मद सात : वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं (भाग तीन) खंड तीन
मसीह-विरोधियों के दुष्ट, धूर्त और कपटी होने का गहन-विश्लेषण
पिछली बार हमने मसीह-विरोधियों की सातवीं अभिव्यक्ति—वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं—के बारे में संगति की थी। इस मुद्दे पर लगभग दो बार संगति की जा चुकी है। पहली चर्चा मसीह-विरोधियों की दुष्ट प्रकृति पर थी—उस चर्चा में किस बात पर जोर दिया गया था? (सत्य के प्रति शत्रुभाव रखना और उससे घृणा करना।) मसीह-विरोधी सत्य के प्रति शत्रुभाव रखते हैं और उससे घृणा करते हैं, वे उन सभी सकारात्मक चीजों से घृणा करते हैं जो सत्य और परमेश्वर के अनुरूप हों, जो मसीह-विरोधियों की दुष्टता की पहली और प्राथमिक अभिव्यक्ति है। पहली चर्चा इस बारे में थी कि मसीह-विरोधी किस चीज से घृणा करते हैं। सामान्य लोग नकारात्मक चीजों और दुष्ट शक्तियों से घृणा करते हैं; वे उन चीजों से घृणा करते हैं जो गंदी, कालिमामय और दुष्ट हैं। परंतु, इसके विपरीत, किसी मसीह-विरोधी की दुष्ट प्रकृति की पहली अभिव्यक्ति का सबसे सुदृढ़ साक्ष्य यह होता है कि वे नकारात्मक चीजों से घृणा नहीं, बल्कि सत्य और परमेश्वर से संबंधित सभी सकारात्मक चीजों से घृणा करते हैं, जो उनकी दुष्टता का पहला सुदृढ़ साक्ष्य है। हमारी दूसरी चर्चा मसीह-विरोधियों की दुष्टता की अभिव्यक्ति से संबंधित दूसरे सुदृढ़ साक्ष्य के बारे में थी। यदि वे सकारात्मक चीजों से घृणा करते हैं, तो वे प्रेम किससे करते हैं? (नकारात्मक चीजों से।) सामान्य मानवता वाले लोग क्या पसंद करते हैं? वे मानवता से संबंधित प्रेम, धैर्य और सहिष्णुता के साथ न्याय, दयालुता और सौंदर्य, साथ ही सहज समझ और लोगों के लिए फायदेमंद सकारात्मक ज्ञान, और परमेश्वर से मिली सभी सकारात्मक चीजें पसंद करते हैं जिनमें परमेश्वर द्वारा सभी चीजों के लिए स्थापित कानून और नियम, परमेश्वर के कानून और प्रशासनिक आदेश, और परमेश्वर द्वारा व्यक्त जीवन के सभी सत्य और तरीकों के साथ-साथ परमेश्वर से संबंधित अन्य चीजें शामिल हैं। मसीह-विरोधियों का दुष्ट स्वभाव इसके उलट चलता है; उन्हें ये चीजें पसंद नहीं हैं—उन्हें क्या पसंद हैं? (झूठ और प्रवंचना।) ठीक कहा, वे षड्यंत्र, साजिशें, सांसारिक लेनदेन के विभिन्न साधन, चापलूसी करने, व तलवे चाटने वाले लोग, और कलह, रुतबा और अधिकार के साथ-साथ झूठ और प्रवंचना पसंद करते हैं। वे सत्य और सकारात्मक चीजों के विरुद्ध जाने वाली इन सभी नकारात्मक चीजों से प्रेम करते हैं, जो मसीह-विरोधियों की दुष्ट प्रकृति का सटीक प्रदर्शन करता है। क्या ये साक्ष्य प्रभावी नहीं हैं? (हाँ, हैं।) हालाँकि ये सभी साक्ष्य प्रभावी हैं, किंतु ये केवल दो ही भाग हुए हैं जिन्हें पूर्ण नहीं माना जा सकता है। आज हम तीसरे भाग—मसीह-विरोधी दुष्ट, धूर्त और कपटी कैसे हैं—पर चर्चा करना जारी रखेंगे। यह तीसरा भाग पहले और दूसरे भाग से अलग जरूर है, लेकिन उन्हीं से संबंधित है। यह किस प्रकार संबंधित है? तीनों भाग एक ही सार—मसीह-विरोधियों की दुष्ट प्रकृति—पर चर्चा करते हैं। यह किस प्रकार अलग है? इस भाग में, उनकी दुष्ट प्रकृति को किस चीज से प्रेम है और किस चीज की जरूरत है के साथ-साथ वे किन चीजों से नफरत करते हैं, आदि बातें पिछले दो भागों में हुई चर्चा से भिन्न हैं—इसकी सामग्री अलग है। इस अंतर का मतलब यह नहीं है कि मसीह-विरोधियों को कुछ सकारात्मक चीजें भी पसंद होती हैं या वे कुछ नकारात्मक चीजों से नफरत भी करते हैं; बल्कि इसमें एक और अंश शामिल है, जो सिर्फ इस बारे में नहीं है कि उन्हें क्या पसंद हैं या उनकी क्या जरूरत है, बल्कि इसे उस स्तर तक उठाया गया है कि मसीह-विरोधी दुष्ट शक्तियाँ किसका सम्मान करती हैं—दूसरे शब्दों में कहें तो वे किसकी आराधना या प्रशंसा करते हैं। कुछ लोग कह सकते हैं, “‘सम्मान’, ‘आराधना’ और ‘प्रशंसा’ जैसे शब्दों का उपयोग सकारात्मक चीजों को संदर्भित करने के लिए किया जाना चाहिए, तो उन्हें मसीह-विरोधियों पर कैसे लागू किया जा सकता है? क्या ये शब्द उचित हैं?” ये शब्द न तो सराहना के अर्थ में हैं और न ही अपमानजनक हैं—ये तटस्थ हैं। इसलिए, यहाँ इनका उपयोग करना किसी भी सिद्धांत का उल्लंघन नहीं करता है और स्वीकार्य है।
III. उन चीजों का गहन-विश्लेषण जिनकी मसीह-विरोधी आराधना और प्रशंसा करते हैं
मसीह-विरोधी किस चीज की आराधना और प्रशंसा करते हैं? सबसे पहले, यह तो निश्चित है कि वे सत्य की, परमेश्वर की या परमेश्वर से जुड़ी किसी भी सुंदर या अच्छी चीज की आराधना नहीं करते। तो, वे वास्तव में किसकी आराधना करते हैं? क्या तुम लोग ऐसी किसी चीज के बारे में सोच सकते हो? मैं तुम लोगों को एक संकेत देता हूँ। धर्म मानने वाले लोग जो प्रभु में विश्वास करते हैं, ईसाइयत में कैसे डूब गए? अब उन्हें परमेश्वर की कलीसिया, परमेश्वर के घर या परमेश्वर के कार्य की वस्तु के रूप में न पहचानकर एक धर्म, एक पंथ के रूप में क्यों पहचाना जाता है? उनके पास धार्मिक शिक्षाएँ हैं; वे परमेश्वर के किए कार्यों और उसके बोले वचनों को पुस्तक के रूप में संकलित करते हैं, शिक्षण सामग्री के रूप में संकलित करते हैं, और फिर स्कूल खोलते हैं, और विभिन्न धर्मशास्त्रियों की भर्ती करते हैं और उन्हें प्रशिक्षित करते हैं। ये धर्मशास्त्री किस चीज का अध्ययन करते हैं? क्या वे सत्य का अध्ययन करते हैं? (नहीं।) फिर वे किस चीज का अध्ययन करते हैं? (धर्मशास्त्रीय ज्ञान का।) वे धर्मशास्त्रीय ज्ञान और सिद्धांतों का अध्ययन करते हैं, जिनका परमेश्वर के कार्य या परमेश्वर द्वारा बोले गए सत्यों से कोई लेना-देना नहीं है। वे परमेश्वर के वचनों और पवित्र आत्मा के कार्य को धार्मिक ज्ञान से प्रतिस्थापित कर देते हैं, और इस तरह वे ईसाइयत या कैथोलिक धर्म में डूब जाते हैं। धर्म में किस चीज का सम्मान किया जाता है? यदि तुम किसी कलीसिया में जाओ और कोई तुमसे पूछे कि तुम कितने समय से परमेश्वर में विश्वास करते हो, और तुम कहो कि तुमने अभी-अभी विश्वास करना शुरू किया है, तो वे तुम पर कोई ध्यान नहीं देंगे। लेकिन यदि तुम बाइबल लेकर जाते हो और कहो कि “मैंने अभी-अभी फलाँ धर्मशास्त्रीय सेमिनेरी से स्नातक किया है,” तो वे तुम्हें सम्मानपूर्वक स्थान ग्रहण करने के लिए आमंत्रित करेंगे। यदि तुम एक सामान्य विश्वासी हो, तो जब तक कि तुम्हारी कोई खास सामाजिक हैसियत न हो, वे तुमसे परेशान नहीं होंगे। यही है ईसाई धर्म और ऐसी ही है धार्मिक दुनिया। कलीसियाओं में जो लोग उपदेश देते हैं और जिनके पास रुतबा, पद और प्रतिष्ठा है, वे धर्मशास्त्रीय सेमिनेरियों से धार्मिक ज्ञान और सिद्धांतों का प्रशिक्षण प्राप्त लोगों का एक समूह हैं, और वे दरअसल ईसाई धर्म का मुख्य निकाय हैं। ईसाई धर्म ऐसे लोगों को मंच पर जाकर उपदेश देने, सुसमाचार फैलाने, ईसाई बनाने और हर जगह कार्य करने के लिए प्रशिक्षित करता है। उनका मानना है कि धर्मशास्त्र के इन छात्रों, उपदेशक पादरियों और धर्मशास्त्रियों जैसी प्रतिभाओं की वजह से ही ईसाई धर्म का अब तक अस्तित्व में बने रहना सुनिश्चित हो सका है, और यही लोग ईसाई धर्म के अस्तित्व का मूल्य और पूँजी बनते हैं। यदि किसी कलीसिया का पादरी धर्मशास्त्रीय सेमिनेरी से स्नातक है, वह बाइबल पर अच्छी तरह से चर्चा करता है, उसने कुछ आध्यात्मिक किताबें पढ़ी हैं, उसके पास कुछ ज्ञान और वाक्पटुता है, तो उस कलीसिया में आने वालों की संख्या बढ़ेगी और वह कलीसिया दूसरे कलीसियाओं की तुलना में बहुत अधिक प्रसिद्ध हो जाएगी। ईसाई धर्म के ये लोग किस चीज का सम्मान करते हैं? ज्ञान का, धर्मशास्त्रीय ज्ञान का। यह ज्ञान आता कहाँ से है? क्या यह प्राचीन काल से आने वाली पीढ़ियों को हस्तांतरित नहीं किया जा रहा है? प्राचीन काल से ही धर्मशास्त्र मौजूद रहे हैं जिन्हें पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ाया जाता रहा है और यही वह तरीका है जिससे सब लोग उन्हें आज तक पढ़ते और सीखते आए हैं। लोग बाइबल को विभिन्न खंडों में बाँटते हैं, उसके अलग-अलग संस्करणों का संकलन करते हैं और उसके अध्ययन तथा सीखने के लिए लोगों को प्रोत्साहित करते हैं, लेकिन उनका बाइबल का अध्ययन करना परमेश्वर को जानने हेतु सत्य समझने के लिए नहीं है, न ही यह परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने की परमेश्वर के इरादों को समझने के लिए है; बल्कि यह बाइबल में संग्रहीत ज्ञान और रहस्यों के अध्ययन के लिए है जिससे जाना जा सके कि किन घटनाओं ने किस प्रकाशित वाक्य की किस भविष्यवाणी को कब पूरा किया, और महा विनाश और सहस्राब्दी कब आएगी—वे इनका अध्ययन करते हैं। क्या उनका अध्ययन सत्य से संबंधित है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) वे ऐसी चीजों का अध्ययन क्यों करते हैं जिनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है? ऐसा इसलिए है कि जितना अधिक वे अध्ययन करते हैं, उतना ही अधिक उन्हें लगता है कि वे समझ रहे हैं और जितने अधिक शब्दों और धर्म-सिद्धांतों से वे लैस होते हैं, उनकी योग्यताएँ उतनी ही अधिक बढ़ती जाती हैं। उनकी योग्यताएँ जितनी अधिक होंगी, उन्हें लगता है कि वे उतने ही अधिक क्षमतावान हो गए हैं और उतना ही उनका यह विश्वास बढ़ता जाता है कि अंततः उनकी आस्था से उन्हें आशीष मिलेगी, मृत्यु के बाद वे स्वर्ग जाएँगे या कि उनका जीवन प्रभु से मिलन के लिए अंतरिक्ष में विलीन हो जाएगा। ये उनकी धार्मिक धारणाएँ हैं, जो परमेश्वर के वचनों के अनुरूप कतई नहीं हैं।
धार्मिक जगत के पादरी, एल्डर आदि वे लोग हैं जो बाइबल संबंधी ज्ञान और धर्मशास्त्र का अध्ययन करते हैं; वे परमेश्वर का विरोध करने वाले पाखंडी फरीसी हैं। तो, वे कलीसिया में छिपे मसीह-विरोधियों से अलग कैसे हैं? आओ, अब इन दोनों में संबंध के बारे में बात करते हैं। ईसाई और कैथोलिक धर्म में जो लोग बाइबल, धर्मशास्त्र और यहाँ तक कि परमेश्वर के कार्य के इतिहास का अध्ययन करते हैं, क्या वे वास्तव में विश्वासी हैं? क्या वे परमेश्वर के उन विश्वासियों और अनुयायियों से भिन्न हैं जिनके बारे में वह बात करता है? परमेश्वर की नजर में, क्या वे विश्वासी हैं? नहीं, वे धर्मशास्त्र का अध्ययन करते हैं, वे परमेश्वर का अध्ययन करते हैं, लेकिन वे परमेश्वर का अनुसरण नहीं करते और न ही उसकी गवाही देते हैं। परमेश्वर के बारे में उनका अध्ययन वैसा ही है जैसे लोग इतिहास, फलसफा, कानून, जीव विज्ञान या खगोल विज्ञान का अध्ययन करते हैं। बात सिर्फ इतनी है कि उन्हें विज्ञान या अन्य विषय पसंद नहीं हैं—उन्हें धर्मशास्त्र का अध्ययन विशेष रूप से पसंद है। परमेश्वर का अध्ययन करने के क्रम में परमेश्वर के कार्य के छोटे-छोटे अंशों को खोजने के उनके प्रयासों का परिणाम क्या है? क्या वे परमेश्वर के अस्तित्व की खोज कर सकते हैं? नहीं, कभी नहीं। क्या वे परमेश्वर के इरादों को समझ सकते हैं? (नहीं।) क्यों? क्योंकि वे शब्दों में, ज्ञान में, फलसफे में, मनुष्य के मन में और मनुष्य के विचारों में रहते हैं; वे परमेश्वर को कभी नहीं देख सकेंगे और कभी पवित्र आत्मा द्वारा प्रबुद्ध नहीं किए जाएँगे। परमेश्वर उन्हें कैसे निरूपित करता है? छद्म-विश्वासियों के रूप में, अविश्वासियों के रूप में। ये अविश्वासी और छद्म-विश्वासी तथाकथित ईसाई समुदाय के भीतर ईसाइयों की तरह परमेश्वर में विश्वासी होने का अभिनय करते हुए घुलमिल जाते हैं, लेकिन वास्तव में क्या उनमें परमेश्वर के प्रति आराधना का भाव होता है? क्या उनमें सच्चा समर्पण होता है? (नहीं।) ऐसा क्यों है? एक बात निश्चित है : उनमें से बड़ी संख्या में लोग अपने हृदय में परमेश्वर के अस्तित्व पर विश्वास नहीं करते; वे यह विश्वास नहीं करते कि यह संसार परमेश्वर ने बनाया है और वही सभी चीजों पर संप्रभु है, और वे इस बात पर और भी कम विश्वास करते हैं कि परमेश्वर देहधारी हो सकता है। इस अविश्वास का क्या मतलब है? इसका मतलब है संदेह करना और इनकार करना। वे परमेश्वर की, विशेष रूप से विनाशों के संबंध में, कही भविष्यवाणियों के पूरी होने या घटित होने की कोई उम्मीद न रखने का भी रवैया अपनाते हैं। यह परमेश्वर में विश्वास के प्रति उनका रवैया है, और यही उनकी तथाकथित आस्था का सार और असली चेहरा है। ये लोग परमेश्वर का अध्ययन करते हैं क्योंकि वे विशेष रूप से धर्मशास्त्र विषय और धर्मशास्त्रीय ज्ञान, और परमेश्वर के कार्य के ऐतिहासिक तथ्यों में रुचि रखते हैं; वे धर्मशास्त्र का अध्ययन करने वाले विशुद्ध बुद्धिजीवियों का समूह हैं। ये बुद्धिजीवी परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते, तो जब परमेश्वर कार्य करता है, जब परमेश्वर के वचन पूरे होते हैं तो उनकी प्रतिक्रिया कैसी होती है? परमेश्वर के देहधारी होने और एक नया कार्य शुरू करने की बात सुनने पर उनकी पहली प्रतिक्रिया क्या होती है? “असंभव!” जो कोई भी परमेश्वर के नए नाम और परमेश्वर के नए कार्य का प्रचार करता है, वे उसकी निंदा करते हैं, यहाँ तक कि उसे मार देना या खत्म कर देना चाहते हैं। यह किस प्रकार की अभिव्यक्ति है? क्या यह विशिष्ट मसीह-विरोधी की अभिव्यक्ति नहीं है? उनमें और फरीसियों, मुख्य याजकों और प्राचीन शास्त्रियों के बीच क्या अंतर है? वे परमेश्वर के कार्य के प्रति, अंतिम दिनों में परमेश्वर के न्याय के प्रति, देहधारी परमेश्वर के प्रति शत्रुभाव रखते हैं, और इससे भी अधिक, वे परमेश्वर की भविष्यवाणियाँ पूरी होने के प्रति शत्रुभाव रखते हैं। उनका मानना है, “यदि तुम देहधारी नहीं हो, यदि तुम आध्यात्मिक शरीर के रूप में हो, तो तुम परमेश्वर हो; यदि तुमने देहधारण किया और एक व्यक्ति बन गए, तो तुम परमेश्वर नहीं हो, और हम तुम्हें स्वीकार नहीं करते।” यह क्या इंगित करता है? इसका मतलब है कि जब तक वे हैं, तब तक वे परमेश्वर को देहधारी नहीं होने देंगे। क्या यह एक विशिष्ट मसीह-विरोधी भाव नहीं है? यह असली मसीह-विरोधी होना है। क्या धार्मिक जगत इस प्रकार के तर्क-वितर्क में पड़ता है? इस तर्क की आवाज ऊँची और बहुत शक्तिशाली है, जिसमें कहा गया है कि “परमेश्वर का देहधारी होना गलत और असंभव है! यदि वह देहधारी है, तो वह अवश्य ही झूठा होगा!” ऐसे लोग भी हैं जो कहते हैं कि, “वे साफ तौर पर एक मनुष्य में विश्वास करते हैं; उन्हें बस गुमराह किया गया है!” यदि वे ऐसा कह सकते हैं, तो यदि वे दो हजार साल पहले उस समय मौजूद होते जब प्रभु यीशु प्रकट हुए और कार्य किया, तो वे प्रभु यीशु पर विश्वास नहीं करते। अब वे प्रभु यीशु में विश्वास करते हैं, लेकिन वास्तव में वे केवल प्रभु यीशु के नाम में, दो शब्दों “प्रभु यीशु” में, विश्वास करते हैं और स्वर्ग में स्थित किसी अज्ञात परमेश्वर में विश्वास करते हैं। इसलिए, वे परमेश्वर में विश्वास करने वाले नहीं हैं, वे छद्म-विश्वासी हैं। वे परमेश्वर के अस्तित्व में, परमेश्वर के देहधारण में, परमेश्वर के सृजन कार्य में विश्वास नहीं करते, और सलीब पर चढ़ाए जाने के माध्यम से परमेश्वर द्वारा पूरी मानवता को छुटकारा दिलाने के कार्य में तो और भी कम विश्वास करते हैं। वे जिस धर्मशास्त्र का अध्ययन करते हैं वह एक प्रकार का धार्मिक सिद्धांत या शोध-प्रबंध है, जो लोगों को गुमराह करने वाली लेकिन विश्वसनीय प्रतीत होने वाली भ्रांतियों से अधिक कुछ नहीं है। ईसाई धर्म में इन तथाकथित धार्मिक बुद्धिजीवियों का हमारी कलीसिया में मौजूद मसीह-विरोधियों के साथ क्या अपरिहार्य संबंध है? उनके विभिन्न व्यवहारों और जिन मसीह-विरोधियों की हम चर्चा करते हैं उनके प्रकृति सार में क्या संबंध है? उनकी बात क्यों करें? चलो, फिलहाल ईसाई धर्म के लोगों के बारे में बात करना बंद करके आओ यह देखें कि मसीह-विरोधियों के रूप में निरूपित लोग सत्य से कैसे पेश आते हैं, और सत्य के प्रति उनके दृष्टिकोण से देखा जाए कि वे वास्तव में किस चीज का सम्मान करते हैं। सबसे पहले, कुछ सत्यों को सुनने के बाद वे उन सत्यों को कैसे समझते हैं? वे इन सत्यों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं? इन सत्यों के प्रति उनका क्या रवैया है? क्या वे इन वचनों को अपने अभ्यास के मार्ग के रूप में स्वीकार करते हैं, या वे उन्हें एक प्रकार के सिद्धांत के रूप में सुसज्जित करके दूसरों को उनका उपदेश देते हैं? (वे उन्हें उपदेश देने के लिए एक प्रकार के सिद्धांत के रूप में ग्रहण करते हैं।) वे उन्हें सीखने, विश्लेषण करने और अध्ययन करने के लिए एक प्रकार के सिद्धांत के रूप में देखते हैं और अध्ययन के बाद वे उन्हें अपने दिमाग में और अपने विचारों में बैठा लेते हैं; उन्हें याद रखते हैं, उन पर चर्चा कर सकते हैं, और उन पर धाराप्रवाह बोल सकते हैं, और फिर वे उन्हें हर जगह प्रदर्शित करते हैं। वे चाहे जितनी देर तक बात करें, एक चीज है जिसे तुम देख नहीं सकते, वह यह कि वे धर्म-सिद्धांतों के बारे में चाहे जितना बोलें, कितनी भी अच्छी तरह से बोलें, कितने ही लोगों से बात करें, कितना ही धाराप्रवाह बोलें, कितनी ही सामग्री बोलें या चाहे वह सत्य के अनुरूप हो या नहीं, तुम उनका कोई परिणाम नहीं देख सकते—तुम उनका अभ्यास में लाया जाना नहीं देख सकते। यह क्या दिखाता है? वे सत्य को स्वीकार नहीं करते। उन्होंने सत्य को किस रूप में लिया है? खुद को प्रदर्शित करने का एक औजार। उदाहरण के लिए, परमेश्वर लोगों को ईमानदार होने के लिए कहता है और बताता है कि एक ईमानदार व्यक्ति की क्या अभिव्यक्तियाँ होती हैं, ईमानदार व्यक्ति को कैसे बोलना, कार्य करना और अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। ये सुनने के बाद उनकी क्या प्रतिक्रिया होगी? इन शब्दों का उन पर क्या प्रभाव पड़ता है? पहले, तो वे इन शब्दों को कभी स्वीकार नहीं करते। उनका रवैया क्या है? “मैं समझ गया : ईमानदार लोग झूठ नहीं बोलते, ईमानदार लोग दूसरों से सत्य बोलते हैं और अपना दिल खोलकर बात कर सकते हैं, ईमानदार लोग अपने कर्तव्य निष्ठापूर्वक निभाते हैं, बेपरवाही से नहीं।” वे इन शब्दों को अपने मन में एक सिद्धांत के रूप में रखते हैं। क्या इस प्रकार का सिद्धांत, एक बार उनके हृदय में जड़ें जमा लेने के बाद, उन्हें बदल सकता है? (नहीं।) तो फिर, उन्हें यह अब भी याद क्यों है? उन्हें इन शब्दों की तथ्यता पसंद है, और वे इन सही सिद्धांतों का उपयोग खुद को प्रस्तुत करने, ज्यादा सम्मान प्राप्त करने के लिए करते हैं। ऐसा क्या है जिसे लोग ज्यादा सम्मान दे रहे हैं? सही शब्दों को धाराप्रवाह और विस्तार से बोलने की उनकी क्षमता—यही तो ये लोग चाहते हैं। सुनने के बाद, क्या उन्होंने इन शब्दों को गंभीरता से लिया है? (नहीं, उन्होंने ऐसा नहीं किया है।) क्यों नहीं किया? तुम कैसे बता सकते हो? (वे उनका अभ्यास नहीं करते।) वे उनका अभ्यास क्यों नहीं करते? अपने मन में वे सोचते हैं, “तो, ये परमेश्वर के वचन हैं? बढ़िया है, एक बार सुनने के बाद मुझे वे याद हो गए। एक बार सुनने के बाद मैं बोल सकता हूँ कि ईमानदार व्यक्ति को कैसा व्यवहार करना चाहिए; तुम सभी लोगों को अभी भी लिखने और उस पर विचार करने की जरूरत है, लेकिन मुझे नहीं!” परमेश्वर के वचनों को वे एक प्रकार का सिद्धांत या ज्ञान मानते हैं; वे इस बात पर विचार नहीं करते कि अपने दिल में एक ईमानदार व्यक्ति कैसे बनें, वे इन शब्दों से अपनी तुलना नहीं करते, वे यह देखने के लिए अपने कार्यों की जाँच नहीं करते कि वे ईमानदार व्यक्ति बनने से पीछे कैसे रह गए या वे ऐसे कौन से कार्य करते हैं जो ईमानदार व्यक्ति होने के सिद्धांत के विरुद्ध जाते हैं, और वे कभी नहीं सोचते कि “ये परमेश्वर के वचन हैं, इसलिए ये सत्य हैं। लोगों को ईमानदार होना चाहिए, तो ईमानदार व्यक्ति बनने के लिए किसी को कैसे कार्य करना चाहिए? मैं इस तरह से कैसे कार्य करूँ जिससे परमेश्वर प्रसन्न हो? मैंने ऐसा क्या किया है जो बेईमानी है? कौन से व्यवहार ऐसे हैं जो किसी ईमानदार व्यक्ति के नहीं हैं?” क्या वे ऐसा सोचते हैं? (नहीं, वे ऐसा नहीं सोचते।) फिर वे क्या सोचते हैं? वे सोचते हैं, “तो क्या यही ईमानदार व्यक्ति होना है? क्या यह सच है? क्या यह सिर्फ एक सिद्धांत या एक नारा नहीं है? बस उच्च नैतिक स्वर अपनाओ, इसे व्यवहार में लाने की कोई आवश्यकता नहीं है।” वे इसे व्यवहार में क्यों नहीं लाते? उन्हें लगता है, “मेरे दिल में जो कुछ भी है अगर मैं वह दूसरों को बताता हूँ, तो क्या मैं खुद को उजागर नहीं कर रहा होऊँगा? अगर मैं खुद को उजागर कर दूँ और दूसरे लोग मुझे पूरी तरह से जान लें, तो क्या वे तब भी मेरे बारे में अच्छा सोचेंगे? अगर मैं बोलूँ तो क्या फिर भी दूसरे लोग सुनेंगे? परमेश्वर के वचनों का अर्थ यह है कि एक ईमानदार व्यक्ति झूठ नहीं बोल सकता; झूठ न बोलने पर क्या ऐसा नहीं होगा कि लोगों के दिलों में कोई गोपनीयता ही नहीं बचेगी? क्या यह दूसरों को उनके आर-पार नहीं देखने देगा? क्या इस तरह जीना मूर्खतापूर्ण नहीं होगा?” यह उनका दृष्टिकोण है। मतलब कि जब वे किसी सिद्धांत को सही मानते हुए स्वीकार करते हैं, तो उनके मन में विचार आ जाते हैं। ये विचार क्या हैं? मैं क्यों कहता हूँ कि वे दुष्ट हैं? वे पहले विश्लेषण करते हैं कि इन शब्दों का उन पर क्या प्रभाव पड़ सकता है, उनसे क्या फायदे और नुकसान हैं। जब वे शब्दों का विश्लेषण कर लेते हैं और पाते हैं कि वे उनके लिए लाभप्रद नहीं हैं, तो वे सोचते हैं, “मैं इस तरह अभ्यास नहीं कर सकता, मैं ऐसा नहीं करूँगा, मैं इतना मूर्ख नहीं हूँ, मैं तुम लोगों जितना मूर्ख और सरल नहीं बनूँगा।” चाहे जब हो, मुझे हमेशा अपने विचारों पर टिके रहना चाहिए और अपने विचारों को बनाए रखना चाहिए। हो सकता है कि तुम्हारी हजार योजनाएँ हों, लेकिन मेरा एक नियम है; मैं अपने दिल की योजना को उजागर नहीं कर सकता—ईमानदार व्यक्ति होना मूर्खों का काम है! एक संदर्भ में, वे इस बात से इनकार करते हैं कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं; दूसरे संदर्भ में, वे खुद को प्रस्तुत करने के लिए कुछ अपेक्षाकृत आवश्यक वाक्यांशों को याद करते हैं, जिससे लोग उन्हें परमेश्वर में एक वास्तविक विश्वासी, एक आध्यात्मिक व्यक्ति की तरह देखें। वे अपने मन में यही जोड़-घटाव करते हैं।
सत्य सुनने के बाद मसीह-विरोधी उस पर जो प्रतिक्रिया देते हैं, उससे यह स्पष्ट होता है कि सत्य में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है और वे इसे पसंद नहीं करते। उन्हें क्या पसंद है? वे सही, ताजा और थोड़ा ज्यादा परिष्कृत सैद्धांतिक ज्ञान पसंद करते हैं जिसके सहारे वे स्वयं को अधिक पूर्णता से, अधिक सम्मान तथा अधिक गरिमा के साथ प्रस्तुत कर सकें और लोगों से अपनी और अधिक आराधना करवा सकें। क्या यह दुष्टता नहीं है? (हाँ, है।) इसमें क्या दुष्टता है? कोई मसीह-विरोधी सत्य के चाहे जिस पहलू के बारे में संगति करे, वह हमेशा लोगों को गुमराह करने और उनसे अपना अनुसरण करवाने के लिए विश्वसनीय प्रतीत होने वाले सिद्धांतों या सही शब्दों का निर्माण कर सकता है, जो शैतान जैसी ही दुष्टता है। अपनी दुष्टता को अंजाम देने के लिए एक सैद्धांतिक आधार खोजने हेतु परमेश्वर के वचन पढ़ने की पताका फहराने की इच्छा रखने वाले किसी मसीह-विरोधी की दुष्टता उसके दुष्ट कुचक्रों, पूर्वचिंतनों और योजनाओं के पूरे समूह से अभिव्यक्त होती है; यह मसीह-विरोधी की दुष्टता है। वे केवल लोगों को गुमराह करने और खुद का दिखावा करने के लिए संदर्भ से हटकर परमेश्वर के वचन उद्धृत करते हैं। संगति और उपदेश सुनते हुए जब वे उपयोग करने लायक कोई नया वाक्यांश सुनते हैं, तो वे तुरंत उसे लिख लेते हैं। मूर्ख लोग ऐसा आचरण देख कर सोचते हैं कि “वे धार्मिकता के कितने भूखे और प्यासे हैं कि जब भी वे कोई उपदेश सुनते हैं तो उसे लिख लेते हैं, और उन्हें कितनी आध्यात्मिक समझ होगी जो हर महत्वपूर्ण बिंदु को लिखते हैं!” क्या वे जिस तरीके से महत्वपूर्ण बिंदुओं को लिख लेते हैं वह दूसरे लोगों के जैसा ही होता है? नहीं, ऐसा नहीं है। कुछ लोग लिखते हैं क्योंकि वे सोचते हैं, “यह एक अच्छा कथन है। मैं इसे नहीं समझता, इसलिए मुझे इसे लिख लेना चाहिए और बाद में इसे अभ्यास में लाना चाहिए, ताकि मेरे अभ्यास में कोई मार्ग और कुछ सिद्धांत हों।” क्या मसीह-विरोधी इसी तरह सोचता है? उसकी प्रेरणा क्या होती है? वह सोचता है, “मैंने आज सत्य की एक मद लिख ली है जिसे तुम लोगों में से किसी ने नहीं सुना, और मैं इसके बारे में न किसी को बताऊँगा, न ही दूसरों के साथ संगति करूँगा—मुझे यह मिल गया है, और एक दिन मैं तुम्हीं लोगों से इसके बारे में बात करूँगा और तुम लोगों को यह दिखाने के लिए कि मैं सत्य को वास्तव में कितना समझता हूँ, प्रदर्शन करूँगा, और हर कोई मुझसे सहमत होगा।” तुम सोच सकते हो कि मसीह-विरोधी सत्य से प्रेम करते हैं और उसके प्यासे हैं क्योंकि वे इस तरह से नोट्स बनाते हैं और उनके नोट्स काफी सटीक होते हैं, लेकिन नोट्स बनाने के बाद क्या होता है? वे अपनी पुस्तिका बंद कर देते हैं, और बस हो गया। जब वे एक दिन उपदेशक बन जाते हैं और उन्हें नहीं पता होता है कि उन्हें किस बारे में उपदेश देना है, तो वे तुरंत अपनी पुस्तिका पलटते हैं, अपने उपदेश की विषयवस्तु व्यवस्थित करते हैं, उसे पढ़ते हैं, याद करते हैं और स्मृति के आधार पर तब तक लिखते हैं जब तक कि वह उनके मन में पूरी तरह से स्पष्ट न हो जाए। तभी वे “खुद के प्रति आश्वस्त” महसूस करते हैं, और सोचते हैं कि अंततः उन्होंने “सत्य” पा लिया है और वे जहाँ भी जाएँगे, वहाँ हवा में बातें कर सकते हैं। ये लोग जिस बारे में बोलते हैं उसका एक लक्षण यह है कि वे सभी बातें खोखले धर्म-सिद्धांत, तर्क और विनियम मात्र होती हैं। जब तुम्हारे पास विशिष्ट कठिनाइयाँ होती हैं या जब तुम्हें मुद्दों का पता चलता है और तुम उनसे इनका समाधान चाहते हो, तब भी वे स्पष्ट और तार्किक रूप से बोलते हुए तुम्हें केवल धर्म-सिद्धांतों का एक गुच्छा पकड़ा देते हैं। यदि तुम उनसे पूछो कि इसे अभ्यास में कैसे लाया जाए, तो उनके पास कोई जवाब नहीं होता। यदि वे इसे स्पष्ट रूप से नहीं बता पाते, तो यह एक गंभीर समस्या है, और इससे साबित होता है कि वे सत्य नहीं समझते। जो लोग सत्य नहीं समझते और जो सत्य से प्रेम नहीं करते, वे अक्सर इसे केवल एक प्रकार की कहावत या सिद्धांत भर मानते हैं। और अंत में क्या होता है? परमेश्वर में कई वर्षों तक विश्वास करने के बाद, जब उन पर कोई मुसीबत आती है, तो वे उसे साफ समझ नहीं पाते, वे समर्पण नहीं कर पाते, और नहीं जानते कि सत्य की खोज कैसे करें। जब कोई उनके साथ संगति करता है, तो वे एक “मशहूर कहावत” से इसका जवाब देते हैं : “मुझे कुछ मत बताओ, मैं सब समझता हूँ। मैं तब से उपदेश दे रहा हूँ, जब तुम लोगों ने चलना भी नहीं सीखा था!” यही उनकी “मशहूर कहावत” है। वे सब कुछ समझने का दावा करते हैं, तो जब कोई समस्या आती है वे अटक क्यों जाते हैं? एक समझदार व्यक्ति की तरह तुम कोई कार्रवाई क्यों नहीं कर पाते? यह मामला तुम्हें बाधित और भ्रमित क्यों करता है? तुम सत्य समझते हो या नहीं? यदि तुम इसे समझते हो, तो इसे स्वीकार क्यों नहीं कर पाते? यदि तुम इसे समझते हो, तो तुम समर्पण क्यों नहीं कर पाते? सत्य समझ लेने के बाद लोगों को सबसे पहले क्या करना चाहिए? उन्हें समर्पण करना चाहिए; इसके अलावा कुछ नहीं है। कुछ लोग कहते हैं, “मैं सब कुछ समझता हूँ—मेरे साथ संगति मत करो, मुझे दूसरों की सहायता की जरूरत नहीं है।” ठीक है कि उन्हें लोगों की मदद की जरूरत नहीं है, लेकिन अफसोस की बात यह है कि जब वे कमजोर होते हैं, तो जिन धर्म-सिद्धांतों को वे समझते हैं वे जरा भी किसी काम के नहीं होते। वे अपना कर्तव्य तक नहीं निभाना चाहते और उनमें अपने विश्वास को त्यागने की बुरी इच्छा भी पैदा हो जाती है। इतने वर्षों तक धर्मशास्त्रीय सिद्धांतों का उपदेश देने के बाद, वे एकदम से विश्वास करना बंद कर देते हैं, और सब छोड़ कर चले जाते हैं—क्या उनका कोई आध्यात्मिक कद है? (नहीं, उनका कोई आध्यात्मिक कद नहीं है।) आध्यात्मिक कद के बिना कोई जीवन नहीं है। यदि तुममें जीवन है, तो तुम इतने छोटे से मामले से पार क्यों नहीं पाते? तुम काफी वाक्पटु हो, है न? तो फिर खुद को समझाओ। यदि तुम स्वयं को भी आश्वस्त नहीं कर सकते, तो वास्तव में वह क्या है जिसे तुम समझते हो? क्या यह सत्य है? सत्य लोगों की असली कठिनाइयों का समाधान कर सकता है, और यह लोगों के भ्रष्ट स्वभावों का भी समाधान कर सकता है। जिन “सत्यों” को तुम समझते हो वे तुम्हारी अपनी कठिनाइयों का भी समाधान क्यों नहीं कर पाते? वह ठीक-ठीक क्या है जिसे तुम समझते हो? वह सिर्फ धर्म-सिद्धांत है।
मैंने अभी मसीह-विरोधियों की सातवीं अभिव्यक्ति—कि वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं—के तीसरे भाग के बारे में बात की है : वे ज्ञान और विद्वता का सम्मान करते हैं। मसीह-विरोधी ज्ञान और विद्वता का सम्मान करते हैं—इससे संबंधित किस बात से उनके दुष्ट स्वभाव का पता चल सकता है? ऐसा क्यों कहा जाता है कि ज्ञान और विद्वता का सम्मान करने का अर्थ यह है कि उनमें दुष्ट सार है? यहाँ हमें निश्चित रूप से तथ्यों के बारे में बात करनी चाहिए, क्योंकि अगर हमने केवल खोखले शब्दों या सिद्धांतों पर चर्चा की, तो लोगों को इसकी एकतरफा और कम गहन समझ हो सकती है। सबसे पहले, आओ इतिहास में कुछ और पीछे से शुरूआत करें। जब मैं बोल रहा हूँ, तो मेरे शब्दों की मसीह-विरोधियों के कार्यों और व्यवहारों से तुलना करो, और उनकी मसीह-विरोधियों की अभिव्यक्तियों और सार से तुलना करो। आओ, सबसे पहले दो हजार साल पहले के फरीसियों के बारे में बात करें। उस समय, फरीसी पाखंडी लोग थे। जब परमेश्वर ने देहधारण किया, प्रकट हुआ और पहली बार कार्य किया, तो फरीसियों ने न केवल सत्य को जरा भी मानने से इनकार कर दिया, बल्कि उन्होंने प्रभु यीशु की जमकर निंदा की और विरोध भी किया, और इस कारण से परमेश्वर ने उन्हें शाप दिया। इससे पुष्टि हो सकती है कि फरीसी मसीह-विरोधियों के उच्च-कोटि के प्रतिनिधि हैं। “मसीह-विरोधी” फरीसियों का दूसरा नाम बन गया है, और सार रूप में फरीसी उसी प्रकार के लोग हैं जैसे मसीह-विरोधी हैं। इसलिए, मसीह-विरोधियों की दुष्ट प्रकृति का गहन-विश्लेषण फरीसियों से शुरू करना एक आसान तरीका है। तो, फरीसियों ने ऐसा क्या किया जिससे लोगों को पता चला कि उनमें मसीह-विरोधी दुष्ट प्रकृति है? अभी-अभी मैंने बताया कि मसीह-विरोधी ज्ञान और विद्वता का सम्मान करते हैं; ज्ञान और विद्वता का किन लोगों से गहरा संबंध है? कौन इनकी प्रतिमूर्तियाँ हैं? क्या उनका तात्पर्य स्नातकोत्तर और डॉक्टरेट के छात्रों से करते हैं? नहीं, ऐसा करने का मतलब कुछ ज्यादा ही दूर चले जाना होगा—उनका तात्पर्य फरीसियों से हैं। फरीसियों के पाखंडी होने का कारण, उनके दुष्ट होने का कारण यह है कि वे सत्य से विमुख हैं, लेकिन ज्ञान से प्रेम करते हैं, इसलिए वे केवल शास्त्रों का अध्ययन करते हैं और शास्त्रों में वर्णित ज्ञान का अनुसरण करते हैं, लेकिन सत्य या परमेश्वर के वचनों को कभी स्वीकार नहीं करते। वे परमेश्वर के वचनों को पढ़ते समय उसकी प्रार्थना नहीं करते, न ही वे सत्य की खोज करते हैं या उस पर संगति करते हैं। इसके बजाय, वे परमेश्वर के वचनों का अध्ययन करते हैं, परमेश्वर ने जो कहा और किया है उसका अध्ययन करते हैं, और ऐसा करके वे परमेश्वर के वचनों को एक सिद्धांत में बदल देते हैं, जो दूसरों को सिखाने के लिए एक धर्म-सिद्धांत बन जाता है, जिसे विद्वत्तापूर्ण अध्ययन कहा जाता है। वे विद्वत्तापूर्ण अध्ययन में क्यों लगे रहते हैं? वे क्या पढ़ रहे हैं? उनकी नजर में यह परमेश्वर के वचन या परमेश्वर की अभिव्यक्ति नहीं है, और सत्य तो बिल्कुल भी नहीं है। बल्कि, यह एक प्रकार की विद्वता है, या यह भी कह सकते हैं कि यह धर्मशास्त्रीय ज्ञान है। उनके विचार में, इस ज्ञान का, इस विद्वता का प्रचार-प्रसार करना, परमेश्वर के मार्ग का प्रसार करना है, सुसमाचार का प्रसार करना है—इसे वे उपदेश देना कहते हैं, लेकिन वे जो उपदेश देते हैं वह धर्मशास्त्रीय ज्ञान भर है।
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