अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (7) खंड तीन
ख. कठिनाइयों का सामना करते समय वे सही दृष्टिकोण और रवैये जो व्यक्ति में होने चाहिए
मुझे यहाँ तुम लोगों को जो समझाने की जरूरत है, वह ना सिर्फ अगुआओं और कार्यकर्ताओं के लिए, बल्कि यहाँ मौजूद सभी लोगों के लिए भी सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत है। तुम लोग चाहे कहीं भी कलीसिया का कार्य कर रहे हो, अपने कर्तव्य कर रहे हो या सुसमाचार का प्रचार कर रहे हो, अनिश्चितता भरी कठिनाइयाँ हमेशा बनी रहेंगी। यहाँ तक कि परमेश्वर का अपना कार्य भी कठिनाइयों से भरा हुआ है—क्या तुम सभी ने यह सच्चाई देखी है? वैसे तो हो सकता है कि तुम सभी बारीकियों को नहीं जानते हो या उन्हें स्पष्ट रूप से नहीं समझते हो, लेकिन तुम सभी को व्यापक परिस्थितियों के बारे में पता है। परमेश्वर का सुसमाचार फैलाना कोई आसान कार्य नहीं है, और तुम सभी को इसके लिए मानसिक रूप से तैयार रहना चाहिए और इसे पहचानना चाहिए। यह स्थापित तथ्य यहाँ प्रदर्शित किया गया है, इसलिए इन मामलों के प्रति हमें कौन-सा रवैया अपनाना चाहिए जो सबसे उचित, सबसे तर्कसंगत और सबसे सही हो? क्या अंदर से बुजदिल और भयभीत होना सही है? (नहीं।) चूँकि बुजदिल और भयभीत होना सही नहीं है, तो क्या यह रवैया और नजरिया रखना सही है कि तुम ना तो स्वर्ग से डरते हो और ना ही धरती से, तुम पूरी दुनिया के विरोधी हो, पूरी दुनिया का अंत तक प्रतिरोध करते हो और धारा के विपरीत चलते हो? (नहीं।) क्या यह सामान्य मानवता की तार्किकता है या आवेगशीलता है? ये सभी गलत नजरिये सच्ची आस्था के नहीं, बल्कि आवेगशीलता के प्रतिबिंब हैं। तो फिर किस तरह के नजरिये और रवैये सही हैं? आओ, मैं तुम लोगों के लिए कुछ नजरिये और रवैये सूचीबद्ध करता हूँ। यह पहला नजरिया है जो लोगों को अपनाना चाहिए : चाहे विदेश में हो या चीन में, पूरे दिल से खुद को परमेश्वर के लिए खपाना और अपने कर्तव्य करना प्राचीन काल से लेकर आज के समय तक संपूर्ण मानवजाति में सबसे न्यायसंगत उद्देश्य है। हमारा कर्तव्य करना खुला और ईमानदार कार्य है, गुप्त नहीं है, क्योंकि हम अभी जो कर रहे हैं वह मानवजाति में सबसे न्यायसंगत उद्देश्य है। यह “न्यायसंगत” क्या है? यह सत्य है, परमेश्वर की इच्छा है, सृष्टिकर्ता की व्यवस्थाएँ और आदेश है। यह मानवीय नैतिकता, आचार-विचार और कानूनों से पूरी तरह से श्रेष्ठ है, और यह सृष्टिकर्ता की अगुवाई और देखभाल के अंतर्गत पूरा किया जाने वाला उद्देश्य है। क्या यह सबसे सही नजरिया नहीं है? पहली बात, यह नजरिया एक सही मायने में विद्यमान तथ्य है; दूसरी बात, यह किसी व्यक्ति द्वारा किए जाने वाले कर्तव्य की सबसे सही पहचान भी है। दूसरा नजरिया जो लोगों को अपनाना चाहिए, वह यह है : परमेश्वर सभी चीजों और सभी घटनाओं पर संप्रभु है। दुनिया के शासक और दुनिया की हर शक्ति, धर्म, संगठन और जातीयता सहित हर चीज परमेश्वर के हाथ द्वारा शासित और नियंत्रित है—किसी की भी नियति स्वयं के द्वारा नियंत्रित नहीं है। हम कोई अपवाद नहीं हैं; हमारी नियतियाँ परमेश्वर के हाथ द्वारा शासित और नियंत्रित हैं, और कोई भी इसकी दिशा नहीं बदल सकता है कि हम कहाँ जाते हैं और कहाँ रहते हैं, और ना ही कोई हमारा भविष्य और गंतव्य बदल सकता है। ठीक जैसा बाइबल कहती है, “राजा का मन नालियों के जल के समान यहोवा के हाथ में रहता है, जिधर वह चाहता उधर उसको मोड़ देता है” (नीतिवचन 21:1)। हम तुच्छ मनुष्यों की नियतियों के लिए तो ऐसा और भी ज्यादा है! हम जिस देश में रहते हैं, उसके शासक का शासन और व्यवस्था, साथ ही इस देश में जीवनयापन का परिवेश, चाहे वह हमारे प्रति धमकाने वाला हो, शत्रुतापूर्ण हो या मित्रवत हो—यह सब परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन है, और हमें किसी बात की चिंता करने या परेशान होने की कोई जरूरत नहीं है। यही वह नजरिया है जो लोगों को अपनाना चाहिए और यही वह जागरूकता है जो उनमें होनी चाहिए, साथ ही यही वह सत्य है जो उनके पास होना चाहिए और उन्हें समझना चाहिए। और तीसरा नजरिया जो यकीनन सबसे महत्वपूर्ण भी है, वह है : हम चाहे कहीं भी, किसी भी देश में रहते हों, और हमारी क्षमताएँ या काबिलियत चाहे कैसी भी हो, हम तुच्छ सृजित प्राणियों के समूह का एक हिस्सा मात्र हैं। हमें जो एकमात्र जिम्मेदारी और कर्तव्य पूरा करना चाहिए, वह सृष्टिकर्ता की संप्रभुता, व्यवस्थाओं और आयोजनों के प्रति समर्पण करना है; इसके अलावा और कुछ भी नहीं है, यह इतना ही आसान है। भले ही फिलहाल हम एक स्वतंत्र देश और एक स्वतंत्र परिवेश में हैं, लेकिन अगर एक दिन परमेश्वर हमारा उत्पीड़न करने और हमें नुकसान पहुँचाने के लिए एक शत्रुतापूर्ण शक्ति खड़ी कर देता है, तो हमें बिल्कुल शिकायत नहीं होनी चाहिए। हमें शिकायत क्यों नहीं होनी चाहिए? क्योंकि हम लंबे समय से तैयार हैं; हमारा दायित्व, जिम्मेदारी और कर्तव्य हर उस चीज के प्रति समर्पण करना है जो परमेश्वर करता है, जिसका आयोजन परमेश्वर करता है। क्या यह समर्पण ही सत्य है? क्या यही वह रवैया है जो लोगों में होना चाहिए? (हाँ।) अगर एक दिन, पूरी मानवजाति और पूरा परिवेश हमारे खिलाफ हो जाता है और हम मौत का सामना करते हैं, तो क्या हमें शिकायत होनी चाहिए? (हमें नहीं होनी चाहिए।) कुछ लोग कहते हैं, “क्या परमेश्वर हमें विदेश इसलिए नहीं ले गया ताकि हमें शैतान का क्रूर अत्याचार और ना सहना पड़े? क्या यह इसलिए नहीं था कि हम आजादी से अपने कर्तव्य कर सकें और आजादी की हवा में साँस ले सकें? तो परमेश्वर फिर भी क्यों चाहता है कि हम मौत का सामना करें?” ये शब्द सही नहीं हैं। परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना एक रवैया है, वही रवैया जो लोगों को परमेश्वर के प्रति, परमेश्वर की संप्रभुता के प्रति रखना चाहिए। यह वही रवैया है जो एक सृजित प्राणी के पास होना चाहिए।
एक और सबसे महत्वपूर्ण बिंदु है जिसे लोगों को समझना चाहिए : वैसे तो विदेश में चीजें अपेक्षाकृत स्थिर और स्वतंत्र हैं, फिर भी बड़े लाल अजगर द्वारा बार-बार परेशान किए जाने से बचना मुश्किल होता है। बड़े लाल अजगर के उत्पीड़न का सामना करने पर कुछ लोगों को चिंता होती है : “बड़े लाल अजगर की ताकत बहुत ही ज्यादा है। वह दुनिया भर के महत्वपूर्ण व्यक्तियों को अपने लिए सेवा करने, अपनी तरफ से कार्य करने के लिए रिश्वत दे सकता है। इसलिए, भले ही हम भागकर विदेश चले जाएँ, हम तब भी खतरे में ही होंगे, हम पर तब भी संकट मंडरा रहा होगा! हम क्या कर सकते हैं?” हर बार जब ये खबरें सुनाई पड़ती हैं, तो कुछ लोग चिंतित और भयभीत हो जाते हैं, वे समझौता करना चाहते हैं, भाग जाना चाहते हैं, उन्हें नहीं पता होता है कि उन्हें कहाँ छिपना चाहिए। जब भी ऐसा होता है तो कुछ लोग सोचते हैं, “दुनिया इतनी बड़ी है, फिर भी मेरे लिए कोई जगह नहीं है! मैं बड़े लाल अजगर की ताकत के तले उसका अत्याचार सहता हूँ और उसके अधिकार के दायरे से बाहर भी, क्या कारण है कि मैं अब भी उससे परेशान हूँ? बड़े लाल अजगर की ताकत बहुत ही ज्यादा है; अगर मैं भागकर धरती के अंतिम छोर तक भी पहुँच जाता हूँ तो भी क्या कारण है कि वह मुझे ढूँढ़ ही लेता है?” लोग आतंकित हो जाते हैं और उन्हें समझ नहीं आता कि वे क्या करें। क्या यह आस्था होने की अभिव्यक्ति है? यहाँ क्या समस्या है? (परमेश्वर में आस्था की कमी है।) क्या यह सिर्फ परमेश्वर में आस्था की कमी है? क्या तुम लोगों को अपने दिल की गहराई में यह महसूस होता है कि तुम दूसरों से कमतर हो? क्या सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास रखने और कलीसिया में अपना कर्तव्य करने में तुम चोर की तरह थोड़ा छिपाव महसूस करते हो? क्या तुम खुद को धार्मिक दुनिया के लोगों से कुछ हद तक हीन महसूस करते हो? “उनकी ताकत देखो; उनके पास आधिकारिक पादरी और राज्य से मान्यता प्राप्त भव्य गिरजाघर हैं, कितनी शान शौकत है! उनके पास विभिन्न देशों में गायक मंडलियाँ और उद्यम हैं। लेकिन हमें देखो, हम जहाँ भी जाते हैं, वहीं हमेशा डराए-धमकाए जाते हैं, बहिष्कार का सामना करते हैं—हम उनसे अलग क्यों हैं? हम जहाँ भी जाते हैं, वहाँ इसके बारे में खुलेआम बात क्यों नहीं कर सकते हैं? हमें इतने दयनीय ढंग से क्यों जीना पड़ता है? खास तौर से, ऑनलाइन इतना सारा नकारात्मक प्रचार किया जाता है। इसे दूसरी कलीसियाओं को क्यों नहीं सहना पड़ता है, हमें ही हमेशा ये सब क्यों सहना पड़ता है? परमेश्वर में विश्वास रखने वाले दूसरे लोग जहाँ भी जाते हैं, वहीं ईसाई धर्म में अपनी आस्था का खुलेआम प्रचार करते हैं, लेकिन हम लोग जो सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, खुलकर बोलने की हिम्मत नहीं करते हैं, डरते हैं कि बुरे लोग हमारी रिपोर्ट कर देंगे और फिर हमें गिरफ्तार कर लिया जाएगा।” हाल ही में, मैंने सुना कि सरकारी अधिकारी होने का दावा करने वाले एक व्यक्ति ने कुछ भाई-बहनों से कुछ प्रश्न पूछे। जब उन्होंने देखा कि एक अधिकारी उनसे पूछताछ कर रहा है, तो वे डर गए और उन्हें जो कुछ भी मालूम था, उन्होंने वह सब कुछ उसे बता दिया, उनसे जो भी पूछा गया उन्होंने उसका उत्तर दे दिया। उनके इस तरह से व्यवहार करने में क्या समस्या थी? तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो—तुम्हें अधिकारियों से क्यों डरना चाहिए? अगर तुमने कोई गैर-कानूनी चीज नहीं की है, तो डरने की कोई जरूरत नहीं है। अगर तुम्हारे पास सत्य है तो राक्षसों और शैतान से क्यों डरना? क्या तुम्हें लगता है कि परमेश्वर में विश्वास रखना सही तरीका नहीं है? क्या तुम्हें लगता है कि तुमने कोई गैर-कानूनी चीज की है? फिर तुम किसी अधिकारी से क्यों डरते हो? क्या ऐसे लोग मूर्ख और अज्ञानी नहीं हैं? मुख्य भूमि में कुछ लोगों को बड़े पैमाने पर चुन चुनकर तलाशे जाने और सताए जाने का कष्ट सहना पड़ा; विदेश आने के बाद, क्या वे परमेश्वर में विश्वास रखने के बारे में ग्लानि महसूस करते हैं? क्या वे बड़े लाल अजगर के अत्याचार से अपमानित महसूस करते हैं? क्या वे अपने पूर्वजों का सामना करने में शर्मिंदगी और कलंकित महसूस करते हैं क्योंकि उन्हें परमेश्वर में विश्वास रखने और अपना कर्तव्य करने की वजह से विदेश भाग जाने के लिए मजबूर किया गया है? क्या वे शैतानी शासन और धार्मिक दुनिया को परमेश्वर और कलीसिया के साथ विरोधी के रूप में व्यवहार करते हुए देखते हैं और खुद को हीन महसूस करते हैं, जो शायद उन्हें कोई अपराध करने से भी ज्यादा शर्मनाक लगता है? क्या तुम लोगों में ये भावनाएँ हैं? (नहीं।) तुम लोग ऊपरी तौर पर अपना सिर हिला सकते हो, इन विचारों और भावनाओं पर विचार नहीं करना चाहते हो, लेकिन जब व्यक्ति वास्तविक परिस्थितियों का सामना करता है तो उसकी मानसिकता, उसके व्यवहार और वह जो अचेतन क्रियाकलाप करता है, वे अनिवार्य रूप से उसके दिल के सबसे गहरे, सबसे छिपे हुए पहलुओं को उजागर कर देते हैं। यहाँ क्या चल रहा है? अगर तुम्हारे मन में ये चीजें नहीं हैं, तो तुम क्यों भयभीत हो? क्या वह व्यक्ति जिसने कानून नहीं तोड़ा है पुलिस से डरता है? क्या वह न्यायाधीश से डरता है? नहीं। सिर्फ वही लोग पुलिस से सबसे ज्यादा डरते हैं जिन्होंने कानून तोड़ा है, और सिर्फ चीनी लोग, जो पुलिस द्वारा दमन किए जाने के आदी हो चुके हैं, उससे सबसे ज्यादा डरते हैं क्योंकि सीसीपी पुलिस अराजक है और वह जो चाहे करती है। इसलिए, जब चीनी लोग पहली बार विदेश पहुँचते हैं तो महज पुलिस को देखते ही डरने लगते हैं। यह बड़े लाल अजगर के शासन से डरने का परिणाम है, यह ऐसी चीज है जो उनके अवचेतन में प्रकट होती है। पश्चिमी देशों में, तुम्हारा रुतबा वैध है, तुम्हारे पास निवास के अधिकार हैं, तुमने किसी भी कानून का उल्लंघन नहीं किया है और ना ही तुमने सरकार पर आक्रमण किया है और तुमने कोई अपराध नहीं किया है। तुम्हारी आस्था धार्मिक दुनिया में चाहे कितना भी विवाद क्यों न खड़ा करे, एक सच्चाई तो निश्चित है : तुम्हारी आस्था कानूनी रूप से सुरक्षित है, यह वैध और स्वतंत्र है, और यह तुम्हारा वाजिब मानवाधिकार है। तुमने किसी भी कानून का उल्लंघन नहीं किया है, इसलिए अगर कोई व्यक्ति पुलिस अधिकारी होने का दावा करता है और तुमसे पूछता है, “क्या तुम सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास रखते हो? मुझे अपना पहचान पत्र दिखाओ! तुम कहाँ से हो? तुम्हारी क्या आयु है? तुम कितने वर्षों से विश्वासी हो? तुम कहाँ रहते हो? मुझे अपना पता बताओ!” तुम कैसे उत्तर दोगे? पहले प्रश्न, “क्या तुम सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास रखते हो?” का तुम कैसे उत्तर दोगे? (हाँ कहकर।) तुम लोग “हाँ” क्यों कहोगे? क्या यह सच्चाई पर आधारित है? या एक नागरिक के नाते यह तुम्हारी जिम्मेदारी है कि पूछे जाने पर तुम्हें “हाँ” ही कहना चाहिए? या क्या परमेश्वर ने तुम्हें “हाँ” कहने का निर्देश दिया है? तुम लोगों का आधार क्या है? दूसरी चीज जो उसने पूछी, “मुझे अपना पहचान पत्र दिखाओ!”, क्या तुम लोग इसे दिखाओगे? (नहीं।) और तीसरा प्रश्न : “तुम कहाँ रहते हो? अपना पता लिखकर दो।” क्या तुम इसे लिखकर दोगे? (नहीं।) चौथा प्रश्न : “तुमने कितने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है? इस आस्था से तुम्हें किसने परिचित कराया? तुम क्यों विश्वास करते हो? तुम कितने वर्षों से विदेश में हो?” क्या तुम इनके उत्तर दोगे? (नहीं।) पाँचवाँ प्रश्न : “तुम यहाँ कौन-सा कर्तव्य कर रहे हो? तुम्हारा अगुआ कौन है?” क्या तुम इसका उत्तर दोगे? (नहीं।) क्यों नहीं? (मैं उन्हें बताने के लिए बाध्य नहीं हूँ।) फिर पहले प्रश्न पर लौटते हैं : अगर तुमसे पूछा जाता है कि क्या तुम सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास रखते हो, तो तुम सभी ने एकमत होकर कहा कि तुम “हाँ” में उत्तर दोगे। क्या इस तरह से उत्तर देना सही है? (नहीं।) यह गलत क्यों है? (क्योंकि आस्था एक व्यक्तिगत स्वतंत्रता है। पुलिस को दखल देने का कोई अधिकार नहीं है। इसलिए, मुझे उन्हें नहीं बताने का अधिकार है।) तो फिर तुम उन्हें यह बात क्यों नहीं बताओगे? (क्योंकि पहले मुझे यह स्पष्ट करना होगा कि वे मुझसे क्यों पूछताछ कर रहे हैं, वे किस हैसियत से ऐसा कर रहे हैं, और उनकी पूछताछ वैध है या नहीं। अगर उनका उद्देश्य और उनकी पहचान अस्पष्ट हैं, तो मैं उनके प्रश्नों का उत्तर देने के लिए बाध्य नहीं हूँ।) यह कथन सही है। शुरू में, तुम सभी ने कहा कि तुम “हाँ” में उत्तर दोगे, लेकिन जैसे-जैसे मैं पूछता गया, तुम लोगों को लगने लगा कि कुछ गड़बड़ है, यह महसूस होने लगा कि तुम्हारा उत्तर गलत था। क्या तुम लोगों ने पहचान लिया कि समस्या कहाँ है? इस मामले में, तुम लोगों के पास यह समझ होनी चाहिए : हमने परमेश्वर में विश्वास रखकर किसी कानून का उल्लंघन नहीं किया है, हम अपराधी नहीं हैं, हमारे पास अपने मानवाधिकार और स्वतंत्रता है। यूँ ही कोई भी व्यक्ति अपनी मर्जी से हमसे पूछताछ या प्रश्न नहीं कर सकता है। यह मामला ऐसा नहीं है कि जो कोई भी हमसे प्रश्न पूछता है, हमें सच्चाई से उत्तर देना चाहिए; हम ऐसा करने के लिए बाध्य नहीं हैं। क्या ये शब्द सही हैं? (हाँ।) किसी के लिए भी, चाहे वह कोई भी हो, हमसे मनमाने ढंग से पूछताछ करना अवैध है; हमें कानून समझना चाहिए और अपनी रक्षा करने के लिए इसका उपयोग करने का तरीका सीखना चाहिए। यही वह बुद्धिमानी है जो परमेश्वर के चुने हुए लोगों के पास होनी चाहिए। तो, अगर भविष्य में तुम्हारे सामने ऐसी स्थिति आती है, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? अगर कोई तुमसे पूछता है कि क्या तुम सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास रखते हो, तो तुम कैसे उत्तर दोगे, तुम इसे कैसे सँभालोगे? पहली बात जो तुम्हें कहनी है, वह यह है, “तुम कौन हो? तुम किस अधिकार से मुझसे यह पूछ रहे हो? क्या मैं तुम्हें जानता हूँ?” अगर वह कहता है कि वह किसी सरकारी संस्था का कर्मचारी है, तो तुम्हें उससे उसका परिचय पत्र दिखाने के लिए कहना चाहिए। अगर वह अपना परिचय पत्र नहीं दिखाता है, तो तुम्हें कहना है, “तुममें मुझसे बात करने की योग्यता नहीं है, और मैं तुम्हें उत्तर देने के लिए बाध्य नहीं हूँ। यहाँ कई सरकारी कर्मचारी हैं; क्या मुझे उन सभी को उत्तर देना चाहिए? सरकार ने कुछ कार्य सँभालने के लिए लोग नियुक्त किए हैं—क्या तुम वाकई इस मामले के प्रभारी हो? अगर तुम हो भी, तो मैंने कानून नहीं तोड़ा है, फिर मैं तुम्हें उत्तर क्यों दूँ? मैं तुम्हें सब कुछ क्यों बताऊँ? अगर तुम्हें लगता है कि मैंने कुछ गलत किया है और कानून तोड़ा है, तो तुम सबूत पेश कर सकते हो। लेकिन अगर तुम चाहते हो कि मैं तुम्हारे किसी भी प्रश्न का उत्तर दूँ तो जाकर मेरे वकील से बात करो। मैं तुम्हें उत्तर देने के लिए बाध्य नहीं हूँ, और तुम्हें पूछने का अधिकार नहीं है!” उत्तर देने का यह तरीका कैसा है? क्या यह गरिमा प्रकट करता है? (हाँ।) तो फिर तुम लोगों के उत्तर ने क्या दर्शाया? क्या उसने गरिमा प्रकट की? (नहीं।) तुम लोगों के तरीके से उत्तर देना कानून की अज्ञानता दर्शाता है। दूसरे तुमसे जो भी पूछते हैं, तुम बस उसका उत्तर दे देते हो, और अंत में क्या होता है? तुम यहूदा बन जाते हो। तुम लोग लापरवाही से उत्तर दे सकते हो, और इसका एक कारण यह है : बड़े लाल अजगर के देश में लोगों को यह सोचने के लिए शिक्षित किया जाता है और पट्टी पढ़ाई जाती है कि परमेश्वर में विश्वास रखने वाले अज्ञानी, निम्न-वर्ग के लोग होते हैं, और राज्य द्वारा सताए जाते हैं, इस देश में उन्हें मानवाधिकारों या गरिमा के बिना जीवन जीना चाहिए; इस तरह, विश्वासी खुद को एक निम्न रुतबे की ओर धकेल देते हैं। पश्चिमी देशों में आने के बाद, उन्हें ये चीजें समझ नहीं आती हैं, जैसे कि मानवाधिकार क्या होते हैं, गरिमा क्या होती है या एक नागरिक के क्या दायित्व होते हैं। इसलिए, जब कोई पूछता है कि क्या तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो, तो तुम डर के मारे हड़बड़ाकर इसे स्वीकार कर लेते हो, जो कुछ भी तुम्हें पता होता है वह सब कुछ उसे बता देते हो और बिल्कुल भी आध्यात्मिक कद नहीं दिखाते हो। यह सब किसके कारण हुआ? यह बड़े लाल अजगर की शिक्षा और शासन के कारण हुआ। मुख्य भूमि में हर व्यक्ति के अवचेतन की गहराई में यह विचार है कि एक बार जब तुम परमेश्वर में विश्वास रख लेते हो तो इस समाज में, मानवजाति में तुम्हारा रुतबा निम्नतम हो जाता है; समाज और मानवजाति से तुम्हारा संबंध टूट जाता है। इस तरह, इन लोगों में गरिमा, मानवाधिकार और अपनी रक्षा करने की जागरूकता की कमी है; वे मूर्ख, अज्ञानी हैं और उनमें अंतर्दृष्टि नहीं है, वे दूसरों को जब चाहे तब उन्हें डराने-धमकाने और उनके साथ हेरफेर करने की अनुमति देते हैं। यही तुम लोगों की मानसिकता है। परमेश्वर की अपनी गवाही में अडिग रहने के बजाय, तुम किसी भी पल उससे विश्वासघात कर देते हो, किसी भी पल यहूदा बन जाते हो। तो, तुम गरिमा के साथ कार्य कैसे कर सकते हो? तुम्हें किसी ऐसे अजनबी का सामना कैसे करना चाहिए जो तुमसे प्रश्न पूछता है? सबसे पहले, यह पूछो कि वह कौन है, फिर उससे उसका परिचय पत्र दिखाने के लिए कहो। यही उचित कानूनी प्रक्रिया है। पश्चिमी देशों में, पुलिस या दूसरे सरकारी कर्मचारी, जब सरकार की तरफ से कार्य करने वाले प्रतिनिधियों के रूप में आम जनता से बातचीत करते हैं, तो वे हमेशा पहले अपना परिचय पत्र पेश करते हैं। उनके परिचय पत्र के आधार पर उनकी पहचान सत्यापित कर लेने के बाद, तुम यह तय करते हो कि उनके प्रश्नों के उत्तर कैसे देने हैं या तुमसे उनकी जो माँगें हैं उनसे कैसे निपटना है। निश्चित रूप से, इस मामले में, यकीनन तुम्हारे पास विकल्प चुनने की गुंजाइश है, तुम्हारे पास पूरी तरह से स्वायत्तता है, तुम कठपुतली नहीं हो। वैसे तो तुम चीनी व्यक्ति हो और सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया के सदस्य हो, लेकिन तुम जिस देश में रहते हो उसके वैध और मान्यता प्राप्त सदस्य भी हो। यह मत भूलो कि तुम्हारे पास स्वायत्तता है; तुम किसी देश के गुलाम या कैदी नहीं हो, तुम एक ऐसे व्यक्ति हो जो इस देश के कानूनों, मानवाधिकारों और व्यवस्थाओं का लाभ उठा सकता है।
मेरे द्वारा संगति की गई सामग्री के आधार पर, तुम्हें आकस्मिक परिवेशों और अप्रत्याशित घटनाओं का सामना कैसे करना चाहिए? हमें इसी चौथे बिंदु—दब्बू मत बनो—पर संगति करनी है। कुछ लोग पूछते हैं, “क्या दब्बू नहीं बनने का अर्थ बस बेवकूफी भरे दबंग तरीके से कार्य करना नहीं है?” नहीं, दब्बू नहीं होने का अर्थ है किसी ताकत से नहीं डरना क्योंकि हम अपराधी नहीं हैं, हम गुलाम नहीं हैं; हम परमेश्वर के चुने हुए गरिमापूर्ण लोग हैं, सृष्टिकर्ता की संप्रभुता के अधीन गरिमापूर्ण सृजित मनुष्य हैं। इस मामले में तुम्हारे दृष्टिकोण में, सबसे पहली और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि दब्बू मत बनो; साथ ही, सक्रियता से अपने कर्तव्य और उस परिवेश की रक्षा करो जिसमें तुम अपना कर्तव्य करते हो, और विभिन्न परिवेशों, और विभिन्न ताकतें जो हमें निशाना बनाती हैं उनके कथनों, क्रियाकलापों और दूसरी चीजों का भी अग्रसक्रिय रवैये से सामना करो। सक्रियता से उनका सामना करना और दब्बू नहीं बनना—तुम इस रवैये के बारे में क्या सोचते हो? (यह अच्छा है।) इस तरह से जीना गरिमापूर्ण है, एक व्यक्ति की तरह; यह सिर्फ जैसे-तैसे गुजारा करने के लिए तुच्छ जीवन जीना नहीं है। हम अपना कर्तव्य करने के लिए विदेश आते हैं, अपना पेट भरने या जैसे-तैसे निर्वाह करने के लिए नहीं; हमने कोई कानून नहीं तोड़ा है, किसी देश के लिए परेशानी उत्पन्न नहीं की है, और हम यकीनन किसी देश के गुलाम नहीं हैं। हम परमेश्वर के घर के भीतर सृजित प्राणियों का कर्तव्य कर रहे हैं; हम अपना भरण-पोषण खुद करते हैं, दूसरों पर निर्भर नहीं रहते हैं; यह पूरी तरह से कानूनी है।
हमने अभी-अभी जिन चार बिंदुओं पर चर्चा की, उनमें से हर बिंदु बेहद जरूरी है। पहला बिंदु क्या था? (चाहे विदेश में हो या चीन में, पूरे दिल से खुद को परमेश्वर के लिए खपाना और अपने कर्तव्य करना प्राचीन काल से लेकर आज के समय तक संपूर्ण मानवजाति में सबसे न्यायसंगत उद्देश्य है। हमारा कर्तव्य करना खुला और ईमानदार कार्य है, गुप्त नहीं है, क्योंकि हम अभी जो कर रहे हैं वह मानवजाति में सबसे न्यायसंगत उद्देश्य है।) और दूसरा? (परमेश्वर सभी चीजों और सभी घटनाओं पर संप्रभु है। दुनिया के शासक और दुनिया की हर शक्ति सहित हर चीज परमेश्वर के हाथ द्वारा शासित और नियंत्रित है—किसी की भी नियति स्वयं के द्वारा नियंत्रित नहीं है। हम कोई अपवाद नहीं हैं; हमारी नियतियाँ परमेश्वर के हाथ द्वारा शासित और नियंत्रित हैं, और कोई भी इसकी दिशा नहीं बदल सकता है कि हम कहाँ जाते हैं और कहाँ रहते हैं। हम जिस देश में रहते हैं, उसके शासक का शासन और व्यवस्था कैसी हैं, इस देश में जीवनयापन का परिवेश कैसा है, और क्या वह हमारे प्रति भयंकर है, शत्रुतापूर्ण है या मित्रवत है—यह सब कुछ परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन है, और हमें किसी बात की चिंता करने या उसके बारे में परेशान होने की कोई जरूरत नहीं है।) तीसरा बिंदु? (हम चाहे कहीं भी हों और हमारी क्षमताएँ या काबिलियत चाहे कैसी भी हो, हम तुच्छ सृजित प्राणियों के समूह का एक हिस्सा मात्र हैं। हमें जो एकमात्र जिम्मेदारी और कर्तव्य पूरा करना चाहिए, वह सृष्टिकर्ता की संप्रभुता, व्यवस्थाओं और आयोजनों के प्रति समर्पण करना है। भले ही फिलहाल हम एक स्वतंत्र देश में हैं, लेकिन अगर एक दिन परमेश्वर हमें सताने और नुकसान पहुँचाने के लिए एक शत्रुतापूर्ण शक्ति खड़ी कर देता है, तो हमें बिल्कुल शिकायत नहीं होनी चाहिए। वह इसलिए क्योंकि हमारा दायित्व, जिम्मेदारी, और कर्तव्य हर उस चीज के प्रति समर्पण करना है जो परमेश्वर करता है, जिसका आयोजन परमेश्वर करता है।) चौथा बिंदु है बिना दब्बूपन के सभी बाहरी लोगों, घटनाओं और चीजों का सक्रिय रूप से सामना करना। ये चार बिंदु वे रवैये और समझ हैं जो अपना कर्तव्य करने वाले हर व्यक्ति में होनी चाहिए, और ये वही सत्य भी हैं जिन्हें कर्तव्य करने वाले हर व्यक्ति को समझना चाहिए। वैसे तो ये चार बिंदु आज संगति की जाने वाली अगुआओं और कार्यकर्ताओं की आठवीं जिम्मेदारी से बहुत ज्यादा संबंधित नहीं हैं, लेकिन चूँकि हम कार्य में आने वाली कठिनाइयों के बारे में बात कर रहे हैं, हमें इन मामलों का जिक्र करने की जरूरत है; यह बेवजह नहीं है।
ग. कठिनाइयों का सामना करते समय वे सिद्धांत जिनका अभ्यास अगुआओं और कार्यकर्ताओं को करना चाहिए
कुछ अगुआ और कार्यकर्ता बाहरी मामले सँभालने में बहुत कठिन मुद्दों का सामना करते हैं और अंत में घबरा जाते हैं, समस्या की जड़ को पहचान नहीं पाते हैं, और ना ही यह जानते हैं कि इसके साथ किस दृष्टिकोण से पेश आना है। वे बस इसे नजरअंदाज कर देते हैं जिससे मामले में देरी हो जाती है। यह क्या समस्या है? यह नकली अगुआओं का कार्य करने में असमर्थ होना और सिर्फ देरी करवाना है। नकली अगुआओं में एक सामान्य व्यक्ति के विवेक की कमी होती है; जब वे समस्याओं को सँभाल नहीं पाते हैं, तो फिर वे ऊपरवाले को उनकी सूचना क्यों नहीं देते हैं? अगर तुम ऊपरवाले को किसी समस्या की सूचना देते हो तो हम मिलकर उसका सामना कर सकते हैं और अंत में समस्या सुलझ जाएगी। ऐसी कुछ चीजें हैं जिनकी असलियत तुम लोग जान नहीं सकते हो; मैं उनका विश्लेषण करने में तुम्हारी मदद करूँगा। जब तक हम कानून या सरकारी विनियमों का उल्लंघन नहीं करते हैं, तब तक कोई भी समस्या इतनी बड़ी नहीं है कि उस पर काबू पाना असंभव हो। जहाँ तक सत्य सिद्धांतों से संबंधित मुद्दों की बात है, उन्हें हम खुद ही सुलझाते हैं; जहाँ तक कानून से संबंधित मुद्दों की बात है, उनके बारे में हम मदद के लिए कानूनी सलाह ले सकते हैं और कानूनी उपायों से उन्हें सुलझा सकते हैं। चाहे कोई भी दुष्ट ताकतें जानबूझकर परमेश्वर के घर के कार्य में बाधा डालें और तोड़-फोड़ करें, एक बात याद रखना : जब तक हम कानून नहीं तोड़ते हैं या सरकारी विनियमों का उल्लंघन नहीं करते हैं, तब तक कोई भी हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता है। वह इसलिए क्योंकि ज्यादातर विदेशी देश लोकतांत्रिक हैं और कानून द्वारा शासित हैं; भले ही बुरी ताकतें कानून के खिलाफ कार्य करती हों, उन्हें भी उजागर होने और कानूनी प्रतिबंधों का डर रहता है। यह एक सच्चाई है। बड़े लाल अजगर के दुष्ट हाथ परमेश्वर के घर के कार्य को चाहे कैसे भी बाधित करें और नुकसान पहुँचाएँ, या हमारे सामान्य जीवन को उत्पीड़ित करें, या बुरे कार्य करने के लिए किसी को पैसे दें, हमें तस्वीरें लेनी चाहिए और प्रामाणिक वीडियो बनाने चाहिए, गंभीरता से सटीक अभिलेख रखने चाहिए, और समय, जगह और इनमें शामिल लोगों के बारे में स्पष्ट रूप से लिख लेना चाहिए। सही समय आने पर, हम इसे कानूनी उपायों से सुलझाएँगे और हमें इससे डरने की जरूरत नहीं है। बड़े लाल अजगर का दमन चाहे कितना भी पागलपन भरा क्यों ना हो, हम इससे नहीं डरते हैं क्योंकि परमेश्वर हमारा सहारा है, और एक दिन परमेश्वर उसे मिटा देने के लिए आपदाएँ भेजेगा, परमेश्वर सीधे इसके खिलाफ बदला लेगा, और हमें कुछ भी करने की जरूरत नहीं है। कभी-कभी तुम लोग कुछ मुद्दों की असलियत नहीं जान सकते हो; ऐसे में, तुम्हें जल्दी से इसकी सूचना ऊपर देनी चाहिए, और ऊपरवाला तुम्हें एक मार्ग दिखाएगा, बड़े मुद्दों को छोटा कर देगा और छोटे मुद्दों को सुलझा देगा। दरअसल, कई मुद्दों के लिए, तुम लोगों को यह नहीं पता होता है कि उनका विश्लेषण कैसे करना है और तुम लोग उनके सार की असलियत नहीं जान सकते हो और सोचते हो कि यह परिस्थिति महत्वपूर्ण और गंभीर है, लेकिन ऊपरवाले से विश्लेषण के बाद, तुम लोग यह महसूस करोगे कि यह मूल रूप से कुछ भी नहीं है; यह डरने की कोई बात नहीं है और कोई महत्वपूर्ण चीज नहीं है—बस बेरुखी से पेश आओ, और यह कुछ देर बाद अपने आप ही सुलझ जाएगा। बुरी शक्तियों की बाधाओं से कोई बड़ा हडकंप नहीं मच सकता है; वे जनता के सामने उजागर होने से सबसे ज्यादा डरते हैं, इसलिए वे सीमाएँ लाँघने की हिम्मत नहीं करते हैं। अगर मुट्ठी भर विदूषक सीमाएँ लाँघने की हिम्मत कर भी लें, तो हम कानूनी उपाय करके इसे कानूनी तरीके से सुलझा सकते हैं। यह एक ऐसी चीज है जिसे सभी अगुआओं और कार्यकर्ताओं को समझना चाहिए। चाहे तुम किसी भी परिस्थिति का सामना क्यों ना करो, तुम्हें बिल्कुल भी भ्रमित नहीं होना चाहिए या बेवकूफी नहीं करनी चाहिए। अगर तुम किसी परिस्थिति की असलियत नहीं जान पाते हो या उसे सँभाल नहीं पाते हो, तो तुम्हें इसकी सूचना तुरंत ऊपर देनी चाहिए और ऊपरवाले से सलाह और रणनीतियाँ प्राप्त करनी चाहिए। यहाँ एकमात्र सच्चा डर यह है कि नकली अगुआ मुद्दों की असलियत नहीं जान पाते हैं या उन्हें सँभाल नहीं पाते हैं और फिर भी वे उनकी सूचना ऊपरवाले को नहीं देते हैं या उनके बारे में ऊपरवाले को जानकारी नहीं देते हैं; वे उनकी सूचना ऊपर देने से पहले परिस्थिति के बदतर होने और कार्य में देरी होने की प्रतीक्षा करते हैं, और संभवतः समस्या को सँभालने का सबसे अच्छा अवसर खो देते हैं। यह किसी ऐसे व्यक्ति की तरह है जिसे कैंसर हुआ है लेकिन वह समय पर इसकी जाँच या इलाज नहीं करवाता है, वह कैंसर के अंतिम चरण में ही इलाज के लिए अस्पताल जाता है, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है और उसके पास मृत्यु की प्रतीक्षा करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं होता है। इस प्रकार, अपने कार्य में नकली अगुआओं द्वारा मामलों में देरी करने की संभावना सबसे ज्यादा होती है। नकली अगुआ मानसिक रूप से विकृत होते हैं, वे अधम होते हैं, वे ना तो जिम्मेदार होते हैं और ना ही परमेश्वर के घर के कार्य को बनाए रखते हैं। ऐसा क्यों कहते हैं कि नकली अगुआ बदमाश, विनाश के अग्रदूत, बेवकूफ लोग होते हैं जिनमें विवेक की सबसे ज्यादा कमी होती है? इसका यही कारण है। कोई भी नकली अगुआ जिसकी काबिलियत इतनी खराब है कि वह बाहरी मामले तक सँभाल नहीं सकता है, उसे तुरंत बर्खास्त करना चाहिए और हटाना चाहिए, उसका फिर कभी उपयोग नहीं करना चाहिए ताकि परमेश्वर के घर के कार्य में और देरी ना हो। नकली अगुआओं का कार्य सबसे ज्यादा विघ्न डालता है। अक्सर, जब कोई समस्या उत्पन्न होती है, तो उसे सभी के साथ समय पर सलाह के जरिए सुलझाया जा सकता है; यहाँ एकमात्र चिंता यही है कि प्रभारी नकली अगुआ मानसिक रूप से विकृत होते हैं, वे समस्या को खुद सुलझाने में असमर्थ होते हैं और फिर भी फैसले लेने वाले समूह से इस पर चर्चा नहीं करते हैं या ऊपरवाले को इसकी सूचना नहीं देते हैं, और वे लापरवाही का रवैया अपनाते हैं, समस्या को छिपाते हैं और दबाते हैं—इसी कारण मामलों में सबसे ज्यादा देरी होती है। अगर मुद्दे में देरी की जाती है और हालात बदल जाते हैं, तो इससे समस्या को सँभालने की पहल हाथ से निकल सकती है, जिससे एक निष्क्रिय परिस्थिति उत्पन्न हो सकती है। इससे क्या साबित होता है? कुछ चीजों में देरी नहीं की जा सकती है और उन्हें पहला अवसर मिलते ही, तुरंत निपटा देना चाहिए। लेकिन, नकली अगुआ इस बात से अनजान होते हैं, इसलिए अत्यंत खराब काबिलियत वाले व्यक्तियों को अगुवाई बिल्कुल नहीं करनी चाहिए। नकली अगुआ सिर्फ कुछ शब्द और धर्म-सिद्धांत बड़बड़ाना जानते हैं और कोई भी वास्तविक समस्या नहीं सुलझा सकते हैं; वे सिर्फ लोगों को नुकसान पहुँचाते हैं या देरी का कारण बनते हैं। इन नकली अगुआओं को बर्खास्त करके और दायित्व और जिम्मेदारी की भावना वाले व्यक्तियों को अगुआओं और कार्यकर्ताओं के रूप में चुनकर ही कलीसिया का कार्य सामान्य रूप से आगे बढ़ सकता है। चाहे तुम्हें कैसी भी समस्याओं का सामना क्यों ना करना पड़े, जब तक तुम सत्य की तलाश कर पाते हो, तब तक उन्हें सुलझाने का एक तरीका होता है। बाहरी मामलों और बड़े लाल अजगर के कारण पैदा होने वाली बाधाओं को जरूरत पड़ने पर कानूनी उपायों से सुलझाया जा सकता है, यह कोई बड़ी बात नहीं है। जब तक हम कानून नहीं तोड़ते हैं या सरकारी विनियमों का उल्लंघन नहीं करते हैं, तब तक कोई भी हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता है, और इस आत्मविश्वास के साथ, हमें शैतान या दुष्ट लोगों द्वारा पैदा की गई किसी भी बाधा से डरने की जरूरत नहीं है।
अब, नकली अगुआओं के मुद्दे का गहन-विश्लेषण करना और उसे समझना चाहिए। कलीसिया का कार्य अच्छी तरह से करने के लिए यह बहुत जरूरी है! आओ, अब हम इस बारे में संगति करें कि नकली अगुआओं को जब ऐसे मुद्दों का सामना करना पड़ता है जिन्हें वे खुद नहीं सुलझा सकते हैं, तब भी वे उनकी सूचना ऊपरवाले को क्यों नहीं देते हैं। हमें इसे कैसे देखना चाहिए? तुम सभी लोग इसका विश्लेषण कर सकते हो और ऐसा करने से लाभान्वित हो सकते हो। नकली अगुआओं के वास्तविक कार्य नहीं करने की समस्या पहले से ही गंभीर है, लेकिन एक इससे भी ज्यादा गंभीर मुद्दा है : जब कलीसिया में कुकर्मियों और मसीह-विरोधियों द्वारा व्यवधान डाले जाते हैं, तो बात सिर्फ यही नहीं होती है कि नकली अगुआ इन्हें नहीं सँभालते हैं; इससे भी बदतर बात यह होती है कि वे ऊपरवाले को इसकी सूचना देने में भी विफल रहते हैं, और कुकर्मियों और मसीह-विरोधियों को कलीसिया में व्यवधान डालने देते हैं—वे बस किनारे खड़े होकर सुरक्षित रूप से देखते रहते हैं, किसी को नाराज नहीं करते हैं। चाहे कलीसिया का कार्य किसी भी हद तक बाधित क्यों ना हो जाए, नकली अगुआओं को इसकी कोई परवाह नहीं होती है। यहाँ क्या समस्या है? क्या ऐसे नकली अगुआओं में नैतिकता बिल्कुल भी नहीं है? ऐसे नकली अगुआओं को निष्कासित करने के लिए अकेले यह सच्चाई ही पर्याप्त है। नकली अगुआओं द्वारा कुकर्मियों और मसीह-विरोधियों को कलीसिया में बेरोकटोक विघ्न डालने की अनुमति देना कलीसिया और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को इन कुकर्मियों और मसीह-विरोधियों को सौंपने के समान है, नकली अगुआ कुकर्मियों और मसीह-विरोधियों के लिए एक ढाल के तौर पर कार्य करते हैं। इससे कलीसिया के कार्य को बहुत बड़ा नुकसान होता है! अकेले इस बिंदु पर, प्रश्न यह नहीं है कि नकली अगुआओं को बर्खास्त किया जाना चाहिए या नहीं, बल्कि यह है कि क्या उन्हें हटा देना चाहिए। कौन-सी बात ज्यादा गंभीर प्रकृति की है : नकली अगुआओं का वास्तविक कार्य नहीं करना या नकली अगुआओं का कलीसिया में कुकर्मियों और मसीह-विरोधियों को विघ्न डालने देना? वास्तविक कार्य नहीं करने से परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश और कलीसिया के कार्य की प्रगति प्रभावित हो सकती है; यह पहले से ही महत्वपूर्ण मामलों में देरी का कारण बना हुआ है। लेकिन, जब नकली अगुआ, बिना समाधान की तलाश किए या ऊपरवाले को इसकी सूचना दिए, कुकर्मियों और मसीह-विरोधियों को कलीसिया में मनमाने ढंग से विघ्न डालने की अनुमति देते हैं, तो नतीजों की कल्पना करना भी असंभव है। कुकर्मियों और मसीह-विरोधियों के कारण कलीसियाई जीवन कम से कम पूरी तरह से अराजकता और अशांति की चपेट में आ जाता है, और इसके अलावा, कलीसिया का कार्य गड़बड़ और ठप्प हो जाता है। क्या इससे सुसमाचार फैलाने का कार्य सीधे प्रभावित नहीं होता है? नतीजे सचमुच गंभीर होते हैं! इसलिए, अगर नकली अगुआ यह गलती करते हैं, तो उन्हें निष्कासित कर देना चाहिए। कई अगुआओं और कार्यकर्ताओं के पास ऊपरवाले को मुद्दों की सूचना देने के बारे में हमेशा एक अलग विचार और धारणा होती है। कुछ लोग कहते हैं, “ऊपरवाले को मुद्दों की सूचना देने से भी हो सकता है कि उनका समाधान नहीं हो पाए।” यह बेतुकी बात है! “हो सकता है कि उनका समाधान नहीं हो पाए” से तुम्हारा क्या अर्थ है? सिर्फ इसलिए कि इसे तुम नहीं सुलझा पाए, इसका अर्थ यह नहीं है कि ऊपरवाला भी इसे नहीं सुलझा पाएगा। अगर ऊपरवाला तुम्हें कोई मार्ग बताता है, तो समस्या वास्तव में मूलतः हल हो गई है; अगर ऊपरवाला कोई मार्ग नहीं बताता है, तो तुम्हारे पास वैसे ही कोई मार्ग नहीं बचता है। तुम इस मामूली-सी बात की असलियत तक नहीं जान पाते हो; तुम बहुत ही घमंडी और आत्मतुष्ट हो! कुछ लोग यह भी कहते हैं, “जब हम कठिनाइयों या समस्याओं का सामना करते हैं, तो हमें पहले कुछ दिनों तक विचार करना चाहिए, और तभी सूचना देनी चाहिए जब हमें वाकई कोई समाधान नहीं मिलता है।” ऐसा लग सकता है कि ऐसी बात कहने वालों में कुछ सूझ-बूझ है, लेकिन क्या विचार करने में लगे इन दिनों के कारण देरी होना आसान नहीं है? क्या तुम निश्चित हो सकते हो कि कुछ दिनों तक विचार करने से मुद्दा सुलझ जाएगा? क्या तुम यह आश्वासन दे सकते हो कि इससे और देरी नहीं होगी? दूसरे लोग कहते हैं, “अगर हम किसी मुद्दे की सूचना तुरंत दे देते हैं, तो क्या ऊपरवाला यह नहीं सोचेगा कि हम इस मामूली मुद्दे की असलियत तक नहीं जान पाए? क्या वह हमें बेवकूफ और अज्ञानी नहीं कहेगा और हमारी काट-छाँट नहीं करेगा?” उनका यह कहना गलत है—चाहे तुम मुद्दे की सूचना दो या ना दो, तुम्हारी काबिलियत की गुणवत्ता पहले से ही स्पष्ट है; ऊपरवाले को यह सब मालूम है। क्या तुम सोचते हो कि अगर तुमने किसी मुद्दे की सूचना नहीं दी, तो ऊपरवाला तुम्हारा बहुत सम्मान करेगा? अगर तुम मुद्दे की सूचना दे देते हो, और इससे महत्वपूर्ण मामलों में देरी नहीं होती है, तो परमेश्वर का घर तुम्हें जवाबदेह नहीं ठहराएगा। लेकिन, अगर तुम इसकी सूचना नहीं देते हो और इससे देरी हो जाती है, तो तुम्हें सीधे जिम्मेदार ठहराया जाएगा और तुम्हें तुरंत बर्खास्त कर दिया जाएगा, तुम्हारा फिर कभी उपयोग नहीं किया जाएगा। परमेश्वर के चुने हुए लोग भी तुम्हें अज्ञानी, बेवकूफ, कमजोर दिमाग वाले और मानसिक रूप से विक्षिप्त के रूप में देखेंगे, और वे तुमसे नफरत करेंगे और हमेशा के लिए तुम्हें तुच्छ समझेंगे। जो लोग हमेशा समस्याओं की सूचना देने के लिए ऊपरवाले द्वारा काट-छाँट किए जाने या नीची नजर से देखे जाने से डरते हैं, वे खराब काबिलियत वाले और सबसे बेवकूफ होते हैं; उन्हें बर्खास्त कर देना चाहिए, उनका फिर कभी उपयोग नहीं करना चाहिए। इतनी खराब काबिलियत होना और फिर भी अपनी लाज बचाने की इच्छा रखना—क्या यह पूरी तरह से बेशर्मी नहीं है? मुझे बताओ, क्या नकली अगुआ, जो ना सिर्फ अपना कार्य खराब तरीके से करते हैं बल्कि महत्वपूर्ण मामलों में देरी भी करवाते हैं, घिनौने नहीं हैं? क्या उन्हें बर्खास्त कर देना चाहिए? (हाँ।) अगर उन्हें किसी बड़े मुद्दे का सामना करना पड़ता है और वे बिना देरी के या बिना गंभीर नतीजों का कारण बने तुरंत उसकी सूचना दे देते हैं, तो ऐसे अगुआओं को कैसे देखना चाहिए? कम से कम, उन्हें विवेकी माना जाता है और वे कलीसिया के कार्य को बनाए रखने में समर्थ होते हैं। क्या ऐसे अगुआओं का उपयोग किया जाना जारी रखना चाहिए? इसे जारी रखना चाहिए। सिर्फ सबसे कमजोर दिमाग वाले अगुआ ही काट-छाँट किए जाने के डर से मुद्दों की सूचना देने से कतराएँगे। क्या फिर भी भविष्य में ऐसे अगुआओं का उपयोग किया जा सकता है? मुझे लगता है कि अब उनका उपयोग नहीं किया जा सकता है क्योंकि उनका उपयोग करने से बहुत ज्यादा देरी होती है। अब तक, तुम सभी को इस तरह की समस्याओं को समझने में समर्थ हो जाना चाहिए, है ना? जब तुम ऐसे मुद्दों का सामना करते हो जिन्हें तुम सँभाल नहीं सकते हो, तो तुरंत उनकी सूचना दो और फैसला लेने वाले समूह के साथ उनके समाधानों के लिए संगति करो। अगर फैसला लेने वाला समूह उन्हें सँभाल नहीं सकता है, तो तुरंत उनकी सूचना ऊपरवाले को दो; इस या उस चीज के बारे में फिक्र मत करो, समस्या को तुरंत सुलझाने में समर्थ होना ही सबसे ज्यादा जरूरी है। अभी-अभी जिस उदाहरण का जिक्र किया गया वह सभी कलीसियाओं में होता है; ये कठिनाइयाँ और समस्याएँ उत्पन्न होंगी। कलीसिया की कुछ आंतरिक कठिनाइयों की तुलना में, इन बाहरी मुद्दों के नतीजे ज्यादा गंभीर होते हैं। इस प्रकार, कलीसिया के आंतरिक मुद्दों की तुलना में बाहरी मुद्दों की कठिनाई कुछ अधिक है। अगर तुम बाहरी मुद्दों का सामना करते हो, तो तुम्हें सलाह लेकर उन्हें जल्दी से सुलझाना चाहिए या ऊपरवाले को उनकी सूचना देनी चाहिए; यह अनिवार्य है। सिर्फ इस तरीके से अभ्यास करने से ही कलीसिया के कार्य की सामान्य प्रगति सुनिश्चित हो सकती है और इस बारे में आश्वस्त हुआ जा सकता है कि राज्य का सुसमाचार फैलाने में कोई बाधा नहीं आएगी। कलीसिया के बाहरी मुद्दों को सँभालने के सिद्धांतों पर हमारी संगति यहीं समाप्त होती है।
हर कलीसिया में खराब काबिलियत वाले कुछ लोग होते हैं और चाहे किसी भी तरीके से उनके साथ सत्य की संगति क्यों ना की जाए, वे अपने कर्तव्य करने में हमेशा कठिनाइयों का सामना करते हैं, अभ्यास के सिद्धांतों को ढूँढ़ने में असमर्थ होते हैं, और बिना किसी वास्तविक प्रभावशीलता के, बस आँख मूँदकर विनियमों को लागू करते रहते हैं। ऐसे मामलों में, इन लोगों के कर्तव्यों को फिर से सौंपे जाने की जरूरत है। कर्तव्यों को फिर से सौंपने का अर्थ कर्मचारियों को इन्हें फिर से आवंटित करना है। मिसाल के तौर पर, एक व्यक्ति को एक महत्वपूर्ण कार्य सौंपा जाता है लेकिन उसके कार्य में उसके कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिन्हें सुलझाया नहीं जा सकता है, चाहे तुम उसके साथ कितनी भी संगति क्यों ना कर लो। तुम समस्या के सार की या इस बात की असलियत नहीं जान पाते हो कि यह व्यक्ति अब भी उपयोग किए जाने योग्य है या नहीं, और जाँच-परख या आगे की संगति से भी कोई नतीजा हासिल नहीं होता है। वैसे तो यह व्यक्ति कार्य में बहुत ज्यादा देरी नहीं करता है, लेकिन महत्वपूर्ण मुद्दे कभी नहीं सुलझते हैं, जिससे तुम हमेशा असहज महसूस करते हो। यह समस्या सामने आने पर तुम्हें क्या करना चाहिए? यह एक बहुत जरूरी मुद्दा है। अगर तुम इसे खुद नहीं सुलझा सकते हो तो तुम्हें इस मुद्दे को संगति, गहन-विश्लेषण और विश्लेषण के लिए अगुआओं और कार्यकर्ताओं की एक सभा में उठाना चाहिए। अगर अंत में किसी सर्वसम्मति पर पहुँचा जा सकता है, तो यह समस्या सुलझ जाएगी। अगर इस तरीके से अभ्यास करने से समस्या नहीं सुलझती है, तो इसके लंबा चलते रहने पर, क्या यह महत्वपूर्ण मामलों में देरी का कारण बन सकती है? अगर यह देरी का कारण बन सकती है, तो तुम्हें इसकी सूचना ऊपरवाले को देनी चाहिए और जल्द से जल्द एक समाधान की तलाश करनी चाहिए। संक्षेप में, तुम अपने कार्य में चाहे किसी भी उलझन या कठिनाइयों का सामना क्यों ना करो, जब तक वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों को उनके कर्तव्य करने में प्रभावित कर सकती हैं या कलीसियाई कार्य की सामान्य प्रगति में बाधा डाल सकती हैं, तब तक इन मुद्दों को तुरंत सुलझाना चाहिए। अगर तुम किसी मुद्दे को अकेले नहीं सुलझा सकते हो तो तुम्हें कुछ ऐसे लोगों की तलाश करनी चाहिए जो सत्य समझते हैं ताकि तुम उनके साथ मिलकर इसे सुलझा सको। अगर इससे भी काम नहीं बनता है तो तुम्हें मुद्दे को आगे ले आना चाहिए और समाधान की तलाश करने के लिए ऊपरवाले को इसकी सूचना देनी चाहिए। यह अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारी और दायित्व है। अगुआ और कार्यकर्ता जिन भी कठिनाइयों और उलझनों का सामना करते हैं, उन्हें उन सभी को गंभीरता से लेना चाहिए, ना कि मुद्दों या कठिनाइयों का पता चलने पर बस यूँ ही कुछ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का प्रचार करना चाहिए, भाई-बहनों को जोश में लाने के लिए नारे लगाने चाहिए, या उनकी काट-छाँट करनी चाहिए और कार्य को पूरा हो चुका मान लेना चाहिए। कभी-कभी शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलने से कुछ सतही मुद्दे सुलझ सकते हैं, लेकिन आखिरकार इससे मूल समस्याएँ नहीं सुलझ सकती हैं। मूल, भ्रष्ट स्वभावों और लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं से संबंधित मुद्दों को परमेश्वर के वचनों पर आधारित सत्य की संगति के जरिए सुलझाना चाहिए। इसके साथ ही, लोगों की व्यक्तिगत कठिनाइयाँ, परिवेशीय मुद्दे और कर्तव्यों को करने के लिए जरूरी पेशेवर ज्ञान से संबंधित समस्याएँ भी हैं; इन सभी व्यावहारिक मुद्दों को अगुआओं और कार्यकर्ताओं द्वारा समाधान की जरूरत होती है। इन मुद्दों में से, कोई भी उलझन और कठिनाइयाँ, जिन्हें अगुआ और कार्यकर्ता नहीं सुलझा सकते हैं, उन्हें गहन-विश्लेषण, समीक्षा और समाधान के लिए अगुआओं और कार्यकर्ताओं की सभा में उठाया जा सकता है, या वे इनके समाधान के लिए सत्य की तलाश करने के लिए सीधे ऊपरवाले को इनकी सूचना दे सकते हैं। इसे वास्तविक कार्य करना कहते हैं, और सिर्फ इस तरीके से वास्तविक कार्य करने का प्रशिक्षण लेकर ही व्यक्ति का आध्यात्मिक कद बढ़ सकता है और वह अपने कर्तव्य अच्छी तरह से कर सकता है। अगुआओं और कार्यकर्ताओं में जब तक जिम्मेदारी की भावना है, वे कहीं भी कभी भी समस्याओं को पहचान लेंगे; ऐसी कुछ समस्याएँ हैं जिन्हें उन्हें हर रोज सुलझानी चाहिए। मिसाल के तौर पर, मैंने अभी-अभी एक घटना का जिक्र किया जिसमें कोई पूछता है कि क्या तुम सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास रखते हो और तुम लोग हैरानी में पड़ गए। शुरू में सभी ने कहा कि वे “हाँ” में उत्तर देंगे, लेकिन बाद में कुछ लोगों ने कहा कि यह सही उत्तर नहीं है, और दूसरों ने कहा कि उन्हें नहीं पता है; सभी किस्म के उत्तर मिले। अंत में, अगुआ और कार्यकर्ता भी चकरा गए, उन्होंने सोचा, “सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास रखने के बारे में ‘नहीं’ कहने का अर्थ दूसरों के सामने परमेश्वर को नकारना होगा, और फिर परमेश्वर हमें स्वीकार नहीं करेगा—लेकिन सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास रखने के बारे में ‘हाँ’ कहने के क्या नतीजे होंगे? दोनों ही विकल्प गलत लगते हैं।” अगुआ और कार्यकर्ता यह नहीं जानते थे कि इसे कैसे सुलझाया जाए और वे कोई फैसला नहीं ले पाए; इस प्रकार, जब भाई-बहन फिर से ऐसी परिस्थितियों का सामना करेंगे, तो उनके पास अब भी सही नजरियों और रवैयों की कमी रहेगी, और समस्या अनसुलझी रह जाएगी, जिसका अर्थ है कि अगुआओं और कार्यकर्ताओं ने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं की हैं—वे अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने में विफल रहे हैं। अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने में विफल होना क्षमता की और काबिलियत की समस्या है, लेकिन जब ऐसे मुद्दे उठते हैं और अगर तुम्हें पता हो कि उन्हें सुलझाया नहीं गया है तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें उन्हें नजरअंदाज नहीं करना चाहिए या मामले को शांत करने के लिए उसे दबाना नहीं चाहिए, सभी को स्वच्छंदता से कार्य करने और उन्हें जैसा अच्छा लगे वैसा करने की अनुमति नहीं देनी चाहिए। इसके बजाय, तुम्हें इसकी सूचना ऊपरवाले को देनी चाहिए, ऐसी परिस्थितियों में करने योग्य उचित क्रियाकलाप और अभ्यास के मार्ग की तलाश करनी चाहिए। आखिरकार, सभी को यह समझा देना चाहिए कि इन परिस्थितियों में परमेश्वर के इरादे क्या हैं, लोगों को कौन-से सिद्धांत बनाए रखने चाहिए, और उन्हें कौन-से रवैये और रुख अपनाने चाहिए। फिर, जब भविष्य में उन्हें फिर से ऐसी परिस्थितियों का सामना करना पड़ेगा, तो वे सत्य सिद्धांतों को समझ जाएँगे और उनके पास अभ्यास का एक मार्ग होगा। इस तरह से, अगुआ और कार्यकर्ता अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करते हैं। तो फिर शुरू में तुम सभी से यह पूछे जाने पर कि क्या तुम सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास रखते हो, तो तुमने यह क्यों कहा कि तुम “हाँ” में उत्तर दोगे? इसका एक कारण है : अगुआओं और कार्यकर्ताओं ने कभी भी तुम लोगों से इस बात पर संगति नहीं की कि ऐसे मुद्दों को कैसे सुलझाना है। वे इन्हें मामूली मामले मानते हैं जिनके बारे में हर किसी की अपनी समझ होती है, जिन्हें हर कोई जैसे चाहे वैसे समझ सकता है और जैसा उसे उचित लगे वैसा अभ्यास कर सकता है। इस प्रकार, जब तुम लोगों से यह प्रश्न पूछा गया तो सभी किस्म के उत्तर मिले। तो, क्या अब तुम सब इस मामले में किसी निष्कर्ष पर पहुँच गए हो? अगर कोई तुमसे पूछता है कि क्या तुम सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास रखते हो, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? सबसे पहले, उससे पूछो कि वह कौन है। दूसरा, उससे पहचान पत्र दिखाने के लिए कहो। अगर वह तुमसे कोई दूसरी व्यक्तिगत जानकारी माँगता है, तो कोई उत्तर मत दो। अगर वह पहचान पत्र दिखाता भी है तो भी उसे मत बताओ, क्योंकि यह तुम्हारी व्यक्तिगत निजता है। तुम्हें परमेश्वर में विश्वास रखते हुए कितने वर्ष हो गए हैं, तुम्हें सुसमाचार का उपदेश किसने दिया, तुमने अपने कर्तव्य कहाँ-कहाँ किए हैं, तुम्हारी आस्था कितनी मजबूत है, तुम अपने भविष्य का मार्ग कैसे चुनते हो, तुम सत्य का अनुसरण कैसे करते हो और उसे कैसे प्राप्त करते हो—ये मामले हमारे लिए इतने मूल्यवान हैं कि हम यूँ ही किसी अजनबी के सामने इनका खुलासा नहीं कर सकते हैं। उसे ऐसी महत्वपूर्ण जानकारी के बारे में पूछताछ करने का कोई अधिकार नहीं है। अगर अगुआ और कार्यकर्ता ऐसे मुद्दों को नहीं सुलझा सकते हैं, तो समाधान खोजने के लिए उन्हें तुरंत इनकी सूचना ऊपरवाले को देनी चाहिए और जवाब देने के उचित तरीके पूछने चाहिए। ऊपरवाला तुम्हारा मजाक नहीं उड़ाएगा; ज्यादा से ज्यादा वह यही कहेगा कि तुम बहुत ही बेवकूफ हो। चाहे जो हो, समस्या का समाधान कर पाना सबसे अच्छा परिणाम है।
आज, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की आठवीं जिम्मेदारी—काम के दौरान आने वाली उलझनों और कठिनाइयों की तुरंत सूचना देना और उन्हें हल करने का तरीका खोजना—के बारे में हमने मुख्य रूप से इस बात पर संगति की कि उलझन और कठिनाइयाँ क्या होती हैं, साथ ही जब अगुआ और कार्यकर्ता इनका सामना करते हैं, तो उन्हें इन्हें कैसे सँभालना और सुलझाना चाहिए, और इन मामलों में कैसा दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। जहाँ तक इन मुद्दों से सामना होने पर नकली अगुआओं द्वारा प्रदर्शित की जाने वाली अभिव्यक्तियों का सवाल है, हम अगली संगति में उस हिस्से पर चर्चा करेंगे।
27 मार्च 2021
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