मद सात : वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं (भाग एक) खंड चार

मसीह-विरोधियों की दुष्टता की प्राथमिक अभिव्यक्ति क्या है? वह यह है कि उन्हें स्पष्ट रूप से पता होता है कि क्या सही है और क्या सत्य के अनुरूप है, लेकिन जब उन्हें कुछ करना होता है, तो वे हमेशा वही चुनते हैं जो सिद्धांतों का उल्लंघन करता हो और सत्य के विरुद्ध हो, और जो उनके अपने हितों और रुतबे के अनुकूल हो—यह मसीह-विरोधियों के दुष्ट स्वभाव की प्राथमिक अभिव्यक्ति है। वे चाहे जितने वचनों और सिद्धांतों को समझते हों, धर्मोपदेशों में वे कितनी भी मधुर भाषा का उपयोग करते हों, या अन्य लोगों को वे कितनी भी आध्यात्मिक समझ रखने वाले लगते हों, पर जब वे काम करते हैं, तो वे केवल एक सिद्धांत और एक तरीका चुनते हैं, और वह है सत्य के विरुद्ध जाना, अपने हितों की रक्षा करना, और अंत तक सत्य का सौ प्रतिशत प्रतिरोध करना—यही वह सिद्धांत और तरीका है जिसके अनुसार वे कार्य करने का फैसला करते हैं। इसके अलावा, वे अपने हृदय में जिस परमेश्वर और सत्य की कल्पना करते हैं, वे वास्तव में कैसे हैं? सत्य के प्रति उनका रवैया केवल इसके बारे में बोलने और उपदेश देने में सक्षम होने की चाह तक है, उनका रवैया उसे अभ्यास में लाने का नहीं है। परमेश्वर के चुने हुए लोगों से खूब सम्मानित होने की इच्छा के साथ वे इसके बारे में केवल बातें करते हैं, और फिर इसका उपयोग कलीसिया के अगुआ के पद पर काबिज होने और परमेश्वर के चुने हुए लोगों पर प्रभुत्व स्थापित करने के उद्देश्य की प्राप्ति के लिए करते हैं। वे अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए उपदेश सिद्धांत का उपयोग करते हैं—क्या यह सत्य की अवमानना करना, सत्य के साथ खिलवाड़ और सत्य को पैरों तले रौंदना नहीं है? क्या वे सत्य के साथ इस तरह के व्यवहार से परमेश्वर के स्वभाव का अपमान नहीं करते हैं? वे बस सत्य का उपयोग करते हैं। उनके हृदय में सत्य सिर्फ एक नारा है, कुछ ऊँचे शब्द हैं, ऐसे ऊँचे शब्द जिनका उपयोग वे लोगों को गुमराह करने और उन्हें जीतने के लिए कर सकते हैं, जो लोगों की अद्भुत चीजों की प्यास बुझा सकते हैं। वे सोचते हैं कि इस दुनिया में ऐसा कोई नहीं है जो सत्य का अभ्यास कर सके या सत्य को जी सके, कि ऐसा हो ही नहीं सकता, कि यह असंभव है, और केवल वही सत्य है जिसे हर कोई स्वीकार करता हो और जो व्यवहार्य हो। वे सत्य के बारे में बात भले ही करते हों, लेकिन अपने हृदय में वे स्वीकार नहीं करते हैं कि यह सत्य है। हम इस मामले का परीक्षण कैसे करें? (वे सत्य का अभ्यास नहीं करते।) वे कभी सत्य का अभ्यास नहीं करते; यह एक पहलू है। और दूसरा महत्वपूर्ण पहलू क्या है? जब वे वास्तविक जीवन में चीजों का सामना करते हैं, तो वे जिस धर्म-सिद्धांत को समझते हैं, वह कभी भी काम में नहीं लाया जा सकता। वे ऐसे दिखते हैं मानो उन्हें वास्तव में आध्यात्मिक समझ हो, वे एक के बाद एक धर्म-सिद्धांतों का प्रचार करते हैं, लेकिन जब वे मुद्दों का सामना करते हैं, तो उनके तरीके विकृत होते हैं। सत्य का अभ्यास करने में वे भले न सक्षम हों, लेकिन वे जो करते हैं उसे कम से कम मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप होना चाहिए, मानवीय मानकों और पसंद के अनुरूप होना चाहिए, और कम से कम यह सबके लिए स्वीकार्य होना चाहिए। इस तरह, उनकी स्थिति स्थिर रहेगी। यद्यपि, वास्तविक जीवन में वे जो काम करते हैं वे अविश्वसनीय रूप से विकृत होते हैं, और बस एक नजर डालने भर से पता चल जाता है कि वे सत्य नहीं समझते। वे सत्य क्यों नहीं समझते? अपने हृदय में वे सत्य से विमुख होते हैं, वे सत्य को स्वीकार नहीं करते, वे शैतानी दर्शनों के अनुसार काम करने में आनंद पाते हैं, मामलों को सँभालने के लिए वे हमेशा मानवीय तरीकों का उपयोग करना चाहते हैं, और उनके लिए बस इतना ही पर्याप्त होता है कि वे इन मामलों को सँभालने के माध्यम से दूसरों को सहमत कर सकें और प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकें। यदि कोई मसीह-विरोधी किसी स्थान पर पहुँचने पर किसी को किसी खोखले सिद्धांत का प्रचार करते पाता है, तो वह बहुत उत्साहित हो जाता है, लेकिन यदि कोई सत्य वास्तविकता का उपदेश दे रहा हो और लोगों की विभिन्न स्थितियों आदि के विवरण दे रहा हो, तो उन्हें हमेशा लगता है कि वक्ता उनकी आलोचना कर रहा है और उनके दिल पर चोट कर रहा है, और इसलिए वे घृणा महसूस करते हैं और उसे नहीं सुनना चाहते। यदि उनसे इस बारे में संगति करने के लिए कहा जाए कि हाल ही में उनकी स्थिति कैसी रही है, क्या उन्होंने कोई प्रगति की है, और क्या उन्हें अपने कर्तव्य निभाने में किसी कठिनाई का सामना करना पड़ा है, तो उनके पास कहने के लिए कुछ नहीं होता। यदि तुम सत्य के इस पहलू पर संगति करना जारी रखते हो, तो वे सो जाते हैं; उन्हें इस बारे में सुनना अच्छा नहीं लगता। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो तुम्हारे साथ गपशप करते समय खूब रुचि दिखाते हैं, लेकिन किसी को सत्य पर संगति करते हुए सुनते ही वे कोने में छिपकर बैठ जाते हैं और झपकी लेने लगते हैं—उन्हें सत्य से बिल्कुल भी प्रेम नहीं है। वे किस हद तक सत्य से प्रेम नहीं करते? गंभीरता से न देखें तो उनकी इसमें रुचि नहीं होती, और उनके लिए श्रमिक बनना ही पर्याप्त होता है; गंभीरता से देखा जाए तो वे सत्य से विमुख होते हैं, वे सत्य से विशेष रूप से घृणा महसूस करते हैं, और वे इसे स्वीकार नहीं कर सकते। यदि इस तरह का व्यक्ति अगुआ है, तो वह मसीह-विरोधी है; यदि वह कोई साधारण अनुयायी है, तो वह अभी भी मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चल रहा है और मसीह-विरोधियों का उत्तराधिकारी है। बाहर से वे बुद्धिमान और गुणी दिखते हैं, जिनमें कुछ बेहतर काबिलियत दिखती है, लेकिन उनका प्रकृति सार मसीह-विरोधियों वाला होता है—यह ऐसा ही है। ये आकलन किस बात पर आधारित हैं? ये सभी सत्य और सकारात्मक चीजों के प्रति उनके दृष्टिकोण पर आधारित हैं। यह सत्य के प्रति लोगों के दृष्टिकोण का एक पक्ष है। दूसरा पक्ष यह है कि बहुत से मौकों पर लोग सीधे सत्य का सामना नहीं करते, कुछ चीजों में सत्य शामिल नहीं होता है, लोग यह नहीं सोच पाते हैं कि इसमें सत्य का कौन-सा पक्ष शामिल है, और इसलिए, वह कौन है जिसका वे सीधे सामना करते हैं? वे जिसका सीधे सामना करते हैं वह परमेश्वर है। और, ये लोग परमेश्वर के साथ कैसा व्यवहार करते हैं? वे किस अभिव्यक्ति में अपना दुष्ट स्वभाव प्रदर्शित करते हैं? क्या वे सच्ची प्रार्थना करते हैं और परमेश्वर के साथ सच्ची सहभागिता करते हैं? क्या उनका रवैया ईमानदार होता है? क्या उनमें सच्ची आस्था होती है? (नहीं।) क्या वे वास्तव में परमेश्वर पर भरोसा करते हैं और वास्तव में खुद को परमेश्वर को सौंप देते हैं? क्या वे वास्तव में परमेश्वर का भय मानते हैं? (नहीं।) ये सभी व्यावहारिक मामले हैं और ये बिल्कुल भी खाली खुशामद या पिष्टोक्ति नहीं हैं। यदि तुम नहीं समझते कि ये शब्द व्यावहारिक हैं, तो तुम्हारे पास कोई आध्यात्मिक समझ नहीं है। मैं तुम्हें ऐसे लोगों की अभिव्यक्तियों का एक उदाहरण देता हूँ। कुछ लोग सभाओं में अपनी मुट्ठियाँ भींच लेते हैं और कसमें खाते हैं, कहते हैं, “मैं जब तक जीवित रहूँगा, शादी नहीं करूँगा, नौकरी छोड़ दूँगा, और मैं सब कुछ त्याग दूँगा और अंत तक परमेश्वर का अनुसरण करूँगा!” जब वे चीखना-चिल्लाना बंद कर देते हैं और परमेश्वर के लिए खुद को खपाने जा रहे होते हैं, तो वे विचार करते हैं “मैं परमेश्वर से और अधिक आशीष कैसे प्राप्त कर सकता हूँ? मुझे परमेश्वर के देखने लायक कुछ करना होगा।” परंतु, वे परमेश्वर को यह कहते हुए सुनते हैं कि वह उनके जैसे लोगों से प्यार नहीं करता, और वे सोचते हैं, “मैं अब क्या करूँ? मैं खुद को परमेश्वर से दूर कर लूँगा जिससे परमेश्वर मुझे न देख सके।” यह किस तरह की स्थिति है? (सावधानीपूर्ण।) वे परमेश्वर से बचने के लिए उससे दूर रहते हैं। और उनके सावधानी बरतने में कौन-सा स्वभाव छिपा है? दुष्टता। जब वे कोई काम करते हैं तो वे हमेशा खुद को परमेश्वर से बचाते हैं, उन्हें डर लगता है कि परमेश्वर उनकी असलियत जान लेगा, और वे परमेश्वर की जाँच स्वीकार नहीं करते—क्या यह परमेश्वर में विश्वास है? क्या यह परमेश्वर का प्रतिरोध करना नहीं है? यह बहुत नकारात्मक स्थिति है, यह सामान्य नहीं है। यद्यपि वे अभी भी परमेश्वर के वचनों को खाना-पीना जारी रख सकते हैं, लेकिन जैसे ही वे परमेश्वर को लोगों का न्याय करने और उन्हें उजागर करने के वचन बोलते हुए सुनते हैं, वे वहाँ से भाग जाते हैं, या फिर जल्दी से कोई बहाना बनाते हैं और खुद को छिपाने के लिए कोई समझौता करने का तरीका ढूँढ़ लेते हैं। वे खुद को छिपाने की बहुत कोशिश करते हैं, और हर संभव कोशिश करते हैं कि बचकर रहें और सावधान रहें, इसी के साथ वे अपने दिल में परमेश्वर से लगातार लड़ते रहते हैं। अपने कामों में वे न तो परमेश्वर के इरादों की तलाश करते हैं, न ही सत्य की। इसके बजाय, वे और भी अधिक यह दिखाना चाहते हैं कि वे सत्य को स्वीकार कर सकते हैं और बिना किसी शिकायत के परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकते हैं, बनावटीपन और गलतबयानी के जरिये वे सभी की स्वीकृति पाने की कोशिश करते हैं। जहाँ तक इसकी बात है कि परमेश्वर क्या कहता है, वह ऐसे लोगों से क्या अपेक्षा करता है, और ऐसे लोगों का कैसे मूल्यांकन करता है और कैसे परिभाषित करता है, ऐसी चीजों की न तो उन्हें परवाह होती है, न ही वे इन्हें जानना चाहते हैं। अपने दिलों में वे वास्तव में स्पष्ट नहीं होते कि परमेश्वर असल में कौन है, बल्कि इसके बजाय सब कुछ कल्पना और आकलन होता है। जब परमेश्वर कुछ ऐसा करता है जो उनकी धारणाओं के विपरीत होता है, तो अपने दिल में वे उसकी निंदा करते हैं। यद्यपि वे कहते हैं कि वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, लेकिन उनके दिल संदेह से भरे होते हैं। यह लोगों का दुष्ट स्वभाव है।

कुछ मसीह-विरोधी अक्सर परमेश्वर की परीक्षा लेने की कोशिश करते हैं। वे एक कदम आगे बढ़ते हैं, स्थिति का जायजा लेते हैं, और फिर दूसरा कदम उठाते हैं; सरल शब्दों में, उन्हें “प्रतीक्षा करो और देखो” वाला रवैया रखने वाला कहा जा सकता है। “प्रतीक्षा करो और देखो” का क्या अर्थ है? मैं तुम्हें एक उदाहरण देता हूँ। मान लो, कोई व्यक्ति अपनी नौकरी छोड़ देता है और फिर परमेश्वर के सामने प्रार्थना करता है, “हे परमेश्वर, अब मेरे पास नौकरी नहीं है। मैं तुमसे उम्मीद करूँगा कि भविष्य में तुम मुझे सहारा दोगे। मैं सब कुछ तुम्हारे हाथ में सौंपता हूँ। मैं अपना जीवन तुम्हें समर्पित करता हूँ।” जब वह प्रार्थना कर लेता है तो यह देखने के लिए प्रतीक्षा करता है कि क्या परमेश्वर उसे आशीष में कुछ देता है, क्या वह उसके सामने कोई अलौकिक खुलासा करता है या उसे अधिक अनुग्रह देता है, क्या उन्हें कम से कम पहले से कुछ अधिक मिलता है और दुनिया में नौकरी करते समय जितना आनंद मिलता था, उससे श्रेष्ठतर आनंद मिलता है। यह उसका परमेश्वर को परखना है। ऐसी प्रार्थना और ऐसा समर्पण क्या है? (यह लेन-देन है।) क्या इस लेन-देन में दुष्ट स्वभाव नहीं है? (हाँ।) उनका नजरिया थोड़ा-सा प्रलोभन देकर परमेश्वर से अनुग्रह और आशीष माँगने जैसे अधिक मूल्यवान योगदान आकर्षित करने के काम को आगे बढ़ाना है—यही उनका उद्देश्य है। कोई कहता है, “चीन में स्थिति बहुत भयानक है। बड़े लाल अजगर द्वारा लोगों को गिरफ्तार किए जाने की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। दो लोगों का एक साथ इकट्ठा होना भी खतरनाक है, चार लोगों के परिवार का एक साथ इकट्ठा होना भी खतरनाक है। इन स्थितियों में चीन में परमेश्वर पर विश्वास करना बहुत खतरनाक है। अगर वास्तव में कुछ गलत हो जाए, तो क्या हम तब भी बचा लिए जाएँगे? क्या हमारा विश्वास करना व्यर्थ नहीं हो जाएगा?” वे सोचने लगते हैं, “मुझे देश छोड़ने का कोई तरीका सोचना होगा। जब पहले हालात अच्छे थे, तो मैं आराम और सुविधा के लालच में चीन छोड़ना नहीं चाहता था। अपने परिवार के साथ मिलकर रहना बहुत अच्छा था, और मैं परमेश्वर पर भी विश्वास कर सकता था और आशीष भी पा सकता था; वह हर तरह से बढ़िया स्थिति थी। अब स्थितियाँ खराब हैं, आपदाएँ आ गई हैं, और मुझे जल्दी से चीन छोड़ना चाहिए। देश छोड़ने के बाद भी मैं अपना कर्तव्य निभा सकता हूँ, और अपना कर्तव्य निभाकर मुझे आशीष पाने का मौका मिलेगा।” अंत में, वे देश छोड़कर भाग जाते हैं। यह क्या है? यह अवसरवाद है। हर कोई जोड़-घटाव में लगा हो सकता है, और हर किसी की मानसिकता लेन-देन वाली होती है—क्या यह दुष्टता नहीं है? क्या तुम लोगों के बीच ऐसे लोग हैं? अपने दिल में वे कहते हैं, “अगर दुनिया मुझे परेशान करती है, तो मेरे माता-पिता और परिवार मेरी रक्षा कर सकते हैं। अगर मुझे परमेश्वर में मेरे विश्वास के लिए गिरफ्तार कर लिया जाता है, तो क्या परमेश्वर मुझे सुरक्षित रखेगा? ऐसा लगता है कि इस बारे में निश्चित रूप से जान पाना मुश्किल है। अगर मैं इस बारे में निश्चित रूप से नहीं जान सकता, तो मुझे क्या करना चाहिए? मेरे माता-पिता निश्चित रूप से मेरी रक्षा नहीं कर पाएँगे। जब किसी को परमेश्वर में विश्वास करने के कारण गिरफ्तार किया जाता है, तो आम लोग उसे बचा नहीं सकते, और अगर मैं बड़े लाल अजगर की क्रूर यातनाएँ और पीड़ाएँ सहन नहीं कर पाया और यहूदा बन गया, तो क्या मेरा छोटा-सा जीवन बर्बाद नहीं हो जाएगा? बेहतर होगा कि मैं देश छोड़कर चला जाऊँ और विदेश में परमेश्वर में विश्वास करूँ।” क्या कोई ऐसा है जो ऐसा सोचता है? जरूर होगा, है न? तो, क्या कोई ऐसा है जो कहता है, “तुम हमें बदनाम करते हो, और हमने वैसा नहीं सोचा है”? इस तरह के लोग निश्चित रूप से कम नहीं हैं, और समय के साथ तुम यह देखोगे और समझोगे।

मसीह-विरोधियों की दुष्टता की मुख्य विशेषताएँ क्या हैं? पहली यह है कि वे सकारात्मक चीजों को स्वीकार नहीं करते, वे स्वीकार नहीं करते कि सत्य जैसी कोई चीज है, और वे सोचते हैं कि उनकी विधर्मी भ्रांतियाँ और दुष्टतापूर्ण नकारात्मक चीजें ही सत्य हैं—यह मसीह-विरोधियों की दुष्टता की एक अभिव्यक्ति है। उदाहरण के लिए, कुछ लोग कहते हैं, “अपनी खुशियाँ आपके अपने हाथ में होती है” और “केवल शक्ति होने पर ही सब कुछ मिल सकता है”—ये मसीह-विरोधियों के तर्क हैं। वे मानते हैं कि शक्ति के पीछे-पीछे ऐसे लोग आते हैं जो उनकी खुशामद और चापलूसी करते हैं, उपहार देते हैं और उनकी बेहद चाटुकारिता करते हैं, साथ ही उन्हें रुतबे के सभी प्रकार के लाभ मिलते हैं और सभी प्रकार के आनंद मिलते हैं; उनका विश्वास है कि शक्ति पा लेने के बाद उन्हें किसी के द्वारा आगे की ओर धकेले जाने की या किसी की अगुआई की जरूरत नहीं होगी, और वे दूसरों की अगुआई कर सकते हैं—यह उनकी सर्वोच्च प्राथमिकता होती है। तुम उनके इस तरह के गुणा-भाग के बारे में क्या सोचते हो? क्या यह दुष्टता नहीं है? (हाँ, है।) मसीह-विरोधी सत्य के स्थान पर अपने शैतानी तर्क और विधर्मी भ्रांतियों का उपयोग करते हैं—यह उनकी दुष्टता का एक पहलू है। सबसे पहली बात यह है कि वे सत्य को स्वीकार नहीं करते, वे सकारात्मक चीजों का होना नहीं स्वीकारते, और वे सकारात्मक चीजों का सही होना नहीं स्वीकार करते। इसके अलावा, यद्यपि कुछ लोग स्वीकार करते हैं कि इस दुनिया में सकारात्मक चीजें और नकारात्मक चीजें हैं, पर वे सकारात्मक चीजों और सत्य के अस्तित्व को कैसे देखते हैं? वे अब भी इसे पसंद नहीं करते, वे जो जीवन चुनते हैं और परमेश्वर में अपने विश्वास में जिस मार्ग पर चलते हैं, वह सब नकारात्मक बना रहता है और सत्य के विपरीत होता है। वे केवल अपने हितों की रक्षा करते हैं। कोई चीज सकारात्मक हो या नकारात्मक, जब तक वह उनके हितों की रक्षा कर सकती है, तब तक वह ठीक है, यह सर्वोच्च है। क्या यह दुष्ट स्वभाव नहीं है? एक और पहलू है : इस तरह के दुष्ट सार वाले लोग स्वाभाविक रूप से परमेश्वर की विनम्रता और छिपे रहने की प्रवृत्ति, उसकी वफादारी और अच्छाई के प्रति तिरस्कार का भाव रखते हैं; वे स्वाभाविक रूप से इन सकारात्मक चीजों के प्रति अवमाननाकारी होते हैं। उदाहरण के लिए, मुझे देखो : क्या मैं बहुत साधारण नहीं हूँ? मैं साधारण हूँ, तुम यह कहने की हिम्मत क्यों नहीं करते? मैं खुद स्वीकार करता हूँ कि मैं साधारण हूँ। मैंने खुद को कभी असाधारण या महान नहीं माना। मैं बस एक साधारण व्यक्ति हूँ; मैंने हमेशा इस तथ्य को स्वीकार किया है और मैं इस तथ्य का सामना करने का साहस करता हूँ। मैं कोई “सुपरमैन” या कोई महान व्यक्ति नहीं बनना चाहता—यह कितना थकाऊ होगा! मैं जैसा साधारण व्यक्ति हूँ, उसे लोग नीची नजर से देखते हैं और हमेशा मेरे बारे में धारणाएँ पालते हैं। वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोग जब मेरे सामने आते हैं, तो मैं बाहर से कैसा भी दिखूँ, वे कुछ धर्मपरायणता के भाव के साथ आते हैं। कुछ ऐसे भी हैं जो मुझसे बहुत विनम्रता से बात करने के बावजूद अपने दिल में मेरे प्रति अवमाननाकारी रवैया रखते हैं और मैं उनके लहजे और उनके शरीर के हाव-भाव से यह बता सकता हूँ। यद्यपि कभी-कभी वे बहुत सम्मान करते दिखते हैं, लेकिन मैं उनसे जो भी कहता हूँ, उसका जवाब हमेशा “नहीं” में देते हैं, हमेशा मेरी बात को नकारते हैं। उदाहरण के लिए, मैं कहता हूँ कि आज मौसम बहुत गर्म है और वे कहते हैं, “नहीं, ऐसा नहीं है। कल बहुत गर्मी थी।” वे मेरी बात को नकारते हैं, है न? तुम उनसे चाहे जो कहो, वे हमेशा उसे नकारते हैं। क्या हमारे आस-पास ऐसे लोग नहीं हैं? (हाँ, हैं।) मैं कहता हूँ, “आज का खाना नमकीन है। क्या इसमें नमक ज्यादा है या सोया सॉस ज्यादा है?” और, वे कहते हैं, “दोनों में से कुछ भी नहीं। इसमें चीनी बहुत ज्यादा है।” मैं चाहे जो भी कहूँ, वे उसे नकारते हैं, इसलिए मैं कुछ और कहता ही नहीं, हम एकमत नहीं होते और हम अलग-अलग भाषा बोलते हैं। फिर कुछ ऐसे भी हैं जो जब मुझे परमेश्वर में आस्था के बारे में बात करते हुए सुनते हैं, तो कहते हैं, “तुम इस बारे में बात करने में माहिर हो, इसलिए मैं सुनूँगा।” लेकिन, अगर मैं किसी बाहरी चीज के बारे में थोड़ा-भी बोलता हूँ तो वे आगे नहीं सुनना चाहते, जैसे मुझे बाहरी चीजों के बारे में कुछ भी पता न हो। ठीक है कि वे मेरी ओर ध्यान नहीं देते, तो मैं चुप रहना चाहता हूँ। मुझे जरूरत नहीं कि कोई मेरी ओर ध्यान दे, मैं बस वही करता हूँ जो मुझे करना चाहिए। मेरी अपनी जिम्मेदारियाँ हैं और मेरा जीवन जीने का अपना तरीका है। मुझे बताओ कि लोगों के ये दृष्टिकोण क्या प्रदर्शित करते हैं? वे देखते हैं कि मैं एक महान या सक्षम व्यक्ति की तरह नहीं दिखता और मैं एक साधारण व्यक्ति की तरह बोलता और काम करता हूँ, और इसलिए वे सोचते हैं, “तुम परमेश्वर की तरह क्यों नहीं हो? मुझे देखो। अगर मैं परमेश्वर होता तो मैं बिल्कुल उसके जैसा होता।” यह परमेश्वर जैसा होने या न होने का मामला नहीं है। यह तो तुम्हारी माँग है कि मैं परमेश्वर जैसा बनूँ, मैंने कभी नहीं कहा कि मैं उसके जैसा हूँ, और मैंने कभी उसके जैसा बनना नहीं चाहा; मैं बस वही करता हूँ जो मुझे करना चाहिए। अगर मैं कहीं जाता हूँ और कुछ लोग मुझे नहीं पहचानते हैं तो यह बहुत अच्छा है, क्योंकि इससे मैं परेशानी से बच जाता हूँ। देखो, प्रभु यीशु ने उस समय यहूदिया में बहुत-सी बातें कहीं और काम किया, और उसके अनुयायी शिष्यों में जो भी भ्रष्ट स्वभाव रहा हो, यीशु के प्रति उन लोगों का रवैया वैसा ही था जैसा मनुष्य का परमेश्वर के प्रति रवैया होता है—उनका रिश्ता सामान्य था। फिर भी कुछ लोग थे जो प्रभु यीशु के बारे में कहते थे, “क्या वह बढ़ई का बेटा नहीं है?” और यहाँ तक कि कुछ लोग जो लंबे समय तक उसका अनुसरण करते रहे, वे भी लगातार यही दृष्टिकोण अपनाए रहे। यह कुछ ऐसी बात है जिसका सामना देहधारी परमेश्वर को साधारण, सामान्य मनुष्य बनने में अक्सर करना पड़ता है, और यह एक सामान्य घटना है। कुछ लोग जब पहली बार मुझसे मिलते हैं तो बहुत उत्साही होते हैं, जब मैं जाता हूँ तो वे जमीन पर लेट जाते हैं और रोते हैं, लेकिन वास्तविक बातचीत के दौरान यह सब काम नहीं करता, और कई बार मुझे यह सहना पड़ता है। मुझे इसे क्यों सहना पड़ता है? क्योंकि कुछ लोग मूर्ख होते हैं, कुछ लोगों को सिखाया नहीं जा सकता, कुछ लोगों की सेवाकर्मियों के रूप में जरूरत होती है, और कुछ सभी तर्कों को अनसुना करने वाले होते हैं। इसलिए मुझे कभी-कभी यह सब सहना पड़ता है, और कभी-कभी कुछ ऐसे लोग होते हैं जिन्हें मैं अपने करीब नहीं आने देता; ये लोग बहुत ही घृणास्पद होते हैं और उनका स्वभाव विरोधी होता है। कितना विरोधी? उदाहरण के लिए, मैं एक छोटा कुत्ता देखता हूँ जो बहुत प्यारा दिखता है और मैं कहता हूँ, “चलो इसे हुआमाओ बुलाते हैं।” और इस नाम के प्रति ज्यादातर लोगों का रवैया क्या होता है? यह एक नाम भर है और चूँकि मैंने इसे सबसे पहले सोचा था, इसलिए कुत्ते को यही नाम दिया जाना चाहिए; यह एक बहुत ही सामान्य बात है। कुछ विरोधी स्वभाव वाले लोग उसे यह नाम नहीं देंगे और कहेंगे, “हुआमाओ कैसा नाम है? मैंने तो पहले कभी किसी कुत्ते का नाम हुआमाओ नहीं सुना। इसे ऐसा नाम नहीं देते, हमें इसे कोई अंग्रेजी नाम देना चाहिए।” मैं कहता हूँ, “मैं अंग्रेजी नाम रखने में बहुत अच्छा नहीं हूँ, इसलिए तुम लोग इसे जो चाहो वह नाम दो और मैं तुम लोगों का फैसला मान लूँगा।” मैं उनके फैसले के आगे क्यों झुकता हूँ? यह एक छोटी-सी बात है तो इस पर बहस क्यों? कुछ लोग झुकते नहीं हैं और इसके बजाय ऐसी चीजों पर बहस करते हैं। सिर्फ इसलिए कि मैं झुकता हूँ, इसका मतलब यह नहीं है कि मैं यह मानता हूँ कि मैंने गलत किया है; यह केवल वह सिद्धांत है जिसके अनुसार मैं चलता हूँ और काम करता हूँ। सिर्फ इसलिए कि मैं तुमसे बहस नहीं करता, इसका मतलब यह नहीं है कि मैं तुमसे डरता हूँ। मैं बहस नहीं करता, लेकिन मैं अपने दिल में जानता हूँ कि तुम लोग छद्म-विश्वासी हो, और मैं तुम जैसे लोगों के बजाय किसी कुत्ते के साथ व्यवहार करना पसंद करूँगा। मेरे जीवन के दायरे में जिन कुछ लोगों के साथ मुझे बातचीत करनी ही पड़ती है, उनके अलावा जिन लोगों के साथ मैं व्यवहार रखता हूँ, वे भाई-बहन हैं, परमेश्वर के घर के लोग हैं—यह मेरा सिद्धांत है। मैं एक भी गैर-विश्वासी के साथ मेलजोल नहीं करता हूँ; मुझे ऐसा करने की जरूरत नहीं है। हालाँकि, अगर परमेश्वर के घर में छद्म-विश्वासी हैं जो परमेश्वर के घर के प्रति मैत्रीपूर्ण हैं तो वे कलीसिया के मित्र हो सकते हैं। चाहे वे कलीसिया की मदद करें या कुछ प्रयास करें और कलीसिया के लिए कुछ मामलों को सँभालें तो कलीसिया उन्हें सह सकती है, लेकिन मैं उनके साथ वैसा व्यवहार नहीं करूँगा जैसा मैं भाई-बहनों के साथ करता हूँ; मैं अपने काम में बहुत व्यस्त हूँ और मेरे पास ऐसे मामलों से निपटने का समय नहीं है। कुछ लोग जो कुछ वर्षों से परमेश्वर पर विश्वास करते आ रहे हैं, उनमें परमेश्वर के कार्य, देहधारी परमेश्वर और परमेश्वर द्वारा लोगों को बचाए जाने के बारे में कुछ अवधारणाएँ होनी चाहिए, फिर भी उनके हृदय परमेश्वर का भय मानने वाले बिल्कुल नहीं हैं। वे बिल्कुल गैर-विश्वासियों जैसे हैं और तनिक भी नहीं बदले हैं। मुझे बताओ, ये लोग क्या चीज हैं? वे जन्मजात शैतान हैं, परमेश्वर के दुश्मन हैं। जब किसी का उन लोगों से जुड़ाव गहरा हो जाता है जो शैतान और दानव हैं तो यह आपदा और विपत्ति बन जाता है।

तुम सभी लोग अपने दैनिक जीवन से यह अनुभव कर सकते हो कि तुम चाहे जिस समूह में शामिल हो जाओ, हमेशा कोई न कोई ऐसा व्यक्ति होगा जो तुम्हें पसंद नहीं करता होगा, और उन्हें भड़काया या नाराज न किया जाए तब भी वे तुम्हारे बारे में बुरी बातें कहेंगे, तुम्हारा आकलन करेंगे, और तुम पर कलंक लगाएँगे। तुम्हें पता नहीं कि क्या हुआ है, फिर भी वे तुम्हें नापसंद करेंगे, तुम्हारे साथ ठीक से व्यवहार नहीं करेंगे और तुम पर धौंस जमाना चाहेंगे—यह कैसी स्थिति है? तुम्हें नहीं पता कि तुमने उन्हें नाराज करने वाला क्या काम किया है, लेकिन किसी अज्ञात कारण से वे तुम पर धौंस जमाते हैं। क्या ऐसे बुरे लोग होते हैं? (हाँ। होते हैं।) वे तुम्हारे विरोधी हैं और उनकी व्याख्या केवल इसी रूप में की जा सकती है। तुम्हारा उनसे कोई संवाद होने से पहले ही वे तुम्हें तुरंत नापसंद करने लगते हैं और सोचते हैं कि किस तरह से तुम्हें नुकसान पहुँचा सकते हैं—क्या वे तुम्हारे कट्टर विरोधी नहीं हैं? (हाँ, हैं।) क्या तुम किसी कट्टर विरोधी के साथ अच्छे से रह सकते हो? क्या तुम एक ही रास्ते पर चल सकते हो? बिल्कुल नहीं। तो क्या तुम ऐसे लोगों से झगड़ोगे और बहस करोगे? (नहीं, मैं उनसे बहस नहीं करूँगा।) क्यों नहीं? क्योंकि वे विवेक से परे हैं। कुछ लोग स्वाभाविक रूप से सकारात्मक चीजों, सही चीजों, ऐसी चीजों से विमुख होते और घृणा करते हैं जो मानवजाति के बीच तुलनात्मक रूप से अच्छी हैं, यानी, सकारात्मक चीजें जिन्हें लोग पाना चाहते हैं और पसंद करते हैं; इस तरह के लोगों में एक जो स्पष्ट स्वभाव होता है, वह दुष्टता का होता है—वे दुष्ट लोग होते हैं। उदाहरण के लिए, एक आदमी एक प्रेमिका की तलाश में निकलता है और सोचता है, “चाहे वह बदसूरत हो या सुंदर, यदि वह गुणी और अच्छी हो, और जीवन में उससे निभ सकती हो, तो इतना पर्याप्त है। विशेष रूप से, मानवता और आस्था वाली महिला हुई तो मैं चाहे अमीर होऊँ या गरीब, बदसूरत होऊँ या सुंदर, या बीमार हो जाऊँ, वह मेरे साथ रहने के लिए पूरी तरह से प्रतिबद्ध होगी।” खरे लोग आमतौर पर इस तरह का दृष्टिकोण रखते हैं। किस तरह के लोग इस तरह का दृष्टिकोण पसंद नहीं करते या अनुमोदित नहीं करते? (दुष्ट लोग।) तो बताओ कि दुष्ट लोग कैसा दृष्टिकोण रखते हैं? जब वे ये शब्द सुनते हैं तो उनकी क्या प्रतिक्रिया होती है? वे तुम्हारा उपहास करते हुए कहते हैं, “बेवकूफ। हम किस युग में हैं? और तुम ऐसी किसी प्रेमिका की तलाश कर रहे हो? तुम्हें किसी अमीर और सुंदर महिला की तलाश करनी चाहिए!” साधारण पुरुष सभ्य और गुणी महिलाओं से विवाह करते हैं और एकजुट और खुशहाल परिवार के साथ शालीन, अनुशासित और सदाचारी जीवन जीते हैं; वे जीवन में अपना आचरण साफ-सुथरा रखते हैं। क्या दुष्ट लोग इस तरह सोचते हैं? (नहीं।) वे कहते हैं, “अब इस दुनिया में, क्या किसी आदमी को तब तक आदमी कहा जा सकता है, जब तक उसकी 10 या उससे भी ज्यादा प्रेमिकाएँ और कई पत्नियाँ न रही हों? अगर ऐसा नहीं है, तो उसका जीवन बर्बाद है!” वे सभी ऐसा दृष्टिकोण रखते हैं। तुम उनसे कहते हो, “कोई सभ्य, गुणी और अच्छी महिला खोजो जिसमें विशेष रूप से मानवता और आस्था हो,” लेकिन क्या यह उन्हें स्वीकार्य है? (नहीं।) वे तुम्हारा उपहास करते हैं और कहते हैं, “तुम बहुत मूर्ख हो! दुनिया में अब कोई भी दूसरों के मामलों की परवाह नहीं करता, हर कोई निर्बंध और स्वतंत्र रहता है। खासकर, जब तुम चीन छोड़कर पश्चिम में जाते हो, तो वहाँ और भी स्वतंत्रता होती है क्योंकि कोई भी तुम पर हर वक्त नजरें गड़ाए नहीं रहता। तुम अपने प्रति इतना कठोर क्यों हो रहे हो? तुम बहुत मूर्ख हो!” यही उनका दृष्टिकोण है। तो, जब तुम उनसे सकारात्मक चीजों, मनुष्य की उन सबसे अद्भुत सकारात्मक चीजों, के बारे में बात करते हो जो सत्य और न्याय की हैं, तो उन्हें कैसा लगता है? वे घृणा महसूस करते हैं और अपने दिल में तुम्हें कोसते हैं। एक बार जब वे जान जाते हैं कि तुम इस तरह के व्यक्ति हो, तो उनके हृदय तुम्हारे प्रति सावधान हो जाएँगे और वे तुमसे बच कर रहेंगे। जो लोग एक ही जैसे नहीं होते, वे एक ही रास्ते पर भी नहीं चलते। वे जानते हैं कि तुम उनके जैसे लोगों के प्रति घृणा महसूस करते हो और अपने दिल में वे तुम जैसे लोगों को नीची निगाह से देखते हैं। वे तुमसे इस बारे में बात नहीं करना चाहते कि वे खुद को कितना सजाते-सँवारते हैं और कितना समय दूसरे लोगों के साथ बर्बाद करते हैं। उन्हें डर लगता है कि तुम उनके साथ सत्य पर संगति करोगे और उन्हें सही रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित करोगे और उन्हें इससे पूरी तरह से घृणा महसूस होती है; दूसरे शब्दों में, अपने दिल की गहराई में, वे सभी सकारात्मक चीजों को नीची निगाह से देखते हैं। इसलिए, अगर तुम सुसमाचार का प्रचार करते समय ऐसे लोगों से मिलते हो, तो तुम उनके सामने सुसमाचार का प्रचार नहीं कर सकते। भले ही तुम ऐसा करो और वे विश्वास करने लगें, फिर भी वे मसीह-विरोधी हैं और उन्हें बचाया नहीं जा सकता। तुम लोग यहाँ बैठकर मेरा उपदेश क्यों सुन पाते हो? क्या ऐसा इसलिए नहीं कि तुम्हारे हृदय थोड़ा सत्य-प्रेमी हैं? मेरे तुमसे बात करने के दौरान जब तक पवित्र आत्मा तुम पर काम करता है, तब तक तुम अपने हृदय में प्रेरित और प्रोत्साहित महसूस करोगे, और तुम न्याय, सत्य और उद्धार की तलाश में खुद को समर्पित करना, कष्ट सहना और खुद को खपाना चाहोगे। जिस क्षण वे दुष्ट लोग किसी को न्याय, सत्य और परमेश्वर के लिए खुद को खपाने की बात करते सुनते हैं, उन्हें लगता है कि ये शब्द खोखले हैं, ये नारे हैं, ये समझ से परे हैं, और वे ऐसे लोगों के साथ भेदभाव करने लगते हैं। इसलिए, इन दुष्ट लोगों से मुलाकात होने पर तुम लोग उनके साथ किसी भी विषय पर संगति मत करो, तुम लोग उनके जैसे नहीं हो, इसलिए बस दूरी बनाए रखो। जब मैं ऐसे लोगों से मिलता हूँ और देखता हूँ कि मेरे प्रति उनका यह रवैया है और वे इस स्वर में बोलते हैं तो क्या मुझे उनकी काट-छाँट करनी चाहिए और उन्हें उपदेश देना चाहिए? (नहीं, ऐसा करना आवश्यक नहीं है।) यह बिल्कुल आवश्यक नहीं है, उन पर ध्यान देने की कोई आवश्यकता नहीं है, उन पर प्रतिक्रिया करने की कोई आवश्यकता नहीं है। क्या तुम उनका प्रत्युत्तर देकर उन्हें बदल सकते हो? तुम उन्हें नहीं बदल सकते। बस उन्हें एक किनारे कर दो और ऐसे ही छोड़ दो; इस तरह के लोग परमेश्वर पर अपने विश्वास में लंबे समय तक नहीं टिक सकेंगे। पहली बात : वे सत्य से प्रेम नहीं करते; दूसरी : वे सकारात्मक चीजों से घृणा करते हैं; तीसरी : वे परमेश्वर से भेदभाव करते हैं, वे परमेश्वर के स्वभाव और परमेश्वर के बारे में प्रेम करने योग्य हर चीज का सबसे कम सम्मान और उसकी सबसे अधिक अवमानना करते हैं—ये चीजें निर्धारित करती हैं कि वे कभी भी परमेश्वर द्वारा बचाए नहीं जाएँगे। ऐसे लोग चाहे जहाँ हों, चाहे वे निष्कपट हों या कपटी, उनमें ऐसी अभिव्यक्तियों का होना निर्धारित करता है कि उनके स्वभाव में निश्चित रूप से कुछ दुष्टता है।

जहाँ कहीं भी किसी मसीह-विरोधी का बोलबाला होता है, वहाँ कलीसियाई जीवन और परमेश्वर के चुने हुए लोगों द्वारा अपने कर्तव्यों का पालन करने से प्राप्त होने वाले प्रभाव अच्छे नहीं होंगे और परमेश्वर के घर का काम बाधित होगा। इसलिए यदि मसीह-विरोधियों को छाँटकर निष्कासित नहीं किया गया, तो कलीसिया के काम को भारी नुकसान होगा और परमेश्वर के चुने हुए बहुत से लोगों को नुकसान होगा! नकली अगुआ प्राथमिक रूप से वास्तविक कार्य नहीं कर सकते और जब वे कुछ सामान्य मामले देखते हैं, तो उनकी प्रगति धीमी होती है और वे अप्रभावी होते हैं। इसके अतिरिक्त, उन्हें यह भी नहीं पता होता कि सत्य का अनुसरण करने वाले अच्छी काबिलियत वाले अच्छे लोगों को कैसे विकसित किया जाए और उनका उपयोग कैसे किया जाए। और मसीह-विरोधियों का क्या? जब चीजें किसी मसीह-विरोधी के प्रभाव में होती हैं, तो वे केवल अपनी प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के लिए ही काम करते हैं, वे कोई वास्तविक काम नहीं करते, और वे सीधे-सीधे कलीसिया के काम में विघ्न-बाधा पहुँचाते हैं—मसीह-विरोधी विशेष रूप से विनाश में लगे होते हैं और शैतान से जरा भी अलग नहीं होते। यदि मसीह-विरोधी सत्य से प्रेम करने और उसका अनुसरण करने वाले कुछ लोगों को देखते हैं, तो उन्हें बेचैनी महसूस होती है। यह बेचैनी कहाँ से आती है? यह उनके दुष्ट स्वभाव के कारण होती है, अर्थात, उनकी प्रकृति में दुष्ट स्वभाव होता है जो न्याय से, सकारात्मक चीजों से, सत्य से नफरत करता है, और परमेश्वर का विरोध करता है। इसीलिए, जब वे किसी को सत्य का अनुसरण करते देखते हैं, तो कहते हैं कि “तुम बहुत शिक्षित नहीं हो और देखने में भी कुछ खास नहीं हो, लेकिन फिर भी तुम वास्तव में सत्य का अनुसरण करते हो।” यह कैसा दृष्टिकोण प्रदर्शित करता है? यह अवमानना है। उदाहरण के लिए, कुछ भाई-बहनों के पास कुछ खूबियाँ या विशेष कौशल हैं और वे उनसे संबंधित कर्तव्य निभाना चाहते हैं। वास्तव में, यह उनकी विभिन्न स्थितियों के संदर्भ में उपयुक्त है, लेकिन मसीह-विरोधी ऐसे भाई-बहनों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं? अपने हृदय में वे सोचते हैं, “यदि तुम यह कर्तव्य निभाना चाहते हो तो तुम्हें पहले मेरी चापलूसी करनी होगी और मेरे गिरोह में शामिल होना होगा, और उसके बाद ही मैं तुम्हें वांछित कर्तव्य निभाने की अनुमति दूँगा। नहीं तो, बस सपने देखो!” क्या मसीह-विरोधी इसी तरह से कार्य नहीं करते? मसीह-विरोधी उन लोगों से इतनी क्यों घृणा करते हैं जो ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास करते हैं, जिनमें न्याय और मानवता की थोड़ी समझ है, और जो सत्य का अनुसरण करने का थोड़ा प्रयास करते हैं? वे हमेशा ऐसे लोगों से क्यों नाराज रहते हैं? जब वे लोगों को सत्य का अनुसरण करते और अच्छा व्यवहार करते देखते हैं, ऐसे लोग जो कभी नकारात्मक नहीं होते और जिनके इरादे नेक होते हैं, तो वे असहज महसूस करते हैं। मसीह-विरोधी जब लोगों को निष्पक्ष रूप से कार्य करते देखते हैं, उन लोगों को देखते हैं जो अपना कर्तव्य सिद्धांतों के अनुसार निभा सकते हैं और जो सत्य समझने के बाद उसे व्यवहार में ला सकते हैं, तो वे वास्तव में क्रोधित हो जाते हैं, वे उन लोगों को पीड़ा देने का तरीका सोचने में अपना दिमाग दौड़ाते हैं, और उनके लिए चीजों को मुश्किल बनाने की कोशिश करते हैं। यदि कोई मसीह-विरोधी के प्रकृति सार को स्पष्टता से समझ लेता है, उसकी धूर्तता और दुष्टता को देख लेता है और उन्हें उजागर करना चाहता है और उनकी रिपोर्ट करना चाहता है, तो मसीह-विरोधी क्या करते हैं? मसीह-विरोधी अपनी आँख की किरकिरी और देह में चुभने वाले इस काँटे को निकालने के लिए जो कुछ भी किया जा सकता है उस हर तरीके के बारे में सोचता है और भाई-बहनों को उकसाता है कि वे इस व्यक्ति को अस्वीकार करें। साधारण भाई-बहनों की कलीसिया में कोई प्रतिष्ठा और रुतबा नहीं होता; वे इस मसीह-विरोधी का भेद थोड़ा-बहुत ही पहचान पाते हैं और वे इस मसीह-विरोधी के लिए कोई खतरा नहीं होते। फिर मसीह-विरोधी हमेशा उन्हें नापसंद क्यों करता है और ऐसे व्यक्तियों के साथ ऐसा व्यवहार करता है मानो वे उसकी आँख की किरकिरी और उसके शरीर में चुभा हुआ काँटा हों? ऐसे व्यक्ति मसीह-विरोधी की राह में बाधक कैसे हैं? मसीह-विरोधी ऐसे लोगों से तालमेल क्यों नहीं बना पाता? ऐसा इसलिए है क्योंकि मसीह-विरोधी में दुष्ट स्वभाव होता है। वह सत्य का अनुसरण करने वाले या सही मार्ग पर चलने वाले लोगों को बर्दाश्त नहीं कर सकता। वे उन लोगों के खिलाफ खड़े होते हैं जो सही मार्ग पर चलना चाहते हैं और उनके लिए जानबूझकर चीजों को मुश्किल बनाते हैं, और उनसे छुटकारा पाने का कोई रास्ता निकालने की कोशिश में दिमाग खपाते हैं, या फिर वे उन लोगों पर अत्याचार करते हैं ताकि वे नकारात्मक और कमजोर हो जाएँ, या वे उनके खिलाफ कुछ तलाश लेंगे और उसे चारों ओर फैलाएँगे ताकि दूसरे लोग उन्हें अस्वीकार कर दें, और तब वे खुश होंगे। यदि तुम उनकी बात नहीं सुनते या उनकी कही बातों का पालन नहीं करते, और सत्य का अनुसरण करना, सही मार्ग का अनुसरण करना और अच्छा व्यक्ति बनना जारी रखते हो, तो वे अपने हृदय में असहज महसूस करते हैं, और तुम्हें अपना कर्तव्य निभाते हुए देखकर वे परेशानी और बेचैनी महसूस करते हैं। यह किस लिए है? क्या तुमने उन्हें नाखुश किया है? नहीं, तुमने ऐसा नहीं किया है। जब तुमने उनके साथ कुछ नहीं किया या किसी भी तरह से उनके हितों को नुकसान नहीं पहुँचाया, तो वे तुम्हारे साथ ऐसा व्यवहार क्यों करते हैं? यह सब केवल इतना दिखाता है कि इस तरह की चीज—मसीह-विरोधी—की प्रकृति दुष्टतापूर्ण होती है, और वे स्वाभाविक रूप से न्याय, सकारात्मक चीजों और सत्य के विरोधी हैं। यदि तुम उनसे पूछो कि वास्तव में क्या हो रहा है, तो उन्हें भी नहीं पता होता; वे बस इरादतन तुम्हारे लिए चीजों को मुश्किल बनाते हैं। यदि तुम किसी चीज को किसी एक तरीके से करने को कहो, तो उन्हें इसे किसी दूसरे तरीके से करना होता है; अगर तुम कहो कि फलाँ आदमी बहुत ढंग का नहीं है, तो वे बताएँगे कि वह व्यक्ति तो बहुत बढ़िया है; जो तुम कहो कि सुसमाचार प्रचार करने का यह बढ़िया तरीका है, तो वे कहेंगे कि वह खराब तरीका है; यदि तुम कहो कि कोई बहन जिसने केवल एक या दो साल से परमेश्वर में विश्वास किया है, वह नकारात्मक और कमजोर हो गई है और उसे सहारा दिया जाना चाहिए, तो वे कहते हैं, “कोई जरूरत नहीं है, वह तुमसे ज्यादा मजबूत है।” संक्षेप में, वे तुमसे हमेशा असहमत रहते हैं और जानबूझकर तुम्हारे उलट ही कार्य करते हैं। तुमसे असहमत रहने का उनका सिद्धांत क्या है? वह यह है कि तुम जिस किसी चीज को सही कहो, वे उसे गलत कहेंगे, और तुम जिसे भी गलत कहोगे, वे उसे सही कहेंगे। क्या उनके कामों में कोई सत्य सिद्धांत हैं? बिल्कुल नहीं। वे बस चाहते हैं कि तुम मूर्खता कर बैठो, खुद को उजागर कर दो, टूट जाओ, हार जाओ ताकि तुम अपना सिर ऊँचा न उठा सको, आगे से सत्य का अनुसरण न करो, कमजोर हो जाओ, और अब और विश्वास न करो, तभी उनका लक्ष्य हासिल होता है और वे अपने दिल में खुशी महसूस करते हैं। यहाँ क्या मामला है? यह उस तरह के लोगों का दुष्ट सार है जो मसीह-विरोधी हैं। अगर वे भाई-बहनों को परमेश्वर की स्तुति करते और परमेश्वर की गवाही देते और अपने ऊपर कोई ध्यान नहीं देते देखते हैं, तो क्या वे प्रसन्न होते हैं? नहीं, वे प्रसन्न नहीं होते। उन्हें कैसा लगता है? उन्हें ईर्ष्या होती है। साधारणतया, जब लोग किसी को किसी अन्य की प्रशंसा करते हुए सुनते हैं, तो उनकी सामान्य प्रतिक्रिया होती है, “मैं भी तो बहुत बढ़िया हूँ; मेरी भी प्रशंसा क्यों नहीं करते?” उनका यह छोटा-सा विचार होता है, लेकिन जब वे किसी को परमेश्वर के लिए गवाही देते हुए सुनते हैं, तो वे सोचते हैं, “उनके पास ऐसा अनुभव है और वे ऐसी गवाही देते हैं, और हर कोई उन्हें स्वीकार करता है। उनके पास यह समझ है; मेरे पास ऐसी समझ क्यों नहीं है?” वे उस व्यक्ति से जलते हैं और उसकी प्रशंसा करते हैं। मसीह-विरोधियों की एक खासियत होती है : जब वे किसी को परमेश्वर के लिए गवाही देने में यह कहते हुए सुनते हैं कि, “यह परमेश्वर ने किया है, यह परमेश्वर का अनुशासन है, ये परमेश्वर के कर्म हैं, परमेश्वर की व्यवस्थाएँ हैं, और मैं समर्पण करने को तैयार हूँ,” तो वे दुःखी होते हैं और सोचते हैं, “तुम कहते हो कि सब कुछ परमेश्वर ने किया है। क्या तुमने देखा है कि परमेश्वर किसी भी चीज पर कैसे शासन करता है? क्या तुम लोगों ने महसूस किया है कि परमेश्वर किसी भी चीज की व्यवस्था कैसे करता है? मुझे इस बारे में कुछ भी क्यों नहीं पता है?” इसका एक पक्ष यह है कि वे ठीक उसी तरह के हैं जैसे शैतान अय्यूब के प्रति परमेश्वर की स्वीकृति से पेश आया था। जब परमेश्वर किसी व्यक्ति को हासिल करता है, तो मसीह-विरोधियों की मानसिकता शैतान जैसी ही होती है—उनका स्वभाव शैतान का स्वभाव होता है। दूसरा पक्ष यह है कि यदि कोई व्यक्ति सत्य समझता है और मसीह-विरोधियों को पहचानता है, और मसीह-विरोधियों का अनुसरण नहीं करता, बल्कि उन्हें खारिज करता है, तो मसीह-विरोधियों की मानसिकता उन्मादपूर्ण हो जाती है, और वे सोचते हैं, “मैं इस व्यक्ति को जरा भी हासिल नहीं कर सकता, इसलिए मैं उसे नष्ट कर दूँगा!” इसलिए, जब अय्यूब ने परीक्षणों का सामना किया, तो परमेश्वर ने शैतान से कहा, “वह तेरे हाथ में है, केवल उसका प्राण छोड़ देना।” यदि परमेश्वर ने यह नहीं कहा होता, तो क्या शैतान दया दिखाता? (नहीं।) निश्चित ही वह बिल्कुल दया नहीं दिखाता।

मसीह-विरोधी उन भाई-बहनों के प्रति क्या रवैया रखते हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं और उससे प्रेम करते हैं, जो कुछ आस्था रखते हैं और जो कुछ निष्ठा के साथ अपना कर्तव्य निभाते हैं? और वे कुछ ऐसे लोगों के प्रति क्या रवैया रखते हैं जो परमेश्वर की गवाही देने के लिए जीवन अनुभवों के बारे में बात करते हैं और जो अक्सर भाई-बहनों के साथ सत्य पर संगति करते हैं? (वे ईर्ष्या और नफरत महसूस करते हैं।) उनका रवैया किस पर निर्भर करता है? यह उनके दुष्ट स्वभाव पर निर्भर करता है। इसलिए, जब तुम लोग अक्सर उन्हें किसी को बेवजह दबाते, किसी से नफरत करते और कुछ लोगों को पीड़ित करते देखते हो, तुम तब जान जाते हो कि मसीह-विरोधियों के दुष्ट स्वभाव को कोई भी नहीं बदल सकता, और वह स्वभाव गहरे में जड़ जमाए है और जन्मजात है। इस बिंदु से देखा जा सकता है कि जो लोग मसीह-विरोधी हैं, वे संभवतः उद्धार नहीं हासिल कर सकेंगे। वे भाई-बहनों को परमेश्वर के लिए गवाही नहीं देने देते हैं, तो क्या वे खुद परमेश्वर के लिए गवाही दे सकते हैं? (नहीं।) जब अन्य लोग परमेश्वर के लिए गवाही देते हैं तो वे इससे इतनी नफरत करते हैं कि वे अपने दाँत पीसने लगते हैं, तो मुझे बताओ, क्या वे परमेश्वर के लिए गवाही दे सकते हैं? वे परमेश्वर के लिए गवाही देने में बिल्कुल अक्षम हैं। कुछ लोग कहते हैं, “यह सही नहीं है, कुछ मसीह-विरोधी परमेश्वर के लिए इतनी अच्छी गवाही देते हैं कि उसे सुनकर भाई-बहन रो पड़ते हैं।” यह किस तरह की गवाही है? तुम लोगों को इस तरह की “गवाही” सुननी होगी ताकि तय किया जा सके कि वह सच्ची गवाही है या नहीं। मान लो कि कोई ऐसा व्यक्ति है जिसके पास अच्छी नौकरी और अच्छा परिवार है और परमेश्वर से प्रेरित होकर वह अपनी नौकरी और परिवार को त्याग देता है और अपना तन-मन परमेश्वर के लिए खपाने में लगा देता है; भले ही वह अपने दिल में दुखी महसूस करता हो, फिर भी वह सब कुछ त्याग देता है। भाई-बहन उनसे कहते हैं, “क्या तुम थोड़ा-भी कमजोर नहीं महसूस कर रहे हो?” वह जवाब देता है, “हाँ, थोड़ी-सी कमजोरी महसूस कर रहा हूँ, लेकिन मेरा अपना परिवार और नौकरी को छोड़ने में समर्थ हो पाना, क्या यह सब परमेश्वर का काम नहीं है? मैं प्रतिदिन दो या तीन हजार और महीने में दसियों हजार कमाता था, और मेरे पास बहुत सारी संपत्तियाँ थीं। परमेश्वर में विश्वास करना शुरू करने के बाद अपना कर्तव्य निभाने के लिए मैंने अपनी संपत्तियाँ देखभाल के लिए किसी और को सौंप दीं।” दूसरे पूछते हैं, “क्या तुमने अपनी संपत्ति किसी और को सौंपने के बाद उसकी देखभाल नहीं की है? क्या अब तुम उसके किसी हिस्से के मालिक नहीं हो? तुमने अपनी संपत्तियाँ कैसे छोड़ीं?” वे जवाब देते हैं, “यह परमेश्वर ने किया था।” क्या यह बहुत ही अस्पष्ट नहीं है? (हाँ।) वे सिर्फ खोखले शब्द हैं। इसके अलावा, क्या उनका यह बताना कि उनकी कमाई कितनी ज्यादा थी, केवल शेखी बघारना नहीं है? वे ऐसा क्यों कहते हैं? वे इस बात की गवाही दे रहे हैं कि उन्होंने कितना त्याग किया है। क्या वे परमेश्वर के लिए गवाही दे रहे हैं? वे अपने थोड़े-से “शानदार” इतिहास की गवाही दे रहे हैं, उस कीमत की गवाही दे रहे हैं जो उन्होंने चुकाई है और अतीत में उन्होंने क्या खर्च किया है, उन्होंने कितना समर्पण किया है, और कि उन्हें परमेश्वर से कोई शिकायत नहीं है। क्या इसका कोई भी हिस्सा परमेश्वर की गवाही देता है? तुम नहीं देख सके कि इन सभी चीजों में परमेश्वर ने क्या किया है, क्या तुमने देखा है? यह सच नहीं है कि वे परमेश्वर के लिए गवाही देते हैं; स्पष्ट रूप से वे अपने लिए गवाही दे रहे हैं, फिर भी वे कहते हैं कि वे परमेश्वर के लिए गवाही दे रहे हैं! क्या यह धोखा देना नहीं है? वे खुद अपनी गवाही देने के लिए परमेश्वर के लिए गवाही देने का बहाना करते हैं—क्या यह पाखंड नहीं है? तो फिर क्यों कुछ लोग इसे सुनकर बहुत भावुक हो जाते हैं और लगातार रोते हैं? हर तरफ हर तरह के मूर्ख हैं! जब कोई परमेश्वर के लिए गवाही देने का उल्लेख करता है, तो मसीह-विरोधियों को अपनी कुछ छोटी-मोटी चीजों के बारे में बात करनी पड़ती है, जो उन्होंने की होती हैं, जो उन्होंने समर्पित की हैं, और जो थोड़ा बहुत समय उन्होंने खुद को खपाने में लगाया है, और जैसे-जैसे समय बीतता है, लोग ध्यान देना बंद कर देते हैं, इसलिए वे कहने के लिए नई-नई बातें लेकर आते हैं, और इस तरह वे अपने लिए गवाही देते हैं। अगर कोई उनसे बेहतर है और उनसे बेहतर संगति कर सकता है, सत्य का कुछ प्रकाश ला सकता है, तो वे असहज महसूस करते हैं। क्या वे इसलिए असहज महसूस करते हैं कि सत्य से संबंधित उनके प्रयास दूसरों से हीन हैं और वे श्रेष्ठ बनने के लिए उत्सुक हैं? नहीं, वे किसी को भी अपने से बेहतर नहीं होने देंगे, वे दूसरों का उनसे बेहतर होना बर्दाश्त नहीं कर सकते, और वे केवल तभी खुश होते हैं जब वे दूसरों से बेहतर हों। क्या यह दुष्टता नहीं है? अगर कोई और तुमसे बेहतर है और सत्य को तुमसे ज्यादा समझता है, तो तुम्हें उससे सीखना चाहिए—क्या यह अच्छी बात नहीं है? यह ऐसी चीज है जिस पर सभी को खुश होना चाहिए। उदाहरण के लिए, अय्यूब था, जो मानव इतिहास में परमेश्वर के अनुयायियों में से एक था। यह परमेश्वर के छह हजार साल के प्रबंधन कार्य में घटित एक शानदार बात थी, या यह एक शर्मनाक बात थी? (यह एक शानदार बात थी।) यह शानदार बात थी। इस मामले में तुम्हें क्या रवैया अपनाना चाहिए? तुम्हारा क्या दृष्टिकोण होना चाहिए? तुम्हें परमेश्वर के लिए खुश होना चाहिए और उसका जश्न मनाना चाहिए, परमेश्वर की शक्ति की स्तुति करनी चाहिए, प्रशंसा करनी चाहिए कि परमेश्वर ने महिमा प्राप्त की है—यह एक अच्छी बात थी। यह इतनी अच्छी बात थी, और फिर भी कुछ लोग इससे घृणा भी करते हैं और बहुत नापसंद करते हैं। क्या यह उनका दुष्ट होना नहीं है? साफ कहें तो, यह उनका दुष्ट होना है, और ऐसा उनके दुष्ट स्वभाव के कारण होता है।

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