अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (8) खंड एक
मद आठ : काम के दौरान आने वाली उलझनों और कठिनाइयों की तुरंत सूचना दो और उन्हें हल करने का तरीका खोजो (भाग दो)
पिछली बार, हमने अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियों की आठवीं मद पर संगति की थी : “काम के दौरान आने वाली उलझनों और कठिनाइयों की तुरंत सूचना दो और उन्हें हल करने का तरीका खोजो।” वैसे तो आठवीं मद में सिर्फ एक ही वाक्य है, और इसमें मूल रूप से अगुआओं और कार्यकर्ताओं से उनकी जिम्मेदारियों के संबंध में सिर्फ एक चीज की अपेक्षा की जाती है जो बहुत ही सरल है, लेकिन हमने इस विषय पर संगति करते हुए एक सभा बिताई। पिछली बार हमने इस विषय के किन पहलुओं पर विशिष्ट रूप से संगति की थी? यह अगुआओं और कार्यकर्ताओं की कौन-सी मुख्य जिम्मेदारियों का जिक्र करता है? (यह कि जब वे उलझनों और कठिनाइयों का सामना करते हैं, तो उन्हें एक जगह इकट्ठा होना चाहिए और संगति करनी चाहिए और अगर वे संगति के जरिए उन पर स्पष्टता प्राप्त करने में असमर्थ हों, तो तुरंत उन्हें इन्हें हल करने और ऊपरवाले को उनकी सूचना देने का तरीका खोजना चाहिए।) यह मद अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिन मुख्य जिम्मेदारियों का जिक्र करती है, वे हैं कार्य में भाग लेना, और खुद को वास्तविक कार्य की विभिन्न मदों में तल्लीन करना, ताकि कार्य के दौरान आने वाली विभिन्न समस्याओं का पता लग सके, और उन्हें समय पर सुलझाया जा सके। अगर विभिन्न तरीके आजमाए जा चुके हैं, और फिर भी समस्याएँ पूरी तरह से सुलझाई नहीं जा सकती हैं, और वे फिर भी मौजूद रहती हैं और उलझन और कठिनाइयाँ बन जाती हैं, तो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को उन उलझनों और कठिनाइयों को इकट्ठा नहीं होने देना चाहिए या उन्हें ताक पर नहीं रखना चाहिए और नजरअंदाज नहीं करना चाहिए, बल्कि उन्हें तुरंत सुलझाने का तरीका सोचना चाहिए। यकीनन, उन्हें सुलझाने का सबसे अच्छा तरीका है, भाई-बहनों और विभिन्न स्तरों पर अगुआओं और कार्यकर्ताओं के साथ खोजना और संगति करना ताकि इन समस्याओं के समाधान तक पहुँचा जा सके। अगर समस्याएँ नहीं सुलझ सकती हैं, तो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को बड़ी समस्याओं को मामूली समस्याओं की तरह, और फिर उन मामूली समस्याओं को कोई समस्या ही नहीं है की तरह दिखाने का प्रयास नहीं करना चाहिए, या उन्हें बस ताक पर नहीं रख देना चाहिए और नजरअंदाज नहीं करना चाहिए, बल्कि तुरंत ऊपरवाले को उनकी सूचना देनी चाहिए और ऊपरवाले से समाधान माँगने चाहिए ताकि उन्हें हल किया जा सके। इस तरह से, कार्य बिना कठिनाइयों और बाधाओं के सुचारू रूप से प्रगति करेगा।
अगुआओं और कार्यकर्ताओं को काम के दौरान आने वाली उलझनों और कठिनाइयों की तुरंत सूचना देनी चाहिए और उन्हें हल करना चाहिए
I. “तुरंत” की परिभाषा
अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियों की आठवीं मद में काम के दौरान आने वाली उलझनों और कठिनाइयों की तुरंत सूचना देने का जिक्र किया गया है—यह बहुत ही महत्वपूर्ण है। अगर किसी समस्या का पता आज लगता है, लेकिन उस समस्या के समाधान में आठ-दस दिन, या यहाँ तक कि छह महीने या एक वर्ष की देरी हो जाती है, तो क्या उसे “तुरंत” कहा जा सकता है? (नहीं, ऐसा नहीं कहा जा सकता है।) तो, “तुरंत” का क्या अर्थ है? (इसका अर्थ है समस्या को फौरन, अभी और हाथों हाथ सँभालना।) क्या यह थोड़ा कठोर नहीं है? अगर हम इसे समझाने के लिए समय से संबंधित शब्दावली का उपयोग करें, तो “तुरंत” का अर्थ है समस्या को फौरन, अभी, और इसी समय सुलझाना, लेकिन अगर हम इन शब्दों के शाब्दिक अर्थ देखें, तो लोगों के लिए इसे कर पाना आसान नहीं है, और यह वास्तविक नहीं है। तो, अगर हम “तुरंत” शब्द को सटीकता से परिभाषित करना चाहें, तो हमें यह कैसे करना चाहिए? अगर समस्या बड़ी नहीं है, लेकिन यह फिर भी कार्य में बाधा उत्पन्न करती है, और अगर इसे कुछ घंटों में सुलझाया जा सकता है, तो इसे कुछ घंटों में सुलझा देना चाहिए—क्या इसे “तुरंत” माना जा सकता है? (हाँ।) मान लो कि समस्या थोड़ी पेचीदा और कठिन है, और इसे दो या तीन दिनों में सुलझाया जा सकता है, लेकिन लोग सत्य खोजने, ज्यादा जानकारी ढूँढ़ने और एक ही दिन में इसे हल करने का प्रयास करते हैं—क्या यह कार्य के लिए ज्यादा फायदेमंद नहीं होगा? मान लो कि ऐसी कोई समस्या है जिसकी असलियत अभी जानी नहीं जा सकती है, और इसके लिए जाँच-पड़ताल और शोध की जरूरत है, जिसमें कुछ समय लगेगा। इस विशेष समस्या को सुलझाने में ज्यादा से ज्यादा तीन दिन लगेंगे। अगर इसमें तीन दिन से ज्यादा समय लगता है, तो यह संदेह उत्पन्न होगा कि इसके समाधान में जानबूझकर देरी की जा रही है, और इसका अर्थ है कि समय बर्बाद किया जा रहा है। इसलिए, समस्या की सूचना दी जानी चाहिए, इसका हल ढूँढ़ना चाहिए और तीन दिनों में इसे हल कर देना चाहिए। “तुरंत” का यही अर्थ है। अगर समस्या को हल करने के लिए स्तर-दर-स्तर संप्रेषण और जाँच-पड़ताल, और साथ ही स्तर-दर-स्तर जानकारी इकट्ठा करने, वगैरह की जरूरत पड़ती है—अगर ये विभिन्न प्रक्रियाएँ बहुत ही पेचीदा हैं—तो भी इसे एक महीने तक नहीं खींचा जाना चाहिए। मान लो कि अगर अगुआ और कार्यकर्ता जल्दी करते हैं, तेजी से कार्य करते हैं और कुछ उपयुक्त लोगों का चयन और उपयोग करते हैं, तो समस्या एक हफ्ते में हल हो सकती है, तो इस स्थिति में, “तुरंत” का अर्थ है इस समस्या के समाधान को एक हफ्ते तक सीमित करना। समस्या को हल करने में एक हफ्ते से ज्यादा समय लेना अनुचित है—यह तुरंत नहीं है। इस तरह के अपेक्षाकृत पेचीदा मामलों को सँभालने के लिए यही समय सीमा है। समय का यह पैमाना किस पर आधारित है? इसे मामले के आकार और इसकी कठिनाई के स्तर के आधार पर निर्धारित किया जाता है। लेकिन, ज्यादातर चीजें, जैसे कि पेशेवर कौशल से संबंधित समस्याएँ या लोगों के लिए सिद्धांत अस्पष्ट होने के मुद्दे, कुछ वाक्यों से हल किए जा सकते हैं—इन समस्याओं के समाधान की अवधि कहाँ तक सीमित होनी चाहिए ताकि इसे “तुरंत” माना जा सके? अगर हम किसी मामले के आकार और उसकी कठिनाई के स्तर के आधार पर “तुरंत” को परिभाषित करते हैं, तो ज्यादातर मामले आधे दिन से भी कम समय में हल किए जा सकते हैं, बहुत ही कम मामले हैं जिन्हें हल करने में शायद ज्यादा से ज्यादा एक हफ्ते की जरूरत हो; अगर कोई नई समस्या उत्पन्न होती है, तो फिर वह एक अलग मामला है। इसलिए, अगर हम “तुरंत” को फौरन, अभी, और इसी समय के रूप में परिभाषित करते हैं तो इन शब्दों के शाब्दिक अर्थ से यह लोगों से की जाने वाली एक कठोर माँग की तरह लगता है, लेकिन अगर हम समय-सीमा को देखें, तो ज्यादातर मामले ज्यादा से ज्यादा आधे दिन या एक दिन में हल किए जा सकते हैं अगर लोग तुरंत सूचना देते हैं और उन्हें हल करने का तरीका खोजते हैं। क्या इसे समय के संबंध में कठिन माना जा सकता है? (नहीं।) और चूँकि यह समय के लिहाज से कठिन नहीं है, इसलिए अगुआओं और कार्यकर्ताओं के लिए यह अपेक्षा पूरी करनी आसान होनी चाहिए कि वे काम के दौरान आने वाली उलझनों और कठिनाइयों की तुरंत सूचना दें और उन्हें हल करने का तरीका खोजें, और ये उलझन और कठिनाइयाँ लगातार मौजूद और अनसुलझी नहीं रहनी चाहिए, और उन्हें लंबे समय तक कार्य में इकट्ठा होने के लिए तो बिल्कुल भी नहीं छोड़ना चाहिए। अब तुम सभी को “तुरंत” की समय अवधारणा पता होनी चाहिए—यह इस बात का मुद्दा है कि काम के दौरान आने वाली उलझनों और कठिनाइयों को सँभालते समय अगुआओं और कार्यकर्ताओं को समय का पैमाना कैसे नापना चाहिए। संक्षेप में, “तुरंत” की सबसे सटीक परिभाषा है, जितनी जल्दी हो सके कार्य करना—यानी, अगर आधे दिन में किसी समस्या की सूचना दी जा सकती है, उसका हल खोजा जा सकता है, और उसे हल किया जा सकता है, तो यह आधे दिन में ही करना चाहिए, और अगर उसे एक दिन में हल किया जा सकता है, तो फिर यह एक दिन में ही करना चाहिए—और बिल्कुल देरी नहीं करने और कार्य को प्रभावित नहीं होने देने का प्रयास करना चाहिए। यही अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारी है। जब कार्य के दौरान समस्याएँ आती हैं और उनका पता चलता है, तो अगुआओं तथा कार्यकर्ताओं को तुरंत उन पर संगति करनी चाहिए और उन्हें हल करना चाहिए। अगर वे उन्हें हल नहीं कर सकते हैं, तो उन्हें ताक पर रखने, नजरअंदाज करने, और उन्हें गंभीरता से नहीं लेने के बजाय उन्हें उनकी सूचना देनी चाहिए और ऊपरवाले से उन्हें जल्द से जल्द हल करने का तरीका खोजना चाहिए। समस्याएँ उत्पन्न होने पर अगुआओं और कार्यकर्ताओं को उन्हें तुरंत हल करना चाहिए, ना कि उन्हें टालमटोल करनी चाहिए, प्रतीक्षा करनी चाहिए, या दूसरों पर भरोसा करना चाहिए—अगुआओं और कार्यकर्ताओं को ये अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित नहीं करनी चाहिए।
II. समस्याएँ तुरंत हल नहीं करने के दुष्परिणाम
समस्याएँ हल करने का मुख्य सिद्धांत यह है कि इसे तुरंत करना चाहिए। इसे क्यों तुरंत करना चाहिए? अगर बहुत-सी समस्याएँ उत्पन्न होती हैं और फिर उन्हें तुरंत हल नहीं किया जा सकता है, तो एक लिहाज से लोग एक भ्रमित स्थिति में फँस जाएँगे और उन्हें पता नहीं होगा कि कैसे कार्य करना है, और दूसरे लिहाज से, अगर लोग एक गलत तरीके के आधार पर आगे बढ़ते रहे, और बाद में उन्हें अपने किए कार्य को फिर से करना और सुधारना पड़े, तो फिर परिणाम क्या होंगे? एक बड़ी मात्रा में श्रमशक्ति, वित्तीय संसाधन और भौतिक संसाधन की बर्बादी और खपत होगी—यह नुकसान है। अगर कार्य में समस्याएँ उत्पन्न होने पर अगुआ और कार्यकर्ता अंधे बने रहे और इन समस्याओं का तुरंत पता लगाने और उन्हें हल करने में असमर्थ हुए, तो बहुत से लोग एक गलत तरीके से कार्य करते रहेंगे। जब लोगों को वाकई इन समस्याओं का पता चलेगा और वे उन्हें हल करना और सुधारना चाहेंगे, तो तब तक ये मुद्दे कलीसियाई कार्य को नुकसान पहुँचा चुके होंगे। क्या तब तक वह सारी श्रमशक्ति और वे सारे वित्तीय संसाधन और भौतिक संसाधन बर्बाद नहीं हो चुके होंगे? क्या ऐसे नुकसान होने और अगुआओं और कार्यकर्ताओं द्वारा समस्याएँ तुरंत हल नहीं करने के बीच कोई संबंध है? (हाँ, है।) अगर अगुआ और कार्यकर्ता कार्य पर अनुवर्ती कार्रवाई कर सकते हैं, उसकी निगरानी और निरीक्षण कर सकते हैं, और उसके लिए निर्देश दे सकते हैं, तो वे समस्याओं का तुरंत पता लगाने और उन्हें हल करने में बिल्कुल समर्थ होंगे। अगर अगुआ और कार्यकर्ता लापरवाह हैं, और वे कार्य पर अनुवर्ती कार्रवाई नहीं करते हैं, उसकी निगरानी और निरीक्षण नहीं करते हैं और उसके लिए निर्देश नहीं देते हैं, अगर वे इस संबंध में बहुत ही निष्क्रिय हैं, और वे इतनी सारी समस्याएँ होने की प्रतीक्षा करते हैं कि उनके द्वारा उन्हें हल करने, ऊपरवाले को उनकी सूचना देने और उससे समाधान माँगने के बारे में सोचने से पहले ही, ये मुद्दे पूरी तरह हाथ से निकल जाते हैं, तो क्या ऐसे अगुआओं और कार्यकर्ताओं ने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी की हैं? (नहीं।) यह जिम्मेदारी की गंभीर उपेक्षा है; ऐसे अगुआ और कार्यकर्ता ना सिर्फ समस्याएँ हल करने में विफल रहे हैं, बल्कि उन्होंने परमेश्वर के घर की श्रमशक्ति और भौतिक संसाधनों का नुकसान किया है, और साथ ही कलीसियाई कार्य में भी बहुत बड़ी बाधा उत्पन्न की है। अगुआओं और कार्यकर्ताओं द्वारा जिम्मेदारी की उपेक्षा, उनकी लापरवाही, जड़ता और मंदबुद्धि के कारण, और क्योंकि वे कार्य के दौरान उत्पन्न होने वाली कई समस्याओं का तुरंत पता लगाने और उन्हें हल करने में समर्थ नहीं होते हैं, और यहाँ तक कि तुरंत उनकी सूचना ऊपरवाले को नहीं दे पाते हैं और ऊपरवाले से समाधान नहीं माँग पाते हैं इसलिए, कई कार्यों को फिर से करना पड़ता है, और उन्हें फिर से करने के बाद, सिद्धांतों को ढूँढ़ने में असमर्थता के कारण और भी समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं। चीजों के इसी तरह से जारी रहने पर, कार्य पूरा होने की तारीख में भी बहुत देरी हो जाती है, और जिस कार्य को पूरा होने में एक महीने का समय लगना चाहिए था उसे पूरा होने में तीन महीने लग जाते हैं, और जिस कार्य को पूरा होने में तीन महीने लगने चाहिए थे उसे पूरा होने में आठ या नौ महीने लग जाते हैं—इसका सीधा संबंध अगुआओं और कार्यकर्ताओं द्वारा वास्तविक कार्य नहीं करने से है। क्योंकि अगुआ और कार्यकर्ता अपने कार्य की जिम्मेदारी नहीं लेते हैं—यानी, वे समस्याओं के उत्पन्न होने पर उनका तुरंत पता लगाने और सुधारने में समर्थ नहीं होते हैं—इसलिए कार्य की विभिन्न मदें परिणाम हासिल करने में विफल होती रहती हैं और ठप स्थिति में बनी रहती हैं। और इस समस्या के लिए कौन सीधे जिम्मेदार है? (अगुआ और कार्यकर्ता।) इसलिए, अगुआओं और कार्यकर्ताओं के लिए वास्तविक कार्य करना बहुत महत्वपूर्ण है, और वास्तविक कार्य करने के दौरान उनके लिए समस्याओं का पता लगाना भी बहुत महत्वपूर्ण है। कभी-कभी अगुआ और कार्यकर्ता समस्याओं का पता लगा तो लेते हैं, लेकिन वे उन्हें हल करना नहीं जानते हैं, लेकिन फिर भी वे उन्हें हल करने के लिए तुरंत उनकी सूचना ऊपरवाले को देने और ऊपरवाले से समाधान माँगने में समर्थ होते हैं, जो कि और भी महत्वपूर्ण है। कई अगुआ और कार्यकर्ता सोचते हैं, “हमारे कार्य करने के अपने तरीके हैं। ऊपरवाले को हमें बस सिद्धांत बताने की जरूरत है और बाकी वास्तविक कार्य हम खुद कर लेंगे। अगर हम किसी कठिनाई का सामना करते हैं, तो हमारे लिए बस नीचे संगति करना और साथ मिलकर प्रार्थना करना ही काफी होगा।” जहाँ तक समस्या हल करने की ताकत का या इस बात का प्रश्न है कि क्या उनके समाधान विस्तृत या प्रभावी हैं, तो वे समान रूप से कभी भी इन चीजों की बिल्कुल परवाह नहीं करते हैं या इनके बारे में नहीं पूछते हैं। वे कार्य करते समय इसी किस्म का गैर-जिम्मेदार रवैया रखते हैं, और अंत में इसका यही अर्थ होता है कि कलीसिया में कार्य की सभी मदें सुचारू रूप से प्रगति नहीं कर पाती हैं, और उनमें ऐसी गंभीर समस्याएँ होती हैं जिनका हल नहीं हो पाता है। यही परिणाम होता है जब अगुआओं और कार्यकर्ताओं की काबिलियत बहुत ही खराब होती है, या फिर वे जिम्मेदारी नहीं लेते हैं और वास्तविक कार्य नहीं करते हैं।
आठवीं जिम्मेदारी के आधार पर कुछ प्रकार के नकली अगुआओं का गहन-विश्लेषण
I. नकली अगुआ जो छद्म-आध्यात्मिक हैं
पिछली बार, हमने इस बात पर संगति की थी कि उलझन और कठिनाइयाँ क्या होती हैं, और ऐसी कुछ समस्याओं को परिभाषित किया था जिनकी तुरंत सूचना देनी चाहिए और जिनके लिए तुरंत समाधान खोजने चाहिए। मूल रूप से, यहाँ दो मुख्य प्रकार की समस्याएँ हैं। एक प्रकार की समस्याएँ कार्य के दौरान आने वाली वे समस्याएँ हैं जिनके बारे में लोग अनिश्चित हैं या जिनकी असलियत वे नहीं देख पाते हैं। जब इन समस्याओं की बात आती है, तो लोगों को सिद्धांत समझना बहुत कठिन लगता है। वैसे तो हो सकता है कि वे सिद्धांतों को धर्म-सैद्धांतिक रूप से समझते हों, लेकिन उन्हें यह नहीं मालूम होता है कि उनका अभ्यास कैसे करना है या उन्हें कैसे कार्यान्वित करना है। ये समस्याएँ उलझनों से संबंधित हैं। दूसरा प्रकार उन वास्तविक कठिनाइयों और समस्याओं का है जिन्हें लोग नहीं जानते हैं कि कैसे हल करना है। यह प्रकार उलझनों की तुलना में कुछ हद तक ज्यादा गंभीर है, और ये ऐसी समस्याएँ हैं जिनके बारे में अगुआओं और कार्यकर्ताओं को भी सूचना देनी चाहिए और जिनके लिए समाधान खोजने चाहिए। पिछली बार, हमने मुख्य रूप से यह संगति की थी कि कार्य के दौरान आने वाली समस्याओं की सूचना देना और उन्हें हल करने का तरीका खोजना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारी है, और हमने ऐसी कुछ चीजों पर सकारात्मक दृष्टिकोण से संगति की थी जो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को करनी चाहिए और जिन पर ध्यान देना चाहिए। आज, हम इस बात का गहन-विश्लेषण करेंगे कि आठवीं मद के संबंध में नकली अगुआओं की क्या अभिव्यक्तियाँ होती हैं, और वे वह कार्य करते हैं या नहीं जो अगुआओं को करना चाहिए और वे जिम्मेदारियाँ पूरी करते हैं या नहीं जो अगुआओं को पूरी करनी चाहिए। जब कार्य के दौरान आने वाली समस्याओं को हल करने की बात आती है, तो नकली अगुआ इस संबंध में निश्चित रूप से योग्य नहीं होते हैं; वे कार्य के इस पहलू को करने में विफल रहते हैं और वे यह जिम्मेदारी पूरी करने में विफल रहते हैं। एक प्रकार का नकली अगुआ होता है जो कार्य करते समय एक धारणा रखता है, वह सोचता है, “कार्य करने के दौरान मैं वे औपचारिकताएँ नहीं करता, ना ही मैं ज्ञान, सीखने, कौशल या हठधर्मिता जैसी किसी चीज पर ध्यान देता हूँ। मैं बस यह सुनिश्चित करता हूँ कि मैं सभाओं में परमेश्वर के वचनों के सत्य की स्पष्ट रूप से संगति करूँ, और यही काफी है। हर हफ्ते मैं छोटे समूहों के लिए दो सभाएँ करता हूँ, हर दो हफ्तों में मैं अगुआओं और कार्यकर्ताओं के लिए एक सभा करता हूँ, और हर महीने मैं सभी भाई-बहनों के लिए एक बड़ी सभा करता हूँ। यह काफी है कि मैं ये सभी प्रकार की सभाएँ अच्छी तरह से करता हूँ।” यह उनके कार्य करने का आधार और तरीका है। इस प्रकार के अगुआ और कार्यकर्ता बस लगातार धर्मोपदेश देने का प्रशिक्षण लेते रहते हैं, और वे खुद को शब्दों और धर्म-सिद्धांतों से सुसज्जित करने में बहुत मेहनत करते हैं—वे हर सभा में संगति करने के लिए रूपरेखा, सामग्री, मिसालें और सत्य तैयार करते हैं, और वे कुछ लोगों की स्थितियाँ और समस्याएँ हल करने के लिए कुछ योजनाएँ भी तैयार करते हैं। वे सोचते हैं कि एक अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में, उन्हें बस अच्छी तरह से उपदेश देना है, और फिर उनकी जिम्मेदारियाँ पूरी हो जाती हैं। वे सोचते हैं कि उन्हें दूसरी चीजों पर ध्यान देने की जरूरत नहीं है, जैसे कि जिस तरह से सुसमाचार का प्रचार किया जा रहा है वह उचित है या नहीं, या कलीसिया के कर्मियों को कैसे नियुक्त किया जाता है, या क्या विभिन्न प्रकार के पेशेवर कार्य करने वाले कर्मचारी योग्य और मानक स्तर के हैं—वे मानते हैं कि बस पर्यवेक्षकों को इन चीजों को सँभालने देना ही काफी है। इसलिए, इस प्रकार का व्यक्ति चाहे कहीं भी जाए, वह सभाओं पर और धर्मोपदेशों का प्रचार करने पर ध्यान केंद्रित करता है, और चाहे किसी भी किस्म की सभा क्यों ना की जा रही हो, वह हमेशा धर्मोपदेश का प्रचार करता है। बाहरी तौर पर, वह लोगों को परमेश्वर के वचन पढ़ने और भजन गाना सीखने में अगुवाई करता है, और कभी-कभी वह कार्य के बारे में बात करता है। इस प्रकार का व्यक्ति उन समस्याओं के बारे में जानता है जिनके बारे में अक्सर संगति की जाती है, जैसे कि विभिन्न प्रकार के लोग जिन समस्याओं का सामना करते हैं उनकी तुलना करने के लिए परमेश्वर के किन वचनों का उपयोग करना चाहिए, साथ ही, लोग क्यों कमजोर महसूस करते हैं और उनमें क्या स्थितियाँ उत्पन्न हो गई हैं, और इन चीजों को सुलझाने के लिए परमेश्वर के वचनों के किन सत्यों पर संगति करनी चाहिए। कुल मिलाकर, उनके धर्मोपदेश और संगतियाँ सत्य और अभ्यास के कई पहलुओं का जिक्र करती हैं; कुछ काट-छाँट करने से संबंधित हैं, कुछ परीक्षणों और शोधनों से संबंधित हैं, कुछ परमेश्वर के वचनों के प्रार्थना-पाठ करने से संबंधित हैं, कुछ न्याय और ताड़ना का अनुभव करने के तरीकों से संबंधित हैं, वगैरह—वे सत्य के विभिन्न पहलुओं पर थोड़ी संगति कर सकते हैं। जब वे नए विश्वासियों से मिलते हैं, तो वे नए विश्वासियों के लिए धर्मोपदेश देते हैं, और जब वे ऐसे लोगों से मिलते हैं जिन्होंने कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है, तो वे जीवन प्रवेश पर कुछ धर्मोपदेश दे सकते हैं। लेकिन जब किसी पेशेवर कौशल से जुड़े कार्य की बात आती है, तो वे कभी भी कार्य के बारे में पूछताछ नहीं करते हैं या उससे संबंधित चीजों का अध्ययन नहीं करते हैं, समस्याओं को हल करने के लिए कार्य की किसी भी मद पर अनुवर्ती कार्रवाई, उसमें सहभागिता या उसकी खोजबीन तो कभी नहीं करते हैं। उनकी नजर में, वे धर्मोपदेश देकर, परमेश्वर के वचन पढ़कर और भजन सीखकर कार्य कर रहे हैं, और ये अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ हैं; इसके अलावा, दूसरे सभी कार्य तुच्छ हैं, यह दूसरे लोगों का मामला है और उनका इससे कोई लेना-देना नहीं है, और जब तक वे अच्छी तरह से धर्मोपदेश दे सकते हैं, तब तक वे निश्चिंत रह सकते हैं। “निश्चिंत रहने” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि सभा समाप्त करना उनके लिए अपना कार्य समाप्त करने के समान है, और जब आराम करने का समय होता है, तो वे आराम करते हैं। कलीसियाई कार्य के दौरान चाहे कोई भी समस्या क्यों ना आए, वे उसे नजरअंदाज कर देते हैं, और जब लोग किसी समस्या को हल करने के लिए उन्हें ढूँढ़ते हैं तो उन्हें ढूँढ़ निकालना बहुत ही कठिन होता है। कार्य में चाहे कितनी भी व्यस्तता क्यों ना हो, दोपहर की झपकी लेना उनके लिए जरूरी है, और वे सुख-सुविधाओं में लिप्त रहते हैं जबकि दूसरे लोग कष्ट सहन कर सकते हैं और कीमत चुका सकते हैं। वे सोचते हैं, “मैंने उपदेश देना समाप्त कर लिया है, सभा समाप्त हो गई है, और मैंने वह सब कुछ कह दिया है जो मुझे तुम लोगों से कहना चाहिए था। तुम मुझसे और क्या कहलवाना चाहते हो? मेरा कार्य पूरा हो गया है। बाकी कार्य तुम लोगों का है। मैंने तुम्हें परमेश्वर के वचन बता दिए हैं, इसलिए बस सिद्धांतों के अनुसार कार्य करो। जहाँ तक कोई समस्या उत्पन्न होने की बात है, तो वह तुम लोगों का मामला है, और उसका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है। समस्याएँ हल करने के लिए तुम्हें खुद परमेश्वर के सामने जाना चाहिए और प्रार्थना करनी चाहिए, इकट्ठा होना चाहिए, और संगति करनी चाहिए। मुझे ढूँढ़ते हुए मत आना।” जब सभा समाप्त होती है, तो वे कभी किसी को प्रश्न पूछने के लिए नहीं कहते हैं, वे कभी समस्याएँ हल नहीं करना चाहते हैं, और वे कभी भी किसी समस्या का पता नहीं लगा पाते हैं। सभा के बाद वे समझते हैं कि उनका कार्य पूरा हो गया है, और वे नियमित समय पर सोते हैं, खाना खाते हैं और अपना मनोरंजन करते हैं। क्या वे नकली अगुआ नहीं हैं जो वास्तविक कार्य बिल्कुल नहीं करते हैं? (हाँ, वे हैं।)
ऐसे कुछ मामले हैं जिनमें कोई अगुआ या कार्यकर्ता छह महीनों से अपने पद पर आसीन है, और उससे अक्सर मिलने वाले उसके करीबी लोगों को छोड़कर, ज्यादातर भाई-बहन उसे देखने में समर्थ नहीं होते हैं। वे बस अक्सर उसे ऑनलाइन उपदेश देते हुए सुनते हैं, लेकिन जब कोई समस्या होती है, तो वह अगुआ या कार्यकर्ता उसे हल नहीं करता है। कुछ भाई-बहन अपने कर्तव्यों में ऐसी कठिनाइयों का सामना करते हैं, जिन्हें वे नहीं जानते हैं कि कैसे हल करना है, और वे इतने बेचैन हो जाते हैं कि वे शांत नहीं बैठ पाते हैं, और जब वे अपने अगुआ की तलाश करते हैं तो वे उसे ढूँढ़ नहीं पाते हैं। क्या इस तरह का अगुआ अच्छा कार्य कर सकता है? भाई-बहनों को बिल्कुल मालूम नहीं होता है कि उनका अगुआ हर रोज किस चीज में इतना व्यस्त रहता है, यहाँ बहुत सारी समस्याओं और कठिनाइओं को हल करना बाकी है, और वे नहीं जानते हैं कि उनका अगुआ उन्हें हल करने के लिए कब आएगा। हर कोई अगुआ के आने और उनकी सहायता करने की बेसब्री से प्रतीक्षा करता है, और फिर भी चाहे वे कितनी भी देर तक प्रतीक्षा क्यों ना करें, अगुआ कभी नहीं आता है। ऐसे अगुआ और कार्यकर्ता बहुत ही मायावी होते हैं, और वे खुद को छिपाए रखने में माहिर होते हैं! वे बहुत अच्छे तरीके से धर्मोपदेश देते हैं और धर्मोपदेश देने के बाद, वे अच्छी पोशाक पहनकर तैयार हो जाते हैं और कोई कार्य नहीं करते हैं, खुद को किसी ऐसी जगह छिपा लेते हैं जहाँ वे सुख-सुविधाओं में लिप्त रह सकें। और इन सबके बावजूद, वे अब भी यही सोचते हैं कि वे बहुत अच्छे और उचित तरीके से कार्य कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि वे कामचोरी नहीं कर रहे हैं, वे अपने धर्मोपदेश दे चुके हैं, अपनी सभाएँ कर चुके हैं, जो कुछ भी उन्हें कहना चाहिए था, वह सब कुछ कह चुके हैं, और जो कुछ भी उन्हें समझाना चाहिए था, वह सब कुछ समझा चुके हैं। वे कभी भी इस उद्देश्य से भाई-बहनों से गहराई से जुड़ना नहीं चाहते हैं कि कार्य पर अनुवर्ती कार्रवाई कर सकें और उसमें भाग ले सकें, ध्यान से जाँच-परख करके उनकी सहायता कर सकें, और समस्याओं को तुरंत सँभालने और हल करने में उनकी मदद कर सकें। अगर उनका किसी ऐसी समस्या से सामना होता है जिसे वे हल नहीं कर सकते हैं, तो उन्हें यह तक नहीं पता होता है कि उसकी सूचना ऊपरवाले को देनी है और ऊपरवाले से समाधान माँगना है। वे अपने मन में यह भी नहीं सोचते हैं, “क्या भाई-बहन संगति में सिद्धांत सुनने के बाद उन पर बने रह सकते हैं? और कार्य के दौरान फिर से कठिनाइयों और उलझनों से सामना होने पर क्या वे सत्य को थामे रह पाएँगे और सिद्धांतों के अनुसार मामलों को सँभाल पाएँगे? इसके अलावा, कार्य के दौरान कौन सकारात्मक भूमिका निभा रहा है? और कौन-से लोग नकारात्मक भूमिका निभा रहे हैं? और क्या ऐसे लोग हैं जो विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करते हैं, या ऐसे लोग हैं जो चीजें बर्बाद करते हैं, या ऐसे बेतुके लोग हैं जो हमेशा बुरे विचार पेश करते हैं? हाल ही में कार्य कैसी प्रगति कर रहा है?” वे समान रूप से कभी भी ऐसे मुद्दों पर ध्यान नहीं देते हैं या उनके बारे में पूछताछ नहीं करते हैं। इस किस्म के लोगों को ऊपरी तौर पर देखकर लगता है जैसे वे कार्य कर रहे हैं—वे धर्मोपदेश देते हैं, सभाएँ करते हैं, धर्मोपदेशों का मसौदा और रूपरेखाएँ तैयार करते हैं, और यहाँ तक कि कार्य की रिपोर्टें भी लिखते हैं। कुछ अगुआ बार-बार अपने जीवन के अनुभवों पर धर्मोपदेश भी लिखते हैं; वे लगातार तीन या पाँच दिनों तक अपने कमरों में ही रहते हैं और लिखते रहते हैं और यहाँ तक कि उन्हे अपने लिए पानी पिलाने और खाना लाने के लिए भी किसी की जरूरत पड़ती है, और कोई भी दूसरा व्यक्ति उनसे मिल नहीं सकता है। अगर तुम कहते हो कि वे वास्तविक कार्य नहीं कर रहे हैं, तो उन्हें लगता है कि उनके साथ अन्याय हुआ है : “मैं वास्तविक कार्य कैसे नहीं कर रहा हूँ? मैं भाई-बहनों के साथ ही रहता हूँ और मैं हमेशा सभाएँ करता रहता हूँ और धर्मोपदेश देता रहता हूँ। मैं तब तक धर्मोपदेश देता हूँ जब तक मेरा मुँह सूख नहीं जाता है, और कभी-कभी तो मैं देर तक जागता भी हूँ।” बाहर से देखने पर वे बहुत व्यस्त लगते हैं और निठल्ले नहीं लगते हैं—वे बहुत सारे धर्मोपदेश देते हैं, और बोलने और लिखने में बहुत मेहनत करते हैं, वे नियमित रूप से संदेश और पत्र भेजते हैं, और ऊपरवाले द्वारा अपेक्षित सिद्धांतों को बताते हैं, और वे सभाओं के दौरान ईमानदारी और धैर्य से संगति करते हैं और विषय-वस्तु पर रोशनी डालते हैं—वे सचमुच बहुत बोलते हैं, लेकिन वे कभी भी विशिष्ट कार्य में भाग नहीं लेते हैं, वे कभी भी कार्य पर अनुवर्ती कार्रवाई नहीं करते हैं, और वे कभी भी भाई-बहनों के साथ मिलकर किसी समस्या का सामना नहीं करते हैं। अगर तुम उनसे पूछते हो कि कार्य की अमुक मद पर कैसी प्रगति हो रही है या कार्य के परिणाम कैसे हैं, तो उन्हें नहीं पता होता है और उन्हें पहले किसी से पूछने जाना पड़ता है। अगर तुम उनसे पूछते हो कि क्या पिछली बार की समस्याएँ हल हो चुकी हैं, तो वे कहते हैं कि उन्होंने एक सभा की है और सिद्धांतों पर संगति की है। मान लो कि तुम उनसे पूछते हो, “क्या सत्य सिद्धांतों पर तुम्हारे द्वारा संगति करने के बाद भाई-बहन सही मायने में उन्हें समझ गए थे? क्या अब भी उनके भटक जाने की संभावना है? उनमें से किसे सिद्धांतों की तुलनात्मक रूप से बेहतर समझ है, कौन पेशेवर कौशलों में ज्यादा निपुण है, और बेहतर काबिलियत वाला और विकसित किए जाने योग्य कौन है?” उन्हें इनमें से किसी भी प्रश्न का उत्तर नहीं पता होता है; वे इस बारे में कुछ भी नहीं जानते हैं। जब भी तुम उनसे कार्य की स्थिति के बारे में पूछते हो, तो वे कहते हैं, “मैं सिद्धांतों पर संगति कर चुका हूँ, मैंने अभी-अभी एक सभा समाप्त की है, और मैंने अभी-अभी उनकी काट-छाँट की है। उन्होंने अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त की है, और उन्होंने कार्य अच्छी तरह से करने का दृढ़ संकल्प लिया है।” लेकिन जब यह बात आती है कि उसके बाद का कार्य कैसी प्रगति कर रहा है, तो उन्हें बिल्कुल अंदाजा नहीं होता है। क्या उन्हें अगुआ और कार्यकर्ता के रूप में मानक स्तर का माना जा सकता है? (नहीं।) इस प्रकार के अगुआ और कार्यकर्ता जिस तरीके से कार्य करते हैं, वह सिर्फ परमेश्वर के वचन पढ़ना और लोगों को कुछ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का उपदेश देना है, फिर भी वे वास्तविक समस्याएँ हल करने पर कोई ध्यान नहीं देते हैं और इससे भी ज्यादा यह कि वे ऊपरवाले को उनकी सूचना देने और ऊपरवाले से समाधान माँगने से डरते हैं—उन्हें इस बात का बहुत डर रहता है कि ऊपरवाले को उनकी वास्तविक स्थिति का पता चल जाएगा। ऐसे क्रियाकलापों की क्या प्रकृति है? अपने सार के संबंध में वे किस किस्म के व्यक्ति हैं? सटीक रूप से कहें, तो ऐसे लोग मानक फरीसी हैं। फरीसियों की अभिव्यक्तियाँ इस प्रकार हैं : वे गरिमापूर्ण बाहरी क्रियाकलापों में शामिल होते हैं, वे शिष्ट तरीके से बोलते और व्यवहार करते हैं, वे अपने सभी शब्दों और कार्यों को बाइबल पर आधारित करते हैं, और वे लोगों से मिलते और बात करते समय बाइबल से वचनों का पाठ करते हैं, और वे बाइबल की बहुत सी पंक्तियों को याद से दोहरा सकते हैं। नकली अगुआ बिल्कुल फरीसियों जैसे ही होते हैं—बाहर से, तुम उनमें कोई दोष नहीं ढूँढ़ पाओगे, और वे विशेष रूप से आध्यात्मिक दिखते हैं। उनकी बाहरी बातों, क्रियाकलापों और व्यवहार से तुम उनमें किसी भी मुद्दे का पता नहीं लगा सकोगे, फिर भी वे कलीसियाई कार्य में मौजूद कई समस्याओं को हल करने में असमर्थ होते हैं। तो फिर इस “आध्यात्मिक” का क्या अर्थ है? स्पष्ट रूप से कहें, तो यह छद्म-आध्यात्मिकता है। इस किस्म के छद्म-आध्यात्मिक लोग हर रोज खुद को बहुत ही व्यस्त रखते हैं, छोटे-बड़े समूहों के बीच चक्कर लगाते रहते हैं, जहाँ भी जाते हैं, परमेश्वर के वचनों का प्रचार करते हैं। बाहर से ऐसा लगता है जैसे किसी और की तुलना में वे परमेश्वर के वचनों से ज्यादा प्रेम करते हैं, किसी और की तुलना में वे परमेश्वर के वचनों के साथ ज्यादा प्रयास करते हैं, किसी और की तुलना में वे परमेश्वर के वचनों के बारे में ज्यादा जानते हैं, और वे परमेश्वर के वचनों के किसी भी जरूरी अंश की पृष्ठ संख्या फौरन बता सकते हैं। अगर किसी को कोई समस्या होती है, तो वे उसे परमेश्वर के वचनों के संबंधित अंश की पृष्ठ संख्या पकड़ा देते हैं और उसे जाकर पढ़ने के लिए कहते हैं। बाहर से, ऐसा लगता है कि वे हर चीज में परमेश्वर के वचनों को अपनी कसौटी मानते हैं, जब उनके साथ कुछ होता है, तो वे परमेश्वर के वचनों की गवाही देते हैं और ऐसा लगता है कि उनमें कोई समस्या नहीं है। लेकिन जब तुम उनके कार्य को बारीकी से देखते हो, तो क्या वे इन शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का प्रचार करते समय समस्याओं का पता लगाने और उन्हें हल करने में समर्थ होते हैं? अगर, सत्य पर संगति के जरिए, वे कार्य की किसी मद में कोई ऐसी समस्या ढूँढ़ लेते हैं जिसका इससे पहले पता नहीं लगा था, और वे ऐसी समस्याओं को हल कर देते हैं जिन्हें दूसरे हल नहीं कर पाए, तो इससे पता चलता है कि वे परमेश्वर के वचनों को समझते हैं और सत्य पर स्पष्ट रूप से संगति करते हैं। छद्म-आध्यात्मिक लोग इसके बिल्कुल विपरीत होते हैं। वे परमेश्वर के वचनों को मजबूती से याद कर लेते हैं और हर जगह उनका प्रचार करते हैं, और उनके मन और दिल परमेश्वर के वचनों से भरे होते हैं। लेकिन, कार्य के दौरान चाहे कोई बड़ी समस्या उत्पन्न हो या छोटी, वे उसे देख नहीं पाते हैं या उसका पता नहीं लगा पाते हैं। सभाओं के अंत में, उन्हें इस बात का सबसे ज्यादा डर होता है कि कहीं कोई व्यक्ति कोई वास्तविक मुद्दा ना उठा दे और उन्हें उसे हल करने के लिए ना कहे, और इसीलिए वे सभाएँ समाप्त होते ही तुरंत वहाँ से चले जाते हैं, वे सोचते हैं “अगर कोई मुझसे कोई प्रश्न पूछ ले और मैं उसका उत्तर ना दे पाऊँ, तो यह बहुत ही अजीब और शर्मनाक होगा!” यही उनका वास्तविक आध्यात्मिक कद और सच्ची स्थिति है।
सोचो कि तुम लोगों के आसपास कौन-से अगुआ और कार्यकर्ता समस्याएँ हल करने के लिए सत्य पर संगति करने में अच्छे हैं, और अपने कर्तव्य करते समय भाई-बहनों के साथ जुड़ने और उनके साथ मिलकर कार्य को जारी रखने में समर्थ हैं—ये अगुआ और कार्यकर्ता अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करने में समर्थ हैं। सोचो कि तुम्हारे आसपास कौन-से अगुआ और कार्यकर्ता समस्याओं का पता लगाने और उन्हें हल करने में अच्छे हैं, और वास्तविक कार्य करने पर सबसे ज्यादा ध्यान केंद्रित करते हैं और अपने कार्य में सबसे ज्यादा परिणाम प्राप्त करते हैं—ये अगुआ और कार्यकर्ता वफादार लोग हैं जो बहुत जिम्मेदार और विवेकशील हैं। इसके विपरीत, अगर कोई अगुआ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का प्रचार करने में बेहतरीन है, और तार्किक और सुव्यवस्थित तरीके से, एक केंद्रीय बिंदु और विषय के साथ, और संरचित तरीके से प्रचार करता है, और लोग उसके धर्मोपदेशों के प्रति उत्साही रहते हैं, फिर भी वह हमेशा भाई-बहनों से कतराता रहता है, हमेशा डरता है कि भाई-बहन प्रश्न पूछ लेंगे, और वह भाई-बहनों के साथ मिलकर समस्याओं को हल करने और सँभालने से डरता है, तो वह अगुआ छद्म-आध्यात्मिक है, और वह एक नकली अगुआ है। तुम लोगों के आसपास के अगुआ और पर्यवेक्षक किस किस्म के लोग हैं? आम तौर पर, सभाओं में भाग लेने और धर्मोपदेश देने के अलावा, क्या वे कार्य पर अनुवर्ती कार्रवाई करते हैं और उसमें भाग लेते हैं, क्या वे कार्य के दौरान बार-बार समस्याओं का पता लगाने और उन्हें हल करने में समर्थ हैं, या क्या वे सभाओं में एक बार अपना चेहरा दिखाने के बाद बस गायब ही हो जाते हैं? छद्म-आध्यात्मिक नकली अगुआओं को हमेशा यह डर रहता है कि उनके पास प्रचार करने के लिए कुछ नहीं होगा, और भाई-बहनों से मिलने पर उनके पास कहने के लिए कुछ नहीं होगा, और इसलिए वे अपने कमरों में परमेश्वर के वचनों को और धर्मोपदेश देने का तरीका याद करने का अभ्यास करते रहते हैं। उनका मानना है कि धर्मोपदेश का प्रचार करना कोई ऐसी चीज है जिसे सीखा जा सकता है और कुछ ऐसी चीज है जिसे याद करके हासिल किया जा सकता है, जैसे कि ज्ञान प्राप्त करना या विश्वविद्यालय जाना, और उनका मानना है कि उन्हें दिन-रात एक करके और रातों की नींद उड़ा कर अध्ययन करने की भावना अपनानी चाहिए। क्या इन नकली अगुआओं की यह समझ विकृत नहीं है? (हाँ, है।) इस तरह के लोग अपने ऊँचे पद से धर्म-सिद्धांतों का प्रचार करते हैं, और कुछ अप्रासंगिक मामलों पर ध्यान देते हैं, और फिर उन्हें लगता है कि वे अगुआई का कार्य कर रहे हैं। वे कभी भी कार्य निर्देशित करने या समस्याओं को हल करने के लिए कार्यस्थल पर नहीं जाते हैं, बल्कि अक्सर अपने कमरों में बैठे रहते हैं, “अपने आत्म-विकास पर ध्यान केंद्रित करने के लिए एकांत वास करने लगते हैं,” खुद को परमेश्वर के वचनों से सुसज्जित करते हैं—क्या यह जरूरी है? किन परिस्थितियों में अगुआ और कार्यकर्ता कलीसियाई कार्य और भाई-बहनों को कुछ समय के लिए एक तरफ रख सकते हैं और खुद को सत्य से सुसज्जित करने के लिए जा सकते हैं? जब कार्य की कोई व्यस्तता ना हो, और जो समस्याएँ हल की जानी चाहिए वे सभी हल हो चुकी हों, और जिन ध्यान देने योग्य मामलों और सिद्धांतों को समझाना चाहिए वे समझा दिए गए हों, और भाई-बहनों के कोई प्रश्न या कठिनाइयाँ ना हों, और कोई भी विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न नहीं कर रहा हो, और कार्य सुचारू रूप से प्रगति कर सकता हो, और कोई और बाधा ना हो, तो अगुआ और कार्यकर्ता परमेश्वर के वचन पढ़ सकते हैं और खुद को सत्य से सुसज्जित कर सकते हैं—सिर्फ यही वास्तविक कार्य करना कहलाता है। नकली अगुआ इस तरह से कार्य नहीं करते हैं; वे हमेशा खुद को सुर्खियों में रखने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, और वे दिखावे के लिए बस कुछ बहुत ही दिखाई पड़ने वाले कार्य करते हैं जिन्हें दूसरे लोग देख पाते हैं। अगर परमेश्वर के वचनों को पढ़ते समय या कोई धर्मोपदेश सुनते समय उन्हें कुछ नया प्रकाश मिल जाता है, तो उन्हें लगता है कि उन्होंने कुछ हासिल कर लिया है और उनके पास सत्य वास्तविकता है, और फिर वे दूसरों को धर्मोपदेश देने के लिए जल्दी से एक अवसर तलाशने लगते हैं। वे सुनियोजित, तार्किक और सुव्यवस्थित तरीके से धर्म-सिद्धांतों का प्रचार करते हैं, जिसमें एक केंद्रीय बिंदु और विषयवस्तु होती है, और इसे ऐसे तरीके से करते हैं जो किसी मशहूर हस्ती के भाषण या शैक्षिक व्याख्यान से ज्यादा जोरदार और गहरा होता है, और वे इससे काफी संतुष्ट महसूस करते हैं। और फिर भी वे मन में सोचते हैं, “मैं यह धर्मोपदेश समाप्त करने के बाद अगली बार क्या प्रचार करूँगा? मेरे पास और कुछ नहीं है।” और इसलिए वे जल्दी से वहाँ से चले जाते हैं और “अपने आत्म-विकास पर ध्यान केंद्रित करने के लिए एकांत वास करने लगते हैं” और गहन धर्म-सिद्धांतों की तलाश करते हैं। वे कलीसिया के कार्यस्थल पर कभी दिखाई नहीं देते हैं, और जब लोगों को कठिनाइयाँ होती हैं और वे उन्हें हल किए जाने की प्रतीक्षा कर रहे होते हैं, तो इन नकली अगुआओं का कहीं कोई अता-पता नहीं होता है। क्या नकली अगुआ संकोची और असहज महसूस नहीं करते हैं? वे वास्तविक समस्याएँ हल नहीं कर पाते हैं और फिर भी दिखावे के लिए वे बड़े-बड़े धर्मोपदेशों का प्रचार करना चाहते हैं। ये लोग पूरी तरह से बेशर्म हैं।
सारे नकली अगुआ शब्द और धर्म-सिद्धांतों का प्रचार कर सकते हैं, वे सभी छद्म-आध्यात्मिक होते हैं, वे कोई वास्तविक कार्य नहीं कर सकते, और कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करने के बाद भी सत्य को नहीं समझते—कहा जा सकता है कि उनमें कोई आध्यात्मिक समझ नहीं है। वे सोचते हैं कि कलीसियाई अगुआ होने का अर्थ यह है कि उन्हें बस कुछ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का उपदेश देना है, कुछ नारे लगाने हैं, और परमेश्वर के वचनों को थोड़ा सा समझाना है, और फिर लोग सत्य समझ जाएँगे। वे नहीं जानते हैं कि कार्य करने का क्या अर्थ है, वे नहीं जानते हैं कि अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ वास्तव में क्या हैं, और वे नहीं जानते हैं कि परमेश्वर का घर किसी को अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में वास्तव में क्यों चुनता है, या वास्तव में यह किन समस्याओं को हल करने के लिए है। इसलिए, चाहे परमेश्वर का घर कितनी भी संगति क्यों न करे कि अगुआओं और कार्यकर्ताओं को काम की अनुवर्ती देखभाल करनी चाहिए, काम का निरीक्षण करना चाहिए, और कार्य की निगरानी करनी चाहिए, कि उन्हें काम में आ रही समस्याओं का तुरंत पता लगाकर उनका समाधान करना चाहिए, इत्यादि, वे इनमें से किसी का भी संज्ञान नहीं लेते और वे इसे नहीं समझते हैं। वे परमेश्वर के घर की अगुआओं और कार्यकर्ताओं से की जाने वाली अपेक्षाओं को पूरा करने में सक्षम नहीं होते, और वे कर्तव्यों के निर्वहन में शामिल पेशेवर कौशलों से संबंधित समस्याओं को नहीं समझ पाते हैं, साथ ही पर्यवेक्षकों के चयन के लिए सिद्धांत से जुड़े मसले इत्यादि भी नहीं समझते, और यदि वे इन समस्याओं के बारे में जानते भी हों, फिर भी वे उन्हें सँभालने में सक्षम नहीं होते। इसलिए, ऐसे नकली अगुआओं के नेतृत्व में कलीसिया के काम में आने वाली सभी प्रकार की समस्याओं का समाधान नहीं किया जा सकता। परमेश्वर के चुने हुए लोगों को अपने कर्तव्यों का पालन करने के दौरान पेशेवर कौशलों से संबंधित जो समस्याएँ आती हैं, सिर्फ वही नहीं, बल्कि परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश से संबंधित कठिनाइयाँ भी लंबे समय तक अनसुलझी रह जाती हैं, और जब कुछ अगुआ और कार्यकर्ता या कार्य के विभिन्न मदों के पर्यवेक्षक वास्तविक कार्य करने में समर्थ नहीं होते हैं, तो उन्हें तुरंत बर्खास्त नहीं किया जाता है या दूसरा काम नहीं सौंपा जाता है, वगैरह-वगैरह। इनमें से कोई भी समस्या तेजी से हल नहीं होती, और परिणामस्वरूप कलीसिया में काम की विभिन्न मदों की दक्षता लगातार घटती जाती है, और काम की प्रभावशीलता कम से कमतर होती जाती है। जहाँ तक कार्मिकों की बात है, तो जो लोग कुछ हद तक प्रतिभाशाली और बोलने में अच्छे होते हैं, वे अगुआ और कार्यकर्ता बन जाते हैं, जबकि जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं, जो कड़ी मेहनत कर सकते हैं, और बिना किसी शिकायत के अथक परिश्रम करते हैं, उन्हें पदोन्नति और विकास नहीं मिलता है, और उनके साथ श्रमिकों जैसा व्यवहार किया जाता है, और विभिन्न तकनीकी कर्मी जिनके पास कुछ खूबियाँ हैं, उनका उचित उपयोग नहीं किया जाता है। साथ ही, कुछ लोग जो ईमानदारी से अपना कर्तव्य निभाते हैं, उन्हें जीवन का पोषण नहीं मिलता, और इसलिए वे नकारात्मकता और कमजोरी में डूब जाते हैं। इतना ही नहीं, मसीह-विरोधी और बुरे लोग चाहे जितने बुरे काम क्यों न करें, ऐसा लगता है कि नकली अगुआओं ने उसे नहीं देखा होता। यदि कोई किसी बुरे व्यक्ति या मसीह-विरोधी को उजागर करता है, तो नकली अगुआ उनसे यह भी कहेंगे कि उन्हें उस व्यक्ति के साथ प्रेम से पेश आना चाहिए और उन्हें पश्चात्ताप करने का मौका देना चाहिए। ऐसा करके वे कुकर्मियों और मसीह-विरोधियों को बुरा करने और कलीसिया में बाधाएँ पैदा करने देते हैं, और इससे इन कुकर्मियों, छद्म-विश्वासियों और मसीह-विरोधियों को बहिष्कृत या निष्कासित करने में बहुत देरी होती है, और वे कलीसिया में कुकर्म करना और कलीसिया के कार्य में बाधा डालना जारी रख पाते हैं। नकली अगुआ इनमें से किसी भी समस्या से निपटने और उसका समाधान करने में सक्षम नहीं होते; वे लोगों के साथ निष्पक्ष व्यवहार करने या उचित तरीके से काम की व्यवस्था करने में सक्षम नहीं होते, बल्कि वे लापरवाही से कार्य करते हैं और सिर्फ कुछ बेकार कार्य करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप वे कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी और अराजकता उत्पन्न करते हैं। परमेश्वर का घर सत्य पर चाहे जैसी संगति करे या कलीसिया के काम को क्रियान्वित करते समय पालन किए जाने वाले सिद्धांतों पर कैसा भी जोर दे—अलग-अलग प्रकार के कुकर्मियों और छद्म-विश्वासियों में से जिन पर प्रतिबंध लगाना चाहिए उन पर प्रतिबंध लगाना और जिन्हें बाहर निकालना चाहिए उन्हें बाहर निकालना, और अच्छी काबिलियत और समझने की क्षमता वाले लोगों को पदोन्नत करना और विकसित करना, और ऐसे लोग जो सत्य का अनुसरण कर सकते हों, जिन्हें पदोन्नत किया जाना चाहिए और तैयार किया जाना चाहिए—यद्यपि इन चीजों पर अनगिनत बार संगति की जाती है, नकली अगुआ उन्हें नहीं जानते या समझते और बस अपने छद्म-आध्यात्मिक विचारों और “प्रेमपूर्ण” दृष्टिकोणों पर अड़े रहते हैं। नकली अगुआओं का मानना होता है कि उनके ईमानदार और धैर्ययुक्त निर्देश के अंतर्गत, सभी तरह के लोग अपनी-अपनी भूमिकाएँ, बिना गड़बड़ी के, व्यवस्थित तरीके से निभाते हैं, कि सभी में काफी आस्था है और वह अपने कर्तव्यों को निभाने के लिए तैयार है, वह जेल जाने और खतरों का सामना करने से नहीं डरता, कि हर व्यक्ति में कष्ट सहने का संकल्प है और वह यहूदा बनने का इच्छुक नहीं है। वे मानते हैं कि कलीसियाई जीवन में बढ़िया माहौल होने का अर्थ है कि उन्होंने अच्छा कार्य किया है। चाहे कलीसिया में कुकर्मियों द्वारा बाधाएँ उत्पन्न करने या अविश्वासियों द्वारा विधर्म और भ्रांतियाँ फैलाने की घटनाएँ हुई हों या नहीं, वे इन चीजों को समस्या नहीं मानते और उन्हें इनका समाधान करने की कोई जरूरत महसूस नहीं होती। जब बात किसी ऐसे व्यक्ति की आती है जिसे उन्होंने कार्य सौंपा है और वह अपनी इच्छा के आधार पर लापरवाही से कार्य करता है और सुसमाचार के काम में बाधा डालता है, तो नकली अगुआ और भी अंधे हो जाते हैं। वे कहते हैं, “मुझे जो समझाना था, मैंने उन कार्य सिद्धांतों को समझा दिया है, और मैंने उन्हें बार-बार बताया है कि क्या करना है। अगर कोई भी समस्या आती है, तो मेरा इससे कोई लेना-देना नहीं है।” लेकिन, उन्हें नहीं पता होता है कि क्या वह व्यक्ति सही व्यक्ति है, वे उस बात पर ध्यान नहीं देते हैं, और उन्हें यह भी पता नहीं होता है कि उस व्यक्ति को यह समझाने और बताने के दौरान कि उसे क्या करना चाहिए उन्होंने जो भी कहा क्या उससे सकारात्मक परिणाम प्राप्त हो सकते हैं, या इससे क्या परिणाम सामने आएँगे। जब भी नकली अगुआ कोई सभा करते हैं, तो वे शब्दों और धर्म-सिद्धांतों की एक अंतहीन धारा प्रवाहित करते हैं, लेकिन इसका परिणाम यह होता है कि वे कोई भी समस्या हल नहीं कर पाते हैं। और फिर भी वे यही मानते हैं कि वे बढ़िया कार्य कर रहे हैं, वे इतने पर भी अपने काम से प्रसन्न होते हैं और सोचते हैं कि वे अद्भुत हैं। वास्तव में, वे जो शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलते हैं, वे सिर्फ उन्हीं भ्रमित लोगों, मंदबुद्धि लोगों और बेवकूफ लोगों को उल्लू बना सकते हैं, जो अज्ञानी और खराब काबिलियत वाले हैं। ये शब्द सुनने के बाद ये लोग उलझन में पड़ जाते हैं और यह मान लेते हैं कि नकली अगुआओं ने जो कहा वह बहुत ही सही है, कि उन्होंने जो भी कहा वह गलत नहीं है। नकली अगुआ केवल इन भ्रमित लोगों को संतुष्ट कर सकते हैं और वे वास्तविक समस्याओं को हल करने में सिरे से अक्षम होते हैं। बेशक नकली अगुआ पेशेवर कौशलों और ज्ञान से संबंधित समस्याओं से निपटने में और भी कम सक्षम होते हैं—इन चीजों की बात आने पर वे पूरी तरह से बेबस हो जाते हैं। उदाहरण के लिए, परमेश्वर के घर के पाठ-आधारित कार्य को ही ले लें। यह वह काम है जो नकली अगुआओं को सबसे ज्यादा सिरदर्द देता है। वे यह पहचान नहीं पाते हैं कि वास्तव में किन लोगों में आध्यात्मिक समझ है, अच्छी काबिलियत है, और कौन लोग पाठ-आधारित कार्य करने के लिए उपयुक्त हैं, और वे उच्च स्तर की शिक्षा पाए, चश्मा लगाने वाले किसी भी व्यक्ति को अच्छी काबिलियत और आध्यात्मिक समझ वाला मान लेते हैं, और इसलिए वे उन लोगों से यह काम करवाते हैं, और उनसे कहते हैं कि “तुम सभी पाठ-आधारित कार्य करने में प्रतिभाशाली हो। मुझे यह काम समझ में नहीं आता, इसलिए यह तुम लोगों की जिम्मेदारी है। परमेश्वर के घर को तुम लोगों से और कुछ नहीं चाहिए, बस यही चाहिए कि तुम लोग अपनी खूबियों का उपयोग करो, कुछ भी न छिपाओ, और तुमने जो कुछ भी ज्ञान प्राप्त किया है, उसका योगदान दो। तुम लोगों को आभारी होना और तुम्हें ऊपर उठाने के लिए परमेश्वर को धन्यवाद देना आना चाहिए।” बहुत सारे निरर्थक और सतही शब्द कह देने के बाद नकली अगुआ सोचते हैं कि कार्य की व्यवस्था हो गई है, और कि उन्होंने वह सब कुछ कर दिया है जो उन्हें करने की जरूरत है। वे नहीं जानते कि उन्होंने इस काम को करने के लिए जिन लोगों को नियुक्त किया है, वे इसके उपयुक्त हैं या नहीं, न ही वे जानते हैं कि पेशेवर ज्ञान के मामले में इन लोगों की क्या कमियाँ हैं, या उन खामियों को कैसे दूर करना चाहिए। वे नहीं जानते कि लोगों को कैसे देखें और उनका भेद कैसे पहचानें, वे पेशेवर समस्याओं को नहीं समझते, न ही वे लेखन संबंधी ज्ञान की समझ रखते हैं—वे इन चीजों से बिलकुल ही अनभिज्ञ होते हैं। वे कहते हैं कि उन्हें इन चीजों की जानकारी या गहरी समझ नहीं है, लेकिन अपने दिल में वे सोचते हैं, “क्या तुम लोग मुझसे जरा सा ही ज्यादा शिक्षित और जानकार नहीं हो? भले ही मैं इस काम में तुम लोगों का मार्गदर्शन नहीं कर सकता, लेकिन मैं तुम लोगों से ज्यादा आध्यात्मिक हूँ, मैं धर्मोपदेश देने में तुम लोगों से बेहतर हूँ, और मैं परमेश्वर के वचनों को तुम लोगों से बेहतर समझता हूँ। मैं ही तुम लोगों का नेतृत्व कर रहा हूँ, मैं तुम लोगों का वरिष्ठ हूँ। मुझे ही तुम लोगों का प्रभारी होना चाहिए, और तुम्हें वही करना है जो मैं कहूँगा।” नकली अगुआ खुद को बेहतर मानते हैं, फिर भी वे पेशेवर कौशलों से संबंधित किसी भी तरह के कार्य के बारे में कोई सार्थक सुझाव नहीं दे पाते, और वे कोई मार्गदर्शन देने में भी समर्थ नहीं होते हैं। ज्यादा-से-ज्यादा, वे कर्मचारियों की व्यवस्था अच्छी तरह से कर सकते हैं; वे इसके बाद का कोई भी कार्य नहीं कर सकते हैं। वे पेशेवर ज्ञान हासिल करने का प्रयास नहीं करते हैं, और वे कार्य पर अनुवर्ती कार्रवाई नहीं करते हैं। सभी नकली अगुआ छद्म-आध्यात्मिक होते हैं; वे बस कुछ शब्द और धर्म-सिद्धांतों का उपदेश दे सकते हैं और फिर उन्हें लगता है कि वे सत्य को समझते हैं और लगातार परमेश्वर के चुने हुए लोगों के सामने दिखावा करते हैं। हर सभा में वे कई-कई घंटों तक उपदेश देते हैं, और फिर भी परिणाम यही होता है कि वे कोई भी समस्या हल नहीं कर पाते हैं। जब लोगों के कर्तव्यों में पेशेवर ज्ञान से संबंधित समस्याओं की बात आती है तो वे पूरी तरह से अनभिज्ञ होते हैं; वे स्पष्ट रूप से आम लोग हैं, फिर भी वे आध्यात्मिक होने का ढोंग करते हैं, पेशेवरों का कार्य निर्देशित करते हैं—वे इस तरह से कार्य को अच्छी तरह से कैसे कर सकते हैं? नकली अगुआ पेशेवर ज्ञान सीखने का प्रयास नहीं करते हैं और कोई वास्तविक काम करने में सक्षम नहीं होते, इससे लोग पहले से ही घृणा करते हैं, और ऊपर से, वे आध्यात्मिक लोग होने का ढोंग करते हैं और अपने अध्यात्मिक शब्दों का दिखावा करते हैं, जिसमें सूझ-बूझ बिल्कुल नहीं होती है! यह काम फरीसियों से अलग नहीं है। फरीसी जिस बिंदु पर सबसे ज्यादा विवेकहीन थे वह यह था कि परमेश्वर उनसे घृणा करता था, फिर भी वे इससे पूरी तरह अनजान थे और खुद को बहुत अच्छा और बहुत आध्यात्मिक मानते थे। नकली अगुआओं में आत्म-जागृति की इतनी कमी होती है; वे स्पष्ट रूप से कोई वास्तविक काम नहीं कर सकते और फिर भी वे आध्यात्मिक होने का दिखावा करते हैं, वे पाखंडी फरीसी बन जाते हैं। वे वही हैं जिनका परमेश्वर तिरस्कार करता है और उन्हें निकाल देता है।
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