मद सात : वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं (भाग दो) खंड चार
मसीह-विरोधियों को झूठ और छल-प्रपंच पसंद है—उन्हें और क्या पसंद है? उन्हें चालें, योजनाएँ और षड्यंत्र पसंद हैं। वे शैतान के दर्शन के अनुसार काम करते हैं, कभी सत्य की खोज नहीं करते, पूरी तरह से झूठ और चालबाजी पर निर्भर करते हुए योजनाएँ और षड्यंत्र काम में लाते हैं। तुम चाहे जितनी स्पष्टता से सत्य की संगति करो, भले ही वे स्वीकृति में सिर हिलाएँ, पर वे सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य नहीं करेंगे। इसके बजाय, वे अपने दिमाग दौड़ाएँगे और योजनाओं तथा षड्यंत्र का उपयोग करते हुए काम करेंगे। इससे फर्क नहीं पड़ता कि तुम कितनी स्पष्टता से सत्य पर संगति करते हो, ऐसा लगता है कि वे इसे समझ नहीं सकते; वे चीजों को बस वैसे ही करते हैं जैसे करने के वे इच्छुक हैं, जैसे वे उन्हें करना चाहते हैं, और जो भी तरीका उनके अपने स्वार्थ के अनुरूप है। वे चिकनी-चुपड़ी बातें करते हैं, अपना असली चेहरा और असली रंग छिपाते हैं, लोगों को बेवकूफ बनाते हैं और छलते हैं, और जब दूसरे लोग उनके झाँसे में आ जाते हैं, तो वे खुशी महसूस करते हैं, और उनकी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ पूरी हो जाती हैं। मसीह-विरोधियों का यह तरीका और विधि हमेशा बनी रहती है। जहाँ तक उन ईमानदार लोगों की बात है जो बातचीत में सीधे-सच्चे होते हैं, जो ईमानदारी से बोलते हैं और अपनी नकारात्मकता, कमजोरी और विद्रोही अवस्थाओं के बारे में खुले तौर पर संगति करते हैं, और दिल से बोलते हैं, तो मसीह-विरोधी उनसे अंदर से विकर्षित होते हैं और उनके साथ भेदभाव करते हैं। उन्हें ऐसे लोग पसंद होते हैं जो उनकी ही तरह कुटिल और धोखा देने वाले अंदाज में बात करते हैं और सत्य का पालन नहीं करते। जब वे ऐसे लोगों से मिलते हैं, तो उनका हृदय प्रसन्न हो जाता है, जैसे उन्हें उनके जैसा ही कोई मिल गया हो। तब, वे इस बात की चिंता नहीं करते कि दूसरे लोग उनसे बेहतर हैं या उनकी पहचान करने में सक्षम हैं। क्या यह मसीह-विरोधियों की दुष्ट प्रकृति की अभिव्यक्ति नहीं है? क्या इससे यह प्रदर्शित नहीं हो सकता कि वे दुष्ट हैं? (हाँ, इससे प्रदर्शित हो सकता है।) ये मामले क्यों स्पष्ट कर सकते हैं कि मसीह-विरोधी दुष्ट होते हैं? सकारात्मक चीजें और सत्य वे चीजें हैं जिनसे किसी भी अंतरात्मा से युक्त तर्कसंगत सृजित प्राणी को प्रेम करना चाहिए। परंतु, जब मसीह-विरोधियों की बात आती है, तो वे इन सकारात्मक चीजों को गले की फाँस या बगल में धँसा काँटा मानते हैं। जो कोई भी इन चीजों का पालन करता है या अभ्यास करता है, वह उनका दुश्मन बन जाता है, और वह ऐसे लोगों के प्रति शत्रुतापूर्ण होता है। क्या यह अय्यूब के प्रति शैतान की शत्रुता की प्रकृति से मिलता-जुलता नहीं है? (हाँ, ऐसा है।) यह शैतान के समान ही प्रकृति, वही स्वभाव और वही सार है। मसीह-विरोधियों की प्रकृति शैतान से उत्पन्न होती है, और वे शैतान की ही श्रेणी में आते हैं। इसलिए, मसीह-विरोधी शैतान के साथी होते हैं। क्या यह कथन अतिशयोक्तिपूर्ण है? बिल्कुल नहीं; यह पूरी तरह से सही है। क्यों? क्योंकि मसीह-विरोधियों को सकारात्मक चीजों से प्रेम नहीं होता। उन्हें छल-कपट में शामिल होने में मजा आता है, वे झूठ, भ्रामक दिखावों और फरेबों को पसंद करते हैं। अगर कोई उनका असली चेहरा उजागर करे, तो क्या वे समर्पण कर सकते हैं और इसे खुशी-खुशी स्वीकार कर सकते हैं? न केवल वे इसे स्वीकार नहीं कर सकते, बल्कि वे गाली-गलौज पर उतर आएँगे। सच बोलने वाले या उनका असली चेहरा उजागर करने वाले लोग उन्हें बहुत क्रोधित कर देते हैं और वे आगबबूला हो उठते हैं। उदाहरण के लिए, कोई मसीह-विरोधी ऐसा हो सकता है जो दिखावा करने में बहुत कुशल हो। हर कोई उसे अच्छे व्यक्ति के रूप में देखता है : जो प्यार करता है, सहानुभूति रखता है, दूसरों की कठिनाइयों को समझता है, और जो कमजोर और नकारात्मक लोगों को समर्थन और मदद देता है। जब भी दूसरों को कोई कठिनाई होती है, तो वे उसे समझ पाने और उन्हें छूट देने में सक्षम होते हैं। लोगों के हृदय में यह मसीह-विरोधी परमेश्वर से महान होता है। खुद को गुणवान व्यक्ति के रूप में पेश करने वाले इस व्यक्ति के ढोंग और धोखेबाजी को यदि तुम उजागर करते हो, यदि तुम उसे सत्य बताते हो, तो क्या वह इसे स्वीकार कर सकता है? न केवल वह इसे अस्वीकार करेगा, बल्कि वह अपने ढोंग और फरेब को और भी बढ़ा देगा। बताओ कि अगर तुम गलियों के कोनों में प्रार्थना करने और दूसरों को सुनाने के लिए धर्मग्रंथों का पाठ करने वाले फरीसियों का फरेब उजागर करते हो, और उनसे कहते हो कि वे यह सब दिखावा करने के लिए कर रहे हैं, तो क्या वे तुम्हारे कथन को स्वीकार करेंगे? क्या वे तुम्हारी बात को खुशी से स्वीकार करेंगे? क्या वे तुम्हारे शब्दों पर विचार करेंगे? क्या वे स्वीकार कर सकते हैं कि वे जो कर रहे थे वह फरेब और चालबाजी थी? क्या वे आत्मचिंतन और पश्चाताप कर सकते हैं, और हमेशा के लिए ऐसे कामों से बाज आ सकते हैं? बिल्कुल नहीं। अगर तुम आगे कहते हो कि “तुम्हारे काम लोगों को गुमराह कर रहे हैं और तुम नरक में जाओगे और दंडित होगे,” तो क्या यह सच नहीं होगा? (हाँ, यह सच होगा।) यह सच बोलना है। क्या वे इसे स्वीकार करेंगे? नहीं, वे तुरंत बहुत आग बबूला हो जाएँगे और कहेंगे, “क्या कहा? तुम कह रहे हो कि मैं नरक में जाऊँगा और दंड पाऊँगा? हद हो गई! मैं परमेश्वर में विश्वास करता हूँ, तुममें नहीं! तुम्हारे शब्दों का कोई मतलब नहीं है!” क्या सारी बात इतने पर खत्म हो जाएगी? वे आगे क्या करेंगे? वे अपनी बात जारी रखते हुए कहेंगे, “मैंने दूर-दूर तक यात्राएँ की हैं, इतने लोगों में सुसमाचार का प्रचार किया है, इतना फल दिया है, इतनी सलीबें उठाई हैं, और जेल में बहुत कष्ट उठाए हैं—बच्चे, जब मैंने प्रभु में विश्वास करना शुरू किया था तब तुम अपनी माँ के पेट में थे!” इससे उनका स्वभाव उजागर हो गया, है न? क्या वे धैर्य और सहनशीलता का उपदेश नहीं देते—फिर इस छोटी-सी बात को वे क्यों नहीं सह पाते? वे इसे क्यों नहीं बर्दाश्त कर पाते? क्योंकि तुमने सच कहा है, तुमने उनका असली व्यक्तित्व उजागर कर दिया है, और उनका कोई गंतव्य नहीं है। क्या वे अब भी इसे बर्दाश्त कर सकते हैं? यदि वे मसीह-विरोधी नहीं हैं, यदि वे मसीह-विरोधी मार्ग पर हैं, लेकिन सत्य स्वीकार कर सकते हैं, और वे नकलीपन का प्रकटीकरण भी करते हैं, तो यदि तुम उनका नकलीपन उजागर करते हो, तो वे क्या करेंगे? संभव है कि वे तुरंत आत्मचिंतन न करें, और यह कहना कि वे ऐसा करते हैं, उन्हें अवास्तविक और खोखली बात लग सकती है। परंतु, यह सुनने पर अधिकांश सामान्य लोगों की पहली प्रतिक्रिया यह होती है कि उन्हें हृदय में चुभने वाला दर्द होने लगता है। यह चुभने वाला दर्द क्या संकेत करता है? इसका मतलब है कि उन्होंने जो सुना, उससे प्रभावित हुए; उन्हें उम्मीद नहीं थी कि कोई व्यक्ति इतने दुस्साहसिक तरीके से काम करते हुए इस तरह से उनके सामने सच बोलने और उनकी निंदा करने की हिम्मत करेगा—ये शब्द कुछ ऐसे हैं जिन्हें सुनने की न तो उन्होंने कभी उम्मीद की थी और न ही पहले कभी सुने थे। इसके अलावा, उन्हें शर्म आती है और वे अपनी इज्जत बचाना चाहते हैं। जब वे तुम्हारे इस कथन पर विचार करते हैं कि गली के कोने पर खड़े होकर प्रार्थना करना और धर्मग्रंथ पढ़ना लोगों को गुमराह करना है, तो आत्म-परीक्षण के बाद उन्हें पता चलता है कि ऐसा करना वास्तव में लोगों को यह दिखाने के लिए था कि वे कितने समर्पित हैं, वे प्रभु से कितना प्रेम करते हैं, और वे कितना कष्ट सह सकते हैं, कि यह दिखावा करना है, और तुमने जो कहा वह सच था। उन्हें पता चलता है कि अगर वे इसी तरह से काम करना जारी रखते हैं, तो वे दूसरों को चेहरा दिखाने लायक नहीं रहेंगे। उनमें शर्म की भावना होती है, और उस शर्म की भावना के कारण वे खुद को कुछ हद तक नियंत्रित करने और अपने बुरे कामों या अपने उन बेशर्मी के कामों को रोकने में सक्षम हो सकते हैं जिनसे उनका सम्मान खत्म होता है। जब वे इस तरह से काम करना बंद कर देते हैं तो उसका क्या मतलब होता है? यह पश्चाताप की झलक का संकेत करता है। यह निश्चित नहीं है कि वे निश्चित रूप से पश्चाताप करेंगे, लेकिन कम से कम पश्चाताप की संभावना है, जो मसीह-विरोधियों और फरीसियों से कहीं बेहतर है। वह क्या है जो इसे बेहतर बनाता है? क्योंकि उनके पास अंतरात्मा और शर्म की भावना है और दूसरे लोगों के उन्हें उजागर करने वाले शब्द उनके दिल में चुभते हैं। यद्यपि वे शर्मिंदा हो सकते हैं, और उनकी गरिमा को चोट पहुँच सकती है, फिर भी वे कम से कम यह स्वीकार कर सकते हैं कि ये शब्द सही हैं। भले ही वे अपनी प्रतिष्ठा बचाने में असमर्थ हों, लेकिन अंदर ही अंदर वे पहले ही उन शब्दों को स्वीकार चुके होते हैं, उनके आगे समर्पण कर चुके होते हैं और उन्हें स्वीकार कर चुके होते हैं। मसीह-विरोधी इससे अलग कैसे हैं? हम क्यों कहते हैं कि मसीह-विरोधी दुष्ट हैं? मसीह-विरोधियों की दुष्टता इस तथ्य में निहित है कि जब वे कुछ ऐसा सुनते हैं जो सही हो, तो वे न केवल उसे स्वीकार करने में असमर्थ होते हैं, बल्कि इसके उलट, वे उससे नफरत करते हैं। इसके अतिरिक्त, वे अपने तरीके अपनाते हुए अपने बचाव और स्पष्टीकरण के लिए बहाने, कारण और विभिन्न वस्तुनिष्ठ कारकों की तलाश करते हैं। वे किस उद्देश्य को प्राप्त करना चाहते हैं? वे नकारात्मक चीजों को सकारात्मक में और सकारात्मक चीजों को नकारात्मक में बदलने का लक्ष्य रखते हैं—वे स्थिति को उलटना चाहते हैं। क्या यह दुष्टता नहीं है? वे सोचते हैं, “तुम चाहे जितने सही हो, या तुम्हारे शब्द सत्य के कितने भी अनुरूप हों, क्या तुम मेरी वाक्पटुता के सामने टिक सकते हो? भले ही मैं जो भी शब्द बोलता हूँ वे साफ तौर पर झूठे, कपटी और भ्रामक होते हैं, फिर भी मैं तुम्हारी बातों का खंडन करूँगा और उनकी निंदा करूँगा।” क्या यह दुष्टता नहीं है? यह सच में दुष्टता है। क्या तुम सोचते हो कि मसीह-विरोधी जब अच्छे लोगों को देखते हैं, तो उन्हें अपने दिल में ईमानदार नहीं मानते? वे उन्हें ईमानदार और सत्य का अनुसरण करने वाला ही मानते हैं, लेकिन ईमानदारी और सत्य का अनुसरण करने की उनकी परिभाषा क्या है? वे सोचते हैं कि ईमानदार लोग मूर्ख होते हैं। वे सत्य के अनुसरण से विकर्षित होते हैं, घृणा करते हैं, और उसके प्रति शत्रुता रखते हैं। वे इसे झूठ मानते हैं और सोचते हैं कि कोई भी इतना मूर्ख नहीं हो सकता कि सत्य के अनुसरण में सब कुछ त्याग दे, किसी से कुछ भी कह दे, और सब कुछ परमेश्वर को सौंप दे। कोई भी इतना मूर्ख नहीं होता। उन्हें लगता है कि ये सभी कार्य झूठे हैं, और वे इनमें से किसी पर विश्वास नहीं करते। क्या मसीह-विरोधी यह विश्वास करते हैं कि परमेश्वर सर्वशक्तिमान और धार्मिक है? (वे ऐसा नहीं मानते।) इसलिए, वे अपने मन में इन सभी बातों पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं। इसका निहितार्थ क्या है? हम प्रश्नचिह्नों के इस ढेर की व्याख्या कैसे करें? वे केवल संदेह या सवाल ही नहीं करते; अंत में, वे इसे अस्वीकार भी करते हैं और स्थिति को उलटने का लक्ष्य रखते हैं। स्थिति को उलटने से मेरा क्या मतलब है? वे सोचते हैं, “इतना न्यायोचित होने का क्या फायदा? अगर झूठ को हजार बार दोहराएँ, तो वह सच हो जाता है। अगर कोई भी सच नहीं बोलता, तो वह सच नहीं रह जाता और उसका कोई फायदा नहीं है—वह सिर्फ झूठ है!” क्या यह सही को गलत और गलत को सही करना नहीं है? यह शैतान की दुष्टता है—तथ्यों को विकृत करना और सही को गलत और गलत को सही करना—यही उन्हें पसंद है। मसीह-विरोधी ढोंग और छल-कपट में माहिर होते हैं। वे जिस चीज में माहिर होते हैं, वह बेशक उनके मूल में निहित है, और जो उनके मूल में निहित है, वह ठीक वही है जो उनके प्रकृति सार में है। इससे भी बढ़कर, यह वही है जिसकी उन्हें लालसा है और जिससे उन्हें प्यार है, और यही उनके दुनिया में जीवित रहने का भी नियम है। वे ऐसी कहावतों पर विश्वास करते हैं कि “अच्छे लोग कम उम्र में ही मर जाते हैं, जबकि बुरे लोग लंबी उम्र तक जीते हैं,” “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए,” “किसी व्यक्ति की नियति उसी के हाथ में होती है,” “मनुष्य प्रकृति को जीत लेगा,” इत्यादि। क्या इनमें से कोई भी कथन मानवता या प्राकृतिक नियमों के अनुरूप है जिसे सामान्य लोग समझ सकें? एक भी नहीं। तो मसीह-विरोधी शैतान की इन शैतानी बातों को इतना ज्यादा पसंद कैसे कर सकते हैं और उनसे अपने आदर्श-वाक्य की तरह कैसे पेश आ सकते हैं? केवल इतना ही कहा जा सकता है कि ऐसा इसलिए है कि उनकी प्रकृति बहुत दुष्ट है।
एक कलीसिया अगुआ था जिससे करीब एक साल के दौरान मैं कई बार संपर्क में आया। हमें मुलाकात के कई मौके मिले, लेकिन हमारी बातचीत सीमित होती थी क्योंकि वह खुलकर बात करने वाला व्यक्ति नहीं था। इसका क्या मतलब है—“खुलकर बात न करने वाला”? इसका मतलब है कि जब तुम उससे सवाल पूछो, तब भी वह ज्यादा कुछ नहीं बोलता था। अब, क्या वह कलीसिया में दूसरों के साथ अपनी बातचीत में ऐसा ही था? दो संभावित स्थितियाँ थीं। जो लोग उसके जैसे विचार रखते थे, उनसे कहने के लिए उसके पास बहुत कुछ था। परंतु, जो लोग उसके जैसे विचार नहीं रखते थे, उनके साथ वह सतर्क हो जाता था और कम बोलता था। बाद में, मैंने निष्कर्ष निकाला कि उसके साथ मेरी बातचीत के दौरान, उसने कुल पाँच “क्लासिक” वाक्यांश बोले। वह आसानी से नहीं बोलता था, और जब वह कुछ कहता था, तो वह एक “क्लासिक” वाक्यांश बन जाता था। यह किस तरह का व्यक्ति है? क्या हम उसे “विशिष्ट व्यक्ति” कह सकते हैं? कलीसिया के अगुआओं या कार्यकर्ताओं के लिए मुझसे संपर्क करना और मामलों पर चर्चा करना बिल्कुल सामान्य बात है, है न? हालाँकि, यह व्यक्ति अद्वितीय था। उसने केवल पाँच वाक्यांश बोले, पाँच अविश्वसनीय रूप से “क्लासिक” वाक्यांश। सुनो कि इन वाक्यांशों को इतना “क्लासिक” क्या बनाता है। उसके हर वाक्यांश का अपना संदर्भ है और उसके पीछे एक छोटी-सी कहानी है। सबसे पहले इस बात से शुरू करते हैं कि उसका पहला वाक्यांश कहाँ से आया।
इस अगुआ की अगुआई वाली कलीसिया में एक दुष्ट व्यक्ति था जिसने कई बुरी चीजें की थीं और कलीसिया के काम में बाधा डाली थी। सभी को पता था कि वह दुष्ट व्यक्ति है इसलिए उन्होंने उसके बारे में संगति करना और उस पर चर्चा करना शुरू कर दिया। अगर उसे निष्कासित करके बाहर किया जाना था, तो कलीसिया में उसके बारे में एक नोटिस जारी करने की जरूरत पड़ती, ताकि सभी को पता चले कि उसने क्या बुरे काम किए हैं और उसे कुकर्मी के रूप में क्यों निरूपित किया जा रहा है और क्यों बाहर किया जा रहा है। जब उस दुष्ट व्यक्ति द्वारा किए गए कुछ बुरे कामों का खुलासा हो रहा था, तो यह अगुआ, जो आमतौर पर ज्यादा बात नहीं करता था, बोला कि, “उसकी नीयत नेक थी।” वह उस दुष्ट व्यक्ति द्वारा बुरे काम किए जाने और कलीसिया के काम में बाधा डालने को किस नजर से देखता है? “उस व्यक्ति की नीयत नेक थी।” उसका मानना था कि किसी बुरे व्यक्ति द्वारा किए गए बुरे काम सत्य के अनुरूप होते हैं, बशर्ते उस व्यक्ति की नीयत नेक हो। उसके मुताबिक किसी के कार्यों की प्रकृति चाहे जो भी हो, चाहे वे अच्छे हों या बुरे, या उनके कार्यों के कुछ भी परिणाम हों, जब तक उसकी नीयत नेक हो, तब तक उसके द्वारा पैदा की गई गड़बड़ियाँ और बाधाएँ भी सत्य के अनुरूप हैं। “उसकी नीयत नेक थी।” यह पहला वाक्यांश था जो इस अगुआ ने बोला। क्या तुमने कभी ऐसी बात सुनी है? एक दुष्ट व्यक्ति स्पष्ट रूप से दुष्टता कर रहा है, और फिर भी कोई कहता है कि उन बुरे कामों को करते समय उस व्यक्ति के इरादे नेक थे। क्या सभी इस वाक्यांश का भेद पहचान सकते हैं? मेरा मानना है कि कुछ लोग इस वाक्यांश से गुमराह हो सकते हैं क्योंकि ज्यादातर लोग सोचते हैं कि जब तक कोई व्यक्ति नेक नीयत से काम कर रहा हो, तब तक उससे निपटना नहीं चाहिए, और कि अगर कोई व्यक्ति अच्छे इरादे से कुछ बुरा करता है, तो वह जानबूझकर बुरा काम नहीं कर रहा है। इस अगुआ द्वारा ऐसे उकसाए और गुमराह किए जाने के बाद संभव था कि कुछ लोग उसके पक्ष में चले जाएँ, और दुष्ट व्यक्ति के साथ सहानुभूति रखने लगें। इस अगुआ द्वारा गुमराह न किया गया होता, तो ज्यादातर लोग इस मामले को सही ढंग से समझ गए होते और सोचते कि दुष्ट व्यक्ति को कुकर्मों के लिए निष्कासित किया जाना चाहिए और बाहर कर दिया जाना चाहिए। परंतु, इस अगुआ द्वारा उकसाए और गुमराह किए जाने के बाद, कुछ लोगों ने सोचा, “उसकी नीयत नेक थी, यह बात तर्कपूर्ण है। कभी-कभी हम भी ऐसे ही होते हैं। तो, अगर हम अच्छे इरादों से कुछ बुरा कर दें, तो क्या हमें भी हटा दिया जाएगा और बाहर कर दिया जाएगा?” परिणामस्वरूप, वे इस अगुआ के पाले में आ गए। क्यों? वे अपने भविष्य के बारे में सोच रहे थे। क्या लोगों के लिए इस अगुआ के बोले वाक्यांश को स्वीकार कर लेना आसान नहीं था? इसे स्वीकार करने के क्या परिणाम हुए? उन लोगों में परमेश्वर के बारे में, उसके धार्मिक स्वभाव के बारे में और काम करने के उसके सिद्धांतों के बारे में संदेह पैदा हो गए। उनमें परमेश्वर के घर के काम करने के सिद्धांतों के बारे में संदेह विकसित हो गए, उन पर उन्होंने प्रश्न चिह्न लगा दिए, और फिर उनकी निंदा की। अपने हृदय में उन्होंने ये संदेह पाले। वास्तव में, इस दुष्ट व्यक्ति को इसलिए नहीं निकाला जा रहा था कि उसने कोई एक बुरा काम किया था। परमेश्वर के घर में कोई व्यक्ति चाहे शारीरिक श्रम करता हो, कोई विशेष कर्तव्य करता हो, या तकनीकी कौशल से जुड़ा कोई कर्तव्य करता हो, किसी को भी केवल इसलिए बाहर नहीं किया जाता कि उसने इक्का-दुक्का मौकों पर कोई गलती की होती है। वे सभी कलीसिया के अगुआओं और भाई-बहनों द्वारा उनके संगत व्यवहार के संयुक्त निरूपण से गुजरते हैं, और उसी के आधार पर उनसे निपटा जाता है। उदाहरण के लिए, अगर कोई हमेशा काम करने के समय आलस्य दिखाता है और काम से बचने के बहाने बनाता है, तो क्या इस व्यवहार के आधार पर उसे बाहर कर देना उचित होगा? (हाँ, यह उचित है।) यह सही है, उचित है। उदाहरण के लिए, अगर तुम्हें सफाई करने के लिए नियुक्त किया गया है, और तुम अक्सर सूरजमुखी के बीज खाते रहते हो, चाय पीते रहते हो, अखबार पढ़ते रहते हो, और सूरजमुखी के बीज के छिलकों को इधर-उधर फेंकते रहते हो, तो क्या तुम अपनी जिम्मेदारियों की उपेक्षा नहीं कर रहे हो? न केवल तुम सफाई नहीं कर रहे हो, बल्कि और गंदगी भी फैला रहे हो, जिसका मतलब है कि तुम अपनी जिम्मेदारियों की उपेक्षा कर रहे हो। अगर तुम अपने काम में अक्षम हो, तो तुम्हें बाहर निकालना पूरी तरह से सिद्धांतों के अनुरूप है, और तुम्हें इस बारे में बहस नहीं करनी चाहिए। परंतु, कलीसिया के इस अगुआ ने दावा किया कि उस व्यक्ति की नीयत नेक थी, जिससे लोग गुमराह हुए। अगुआ द्वारा इस तरह से लोगों को भड़काया और गुमराह किया गया, तो उनमें से कुछ लोग उस अगुआ की बात मानने लगे, और वे एक आम सहमति पर पहुँचे। लेकिन जब उन्होंने ऐसे काम किया तो उन्होंने परमेश्वर और सत्य सिद्धांतों को कहाँ रखा? “हमारी कलीसिया” और “हमारा परमेश्वर का घर” जैसी बातें करते हुए वे एक परिवार की तरह हो गए। “कलीसिया” और “परमेश्वर के घर” को कैसे परिभाषित किया जाता है? क्या जहाँ परमेश्वर न हो, वहाँ परमेश्वर का घर हो सकता है? (नहीं।) यदि किसी स्थान पर परमेश्वर न हो, तो क्या वहाँ कोई कलीसिया हो सकती है या स्थापित की जा सकती है? (नहीं, ऐसा नहीं हो सकता।) तो, जब उन्होंने “हमारा” कहा तो इसका क्या मतलब था? इसका मतलब था कि वे परमेश्वर से अलग हो गए हैं। वह कलीसिया इस भ्रमित अगुआ की कलीसिया बन गई, वह उस कलीसिया का मालिक बन गया, जबकि उन तथाकथित भाई-बहनों और भ्रमित लोगों ने उसके साथ मिलकर एक गिरोह बना लिया और उसके साथ रिश्तेदारों जैसा व्यवहार करने लगे। उन्होंने खुद को परमेश्वर से दूर कर लिया, और इसलिए परमेश्वर ने एक भूमिका “परमेश्वर के घर” के बाहर की ग्रहण की। जब इस अगुआ ने इन परिस्थितियों में वह पहला वाक्यांश बोला तो इसके ये परिणाम हुए। हर कोई खास तौर से उसे यह सोचकर ठीक मानता था कि, “हमारी कलीसिया का अगुआ निष्पक्ष है, वह हमारे प्रति विचारशील है, हमारी कमजोरियों को माफ करता है, और यहाँ तक कि हमारे पक्ष में बोलता भी है। जब हम गलतियाँ करते हैं, तो परमेश्वर हमेशा हमें उजागर करता है और हमारी काट-छाँट करता है, लेकिन हमारा अगुआ हमेशा हमारी रक्षा करता है, ठीक वैसे जैसे कोई मुर्गी अपने चूजों की रक्षा करती है। उसकी मौजूदगी में हमारे साथ कुछ गलत नहीं होगा।” हर कोई उसका आभारी था। ये इस अगुआ द्वारा कही गई पहली बात के परिणाम थे।
आओ, इस अगुआ के दूसरे वाक्यांश के साथ आगे बढ़ते हैं। कलीसिया में बाहरी मामलों से संबंधित कुछ काम थे जिन्हें ज्यादातर लोग नहीं कर सकते थे या अपने कर्तव्यों में इतने व्यस्त थे कि वे उनका ध्यान नहीं रख पाते थे। कुछ नाम मात्र के विश्वासी थे जो बाहरी मामलों को सँभालने में माहिर थे, इसलिए परमेश्वर के घर ने कुछ धन आवंटित किया ताकि इन कामों की देखभाल के लिए किसी को लाया जा सके। कभी-कभी परमेश्वर का घर अपने ऐसे कुछ और कामों को सँभालने के लिए उस व्यक्ति पर थोड़ा ज्यादा पैसे खर्च करता था। मुझे बताओ कि क्या ऐसे मामलों को सँभालने के लिए परमेश्वर के घर की ओर से 200 युआन का अतिरिक्त व्यय करना सिद्धांतों का उल्लंघन करना था? उन मामलों को निपटाने का यही एकमात्र तरीका था, और इसके अच्छे परिणाम मिले, इसलिए उन्हें इसी तरह से सँभाला गया। उस व्यक्ति को 200 युआन का अतिरिक्त भुगतान देने से परमेश्वर के घर के लिए इन मामलों को सँभालना सुविधाजनक हो गया, और कई मुद्दे हल हो गए। क्या यह 200 युआन का अतिरिक्त खर्च उचित था? (यह खर्च किए जाने लायक था।) यह बिल्कुल इसके लायक था। इस तरह से काम करना उचित था। यदि परमेश्वर के घर ने 200 युआन किसी ऐसे व्यक्ति को दिए होते जो उन कार्यों को सँभाल नहीं पाता, तो वह केवल बर्बादी होती। उसे 200 युआन देने का मतलब था कि वे कार्य अच्छी तरह से पूरे किए जा सकते थे—तो क्या परमेश्वर के घर के लिए इस तरह से चीजों को सँभालना सिद्धांतों के अनुरूप था? (यह सिद्धांतों के अनुरूप था।) तो, क्या भाई-बहनों के साथ इस पर चर्चा या संवाद न करना सिद्धांतों के अनुरूप था? (यह सिद्धांतों के अनुरूप था।) क्या ऊपरवाले को इस तरह से चीजों को सँभालने का अधिकार है? (हाँ, है।) हाँ, यह निश्चित है। लेकिन इस कलीसिया अगुआ ने कहा, “भाइयों और बहनों ने कहा कि उस व्यक्ति को अतिरिक्त 200 युआन दिए गए थे...। मैं बस भाई-बहनों की ओर से इस मामले के बारे में पूछ रहा हूँ। वे यह सिद्धांत नहीं समझते, और हम यह खोजना चाहते हैं कि सत्य के इस पहलू पर कैसे संगति की जाए।” उसने केवल आधे-अधूरे वाक्यों में अपनी बात की थी। यह उसका दूसरा वाक्यांश था। जाहिर है, यह वाक्यांश एक सवाल था, जिसका अर्थ था, “तुम कहते हो कि तुम जो कुछ भी करते हो वह सिद्धांतों के अनुरूप होता है, लेकिन यह चीज ऐसी नहीं है, और कुछ भाई-बहनों की इसके बारे में कुछ राय और धारणाएँ हैं, इसलिए मुझे उनकी ओर से तुमसे इस बारे में सवाल करना होगा। तुम इसे कैसे समझाओगे? मुझे समझाओ।” यह एक सवाल है, है न? अब, आगे बढ़ो और विश्लेषण करो कि इसमें कितने संदेश निहित थे—जब तुम लोग इस तरह की बात सुनते हो, तो तुम्हारा क्या नजरिया होता है? इस मामले के आधार पर तुम इस व्यक्ति को कैसे देखते हो? (हे परमेश्वर, उसके इस वाक्यांश का लहजा प्रश्नवाचक था। वह परमेश्वर से प्रश्न कर रहा था। वास्तव में, इस मामले पर उसकी अपनी धारणाएँ थीं। उसने अपने सच्चे विचार व्यक्त नहीं किए, इसके बजाय उसने कहा कि भाई-बहन ऊपरवाले के फैसले को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे और कि उन लोगों की इस बारे में कोई राय थी। जब भाई-बहनों की कुछ धारणाएँ थीं, तो कलीसिया के अगुआ के रूप में उसे इस मुद्दे को हल करने के लिए उनके साथ सत्य पर संगति करनी चाहिए थी, लेकिन उसने न केवल इसे हल नहीं किया, बल्कि वह इन धारणाओं के साथ परमेश्वर से प्रश्न करने आ गया। उसमें कपटी और दुष्ट स्वभाव है।) दो बिंदुओं का उल्लेख किया गया है : एक यह कि वह ऊपरवाले से प्रश्न कर रहा था, और दूसरा यह तथ्य कि उसके भीतर पहले से ही धारणाएँ थीं, फिर भी उसने कहा कि “भाई-बहन सिद्धांतों को नहीं समझते, और वे उन्हें तलाशना चाहते हैं।” क्या इस वाक्यांश में कोई समस्या है? क्या वे भाई-बहन उसके लिए इतने महत्वपूर्ण थे? जब उसने भाई-बहनों के जीवन प्रवेश को इतना महत्वपूर्ण माना, तब उनमें इतनी दृढ़ धारणाएँ विकसित होने पर उसने उनका समाधान क्यों नहीं किया? क्या वह अपनी जिम्मेदारी की उपेक्षा नहीं कर रहा था? वह उपेक्षा कर रहा था। उसने इस मुद्दे को हल नहीं किया, और ऊपरवाले से सवाल करने के लिए बेशर्मी से अपने साथ भाई-बहनों की धारणाओं को भी लाया। तो, वह किस काम का था? किस चीज ने उसे सवाल करने योग्य बनाया? क्या उसकी भी धारणाएँ नहीं थीं? क्या उसके भीतर भी ऊपरवाले के फैसले के बारे में अपने विचार नहीं थे? क्या उसे भी नहीं लग रहा था कि इस मामले को अनुचित तरीके से सँभाला गया? वे 200 युआन उस पर खर्च नहीं किए गए, इसलिए उसे लगा कि उसने कुछ खो दिया, है न? उसने सोचा, “वह अतिरिक्त 200 युआन मुझे मिलने चाहिए थे, हम इसके हकदार हैं। वह छद्म-विश्वासी है, उसे यह नहीं मिलना चाहिए। हम सत्यनिष्ठा से परमेश्वर में विश्वास करते हैं और हम परमेश्वर के घर के लोग हैं, वह नहीं है।” क्या उसका यही मतलब नहीं था? (हाँ।) उसका यही मतलब था। और उसने यह बात सीधे नहीं कही; यह सब उसने हकलाते हुए बोला। यह सुनने के बाद, तुम लोग इसे समझ पाए या नहीं? पैसे खर्च करने के मामले पर तुम लोगों का क्या दृष्टिकोण है? ज्यादातर लोग यह छोटी-सी बात समझ सकते हैं। परमेश्वर के घर के विशाल कार्य को देखते हुए, क्या उस अगुआ को वास्तव में 200 युआन का अतिरिक्त खर्च किए जाने पर ध्यान देना चाहिए था? इसके अलावा, यह पैसा उसकी जेब से नहीं निकला था, तो उसे इस बारे में इतना दुःख क्यों हुआ? क्या उसे दूसरों को अच्छा इंसान बनते देखकर बस जलन नहीं हो रही थी? क्या उसका यही मतलब नहीं था? क्या तुम लोग वह समझ पा रहे हो जो मैंने तुम्हें अभी-अभी समझाया है? क्या तुममें से कोई ऐसा है जो असहमत हो, और कहे, “नहीं! हमारी जानकारी के बिना अतिरिक्त 200 युआन का खर्च—यह बहुत बुरा है कि हमें इसके बारे में जानने का अधिकार नहीं है। क्या यह परमेश्वर के घर के चढ़ावे को बरबाद करना नहीं है?” परमेश्वर के घर की अवधारणा क्या है? चढ़ावे की अवधारणा क्या है? मैं तुम्हें बता दूँ कि चढ़ावा हर किसी का नहीं होता, वह भाई-बहनों का नहीं होता; अगर उस जगह पर केवल भाई-बहन हों और परमेश्वर न हो, तो उसे परमेश्वर का घर नहीं कहा जाता। जब परमेश्वर प्रकट होता है और कार्य करता है, जब वह लोगों को अपने सामने बुलाता है और कलीसिया की स्थापना करता है तब वह परमेश्वर का घर होता है। जब भाई-बहन दशमांश देते हैं, तो वह परमेश्वर के घर को नहीं दिया जाता है, न ही कलीसिया को, और वह निश्चित रूप से किसी व्यक्ति को नहीं दिया जाता है। वे वह दशमांश परमेश्वर को देते हैं। सीधे शब्दों में कहें तो, वह धन परमेश्वर को दिया जाता है; यह उसकी निजी संपत्ति है। उसकी निजी संपत्ति का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि परमेश्वर इसे अपनी इच्छानुसार आवंटित कर सकता है, और वह अगुआ इसमें शामिल होने के योग्य नहीं था। मैं बता दूँ कि इस मामले में प्रश्न पूछना और सत्य की खोज करना हद से थोड़ा ज्यादा और अनावश्यक था; वह उसका नकलीपन और दिखावटीपन था! ऐसे कई महत्वपूर्ण मामले थे जिन पर इस अगुआ ने सत्य की खोज नहीं की थी, परंतु इस मामले में उसने सत्य को खोजना चाहा। उसने उस दुष्ट व्यक्ति को क्यों नहीं सँभाला? उसने यह कहते हुए सत्य की खोज क्यों नहीं की कि “इस व्यक्ति ने बुरा काम करने की कुछ अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित की हैं; सभी भाई-बहन उससे परेशान हो गए हैं। क्या मुझे इसे सँभालना नहीं चाहिए?” उस अगुआ ने इसके बारे में नहीं पूछा; इस दुष्ट व्यक्ति के प्रति उसने पूरी तरह से आँखें मूँद रखी थीं। क्या यह कोई समस्या नहीं है? इस अगुआ का बोला पहला वाक्यांश क्या था? (उसकी नीयत नेक थी।) “उसकी नीयत नेक थी।” देखो कि वह व्यक्ति कितना “दयालु” बन रहा था; कितना पाखंड है! वह दुष्ट था, फिर भी उसके शब्द दयालुता और नैतिकता से भरे थे; उसके शब्दों में शहद-सी मिठास थी, लेकिन उसके दिल में खंजर थे, और वह मनुष्य जैसा आचरण नहीं कर रहा था। उसका दूसरा वाक्यांश क्या था? “परमेश्वर के घर ने किसी व्यक्ति को एक कार्य पूरा करने के लिए अतिरिक्त 200 युआन दिए। मैं भाई-बहनों की ओर से यह खोजना चाहता हूँ कि हमें इस मामले में सिद्धांत कैसे समझना और बूझना चाहिए।” मैंने इस बात को एक पूर्ण कथन के रूप में रखा है; बेशक, उसने इसे ऐसे नहीं कहा था। वह हिचकिचाते हुए बोला था, जिससे यह समझना मुश्किल हो गया कि उसका क्या मतलब था। वह बस ऐसे ही बात करता था। यह उस अगुआ द्वारा बोला गया दूसरा वाक्यांश था।
अब उस अगुआ का बोला हुआ तीसरा वाक्यांश सुनो। सभी लोग मिलकर खुदाई का काम कर रहे थे। हर व्यक्ति को एक टोकरी मिट्टी भरने का काम सौंपा गया था। एक व्यक्ति था जिसने जल्दी-जल्दी काम किया और सबसे पहले काम खत्म कर दिया, फिर वहीं बैठकर उसने पानी पीया और आराम से बाकियों का इंतजार करने लगा। फिर, कुछ गड़बड़ हो गई। क्या गड़बड़ हुई? तीसरी समस्या उत्पन्न हुई। यह अगुआ एक बार फिर ऊपरवाले से पूछने आया, और कहा, “हमारे यहाँ एक व्यक्ति है जो तेजी से काम करता है और तेजी से आगे बढ़ जाता है, लेकिन उसके साथ एक बात गड़बड़ है। काम खत्म करने के बाद वह बस वहीं बैठा रहता है और किसी की मदद नहीं करता, इसलिए हर कोई उसके बारे में राय बनाने लगा है।” ऊपरवाले भाई ने पूछा, “क्या वह काम करने में आमतौर पर आलसी है?” इस अगुआ ने उत्तर दिया, “नहीं, वह आलसी नहीं है। वह बस तेजी से काम करता है, और काम खत्म करने के बाद वह बस वहीं बैठा रहता है, किसी की मदद नहीं करता, इसलिए भाई-बहन उसके बारे में राय बनाते हैं, वे कहते हैं कि उसमें करुणा नहीं है।” जब भाई-बहनों ने इसका उल्लेख किया, तो यह अगुआ परेशान हो गया। उसने सोचा, “अरे, देखो तो वह व्यक्ति कितना क्रूर है! मेरे भाई-बहन काम करते-करते थक गए हैं, वे धीरे-धीरे काम करते हैं, और कोई भी उनकी मदद नहीं कर रहा है।” पूरा समूह इससे परेशान था, इसलिए वह भी परेशान हो गया। उसका व्यवहार कितना “सहानुभूतिपूर्ण” था! वह यह अपने सिर पर यह “बोझ” लेकर इसकी सूचना ऊपरवाले तक ले गया। उसने पहली बात जो पूछी वह यह थी कि “क्या इस तरह के किसी व्यक्ति को दंडित किया जा सकता है?” मुझे बताओ, क्या तुम लोग सोचते हो कि इस तरह के किसी व्यक्ति को दंडित किया जा सकता है? (नहीं।) तो, इसे सुनकर तुम लोगों की क्या प्रतिक्रिया है? क्या तुम्हारे मन में इसके बारे में मिली-जुली भावनाएँ हैं? क्या तुम परेशान महसूस करते हो? (हाँ।) परमेश्वर के घर ने हमेशा संगति की है कि लोगों को सत्य समझना चाहिए और दूसरों के साथ निष्पक्ष व्यवहार करना चाहिए, लेकिन वह यह छोटी-सी बात भी नहीं कर सका। उसका मानना था कि उस व्यक्ति को दंडित करना उचित होगा। क्या यह दुष्टता नहीं है? (हाँ, यह दुष्टता है।) उसने सोचा, “मेरे भाई-बहन पीड़ित हैं, और उन्होंने मुझे रिपोर्ट की है कि इस व्यक्ति में करुणा नहीं है। एक अगुआ के रूप में मैं इन लोगों का हृदय कैसे जीतूँ, कैसे उन्हें शांत करूँ, उनकी रक्षा करूँ, उनके साथ कुछ गलत होने से या उन्हें कष्ट महसूस करने से कैसे बचाऊँ?” यह सोचकर कि उस व्यक्ति को दंडित करने से सभी का गुस्सा शांत हो जाएगा, और सब कुछ निष्पक्ष और न्यायसंगत हो जाएगा, अगुआ की पहली प्रतिक्रिया उस व्यक्ति को दंडित करने की थी। क्या वह ऐसा नहीं करना चाहता था? (हाँ।) उसने सोचा, “हम सभी एक जैसा खाना खाते हैं, एक ही जगह रहते हैं, और हम सभी के साथ एक जैसा व्यवहार किया जाता है। तुम्हें इतनी तेजी से काम करने का क्या अधिकार है? यदि तुम तेजी से काम करते हो, तो तुम दूसरों की मदद क्यों नहीं करते?” मुझे बताओ, यह सुनने के बाद लोगों को कैसा लगता है? “तेजी से काम करना पाप है। ऐसा लगता है कि हमें कभी भी तेजी से काम नहीं करना चाहिए—इस अगुआ के होते हुए तो हमें इससे कोई फायदा नहीं होगा। तेजी से काम करना अच्छा नहीं है, और न ही अग्रसक्रिय होना अच्छा है। धीमा होना ही उचित है!” ऊपरवाले ने अगुआ से पूछा, “जो लोग धीरे-धीरे काम करते हैं, उनका क्या? क्या तुम उन्हें पुरस्कार देते हो?” अगुआ को कोई जवाब नहीं सूझा, लेकिन वह उलझन में नहीं पड़ा। उसने कहा, “नहीं, मैं उन्हें पुरस्कार नहीं दे सकता। परंतु, जो आदमी तेजी से काम करता है, उसे दंडित किया जाना चाहिए। सभी भाई-बहन कहते हैं कि उसे दंडित किया जाना चाहिए।” यह वह वाक्यांश था जो उसने बोला था। मुझे बताओ, क्या यह वाक्यांश वास्तव में भाई-बहनों का प्रतिनिधित्व करता है, या यह खुद अगुआ का प्रतिनिधित्व करता है? (यह खुद उस अगुआ का प्रतिनिधित्व करता है।) आओ भाई-बहनों को इससे अलग रखते हैं—उनके बीच तो हर तरह के भ्रमित लोग हैं : जो सत्य से प्रेम नहीं करते हैं, जो कुटिल तरीके से बोलते हैं, जो स्वार्थी और केवल अपना ख्याल रखते हैं, जो बहस भड़काते हैं, जो बिना सिद्धांतों के बोलते हैं, और जो बिना नैतिक आधाररेखा के काम करते हैं। उनके बीच किस तरह का व्यक्ति नहीं पाया जा सकता? तो, एक कलीसिया के अगुआ के रूप में उसकी क्या जिम्मेदारी थी? क्या प्रभावशाली भाई-बहनों के लिए बोलना, इन दुष्ट प्रवृत्तियों और कुप्रथाओं का बचाव करना उसकी जिम्मेदारी थी? (नहीं।) तो फिर उसकी क्या जिम्मेदारी थी? जब उसे भाई-बहनों के बीच विकृति और विचलन के मुद्दों का पता चला, तो यह उसकी जिम्मेदारी थी कि वह सत्य का उपयोग करते हुए इन मुद्दों को हल करे, ताकि वे लोग समझ सकें कि समस्याएँ कहाँ हैं, और उनकी स्थितियों के साथ क्या समस्याएँ हैं ताकि उन्हें खुद को जानने और सत्य को समझने के लिए प्रेरित किया जा सके, और परमेश्वर के सामने लाया जाए। क्या यह किसी कलीसिया के अगुआ की जिम्मेदारी नहीं है? (हाँ, है।) क्या उसने इस जिम्मेदारी को पूरा किया? वह न केवल इसे पूरा करने में विफल रहा, बल्कि उसने उन दुष्ट प्रवृत्तियों और कुप्रथाओं को बढ़ावा दिया, उनकी रक्षा की, उन्हें उकसाया और कलीसिया में उन्हें फलने-फूलने और फैलने की अनुमति दी। क्या यह दुष्टता नहीं है? (हाँ।) मुझे बताओ, जब ऊपरवाला इस तरह के दुष्ट स्वभाव वाले व्यक्ति की काट-छाँट और उजागर करता है, तो क्या उनके हृदय में अवज्ञा के भाव होंगे? (हाँ।) वे निश्चित रूप से अवज्ञाकारी होंगे। क्या वे दूसरों के साथ ऊपरवाले द्वारा दिए गए सिद्धांतों के अनुसार निष्पक्ष व्यवहार करेंगे? बिल्कुल नहीं। तुम उसके बोले शब्दों से देख सकते हो कि वह पूरी तरह से कुटिल था। बाद में मैंने मन ही मन सोचा : “अगर जल्दी काम करने वालों को दंडित किया जाएगा, तो जल्दी काम करने की हिम्मत कौन करेगा? हर कोई कछुए की तरह धीमा हो जाएगा, तीन दिनों तक इधर-उधर भटकने के बाद भी नदी के किनारे पर न चढ़ सकने वाला बन जाएगा।” क्या चीजें ऐसी ही नहीं हो जाएँगी? लोगों के साथ निष्पक्ष व्यवहार करने में असमर्थ होने के अलावा, इस अगुआ का सबसे घातक और गंभीर पहलू जो लोगों को सबसे अधिक गुमराह कर सकता था, वह यह था कि चाहे भाई-बहन कितने भी बुरे काम करें या वे कितने भी गलत और बेतुके दृष्टिकोण फैलाएँ, वह न केवल उन्हें पहचानने और सुधारने में विफल रहा, बल्कि उसने उन्हें सिर चढ़ाया, उन्हें आश्रय दिया और यहाँ तक कि उन्हें खुश करने की भी कोशिश की। क्या वह एक खतरनाक व्यक्ति नहीं था? (वह खतरनाक था।) वह बेहद खतरनाक था! यह उस अगुआ द्वारा बोला गया तीसरा वाक्यांश था।
अब चौथे वाक्यांश पर चलते हैं। मैं अक्सर उस कलीसिया में जाता था जहाँ वह अगुआ प्रभारी था, और वहाँ कुछ मुर्गे-मुर्गियाँ रखे गए थे। हर बार जब मैं जाता था, तो वह एक मुर्गा मारता था। एक दिन मुर्गे का शोरबा पकाया जाता था; तो दूसरे दिन उसे लाल भूना जाता था; उसके अगले दिन उसे तंदूर किया जाता था। मैंने सोचा कि अगर मैं हर दिन वहाँ जाता रहा, तो वहाँ के मुर्गे-मुर्गियों का वह झुंड कुछ ही दिनों में खत्म हो जाएगा। ऐसा क्यों था? जब एक मुर्गा पकाया जाता था, तो कभी-कभी मैं उसका एक टुकड़ा खा लेता था, और कभी-कभी मैं नहीं खाता था, लेकिन इसकी परवाह किए बिना वे लोग उसे चट कर जाते थे, और हर बार एक पूरा मुर्गा खा लिया जाता था। बाद में, मैंने विचार किया कि हर बार जब मैं वहाँ जाता था, तो एक पूरा मुर्गा खाया जाता था। तो, उनके पास चाहे जितने भी मुर्गे क्यों न हों, इस तरह से खाए जाने पर वे लंबे समय तक नहीं चलेंगे। इसलिए, मैंने उस अगुआ से कहा कि आगे से वह मुर्गे-मुर्गियाँ न मारे। क्या ऐसा करना उचित नहीं था? (हाँ, यह उचित था।) अब, इस बात ने वास्तव में उसे मुश्किल में डाल दिया। वह एक प्रश्न लेकर सामने आया कि “अगर हम मुर्गों को नहीं मार सकते, तो ...” तुम्हें पता नहीं है कि उसने आगे क्या पूछा। आखिरकार अटकते-अटकते उसने क्या कहा? “तो तुम क्या खाना चाहते हो?” मैंने कहा, “क्या मुर्गों के अलावा खाने के लिए कुछ और नहीं है? क्या बगीचा तरह-तरह की सब्जियों से भरा नहीं है? मैं उनमें से कुछ भी खा सकता हूँ।” उसका मतलब था कि अगर उसे मुर्गों को मारने की अनुमति नहीं है, तब भी मुझे कुछ मांस की जरूरत होगी। क्या वह “विचारशील” नहीं था? मैंने कहा, “कैसा मांस! यदि तुम्हारे पास सब्जियाँ हैं तो मैं मांस नहीं खाऊँगा। अगर मैं तुमसे मुर्गा मारने के लिए न कहूँ, तो उन्हें मत मारो!” यह बात आसानी से समझ में आनी चाहिए थी, है कि नहीं? (हाँ।) लेकिन इस मामले में, यह एक दुविधा बन गई। मुर्गों को न मार पाने से वह वास्तव में असहज हो गया। उसने बहुत अजीब-सा व्यवहार करना शुरू कर दिया, जैसे उस पर कोई भूत-प्रेत चढ़ गया हो। चूँकि उस समय वह मुर्गा नहीं खा सका था, इसलिए अगली बार जब मैं वहाँ गया, तो उसने एक और सवाल पूछा, जो हमें पाँचवें वाक्यांश पर ले आया। सुनो कि कैसे उसके सवाल और भी ज्यादा हास्यास्पद होते गए। सवाल क्या था? उसने कहा, “चूँकि हम मुर्गों को नहीं मार सकते, और हम खरगोश भी पालते हैं—तो, क्या तुम उन्हें खाओगे?” इस पर मुझे वाकई गुस्सा आ गया। मैंने कहा, “हमारे पास जो छोटे खरगोश हैं, वे बहुत प्यारे हैं, उनकी आँखें चमकदार लाल और बिल्कुल सफेद फर हैं। वे इधर-उधर खेलते-कूदते आनंद ले रहे हैं। तुम हमेशा मांस खाने के बारे में क्यों सोचते रहते हो? क्या तुम बिना मांस खाए नहीं रह सकते?” मेरी समझ में नहीं आया। वहाँ की रसोई में कभी भी मांस की कमी नहीं होती थी; वहाँ ढेरों मुर्गे की टाँगें और सुअर के मांस थे। ऐसा नहीं था कि उसके खाने के लिए मांस नहीं था, तो वह खरगोशों को मारने और उनका मांस खाने के बारे में क्यों पूछता रहता था? मैंने बस इन शब्दों में जवाब दिया : “तुम्हें उन्हें मारने की अनुमति नहीं है! ये हत्याएँ किस लिए करनी हैं?” जब उसने मुझे इस तरह जवाब देते देखा, तो वह डर गया कि कहीं उसकी काट-छाँट न कर दी जाए और उसने कोई और सवाल पूछने की हिम्मत नहीं की। उसके बाद उसने क्या खाना बनाया? जून और जुलाई के मौसम में, बगीचे में हर तरह की चीजें थीं; पत्तेदार साग और फल देने वाली सब्जियाँ प्रचुर मात्रा में थीं। एक दिन, उस अगुआ ने व्यंजनों से भरी एक मेज तैयार की। उसने क्या तैयार किया? हल्के से तले हुए अंकुरित मूंग, अंकुरित सोयाबीन का सूप, मछली के साथ पकाया गया टोफू, हल्के तले हुए हरे मटर और अंडे और हल्के तले हुए वुड-ईयर मशरूम—मेज पर एक भी पत्तेदार हरी सब्जी नहीं थी। मैंने उन सभी सूखे व्यंजनों पर एक नजर डाली। मौसम के हिसाब से कुछ ताजा भोज्य पदार्थ खाने की जरूरत थी, लेकिन उसने जो खाना बनाया था वह पूरी तरह से बेमौसमी था। मैंने सोचा, क्या यह व्यक्ति दुष्ट नहीं है? बगीचे में हर तरह की सब्जियाँ थीं; उसने कुछ पत्तेदार सब्जियाँ क्यों नहीं बनाईं? अंत में, मैंने कहा कि उसे तुरंत बाहर कर दिया जाना चाहिए। उसके जैसा कोई व्यक्ति अगर खाना पकाने का प्रभारी होगा, तो लोगों को कभी भी मौसमी खाना नहीं मिलेगा। इसके बजाय, उन्हें हमेशा ऐसे खाद्य पदार्थ मिलेंगे जो बेमौसमी होंगे। क्या यह सामान्य बात है? यह निश्चित रूप से सामान्य बात नहीं है!
इस अगुआ द्वारा पूछे गए प्रश्नों और उसके खाना पकाने के तरीके के माध्यम से मैंने देखा कि पहली बात तो यह है कि उसका चरित्र खराब था; दूसरे, कि वह एक दुष्ट और धूर्त स्वभाव का था; और तीसरे, कि वह सत्य का अनुसरण नहीं करता था। परंतु, एक अप्रत्याशित बात भी थी; तुम इसे विचित्र भी कह सकते हो। अतीत में, जब भी इस कलीसिया में चुनाव होते थे, तो उसे सबसे अधिक वोट मिलते थे, और यहाँ तक कि पुनर्निर्वाचन में भी उसे ही सबसे अधिक वोट मिले थे। उस व्यक्ति के पक्ष में ऐसा क्या चल रहा था कि उसे बार-बार सबसे अधिक वोट मिल रहे थे? क्या यह स्थिति पैदा करने वाले कारण दोनों पक्षों में नहीं थे? (हाँ थे।) इससे संबंधित कारण दोनों पक्षों के पास थे। मुख्य कारण क्या थे? एक ओर, अधिकांश भाई-बहन सत्य का अनुसरण नहीं करते थे या उसे नहीं समझते थे, और वे लोगों को पहचान भी नहीं पाते थे। दूसरी तरफ, कलीसिया का यह अगुआ लोगों को गुमराह करने में बेहद सक्षम था। तुम लोग नहीं जानते कि यह व्यक्ति कौन था, तुमने नहीं देखा कि उसने क्या किया, और तुम नहीं जानते कि बंद दरवाजों के पीछे वह किस तरह का व्यक्ति था। लेकिन मैंने जिन मामलों पर बात की है, साथ ही उसके द्वारा बोले गए पाँच वाक्यांशों के आधार पर, तुम लोग उसे किस तरह का व्यक्ति कहोगे? क्या वह कलीसिया का अगुआ बनने के लिए उपयुक्त था? (नहीं।) तो फिर, वे भाई-बहन बार-बार उसे क्यों चुनते रहे? ऐसा इसलिए कि उसके पास रणनीतियाँ थीं और उसने इन लोगों को गुमराह किया था। वह उतना ईमानदार और व्यावहारिक बिल्कुल नहीं था जितना वह उपर से दिखता था; उसके पास निश्चित ही रणनीतियाँ थीं। बाद में, मैंने कहा कि उस कलीसिया में कोई भी व्यक्ति अगुआ के रूप में कार्य करने के लिए उपयुक्त नहीं था और किसी और को इस पद पर सेवा करने के लिए भेजा जाना चाहिए। लेकिन कुछ लोग समझ नहीं पाए; उन्हें लगा कि इस अगुआ को भाई-बहनों ने नहीं चुना है। “भाई-बहनों” को कैसे परिभाषित किया जाना चाहिए? क्या भाई-बहन सत्य का प्रतिनिधित्व करते हैं? क्या उन्हें इस तरह परिभाषित किया जाता है? (नहीं।) जब भाई-बहन सामूहिक रूप से कोई माँग, कोई विनियम, या कोई राय और कोई तर्क सामने रखते हैं, तो क्या ये चीजें आवश्यक रूप से सत्य के अनुरूप होती हैं? क्या परमेश्वर को पहले उनके मुद्दों पर विचार करना चाहिए और उनका ख्याल रखना चाहिए? क्या परमेश्वर ऐसा कर सकता है? (नहीं।) तो उनके साथ कैसा व्यवहार किया जाना चाहिए? इन भाई-बहनों को कैसे परिभाषित किया जाना चाहिए? उनमें से ज्यादातर अपने कर्तव्य, श्रम और काम करने के लिए तैयार हैं, लेकिन वे सत्य का अनुसरण नहीं करते। उनमें सत्य को समझने की क्षमता और काबिलियत नहीं है, वे मूर्ख, संज्ञाशून्य और मंदबुद्धि हैं, वे लोगों को पहचानने या मामलों की असलियत जानने में असमर्थ हैं, और वे स्वार्थी और मतलबी हैं। यद्यपि उनके कुछ इरादे अच्छे हैं और वे चीजों को त्यागने, खुद को खपाने और परमेश्वर के लिए मेहनत करने को तैयार होते हैं, लेकिन उनका घातक दोष क्या है? वे सत्य नहीं समझते या उसे स्वीकार नहीं करते। वे इस बात का पालन करते हैं कि “जो कोई भी मुझे खाना खिलाती है वह मेरी माँ है, और जो भी मुझे पैसे देता है वह मेरा पिता है।” जो कोई भी उनके लिए अच्छा है या उनके लिए फायदेमंद है, जो कोई भी उनकी ओर से बोलता है और उनकी रक्षा करता है, वही वह व्यक्ति है जिसे वे चुनते हैं। यदि ऐसे लोगों को अपना अगुआ चुनने की अनुमति दी जाए, तो क्या वे एक अच्छे अगुआ का चुनाव कर सकते हैं? वे ऐसा नहीं कर सकते। क्या वे अपने जीवन प्रवेश में कोई प्रगति कर सकते हैं? यदि ऊपरवाले ने उन्हें इतना स्वेच्छाचारी होने दिया, और लापरवाही से इतने बेधड़क काम करते रहने दिया, तो क्या यह गैर-जिम्मेदाराना नहीं होगा? (हाँ होगा।) वे भ्रमित थे, लेकिन ऊपरवाला भ्रमित नहीं था, और इन लोगों ने जिस अगुआ को चुना था उसे हटा दिया गया और उसके बदले किसी और को भेज दिया गया। भले ही ये लोग नए अगुआ को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे, किंतु अगर नया अगुआ कुछ वास्तविक काम करने में समर्थ हो तो वह लोगों को गुमराह करने वाले उस झूठे अगुआ से बहुत बेहतर होगा। यद्यपि इन भाई-बहनों ने ऊपरवाले की व्यवस्था को नहीं समझा, लेकिन एक दिन ऐसा आएगा जब वे कुछ सत्य समझेंगे और चीजों को कुछ समझ सकेंगे, और तब वे जान जाएँगे कि कौन अच्छा था और कौन बुरा। इस तरह से काम करके ऊपरवाला पूरी तरह से उनके लिए जिम्मेदारी ले रहा था। क्या ऐसा करना उचित था? (यह उचित था।) भले ही वे नहीं समझे, लेकिन उन्हें अपनी मर्जी से किसी को भी चुनने की अनुमति नहीं दी जा सकती थी। क्या वे विद्रोह करना चाहते हैं? अगर वे बुरा काम करना चाहते हैं, शैतान के साथी बनना चाहते हैं, तो वे पूरी तरह से नष्ट हो जाएँगे। इसीलिए, ऊपरवाले ने उनके लिए निर्णय लिया और दूसरा अगुआ चुना। लेकिन उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया; उन्होंने जोर देकर कहा कि उन्होंने जिस व्यक्ति को चुना है, वह उपयुक्त है। क्या यह दुष्टता नहीं है? वे हमेशा यह क्यों सोचते थे कि वह अच्छा था? उसमें ऐसा भी क्या अच्छा था? वे उसे रखने के प्रति इतने दृढ़ क्यों थे? वहाँ एक समस्या थी : उन्हें ज्ञान नहीं था कि उस झूठे अगुआ ने उन्हें गुमराह किया था और नुकसान पहुँचाया था। वे वास्तव में मूर्खों का समूह थे। मैंने इस मामले पर बात पूरी कर ली है। इस झूठे अगुआ जैसे लोगों को हम इस विषय का गहन-विश्लेषण करने के लिए एक विशिष्ट मामले के रूप में लेते हैं—ऐसा करना उचित है। आखिरकार, उनके स्वभाव में मौजूद दुष्टता अपने आप में विशिष्ट है।
जब मसीह-विरोधियों की सातवीं अभिव्यक्ति के भीतर दुष्टता पर हमारी संगति की बात आती है, तो इन विशिष्ट उदाहरणों को एकीकृत करने, उनका विश्लेषण करने और उनकी तुलना करने के माध्यम से, क्या यह विषय तुम्हें कुछ स्पष्ट हुआ है? यह व्यक्ति जिसकी मैंने अभी चर्चा की है, भविष्य में सत्य का अनुसरण करने में सक्षम होगा या नहीं, यह पता नहीं है और कुछ कहना मुश्किल है और हम अभी कोई निष्कर्ष निकालने से बचेंगे। परंतु, एक बात निश्चित है : उसका स्वभाव, सार और प्रकृति सभी कुछ दुष्टतापूर्ण थे। तो, उसे क्या प्रिय था? क्या उसे निष्पक्षता और धार्मिकता से प्रेम था? क्या उसे परमेश्वर द्वारा बोले गए विभिन्न सत्यों से प्रेम था? क्या वह एक ईमानदार व्यक्ति होना, दूसरों के साथ निष्पक्ष व्यवहार करना, सिद्धांतों के साथ काम करना और सत्य की खोज करना पसंद करता था? क्या वह इन चीजों से प्यार करता था? उसे इनमें से किसी से भी प्रेम नहीं था—यह एक सौ प्रतिशत निश्चित है। उसके बोले कुछ वाक्यांशों और उसके पूछे इन कुछ सवालों के माध्यम से वे चीजें उजागर हुईं जिन्हें वह अपने हृदय की गहराई में और पोर-पोर से प्रेम करता था। उनमें से एक भी चीज ऐसी नहीं थी जो सकारात्मक चीजों के साथ मेल खाती हो। वे कौन लोग थे जिन्हें वह पसंद करता था और जिनकी रक्षा करने के लिए वह तैयार था? उसने उन लोगों की रक्षा की जिन्होंने बुरे काम किए, जिन्होंने कलीसिया के काम में बाधा डाली, जिनमें निष्ठा बिल्कुल नहीं थी और जो अपने कर्तव्यों के पालन में कई बुरे कर्मों में लिप्त थे। उसने ऐसे लोगों को क्रोध या घृणा की दृष्टि से नहीं देखा; उसने उनके लिए आवाज भी उठाई और उनका बचाव भी किया। यह क्या प्रदर्शित करता है? कि वे एक ही तरह के थे : उनके हित समान थे और सार समान थे। वे सभी स्वाभाविक रूप से एक-दूसरे से सहमत थे, और वे एक ही तरह के सड़े लोग थे। जब कुछ भाई-बहन निरंतर परमेश्वर के वचनों और कार्यों के बारे में धारणाएँ और गलतफहमियाँ पाल रहे थे, तो यह अगुआ कैसा महसूस करता था? क्या इन मुद्दों को हल करने के लिए उसने कोई बोझ उठाया? (नहीं।) उसने यह बोझ नहीं उठाया; उसने इन मुद्दों पर काम नहीं किया या इन मामलों पर ध्यान नहीं दिया—उसने उनकी ओर से आँखें मूँद लीं। जब किसी ने परमेश्वर के नाम का अपमान किया, या परमेश्वर के घर के काम में गड़बड़ी की और बाधा पैदा की, जब कोई निष्ठाहीन हुआ और अपने कर्तव्य निर्वहन में बेपरवाही दिखाई, या परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाया और अपने कर्तव्य को करते हुए बाधाएँ पैदा की और क्षति की, या नकारात्मकता प्रकट की और धारणाएँ फैलाईं, तो क्या वह इनमें से किसी भी बात को समस्या के रूप में पहचान सका था? वह उन्हें समस्याओं के रूप में नहीं पहचान सका था; वह सोचता था, “इन मुद्दों का होना सामान्य है; कौन है जो भ्रष्टता प्रकट नहीं करता?” उसका निहितार्थ क्या था? उसका निहितार्थ था कि उन लोगों को इस तरह से कार्य करना चाहिए, क्योंकि तब वह इतना बुरा नहीं दिखेगा—वह “छिप” सकेगा और “सुरक्षित” रह सकेगा। क्या यह दुष्टता नहीं है? ये लोग लगातार गड़बड़ियाँ करते और बाधा पैदा करते रहे, और उसने उन्हें नहीं सँभाला। इसके आधार पर, मुझे बताओ, क्या उसके पास न्याय की भावना थी? क्या वह सत्य से प्रेम करता था? परमेश्वर के घर को वह कैसी जगह समझता था? वह नहीं चाहता था कि परमेश्वर का घर ईमानदार लोगों से भरा हो, जो परमेश्वर के प्रति वफादार हों, जो परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करते हों और अपने कर्तव्यों को करते हुए अपनी जगह जानते हों। वह नहीं चाहता था कि हर कोई खुलकर बात करे और परमेश्वर के वचनों के बारे में संगति करे, परमेश्वर के प्रति समर्पित हो और उसकी गवाही दे। वह नहीं चाहता था कि परमेश्वर के घर में हर कोई ऐसा हो। तो, वह चाहता क्या था? वह चाहता था कि हर कोई स्वार्थपूर्ण संबंध बनाए, एक-दूसरे के हितों की रक्षा करे, किसी को नुकसान न पहुँचाए, या किसी की काली करतूतों का पिटारा न खोले। वह चाहता था कि हर कोई एक-दूसरे की सुरक्षा करे और एक-दूसरे को आश्रय दे, दूसरों द्वारा की गई किसी भी गलत हरकत को बाहरी लोगों से छिपाए, और एकजुट मोर्चे की तरह काम करे। वह यही चाहता था। जब कोई व्यक्ति किसी दूसरे के गलत कामों और सच्ची परिस्थितियों को सबके सामने लाता है और इन बातों को सार्वजनिक करता है, सीधे बोलता है और सबको उनके बारे में बताता है, तो उसे ऐसे कार्यों से घृणा और वितृष्णा होती है। उसे पसंद था कि गलत काम छिपे रहें और उन पर पर्दा पड़ा रहे, झूठ उजागर न किए जाएँ, और जब कोई भी व्यक्ति छल-कपट में शामिल हो या परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाए, तो उससे सिद्धांतों के अनुसार न निपटा जाए। जिस कलीसिया की वह देखरेख करता था, उसमें परमेश्वर के वचनों और परमेश्वर के घर के प्रशासनिक आदेशों और कार्य व्यवस्थाओं का क्या हुआ? वे खोखले शब्द बन गए, और वे लागू नहीं किए जा सके। उन्हें लागू क्यों नहीं किया जा सका? क्योंकि उस अगुआ ने उन्हें रोक दिया; दीवार बन कर उसने उन्हें काट दिया। यही वह दुष्ट स्वभाव है जिसे मसीह-विरोधी तथ्यों को विकृत करने, कुछ खास रणनीतियाँ अपनाने और अपने लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु दूसरों को मूर्ख बनाने तथा धोखा देने के लिए कुछ खास योजनाओं और चालों का उपयोग करने के माध्यम से प्रकट करते हैं।
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