अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (8) खंड पाँच
अगुआ के रूप में सेवा करने वाले लोगों को कम-से-कम थोड़ा सत्य समझ आना चाहिए और उनके पास कुछ व्यावहारिक अनुभव होने चाहिए। अगर उनके पास कोई अनुभव नहीं है, तो वे यकीनन कोई सत्य नहीं समझते हैं। कुछ लोग जो अगुआ के रूप में सेवा करते हैं, शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का उपदेश देने में अच्छे होते हैं, और वे ज्यादातर लोगों से स्वीकृति और प्रशंसा प्राप्त करने में समर्थ होते हैं। वैसे तो, ऊपरी तौर पर, नकली अगुआ प्रश्नों के उत्तर देने में समर्थ होते हैं, लेकिन वे सत्य सिद्धांतों पर संगति करने में असमर्थ होते हैं। उनके द्वारा दिया गया सारा उपदेश खोखला सिद्धांत होता है, और उसमें कुछ भी व्यावहारिक नहीं होता है। जब लोग उनके उपदेश सुनते हैं, तो उन्हें लगता है कि यह उनकी रुचियों के अनुरूप है, और बिना सूझ-बूझ वाले लोग इसे बहुत पसंद करते हैं। लेकिन, बाद में उनके पास अभी भी अभ्यास का कोई मार्ग नहीं होता है और वे अभ्यास के सिद्धांत नहीं ढूँढ़ पाते हैं। तो फिर क्या यह माना जा सकता है कि इससे कोई मुद्दा हल हो गया है? क्या यह उनका लापरवाह होना नहीं है? क्या इस तरह से मुद्दे हल करने का प्रयास करना वास्तविक कार्य करना माना जा सकता है? नकली अगुआ असली काम नहीं करते, लेकिन वे जानते हैं कि एक अधिकारी की तरह कैसे कार्य करना है। अगुआ बनकर वे सबसे पहला काम क्या करते हैं? यह लोगों का अनुग्रह खरीदने के लिए है। वे “नए अधिकारी दूसरों को प्रभावित करने के लिए तत्पर रहते हैं” का दृष्टिकोण अपनाते हैं : पहले वे लोगों को खुश करने के लिए कुछ चीजें करते हैं और कुछ चीजें सँभालते हैं जो हर किसी के रोजमर्रा के कल्याण में सुधार करती हैं। पहले वे लोगों में एक अच्छी छवि बनाने, सबको यह दिखाने का प्रयास करते हैं कि वे जनता के साथ जुड़े हैं, ताकि हर कोई उनकी प्रशंसा करे और कहे, “यह अगुआ हमारे साथ माता-पिता जैसा व्यवहार करता है!” फिर वे आधिकारिक तौर पर पदभार सँभाल लेते हैं। उन्हें लगता है कि उनके पास जनता का समर्थन है और कि उनकी स्थिति सुरक्षित हो गई है; फिर वे रुतबे के फायदों का आनंद लेना शुरू कर देते हैं, मानो उन पर उनका उचित अधिकार हो। उनका आदर्श वाक्य होता है, “जीवन सिर्फ अच्छा खाने और सुंदर कपड़े पहनने के बारे में है,” “चार दिन की ज़िंदगी है, मौज कर लो,” और “आज मौज करो, कल की फिक्र कल करना।” वे आने वाले हर दिन का आनंद लेते हैं, जब तक हो सके मौजमस्ती करते हैं और भविष्य के बारे में कोई विचार नहीं करते, वे इस बात पर तो बिल्कुल विचार नहीं करते कि एक अगुआ को कौन-सी जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए और कौन-से कर्तव्य करने चाहिए। वे सामान्य प्रक्रिया के तौर पर कुछ शब्दों और सिद्धांतों का प्रचार करते हैं और दिखावे के लिए कुछ तुच्छ कार्य करते हैं—वे कोई वास्तविक कार्य नहीं करते हैं। वे कलीसिया में वास्तविक समस्याओं का पता नहीं लगा रहे हैं और उन्हें पूरी तरह से हल नहीं कर रहे हैं, तो फिर उनके द्वारा ऐसे सतही कार्य करने का क्या अर्थ है? क्या यह भ्रामक नहीं है? क्या इस किस्म के नकली अगुआ को महत्वपूर्ण कार्य सौंपे जा सकते हैं? क्या वे अगुआओं और कर्मियों के चयन के लिए परमेश्वर के घर के सिद्धांतों और शर्तों के अनुरूप हैं? (नहीं।) ऐसे लोगों में न तो अंतरात्मा होती है और न ही विवेक, उनमें जिम्मेदारी की कोई भावना नहीं होती, और फिर भी वे कलीसिया में कोई आधिकारिक पद सँभालना, अगुआ बनना चाहते हैं—वे इतने बेशर्म क्यों हैं? कुछ लोग, जिनमें जिम्मेदारी की भावना होती है, अगर खराब काबिलियत के हों, तो वे अगुआ नहीं हो सकते—और उन बेकार लोगों की तो बात ही छोड़ दो जिनमें जिम्मेदारी की कोई भावना नहीं होती है; वे अगुआ बनने के लिए और भी कम योग्य हैं। ऐसे लालची और निकम्मे नकली अगुआ आखिर कितने आलसी होते हैं? जब उन्हें किसी समस्या का पता लगता है और वे जानते हैं कि यह एक मुद्दा है, तो भी वे इसे गंभीरता से नहीं लेते हैं और इस पर कोई ध्यान नहीं देते हैं। वे कितने गैर-जिम्मेदार होते हैं! वैसे तो वे बातचीत करने में अच्छे होते हैं और उनमें थोड़ी क्षमता भी प्रतीत होती है, लेकिन वे कलीसिया के काम में आने वाली विभिन्न समस्याएँ हल नहीं कर सकते, जिससे कार्य ठप्प हो जाता है; समस्याएँ बढ़ती चली जाती हैं, लेकिन ये अगुआ उन पर ध्यान नहीं देते हैं, और सामान्य प्रक्रिया के तौर पर कुछ सतही कार्य पूरे करने पर अड़े रहते हैं। और इसका क्या नतीजा होता है? क्या वे कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी नहीं करते, क्या वे उसे गलतियाँ करके बरबाद नहीं कर देते? क्या उनके कारण कलीसिया में अराजकता नहीं फैलती है और एकता में कमी नहीं होती है? यह अपरिहार्य परिणाम है। इस स्थिति में, क्या नकली अगुआ ऊपरवाले को सूचना देंगे? यकीनन नहीं देंगे। अगर कलीसिया का कोई व्यक्ति नकली अगुआओं की समस्याओं की सूचना ऊपरवाले को देना चाहे, तो क्या वे इसके लिए सहमत होंगे? वे यकीनन उस व्यक्ति को दबा देंगे और उसे किसी से संपर्क नहीं करने देंगे, वे किसी को भी समस्या की सूचना ऊपरवाले को देने की अनुमति नहीं देंगे, और जो कोई भी ऐसा करेगा, वे उसे प्रतिबंधित कर देंगे, दबा देंगे और सबसे अलग-थलग कर देंगे। मुझे बताओ, क्या ये नकली अगुआ बहुत घिनौने नहीं हैं? चाहे उन्होंने कलीसिया के कार्य को कितना भी नुकसान क्यों ना पहुँचाया हो, फिर भी वे ऊपरवाले को इसके बारे में पता नहीं लगने देंगे, फिर इसे हल करना तो दूर की बात है। उन्हें बस अपने रुतबे के फायदों में लिप्त रहने और अपने अहंकार और गर्व की रक्षा करने की परवाह होती है—ऐसे लोग बेहद घिनौने और बेशर्म होते हैं! क्या वे पूरी तरह से जमीर विहीन और मानवता विहीन नहीं हैं? जब ऊपरवाला कार्य के बारे में पूछताछ करता है तो वे दृढ़ता से कहते हैं कि यहाँ कोई समस्या नहीं है, ऊपरवाले को बहकाते हैं और टाल देते हैं—ऐसा करके, क्या वे ऊपरवाले को धोखा नहीं दे रहे हैं और अपने से नीचे के लोगों से चीजें नहीं छिपा रहे हैं? कलीसिया के कार्य में समस्याएँ बढ़ती चली जाती हैं, और नकली अगुआ उन्हें खुद हल नहीं कर पाते हैं, लेकिन फिर भी वे इन मुद्दों की सूचना ऊपरवाले को नहीं देते हैं। इन परिस्थितियों में वे ऐसे कार्य करते हैं जैसे कुछ भी गलत नहीं है; वे वैसे ही सुख-सुविधाओं में लिप्त रहते हैं, दिन भर कुछ भी नहीं करते हैं, बस बैठे रहते हैं और मौजमस्ती करके दिन बिताते हैं, और वे बिल्कुल भी बेचैन नहीं होते हैं। और समस्याएँ उजागर होने पर जब ऊपरवाला इसकी छानबीन करता है, तब भी वे कहते हैं, “मैंने यह कार्य करने के लिए लोगों की व्यवस्था की। मैंने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर दी हैं। अगर कार्य अच्छी तरह से नहीं हुआ है, तो यह दूसरे लोगों का कसूर है। इससे मेरा क्या लेना-देना है?” इन थोड़े-से शब्दों से, वे जिम्मेदारी से पूरी तरह से अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। ऐसा लगता है जैसे इस मामले के संबंध में उनकी कोई जिम्मेदारी ही नहीं है। सिर्फ यही नहीं कि वे आत्म-चिंतन नहीं करते हैं, बल्कि वे उचित और सहज भी महसूस करते हैं, वे कहते हैं, “जो भी हो, मैं अपने कर्तव्य में निठल्ला नहीं रहा हूँ; मैं मुफ्तखोर नहीं हूँ। अगर ऊपरवाला मुझे बर्खास्त नहीं करता है, तो मैं अगुआ के रूप में सेवा करना जारी रखूँगा। अगर मैंने अपना इस्तीफा दे दिया, तो क्या यह मेरे द्वारा परमेश्वर के साथ विश्वासघात करना नहीं होगा? क्या इससे अपने कर्तव्य के प्रति मेरी निष्ठाहीनता प्रदर्शित नहीं होगी?” अगर तुम उनकी काट-छाँट करते हो, तो वे तुम्हें गलत ठहराने के लिए कई कारण बताने में समर्थ होंगे। वे यह नहीं कहेंगे कि वे इस मामले के लिए जिम्मेदार हैं, वे यह नहीं कहेंगे कि उनकी जिम्मेदारियाँ क्या हैं, और वे इस बात पर विचार नहीं करेंगे कि मुद्दों को हल नहीं करने और वास्तविक कार्य नहीं करने की उनकी प्रकृति क्या है। क्या ऐसे लोग बहुत घिनौने नहीं हैं? वे कलीसिया का कार्य ठप्प कर देते हैं और अपने दिलों में लेशमात्र भी पश्चात्ताप के बिना बहुत लंबे समय तक परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नुकसान पहुँचाते रहते हैं—क्या वे अब भी मनुष्य हैं? क्या अब भी उनमें लेशमात्र भी जमीर या सूझ-बूझ है? कुछ लोग कहते हैं, “ऐसे लोग अगुआ बनने के लिए नहीं चुने जाने चाहिए।” सैद्धांतिक रूप से यह सही है; लेकिन, ऐसे लोग चुने गए अगुआओं और कार्यकर्ताओं के बीच वाकई मौजूद हैं; यह एक सच्चाई है। यह सब इसलिए होता है क्योंकि परमेश्वर के चुने हुए लोगों में भेद पहचानने की योग्यता नहीं होती है, और यह इसलिए भी होता है क्योंकि ज्यादातर लोग खुशामदी लोगों को पसंद करते हैं, और परिणामस्वरूप कुछ नकली अगुआओं और नकली कार्यकर्ताओं को चुन लेते हैं। इसलिए, कलीसियाई चुनावों से पहले, अगुआओं और कार्यकर्ताओं को चुनने के सिद्धांतों पर और साथ ही नकली अगुआओं और नकली कार्यकर्ताओं को पहचान लेने के सिद्धांतों पर भी ज्यादा संगति करनी चाहिए; इससे यह सुनिश्चित होगा कि ज्यादा लोग सिद्धांतों के अनुसार अपने वोट दें। सिर्फ ऐसा करके ही कलीसियाई चुनावों से अच्छे परिणाम मिल सकते हैं।
मुझे बताओ, क्या ऐसे घिनौने और बेशर्म निठल्ले लोग अगुआओं और कार्यकर्ताओं के रूप में कलीसियाई कार्य को अच्छी तरह से पूरा कर सकते हैं? क्या वे कलीसिया में मौजूद समस्याएँ या परमेश्वर के चुने हुए लोगों के सामने आने वाली कठिनाइयाँ हल कर सकते हैं? (नहीं।) तो, ऐसे नकली अगुआओं से सामना होने पर तुम लोगों को क्या करना चाहिए? मान लो कि कोई कहता है, “हमारी काबिलियत खराब है और हममें भेद पहचानने की योग्यता नहीं है, इसलिए किसी नकली अगुआ से सामना होने पर हम कुछ नहीं कर सकते हैं।” क्या यह सही है? यकीनन कलीसिया में हर कोई खराब काबिलियत और भेद पहचानने की योग्यता से रहित नहीं है? कम-से-कम ऐसे कई लोग अवश्य होंगे जो अपेक्षाकृत सत्य समझते हैं। इसलिए, अगर किसी को कोई ऐसा नकली अगुआ मिलता है जो वास्तविक कार्य करने या किसी भी समस्या को हल करने में असमर्थ है, तो उसे उन लोगों के साथ संगति करनी चाहिए जो सत्य समझते हैं और उससे अपनी सूझ-बूझ का उपयोग करने और फैसला लेने के लिए कहना चाहिए। क्या यह उचित है? (हाँ, यह उचित है।) यह क्यों उचित है? अगर कलीसिया का कोई अगुआ वास्तविक कार्य करने में समर्थ नहीं है तो इसके क्या परिणाम होंगे? पीड़ित कौन होंगे? क्या वे कलीसिया में परमेश्वर के चुने हुए लोग नहीं होंगे? अगर कोई नकली अगुआ तीन या पाँच साल तक कलीसिया को नियंत्रित करता है, तो कितने लोगों की सत्य की समझ और वास्तविकता में प्रवेश प्रभावित होगा? कितने लोगों की परमेश्वर के उद्धार की प्राप्ति देरी से होगी? इन परिणामों के बारे में सोचना भी भयावह है। इसलिए, जब कोई नकली अगुआ वास्तविक कार्य नहीं करता हुआ और किसी भी मुद्दे को हल करने में असमर्थ पाया जाता है, तो यह परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से हरेक के लिए एक बड़ी बात है, और उन्हें कार्य में देरी होने से बचने के लिए तुरंत उस नकली अगुआ को उजागर कर देना चाहिए और उसकी रिपोर्ट कर देनी चाहिए। कलीसियाई अगुआओं द्वारा वास्तविक कार्य नहीं करने से जिन लोगों को नुकसान पहुँचता है, वे परमेश्वर के चुने हुए लोग हैं। अगर परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से कोई भी उन्हें उजागर या उनकी रिपोर्ट नहीं करता है, और वे सभी ऐसा करने के प्रति उदासीन हैं, तो उस कलीसिया के लिए कोई उम्मीद नहीं है। मान लो कि तुम लोगों के दिलों में हमेशा जिम्मेदारी नहीं लेने के विचार आते हैं, जैसे कि, “वैसे भी, अगुआ तुम हो। तुम वास्तविक कार्य नहीं कर पाते हो और फिर भी तुम समस्याओं की सूचना ऊपरवाले को नहीं देते हो—अगर इससे कलीसिया के कार्य में देरी होती है, तो ऊपरवाला तुम्हें जिम्मेदार ठहराएगा। उससे हमारा क्या लेना-देना है? हमारा इस बारे में चिंता करने का क्या अर्थ है? हम प्रभारी नहीं हैं। यह जिम्मेदारी तुम पर है।” अगर तुम अपने दिलों में हमेशा यह धारणा रखते हो, तो क्या इससे चीजों में देरी नहीं होगी? क्या इससे तुम लोगों का सत्य का अनुसरण करना, वास्तविकता में प्रवेश करना और परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करना प्रभावित नहीं होगा? अगर कलीसिया में कोई भी व्यक्ति जिम्मेदारी नहीं लेता है, तो यह कहना कठिन है कि क्या यह कलीसिया परमेश्वर की गवाही दे पाएगी और परमेश्वर के आशीष प्राप्त कर पाएगी, और यह कहना तो और भी कठिन है कि इस कलीसिया में कितने लोग उद्धार प्राप्त करेंगे। अगर इस कलीसिया में हर व्यक्ति इस तरह से सोचता है और यह नजरिया रखता है, तो फिर इस कलीसिया के लिए बिल्कुल कोई उम्मीद नहीं है। क्या फिल्म निर्माण टीम को अभी यह समस्या नहीं है? तुम्हारे कुछ अगुआ मुद्दे नहीं सँभालते हैं या समस्याओं की सूचना नहीं देते हैं—वे नकली अगुआ हैं। क्या तुम लोग इसे देखने में समर्थ हो? ये अगुआ तुम लोगों के लिए समस्याएँ हल नहीं करते हैं—क्या तुम लोगों को यह पता नहीं लगा है कि यह एक समस्या है? क्या तुम लोग वास्तव में इससे खुश हो? “हमारा अगुआ इस समस्या की सूचना नहीं दे रहा है और यह समस्या हल नहीं हो सकती है, इसलिए यह हमारे लिए आराम करने का अच्छा समय है। यह बहुत ही अच्छा है! इसके अलावा, ऊपरवाले ने हाल ही में इस मामले के बारे में व्यक्तिगत रूप से नहीं पूछा है, इसलिए हमें इस समस्या की सूचना देने की कोई जरूरत नहीं है। हमें अपने लिए थोड़ा फुर्सत का समय निकालने का प्रयास क्यों नहीं करना चाहिए? क्या हमें इस फिल्म को इतनी जल्दी और समय पर फिल्माने की जरूरत है? हम जो प्रगति कर रहे हैं, वह ठीक है! तो क्या हुआ अगर हमने फिल्मांकन पूरा नहीं किया है? क्या इसके लिए हमारी निंदा की जाएगी?” क्या तुम लोगों का ऐसा रवैया है? क्या तुम लोगों को लगता है कि परमेश्वर के घर के कार्य के लिए ऐसी कोई सख्त समय सारणी नहीं है, इसलिए तुम इसे अनिश्चित काल तक खींच सकते हो, और जब तक ऊपरवाला इस मामले के बारे में नहीं पूछता है या इसकी छानबीन नहीं करता है, तब तक तुम लोगों को चिंता करने या कोई दबाव महसूस करने की कोई जरूरत नहीं है, और तुम बस वे मुद्दे हल कर सकते हो जिन्हें तुम हल कर पाते हो, और उन्हें अनदेखा कर सकते हो जिन्हें तुम हल नहीं कर पाते हो? क्या यही तुम लोगों का परिप्रेक्ष्य है? (नहीं।) तो समस्याएँ होने पर तुम लोग उनकी सूचना क्यों नहीं देते हो? क्या ऐसा है कि इन नकली अगुआओं ने तुम लोगों को अपने नियंत्रण में कर लिया है या उन्होंने तुम लोगों को कोई जादुई, नशीली दवा पिला दी है जिससे तुम लोग बेसुध और बोलने में असमर्थ हो गए हो? यहाँ क्या समस्या है? जब समस्याएँ मौजूद होती हैं, तो क्या तुम लोगों को उनकी जानकारी होती है? अगर तुम कहते हो कि तुम्हें उनकी जानकारी नहीं होती है तो तुम झूठ बोल रहे हो; अगर तुम्हें उनकी जानकारी होती है लेकिन फिर भी तुम उनकी सूचना नहीं देते हो, तो फिर तुम अपनी जिम्मेदारियों के प्रति लापरवाह हो रहे हो और गंभीर रूप से उनकी उपेक्षा कर रहे हो, और अपने कर्तव्य के प्रति तुम्हारी बिल्कुल भी निष्ठा नहीं है। भले ही दुनिया में तुम पैसे कमाने के लिए कार्य करते हो, फिर भी तुम्हें अपनी मामूली मजदूरी के योग्य होना चाहिए। इसके अतिरिक्त, आज तुम परमेश्वर के घर का खाना खा रहे हो; तुम अपना कर्तव्य निभाते हुए उद्धार का अनुसरण कर रहे हो, और ऐसा करके तुम अपने गंतव्य के लिए मार्ग बना रहे हो और उसके लिए तैयार हो रहे हो। तुम यह परमेश्वर के घर के लिए नहीं कर रहे हो, और ना ही किसी व्यक्ति के लिए कर रहे हो, और मेरे लिए तो बिल्कुल नहीं कर रहे हो—तुम यह अपने लिए कर रहे हो। इसे मधुर शब्दों में कहें तो, लोग उद्धार प्राप्त करने के लिए अपना कर्तव्य कर रहे हैं, लेकिन सटीक रूप से कहें तो, वे इसे अपने लिए आशीष प्राप्त करने और एक अच्छा गंतव्य पाने के लिए कर रहे हैं। तुम्हें यह मामला स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए; बेवकूफ मत बनो। तुम अपना कर्तव्य दूसरे लोगों या अपने माता-पिता के लिए नहीं कर रहे हो, और तुम इसे अपने पूर्वजों को महिमा दिलाने या अपने कुल को सम्मान दिलाने के लिए नहीं कर रहे हो—इसे तुम अपने लिए कर रहे हो। परमेश्वर ने तुम्हें बनाया और जब से उसने यह दुनिया बनाई, उसने पूर्वनिर्धारित किया कि तुम अंत के दिनों में जन्म लोगे। वह तुम्हें अपने घर लेकर आया, उसने तुम्हें अपनी आवाज सुनने दी, उसने तुम्हें हर रोज अपने वचन को खाने और पीने दिया और जीवन प्रावधान प्राप्त करने दिया, और उसने तुम्हें एक मौका दिया ताकि तुम परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य कर सको। एक सृजित प्राणी के रूप में उद्धार पाने का यह तुम्हारे लिए सबसे अच्छा मौका है, और यह तुम्हारे लिए एकमात्र मौका भी है। अगर अपना कर्तव्य करते समय, तुम यह मौका नष्ट कर देते हो, तो फिर अंत में आपदाओं में पड़ने पर चाहे तुम्हें सजा मिले या तुम रोओ और अपने दाँत पीसो, यह सब तुम्हारा ही किया-धरा होगा, और तुम इसी के लायक होगे! यह तुम्हारी अपनी गलती होगी। दूसरे लोगों को तुम्हारी जिम्मेदारियाँ उठाने की जरूरत नहीं है, और तुम्हें दूसरे लोगों की जिम्मेदारियाँ उठाने की जरूरत नहीं है। आज तुम जिस मार्ग पर चलते हो और जो कुछ भी करते हो, उसकी जिम्मेदारी सिर्फ तुम्हीं ले सकते हो, और सिर्फ तुम्हीं अंतिम परिणाम भुगत सकते हो। मैं बस यह कर सकता हूँ कि तुम लोगों को वह सब समझा दूँ जो मुझे तुम लोगों से कहना चाहिए और तुम्हें बताना चाहिए, और तुम लोगों के लिए मार्ग तैयार कर दूँ ताकि तुम लोग उद्धार के मार्ग पर चलना शुरू कर सको। मैंने सब कुछ स्पष्ट रूप से समझा दिया है, इसलिए तुम लोग विशिष्ट रूप से कैसे कार्य करते हो, यह तुम पर निर्भर करता है। मैं तुम लोगों के मामले पर ध्यान नहीं देता हूँ; मैं सिर्फ वही कार्य करता हूँ जो मेरी जिम्मेदारी होती है, और मैं इससे ज्यादा कोई कार्य नहीं करता हूँ। क्या यह एक सच्चाई नहीं है कि तुम अपने गंतव्य की खातिर अपना कर्तव्य कर रहे हो? अगर तुम कहते हो, “यहाँ बहुत सारी समस्याएँ हैं, लेकिन मेरा अगुआ उनकी सूचना नहीं दे रहा है, इसलिए मैं भी उनकी सूचना नहीं दूँगा,” तो क्या यह बेवकूफी नहीं है? क्या यह स्वार्थीपन नहीं है? कोई समस्या दिखाई पड़ने पर तुम्हारी क्या जिम्मेदारी बनती है? तुम्हारी जिम्मेदारी यह है कि खोजने और समस्या पर संगति करने के लिए तुम सभी को इकट्ठे बुलाओ और खुद को शांत करो, यह देखो कि समस्या किस क्षेत्र में उत्पन्न हुई है, और समस्या का मूल कारण ढूँढ़ो। अगर, कुछ चर्चा के बाद मूल कारण मिल जाता है, लेकिन तुम लोग खुद समस्या हल करने में समर्थ नहीं होते हो, तो तुम्हें तुरंत इसकी सूचना ऊपरवाले को देनी चाहिए। कौन इसकी सूचना देगा? तुम्हें खुद को आगे रखना चाहिए और कहना चाहिए, “मैं इसकी सूचना दूँगा। अगर इससे काम नहीं बनता है, तो हम कुछ प्रतिनिधि चुन सकते हैं और साथ मिलकर इसकी सूचना दे सकते हैं।” कुछ लोग कहते हैं, “क्या हमारा कोई अगुआ नहीं है?” तुम उत्तर देते हो, “वह कोई अगुआ नहीं है! वह एक मनुष्य की जिम्मेदारियाँ बिल्कुल पूरी नहीं करता है। वह मनुष्य की खाल में बस एक पशु है, और उससे छुटकारा पा लेना चाहिए और उसे बर्खास्त कर देना चाहिए! वह समस्या की सूचना नहीं दे रहा है, इसलिए हमें खुद इसकी सूचना देनी चाहिए—यह हमारी जिम्मेदारी है। जब हम अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर लेंगे, सिर्फ तभी परमेश्वर हमारे साथ मनुष्यों जैसा व्यवहार करेगा। अगर हमें स्पष्ट रूप से यह पता हो कि हमारी जिम्मेदारियाँ क्या हैं, लेकिन हम उन्हें पूरी नहीं करते हैं तो हम मनुष्य होने के लायक नहीं हैं, और ऐसा कोई तरीका नहीं है जिससे परमेश्वर हमें वैसा मानेगा।” अगर परमेश्वर तुम्हें मनुष्य नहीं मानता है, तो इसका मतलब वह तुम्हें क्या मानता है? इसका अर्थ है कि वह तुम्हें सुअर या कुत्ता मानता है। और क्या तब भी परमेश्वर तुम्हें बचाएगा? बिल्कुल नहीं। तो, अगर अंत में तुम एक अच्छे गंतव्य पर नहीं पहुँचते हो तो क्या इसके लिए तुम खुद जिम्मेदार नहीं होओगे? और क्या तुमने अपना कर्तव्य बेकार में नहीं किया होगा? अपना मार्ग चुनना तुम पर निर्भर करता है और उस पर चलना भी तुम्हीं पर निर्भर करता है। तुम चाहे कोई भी मार्ग चुनो, या अंतिम परिणाम कुछ भी हों, इसकी जिम्मेदारी तुम्हें ही उठानी होगी; तुम जिस मार्ग पर चलते हो उसकी और उसके कारण होने वाले परिणामों की जिम्मेदारी कोई नहीं लेगा।
अगर, अगुआओं और कार्यकर्ताओं के रूप में, तुम लोग अपना कर्तव्य निभाते समय सामने आने वाली समस्याओं को नजरअंदाज करते हो और यहाँ तक कि तुम जिम्मेदारी से बचने के लिए विभिन्न कारण और बहाने भी खोज लेते हो, और तुम ऐसी कुछ समस्याएँ हल नहीं करते हो जिन्हें तुम हल करने में सक्षम हो, और तुम जो समस्याएँ हल करने में अक्षम हो, उनकी सूचना ऊपरवाले को नहीं देते हो, मानो उनका तुमसे कोई लेना-देना ना हो, तो क्या यह जिम्मेदारी के प्रति लापरवाही नहीं है? क्या कलीसिया के कार्य के साथ ऐसे पेश आना होशियारी भरा काम है, या बेवकूफी भरा? (यह बेवकूफी भरा काम है।) क्या ऐसे अगुआ और कार्यकर्ता कामचोर नहीं होते हैं? क्या वे जिम्मेदारी की भावना से रहित नहीं होते? जब वे समस्याओं का सामना करते हैं, तो उन्हें नजरअंदाज कर देते हैं—क्या वे विचारहीन लोग नहीं हैं? क्या वे शातिर लोग नहीं हैं? शातिर लोग सबसे मूर्ख लोग होते हैं। तुम्हें एक ईमानदार व्यक्ति होना चाहिए, समस्याओं से सामना होने पर तुममें जिम्मेदारी की भावना होनी चाहिए, और उन्हें हल करने के लिए तुम्हें हर संभव तरीका आजमाना चाहिए और सत्य की तलाश करनी चाहिए। तुम्हें शातिर व्यक्ति बिल्कुल नहीं होना चाहिए। अगर तुम जिम्मेदारी से बचने और समस्याएँ आने पर उनसे पल्ला झाड़ने में लगे रहते हो तो गैर-विश्वासियों तक में तुम्हारे इस व्यवहार की निंदा होगी, परमेश्वर के घर में तो होगी ही! परमेश्वर द्वारा इस व्यवहार की निंदा किया जाना और उसे शापित किया जाना निश्चित है, और परमेश्वर के चुने हुए लोगों द्वारा इससे नफरत की जाती है और इसे अस्वीकार किया जाता है। परमेश्वर ईमानदार लोगों को पसंद करता है और वह धोखेबाज और कामचोर लोगों से नफरत करता है। अगर तुम एक शातिर व्यक्ति हो और कामचोर तरीके से कार्य करते हो, तो क्या परमेश्वर तुमसे नफरत नहीं करेगा? क्या परमेश्वर का घर तुम्हें सजा दिए बिना ही छोड़ देगा? देर-सवेर तुम्हें जवाबदेह ठहराया जाएगा। परमेश्वर ईमानदार लोगों को पसंद करता है और शातिर लोगों को नापसंद करता है। सभी को यह स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए, और भ्रमित होना और मूर्खतापूर्ण कार्य करना बंद कर देना चाहिए। अस्थायी अज्ञान को माफ किया जा सकता है, लेकिन अगर कोई व्यक्ति सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करता है, तो फिर इसका अर्थ है कि वह अत्यंत जिद्दी है। ईमानदार लोग जिम्मेदारी ले सकते हैं। वे अपनी फायदों और नुकसानों पर विचार नहीं करते, वे बस परमेश्वर के घर के काम और हितों की रक्षा करते हैं। उनके दिल दयालु और ईमानदार होते हैं, साफ पानी के उस कटोरे की तरह, जिसका तल एक नजर में देखा जा सकता है। उनके क्रियाकलापों में पारदर्शिता भी होती है। धोखेबाज व्यक्ति हमेशा ढुलमुल तरीके से कार्य करता है, हमेशा ढोंग करता है, चीजें ढकता है और छुपाता है और खुद को बहुत ही कसकर समेटकर रखता है। इस तरह के व्यक्ति की असलियत कोई देख नहीं पाता है। लोग तुम्हारे आंतरिक विचारों की असलियत देख नहीं पाते हैं, लेकिन परमेश्वर तुम्हारे अंतरतम हृदय में मौजूद चीजों की जाँच-पड़ताल कर सकता है। जब परमेश्वर देखता है कि तुम एक ईमानदार व्यक्ति नहीं हो, कि तुम एक धूर्त हो, कि तुम कभी भी सत्य स्वीकार नहीं करते, हमेशा उसके खिलाफ धूर्तता करते हो, और कभी भी अपना दिल उसे नहीं सौंपते, तो वह तुम्हें पसंद नहीं करता है, और वह तुमसे नफरत करता है और तुम्हारा त्याग कर देता है। अविश्वासियों के बीच फलने-फूलने वाले, और जो लोग चिकनी-चुपड़ी बातें करते हैं और हाजिरजवाब होते हैं, वे सभी किस किस्म के लोग होते हैं? क्या यह तुम लोगों को स्पष्ट है? उनका सार कैसा होता है? यह कहा जा सकता है कि वे सभी असाधारण रूप से रहस्यपूर्ण होते हैं, वे सभी अत्यंत धोखेबाज और शातिर होते हैं, वे असली राक्षस और शैतान होते हैं। क्या परमेश्वर इस किस्म के लोगों को बचा सकता है? परमेश्वर शैतानों से ज्यादा किसी से नफरत नहीं करता—ऐसे लोग जो धोखेबाज और शातिर होते हैं—और यकीनन वह ऐसे लोगों को नहीं बचाएगा। तुम लोगों को इस किस्म का व्यक्ति बिल्कुल नहीं होना चाहिए। जो लोग बोलते समय हमेशा चौकस और सतर्क रहते हैं, जो शांत और चालाक होते हैं और मामलों से निपटते समय मौके के उपयुक्त भूमिका निभाते हैं—मैं तुम्हें बताता हूँ, परमेश्वर ऐसे लोगों से सबसे ज्यादा नफरत करता है, ऐसे लोगों को बचाया नहीं जा सकता है। धोखेबाज और शातिर लोगों की श्रेणी के सभी लोगों के संबंध में, सुनने में उनके शब्द चाहे कितने भी अच्छे क्यों ना लगें, वे सभी धोखेबाज, शैतानी शब्द होते हैं। इन लोगों के शब्द सुनने में जितने अच्छे लगते हैं, वे उतने ही ज्यादा राक्षस और शैतान होते हैं। ये बिल्कुल उसी किस्म के लोग हैं जिनसे परमेश्वर सबसे ज्यादा नफरत करता है। यह बिल्कुल सही है। तुम लोग क्या कहते हो : क्या धोखेबाज लोग, अक्सर झूठ बोलने वाले लोग और चिकनी-चुपड़ी बातें करने वाले लोग पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त कर सकते हैं? क्या वे पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और रोशनी प्राप्त कर सकते हैं? बिल्कुल नहीं। धोखेबाज और शातिर लोगों के प्रति परमेश्वर का क्या रवैया होता है? वह उनका तिरस्कार करता है, उन्हें दरकिनार कर देता है और उनकी तरफ ध्यान नहीं देता, वह उन्हें पशुओं की श्रेणी का ही मानता है। परमेश्वर की नजरों में, ऐसे लोग सिर्फ मनुष्य की खाल पहने होते हैं, सार में वे राक्षस और शैतान ही होते हैं, वे चलती-फिरती लाशें हैं, और परमेश्वर उन्हें बिल्कुल नहीं बचाएगा। तो, अब ये लोग किस स्थिति में हैं? उनके दिलों में अँधेरा है, उनमें सच्ची आस्था का अभाव है, और उनका चाहे जो हो, वे कभी प्रबुद्ध या रोशन नहीं किए जाते। जब वे आपदाओं और कष्टों का सामना करते हैं, तो वे परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं, लेकिन परमेश्वर उनके साथ नहीं होता है, और उनके दिलों में ऐसा कुछ भी नहीं होता है जिस पर वे सही मायने में भरोसा कर सकें। आशीषें प्राप्त करने के लिए वे अच्छा प्रदर्शन करने की कोशिश करते हैं, लेकिन कर नहीं पाते हैं क्योंकि उनमें जमीर और विवेक नहीं होते हैं। वे चाहकर भी अच्छे लोग नहीं बन सकते हैं; अगर वे बुरी चीजें करना बंद करना भी चाहें, तो भी वे खुद पर काबू नहीं रख पाएँगे, यह कारगर नहीं होगा। क्या वे दूर भेजे जाने और निकाले जाने के बाद खुद को जानने में समर्थ होंगे? हालाँकि वे जानेंगे कि वे इस सजा के हकदार थे, फिर भी वे इसे किसी के सामने स्वीकार नहीं करेंगे, और भले ही वे थोड़ा कर्तव्य करने में समर्थ दिखें, तो भी वे ढुलमुल ढंग से कार्य करेंगे, और उनके कार्य से कोई स्पष्ट परिणाम नहीं निकलेगा। तो तुम लोग क्या कहते हो : क्या ये लोग वास्तव में पश्चात्ताप करने में सक्षम होते हैं? बिल्कुल नहीं। ऐसा इसलिए कि उनमें अंतश्चेतना या विवेक नहीं होता, वे सत्य से प्रेम नहीं करते। परमेश्वर इस किस्म के शातिर और बुरे व्यक्ति को नहीं बचाता है। ऐसे लोगों के लिए परमेश्वर में विश्वास करने से क्या आशा है? उनका विश्वास पहले से ही महत्वहीन है, और यह निश्चित है कि वे इससे कुछ भी प्राप्त नहीं करेंगे। अगर परमेश्वर में अपनी आस्था के दौरान लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो चाहे वे कितने भी वर्षों तक विश्वास क्यों ना रखें, इसका कोई प्रभाव नहीं होगा; अगर वे अंत तक भी विश्वास रखें, तो भी उन्हें कुछ प्राप्त नहीं होगा। परमेश्वर को प्राप्त करने के लिए लोगों को सत्य प्राप्त करना चाहिए। अगर वे सत्य समझते हैं, सत्य का अभ्यास करते हैं और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करते हैं, तो ही वे सत्य प्राप्त करेंगे और परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करेंगे; और सिर्फ तभी वे परमेश्वर की मान्यता और आशीषें प्राप्त करेंगे; सिर्फ इसे ही परमेश्वर को प्राप्त करना कहते हैं। अगर लोग सत्य प्राप्त करना चाहते हैं, तो उन्हें पहले कदम के तौर पर अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करना सीखना चाहिए, यानी, उन्हें अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करना चाहिए—यह सबसे मूलभूत चीज है। लोगों को नकली अगुआओं से बिल्कुल नहीं सीखना चाहिए, जो सिर्फ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का उपदेश देते हैं और वास्तविक कार्य नहीं करते हैं, जो अपने किसी भी कार्य की जिम्मेदारी नहीं लेते हैं, सब कुछ लापरवाह ढंग से करते हैं और अंत में हटा दिए जाते हैं। अपना कर्तव्य करना कोई छोटी बात नहीं है; लोग अपने कर्तव्य के निर्वहन में सबसे ज्यादा प्रकट होते हैं और लोगों द्वारा कर्तव्य करते समय उनके निरंतर निर्वहन के आधार पर परमेश्वर उनके परिणाम निर्धारित करता है। जब कोई व्यक्ति अपना कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं करता है तो इससे क्या पता चलता है? इससे पता चलता है कि वह सत्य स्वीकार नहीं करता है या वास्तव में पश्चात्ताप नहीं करता है, और परमेश्वर द्वारा हटा दिया जाता है। जब नकली अगुआ और नकली कार्यकर्ता बर्खास्त किए जाते हैं, तो यह क्या दर्शाता है? यह ऐसे लोगों के प्रति परमेश्वर के घर का रवैया दर्शाता है और, यकीनन, यह ऐसे लोगों के प्रति परमेश्वर का रवैया भी दर्शाता है। तो, ऐसे बेकार लोगों के प्रति परमेश्वर का क्या रवैया है? वह उनका तिरस्कार करता है, उनकी निंदा करता है और उन्हें हटा देता है। तो क्या तुम लोग अब भी रुतबे के फायदों में लिप्त रहना चाहते हो और नकली अगुआ बनना चाहते हो?
जब लोग परमेश्वर में विश्वास करने लगते हैं, तो उनके साथ सबसे दर्दनाक और सबसे परेशान करने वाली बात क्या हो सकती है? यह जानने से ज्यादा बड़ी बात कुछ नहीं होती कि उन्हें बाहर निकाल दिया गया है या निष्कासित कर दिया गया है, और उन्हें परमेश्वर द्वारा बेनकाब कर हटाया गया है—यह सबसे दर्दनाक और सबसे दुखद बात होती है, और कोई भी नहीं चाहता कि परमेश्वर में विश्वास करने के बाद उसके साथ ऐसा हो। तो, लोग अपने साथ ऐसा होने को कैसे टाल सकते हैं? कम से कम, उन्हें अपनी अंतरात्मा के अनुसार कार्य करना चाहिए, अर्थात, उन्हें पहले यह सीखना चाहिए कि अपनी जिम्मेदारियों को कैसे पूरा किया जाए; उन्हें लापरवाह बिल्कुल नहीं होना चाहिए, और उन्हें उस काम में देरी नहीं करनी चाहिए जिसे परमेश्वर ने उन्हें सौंपा है। चूँकि तुम एक व्यक्ति हो, इसलिए तुम्हें इस बात पर विचार करना चाहिए कि व्यक्ति की क्या जिम्मेदारियाँ होती हैं। अविश्वासी जिन जिम्मेदारियों की सबसे ज्यादा कद्र करते हैं, जैसे कि संतानोचित व्यवहार करना, अपने माता-पिता का भरण-पोषण करना और अपने परिवार का नाम करना, उनका उल्लेख करने की आवश्यकता नहीं है। ये सभी खोखली हैं और इनका वास्तविक अर्थ नहीं है। वह न्यूनतम जिम्मेदारी क्या है जो एक व्यक्ति को निभानी चाहिए? सबसे वास्तविक चीज यह है कि अभी तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह से कैसे करते हो। हमेशा केवल बेमन से काम करके संतुष्ट हो जाना अपनी जिम्मेदारी पूरी करना नहीं है, और सिर्फ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के बारे में बोल पाना अपनी जिम्मेदारी पूरी करना नहीं है। केवल सत्य का अभ्यास करना और सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना ही अपनी जिम्मेदारी पूरी करना है। केवल जब तुम्हारा सत्य का अभ्यास प्रभावी और लोगों के लिए लाभकारी रहता है, तभी तुमने वास्तव में अपनी जिम्मेदारी पूरी की होती है। तुम चाहे जो भी कर्तव्य कर रहे हो, अगर तुम सत्य सिद्धांतों के अनुसार सभी चीजें करते रहते हो, केवल तभी माना जाएगा कि तुमने अपनी जिम्मेदारी पूरी कर ली है। मानवीय तरीके के अनुसार बेमन से कार्य करना लापरवाह होना है; सिर्फ सत्य सिद्धांतों पर बने रहना ही उचित रूप से अपने कर्तव्य का निर्वहन करना और अपनी जिम्मेदारी पूरी करना है। और जब तुम अपनी जिम्मेदारी पूरी करते हो, तो क्या यह निष्ठा की अभिव्यक्ति नहीं है? यही निष्ठा से अपने कर्तव्य का निर्वहन करने की अभिव्यक्ति है। जब तुममें जिम्मेदारी का यह भाव होगा, यह संकल्प और इच्छा होगी, और अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठा की अभिव्यक्ति होगी, तो ही परमेश्वर तुम पर कृपादृष्टि रखेगा और तुम्हें स्वीकार करेगा। अगर तुममें जिम्मेदारी का यह भाव भी नहीं है, तो परमेश्वर तुम्हें आलसी और मूढ़मति समझेगा और तुमसे घृणा करेगा। मानवीय दृष्टिकोण से इसका अर्थ है तुम्हारा अनादर करना, तुम्हें गंभीरता से न लेना और तुम्हें हिकारत से देखना। यह ऐसा है जैसे, अगर तुम कुछ समय से किसी के संपर्क में रहे हो, और तुम उसे काल्पनिक, अव्यावहारिक मामलों के बारे में बोलते हुए, और अवास्तविक चीजें बकते हुए देखते हो, और देखते हो कि उन्हें डींगें मारना और बड़ी-बड़ी बातें करना पसंद है और वे भरोसेमंद नहीं हैं—तो क्या तुम उनका सम्मान करोगे? क्या तुम उन्हें कोई काम सौंपने की हिम्मत करोगे? शायद वे किसी न किसी कारण से तुम्हारे सौंपे काम में देरी कर दें, और इसलिए तुम ऐसे लोगों को कुछ भी सौंपने की हिम्मत नहीं करोगे। तुम अपने दिल की गहराई में उनसे घृणा करोगे, और तुम्हें उनके संपर्क में आने का पछतावा होगा। तुम खुद को भाग्यशाली महसूस करोगे कि तुमने उन्हें कुछ भी नहीं सौंपा, और तुम सोचोगे कि अगर तुमने ऐसा किया होता, तो तुम्हें इस बात का जीवन भर पछतावा रहता। मान लो कि तुम किसी के साथ बातचीत करते हो और उनके साथ बातचीत और संपर्क के माध्यम से देखते हो कि न केवल उनमें अच्छी मानवता है, बल्कि उनमें जिम्मेदारी की भावना भी है, और जब तुम उन्हें कोई कार्य सौंपते हो, तो भले ही तुम उनसे कोई चीज यूँ ही कहते हो, लेकिन वे इसे अपने मन में अंकित कर लेते हैं, और वे तुम्हें संतुष्ट करने के लिए कार्य को अच्छी तरह से सँभालने के तरीकों के बारे में सोचते हैं, और यदि वे तुम्हारे सौंपे कार्य को अच्छी तरह से नहीं सँभालते तो वे बाद में तुम्हें देखकर शर्मिंदा महसूस करते हैं—ऐसा व्यक्ति जिम्मेदारी की भावना वाला व्यक्ति होता है। जब तक उन्हें कुछ बताया जाता है या उन्हें कुछ सौंपा जाता है—चाहे ऐसा किसी अगुआ, कार्यकर्ता या ऊपरवाले द्वारा किया गया हो—जिन लोगों में जिम्मेदारी की भावना है, वे हमेशा सोचेंगे, “ठीक है, चूँकि वे मुझे इतना ज्यादा मानते हैं, इसलिए मुझे इस मामले को अच्छी तरह सँभालना चाहिए और उन्हें निराश नहीं करना चाहिए।” क्या तुम ऐसे लोगों को कार्य सौंपने में सहज महसूस नहीं करोगे जिनके पास जमीर और सूझ-बूझ है? तुम जिन लोगों को कार्य सौंप सकते हो, वे यकीनन ऐसे हैं जिन्हें तुम प्रशंसा की दृष्टि से देखते हो और जिन पर तुम्हें भरोसा है। विशेष रूप से, अगर उन्होंने तुम्हारे लिए कई कार्य सँभाले हैं और उन सभी को बहुत कर्त्तव्यनिष्ठ रूप से पूरा किया है, और तुम्हारी अपेक्षाएँ पूरी की हैं, तो तुम सोचोगे कि वे भरोसेमंद हैं। अपने दिल में, तुम वाकई उसकी प्रशंसा करोगे और उसका बहुत सम्मान करोगे। लोग इस प्रकार के व्यक्ति के साथ जुड़ने को तैयार होते हैं, परमेश्वर का तो कहना ही क्या। क्या तुम लोग सोचते हो कि परमेश्वर कलीसियाई कार्य और वह कर्तव्य, जिसे करने के लिए मनुष्य बाध्य है, किसी ऐसे व्यक्ति को सौंपने को तैयार होगा जो भरोसेमंद नहीं है? (नहीं, वह नहीं सौंपेगा।) जब परमेश्वर किसी को कलीसियाई कार्य सौंपता है, तो परमेश्वर की उससे क्या अपेक्षा होती है? सबसे पहले, परमेश्वर उम्मीद करता है कि वह मेहनती और जिम्मेदार होगा, कि वह कार्य के इस अंश को एक बड़ा मामला मानेगा और इसे उसी के अनुसार सँभालेगा, और इसे अच्छी तरह से करेगा। दूसरा, परमेश्वर उम्मीद करता है कि वह एक ऐसा व्यक्ति होगा जो भरोसे के काबिल है, कि चाहे उसे कितना भी समय लगे, और चाहे परिवेश कैसे भी बदले, उसकी जिम्मेदारी की भावना डगमगाएगी नहीं, और उसकी सत्यनिष्ठा परीक्षा की कसौटी पर खरी उतरेगी। अगर वह एक भरोसेमंद व्यक्ति है, तो परमेश्वर आश्वस्त हो जाएगा, और वह अब इस मामले का पर्यवेक्षण या उस पर अनुवर्ती कार्रवाई नहीं करेगा। ऐसा इसलिए है क्योंकि, अपने दिल में, वह उस पर भरोसा करता है, और वह बिना किसी गड़बड़ी के यकीनन वह कार्य पूरा करेगा जो उसे दिया गया है। जब परमेश्वर किसी को कोई कार्य सौंपता है, तो क्या वह इसी चीज की उम्मीद नहीं करता है? (हाँ, ऐसा ही है।) तो जब तुम परमेश्वर का इरादा समझ जाते हो, तो फिर तुम्हें अपने दिल में यह पता होना चाहिए कि परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करने के लिए कैसे कार्य करना है, परमेश्वर की नजरों में अनुग्रह कैसे प्राप्त करना है और परमेश्वर का भरोसा कैसे अर्जित करना है। अगर तुम अपनी अभिव्यक्तियाँ और व्यवहार स्पष्ट रूप से देख सकते हो, और वह रवैया देख सकते हो जिसके साथ तुम अपना कर्तव्य निभाते हो, अगर तुममें आत्म-जागरूकता है, और तुम जानते हो कि तुम क्या हो तब तुम्हारा यह माँग करना अनुचित नहीं होगा कि परमेश्वर तुम पर कृपादृष्टि रखे, तुम्हें अनुग्रह दिखाए, या तुम्हारा विशेष ध्यान रखे? (हाँ, अनुचित होगा।) यहाँ तक कि तुम भी अपने आप को तुच्छ समझते हो, तुम भी खुद को नीची नजर से देखते हो, और फिर भी तुम चाहते हो कि परमेश्वर तुम पर कृपादृष्टि रखे—इसका कोई अर्थ नहीं निकलता है। इस हिसाब से, अगर तुम चाहते हो कि परमेश्वर तुम पर कृपादृष्टि रखे, तो तुम्हें कम से कम दूसरों की नजरों में खुद को भरोसेमंद बनाना चाहिए। अगर तुम चाहते हो कि दूसरे लोग तुम पर भरोसा करें, तुम पर कृपादृष्टि रखें, तुम्हारे बारे में ऊँची राय रखें, तो कम-से-कम तुम्हें गरिमापूर्ण होना चाहिए, जिम्मेदारी की भावना रखनी चाहिए, अपने वचन का पक्का होना चाहिए, और भरोसेमंद होना चाहिए। इसके अलावा, तुम्हें परमेश्वर के सामने मेहनती, जिम्मेदार और वफादार बनकर आना चाहिए—तब तुम बुनियादी रूप से परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा कर चुके होगे। तब तुम्हें परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त होने की उम्मीद होगी, है ना? (हाँ, होगी।) क्या इसे हासिल करना मुश्किल है? (नहीं।) यहाँ तक कि लोग भी काम सँभालने और साथ जुड़ने के लिए एक भरोसेमंद व्यक्ति पाना चाहते हैं, तो क्या परमेश्वर का लोगों से यह माँग करना कि वे अपने कर्तव्य अच्छी तरह से करें और उसका उनसे यह छोटी सी अपेक्षा रखना ज्यादती है? (नहीं, यह अति नहीं है।) यह बिलकुल भी अति नहीं है। यह लोगों का काम मुश्किल बनाने के लिए नहीं है, बल्कि यह बहुत उचित है। बस इतनी-सी बात है कि लोगों में ऐसा करने की इच्छा नहीं होती है, वे परमेश्वर के विचारों पर चिंतन नहीं करते हैं या परमेश्वर के इरादों की सराहना नहीं करते हैं। वे बस इतना ही कर सकते हैं कि लगातार परमेश्वर से माँग करते रहें कि “तुम्हें मुझे आशीष देना होगा! मुझ पर अनुग्रह करना होगा! मेरा मार्गदर्शन करना होगा!” तो, वह क्या है जो तुम कर रहे हो? क्या तुम अपनी अंतरात्मा और विवेक के अनुसार अपने कर्तव्य को सच में पूरा कर सकते हो? क्या तुम सही मायने में मेहनती, जिम्मेदार और भरोसेमंद हो सकते हो? यह वह न्यूनतम शर्त है जो तुम्हें परमेश्वर की कृपादृष्टि प्राप्त करने के लिए पूरी करनी होगी। क्या यह वही दिशा नहीं है जिस ओर लोगों को कड़ी मेहनत करनी चाहिए? चूँकि तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो, इसलिए तुम्हें सत्य और परमेश्वर की अपेक्षाओं की दिशा में प्रयास करना चाहिए—यही वह दिशा है जिसके लिए लोगों को कड़ी मेहनत करनी चाहिए। लोगों को सही दिशा में कड़ी मेहनत करनी चाहिए। इस तरह, परमेश्वर को संतुष्ट करने के उनके प्रयत्न खोखले नहीं होंगे।
क्या नकली अगुआओं के दिलों में परमेश्वर में उनके विश्वास में उसे संतुष्ट करने की कोई अवधारणा होती है? क्या उनका कोई रवैया होता है? स्पष्ट रूप से, कोई अवधारणा या रवैया नहीं होता है। उनका रवैया दुनिया में जैसे-तैसे काम चलाना होता है, और वे परमेश्वर के साथ भी वैसा ही व्यवहार करते हैं, जो कि बहुत ही ज्यादा अपमानजनक और अवज्ञापूर्ण व्यवहार होता है। इस किस्म का रवैया परमेश्वर को गंभीर रूप से अपमानित करता है और उसकी निंदा करता है, और परमेश्वर इससे बहुत नफरत करता है। परमेश्वर ने उन्हें जीवन और वह सब कुछ दिया जो एक व्यक्ति के पास होता है, और फिर भी परमेश्वर द्वारा उन्हें दी गई हर चीज के प्रति, उनके जीवन के लिए परमेश्वर द्वारा की जाने वाली व्यवस्थाओं के प्रति, परमेश्वर के आदेश और कार्य के प्रति, और अपने कर्तव्यों के प्रति उनका रवैया अवमानना और तिरस्कार का होता है। “तिरस्कार” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है जैसे-तैसे काम चलाकर दिन गुजारना और किसी भी चीज को गंभीरता से नहीं लेना। परमेश्वर उनके इस रवैये से बेहद नफरत करता है, और यही कारण है कि वह ऐसे लोगों को बिल्कुल नहीं बचाएगा। यहाँ तुम लोगों को क्या बात समझनी चाहिए? वह यह है कि तुम्हें इस तरह का व्यक्ति नहीं बनना चाहिए। चाहे तुम अगुआ हो या नहीं हो, या तुममें अगुआ बनने की महत्वाकांक्षा और इच्छा हो या नहीं हो, सबसे पहले तुम्हें आचरण का तरीका सीखना चाहिए, और निठल्ला, आवारा या घटिया व्यक्ति बिल्कुल नहीं बनना चाहिए। अपने आचरण में तुम्हें एक ईमानदार रवैया रखना चाहिए, तुममें गरिमा और जिम्मेदारी की भावना होनी चाहिए—यह न्यूनतम अपेक्षा है। सिर्फ इसी आधार पर ही लोग परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी कर सकते हैं और उसका आदेश पूरा कर सकते हैं। अगर तुम्हारे पास यह नींव भी नहीं है, तो फिर बात करने के लिए कुछ भी नहीं है।
3 अप्रैल 2021
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