नहीं करतीं, जब तक कि वे अपना काम चला सकते हैं। वास्तव में, वे अपने बच्चों के बारे में चाहें तो भी चिंता नहीं कर सकतीं। तो परमेश्वर इस मानवजाति के साथ कैसा व्यवहार करता है? उसने कितने हजार वर्षों से इसे सहन किया है? परमेश्वर ने इसे छह हजार वर्षों से सहन किया है और अब भी हार नहीं मानी है। बस उस थोड़ी-सी परेशानी और चिंता की वजह से परमेश्वर ने इतनी बड़ी कीमत चुकाई। फरीसियों और उन मसीह-विरोधियों की नजर में इतनी बड़ी कीमत का क्या महत्व है? वे इसकी निंदा करते हैं, इसकी आलोचना करते हैं, यहाँ तक कि इसकी ईशनिंदा भी करते हैं। इस नजरिये से क्या वे मसीह-विरोधी प्रकृति से दुष्ट नहीं हैं? (हाँ, वे हैं।) परमेश्वर ने ऐसे प्रशंसनीय कार्य किए हैं और परमेश्वर का सार और जो उसके पास है और जो वह है वह सब कुछ लोगों की प्रशंसा का पात्र है। फिर भी लोग न केवल उसकी प्रशंसा नहीं करते, बल्कि वे उसकी निंदा करने और उसकी आलोचना करने के लिए तरह-तरह के बहानों और सिद्धांतों का प्रयोग करते हैं और यहाँ तक कि यह स्वीकारने से भी इनकार करते हैं कि वह मसीह है। क्या ये लोग घृणित नहीं हैं? (हाँ, वे हैं।) क्या वे दुष्ट नहीं हैं? उनके दुष्ट व्यवहार को देखते हुए क्या वे ज्ञान और शिक्षा की आराधना नहीं करते हैं? क्या वे शक्ति और रुतबे की आराधना नहीं करते? (हाँ, वे ऐसा ही करते हैं।) कोई चीज जितनी अधिक सकारात्मक होती है और लोगों की प्रशंसा, स्मरण और फैलाव के लायक होती है, उतनी ही अधिक उसकी मसीह-विरोधियों द्वारा निंदा की जाएगी। यह मसीह-विरोधियों की दुष्ट प्रकृति का एक प्रकाशन है। यह अवश्य कहा जाना चाहिए कि मसीह-विरोधियों की दुष्टता का स्तर भ्रष्ट स्वभाव वाले अधिकांश लोगों की पहुँच से परे है।
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