अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (7) खंड दो
मद आठ : काम के दौरान आने वाली उलझनों और कठिनाइयों की तुरंत सूचना दो और उन्हें हल करने का तरीका खोजो (भाग एक)
अगुआओं और कार्यकर्ताओं को कठिनाइयाँ तुरंत पहचाननी और हल करनी चाहिए
आज, हम अगुआओं और कार्यकर्ताओं की आठवीं जिम्मेदारी पर संगति करने जा रहे हैं : “काम के दौरान आने वाली उलझनों और कठिनाइयों की तुरंत सूचना दो और उन्हें हल करने का तरीका खोजो।” हम इस जिम्मेदारी के संबंध में नकली अगुआओं की विभिन्न अभिव्यक्तियों को उजागर करेंगे। काम के दौरान आने वाली उलझनों और कठिनाइयों की तुरंत सूचना देना और उन्हें हल करने का तरीका खोजना—क्या यह अगुआओं और कार्यकर्ताओं के कार्य और कर्तव्यों का हिस्सा नहीं है? (हाँ, है।) अगुआओं और कार्यकर्ताओं को अनिवार्य रूप से अपने कार्य में कुछ पेचीदा मुद्दों का सामना करना पड़ेगा, या कलीसियाई कार्य के दायरे के बाहर मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा, या ऐसे विशेष मामलों का सामना करना पड़ेगा जिनमें सत्य सिद्धांत शामिल नहीं हैं, और वे इस बात से अनजान होंगे कि इन परिस्थितियों से कैसे निपटना है। या, क्योंकि उनमें खराब काबिलियत है और इसलिए वे सिद्धांतों को सही ढंग से समझने में असमर्थ हैं, वे अनिवार्य रूप से कुछ सुलझाने में मुश्किल उलझन और कठिनाइयों का सामना करते हैं। ये उलझन और कठिनाइयाँ कर्मचारियों के उपयोग, कार्य-संबंधी मुद्दों, बाहरी परिवेश से उत्पन्न समस्याओं, लोगों के जीवन प्रवेश से संबंधित मुद्दों, कुकर्मियों द्वारा उत्पन्न विघ्न-बाधाओं के साथ-साथ लोगों को बहिष्कृत या निष्कासित करने के मुद्दों, वगैरह से संबंधित हो सकती हैं। इन सभी मुद्दों के लिए, परमेश्वर के घर की विशिष्ट अपेक्षाएँ और विनियम हैं, या कुछ मौखिक निर्देश हैं। इन विशिष्ट विनियमों से परे, अनिवार्य रूप से कुछ अवर्णित विशेष मामले भी हैं। इन विशेष मामलों के संबंध में, कुछ अगुआ उन्हें परमेश्वर के घर द्वारा अपेक्षित सिद्धांतों का पालन करके सँभाल सकते हैं, जैसे कि परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करना, भाई-बहनों की सुरक्षा सुनिश्चित करना, और कलीसिया के कार्य के सुचारू संचालन को बनाए रखना—और, इसके अतिरिक्त, वे यह सब बड़ी अच्छी तरह से करते हैं—जबकि कुछ अगुआ ऐसा करने में विफल हो जाते हैं। उन समस्याओं के बारे में क्या करना चाहिए जिन्हें सँभाला नहीं जा सकता है? कुछ अगुआ और कार्यकर्ता भ्रमित तरीके से कार्य करते हैं, वे समस्याओं को पहचानने में असमर्थ होते हैं, और अगर वे पहचान भी लें, तो भी उन्हें सुलझा नहीं पाते हैं। वे ऊपरवाले से समाधान खोजे बिना सिर्फ जैसे-तैसे काम चलाते हैं, बस भाई-बहनों से कह देते हैं, “इसे खुद सुलझाओ; परमेश्वर पर भरोसा करो और समाधान के लिए परमेश्वर की ओर देखो,” और फिर वे इसे निपट चुका मान लेते हैं। चाहे कितनी भी समस्याओं का ढेर क्यों ना लग जाए, वे उन्हें खुद नहीं सुलझा पाते हैं, फिर भी वे इसकी सूचना ऊपर नहीं देते हैं या इसके समाधान का तरीका नहीं खोजते हैं, शायद वे डरते हैं कि ऊपरवाला उनकी असलियत जान लेगा और वे अपना मान-सम्मान खो देंगे। ऐसे कुछ अगुआ और कार्यकर्ता भी हैं जो कभी भी ऊपरवाले को समस्याओं की सूचना नहीं देते हैं, और मुझे नहीं पता कि वे ऐसा क्यों करते हैं। यह जरूरी नहीं है कि ऊपर सूचना देने का अर्थ सीधे ऊपरवाले को सूचना देना ही हो; यकीनन पहले किसी जिले या क्षेत्र के अगुआओं को सूचना दी जा सकती है। और अगर वे इसे नहीं सुलझा पाते हैं, तो फिर तुम अगुआओं और कार्यकर्ताओं से इसकी सूचना सीधे ऊपरवाले को देने के लिए कह सकते हो। अगर तुम किसी अगुआ या कार्यकर्ता से किसी मामले की सूचना ऊपरवाले को देने के लिए कहते हो, और परिस्थिति को स्पष्ट कर देते हो, तो क्या वह इसे यूँ ही दबा सकता है और मामले को नजरअंदाज कर सकता है? ऐसे लोग बहुत ही कम हैं। अगर सचमुच ऐसे अगुआ हैं भी, तो भी तुम दूसरे अगुआओं और कार्यकर्ताओं के साथ इस मामले को स्पष्ट कर सकते हो ताकि उस व्यक्ति को उजागर किया जा सके जो मुद्दे को दबाता है और इसकी सूचना नहीं देता है। अगर ये दूसरे अगुआ और कार्यकर्ता अब भी इस मामले की सूचना नहीं देते हैं, तो एक अंतिम उपाय है : तुम सीधे परमेश्वर के घर की वेबसाइट को लिख सकते हो ताकि इसे आगे ऊपरवाले को भेज दिया जाए, और इस प्रकार यह सुनिश्चित हो जाए कि मुद्दे की सूचना ऊपरवाले को दे दी गई है। ऐसा इसलिए है क्योंकि ऊपरवाला पहले भी कई बार ऐसे पत्रों से निपट चुका है, और बाद में उसने सीधे अगुआओं और कार्यकर्ताओं को यह मामला सँभालने का कार्य सौंपा है। दरअसल, किसी मुद्दे की सूचना ऊपर देने के कई रास्ते हैं; इसका अभ्यास करना आसान है, यह सिर्फ इस बात पर निर्भर करता है कि व्यक्ति सही मायने में समस्या को सुलझाना चाहता है या नहीं। भले ही तुम्हें किसी अगुआ या कार्यकर्ता पर भरोसा ना हो, फिर भी तुम्हें यह विश्वास रखना चाहिए कि परमेश्वर धार्मिक है और ऊपरवाला सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करता है। अगर तुम्हें परमेश्वर पर वास्तविक आस्था नहीं है, और तुम नहीं मानते कि परमेश्वर के घर में सत्य का राज है, तो तुम कुछ भी नहीं कर सकते। बहुत-से लोग सत्य नहीं समझते; वे नहीं मानते कि परमेश्वर के घर में सत्य राज करता है, और उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं होता है। वे हमेशा यही सोचते रहते हैं कि दुनिया के सारे अधिकारी एक-दूसरे को बचाते हैं, और परमेश्वर का घर भी ऐसा ही होगा। वे नहीं मानते हैं कि परमेश्वर सत्य और धार्मिकता है। इसलिए ऐसे व्यक्ति को छद्म-विश्वासी कहा जा सकता है। लेकिन लोगों की एक छोटी संख्या वास्तविक समस्याओं की सूचना देने में सक्षम है। ऐसे लोगों को परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करने वाले लोग कहा जा सकता है; वे जिम्मेदार लोग हैं। कुछ अगुआ और कार्यकर्ता गंभीर समस्याओं का पता चलने पर ना सिर्फ उन्हें सुलझाने में विफल रहते हैं; बल्कि वे उनकी सूचना भी ऊपर के स्तर को नहीं देते हैं। उन्हें मामले की गंभीरता का एहसास तब होना शुरू होता है जब ऊपरवाला इसकी छानबीन करता है। इससे चीजों में देरी होती है। इसलिए, चाहे तुम कोई साधारण भाई या बहन हो या कोई अगुआ या कार्यकर्ता, जब भी तुम किसी ऐसे मुद्दे का सामना करो जिसे तुम हल न कर पाओ और जो कार्य के ज्यादा बड़े सिद्धांतों से संबंधित हो, तो तुम्हें हमेशा समय पर ऊपरवाले को इसकी सूचना देनी चाहिए और समाधान खोजना चाहिए। अगर तुम उलझनों या कठिनाइयों का सामना करते हो लेकिन उनका समाधान नहीं करते, तो कुछ कार्य आगे नहीं बढ़ पाएगा; उसे दरकिनार कर रोक देना पड़ेगा। यह कलीसिया के कार्य की प्रगति को प्रभावित करता है। इसलिए, जब ऐसी समस्याएँ उत्पन्न हों, जो इस कार्य की प्रगति को सीधे प्रभावित कर सकती हैं, तो उनका पर्दाफाश कर समयबद्ध तरीके से हल किया जाना चाहिए। अगर किसी समस्या को हल करना आसान न हो, तो तुम्हें ऐसे लोग ढूँढ़ने चाहिए जो सत्य समझते हों और जो उस क्षेत्र में विशेषज्ञता रखते हों, फिर उनके साथ बैठकर जाँच करनी चाहिए और मिलकर समस्या का समाधान करना चाहिए। इस तरह की समस्याओं में देरी नहीं की जा सकती! तुम्हारे द्वारा उन्हें हल करने में की जाने वाली हर दिन की देरी, कार्य की प्रगति में एक दिन की देरी होती है। यह किसी अकेले व्यक्ति के मामलों को बाधित नहीं कर रहा है; यह कलीसिया के कार्य को प्रभावित करता है, साथ ही इस बात को भी कि परमेश्वर के चुने हुए लोग अपने कर्तव्य कैसे करते हैं। इसलिए, जब तुम इस किस्म की उलझन या कठिनाई का सामना करते हो, तो इसे तुरंत सुलझाना चाहिए, इसमें देरी नहीं की जा सकती है। अगर तुम वाकई उसे हल नहीं कर सकते, तो जल्दी से उसकी रिपोर्ट ऊपरवाले को करो। वह इसे सुलझाने के लिए सीधे आगे आएगा, या तुम्हें मार्ग बता देगा। अगर कोई अगुआ या कार्यकर्ता इस प्रकार की समस्याएँ सँभालने में असमर्थ है और ऊपरवाले को उनकी रिपोर्ट करने और उससे समाधान खोजने के बजाय उन पर बैठा रहता है, तो ऐसा अगुआ अंधा होता है; मूर्ख, बेकार है। उसे बरखास्त कर उसके पद से हटा दिया जाना चाहिए। अगर उसे उसके पद से नहीं हटाया गया, तो कलीसिया का कार्य आगे नहीं बढ़ पाएगा; वह उसके हाथों में नष्ट हो जाएगा। इसलिए इससे तुरंत निपटा जाना चाहिए।
फिल्म निर्माण कार्य भी परमेश्वर के घर के लिए एक महत्वपूर्ण कार्य है। फिल्म निर्माण टीम को अक्सर ऐसी समस्या का सामना करना पड़ता है जहाँ पटकथा को लेकर सभी के बीच मतभेद रहता है। मिसाल के तौर पर, निर्देशक का मानना है कि पटकथा वास्तविक जीवन से भटकी हुई है और फिल्माए जाने पर अवास्तविक लगेगी, और इसलिए वह इसमें बदलाव करना चाहता है। लेकिन, पटकथा लेखक इससे पूरी तरह असहमत है, उसका मानना है कि पटकथा उचित रूप से लिखी गई है और उसकी माँग है कि निर्देशक पटकथा के अनुसार ही फिल्माए। अभिनेताओं की भी अपनी-अपनी आपत्तियाँ हैं, वे पटकथा लेखक और निर्देशक दोनों ही से असहमत हैं। एक अभिनेता कहता है, “अगर निर्देशक इसे उसी तरीके से फिल्माने पर अड़ गया, तो मैं अभिनय नहीं करूँगा!” पटकथा लेखक कहता है, “अगर निर्देशक ने पटकथा बदल दी, तो कोई भी समस्या उत्पन्न होने पर तुम सभी जिम्मेदार होगे!” निर्देशक कहता है, “अगर मुझे पटकथा के अनुसार फिल्माने पर मजबूर किया गया और फिर गलतियाँ हुईं, तो परमेश्वर का घर मुझे जवाबदेह ठहराएगा। अगर तुम चाहते हो कि मैं फिल्मांकन करूँ, तो यह मेरी अपनी सोच के आधार पर किया जाना चाहिए; अगर ऐसा नहीं हुआ, तो मैं इसे नहीं करूँगा।” अब, तीनों पक्ष गतिरोध की स्थिति में हैं, है ना? यह कार्य स्पष्ट रूप से आगे नहीं बढ़ सकता है। क्या यह एक उलझन पैदा नहीं हो गई है? तो, वास्तव में कौन सही है? हर किसी के अपने खुद के सिद्धांत, अपने खुद के तर्क हैं और कोई भी समझौता करने का इच्छुक नहीं है। तीनों पक्षों के इस तरह की गतिरोध की स्थिति में होने से, किसको नुकसान पहुँचता है? (परमेश्वर के घर के कार्य को।) परमेश्वर के घर का कार्य बाधित होता है और उसे नुकसान पहुँचता है। क्या तुम लोग ऐसी परिस्थितियों का सामना करने पर बेचैन और चिंतित महसूस करते हो? अगर नहीं, तो इससे साबित होता है कि तुम लोगों ने इसमें सच में अपना दिल नहीं लगाया है। जब ऐसी उलझन और गतिरोध उत्पन्न होते हैं, तो कुछ लोग इतने बेचैन हो जाते हैं कि उनके लिए खाना-पीना और सोना असंभव हो जाता है, वे बस सोचते रहते हैं, “क्या करना चाहिए? इस तरह से बहस करने और झुकने से इनकार करने का कोई फायदा नहीं है। क्या यह फिल्मांकन की प्रगति को प्रभावित नहीं कर रहा है? इसके कारण पहले ही कई दिनों की देरी हो चुकी है और अब इसे आगे के लिए टाला नहीं जा सकता है। हम इस समस्या को कैसे सुलझा सकते हैं ताकि यह सुनिश्चित हो जाए कि शूटिंग सुचारू रूप से चलती रहे और कार्य में देरी ना हो? इस मुद्दे को सुलझाने के लिए हमें किससे मदद माँगनी चाहिए?” अगर तुम्हारे पास दिल है, तो तुम्हें अगुआओं से समाधान माँगने चाहिए, और अगर अगुआ इसे सुलझा नहीं पाते हैं, तो तुम्हें जल्दी से इसकी सूचना ऊपरवाले को दे देनी चाहिए। अगर तुम सही मायने में परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील हो, तो तुम्हें इस समस्या को जल्द से जल्द सुलझाने के लिए हर संभव प्रयास करना चाहिए; यही सबसे महत्वपूर्ण बात है। और अगर तुम इस बारे में चिंतित नहीं हो तो? तो तुम यह सोचते हुए इस पर चिंतन कर सकते हो, “वे गलत हैं। मैं अपने नजरिये पर अड़ा रहूँगा—देखता हूँ वे मेरा क्या बिगाड़ सकते हैं। मैं खाना खाऊँगा और फिर कुछ देर झपकी लूँगा, वैसे भी दोपहर में करने के लिए कुछ नहीं है।” तुम्हारे पैरों में भारीपन आ जाता है, सिर चकराने लगता है, दिल कमजोर पड़ने लगता है और तुम सुस्त पड़ जाते हो। कठिनाइयों का ढेर लगा हुआ है, लेकिन तुम लापरवाह और सुस्त हो, इसलिए समस्या को सुलझाने का कोई तरीका नहीं है। क्यों नहीं है? क्योंकि तुममें इसे सुलझाने की प्रेरणा और इच्छा की कमी है, इसलिए तुम इसका समाधान नहीं सोच पाते हो। तुम मन ही मन सोचते हो : “ऐसा अक्सर नहीं होता है कि कठिनाइयाँ उत्पन्न हों और कार्य ठप्प पड़ जाए। मैं इस मौके का उपयोग कुछ दिन आराम करने और तनावमुक्त होने के लिए करूँगा। हर समय इतना थका-हारा रहना ही क्यों? अगर मैं अभी कुछ देर आराम कर लेता हूँ, तो इस बारे में कोई कुछ नहीं कह सकता है। आखिर, मैं अपने कार्य के प्रति ढिलाई नहीं कर रहा हूँ या गैर-जिम्मेदार नहीं बन रहा हूँ। मैं जिम्मेदार बनना चाहता हूँ, लेकिन हमारे रास्ते में यह कठिनाई है—इसे कौन सुलझाने वाला है? इसे सुलझाए बिना हम फिल्मांकन कैसे कर सकते हैं? अगर ऐसी कठिनाइयाँ मौजूद हैं जो हमें फिल्माने से रोकती हैं, तो क्या हमें बस कुछ देर का अवकाश नहीं ले लेना चाहिए?” तुम्हारे सामने इतना बड़ा मुद्दा होने पर, अगर इसे तुरंत सुलझाया नहीं गया तो क्या परिणाम होंगे? अगर समस्याएँ लगातार उत्पन्न होती रहें और कोई भी सुलझाई नहीं जा सके, तो क्या कार्य लगातार आगे बढ़ सकता है? इससे असीम देरी होगी। कार्य की प्रगति सिर्फ आगे की तरफ हो सकती है, पीछे की तरफ नहीं, इसलिए यह जानते हुए कि यह समस्या कठिनाइयाँ पेश करती है, तुम्हें अब और टालमटोल नहीं करनी चाहिए; तुम्हें इसे जल्दी से सुलझाने की जरूरत है। एक बार यह समस्या सुलझ जाए, तो अगली समस्या उत्पन्न होने पर उसे जल्दी से सुलझाओ, प्रयास करो कि समय बर्बाद नहीं हो ताकि कार्य सुचारू रूप से आगे बढ़ सके और नियत समय पर पूरा हो सके। सुनने में यह कैसा लगता है? (अच्छा लगता है।) जिन लोगों के पास दिल है, वे इस रवैये से उलझन और कठिनाइयों का सामना करते हैं। वे समय बर्बाद नहीं करते, अपने लिए बहाने नहीं बनाते और दैहिक सुख-सुविधाओं का लालच नहीं करते। दूसरी तरफ, बेदिल लोग कमियों का फायदा उठाएँगे; वे बहाने बनाएँगे और कुछ देर का अवकाश लेने के मौके तलाशेंगे, सब कुछ बड़े आराम से और बिना किसी तरह की जल्दबाजी या बेचैनी के करेंगे, उनमें कष्ट सहने या कीमत चुकाने का कोई संकल्प नहीं होगा। और फिर अंत में क्या होता है? किसी उलझन या कठिनाई का सामना करने पर हर कोई कई दिनों तक खुद को गतिरोध की स्थिति में पाता है। ना निर्देशक, ना अभिनेता, और ना ही पटकथा लेखक इस मुद्दे की सूचना देता है। इस बीच, अगुआ अंधे हैं और इसे एक समस्या के रूप में पहचानने में असमर्थ हैं; अगर वे इसे एक समस्या के रूप में पहचान लेते भी हैं तो भी वे इसे खुद सुलझा नहीं सकते हैं, वे इसकी सूचना ऊपर नहीं देते हैं। जब तक इसकी सूचना स्तर-दर-स्तर ऊपरवाले को दी जाती है, तब तक दस दिन या आधा महीना बीत चुका होता है। इन दस दिनों से आधे महीने के दौरान क्या किया गया? क्या कोई अपने कर्तव्य कर रहा था? नहीं, वे अपना समय खाने-पीने और मौज-मस्ती करने में आराम से बिता रहे थे! क्या वे सिर्फ मुफ्तखोरी नहीं कर रहे हैं? वे सभी पर्यवेक्षक जो अपने कार्य में आने वाली उलझन और कठिनाइयों का तुरंत समाधान तलाश नहीं कर सकते हैं, वे सिर्फ मुफ्तखोरी कर रहे हैं, बिना किसी उद्देश्य के दिन गुजार रहे हैं। ऐसे लोगों को संक्षेप में “निठल्ला” कहा जाता है। “निठल्ला” क्यों? क्योंकि ये लोग अपने कर्तव्यों को गंभीरता, जिम्मेदारी, कठोरता या सकारात्मकता के दृष्टिकोण से नहीं सँभालते हैं, बल्कि वे लापरवाह होते हैं, नकारात्मक होते हैं और ढिलाई बरतते हैं, बस यही उम्मीद करते रहते हैं कि कोई कठिनाई या गतिरोध उत्पन्न हो जाए ताकि उन्हें अपना तामझाम समेटने और कार्य बंद करने का बहाना मिल जाए।
अगुआओं और कार्यकर्ताओं को ना सिर्फ कार्य में आने वाली उलझन और कठिनाइयों का तुरंत समाधान करना चाहिए, बल्कि इन मुद्दों की तुरंत जाँच और पहचान भी करनी चाहिए। ऐसा क्यों करना चाहिए? ऐसा करने का सिर्फ एक ही लक्ष्य है : परमेश्वर के कार्य और परमेश्वर के घर के कार्य की सुरक्षा करना, यह सुनिश्चित करना कि प्रत्येक कार्य सुचारू रूप से प्रगति करे और सामान्य समय-सीमा में सफलतापूर्वक पूरा हो जाए। यह सुनिश्चित करने के लिए कि कार्य सुचारू रूप से प्रगति करे, किन मुद्दों को सुलझाने की जरूरत है? सबसे पहले, यह बेहद जरूरी है कि कलीसिया के कार्य में विघ्न डालने वाली बाधाओं या रुकावटों को पूरी तरह से हटा दिया जाए, अविश्वासियों और कुकर्मियों को प्रतिबंधित कर दिया जाए ताकि उन्हें मुसीबत खड़ी करने से रोका जा सके। इसके अतिरिक्त, सत्य समझने और अभ्यास का मार्ग ढूँढ़ने, मिलजुलकर सहयोग करने और एक-दूसरे की निगरानी करना सीखने के लिए कार्य की प्रत्येक मद के पर्यवेक्षकों और भाई-बहनों का मार्गदर्शन करना चाहिए। सिर्फ इसी तरीके से कार्य के पूरा होने की गारंटी दी जा सकती है। चाहे कैसी भी कठिनाइयाँ या उलझनों का सामना क्यों ना करना पड़े, अगर अगुआ और पर्यवेक्षक उन्हें सुलझा नहीं पाते हैं, तो उन्हें जल्दी से इन मुद्दों की सूचना ऊपरवाले को देनी चाहिए और समाधान खोजने चाहिए। अगुआ और पर्यवेक्षकों को, चाहे वे कोई भी कार्य क्यों ना करें, समस्याएँ सुलझाने को प्राथमिकता देनी चाहिए, कार्य से जुड़ी तकनीकी समस्याओं और सिद्धांत के मुद्दों को, और साथ ही लोग अपने जीवन प्रवेश के संबंध में जिन विभिन्न कठिनाइयों का सामना करते हैं उनका समाधान करना चाहिए। अगर तुम उलझन और कठिनाइयों को नहीं सुलझा पाते हो तो तुम अपना कार्य अच्छी तरह से नहीं कर पाओगे। इसलिए, जब तुम ऐसी असामान्य कठिनाइयों या उलझनों का सामना करते हो जिन्हें तुम नहीं सुलझा पाते हो तो तुम्हें उनकी सूचना ऊपरवाले को तुरंत देनी चाहिए। समय बर्बाद मत करो, क्योंकि तीन से पाँच दिन की देरी से कार्य में नुकसान हो सकता है, और अगर इसमें आधे महीने या एक महीने की देरी हो गई, तो नुकसान बहुत ही ज्यादा होगा। इसके अतिरिक्त, समस्या चाहे कोई भी हो, उसे सत्य सिद्धांतों के आधार पर निपटाना चाहिए। चाहे कुछ भी हो जाए, समस्याओं को सुलझाने के लिए मनुष्य के सांसारिक आचरण के फलसफों का उपयोग कभी मत करना। गंभीर मुद्दों को मामूली मुद्दे मत बनाओ, और फिर मामूली मुद्दों को गैर मुद्दे मत बनाओ या मुद्दों में शामिल दोनों पक्षों को सिर्फ डाँट देने और फिर उन्हें कुछ सुखद बात कहकर शांत करने वाला तरीका मत अपनाओ, इस डर से कि मुद्दे कहीं तूल ना पकड़ लें, हमेशा उनसे बातचीत करने और उन्हें मनाने के तरीके का सहारा मत लो। इससे समस्याओं का जड़ से समाधान नहीं हो पाता है जिससे भविष्य के लिए मुद्दे बने रह जाते हैं। क्या यह चीजों को सतही ढंग से ठीक करने का प्रयास करने का एक तरीका भर नहीं है? अगर तुम्हें लगता है कि तुमने किसी समस्या के लिए सभी मानवीय समाधान आजमाकर देख लिए हैं और यह सही मायने में सुलझ नहीं सकती है, और तुम कार्य से जुड़े तकनीकी मुद्दों के लिए सिद्धांत नहीं ढूँढ़ पा रहे हो, तो फिर तुम्हें बिना प्रतीक्षा या टालमटोल किए जल्दी से इन मुद्दों की सूचना ऊपरवाले को देनी चाहिए और समाधान खोजने चाहिए। कोई भी समस्या जिसे सुलझाया नहीं जा सकता है, उसका समाधान खोजने के लिए उसकी सूचना तुरंत ऊपरवाले को देनी चाहिए। यह सिद्धांत तुम्हें कैसा लगता है? (अच्छा।)
क्या फिल्म निर्माण और पटकथा-लेखन टीम अक्सर शूटिंग के मुद्दों पर गतिरोध की स्थिति में आ जाते हैं? इनमें से प्रत्येक के पास अपना तर्क होता है, और वे सर्वसहमति पर पहुँचने में असमर्थ होते हैं, हमेशा कहा-सुनी में उलझे रहते हैं। क्या इन मुद्दों के उत्पन्न होने पर अगुआ इन्हें सुलझा सकते हैं? (कभी-कभी वे सुलझा सकते हैं।) क्या तुम लोगों ने कभी ऐसी परिस्थिति का सामना किया है जहाँ किसी अगुआ ने संगति के जरिये कुछ समस्याओं को सुलझाया हो, और सुनने में वह पूरी तरह से उचित और सैद्धांतिक रूप से ठोस लगा हो, लेकिन तुम्हें फिर भी पूरा यकीन नहीं हुआ हो कि वह परमेश्वर के घर या सत्य सिद्धांतों की जरूरतों के अनुरूप है? (हाँ।) तुम लोगों ने ऐसी परिस्थितियों को कैसे सँभाला? (कभी-कभी हमने ऊपरवाले से खोज की।) यही सही दृष्टिकोण है। क्या तुम लोग कभी ऐसी परिस्थिति में रहे हो जहाँ तुमने किसी मुद्दे के बारे में पूछताछ नहीं करने का फैसला किया क्योंकि तुमने देखा कि ऊपरवाला भाई बहुत ही व्यस्त है, और तुमने सोचा कि जब तक मामला सैद्धांतिक रूप से सही है, तब तक यह ठीक ही है, और फिर तुमने इस बात की परवाह किए बिना कि वह सत्य का अनुपालन करता है या नहीं, पहले शूटिंग करने का फैसला किया? (पहले हमारे सामने इसे लेकर गंभीर समस्याएँ थीं। इसके कारण हमें चीजों को फिर से करना पड़ा था और कार्य में गड़बड़ियाँ और विघ्न उत्पन्न हुए थे।) वह एक गंभीर परिस्थिति है! फिल्म निर्माण टीमें जिन समस्याओं का सामना करती हैं उनमें से कई समस्याएँ अंत में दरअसल पटकथा-लेखन टीम की जिम्मेदारी होती हैं। मिसाल के तौर पर, अगर कोई फिल्म ढाई घंटे चलने वाली बेतुकी कहानी बन जाती है, तो इसके लिए मुख्य रूप से पटकथा लेखक जिम्मेदार होते हैं। लेकिन निर्देशकों की जिम्मेदारी के बारे में क्या? अगर पटकथा बेतुकी हो, तो क्या निर्देशकों को यह देखने में समर्थ होना चाहिए? सैद्धांतिक रूप में, उन्हें होना चाहिए। लेकिन, फिर भी ऐसी परिस्थितियों में निर्देशक फिल्मांकन पूरा करने में महीनों लगा सकते हैं और काफी श्रमशक्ति, भौतिक संसाधन और पैसे खर्च कर सकते हैं। यह किस किस्म की समस्या है? निर्देशकों के रूप में, तुम लोगों की क्या जिम्मेदारी है? पटकथा मिलने पर, तुम्हें ऐसे सोचना चाहिए, “यह पटकथा लंबी है और समृद्ध विषयवस्तु वाली है, लेकिन इसमें कोई मर्म, कोई प्रसंग नहीं है; पूरी संरचना बेजान है। इस पटकथा को फिल्माया नहीं जा सकता है; इसमें संशोधन करने के लिए इसे पटकथा लेखकों को वापस करना होगा।” क्या तुम लोग इसे करने में सक्षम हो? क्या तुम लोगों ने कभी कोई पटकथा वापस की है? (नहीं।) क्या ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम मुद्दों को नहीं देख पाते हो, या इसलिए है क्योंकि तुम इसे वापस करने से डरते हो? या क्या तुम डरते हो कि कोई तुम्हारी आलोचना करेगा, और कहेगा, “उन्होंने तुम्हें यह तैयार पटकथा दी और तुमने इसे बस एक शब्द के साथ नामंजूर कर दिया, इसे वापस भेज दिया—तुम बहुत ही घमंडी हो, है ना?” आखिर तुम लोग किस बात से डरते हो? तुम्हें समस्या नजर आती है, तो फिर लेखकों को यह पटकथा वापस क्यों नहीं करते हो? (हम अपने फिल्म निर्माण कार्य के लिए जिम्मेदार नहीं हैं।) फिल्म निर्माण टीमों के लिए, कलीसियाई अगुआओं के अलावा, निर्देशकों को भी पर्यवेक्षकों के रूप में कार्य करना चाहिए, जो फैसले लेते हों और अंतिम फैसला उन्हीं का हो। यह ध्यान रखते हुए कि तुम निर्देशक हो, तुम्हें इस मामले की पूरी जिम्मेदारी लेनी चाहिए, पटकथा प्राप्त करते ही उचित ढंग से इसका पुनरीक्षण करना चाहिए। मान लो कि तुम्हें एक पटकथा दी जाती है और तुम शुरू से अंत तक उसकी समीक्षा करते हो, और पाते हो कि इसकी विषय-वस्तु बहुत अच्छी है। इसमें एक मर्म और प्रसंग है, पटकथा एक मुख्य कहानी के इर्द-गिर्द घूमती है, और कुल मिलाकर इस पटकथा में कोई बड़ी समस्या नजर नहीं आती है—यह अच्छी दिखती है, फिल्माने लायक है, और इसलिए इस पटकथा को स्वीकार किया जा सकता है। लेकिन, अगर पटकथा बहुत लंबी है, बिना किसी केंद्र-बिंदु या प्रमुख प्रसंग के शुरू से आखिर तक एक व्यक्ति की कहानी सुनाती है, यह अस्पष्ट ही रह जाता है कि पटकथा क्या व्यक्त करना चाहती है, यह दर्शकों से क्या हासिल करवाना चाहती है, या इसका केंद्रीय विचार और आध्यात्मिक अर्थ क्या है—तो यह मूल रूप से सिर्फ एक बेतुका वर्णन है, एक उलझी हुई पटकथा है—क्या इस पटकथा को स्वीकार किया जा सकता है? ऐसी स्थिति में निर्देशकों को क्या करना चाहिए? उन्हें पटकथा वापस कर देनी चाहिए और पटकथा लेखकों को इसमें संशोधन करने के लिए सुझाव देने चाहिए। पटकथा लेखन टीम के लोग आपत्ति जता सकते हैं, वे कह सकते हैं, “यह उचित नहीं है! हमारी लिखी पटकथा का लेखापरीक्षा करने वाले वे कौन होते हैं? उन्हें फैसला लेने का अधिकार क्यों दिया गया है? परमेश्वर के घर को लोगों के साथ निष्पक्ष और उचित रूप से व्यवहार करना चाहिए!” तब क्या करना चाहिए? अगर निर्देशक पटकथा में मुद्दों को पहचान पाते हैं, तो उन्हें फैसला लेने की जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए, बल्कि पहले कलीसियाई अगुआओं और फिल्म निर्माण टीम के सदस्यों से इस मामले पर चर्चा करनी चाहिए। अगर सभी लोग, अपने पिछले कई वर्षों के फिल्मांकन के अनुभव और पटकथा की समझ के आधार पर, सर्वसम्मति से पटकथा को मानक स्तर की नहीं मानते हैं, और यह मानते हैं कि इसके फिल्मांकन से ना सिर्फ फिल्म निर्माण कार्य में देरी होगी, बल्कि इसमें शामिल सभी मानवीय, भौतिक और आर्थिक संसाधनों की बर्बादी भी होगी, और कोई भी ऐसी जिम्मेदारी नहीं उठा सकता है तो इस पटकथा को वापस कर देना चाहिए। एक बेतुकी पटकथा को बिल्कुल भी फिल्माना नहीं चाहिए; यह एक सिद्धांत है। अगर सभी लोग पटकथा के बारे में एक जैसा महसूस करते हैं, तो पटकथा लेखकों को बिना शर्त के इसे स्वीकार कर लेना चाहिए और फिल्म निर्माण टीम के सुझावों के अनुसार पटकथा को संशोधित करना चाहिए। अगर अब भी मतभेद रहते हैं, तो दोनों पक्षों के सदस्य और अगुआ साथ मिलकर यह देखने के लिए वाद-विवाद कर सकते हैं कि किसके तर्क सत्य सिद्धांतों के अनुरूप हैं। अगर बिना किसी निष्कर्ष पर पहुँचे गतिरोध वैसे का वैसा बना रहता है, तो अंतिम उपाय का उपयोग करना चाहिए, जो कि आज संगति की गई अगुआओं और कार्यकर्ताओं की आठवीं जिम्मेदारी है : “काम के दौरान आने वाली उलझनों और कठिनाइयों की तुरंत सूचना दो और उन्हें हल करने का तरीका खोजो।” जो मुद्दे गतिरोध की स्थिति में हैं और जिन्हें सुलझाया नहीं जा सकता है उन्हें उलझन और कठिनाइयाँ कहते हैं। प्रत्येक पक्ष को लगता है कि उनका तर्क सही है और कोई भी फैसला लेने में समर्थ नहीं होता है। इस तरह एक कदम आगे-दो कदम पीछे जाने से समस्या उलझ जाती है, जिससे मुद्दे के पूरे विवरण और सही दिशा के बारे में सभी की समझ धुंधली पड़ जाती है। इस मौके पर, अगुआओं और कार्यकर्ताओं को कार्य में सामने आने वाले इन मुद्दों और उलझनों की तुरंत सूचना देने और समाधान खोजने का प्रभार लेना चाहिए, मुद्दों को कार्य की प्रगति में बाधा डालने से रोकने के लिए, और इससे भी ज्यादा, मुद्दों का अंबार लगने से रोकने के लिए उन्हें तुरंत सुलझाने का प्रयास करना चाहिए। इन मुद्दों की तुरंत सूचना देना और समाधान का तरीका खोजना—क्या यह कार्य करना नहीं है? क्या यह कार्य के प्रति गंभीर और जिम्मेदार रवैया दिखाना नहीं है? क्या यह अपना कर्तव्य करने में अपना दिल लगाना नहीं है? क्या यह वफादार होना नहीं है? (हाँ।) यह अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठा रखना है।
कार्य के प्रभारी अगुआओं और कार्यकर्ताओं को कार्य में उत्पन्न होने वाली समस्याओं को तुरंत देख लेना चाहिए और उनका समाधान करना चाहिए, क्योंकि सिर्फ ऐसा करने से ही कार्य की सुचारू प्रगति सुनिश्चित हो सकती है। ऐसे सभी अगुआ और कार्यकर्ता जो समस्याओं का समाधान नहीं कर पाते हैं, उनमें सत्य वास्तविकता की कमी है और वे नकली अगुआ और कार्यकर्ता हैं। जिस किसी को भी मुद्दों का पता चलता है लेकिन वह उन्हें सुलझाने में विफल रहता है, सुलझाने के बजाय वह उन्हें टाल देता है या छिपा लेता है, वह एक बेकार निकम्मा व्यक्ति है जो किसी काम का नहीं हैं और सिर्फ कार्य में गड़बड़ करता है। विवादित मुद्दों को संगति और वाद-विवाद के जरिये सुलझाना चाहिए। अगर उनसे सही परिणाम नहीं मिलते हैं, बल्कि और झोल हो जाता है, तो प्राथमिक अगुआ को व्यक्तिगत रूप से मामले से निपटने का प्रभार लेना चाहिए, समाधानों और तरीकों का तुरंत प्रस्ताव देना चाहिए, और साथ ही तुरंत जाँच-परख करनी चाहिए, समझना चाहिए और फैसला लेना चाहिए ताकि वह यह देख सके कि स्थिति का परिणाम कैसा निकलेगा। जब किसी समस्या पर अब भी विवाद बने रहते हैं और किसी फैसले पर पहुँचना संभव नहीं होता है, तो समाधान खोजने के लिए मुद्दे की सूचना जल्दी से ऊपरवाले को देनी चाहिए, ना कि बस चीजों को सतही ढंग से ठीक करने, प्रतीक्षा करने या टालमटोल करने का प्रयास करना चाहिए, और विशेष रूप से ना कि बस मुद्दे को अनदेखा कर देना चाहिए। क्या तुम लोगों के मौजूदा अगुआ और कार्यकर्ता इस तरह से कार्य करते हैं? उन्हें कार्य की तुरंत निगरानी करनी चाहिए और उसकी प्रगति को आगे बढ़ाना चाहिए, और साथ ही कार्य में प्रकट होने वाले विभिन्न टकरावों को पहचानना चाहिए, और साथ ही विभिन्न मामूली मुद्दों को भी नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। जब महत्वपूर्ण समस्याओं को पहचाना जाता है तो मुख्य अगुआओं और कार्यकर्ताओं को उन्हें सुलझाने में भाग लेने के लिए मौजूद रहना चाहिए, ताकि वे पूरे विवरण की, समस्या के उत्पन्न होने के कारण की और इसमें शामिल लोगों के परिप्रेक्ष्यों की सटीक समझ प्राप्त कर सकें, जिससे वे सटीकता से यह समझ सकें कि वास्तव में क्या चल रहा है। साथ ही, उन्हें इन मुद्दों पर संगति करने, वाद-विवाद करने और यहाँ तक कि इन मुद्दों का खंडन करने में भी भाग लेना चाहिए। यह एक जरूरत है; सहभागिता अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह कार्य में उत्पन्न होने वाली समस्याओं पर फैसले लेने और उन्हें सुलझाने में तुम्हारी मदद करती है। अगर तुम बिना शामिल हुए सिर्फ सुनते रहते हो, हमेशा हाथ पर हाथ बाँधकर एक किनारे खड़े रहते हो और कक्षा में बैठे व्यक्ति की तरह व्यवहार करते हो, यह सोचते हो कि कार्य में उत्पन्न होने वाली कोई भी समस्या तुम्हारे लिए चिंता का विषय नहीं है और उस मामले के प्रति तुम्हारा कोई विशेष नजरिया या रवैया नहीं होता है, तो तुम स्पष्ट रूप से एक नकली अगुआ हो। जब तुम शामिल होगे, तो ही तुम विस्तार से जानोगे कि कार्य में कौन-सी समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं, उनका कारण क्या है, कौन जिम्मेदार है, मुख्य मुद्दा कहाँ है, और क्या यह लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं के कारण है या तकनीकी और पेशेवर अपर्याप्तता के कारण है—इन सभी बातों को स्पष्ट किया जाना चाहिए ताकि समस्याओं को निष्पक्ष रूप से सँभाला और सुलझाया जा सके। जब तुम इस कार्य में भाग लेते हो और तुम्हें पता चलता है कि समस्याएँ मानव-निर्मित नहीं हैं या किसी के द्वारा जानबूझकर उत्पन्न नहीं की गई हैं, फिर भी तुम्हें समस्या का सार ठीक से बता पाना कठिन लगता है और तुम्हें यह नहीं पता होता है कि इसे कैसे सुलझाया जाए, जबकि दोनों पक्ष लंबे समय से इस पर विवाद कर रहे होते हैं, या जब हर व्यक्ति किसी समस्या में अपना दिल और प्रयास लगा देता है, फिर भी इसे सुलझा नहीं पाता है, और सिद्धांत ढूँढ़ने या दिशा ढूँढ़ने में असमर्थ होता है, जिससे कार्य ठप्प पड़ जाता है, और उसे यह डर भी रहता है कि इसे जारी रखने से आगे और गलतियाँ, विघ्न और नकारात्मक परिणाम होंगे, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? अगुआओं और कार्यकर्ताओं को सबसे ज्यादा जो चीज करनी चाहिए वह यह है कि उन्हें सभी के साथ प्रत्युपायों या समाधानों पर चर्चा नहीं करनी चाहिए, बल्कि जल्द से जल्द इस मुद्दे की सूचना ऊपरवाले को देनी चाहिए। अगुआओं और कार्यकर्ताओं को कार्य में आने वाली समस्याओं को संक्षेप में प्रस्तुत करना चाहिए और उन्हें दर्ज करना चाहिए और बिना किसी टालमटोल, प्रतीक्षा या भाग्य पर भरोसा करने की मानसिकता के उनकी सूचना तुरंत ऊपरवाले को देनी चाहिए, यह नहीं सोचना चाहिए कि एक रात की नींद से प्रेरणा या अचानक स्पष्टता आ सकती है—यह एक दुर्लभ घटना है जिसके होने की संभावना नहीं है। इसलिए, सबसे अच्छा समाधान है समस्या की सूचना ऊपरवाले को देना और जल्द से जल्द समाधान खोजना, और यह सुनिश्चित करना कि समस्या तुरंत और जल्द से जल्द सुलझ जाए; यही सही मायने में कार्य करना है।
अगुआओं और कार्यकर्ताओं के सामने अक्सर अपने कार्य में आने वाली उलझनें और कठिनाइयाँ
I. उलझनें
हमने अभी जो चर्चा की है, उसके आधार पर इसे संक्षेपित करते हैं कि “भ्रमों” और “कठिनाइयों” का वास्तव में क्या मतलब होता है। ये दोनों एक ही चीज नहीं हैं। सबसे पहले, मैं “भ्रम” शब्द की व्याख्या करूँगा। भ्रम तब होता है जब तुम किसी मामले की असलियत नहीं जान पाते; तुम नहीं जानते कि सिद्धांतों के अनुरूप या सटीक तरीके से आकलन कैसे करें या भेद कैसे पहचानें। भले ही तुम कुछ हद तक इसकी असलियत जान पाते हो, लेकिन तुम अनिश्चित होते हो कि तुम्हारा दृष्टिकोण सही है या नहीं, तुम नहीं जानते कि मामले को कैसे सँभालना या हल करना है, और तुम्हारे लिए इस बारे में किसी निष्कर्ष पर पहुँचना मुश्किल हो जाता है। संक्षेप में, तुम इसके संबंध में अनिश्चित होते हो और कोई निर्णय लेने में असमर्थ होते हो। यदि तुम सत्य को थोड़ा भी नहीं समझते और कोई अन्य व्यक्ति उस समस्या का समाधान नहीं करता, तो वह हल न हो सकने वाली समस्या हो जाती है। क्या यह कठिन चुनौती का सामना करना नहीं है? जब ऐसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है, तो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को ऊपरवाले को सूचना देनी चाहिए और ऊपरवाले से खोजना चाहिए ताकि मुद्दों को और अधिक तेजी से हल किया जा सके। क्या तुम लोग अक्सर भ्रम का सामना करते हो? (हाँ।) नियमित रूप से भ्रम का सामना करना अपने आप में एक समस्या है। मान लो कि तुम किसी समस्या का सामना कर रहे हो और तुम्हें नहीं पता कि उसे कैसे सँभालना है। कोई व्यक्ति एक ऐसा समाधान प्रस्तावित करता है जो तुम सोचते हो कि उचित है, साथ ही कोई अन्य व्यक्ति एक दूसरा समाधान पेश करता है और तुम्हारे विचार में वह भी उचित होता है, और तुम स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते कि कौन सा समाधान अधिक उपयुक्त है, सभी की राय अलग-अलग है और कोई भी समस्या के मूल कारण या सार को नहीं समझ पा रहा है, तो समस्या के समाधान में चूक होना तय है। इसलिए, किसी समस्या को हल करने के लिए उसके मूल कारण और सार को निर्धारित करना आवश्यक और महत्वपूर्ण होता है। यदि अगुआ और कार्यकर्ता भेद पहचानने में सक्षम नहीं हैं, वे समस्या के सार को समझने में विफल रहते हैं, और सही निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकते, तो उन्हें तुरंत इस मुद्दे की सूचना ऊपरवाले को देनी चाहिए और उनसे समाधान खोजना चाहिए; यह आवश्यक है और यह जरूरत से ज्यादा प्रतिक्रिया देना नहीं है। अनसुलझी समस्याएँ गंभीर परिणाम पैदा कर सकती हैं और कलीसिया के काम को प्रभावित कर सकती हैं—इस बात की असलियत जाननी चाहिए। अगर तुम आशंकाओं से भरे हुए हो, हमेशा इस बात से डरते रहते हो कि ऊपरवाला तुम्हारी असल औकात को समझ सकता है या यह देखकर कि तुम वास्तविक काम करने में सक्षम नहीं हो, तो वह तुम्हारे कर्तव्य में बदलाव कर सकता है या तुमको बरखास्त कर सकता है, और इसलिए तुम इस मुद्दे की सूचना देने की हिम्मत नहीं करते, तो इससे आसानी से मामले में देरी हो सकती है। अगर तुमको ऐसे भ्रमों का सामना करना पड़ता है जिन्हें तुम खुद हल नहीं कर सकते, फिर भी ऊपरवाले को सूचना नहीं देते, तो जब इसके गंभीर परिणाम होंगे और ऊपरवाला तुमको ही जवाबदेह ठहराएगा, तो तुम मुसीबतों के जंजाल में पड़ जाओगे। क्या इस स्थिति के लिए मात्र तुम ही दोषी नहीं होगे? ऐसे भ्रमों का सामना करते समय अगर अगुआ और कार्यकर्ता जिम्मेदार नहीं होते और केवल कुछ धर्म-सिद्धांतों का उच्चारण करते हैं और मुद्दे को बेमन से सुलझाने के लिए कुछ विनियम लागू करते हैं, तो समस्या अनसुलझी रह जाती है और चीजें जहाँ की तहाँ रह जाती हैं, काम आगे नहीं बढ़ पाता। जब भ्रम अनसुलझे रह जाते हैं तो ठीक यही होता है; इससे बहुत आसानी से देरी हो जाती है।
जब उलझनें उत्पन्न होती हैं, तो कुछ अगुआ और कार्यकर्ता यह भाँप सकते हैं कि कोई समस्या खड़ी हो गई है, जबकि दूसरे अगुआ और कार्यकर्ता उस मुद्दे का पता लगाने में असमर्थ होते हैं—दूसरे समूह के लोग अत्यंत खराब काबिलियत के होते हैं, और सुन्न और मंदबुद्धि होते हैं; उनमें किसी भी समस्या के प्रति संवेदनशीलता नहीं होती है। चाहे सामने खड़ी उलझन कितनी भी बड़ी क्यों ना हो, वे जो प्रदर्शित करते हैं वह सुन्नता और मंदबुद्धि है; वे मुद्दे को नजरअंदाज करते हैं और समस्या को दरकिनार करने का प्रयास करते हैं—ये नकली अगुआ हैं जो वास्तविक कार्य में शामिल नहीं होते हैं। जिन अगुआओं और कार्यकर्ताओं में कुछ मात्रा में काबिलियत और कार्य क्षमता होती है वे ऐसी स्थितियाँ उत्पन्न होने पर इन्हें समझने में समर्थ होते हैं : “यह एक समस्या है। मुझे इसे लिख लेना चाहिए। ऊपरवाले ने पहले कभी इस किस्म के मुद्दे का जिक्र नहीं किया है और हम इसका पहली बार सामना कर रहे हैं, इसलिए इस प्रकार की स्थिति को सँभालने के लिए वास्तव में क्या सिद्धांत हैं? इस विशिष्ट मुद्दे को कैसे सुलझाना चाहिए? ऐसा लगता है कि मेरे पास कुछ सहजज्ञ विचार तो हैं, लेकिन वे अस्पष्ट हैं और ऐसे मामलों के प्रति मेरा थोड़ा-सा रवैया है, लेकिन सिर्फ रवैया रखना ही पर्याप्त नहीं है; समस्या को सुलझाने के लिए सत्य की तलाश करना अत्यंत जरूरी है। इस मामले पर साथ मिलकर संगति और चर्चा करने के लिए हमें इसे सबके सामने बाहर लाने की जरूरत है।” संगति और चर्चा के एक दौर के बाद भी अगर वे यह नहीं जानते हैं कि कैसे आगे बढ़ना है, उनके पास समस्या सुलझाने के लिए अभ्यास की कोई सटीक योजना मौजूद नहीं है और उलझन ज्यों की त्यों बनी रहती है, तो उन्हें उसे सुलझाने के लिए ऊपरवाले से समाधान खोजना चाहिए। इस मुकाम पर, समस्या के बारे में उलझन के बिंदुओं को लिख लेना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारी है, ताकि समय आने पर वे स्पष्ट रूप से यह समझा सकें कि उलझन की समस्या वास्तव में क्या है और वास्तव में किस चीज की तलाश की जा रही है। अगुआओं और कार्यकर्ताओं को यही करना चाहिए।
II. कठिनाइयाँ
क. कठिनाइयाँ क्या हैं
इसके बाद, चलो “कठिनाइयाँ” शब्द को देखें। शाब्दिक परिप्रेक्ष्य से, कठिनाइयाँ उलझन से ज्यादा गंभीर होती हैं। तो, कठिनाइयाँ वास्तव में क्या हैं? कोई समझाओ। (परमेश्वर, हमारी समझ यह है कि कठिनाइयाँ सामने आने वाली वे वास्तविक समस्याएँ हैं, जिन्हें व्यक्ति सुलझाने का प्रयास पहले से ही कर चुका है, लेकिन उन्हें सुलझा नहीं पाया है; ये कठिनाइयाँ मानी जाती हैं।) (मैं एक बिंदु जोड़ रहा हूँ, कभी-कभी व्यक्ति कुछ बहुत ही पेचीदा समस्याओं का सामना कर सकता है जिनसे पहले कभी सामना नहीं हुआ है, जहाँ हर किसी के पास अनुभव की कमी है, हर कोई पूरी तरह से उलझन में है, और किसी के भी पास कोई राय या विचार नहीं है—ये एक प्रकार की बहुत ही चुनौतीपूर्ण समस्याएँ हैं।) बहुत ही चुनौतीपूर्ण समस्याओं को कठिनाइयाँ कहते हैं, है ना? कठिनाइयों की सबसे आसान, सबसे सीधी व्याख्या यह है कि वे ऐसी समस्याएँ हैं जो वास्तव में मौजूद हैं। मिसाल के तौर पर, किसी व्यक्ति की काबिलियत, व्यावसायिक कौशल, शारीरिक बीमारियाँ, साथ ही परिवेशीय और सामयिक मुद्दे, वगैरह, वास्तव में मौजूद इन समस्याओं को कठिनाइयाँ कहते हैं। लेकिन, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की आठवीं जिम्मेदारी जिसके बारे में हम अब संगति कर रहे हैं, वह यह है कि उन्हें काम के दौरान आने वाली उलझनों और कठिनाइयों की तुरंत सूचना देनी चाहिए और उन्हें हल करने का तरीका खोजना चाहिए। यहाँ, जिन कठिनाइयों का जिक्र किया गया है, वे व्यापक रूप से परिभाषित, वास्तव में मौजूद समस्याएँ नहीं हैं, बल्कि कार्य के दौरान आने वाली खास तौर से पेचीदा समस्याएँ हैं जिन्हें सँभाला नहीं जा सकता है। ये किस किस्म की समस्याएँ हैं? ये बाहरी मामले हैं जो सत्य सिद्धांतों से खास तौर से संबंधित नहीं हैं। वैसे तो इन मुद्दों का संबंध सत्य सिद्धांतों से नहीं है, लेकिन ये आम समस्याओं से ज्यादा पेचीदा हैं। ये कैसे पेचीदा हैं? मिसाल के तौर पर, इनका संबंध कानूनी और सरकारी विनियमों से है, या ये कलीसिया में कुछ लोगों की सुरक्षा के बारे में है, इत्यादि। ये सभी वही कठिनाइयाँ हैं जिनका सामना अगुआ और कार्यकर्ता अपने कार्य में करते हैं। मिसाल के तौर पर, विदेशों में, चाहे व्यक्ति किसी भी देश में रहता हो, परमेश्वर में विश्वास रखने में भाई-बहनों को तमाम कलीसियाई कार्य और रहने के परिवेशों में स्थानीय सरकारी विनियमों का अनुपालन करना चाहिए और उन्हें स्थानीय कानूनों और नीतियों की समझ होनी चाहिए। ये मामले बाहरी दुनिया से बातचीत करने और बाहरी मामलों से निपटने से संबंधित हैं; ये कलीसियाई कार्मिकों के अंदरूनी मुद्दों की तुलना में अपेक्षाकृत ज्यादा जटिल हैं। यह जटिलता किसमें है? यह बस कलीसिया में लोगों को परमेश्वर के प्रति समर्पण करने, आज्ञाकारी होने, सत्य का अभ्यास करने, निष्ठा से कर्तव्य करने और सत्य समझने और सिद्धांतों के अनुसार मामले सँभालने के लिए कहने जितना आसान नहीं है—खाली ये बातें कह देने से समस्याएँ नहीं सुलझेंगी। इसके बजाय, इसके लिए दूसरी चीजों के साथ-साथ, देश के कानूनों, नीतियों और विनियमों और स्थानीय रीति-रिवाजों और प्रथाओं के हर पहलू की भी समझ होनी चाहिए। ये बाहरी मामले कई कारकों से संबंधित हैं, और अप्रत्याशित मुद्दों या ऐसे मुद्दों का उठना आम है जिनका कलीसिया के सिद्धांतों का उपयोग करके समाधान करना मुश्किल होता है, और इन मुद्दों के उभरने से कठिनाइयाँ पैदा होती हैं। मिसाल के तौर पर, कलीसिया के आंतरिक मामलों में, अगर कुछ लोग अपने कर्तव्य लापरवाह तरीके से करते हैं तो इन मुद्दों को सत्य की संगति करके, काट-छाँट करके, या मदद और समर्थन प्रदान करके सुलझाया जा सकता है। लेकिन बाहरी मामलों में, क्या तुम इन सिद्धांतों और तरीकों का उपयोग मामलों को सँभालने के लिए कर सकते हो? क्या यह दृष्टिकोण ऐसी समस्याओं को सुलझा सकता है? (नहीं।) तो फिर क्या करना चाहिए? ऐसे मुद्दों को सँभालने और उनका प्रत्युत्तर देने के लिए कुछ बुद्धिमानी भरे तरीकों का उपयोग करना चाहिए। इन बाहरी मामलों से निपटने की प्रक्रिया में, परमेश्वर के घर ने भी कुछ सिद्धांत निर्दिष्ट किए हैं, लेकिन चाहे इन्हें किसी भी तरीके से क्यों ना समझाया जाए, सभी किस्म की कठिनाइयाँ फिर भी अक्सर उत्पन्न होती रहती हैं। क्योंकि यह दुनिया, यह समाज और यह मानवजाति बहुत ही अन्धकारमय और बहुत ही जटिल है, और बड़े लाल अजगर की बुरी शक्तियों के व्यवधान के कारण, इन बाहरी मामलों से निपटते समय, कुछ अप्रत्याशित और अतिरिक्त कठिनाइयाँ आएँगी। जब ये कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं, तब अगर तुम लोगों को सिर्फ एक सरल सिद्धांत दिया जाए, जो कहता है, “बस परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करो; सब कुछ परमेश्वर द्वारा आयोजित है, बस समस्या को अनदेखा कर दो,” तो क्या इससे समस्या सुलझ सकती है? (नहीं।) अगर यह समस्या नहीं सुलझ सकती है, तो जिस परिवेश में भाई-बहन अपने कर्तव्य करते हैं, वह और उनके जीवनयापन का परिवेश, अशांत, बाधित और खराब हो जाता है। क्या इससे कठिनाइयाँ उत्पन्न नहीं होती हैं? तो फिर क्या करना चाहिए? क्या आवेगशीलता से इसका समाधान किया जा सकता है? जाहिर है नहीं। कुछ लोग कहते हैं, “तो फिर क्या हम इसे कानूनी साधनों से सुलझा सकते हैं?” कई चीजें कानून द्वारा नहीं सुलझाई जा सकती हैं। मिसाल के तौर पर, जिन जगहों पर बड़ा लाल अजगर टाँग अड़ाता है और बाधा डालता है, क्या वहाँ कानून मुद्दों को सुलझा सकता है? वहाँ कानून का कोई प्रभाव नहीं होता है। कई जगहों पर, मानव शक्ति अक्सर कानून से बढ़कर होती है, इसलिए कानून पर भरोसा करके समस्याएँ सुलझाने की अपेक्षा मत करो। इन्हें सुलझाने के लिए मानवीय तरीकों या आवेगशीलता का उपयोग करना भी उचित नहीं है। ऐसी परिस्थितियों में अगुआओं और कार्यकर्ताओं को क्या करना चाहिए? क्या जो लोग सिर्फ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों को लगातार बड़बड़ाना जानते हैं, वे इन समस्याओं के उत्पन्न होने पर उन्हें सुलझा सकते हैं? क्या ये खास तौर से पेचीदा मुद्दे नहीं हैं? क्या तुम्हें लगता है कि उन्हें सुलझाने के लिए वकील नियुक्त करने और न्यायालय जाने से काम बन जाएगा? क्या वे लोग सत्य समझते हैं? इस दुनिया में तर्क के लिए कोई जगह नहीं है; यहाँ तक कि एक कानूनवादी देश में भी न्यायाधीश हमेशा कानून के अनुसार कार्य नहीं करते हैं, बल्कि वे अपने फैसलों को इस आधार पर समायोजित करते हैं कि इसमें कौन शामिल है, जिसमें निष्पक्षता नहीं होती है। इस दुनिया में, हर जगह लोग अपनी बात को मजबूत करने के लिए प्रभाव पर, शक्ति पर भरोसा करते हैं। तो, हम लोग जो परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, उन्हें किस पर भरोसा करना चाहिए? हमें परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य के अनुसार लोगों के साथ व्यवहार करना चाहिए और मामलों को सँभालना चाहिए। लेकिन अगर हम परमेश्वर के वचनों और सत्य पर भरोसा करें, तो क्या दुनिया में हमारे लिए सब कुछ सुचारू रूप से आगे बढ़ सकता है? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता है; इसके लिए बुद्धिमानी की जरूरत है। इसलिए, जब अगुआ और कार्यकर्ता ऐसे मुद्दों का सामना करते हैं, तब अगर उन्हें लगता है कि मामला बहुत ही महत्वपूर्ण है और वे डरते हैं कि कहीं वे इसे अनुचित तरीके से ना सँभाल लें और इस तरह से परमेश्वर के घर में मुसीबत ना ले आएँ, जिसके अवांछनीय प्रभाव या परिणाम हों, तो ऐसे मुद्दे उनके लिए कठिनाइयाँ हैं। जब वे उन कठिनाइयों का सामना करते हैं जिन्हें वे सुलझा नहीं पाते हैं, तो उन्हें तुरंत ऊपरवाले को मुद्दों की सूचना देनी चाहिए और उन्हें सुलझाने का उपयुक्त तरीका खोजना चाहिए; अगुआओं और कार्यकर्ताओं को यही करना चाहिए।
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