मद सात : वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं (भाग दो) खंड एक

परिशिष्ट : कनाडा में एक कलीसिया को संभाले जाने को लेकर लोगों की गलतफहमियों का समाधान

पिछली बार जब हम एकत्र हुए थे, तब कुछ असामान्य बात हुई थी। वह क्या थी? (वह कनाडा की एक कलीसिया को सँभालने से जुड़ा मसला था।) यह एक महीने पहले की बात है। क्या यह अभी भी तुम्हारी याद में ताजा है? (हाँ।) क्या इस मामले ने तुम लोगों की भावनाओं को बहुत ज्यादा उद्वेलित कर दिया? (हाँ।) जब कुछ कलीसियाओं या कुछ लोगों के साथ समस्याएँ उभरती हैं, तो मैं परिस्थितियों के आधार पर निर्णय लेता हूँ और सिद्धांतों के अनुसार उन्हें सँभालता हूँ; कनाडा की कलीसिया का मामला सँभालते हुए मूल रूप से यही हुआ था। तो मुझे बताओ कि जब कनाडा की कलीसिया में एक मसीह-विरोधी उभरा और उसने लोगों को गुमराह किया, तो मैंने मामले को जैसे सँभाला, वैसा तरीका मैंने क्यों अपनाया? इस पर तुम लोगों के क्या विचार हैं? जाहिर है, इसने कुछ लोगों को डरा दिया। इससे उन्हें डर क्यों लगा? कुछ लोग कहते हैं, “इसे बहुत कठोर तरीके से सँभाला गया। क्या यह इतना गंभीर था? इसे इस तरह से कैसे सँभाला जा सकता है? क्या इसे सिद्धांतों के अनुरूप सँभाला गया था? क्या इसे क्षणिक सनक के अनुसार नहीं सँभाला गया था? इसे इस तरह से सँभालने के क्या परिणाम होंगे? क्या उन लोगों ने जो किया, वह वास्तव में इतना गंभीर था? वहाँ लोगों से जो पूछताछ की गई, और उनके रवैये, बयानों और उनसे सुनी गई जानकारी के आधार पर ऐसा लगता है कि उनके साथ इतनी सख्ती से पेश नहीं आना चाहिए था, है न?” कुछ लोग ऐसे ही सोचते हैं। कुछ दूसरे लोग ऐसे भी हैं जो कहते हैं कि “शायद परमेश्वर के पास मामले से इस तरह से निपटने के अपने कारण और विचार थे।” वास्तव में वे विचार क्या हैं? क्या मामले को इस तरह से सँभालने के पीछे कोई मौलिक इरादा या कारण था? क्या उन लोगों से इस तरह से निपटना उचित था? (हाँ।) तुम सभी लोग कहते हो कि यह उचित था, इसलिए आज इस मामले पर चर्चा करते हैं और देखते हैं कि मामले को इस तरह से सँभालना क्यों उचित था, तुम लोग इस मामले के बारे में वास्तव में क्या सोचते हो, बाद में तुम लोगों पर इसका क्या प्रभाव पड़ता है, इसके बारे में तुम लोगों के विचार सही हैं या गलत, और तुम्हारे विचारों में कुछ गलत या विकृत है। यदि तुम लोग बातें हमेशा मन में दबाए रहते हो, अपनी बात कहने से कतराते हो और खुद को व्यक्त नहीं करते, हमेशा विरोधी महसूस करते हो, तो समस्याएँ कभी भी सर्वोत्तम तरीके से हल नहीं होंगी, और इसीलिए हमें आम सहमति पर पहुँचना जरूरी है। आम सहमति तक पहुँचने के क्या सिद्धांत हैं? यदि तुम लोग मेरे इस निर्णय को स्वीकार करने में असमर्थ हो, और इस बारे में तुम लोगों के कुछ विचार और धारणाएँ हैं, तुम इसे लेकर प्रतिरोधी महसूस करते हो, और यहाँ तक कि इसके बारे में गलतफहमियाँ पालते हो, और तुम्हारे मन में प्रश्न या कुविचार उठते हों, तो हमें क्या करना चाहिए? हमें इस मामले पर चर्चा करनी चाहिए। यदि हमारे विचार अलग-अलग हैं, तो हमारे बीच कोई आम सहमति नहीं है। फिर हम आम सहमति तक कैसे पहुँच सकते हैं? क्या अपने मतभेदों को बरकरार रखते हुए समान आधार की तलाश करना ठीक है? यदि हम किसी मतभेद को समझौते के माध्यम से सुलझाते हैं, यदि मैं कुछ पीछे हटता हूँ, और तुम लोग कुछ पीछे हटते हो, तो क्या यह ठीक होगा? स्पष्टतः ऐसा करना ठीक नहीं है। यह अनुरूपता पाने का तरीका नहीं है। इसलिए, यदि हम आम सहमति और इस मामले पर एक एकरूप समझ और निर्णय पर पहुँचना चाहते हैं, तो ऐसा करने का तरीका क्या है? तुम लोगों को सत्य की तलाश करनी चाहिए, सत्य के लिए प्रयास करना चाहिए, और सत्य समझने का प्रयास करना चाहिए, और मेरे लिए यह आवश्यक है कि मैं सभी को पूरी कहानी समझाऊँ और स्थिति स्पष्ट करूँ। किसी को भी अपने हृदय में इस बाबत कोई गलतफहमी नहीं रखनी चाहिए। इस तरह, हम मामले के बारे में एक एकरूप दृष्टिकोण पर पहुँचेंगे, तब यह मामला खत्म हो जाएगा। अगर भविष्य में मेरे सामने ऐसा ही कोई मामला आता है, तो शायद मैं इसे उसी तरह से सँभालूँ, या शायद मैं इसे उस तरह से न सँभालूँ, बल्कि इसके बजाय किसी दूसरे तरीके का इस्तेमाल करूँ। तो, इस मामले से तुम लोगों को क्या हासिल करना चाहिए? (हमें सत्य की खोज करने का तरीका सीखना चाहिए और समझना चाहिए कि परमेश्वर ने इस मामले को इस तरह से क्यों सँभाला।) बहुत अच्छी बात है कि तुमने दो पहलुओं का उल्लेख किया है। इसका क्या कोई और पहलू है? (हमें परमेश्वर के कार्यों के सिद्धांतों को समझने का प्रयास करना चाहिए ताकि हम परमेश्वर के स्वभाव को ठेस न पहुँचाएँ। यह हमारे लिए एक चेतावनी है।) यह एक और पहलू है।

कनाडा की कलीसिया को जैसे सँभाला गया, उसे समझाने के लिए हमें आरंभ से बात करनी चाहिए। हमें किससे शुरू करना चाहिए? हम तब से शुरू करेंगे जब ये लोग चीन छोड़ कर गए थे। क्या वहाँ से शुरू करना बहुत पीछे तक जाना है? तुम लोगों को यह मजेदार लग सकता है, लेकिन वास्तव में यह हँसने का मुद्दा नहीं है। क्या यह पुरानी खुन्नस निपटाने का मामला है? नहीं, ऐसा नहीं है। जब तुम लोगों को मैं कारणों के बारे में बताऊँगा, तो तुम्हें पता चल जाएगा कि मैं वहाँ से क्यों शुरू कर रहा हूँ। इस बात को एक तरफ रखकर कि क्या विदेश आने वाला हर व्यक्ति एक आदेश, एक मिशन और एक जिम्मेदारी लेकर आता है, हम एक छोटे से मुद्दे से शुरू करेंगे—क्या यह संयोगवश है कि हर व्यक्ति चीन छोड़ने में सक्षम हो पाता है? (नहीं।) ऐसा संयोगवश नहीं होता। मुझे बताओ कि तुममें अपने कर्तव्य-निर्वाह के लिए चीन छोड़ने का संकल्प और इच्छा होने से लेकर विदेश पहुँचने तक की पूरी प्रक्रिया के दौरान, तुम्हारे सहयोग के अलावा, यह कौन तय करता है कि तुम आसानी से चीन छोड़ सकते हो या नहीं? (परमेश्वर।) सही कहा। यह इस बात से तय नहीं होता कि तुम्हारे किन लोगों से सामाजिक संबंध हैं, न ही यह इस बात से तय होता है कि तुम्हारे पास कितना पैसा है, या तुमने सभी औपचारिकताएँ पूरी की हैं या नहीं—विदेश आने वाले सभी लोगों में एक साझा समझ और अनुभव होना चाहिए। वे सभी लोग क्या अनुभव करते हैं? परमेश्वर इस बात पर संप्रभु है कि कोई व्यक्ति आसानी से चीन छोड़ सकता है या नहीं; इसका इस बात से कोई लेना-देना नहीं है कि वे कितने सक्षम हैं या उनमें कोई महान योग्यता है या नहीं। यह किसी देश में एक प्रांत से दूसरे प्रांत में जाना नहीं है; यह अपने देश को छोड़ना है, और इसमें कई जटिल औपचारिकताएँ पूरी करनी होती है। विशेष रूप से इस युग में जब बड़ा लाल अजगर विश्वासियों पर पागलों की तरह अत्याचार कर रहा है, पीछे पड़ा है और उन सब पर बारीकी से नजर रख रहा है, चीन छोड़ने की औपचारिकताओं को पूरा करना इतना आसान नहीं है। इसलिए, इन लोगों का आसानी से विदेश पहुँचना पूरी तरह से परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन था और यह परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता को प्रकट करता है। कौन चीन छोड़ सकता है, औपचारिकताएँ आसानी से पूरी हो जाती हैं या नहीं, और उन्हें सँभालने में कितना समय लगता है, यह सब परमेश्वर द्वारा निर्धारित किया जाता है, और परमेश्वर ही यह सब योजना बनाता और व्यवस्थित करता है। तुम लोगों के इस पर विश्वास न करने या इस बात को स्वीकार न करने से काम नहीं चलेगा—ये तथ्य हैं। मामले का समापन लोगों के सहयोग और परमेश्वर की संप्रभुता से होता है। अगर हमें तुम्हारे चीन छोड़ने के बारे में निर्णय लेना हो, तो वह कौन था जिसने इसे संभव बनाया? (परमेश्वर ने।) यह परमेश्वर ने किया। इसमें ऐसा कुछ नहीं है कि कोई अपनी डींग हाँके, बल्कि उन्हें परमेश्वर को धन्यवाद देना चाहिए। तो, तुम्हें क्या करना चाहिए? (अपना कर्तव्य निभाने में मेहनत करनी चाहिए।) तुम्हें अपना कर्तव्य करने में मेहनत करनी चाहिए और इसे एकाग्र मन से करना चाहिए। व्यापक दृष्टिकोण से देखें तो क्या हम अंतिम रूप से निर्धारित करके कह सकते हैं कि अपने कर्तव्य-निर्वाह के लिए तुम्हारा चीन छोड़ना परमेश्वर की व्यवस्था और मार्गदर्शन के कारण हुआ, न कि तुम्हारी अपनी योग्यता के कारण? (हाँ, हम ऐसा कह सकते हैं।) कुछ लोग कहते हैं, “यह मेरी क्षमता के कारण कैसे नहीं हुआ? यद्यपि मुझे परमेश्वर का मार्गदर्शन मिल रहा था, लेकिन अगर परमेश्वर ने मेरा मार्गदर्शन नहीं किया होता, तो भी चीन छोड़ना मेरे लिए मुश्किल नहीं होता क्योंकि मैं एक स्नातक हूँ और मेरे पास अंग्रेजी में TEM8 योग्यता है, और TOEFL परीक्षा पास करने में मुझे कोई समस्या नहीं होती।” बहुत कम लोग ऐसी स्थिति में हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोग धनी हैं और निवेशक वीजा पर प्रवास कर सकते हैं, लेकिन ऐसी परिस्थितियाँ बहुत कम और दुर्लभ होती हैं। तो, क्या इन लोगों का चीन छोड़कर जाना परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन और उसकी अनुमति से होता है? हाँ, ऐसा ही होता है। हम व्यक्तिगत स्थितियों के विस्तार में नहीं जाएँगे; हम केवल उन लोगों के बारे में बात करेंगे जो चीन छोड़कर जा सकते हैं और बाद में ईमानदारी से अपना कर्तव्य निभाने आते हैं। ऐसा पूरी तरह से उनके अपने इरादों से नहीं होता। चीन छोड़ने का एक पहलू यह है कि तुम्हारा एक मिशन है, जबकि दूसरा पहलू यह है कि तुमने परमेश्वर के मार्गदर्शन में चीन छोड़ा है। पूरे मामले को इस बिंदु से देखा जाए, तो तुम क्या करने के लिए चीन छोड़कर गए हो? (अपना कर्तव्य निभाने।) शुरुआती चरणों में प्रक्रियाओं को पूरा करने में कितना भी समय लगे, तुम कितना भी खपो या परमेश्वर इस मामले पर कैसे भी संप्रभुता रखता हो, जो भी हो, चूँकि तुम चीन छोड़ सकते हो और परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभा सकते हो, इसलिए हम निश्चितता के साथ कह सकते हैं कि विदेश में तुम्हारा एक मिशन है। तुम एक जिम्मेदारी और भारी बोझ उठाते हो, और विदेश आने का तुम्हारा लक्ष्य बहुत स्पष्ट होगा। पहली बात यह है कि तुम जीवन का आनंद लेने विदेश आए आप्रवासी नहीं हो; दूसरे, तुम आजीविका के स्रोत की तलाश में विदेश नहीं आए हो; तीसरे, तुम जीवन जीने के एक अलग तरीके की तलाश में विदेश नहीं आए हो; और चौथे, तुम अच्छा जीवन जीने के उद्देश्य से विदेश नहीं आए हो। क्या ऐसा नहीं है? तुम दुनियावी चीजें हासिल करने के लिए विदेश नहीं आए हो; तुम एक मिशन और परमेश्वर के आदेश के साथ अपना कर्तव्य निभाने के लिए आए हो। इस बिंदु से देखें तो, विदेश आते समय तुम्हारी सर्वोच्च प्राथमिकता क्या होनी चाहिए? (अपना कर्तव्य निभाने की।) तुम्हारी सर्वोच्च प्राथमिकता परमेश्वर के घर आना और अपना स्थान पाना, और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं के अनुसार जमीनी और सद्व्यवहारी तरीके से अपना कर्तव्य निभाना है। क्या यह बात सही नहीं है? (हाँ, यह सही है।) यह सही है। इसके अलावा, तुम इसलिए भी विदेश नहीं आए हो कि किसी ने तुम्हें धमकाया था या तुम्हारा अपहरण किया था—तुम स्वेच्छा से आए। तुम इसे चाहे जिस भी पहलू से देखो, तुम विदेश आए हो, इसलिए तुम्हें अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। यह सही बात है, है न? क्या यह लोगों से कोई बड़ी माँग करना है? (नहीं।) यह बड़ी माँग नहीं है, न ही यह हद से ज्यादा है। यह अनुचित नहीं है। अब, मैंने अभी-अभी जो कहा है, उसके आधार पर तुम्हें अपने कर्तव्य से कैसे पेश आना चाहिए और परमेश्वर ने तुम्हें जो आदेश दिया है उसे पूरा करने के लिए तुम्हें अपना कर्तव्य कैसे निभाना चाहिए? क्या तुम्हें इन बातों के बारे में सोचना चाहिए? सबसे पहले तुम्हें सोचना चाहिए, “मैं अब एक साधारण व्यक्ति नहीं हूँ, अब मेरे कंधों पर एक बोझ है। कैसा बोझ? यह वह बोझ, वह आदेश है, जो परमेश्वर ने मुझे दिया है। परमेश्वर ने विदेश आने के लिए मेरा मार्गदर्शन किया, और मुझे परमेश्वर के सुसमाचार के प्रसार में किसी सृजित प्राणी द्वारा निभाई जाने वाली जिम्मेदारियों और दायित्वों को पूरा करना चाहिए—यह मेरा कर्तव्य है। सबसे पहले मुझे सोचना चाहिए कि मैं क्या कर्तव्य कर सकता हूँ, और दूसरे, मुझे सोचना चाहिए कि उस कर्तव्य को अच्छी तरह से कैसे निभाऊँ ताकि मुझ पर परमेश्वर की संप्रभुता और मेरे लिए उसकी व्यवस्थाओं पर खरा उतरने में मैं विफल न हो जाऊँ।” क्या तुम्हें ऐसे नहीं सोचना चाहिए? क्या ऐसे सोचना हद से ज्यादा सोचना है? क्या यह झूठ है? नहीं, ऐसा नहीं है; यह कुछ ऐसा है जिसके बारे में तार्किकता, मानवता और जमीर वाले व्यक्ति को सोचना चाहिए। अगर कुछ लोग कहते हैं, “विदेश आने के बाद मैंने पाया कि यह वैसा नहीं है जैसा मैंने सोचा था, और मुझे आने का पछतावा है,” ये लोग किस तरह की चीजें हैं? ऐसे लोगों में कोई मानवता नहीं है और उनकी आस्था खंडित हो गई है। परंतु, विदेश आने वाले अधिकांश लोग अपना कर्तव्य निभाने के लिए खुद को समर्पित करने के इच्छुक होते हैं। इतना काफी है। अब आओ इसे कनाडा की कलीसिया के मामले से जोड़ें। कनाडा की कलीसिया के लोग भी इससे अलग नहीं हैं। क्या यह संयोग से हुआ कि वे कनाडा गए? यह संयोग से नहीं हुआ, यह अपरिहार्य था। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ कि यह अपरिहार्य था? मैं ऐसा इसलिए कहता हूँ क्योंकि परमेश्वर ने बहुत पहले ही निर्धारित कर दिया था कि कौन-से लोगों को किस देश में जाना है, और यह “अपरिहार्यता” परमेश्वर द्वारा संप्रभुतापूर्वक शासित थी। जब परमेश्वर संप्रभुतापूर्वक आदेश देता है कि तुम्हें किसी देश में जाना है, तो ऐसा ही होता है। कनाडा की कलीसिया के लोगों के पास भी एक मिशन था और वे परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था द्वारा विदेश आए थे। परमेश्वर ने उन्हें कनाडा भेजा, और उनकी प्रतिभाओं और उनके पेशेवर कौशल तथा खूबियों आदि के आधार पर, कलीसिया ने उन्हें विभिन्न कार्यस्थलों पर नियुक्त किया, और उन्हें उनका कर्तव्य करने की अनुमति दी। उन्होंने शुरू से ही अपना कर्तव्य कुछ हद तक अनम्यता से निभाया। “अनम्यता” से मेरा मतलब यह नहीं है कि वे सुस्त और धीमे थे, बल्कि यह कि भले ही उनमें से अधिकांश अपना कर्तव्य निभाने आए थे, लेकिन वे सत्य का अनुसरण नहीं कर रहे थे। मैं क्यों कहता हूँ कि उन्होंने सत्य का अनुसरण नहीं किया? जब उनके सामने समस्याएँ आईं, तो उन्होंने सत्य की खोज नहीं की, और न ही अपने कार्यों में सिद्धांतों की तलाश की। कभी-कभी, जब ऊपरवाले ने उनके लिए कुछ व्यवस्था की या उन्हें कुछ करने के लिए कहा, तो उन्होंने सहयोग नहीं किया—यही रवैया उन्होंने अपने कर्तव्य करते हुए अपनाया। वे ऐसे ही अनमने ढंग से आगे बढ़ते रहे और उनका कर्तव्य प्रदर्शन दोषपूर्ण स्थिति में पहुँच गया, पूरी तरह से गड़बड़ा गया। इन लोगों के कलीसियाई जीवन या जीवन प्रवेश के बारे में कुछ भी अच्छा नहीं था, उनके कर्तव्य का प्रभाव बुरा था, सत्य पर उनकी संगति में कोई वास्तविकता नहीं थी, और वे झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों को बिल्कुल भी पहचान नहीं पाते थे—उनके किसी भी काम में कुछ भी अच्छा नहीं था। जैसे-जैसे समय बीता, यान नाम का एक मसीह-विरोधी उभरा, और वे इस मसीह-विरोधी के साथ एक हो गए। “वे एक हो गए” का क्या अर्थ है? यह मसीह-विरोधी 26 साल का युवा था, जो कलीसिया में ढाई साल से काम कर रहा था। उस दौरान, उसने कई बहनों को आकर्षित किया था, शायद 10 से ज्यादा। इनमें से कुछ लोग उसे बहुत पसंद आ गए और कुछ नहीं, और उन लोगों को नजरअंदाज करता था, फिर भी वे सभी लोग इस मसीह-विरोधी को पूजते थे। ढाई साल पहले, कनाडा की कलीसिया के लोग अपने कर्तव्य-निर्वाह में ज्यादा अच्छे नहीं थे और बेजान-सी अकर्मण्यता की स्थिति में थे। ऊपरवाले ने उनके लिए जो भी काम तय किया, उन्होंने उसे अनमने ढंग से किया और असहयोग करते रहे, और दिए गए काम को लागू करवाने के लिए बहुत ज्यादा प्रयास करने पड़े। ऊपरवाले ने जब उनकी काट-छाँट की, तो वे घोर निराशा का शिकार हो गए, उनका मूड खराब हो गया, वे ऊपरवाले से बहुत कम मौकों पर संवाद करते थे, और काम के प्रति उनका रवैया भी बहुत हताश हो गया था। यान नामक मसीह-विरोधी के अगुआ बनने के बाद, उनकी स्थिति दिन-ब-दिन खराब होती गई, और उनमें से ज्यादातर निरुद्देश्य होकर दिन काट रहे थे। वे इस तरह निरुद्देश्य होकर काम करने की स्थिति में क्यों पहुँच गए थे? इसका संबंध किस बात से था? एक वस्तुनिष्ठ कारण यह हो सकता है कि इसका संबंध अगुआओं से था। उनके पास अच्छे अगुआ नहीं थे, उनका कोई भी अगुआ सत्य का अनुसरण नहीं करता था, बल्कि इसके बजाय वे पारस्परिक संबंध बढ़ाने और कुटिल गतिविधियों में संलग्न रहते थे। और, व्यक्तिपरक कारण क्या था? वह यह था कि उनमें से कोई भी सत्य का अनुसरण नहीं कर रहा था। क्या सत्य का अनुसरण न करने वाले ऐसे लोगों के गिरोह के लिए, अपने कर्तव्य का वफादारी और मानक स्तर के तरीके से निर्वाह करना आसान है? (नहीं।) किंतु, क्या सत्य का अनुसरण न करने वालों के गिरोह और कुछ छद्म-विश्वासियों के लिए कुटिल गतिविधियों में संलग्न होना, अनमना रहना और ऊपरवाले का विरोध करना आसान है? (हाँ।) और ऐसे लोगों के गिरोह के लिए नीचे गिरना और गैर-विश्वासियों की तरह पतित हो जाना आसान है? यह बहुत आसान है, और यही वह मार्ग था जिसका वे अनुसरण कर रहे थे। अपना कर्तव्य करने की आड़ में वे परमेश्वर के घर का खाना खाते थे, परमेश्वर के घर के स्वामित्व वाले आवास में रहते थे, और परमेश्वर का घर उन्हें सहारा देता था। उन्होंने परमेश्वर के घर से धोखे से भोजन-पानी पाया, फिर भी वे स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने और पुरस्कार पाने की उम्मीद करते थे—वे इस तरह की चालबाजी पर निर्भर होकर जीवनयापन कर रहे थे। जब मसीह-विरोधी ने कलीसिया के काम में बाधा डाली, तो उनमें से किसी एक ने भी ऊपरवाले को कोई समस्या नहीं बताई। केवल एक महिला ने एक झूठे अगुआ को समस्या बताई, और इसका परिणाम यह हुआ कि मामला हल नहीं हुआ। अन्य लोग अंधे थे, और कलीसिया में इतनी सारी समस्याएँ पैदा होते देखकर भी उन्होंने उनकी रिपोर्ट नहीं की। परमेश्वर के घर की कार्य व्यवस्थाओं में अगुआओं और कार्यकर्ताओं को सेवामुक्त करने के सिद्धांत स्पष्ट रूप से बताए गए हैं, लेकिन किसी ने भी उन पर ध्यान नहीं दिया, बल्कि उस मसीह-विरोधी के साथ निरुद्देश्य होकर दिन गुजारते रहे। इन छद्म-विश्वासियों में, एक तरफ वे लोग थे जो 20 से अधिक वर्षों से परमेश्वर पर विश्वास कर रहे थे, और दूसरी तरफ वे लोग थे जो कम से कम पाँच वर्षों से विश्वास कर रहे थे, और किसी ने भी इन समस्याओं की सूचना नहीं दी। लेकिन इससे भी बुरा क्या था? वहाँ कई महिला टीम लीडर और डिप्टी टीम लीडर थीं जो इस मसीह-विरोधी के साथ इश्कबाजी करती थीं, और उसका ध्यान आकर्षित करने के लिए एक-दूसरे से होड़ करती थीं। जब कोई पुरुष और महिला एक-दूसरे को डेट करना शुरू करते हैं, तो वयस्क और बुजुर्ग इसे एक नजर में आसानी से देख लेते हैं। पुरुषों और महिलाओं के बीच संबंधों के मामले में सभी लोग संवेदनशील होते हैं, और वे एक नजर में ही जान सकते हैं कि क्या चल रहा है। परंतु, किसी ने इसकी रिपोर्ट नहीं दी, कोई भी उन्हें फटकारने या उजागर करने के लिए खड़ा नहीं हुआ, और कोई भी उन्हें पहचान नहीं सका। यह देखते हुए कि वे मसीह-विरोधी की अगुआई वाला गिरोह थे, क्या कोई आगे आया और बोला, “मैं तुम लोगों का अनुसरण नहीं कर सकता। मुझे इसकी रिपोर्ट उच्च अगुआओं को देनी चाहिए और तुम लोगों को बर्खास्त करवा देना चाहिए, या फिर तुम लोगों को निकाल बाहर करने के लिए न्याय की भावना रखने वाले कुछ भाई-बहनों को संगठित करना चाहिए”? नहीं, किसी ने ऐसा नहीं किया। इस मामले के उजागर होने तक किसी ने इसकी रिपोर्ट नहीं की। ये किस तरह के लोग थे? क्या वे परमेश्वर के सच्चे विश्वासी थे? क्या वे सत्य का अनुसरण करने वाले लोग थे? (नहीं।) उनकी नाक के नीचे इतनी बड़ी बात हो रही थी और उन्हें इसकी जानकारी भी नहीं थी, क्या सत्य का अनुसरण न करने वाले ये लोग अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करने में सक्षम थे? अपने कर्तव्य के प्रति उनका रवैया कैसा था? स्पष्टतः वे केवल मुफ्तखोर थे, जो दिन-ब-दिन मुफ्तखोरी करते थे। उनका मानना था कि वे परमेश्वर के घर में आसानी से निरुद्देश्य जीवन बिताते रह सकते हैं, अगर कोई समस्या नजर आए तो भी किसी को कुछ नहीं कहना चाहिए, किसी को किसी को नाराज नहीं करना चाहिए, और अगर वे “बॉस” को नाराज करते हैं, तो बहुत बुरा होगा, और उनके लिए इसके परिणाम बुरे होंगे। अगर तुम लोगों को नाराज करने से डरते हो और ऐसा करने की हिम्मत नहीं करते, तो क्या तुममें परमेश्वर को नाराज करने की हिम्मत है? अगर तुम परमेश्वर को नाराज करते हो, तो क्या परिणाम तुम्हारे लिए अच्छे होंगे? परमेश्वर तुमसे कैसे निपटेगा? क्या उसके परिणाम नहीं होंगे? (हाँ, होंगे।) उसके परिणाम होंगे। निश्चित रूप से यह कोई मुख्य कारण नहीं था कि वे किसी को ठेस पहुँचाने से डरते थे। मुख्य कारण यह था कि वे दुष्ट लोग थे जिन्हें सत्य से कोई प्रेम नहीं था। सत्य का अनुसरण न करने के अलावा, उन्होंने कई मूर्खतापूर्ण काम भी किए। कनाडा की कलीसिया में बहुत ज्यादा लोग नहीं थे, फिर भी उनकी बहुत बड़ी-बड़ी महत्वाकांक्षाएँ थीं। उनके कर्तव्य प्रदर्शन का स्पष्ट रूप से कोई परिणाम नहीं मिल रहा था, फिर भी वे अपने काम के दायरे का विस्तार करना चाहते थे और संपत्तियाँ खरीदने में व्यस्त थे, लेकिन अंत में व्यर्थ में एक संपत्ति के लिए पेशगी का भुगतान किया। अब इनमें से अधिकांश लोगों को अलग-थलग कर दिया गया है। मुझे बताओ, ऐसे लोग क्या हैं? क्या वे जंगली जानवरों और दुष्टों का झुंड नहीं हैं? स्पष्टतः, वे कुछ भी नहीं हैं, फिर भी उन्होंने चढ़ावे को इस तरह से बर्बाद कर दिया। कोई भी परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा नहीं कर रहा था, किसी में न्यायप्रियता नहीं थी—वे केवल राक्षसों का एक समूह हैं! यह वास्तव में क्रोध दिलाने वाली बात है!

कनाडा की कलीसिया में बहुत ज्यादा लोग नहीं थे, मात्र कुछ सौ लोग थे। वे अपने कर्तव्य-निर्वहन का ज्यादा प्रयास नहीं करते थे, अपने कर्तव्य की उपेक्षा करते थे और गुटबाजी करते थे, सभी निरुद्देश्य होकर दिन काट रहे थे। क्या यह क्रोधित करने वाली बात नहीं है? वे काम में अक्षम थे और कोई प्रगति नहीं कर पाए, वे सभी एक साथ मिलकर काम नहीं कर रहे थे और उन्होंने सामंजस्यपूर्ण ढंग से सहयोग नहीं किया। अगुआ कुछ दूसरे लोगों के साथ मिल कर कुटिल गतिविधियों में लगे हुए थे, और किसी में भी कोई तत्परता नहीं थी, किसी को भी गुस्सा नहीं आया, और न ही किसी को भी इन बातों से कोई दुःख हुआ। किसी ने इस मामले पर प्रार्थना नहीं की, न ही उन्होंने ऊपरवाले से खोज की या सहायता की माँग की। किसी ने ऐसा नहीं किया, और कोई भी यह कहने आगे नहीं आया कि, “यह ठीक नहीं है कि हम अपने कर्तव्य ऐसे कर रहे हैं। हम जो कर्तव्य कर रहे हैं, वह हमें परमेश्वर से मिला आदेश है, और हम परमेश्वर को निराश नहीं कर सकते!” उनके पास किसी चीज की कमी नहीं थी, उनके पास पर्याप्त लोग थे, और पर्याप्त उपकरण थे। उनके पास किस चीज की कमी थी? उनके पास अच्छे लोगों की कमी थी। कोई भी कलीसिया के काम को लेकर बोझ वहन नहीं करता था, न ही कोई परमेश्वर के घर के काम की रक्षा कर सकता था, न कोई आगे आकर बोल सकता था, न ही पहचानने के बारे में सत्य पर संगति कर सकता था, ताकि सभी लोग उठकर झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों को पहचान सकें और उन्हें उजागर कर सकें; किसी ने ऐसा नहीं किया। क्या ऐसा इसलिए था क्योंकि ये दुष्ट लोग अंधे थे और नहीं देख पा रहे थे कि क्या हो रहा है, या इसलिए कि वे काबिलियत की कमी और अधिक उम्र के कारण भ्रमित थे? (दोनों में से कोई भी कारण नहीं था।) कारण इनमें से कोई नहीं था। तो असली स्थिति क्या थी? वे सभी मसीह-विरोधी के साथ थे, सभी एक-दूसरे का बचाव करते हुए एक-दूसरे के तलवे चाट रहे थे, कोई भी किसी को उजागर नहीं कर रहा था, सभी बस राक्षसों की उस माँद में घूम रहे थे। क्या उन्होंने कभी अपने कर्तव्य या परमेश्वर के आदेश के बारे में सोचा? (नहीं।) वे आत्म-भर्त्सना के भाव से रहित होकर बस इसी तरह लक्ष्यहीन ढंग से दिन गुजारना चाहते थे। यह कैसी परिघटना है कि उन लोगों में आत्म-भर्त्सना का कोई भाव ही नहीं था? ऐसी जिसमें पवित्र आत्मा उन पर काम नहीं कर रहा था, और परमेश्वर ने उन्हें छोड़ दिया था। परमेश्वर द्वारा उन्हें त्याग देने का एक और स्पष्टीकरण है, और वह यह है कि अपने कर्तव्य, सत्य और परमेश्वर के प्रति उनके रवैये के साथ-साथ उनके विचारों के कारण, परमेश्वर उनसे चिढ़ गया था और वे उस कर्तव्य को करने के योग्य नहीं रह गए थे। यही कारण है कि उनमें कोई धिक्कार या अनुशासन नहीं दिखा, उनके अंतःकरण में कोई जागृति नहीं आई, और उन्हें कोई प्रबुद्धता या रोशनी नहीं मिली, उनकी कोई काट-छाँट नहीं हुई, न्याय नहीं किया गया या ताड़ना नहीं हुई। ये चीजें उनके लिए अप्रासंगिक थीं, वे सभी चेतनाशून्य थे, और शैतानों से अलग नहीं थे। वे वर्षों से परमेश्वर के घर में धर्मोपदेश सुन रहे थे, और उन्होंने मसीह-विरोधियों को पहचानने और अपना कर्तव्य मानक स्तर के तरीके से कैसे करना है इस पर भी धर्मोपदेश सुने थे, लेकिन क्या उन्होंने इस दौरान सत्य की खोज की और उसे स्वीकार किया? क्या उन्होंने मसीह-विरोधियों को पहचाना? क्या उन्होंने मसीह-विरोधियों की विभिन्न अभिव्यक्तियों पर कोई बहस की? नहीं, उन्होंने ऐसा नहीं किया। यदि उन्होंने वास्तव में ऐसा किया होता, तो निश्चित रूप से थोड़े से ऐसे लोग होते जो खड़े होकर मसीह-विरोधियों की पोल खोल सकते थे और उनकी रिपोर्ट कर सकते थे, और चीजें इतनी बुरी नहीं होतीं जितनी कि वे हुईं। वे बस भ्रमित और बेकार लोगों का एक समूह थे! उनकी वास्तविक स्थिति, उनके व्यवहार और उन्हें दिए गए निरूपण के अनुसार मैंने उन्हें अलगाव और चिंतन की अवधि के लिए ब समूह में दूर भेज दिया। क्या इस मामले को इस तरह से सँभालना मेरे लिए हद से आगे बढ़ जाना था? (नहीं।) नहीं, यह बिल्कुल भी हद से आगे बढ़ना नहीं था। और यदि यह हद से आगे बढ़ना नहीं था, तो क्या इसे पूरी तरह से उचित नहीं माना जा सकता है? यह उन्हें कुछ मौका देने के लिए किया गया था। कैसा मौका? अगर उनमें सचमुच थोड़ी मानवता और जमीर है, अगर वे पश्चाताप कर पाते हैं और अपना रास्ता बदल सकते हैं, तो उन्हें कलीसिया में वापस आने का मौका मिलेगा; अगर उनमें पश्चाताप करने की इच्छा भी नहीं है, तो वे अपने शेष जीवन के लिए अलग-थलग ही रहेंगे, और कलीसिया द्वारा उन्हें बाहर भी कर दिया जाएगा। ऐसा ही है। उन्हें पश्चाताप करने का मौका देने के लिए तुरंत बाहर नहीं निकाला गया। वे कह सकते हैं, “हमने यह बुरा काम किया, और परमेश्वर तुम क्रोधित हो गए और हमें अलग-थलग कर दिया। इसलिए भले ही पहले अपना कर्तव्य करते हुए हमारी कोई भी उपलब्धि नहीं रही हो, लेकिन हमें निश्चित रूप से इसके लिए कष्ट उठाना पड़ा। तुम इसे क्यों नहीं देखते?” लेकिन वास्तव में, उन्हें अलग-थलग करने में पर्याप्त उदारता दिखती है, अन्यथा उनके कार्यों और व्यवहार के आधार पर उन्हें बाहर निकाल दिया जाना चाहिए था। उनके इस रवैये को देखो—वे कितने खतरे में हैं! तो, इस मामले को कैसे सँभाला जाना चाहिए? मुझे अपने नजरिए को दो चरणों में विभाजित करना होगा : पहला चरण उन्हें अलग-थलग करना है, और दूसरा चरण अलगाव की अवधि के दौरान उनकी परिस्थिति और उनके व्यक्तिगत व्यवहार के आधार पर उन्हें वैसे सँभालना है जैसे मुझे ठीक लगे, और यह तय करना है कि उन्हें कलीसिया में रखना है या बाहर निकालना है। क्या यह उनके प्रति पर्याप्त नरमी दिखाना नहीं है?

कनाडा की कलीसिया के उन लोगों ने बहुत सारे बुरे काम किए थे और उनके व्यवहार के अनुसार उन्हें अलग-थलग करना बहुत नरमी दिखाता है, ऐसे में कुछ लोगों के मन में अब भी इस मामले से निपटने के तरीके के बारे में अपने ही विचार क्यों हैं? कुछ लोग कहते हैं, “हो सकता है कि इस मामले को उस तरह से सँभालना तुम्हारे लिए सही रहा हो, लेकिन इसमें अब भी थोड़ी-सी समस्या है। कनाडा की कलीसिया के लोगों ने इन परिणामों को खुद ही न्योता दिया था और उनके साथ वही हुआ जो होना चाहिए था, लेकिन क्या तुम इस मामले से ऐसे निपटकर दूसरों के लिए मिसाल कायम करने के लिए उन्हें कठोर दंड नहीं दे रहे हो?” क्या यह सही समझ है? (नहीं।) मैंने कुछ लोगों को यह कहते हुए सुना है, “इसे सँभालने का यही सही तरीका है। दूसरों के लिए मिसाल कायम करने के लिए, उन्हें दूसरों के लिए एक चेतावनी जैसा बनाने के लिए, और दूसरों तक संदेश भेजने की ताकत दिखाते हुए तुम्हें उन लोगों को कठोर दंड देना चाहिए।” क्या यह किसी गैर-विश्वासी के कथन जैसी बात नहीं है? यह इन स्थितियों पर किसी गैर-विश्वासी का दृष्टिकोण है। तुम लोग शायद अभी तक इस समस्या का सार देखने में सक्षम नहीं हो, और इसीलिए तुम अभी भी एक गैर-विश्वासी का नजरिया व्यक्त कर पा रहे हो। क्या तुम लोगों को नहीं लगता कि किसी का ऐसा कहना थोड़ा घिनौना है? यदि तुम लोग इस मामले की व्याख्या करने के लिए ऐसे शब्दों का उपयोग करते हो, तो तुम ऐसी बातें कह रहे हो जो मुद्दे से हटकर हैं, और चीजें ऐसी नहीं हैं। तो, इस मामले को मैंने जैसे सँभाला उसका वर्णन तुम कैसे करोगे? (तुमने इसे सिद्धांतों के अनुसार सँभाला है।) यह सही है, मैंने इसे सिद्धांतों के अनुसार सँभाला है; कहने के लिए यह एक व्यावहारिक बात है। कोई और बताना चाहेगा? क्या उन लोगों ने अपने लिए खुद ही ये स्थितियाँ पैदा नहीं की थीं? (हाँ।) और इसका वर्णन करने का सबसे सरल तरीका क्या है? (उन्हें उनका उचित फल मिला।) यह सही है, उनके व्यवहार के आधार पर उन्हें उनका उचित दंड मिला और वे स्वयं ही ये स्थितियाँ खुद पर लाए थे। परमेश्वर सत्य सिद्धांतों के अनुरूप कार्य करता है; वह लोगों के व्यवहार के अनुसार प्रतिफल देता है। इसके अलावा, लोगों को अपने कामों के परिणाम भुगतने चाहिए और जब वे गलत काम करते हैं, तो उन्हें दंड मिलना चाहिए—यह उचित है। परमेश्वर लोगों से उनके व्यवहार के अनुसार प्रतिफल देता है; यह कनाडा की कलीसिया के उन लोगों को प्रतिफल देना है और प्रचलित शब्दावली में कहें तो उन्हें सिद्धांतों के अनुसार सँभालना है। मुझे बताओ कि मैंने उनके बारे में जो कुछ उजागर किया है, उनमें से कौन-सी बातें तथ्य नहीं हैं? इन मामलों के बारे में मेरे कौन से विश्लेषण और परिभाषाएँ, मेरे द्वारा किए उनके कौन-से निरूपण तथ्य नहीं हैं? वे सभी तथ्य हैं। इसलिए, इन अभिव्यक्तियों और उनके कार्यों और व्यवहार के अनुसार उन्हें प्रतिफल दिया गया है—इसमें क्या गलत है? तो, दूसरों को संदेश भेजने की ताकत दिखाना, दूसरों के लिए उदाहरण स्थापित करने के लिए लोगों को कठोर दंड देना और लोगों को दूसरों के लिए एक चेतावनी जैसा बनाना—क्या इन कार्यों की प्रकृति वैसी ही है जैसे मैंने कनाडा की कलीसिया के मामले को सँभाला है? (नहीं।) तो, दूसरों के लिए उदाहरण स्थापित करने के लिए लोगों को कठोर दंड क्यों दिया जाए? इसकी प्रकृति क्या है? दूसरों के लिए उदाहरण स्थापित करने के लिए लोगों को कठोर दंड देना, दूसरों को संदेश देने की ताकत दिखाना और लोगों को दूसरों के लिए एक चेतावनी जैसा बनाना—इन तीनों कार्यों की प्रकृति मूलतः एक जैसी है। वह प्रकृति क्या है? वह किसी शासक या शक्तिशाली व्यक्ति द्वारा किसी विशिष्ट परिस्थिति में किया जाने वाला कुछ ऐसा काम है जो उसे अपना अधिकार स्थापित करने और दूसरों को डराने के लिए आवश्यक लगता है। इसे दूसरों के लिए उदाहरण स्थापित करने के लिए लोगों को कठोर दंड देना कहा जाता है। ऐसा करने के पीछे उनका उद्देश्य क्या होगा? यह इसलिए होगा कि दूसरे लोग उसकी आज्ञा का पालन करें, उससे डरें, और भयभीत महसूस करें, उसके सामने बिना सोचे-समझे काम न करें और उसके सामने जो दिल चाहे वह न करें। क्या उसका ऐसा करना सिद्धांतों के अनुरूप होगा? (नहीं।) तुम यह क्यों कहते हो कि ऐसा करना सिद्धांतों के अनुरूप नहीं होगा? कार्रवाई करने के पीछे एक शासक की अपनी अभिप्रेरणा होती है और उसकी अपने शासन को सुदृढ़ करने तथा अपनी शक्ति की रक्षा करने की भी अभिप्रेरणा होगी। वह इस मामले पर हंगामा खड़ा करना चाहेगा, और यह उसके कार्य की प्रकृति होगी। कनाडा की कलीसिया से संबंधित प्रकरण सँभालने का मामला सत्य सिद्धांतों पर आधारित था, न कि गैर-विश्वासियों के शैतानी फलसफों पर। उस मसीह-विरोधी ने लोगों को गुमराह किया, कलीसिया के काम में गड़बड़ियाँ और बाधाएँ पैदा कीं और पूरी कलीसिया को उलट-पुलट दिया, फिर भी अधिकांश लोग उसके बचाव में बोलते रहे—उनके कार्यों की प्रकृति वास्तव में बहुत घिनौनी है! इस तरह से निरुद्देश्य जीवन बिता रहे लोगों के लिए बेहतर होता कि वे कलीसिया को छोड़कर अपनी मर्जी का जीवन जीते। कम से कम तब एक अच्छी बात यह होती कि परमेश्वर के घर के संसाधन बर्बाद नहीं होते। लेकिन क्या उन्होंने ऐसा किया? उनकी अंतश्चेतना में ऐसी जागरूकता नहीं थी, और उन्होंने परमेश्वर के घर के वित्तीय और भौतिक संसाधनों को बर्बाद किया, उन्होंने अपना कर्तव्य निभाने में मेहनत नहीं की, और वे मसीह-विरोधी के साथी बनकर उसके साथ मिलकर कुकर्म करते थे—इन कार्यों की प्रकृति बहुत गंभीर है! परमेश्वर के घर ने उन्हें इस तरह से सँभाला है जिससे कि वे चिंतन करें और खुद को जानें, ताकि वे अपना रास्ता बदलें और पश्चाताप करें, और यह सब उनके लाभ के लिए है। अगर उन्हें सँभाला नहीं जाता तो अब से एक साल बाद शायद वे सभी परमेश्वर को धोखा देकर संसार में वापस लौट जाते। सौभाग्य से, उन्हें एक दूसरे से अलग कर दिया गया और समय रहते उन्हें सँभाला गया, और इस काम ने और भी अधिक लोगों को बुराई करने से बचा लिया और कलीसिया के काम का और अधिक नुकसान होने से बचा लिया। ऐसा करके उन्हें बचाया जा रहा है या निकाला जा रहा है? (उन्हें बचाया जा रहा है।) उन्हें वास्तव में बचाया जा रहा है। यह कार्रवाई उनकी मदद करने, उन्हें चेतावनी देने, उनके लिए खतरे की घंटी बजाने और यह बताने के लिए की गई थी कि उनका इस तरह से कार्य करना सही नहीं था, कि अगर वे इस तरह से चलते रहे तो वे आध्यात्मिक तबाही भोगेंगे और वे नष्ट हो जाएँगे और उद्धार पाने की सारी उम्मीदें खो जाएँगी। यदि वे इस बिंदु को समझ सकें, तो उनके पास अभी भी उम्मीद है। अगर वे इस बिंदु को भी नहीं समझ सकते, और हताश होते हैं, पतित होते हैं और निराशा में पड़ना जारी रखते हैं, ऊपरवाले का विरोध करते हैं और नकारात्मक मनोदशा में अपनी धारणाएँ फैलाते हैं, तो वे मुश्किल में पड़ जाएँगे। तुम लोग उनके लिए क्या चाहते हो? (कि वे पश्चाताप करें।) तुम सभी चाहते हो कि वे ठीक हो जाएँ और पश्चाताप करें। और मैं उनके लिए क्या चाहता हूँ? क्या मैं चाहता हूँ कि वे पश्चाताप न करें, कि मैं उन सभी को दूर कर सकूँ, कि इन लोगों के न रहने से कलीसिया बेहतर हो जाएगी? क्या मैं यही चाहता हूँ? (नहीं।) नहीं, मैं यह नहीं चाहता। मैं चाहता हूँ कि वे ठीक हों और पश्चाताप करें, कि पश्चाताप करने के बाद वे परमेश्वर के घर लौट आएँ, और फिर से अपने कर्तव्यों का पालन पहले जैसे तरीके से न करें। वह पद क्या है? “अपने कुमार्ग से फिरें; और उस उपद्रव से, जो वे करते हैं, पश्चाताप करें” (योना 3:8)। जहाँ तक उनका सवाल है, अगर वे ऐसा कर सकें तो यह आजीवन अमिट रहने वाली यादगार बात होगी और उनके लिए यह असाधारण अनुभव होगा, यह घटनाक्रम अद्भुत बन जाएगा। यह सब इस पर निर्भर करता है कि वे व्यक्तिगत रूप से क्या हासिल करने की कोशिश करते हैं।

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