मद सात : वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं (भाग तीन) खंड दो
कुछ लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं और बाहरी तौर पर वे उसका अनुसरण करते दिखते हैं। लेकिन अपने हृदय की गहराई में क्या उन्होंने कभी इस बात पर विचार किया है कि उन्होंने कौन सा मार्ग अपनाया है और कितनी कीमत चुकाई है? क्या उन्होंने जाँच की है और यह देखने की कोशिश की है कि क्या उन्होंने परमेश्वर द्वारा उन्हें सौंपे गए कर्तव्यों को पूरा किया है? परमेश्वर के प्रति अपने व्यवहार में लोगों का रवैया वास्तव में क्या होता है? लोगों द्वारा प्रदर्शित और प्रकट की जाने वाली विभिन्न चीजों और यहाँ तक कि उनकी सबसे अंतरतम साजिशों, परमेश्वर के प्रति उनके व्यवहार में प्रकट होने वाले सभी स्वभावों का उल्लेख न भी करें, तो लोगों ने परमेश्वर के लिए क्या किया है? अपने लिए फायदेमंद चीजों के लिए कीमत चुकाने और पूरी तरह से उन्हीं पर विचार करने के अलावा परमेश्वर के प्रति लोगों के रवैये क्या हैं और वे उसे क्या अर्पित करते हैं? साजिश, हिसाब-किताब, पहरेदारी और तिरस्कारपूर्ण रवैये के अलावा कुछ नहीं। तिरस्कार एक रवैया है और अगर इसे क्रिया के रूप में व्यक्त किया जाए तो इस रवैये से पैदा होने वाला व्यवहार क्या है? “उपहास करना।” क्या तुमने कभी इस शब्द के बारे में सुना है? (हमने सुना है।) “उपहास” कुछ हद तक औपचारिक शब्द है। बोलचाल की भाषा में हम क्या कहते हैं? हम कहते हैं “चिढ़ाना,” “किसी के साथ चालबाजी करना,” “किसी के साथ मजाक करना।” तुम उन्हें विनम्र लगते हो, तुम निष्कपट लगते हो; उनकी नजर में तुम कुछ भी नहीं हो और वे खुलेआम तुम्हारा उपहास करने की हिम्मत करते हैं—यह किस तरह का स्वभाव है? ऐसे स्वभाव वाले व्यक्ति के लिए, क्या यह कोई देवदूत है जो उसके हृदय में रहता है, या कोई राक्षस? (एक राक्षस।) यह एक राक्षस है। अगर वे परमेश्वर के साथ ऐसा व्यवहार कर सकते हैं, तो वे वास्तव में क्या हैं? क्या वे परमेश्वर के वचनों का अभ्यास कर सकते हैं? क्या वे परमेश्वर के वचनों के प्रति समर्पित हो सकते हैं? उदाहरण के लिए, जिस व्यक्ति ने मुझे उपहार भेजे—वह सत्य की खोज नहीं करता, न ही वह परमेश्वर के इरादों को समझता है। उसे इस बात का जरा भी अंदाजा नहीं है कि परमेश्वर मनुष्य से क्या अपेक्षा रखता है, परमेश्वर क्या देखना चाहता है, या परमेश्वर मनुष्य से क्या प्राप्त करना चाहता है। वह बिल्कुल वैसा ही है जैसे कोई अपने बॉस के साथ बातचीत करता है, इस बात पर ध्यान देता है कि कैसे उसकी चापलूसी करे और उसे धोखा दे, उसके साथ वैसा व्यवहार करे जैसा वह अपने लक्ष्यों को पाने के लिए कर सकता है—ऐसा व्यक्ति वास्तव में किस तरह से जीता है? वह चाटुकारिता करके जीता है, अपने अगुआओं की चापलूसी करके किसी तरह एक घृणित जीवन व्यतीत करता है। उसने मुझे ऐसी “देखभाल” और “दया” की पेशकश क्यों की? वह खुद की मदद नहीं कर सका, है न? क्या वह भविष्यवाणी कर सकता था कि मुझे इस बारे में कैसा महसूस हुआ होगा? (नहीं।) यह सही है; वह नहीं समझा। उसके पास पूरी तरह से एक सामान्य मानव मन की कमी है। न तो वह जानता था और न ही उसे परवाह थी कि मैं उसके व्यवहार और स्वभाव को कैसे महसूस करूँगा, परिभाषित करूँगा या उसका मूल्यांकन करूँगा। उसे किस बात की परवाह है? उसे इस बात की परवाह है कि अपने लक्ष्यों को पाने के लिए वह कैसे मेरी चापलूसी करे और फिर मेरे मन में अपने बारे में अच्छी छाप छोड़े। चीजों को करते समय उसका यही इरादा होता है। यह किस तरह की मानवता है? क्या सच्ची अंतरात्मा और विवेक वाला व्यक्ति ऐसा ही करेगा? तुम इतने सालों से जी रहे हो, इसलिए तुम्हें समझना चाहिए : पहली बात, मुझे तुम्हारी चापलूसी की जरूरत नहीं है। दूसरा, मुझे तुमसे किसी भी चीज की भेंट नहीं चाहिए। तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात, तुम्हें समझना चाहिए कि तुम चाहे जो भी करो, चाहे तुम्हारे इरादे और लक्ष्य कुछ भी हों, और तुम जो करते हो उसकी प्रकृति जो भी हो, मैं इन सभी को परिभाषित करता हूँ और निष्कर्ष पर पहुँचता हूँ। यह ऐसा मामला नहीं है कि तुम कुछ करो और फिर बात खत्म हो जाए; इसके विपरीत मुझे स्पष्ट रूप से देखना होता है कि तुम्हारे इरादे और मकसद क्या हैं। मैं सिर्फ तुम्हारे स्वभाव को देखता हूँ। कुछ लोग शायद कहेंगे, “तुम लोगों के साथ बहुत कठोर हो!” क्या मैं ऐसा हूँ? मुझे ऐसा जरा भी नहीं लगता। ऐसा इसलिए है क्योंकि मैं बिल्कुल भी कठोर नहीं हूँ, इसलिए कुछ लोग स्थिति का फायदा उठाने की कोशिश करते हैं। क्या ऐसा नहीं है? जैसे ही कुछ लोग मेरे संपर्क में आते हैं, वे सोचने लगते हैं, “मैं तुम्हें एक सामान्य व्यक्ति के रूप में देखता हूँ। तुम पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत नहीं है। तुम बहुत कुछ मेरे जैसे ही हो : तुम भी दिन में तीन बार खाना खाते हो, और मुझे नहीं लगता कि तुम्हारे पास कोई अधिकार या सामर्थ्य है। मैं तुम्हारे साथ चाहे जैसा व्यवहार करूँ, तुम्हारे पास कहने के लिए कुछ नहीं होगा। तुम मेरा क्या कर सकते हो?” यह किस तरह की सोच है? यह कहाँ से आती है? यह व्यक्ति के स्वभाव से आती है। लोगों का स्वभाव ऐसा क्यों होता है? ऐसा इसलिए है क्योंकि उनके हृदयों में राक्षस रहते हैं। उनके हृदयों में राक्षसों का वास होते हुए चाहे वे परमेश्वर को कितना भी महान समझें, चाहे वे परमेश्वर की स्थिति को कितना भी महान समझें, चाहे वे यह कितना भी मानें कि परमेश्वर लोगों को बचाने के लिए सत्य व्यक्त करता है, चाहे वे मौखिक रूप से कितना भी आभार व्यक्त करें, और चाहे वे पीड़ा सहने और कीमत चुकाने की अपनी इच्छा को कैसे भी दर्शाएँ, जब उनका कर्तव्य निभाने का समय आएगा, तो राक्षस उनके हृदयों में हावी हो जाएँगे, और ये राक्षस ही हैं जो काम करना शुरू कर देंगे। तुम लोगों के विचार से, किस तरह का व्यक्ति परमेश्वर को भी धोखा देने और उसका उपहास करने की हिम्मत रखता है? (एक राक्षस।) यह राक्षस ही होता है; यह बात तो निश्चित है।
हमारी पिछली संगति में, शैतान और परमेश्वर के बीच किस संवाद से हम शैतान के स्वभाव को देख सकते हैं? परमेश्वर ने कहा, “शैतान, तू कहाँ से आता है?” शैतान ने क्या जवाब दिया? (“पृथ्वी पर इधर-उधर घूमते-फिरते और डोलते-डालते आया हूँ” (अय्यूब 1:7)।) यह किस तरह की बात है? (राक्षसी बात है।) यह राक्षसी बात है! अगर शैतान परमेश्वर को परमेश्वर की तरह मानता, तो वह कहता, “परमेश्वर ने मुझसे पूछा है, इसलिए मैं अच्छे ढंग से कहूँगा कि मैं कहाँ से आया हूँ।” क्या यह समझदारी से बात करना नहीं है? (हाँ।) यह सामान्य मानवीय सोच के अनुरूप एक वाक्य है : एक पूर्ण वाक्य, व्याकरण के अनुरूप और तुरंत समझ में आने वाला। क्या शैतान ने यही कहा? (नहीं।) उसने क्या कहा? “पृथ्वी पर इधर-उधर घूमते-फिरते और डोलते-डालते आया हूँ।” क्या तुम लोग इस वाक्य को समझते हो? (नहीं।) यहाँ तक कि अब तक कोई भी इसका मतलब नहीं समझ पाया है। तो शैतान कहाँ से आ रहा था? वह कहाँ इधर-उधर घूमता-फिर रहा था? वह कहाँ से आ रहा था, और किस तरफ जा रहा था? क्या इन सवालों के कोई निर्णायक जवाब हैं? आज तक बाइबल की व्याख्या करने वाले लोग यह पता नहीं लगा पाए हैं कि शैतान वास्तव में कहाँ से आ रहा था, या उसे परमेश्वर के सामने आने और उससे बात करने में कितना समय लगा था; इनमें से कोई भी बात ज्ञात नहीं है। फिर शैतान परमेश्वर के सवाल का ऐसे लहजे और ऐसी भाषा में जवाब कैसे दे पाया? क्या परमेश्वर ने उससे सवाल गंभीरता से किया था? (उसने किया था।) तो क्या उसने इसी तरह से जवाब दिया? (नहीं दिया।) परमेश्वर को जवाब देने में उसने क्या रवैया अपनाया? उपहास का। यह वैसा ही है जैसे जब तुम किसी से पूछते हो, “तुम कहाँ से हो?” और वह जवाब देता है, “अनुमान लगाओ।” “मैं अनुमान नहीं लगा सकता।” वह जानता है कि तुम इसका अनुमान नहीं लगा सकते, लेकिन फिर भी वह तुम्हें अनुमान लगाने को कहता है। वह तुम्हारे साथ बस मजाक कर रहा है। यही वह रवैया है जिसे किसी के साथ खेलना या उसका उपहास करना कहा जाता है। वह ईमानदार नहीं है, और वह नहीं चाहता कि तुम जानो; वह बस तुम्हारे साथ चालें खेलना चाहता है और तुम्हारे साथ मजाक करना चाहता है। शैतान का स्वभाव बिल्कुल ऐसा ही होता है। मैंने कहा कि कुछ लोगों के हृदयों में राक्षस रहते हैं; क्या वे परमेश्वर के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करते? उनके बाहरी दिखावे से, जैसे वे भागते-दौड़ते हैं, काम करते हैं, और कभी-कभी कुछ कष्ट सहते हैं और थोड़ी सी कीमत चुकाते हैं, वे ऐसे लोग नहीं लगते; ऐसा लगता है कि उनके हृदय में परमेश्वर है। लेकिन जिस रवैये से वे परमेश्वर और सत्य के प्रति व्यवहार करते हैं उससे तुम देख सकते हो कि उनके हृदयों में राक्षस रहते हैं, और इसमें सिर्फ वही है। वे परमेश्वर के सवालों का सीधे जवाब भी नहीं दे सकते—वे ऐसे लोग हैं जो तब तक साँपों की तरह गोल-गोल घूमते रहते हैं, जब तक तुम जवाब नहीं पा लेते और उसका सिर-पैर नहीं समझ पाते कि वे क्या कह रहे हैं। आखिर वे किस तरह के लोग हैं? क्या वे परमेश्वर के साथ अपने व्यवहार में ईमानदार हो सकते हैं? जिस तिरस्कार और घृणा के रवैये के साथ वे परमेश्वर के साथ व्यवहार करते हैं, क्या ऐसे लोग परमेश्वर के वचनों का सत्य के रूप में अभ्यास कर सकते हैं? (नहीं।) क्यों नहीं? क्योंकि उनके हृदयों में राक्षस रहते हैं। क्या ऐसा नहीं है? (हाँ, वे परमेश्वर के साथ बिल्कुल भी परमेश्वर जैसा व्यवहार नहीं करते।) यही इन लोगों की दुष्टता है। उनकी दुष्टता यह सोचने में निहित होती है कि वे जो परमेश्वर की ईमानदारी, विनम्रता, सामान्यता और व्यावहारिकता को देखते हैं, वे परमेश्वर को सुंदर नहीं बनातीं—लेकिन फिर वे क्या हैं? वे सोचते हैं कि यह परमेश्वर की कमियाँ हैं; कि ये ऐसे क्षेत्र हैं जो लोगों को धारणाएँ उत्पन्न करने के लिए प्रवृत्त करते हैं; कि वे जिस परमेश्वर में विश्वास करते हैं, उसमें ये सबसे बड़ी अपूर्णताएँ हैं; कि ये कमियाँ, समस्याएँ और दोष हैं। ऐसे लोगों को किस तरह से देखा जाना चाहिए? यही वह तरीका और रवैया है जिसके साथ वे परमेश्वर के साथ व्यवहार करते हैं; यह परमेश्वर के लिए अपमानजनक है, लेकिन उनके लिए क्या है? क्या उन्हें इससे कोई फायदा मिलता है? यह उनके लिए भी अपमान है। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? एक साधारण व्यक्ति के रूप में अगर कोई तुम्हें खाने के लिए यूँ ही कुछ दे, और तुम उसे ले लो और मूर्ख की तरह मामले के तथ्यों की परवाह किए बिना और यह पूछे बिना कि यह सब क्या है, उसे खा लो, तो क्या इससे पता नहीं लगता कि तुम्हारी मानवता में कुछ कमी है? क्या वह व्यक्ति सामान्य व्यक्ति है जिसकी मानवता में कुछ कमी हो? नहीं। अगर देहधारी मसीह में इस प्रकार की सामान्य मानवता भी नहीं होती, तो क्या वह तब भी किसी के विश्वास के लायक होता? वह नहीं होता। देहधारी परमेश्वर की मानवता के लक्षण क्या होते हैं? उसकी तार्किकता, सोच और अंतरात्मा सबसे सामान्य लक्षण होते हैं। क्या उसके पास न्याय करने की क्षमता होती है? (हाँ।) अगर मेरे पास वह नहीं होती, अगर मैं केवल एक बिखरा हुआ दिमाग होता, जिसमें न तो सामान्य ज्ञान होता, न ही अंतर्दृष्टि, और जब मेरे साथ घटनाएँ घटित होतीं और मैं विचार करने में असमर्थ होता, तो क्या मुझे तब भी एक सामान्य मनुष्य माना जा सकता था? यह दोषपूर्ण मानवता होती, सामान्य मानवता नहीं। क्या ऐसे व्यक्ति को मसीह कहा जा सकता था? जब परमेश्वर ने देहधारण किया, तो क्या वह ऐसा देह चुनता? (नहीं।) निश्चित रूप से नहीं। अगर मैं असावधानी से ऐसा करता, तो क्या ऐसा परमेश्वर, जिसे एक देहधारी परमेश्वर कहा जाता है, अनुसरण करने लायक होता? नहीं, और तुम लोग गलत मार्ग पर बढ़ जाते। मेरे नजरिए से यह एक पहलू है। दूसरी ओर, तुम लोगों के नजरिए से अगर तुम उसे परमेश्वर मानते हो, अपने अनुसरण का विषय मानते हो, और उसके अनुयायी के रूप में तुम उसके साथ इस तरह का व्यवहार करते हो—तो तुम खुद को कहाँ रख रहे हो? क्या यह तुम्हारे लिए अपमानजनक नहीं है? (हाँ, है।) अगर तुम जिस परमेश्वर में विश्वास करते हो, वह तुम्हारी नजर में तुम्हारे सम्मान के इतने अयोग्य है, फिर भी तुम अभी भी उस पर विश्वास करते हो, तो इससे तुम क्या बन जाते हो? क्या तुम भ्रमित हो? क्या तुम एक भ्रमित अनुयायी हो? क्या तुम खुद को अपमानित नहीं कर रहे होगे? (हम कर रहे होंगे।) लेकिन अगर तुम सोचते हो कि उसमें सामान्य मानवता के ये सभी पहलू हैं कि वह देहधारी परमेश्वर है, और तुम फिर भी ऐसा ही करते हो, तो क्या तुम परमेश्वर का अपमान नहीं कर रहे हो? दोनों नजरिए मान्य हैं। तुम समस्या को देख सकते हो, चाहे तुम इसे परमेश्वर के नजरिए से देखो या मनुष्य के नजरिए से—और यहाँ समस्या गंभीर है! क्या ऐसा नहीं है? (हाँ, है।) मनुष्य के नजरिए से, अगर तुम उसे परमेश्वर मानते हो और फिर उसके साथ ऐसा व्यवहार करते हो, तो तुम खुलेआम परमेश्वर का अपमान कर रहे हो। अगर तुम सोचते हो कि वह परमेश्वर नहीं बल्कि एक मनुष्य है, लेकिन फिर भी तुम उसका अनुसरण करते हो, तो क्या यह विरोधाभास नहीं होगा? क्या तुम खुद का अपमान नहीं कर रहे होगे? इन दो पहलुओं पर विचार करो; क्या मैं सही हूँ? क्या ऐसा नहीं है? लोग इन चीजों के बारे में क्यों नहीं सोच पाते? वे अभी भी इस तरह से क्यों कार्य करते हैं? क्या यह केवल इसलिए है क्योंकि वे सत्य को नहीं समझते? आओ हम इसमें बहुत गहराई से न जाएँ; इसे केवल काबिलियत के नजरिए से देखें, तो वे नासमझ मूर्ख हैं। मैं क्यों कहता हूँ कि वे नासमझ हैं? मैं किस समझ की बात कर रहा हूँ? यह सोचने के बारे में है। बिना सोचे-समझे, बिना भले-बुरे का विचार किए, जो तुम कर रहे हो या तुम्हें कुछ करना चाहिए या नहीं, उसकी प्रकृति जाने बिना कुछ भी करना नासमझ होना है। किस तरह की चीज में दिमाग नहीं होता? जानवरों और वहशियों के पास दिमाग नहीं होता, लेकिन इंसान इन चीजों पर विचार करेंगे। लोग पल-भर के आवेग में आकर बेवकूफी कर सकते हैं, लेकिन अगर वे बार-बार वही बेवकूफी करते हैं, तो उन्हें नासमझ कहा जा सकता है। नासमझ व्यक्ति वह होता है जिसकी बुद्धि कमजोर होती है या बोलचाल की भाषा में कहें तो वह व्यक्ति जिसका पेंच ढीला हो जाता है। लेकिन उसका स्वार्थ बहुत ज्यादा होता है, और उसकी धूर्त चालें जरा भी कम नहीं होती हैं, इसी वजह से मैं कहता हूँ कि लोगों के दिलों में राक्षस रहते हैं।
क्या तुम सभी लोग सोचते हो कि उपहार देने के मुद्दे को संगति के लिए उठाना राई का पहाड़ बनाना है? अगर मैंने इस पर संगति नहीं की होती और बस यूँ ही इसका जिक्र कर दिया होता, तो क्या इसे सुनने के बाद तुम लोगों पर इसका ऐसा असर होता? (नहीं होता।) ज्यादा से ज्यादा इसे सुनने के बाद तुम लोगों ने सोचा होता, “यह व्यक्ति ऐसा कैसे कर सकता है? मैं इस तरह की चीजें नहीं करता; वाकई हर तरह के लोग होते हैं!” ज्यादा से ज्यादा, तुम लोगों ने यही सोचा होता। तुम शायद इसके बारे में थोड़ी बात करते, और बस इतना ही—लेकिन क्या तुम्हें इसकी इतनी गहरी समझ होती? (नहीं।) तुम्हें इसकी इतनी गहरी समझ नहीं होती। तो, मेरे वचन तुम लोगों को क्या फायदा पहुँचाते हैं? तुम लोगों को कौन-सा सत्य प्राप्त हुआ है? सबसे पहले, मुझे तुम लोगों को याद दिलाना है : मनुष्य और परमेश्वर के बीच किस तरह का रिश्ता स्थापित करना सबसे अच्छा होता है? जब कोई परमेश्वर तक पहुँचता है, जब वह उसके साथ निकट संपर्क में होता है, तो उसे परमेश्वर के साथ कैसे घुलना-मिलना चाहिए? क्या इसके लिए सिद्धांत खोजना जरूरी नहीं है? (हाँ।) इसके अलावा, इतने सालों से परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद लोगों के दैनिक जीवन में ऐसी कौन सी घटनाएँ हुई हैं जो कहानी में उस व्यक्ति के समान प्रकृति की हैं? क्या ये प्रश्न विचार करने लायक नहीं हैं? क्या कोई सबक सीख सकता है और कह सकता है, “परमेश्वर मामूली गलतियों को भी बर्दाश्त नहीं करता, इसलिए यह बेहद गंभीर है। बेहतर है कि हम उसके पास न जाएँ, उसके साथ निकट संपर्क न रखें, या उसके साथ व्यवहार न करें—उसके साथ तुच्छ व्यवहार नहीं करना चाहिए! अगर तुम गड़बड़ करते हो, तो वह इस मुद्दे को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करेगा और तुम खुद को गंभीर संकट में डाल लोगे। मैं निश्चित रूप से उसे कुछ नहीं देने वाला!”? क्या इस तरह सोचना स्वीकार्य है? (नहीं।) वास्तव में, तुम लोगों को चिंता करने की जरूरत नहीं है : हमें निकट संपर्क बनाने के लिए बहुत ज्यादा अवसर नहीं मिलते, और हमें एक-दूसरे के साथ बातचीत करने के और भी कम पल मिलते हैं, इसलिए यह ऐसा मामला नहीं है जिसके बारे में तुम लोगों को चिंता करनी चाहिए। अगर मैं किसी दिन तुम लोगों से बातचीत करता हूँ, तो चिंता मत करो; मैं तुम्हें एक रहस्य बताऊँगा। चाहे तुम लोग मेरे साथ घुल-मिलकर चलो या अकेले में प्रार्थना करो और खोज करो, सबसे बड़ा रहस्य क्या है? तुम जो भी करो, मेरे साथ प्रतियोगिता न करो; अगर तुम्हारी प्रवृत्ति लड़ाकू है, तो मुझसे दूरी बनाए रखो। कुछ लोग हैं जो बहुत धूर्तता से बात करते हैं, पलक झपकते ही कई साजिशें रच लेते हैं, और उनका बोला गया हर वाक्य अशुद्धता से भरपूर होता है; अगर वे ज्यादा बोलते हैं, तो तुम नहीं जान पाओगे कि कौन से शब्द सच हैं और कौन से झूठ। ऐसे लोगों को कभी मेरे पास नहीं आना चाहिए। जब तुम परमेश्वर के संपर्क में आते हो और उससे संवाद करते हो, तो वह सबसे महत्वपूर्ण काम क्या है जो तुम्हें करना चाहिए और वह सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत क्या है जिसका तुम्हें पालन करना चाहिए? परमेश्वर के साथ अपने व्यवहार में ईमानदार हृदय रखना। साथ ही, सम्मान करना सीखो। सम्मान विनम्रता नहीं है; यह चापलूसी या पक्षपात नहीं है, न ही यह कृतघ्नता या चाटुकारिता है। तो वास्तव में यह क्या है? (यह परमेश्वर के साथ परमेश्वर जैसा व्यवहार करना है।) परमेश्वर के साथ परमेश्वर जैसा व्यवहार करना प्रमुख सिद्धांत है। इसके विवरण क्या हैं? (परमेश्वर को सुनना सीखो।) यह अभ्यास का एक पहलू है। कुछ लोग मेरे संपर्क में आते हैं, और वे मेरी बात काटने लगते हैं, इसलिए मैं आगे बोलने से पहले उन्हें अपनी बात खत्म करने देता हूँ। और जब मैं बोल रहा होता हूँ तो वे मेरे साथ कैसा व्यवहार करते हैं? वे आँखें बंद करके सुनते हैं। इसका क्या मतलब है? यह ऐसा है जैसे कह रहे हों, “तुम जो कह रहे हो वह बकवास है। तुम क्या जानते हो?” यही उनका रवैया होता है। हो सकता है कि मैं सब कुछ नहीं जानता हूँ, लेकिन मेरे पास सिद्धांत हैं, और मैं तुम्हें बताता हूँ कि मैंने क्या सीखा है, क्या देखा है, और क्या समझ सकता हूँ, साथ ही मैं जो सिद्धांत जानता हूँ, वह भी बताता हूँ, और तुम इससे बहुत कुछ हासिल कर सकते हो। लेकिन तुम हमेशा मुझ पर सरसरी नजर डालते रहोगे, यह सोचते रहोगे कि मैं कुछ नहीं जानता, और तुम मेरी बात ध्यान से नहीं सुनोगे, तो तुम्हें कुछ हासिल नहीं होगा—तुम्हें बस खुद ही अपने लिए चीजों का पता लगाना होगा। क्या ऐसा ही नहीं होता? इसलिए, तुम लोगों को परमेश्वर के वचनों को सुनना सीखना होगा। जब तुम लोग सुनते हो, तो क्या मैं तुम लोगों को अपने विचार व्यक्त करने में सीमित करता हूँ? मैं नहीं करता। एक बार जब मैं बोलना खत्म कर लेता हूँ, तो मैं तुम सभी लोगों से पूछता हूँ कि क्या तुम्हारे कोई प्रश्न हैं, और अगर किसी के पास होते हैं, तो मैं तुरंत उसका उत्तर देता हूँ और तुम लोगों को उन प्रश्नों में शामिल सिद्धांतों को बताता हूँ। कभी-कभी मैं तुम लोगों को सिर्फ सिद्धांत नहीं बताता, बल्कि पहलू का विवरण देते हुए मैं तुम लोगों को सीधे बताता हूँ कि तुम्हें क्या करना चाहिए। हालाँकि कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जिनकी मुझे समझ नहीं है, मेरे अपने सिद्धांत हैं, और ऐसे मामलों को सँभालने के मेरे अपने विचार और तरीके हैं, इसलिए मैं तुम लोगों को उन विचारों और सिद्धांतों के आधार पर सिखा रहा हूँ जो मुझे सही लगते हैं। तो ऐसा क्यों है कि मैं तुम लोगों को सिखा पा रहा हूँ? ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम लोग इन चीजों को समझते ही नहीं हो। एक बार इन प्रश्नों के उत्तर दिए जाने के बाद मैं फिर से पूछूँगा कि क्या कोई और प्रश्न हैं; अगर हैं, तो मैं बिना देर किए एक बार फिर उनका उत्तर दूँगा। मैं नहीं चाहता कि तुम सिर्फ मेरी बात सुनो; मैं तुम्हें बोलने का अवसर देता हूँ, लेकिन तुम जो कहो वह तर्कसंगत होना चाहिए—कोई बकवास नहीं, और समय की कोई बर्बादी नहीं। कभी-कभी अधीरता के चलते मैं कुछ लोगों को बीच में ही रोक देता हूँ। किन परिस्थितियों में? ऐसा तब होता है जब वे बहुत लंबी-चौड़ी बातें करते हैं, पाँच वाक्यों में कही जा सकने वाली बात को दस वाक्यों में कहते हैं। वास्तव में, मैं उन्हें सुनते ही समझ जाता हूँ; मुझे पता होता है कि आगे वे क्या कहेंगे, इसलिए उन्हें और कुछ कहने की जरूरत नहीं होती। संक्षिप्त और मुद्दे पर रहो; दूसरों का समय बर्बाद न करो। जब तुम बोलना खत्म कर लोगे, तो मैं तुम्हें जवाब दूँगा, और तुम्हें बताऊँगा कि क्या करना है और इसे किन सिद्धांतों के अनुसार करना है। बात यहीं पर खत्म हो जानी चाहिए, है न? लेकिन कुछ लोग इसे भाँप नहीं पाते, और कहते हैं, “नहीं, तुम्हें मेरा सम्मान करना होगा; हमारा सम्मान दोनों तरफ से होता है। तुमने बोलना खत्म कर दिया है, लेकिन मैंने अपना दृष्टिकोण पूरी तरह से व्यक्त नहीं किया है। मेरा दृष्टिकोण यह है—मुझे फिर शुरुआत से शुरू करना होगा।” वे हमेशा इस विश्वास के साथ अपने विचार व्यक्त करना चाहते हैं कि मैं उनके बारे में नहीं जानता, जबकि वास्तव में जैसे ही वे बोलना शुरू करते हैं, मैं जान जाता हूँ कि उनके विचार क्या हैं—तो क्या उन्हें बोलते रहने की कोई जरूरत है? कोई जरूरत नहीं है। कुछ लोगों में IQ इतना कम होता है कि उन्हें दो वाक्यों के लायक किसी मामले में दस वाक्यों की जरूरत पड़ती है, और जब तक मैं उन्हें बीच में नहीं रोकता, वे बोलते रहते हैं। बाकी सभी लोग समझ गए; क्या मैं अभी भी नहीं समझा? लेकिन फिर भी वे खुद को व्यक्त करना चाहते हैं, इसलिए ऐसा नहीं है कि केवल उनका IQ कम है—उनकी सूझ-बूझ भी कमजोर है! क्या तुम लोग कभी ऐसे लोगों से मिले हो? (हाँ।) वे सोचते हैं कि वे होशियार हैं, भले ही उनके पास खराब सूझ-बूझ और कम IQ हो। क्या यह घिनौना नहीं है? यह घृणित और घिनौना है। जब लोग परमेश्वर के संपर्क में आते हैं, तो पहली बात यह है कि वे उसके साथ ईमानदार हृदय से पेश आएँ; दूसरी बात यह है कि लोग सम्मान करना जरूर सीखें; और तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वे सत्य की खोज करना सीखें। क्या यह सबसे महत्वपूर्ण नहीं है? (हाँ, है।) अगर तुम सत्य की खोज नहीं करते, तो परमेश्वर में विश्वास करने का क्या मतलब है? उस पर विश्वास करने का मूल्य ही क्या है? इसमें समझदारी कहाँ है? यह ऐसी बात है जिसे ज्यादातर लोग नहीं समझ पाते, तो फिर इस मुद्दे को क्यों उठाना? यह भविष्य के लिए तैयारी है; तुम लोगों को इस तरह से अभ्यास करना सीखना होगा जब भविष्य में तुम्हारे साथ इस तरह की चीजें हों।
कलीसिया में मैं कई लोगों के संपर्क में आया, जिनमें से कुछ को मैंने कुछ काम सौंपे। कुछ दिन बाद उन्होंने मुझे फीडबैक दिया, मुझे दिखाया कि उन्होंने मेरे द्वारा सौंपे गए हर काम को नोट कर लिया है, और अब वे उनमें से हर एक को लागू करने की प्रक्रिया में हैं। जब वे मुझसे मिले, तो उन्होंने काम की प्रगति के बारे में मुझे बताया, कि किन मुद्दों पर खोज की जरूरत है, और किन पर अभी भी परिणाम आने बाकी हैं, और मुझे पूरी जानकारी दी। उन्होंने विवरण बहुत स्पष्ट रूप से समझाया, और हालाँकि कभी-कभी वे थोड़े मामूली भी थे, लेकिन उनके रवैये से पता चलता था कि वे परमेश्वर के वचनों के प्रति अपने व्यवहार में गंभीर और जिम्मेदार थे, और उन्हें पता था कि उनकी जिम्मेदारियाँ, कर्तव्य और दायित्व क्या हैं। कुछ लोग अलग थे : मैंने उन्हें दो काम सौंपे थे और उन्होंने उन्हें अपनी नोटबुक में लिख लिया था, लेकिन एक हफ्ते बाद जब उन्होंने अभी भी कुछ भी लागू नहीं किया था, तो उन्हें केवल तभी याद आया जब मैंने उनसे इसके बारे में पूछा—और फिर उन्होंने इसे फिर से अपनी नोटबुक में लिख लिया। एक और सप्ताह के बाद जब मैंने उनसे पूछा कि यह मामला अभी तक क्यों नहीं पूरा हो पाया है, तो उन्होंने बहाने बनाए, इस मुश्किल और उस परेशानी का हवाला दिया, फिर से अपनी नोटबुक में सब कुछ पूरी लगन से लिख लिया। उन्होंने सब कुछ कहाँ लिखा? (अपनी नोटबुक में।) लेकिन उन्होंने अपने मन में कुछ भी नहीं लिखा। क्या यह गलत व्यक्ति को कुछ सौंपना नहीं है? ये लोग इंसान नहीं हैं। मैंने उन्हें जो कुछ भी सौंपा, वह एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल दिया—उन्होंने इसे बिल्कुल भी गंभीरता से नहीं लिया। किसी खास पेशे या सामान्य मामलों से संबंधित सभी कार्य—साथ ही कलीसिया के काम से संबंधित कुछ मामले—जो मैं लोगों को सौंपता हूँ, वे उनके द्वारा प्राप्त किए जा सकने वाले दायरे में होते हैं; उनमें से किसी का भी मकसद उनके लिए चीजों को कठिन बनाना नहीं होता। हालाँकि, अक्सर जब मैंने अगुआओं और कार्यकर्ताओं को काम सौंपे, तो उनमें से ज्यादातर ने आदेश लेने के बाद मुझे रिपोर्ट नहीं दी, और मुझे काम की स्थिति के बारे में कुछ भी सुनने को नहीं मिला। यह व्यवस्थित था या नहीं, यह कैसे किया गया, क्या गलतियाँ हुईं, वर्तमान परिणाम क्या हैं—उन्होंने इनमें से किसी के बारे में कभी रिपोर्ट नहीं दी या खोज में शामिल नहीं हुए। उन्होंने बस अपने आदेशों को एक तरफ रख दिया, और मुझे किसी भी परिणाम के बारे में सुनने को भी नहीं मिला। कुछ लोगों के साथ तो और भी गंभीर समस्या थी, कि मैंने जो काम उन्हें सौंपा था, उसे अमल में लाने में नाकाम रहने के अलावा वे मेरी चापलूसी करने और मुझे धोखा देने के लिए भी आए, मुझे बताते रहे कि वे कल कहाँ गए थे और उन्होंने क्या किया था, उन्होंने उससे एक दिन पहले क्या किया था, और वे अब क्या कर रहे हैं। देखो कि वे दिखावा करने और कुतर्क करने में कितने अच्छे थे—उन्होंने मेरे द्वारा विशेष रूप से सौंपे गए कामों में से कुछ भी नहीं किया, इसके बजाय वे बेकार के कामों में व्यस्त रहे जबकि महत्वपूर्ण काम पूरी तरह से अव्यवस्थित पड़ा रहा। यह किस तरह का व्यवहार था? उन्होंने अपने उचित कार्यों की पूरी तरह से उपेक्षा की, और वे झूठ और धोखे से भरे हुए थे!
एक व्यक्ति पौधे लगाने का प्रभारी था। मैंने उससे पूछा, “इस साल कुछ साग अच्छे दिख रहे हैं। क्या तुमने बीज बचाकर रखे हैं?” “मैंने बचाए हैं,” उसने जवाब दिया। मैंने कहा, “मैंने सुना कि उन्होंने कुछ समय पहले सारा साग काट लिया था और कोई बीज नहीं बचाया था।” उसने कहा, “उन्होंने फसल की कटाई पूरी नहीं की है। अभी भी कुछ बचा हुआ है!” मैंने फिर पूछा, “बचा हुआ साग कहाँ है? मुझे दिखाओ।” उसने कहा, “ओह? ठीक है... मुझे पहले जाकर देखने दो।” क्या उसने वास्तव में कोई बीज बचाए थे या नहीं? उसने नहीं बचाए थे। उसने जो कुछ शब्द कहे, उनमें क्या उसका पहला कथन “मैंने बचाए” झूठ था? (हाँ।) और उसका दूसरा कथन, “उन्होंने फसल की कटाई पूरी नहीं की है। अभी भी कुछ बचा हुआ है!”—क्या वह झूठ नहीं था? उसे नहीं पता था कि उन्होंने बीज बचाए भी हैं या नहीं, और उसने कह दिया था, “मुझे पहले जाकर देखने दो।” तो तीसरा कथन एक और झूठ था। बयान दर बयान झूठ और भी गंभीर होता गया; वह झूठ पर झूठ बोलता गया, जो धीरे-धीरे और गहरा होता गया—एक के बाद एक झूठ! क्या तुम सभी लोग ऐसे व्यक्ति से बातचीत करने के लिए तैयार होगे जो झूठ पर झूठ बोलते हों? (नहीं।) झूठ से भरे हुए लोगों से बात करने और उनके साथ काम करने पर तुम्हें कैसा लगता है? क्या तुम्हें गुस्सा आता है? उसके पास किसी को भी धोखा देने की हिम्मत थी; अगर उसे लग रहा था कि मैं नहीं जानता तो वह गलत था! क्या मामला धोखे के लायक हो सकता है? इतना धोखेबाज बनकर उसे क्या हासिल हुआ? अगर तुम उसके काम करने के तरीके में यह रवैया देखते, अगर वह तुम्हारे साथ इसी तरह से पेश आता, तो तुम्हें कैसा लगता? अगर मूल रूप से किसी व्यक्ति द्वारा कही गई 99 प्रतिशत बातें झूठ हैं, तो चाहे वह व्यक्ति गपशप कर रहा हो या काम या गंभीर मामलों के बारे में बात कर रहा हो, या सत्य पर संगति कर रहा हो, तो ऐसे व्यक्ति से कोई उम्मीद नहीं की जा सकती। वह किसी को भी धोखा दे सकता है; इससे वह क्या बनता है? उसने कितने समय से परमेश्वर पर विश्वास किया है? कुछ अविश्वासी हमेशा कहते रहते हैं, “जहाँ तक मुझे पता है,” या, “दिल से बोल रहा हूँ,” और इस आधार पर वे कुछ सच कह रहे होते हैं। वह व्यक्ति इतने सालों तक परमेश्वर पर विश्वास करता रहा, और उसने इतने सारे उपदेश सुने, लेकिन वह सत्य का एक भी शब्द नहीं बोल सका; उसने जो कुछ भी कहा वह सब झूठ था। तो फिर वह किस तरह का प्राणी है? क्या यह घिनौना और घृणित नहीं है? क्या ऐसे बहुत से लोग हैं? क्या तुम लोग ऐसे हो? जब तुम लोग मेरे साथ बातचीत करते हो, तो तुम किन परिस्थितियों में मुझसे झूठ बोलोगे? अगर तुम्हारी वजह से कोई आपदा आई है, और तुम जानते हो कि इसके परिणाम गंभीर हैं और तुम्हें निष्कासित किया जा सकता है, तो जैसे ही दूसरे लोग इसका उल्लेख करते हैं, तुम इसे छिपाने के लिए झूठ बोलते हो। कोई भी इस तरह की बात के बारे में झूठ बोल सकता है। लोग और किस बारे में झूठ बोल सकते हैं? अपनी छवि को बढ़ाने और दूसरों द्वारा उच्च सम्मान पाने के लिए झूठ बोलना। फिर ऐसे लोग होते हैं जो जानते हैं कि वे अपने काम में अक्षम हैं, लेकिन वे ऊपरवाले को स्पष्ट रूप से नहीं बताते हैं, उन्हें डर होता है कि अगर वे ऐसा करेंगे तो उन्हें बर्खास्त कर दिया जाएगा। ऊपरवाले को अपना काम बताते समय, वे समस्या को ठीक करने के तरीके खोजने का दिखावा करते हैं, जिससे दूसरों पर गलत छाप पड़ती है। वे जो कुछ भी कहते हैं वह सब झूठ होता है, और वे काम करने में मूल रूप से अक्षम होते हैं। अगर वे कुछ सवाल नहीं पूछते, तो उन्हें डर लगता है कि ऊपरवाला उनकी विसंगतियों को पहचान लेगा और उन्हें बर्खास्त कर देगा, इसलिए वे जल्दबाजी में ढोंग रचते हैं। झूठे अगुआओं और मसीह विरोधियों की मानसिकता ऐसी ही होती है।
परमेश्वर के साथ बातचीत करने के तीन सिद्धांतों पर चिंतन करो, जिन पर मैंने अभी-अभी संगति की है। इनमें से कौन सा सिद्धांत तुम लोग लागू नहीं कर सकते और कौन सा सिद्धांत तुम्हारे लिए हासिल करना आसान है? वास्तव में, उनमें से किसी को भी सही मायने में लागू करना आसान नहीं है, क्योंकि राक्षस लोगों के हृदयों में बसते हैं। तुम उन्हें तब तक हासिल नहीं कर पाओगे, जब तक तुम अपने हृदय से राक्षस को बाहर नहीं निकाल देते। तुम्हें अपने हृदय में मौजूद राक्षस से लड़ना होगा और अगर तुम हर बार उस पर विजय पा सकते हो, तो तुम उन्हें हासिल कर सकते हो। अगर हर बार तुम असफल होते हो और उसके चंगुल में फँस जाते हो, तो तुम उन्हें हासिल नहीं कर पाओगे; तुम किसी भी सिद्धांत को लागू नहीं कर पाओगे। अगर तुम लोग इन तीनों को पूरा कर सकते हो, तो न केवल मेरे साथ घुलते-मिलते या मुझसे बातचीत करते समय बल्कि भाई-बहनों के साथ अपनी नियमित बातचीत में भी तुम लोग इन सिद्धांतों का पालन करते हो, तो क्या इससे हर कोई लाभान्वित नहीं होगा? (हाँ।) अब जब कि यह कहानी खत्म हो गई है, तो चलो मुख्य विषय पर आते हैं।
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