अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (5) खंड तीन

वह समझ और रवैया जो परमेश्वर के घर द्वारा लोगों की पदोन्नति और विकास को लेकर किसी में होना चाहिए

अभी-अभी हमने जिन पर संगति की वे सभी प्रकार के प्रतिभाशाली लोगों को पदोन्नत और विकसित करने के परमेश्वर के घर के लक्ष्य हैं। पदोन्नति और विकास के लिए जिन्हें चुना गया हो, वे चाहे जैसा भी कार्य करते हों—वह चाहे तकनीकी हो, साधारण हो, या कलीसिया के सामान्य मामलों का काम हो—संक्षेप में कहें, तो यह सब उन्हें इस योग्य बनाने के लिए है कि वे सत्य सिद्धांतों को समझ सकें, और सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकें, और ताकि वे परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट करने के लिए अपना कर्तव्य इस तरीके से यथाशीघ्र कर सकें जो मानक स्तर का हो—परमेश्वर लोगों से इसी की अपेक्षा करता है, और बेशक, कलीसिया के कार्य को भी इसी की जरूरत है। क्या अब तुम समझते हो कि परमेश्वर के घर द्वारा सभी प्रकार के प्रतिभाशाली लोगों को पदोन्नत और विकसित किए जाने का क्या महत्त्व है? क्या अभी भी कोई गलतफहमी है? (नहीं।) कुछ लोग कहते हैं, “अब चूँकि इस व्यक्ति को एक अगुआ के तौर पर पदोन्नत कर दिया गया है, उसके पास रुतबा है, तो वह कोई साधारण व्यक्ति नहीं रहा।” क्या ऐसा कहना सही है या गलत? (यह गलत है।) दूसरे लोग कह सकते हैं : “जो लोग अगुआ बन जाते हैं, उनका रुतबा होता है, लेकिन ऊँचाई पर तुम अकेले ही होगे। तुम जितना ऊँचे चढ़ोगे, उतनी ही जोर से गिरोगे!” ऐसा कहना सही है या गलत? यह स्पष्ट रूप से गलत है। “तुम जितना ऊँचे चढ़ोगे, उतनी ही जोर से गिरोगे” किन लोगों के बारे में कहा गया है? यह उन लोगों के बारे में है जिनमें महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ होती हैं, इसका संबंध मसीह-विरोधियों से है। जब सत्य का अनुसरण करने वाले लोग अगुआ बन जाते हैं, तो यह ऊँचे चढ़ना नहीं है—यह परमेश्वर द्वारा उन्हें ऊँचा उठाकर छूट देना है, और यह परमेश्वर का आशीष है जो उन पर यह बोझ रखकर उन्हें अगुआ का कार्य करने देता है। “तुम जितना ऊँचे चढ़ोगे, उतनी ही जोर से गिरोगे” एक निष्कर्ष है जो गैर-विश्वासियों ने निकाला है, और यह गैर-विश्वासियों के अधिकारी वर्ग वाले एक करियर के पीछे भागने के परिणामों का वर्णन करता है। इन छद्म-विश्वासियों में कोई समझ-बूझ नहीं होती और वे इसे सकारात्मक लोगों पर लागू करते हैं, जो एक जघन्य गलती है। दूसरे लोग कह सकते हैं : “वह एक ग्रामीण इलाके में पैदा हुआ था, और अब वह एक कलीसिया का अगुआ बन गया है—नीची शुरुआत से ऊँची उड़ान भरने वाला परिंदा।” ऐसा कहना सही है या गलत? ये गैर-विश्वासियों के दानवी शब्द हैं और इन्हें परमेश्वर के चुने हुए लोगों पर लागू नहीं किया जा सकता। परमेश्वर के घर में, परमेश्वर उन लोगों को आशीष देता है जो सत्य का अनुसरण करते हैं, जो ईमानदार हैं, जो दयावान हैं, और जो परमेश्वर के घर के कार्य की रक्षा करते हैं। जब एक बार ये लोग सत्य समझ लेते हैं और थोड़ा आध्यात्मिक कद हासिल कर लेते हैं, तो देर-सवेर उन्हें विकसित करने और अभ्यास करने के लिए पदोन्नत किया जाएगा, ताकि उन लोगों को बदला जा सके जो नकली अगुआ और मसीह-विरोधी हैं। परमेश्वर के घर में, जो सकारात्मक लोग अनेक परीक्षणों और परीक्षाओं से गुजर चुके हैं और जिन्होंने निरंतर परमेश्वर के घर के कार्य की रक्षा की है, वे ऐसे लोग हैं जो परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करते हैं और इनका वर्णन करने के लिए गैर-विश्वासियों के दानवी शब्दों का उपयोग करना अनुचित होगा। इसलिए, जो लोग परमेश्वर के घर के मामलों का वर्णन करने और अपने विचार व्यक्त करने के लिए हमेशा गैर-विश्वासियों के दानवी शब्दों का उपयोग करते हैं, वे ऐसे लोग हैं जो सत्य नहीं समझते और जिनके मन में चीजों के बारे में ऊटपटाँग विचार होते हैं। चीजों के बारे में उनके विचार जरा भी नहीं बदले हैं, और अभी भी गैर-विश्वासियों के ही विचार हैं, और उन्होंने परमेश्वर में कई वर्षों तक विश्वास रखने के बावजूद बिल्कुल सत्य हासिल नहीं किया है, और अभी भी चीजों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार नहीं देख सकते—तो फिर ये लोग छद्म-विश्वासी और गैर-विश्वासी हैं। जब किसी व्यक्ति को अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में सेवा करने के लिए पदोन्नत किया जाता है, या उसे किसी तरह के तकनीकी कार्य का निरीक्षक बनने के लिए विकसित किया जाता है, तो यह परमेश्वर के घर द्वारा उन्हें एक दायित्व सौंपने से ज्यादा कुछ नहीं है। यह एक आदेश है, एक जिम्मेदारी है, और निस्संदेह, यह एक विशेष कर्तव्य, एक विशेष अवसर भी है, और यह एक असाधारण उन्नति है—और उसकी प्रशंसा करने लायक कुछ भी नहीं है। जब किसी को परमेश्वर के घर द्वारा पदोन्नत और विकसित किया जाता है, तो इसका मतलब यह नहीं है कि परमेश्वर के घर में उसका विशेष स्थान या रुतबा है, ताकि वह विशेष व्यवहार और कृपा का आनंद ले सके। इसके बजाय, परमेश्वर के घर द्वारा असाधारण रूप से ऊपर उठाए जाने के बाद उसे कुछ महत्वपूर्ण कलीसिया-कार्य करने का अभ्यास करने के लिए परमेश्वर के घर से प्रशिक्षण प्राप्त करने हेतु उत्कृष्ट स्थितियाँ दी जाती हैं, और साथ ही परमेश्वर का घर इस व्यक्ति से ज्यादा ऊँचे मानकों की अपेक्षा करेगा, जो उसके जीवन-प्रवेश के लिए बहुत फायदेमंद है। जब किसी व्यक्ति को परमेश्वर के घर में पदोन्नत और विकसित किया जाता है, तो इसका मतलब है कि उसे सख्त अपेक्षाओं के अधीन रखा जाएगा और उसकी कड़ी निगरानी की जाएगी। परमेश्वर का घर उसके द्वारा किए जाने वाले कार्य का कड़ाई से निरीक्षण और निगरानी कर उसे आगे बढ़ाएगा, और उसके जीवन-प्रवेश को समझकर उस पर ध्यान देगा। इन दृष्टिकोणों से, क्या परमेश्वर के घर द्वारा पदोन्नत और विकसित किए गए लोग विशेष व्यवहार, विशेष रुतबे और विशेष स्थिति का आनंद लेते हैं? बिल्कुल नहीं, और किसी विशेष स्थान का आनंद तो वे बिल्कुल भी नहीं लेते। जिन लोगों को पदोन्नत और विकसित किया गया है, अगर उन्हें लगे कि अपना कर्तव्य कुछ हद तक प्रभावी ढंग से करने के परिणामस्वरूप उनके पास पूँजी है, और इसलिए वे निष्क्रिय होकर सत्य का अनुसरण करना बंद कर दें, तो वे परीक्षणों और क्लेशों का सामना होने पर खतरे में पड़ जाएँगे। अगर लोगों का आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है, तो संभवतः वे मजबूती से खड़े रहने में असमर्थ होंगे। कुछ लोग कहते हैं, “अगर किसी को अगुआ के रूप में पदोन्नत और विकसित किया जाता है, तो उसका एक स्थान होता है। वह पहलौठे पुत्रों में से एक न भी हो, फिर भी उसके पास कम-से-कम परमेश्वर के लोगों में से एक बनने की आशा तो है। मुझे कभी भी पदोन्नत या विकसित नहीं किया गया है, तो क्या मेरे लिए परमेश्वर के लोगों में से एक बनने की आशा नहीं है?” ऐसा सोचना गलत है। परमेश्वर के लोगों में से एक बनने के लिए तुम्हारे पास जीवन अनुभव होना चाहिए, और तुम्हें ऐसा व्यक्ति होना चाहिए जो परमेश्वर के प्रति समर्पण करता है। चाहे तुम कोई अगुआ हो या कार्यकर्ता या साधारण अनुयायी, कोई भी जिसके पास सत्य वास्तविकताएँ हैं, वह परमेश्वर के लोगों में से एक है। भले ही तुम कोई अगुआ या कार्यकर्ता हो, अगर तुममें सत्य वास्तविकताओं की कमी है, तो तुम अभी भी एक श्रमिक ही हो। वास्तव में, पदोन्नत और विकसित किए जाने वाले लोगों के बारे में कुछ खास नहीं होता। उनकी केवल एक ही चीज दूसरों से अलग होती है, और वह यह है कि उनके पास अधिक अनुकूल माहौल, अधिक अनुकूल अवसर और सत्य सिद्धांतों से जुड़े हुए विशिष्ट कार्य करने के लिए बेहतर स्थितियाँ होती हैं। भले ही उनके द्वारा किया गया अधिकतर कार्य किसी खास पेशे से संबंधित हो, अगर उसे विनियमित करने और उस पर मजबूत पकड़ के लिए कोई सत्य सिद्धांत न हो, तो वे जो कर्तव्य करते हैं, वह सिद्धांतों के अनुरूप नहीं होगा और वे बस मजदूरी करेंगे, और उन्हें निश्चित रूप से परमेश्वर की स्वीकृति नहीं मिलेगी। जिन विभिन्न प्रतिभाशाली लोगों को पदोन्नत और विकसित किया जाता है उनके लिए परमेश्वर के घर की अपेक्षाएँ क्या होती हैं? परमेश्वर के घर द्वारा पदोन्नत और विकसित किए जाने के लिए, कम-से-कम उन्हें ऐसे लोग होना चाहिए जिनमें अंतरात्मा और विवेक हो, जो सत्य स्वीकार सकते हों, जो वफादारी से अपना कर्तव्य निभा सकते हों, और जो परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण कर सकते हों, और कम-से-कम काट-छाँट किए जाने पर उसे स्वीकार कर समर्पण करने में सक्षम हों। परमेश्वर के घर द्वारा विकसित किए जाने और प्रशिक्षण से गुजरने वाले लोगों को जो प्रभाव प्राप्त करना चाहिए, वह यह नहीं है कि वे अधिकारी या मालिक बन सकें या पूरे दल की अगुआई करें और यह भी नहीं है कि वे लोगों को उनके सोचने के तरीकों के बारे में सलाह दे सकें और बेशक यह तो और भी कम है कि उनमें बेहतर पेशेवर कौशल हो या उनके पास उच्च स्तर की शिक्षा हो, या ज्यादा प्रतिष्ठा हो, या यह कि उनका जिक्र उन लोगों के साथ किया जा सके जो दुनिया में अपने पेशेवर कौशलों या राजनीतिक कारनामों के लिए प्रख्यात हैं। इसके बजाय, जो प्रभाव हासिल होना चाहिए, वह यह है कि वे सत्य को समझें और परमेश्वर के वचनों को जिएँ, और वे ऐसे लोग बनें जो परमेश्वर का भय मानते हों, और बुराई से दूर रहते हों। प्रशिक्षण लेने से, वे सत्य को समझने और सत्य सिद्धांतों को समझने में सक्षम होते हैं, और यह बेहतर ढंग से जान पाते हैं कि परमेश्वर में आस्था वास्तव में क्या है और परमेश्वर का अनुसरण कैसे करना चाहिए—यह उन लोगों के लिए अत्यंत लाभकारी है जो पूर्णता प्राप्त करने के लिए सत्य का अनुसरण करते हैं। परमेश्वर का घर सभी प्रकार के प्रतिभाशाली लोगों को पदोन्नत और विकसित करके ये प्रभाव और मानक हासिल करना चाहता है, और यह पदोन्नत और उपयोग किए जाने वाले लोगों द्वारा काटी गई सबसे बड़ी फसल भी होती है।

कुछ लोग अपेक्षाकृत अधिक जिम्मेदारी से अपना कर्तव्य करते हैं, और परमेश्वर के चुने हुए लोगों द्वारा स्वीकृत किए जाते हैं, इसलिए कलीसिया उन्हें अगुआ या कार्यकर्ता बनने के लिए विकसित करती है। रुतबा हासिल करने के बाद, वे लोग ऐसा महसूस करने लगते हैं कि वे भीड़ से अलग हैं और सोचने लगते हैं कि “परमेश्वर के घर ने मुझे ही क्यों चुना? क्या इसलिए नहीं कि मैं तुम सभी लोगों से बेहतर हूँ?” क्या यह किसी बच्चे के मुंह से निकली बात जैसा नहीं लगता है? यह अपरिपक्व, हास्यास्पद और नादान बात है। असल में वे दूसरे लोगों से जरा भी बेहतर नहीं हैं। बात सिर्फ इतनी है कि वे परमेश्वर के घर द्वारा विकसित किए जाने की कसौटियों पर खरे उतरते हैं। क्या वे यह जिम्मेदारी उठा सकते हैं या नहीं, इस कर्तव्य को अच्छी तरह कर सकते हैं या नहीं, या भरोसे पर खरे उतर सकते हैं या नहीं, यह बिल्कुल अलग बात है। जब कोई व्यक्ति भाई-बहनों द्वारा अगुआ के रूप में चुना जाता है या परमेश्वर के घर द्वारा कोई निश्चित कार्य करने या कोई निश्चित कर्तव्य निभाने के लिए पदोन्नत किया जाता है, तो इसका यह मतलब नहीं कि उसका कोई विशेष रुतबा या पद है या वह जिन सत्यों को समझता है, वे अन्य लोगों की तुलना में अधिक गहरे और संख्या में अधिक हैं—तो ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि यह व्यक्ति परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम है और उसे धोखा नहीं देगा। निश्चय ही, इसका यह मतलब भी नहीं है कि ऐसे लोग परमेश्वर को जानते हैं और परमेश्वर का भय मानते हैं। वास्तव में उन्होंने इसमें से कुछ भी हासिल नहीं किया है। पदोन्नयन और संवर्धन सीधे मायने में केवल पदोन्नयन और संवर्धन ही है, और यह भाग्य में लिखे होने या परमेश्वर की अभिस्वीकृति पाने के समतुल्य नहीं है। उनकी पदोन्नति और विकास का सीधा-सा अर्थ है कि उन्हें उन्नत किया गया है, और वे विकसित किए जाने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। और इस विकसित किए जाने का अंतिम परिणाम इस बात पर निर्भर करता है कि क्या यह व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है और क्या वह सत्य के अनुसरण का रास्ता चुनने में सक्षम है। इस प्रकार, जब कलीसिया में किसी को अगुआ बनने के लिए पदोन्नत और विकसित किया जाता है, तो उसे सीधे अर्थ में पदोन्नत और विकसित किया जाता है; इसका यह मतलब नहीं कि वह पहले से ही अगुआ के रूप में मानक स्तर का है, या सक्षम अगुआ है, कि वह पहले से ही अगुआई का काम करने में सक्षम है, और वास्तविक कार्य कर सकता है—ऐसा नहीं है। ज्यादातर लोग इन चीजों को स्पष्ट रूप से नहीं देख सकते, और अपनी कल्पनाओं के आधार पर वे इन पदोन्नत लोगों का सम्मान करते हैं, पर यह एक भूल है। जिन्हें पदोन्नत किया जाता है, उन्होंने चाहे कितने ही वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा हो, क्या उनके पास वास्तव में सत्य वास्तविकता होती है? ऐसा जरूरी नहीं है। क्या वे परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्थाएँ लागू करने में सक्षम हैं? अनिवार्य रूप से नहीं। क्या उनमें जिम्मेदारी की भावना है? क्या वे निष्ठावान हैं? क्या वे समर्पण करने में सक्षम हैं? जब उनके सामने कोई समस्या आती है, तो क्या वे सत्य की खोज करने योग्य हैं? यह सब अज्ञात है। क्या इन लोगों के अंदर परमेश्वर का भय मानने वाले हृदय हैं? और परमेश्वर का भय मानने वाले उनके हृदय कितने विशाल हैं? क्या काम करते समय वे अपनी इच्छा का पालन करना टाल पाते हैं? क्या वे परमेश्वर की खोज करने में समर्थ हैं? अगुआई का कार्य करने के दौरान क्या वे अक्सर परमेश्वर के इरादों की तलाश में परमेश्वर के सामने आने में सक्षम हैं? क्या वे लोगों के सत्य वास्तविकता में प्रवेश की अगुआई करने में सक्षम हैं? निश्चय ही वे ऐसी चीजें कर पाने में अक्षम होते हैं। उन्हें प्रशिक्षण नहीं मिला है और उनके पास पर्याप्त अनुभव भी नहीं है, इसलिए वे ये चीजें नहीं कर पाते। इसीलिए, किसी को पदोन्नत और विकसित करने का यह मतलब नहीं कि वह पहले से ही सत्य को समझता है, और न ही इसका अर्थ यह है कि वह पहले से ही अपना कर्तव्य एक मानक तरीके से करने में सक्षम है। तो किसी को पदोन्नत और विकसित करने का क्या उद्देश्य और मायने हैं? वह यह है कि इस व्यक्ति को, एक व्यक्ति के रूप में पदोन्नत किया गया है, ताकि वह अभ्यास कर सके, और वह विशेष रूप से सिंचित और प्रशिक्षित हो सके, जिससे वह इस योग्य हो जाए कि सत्य सिद्धांतों, और विभिन्न कामों को करने के सिद्धांतों, और विभिन्न कार्य करने और विभिन्न समस्याओं को हल करने के सिद्धांतों, साधनों और तरीकों को समझ सके, साथ ही यह भी कि जब वह विभिन्न प्रकार के परिवेशों और लोगों का सामना करे, तो परमेश्वर के इरादों के अनुसार और उस रूप में, जिससे परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा हो सके, उन्हें सँभालने और उनके साथ निपटने का तरीका सीख सके। इन बिंदुओं के आधार पर परखें, तो क्या परमेश्वर के घर द्वारा पदोन्नत और विकसित किए गए प्रतिभाशाली लोग, पदोन्नत और विकसित किए जाने की अवधि के दौरान या पदोन्नत और विकसित किए जाने से पहले अपना कार्य और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करने में पर्याप्त सक्षम हैं? बेशक नहीं। इस प्रकार, यह अपरिहार्य है कि विकसित किए जाने की अवधि के दौरान ये लोग काट-छाँट और न्याय किए जाने और ताड़ना दिए जाने, उजागर किए जाने, यहाँ तक कि बरखास्तगी का भी अनुभव करेंगे; यह सामान्य बात है, यही है प्रशिक्षण और विकसित किया जाना। जिन लोगों को पदोन्नत और विकसित किया जाता है, उनसे लोगों को ऊँची अपेक्षाएँ या अवास्तविक माँगें नहीं करनी चाहिए; यह अनुचित होगा, और उनके साथ अन्याय होगा। तुम लोग उनके कार्य की निगरानी कर सकते हो। अगर उनके काम के दौरान तुम्हें समस्याओं या ऐसी बातों का पता चले जिनसे सिद्धांतों का उल्लंघन होता हो, तो तुम यह मसला उठा सकते हो, और इन मामलों को सुलझाने के लिए सत्य को खोज सकते हो। तुम्हें उनकी आलोचना, और निंदा नहीं करनी चाहिए, या उन पर हमला कर उन्हें अलग-थलग नहीं करना चाहिए, क्योंकि वे बस विकसित किए जाने की अवधि में हैं, और उन्हें ऐसे लोगों के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए जिन्हें पूर्ण बना दिया गया है, उन्हें दोषरहित या ऐसे लोगों के रूप में बिल्कुल भी नहीं देखना चाहिए जिनमें सत्य वास्तविकता है। तुम लोगों की ही तरह, वे महज प्रशिक्षण की अवधि में हैं। अंतर केवल इतना है कि वे साधारण लोगों की तुलना में अधिक काम करते हैं और अधिक जिम्मेदारियाँ उठाते हैं। उनके पास साधारण लोगों की तुलना में अधिक काम करने की जिम्मेदारी और दायित्व है; उन्हें ज्यादा कीमत चुकानी पड़ती है, अधिक कठिनाई सहनी पड़ती है, ज्यादा मानसिक प्रयास करने पड़ते हैं, अधिक समस्याएँ हल करनी पड़ती हैं, अधिक लोगों की निंदा सहन करनी पड़ती हैं, और निस्संदेह, उन्हें सामान्य लोगों की तुलना में अधिक प्रयास करने पड़ते हैं, और साधारण लोगों के कार्य करने की तुलना में—उन्हें थोड़ा कम सोना चाहिए, अच्छी चीजों का कम आनंद लेना चाहिए, और उतनी ज्यादा गपशप नहीं करनी चाहिए। उनके बारे में यही खास बात है; इसके अतिरिक्त वे किसी भी अन्य व्यक्ति के समान ही होते हैं। मेरे यह कहने का क्या मतलब है? सभी को यह बताया जाना है कि उन्हें परमेश्वर के घर में विभिन्न प्रकार के प्रतिभाशाली लोगों को बढ़ावा दिए जाने और विकसित किए जाने को सही तरह से लेना चाहिए, और इन लोगों से अपनी अपेक्षाओं में उन्हें कठोर नहीं होना चाहिए, और निश्चय ही उन्हें इन लोगों के बारे में अपनी राय बनाने में अयथार्थवादी भी नहीं होना चाहिए। उनकी अत्यधिक सराहना करना या सम्मान देना मूर्खता है, तो उनके प्रति अपनी अपेक्षाओं में अत्यधिक कठोर होना भी अमानवीय और यथार्थ से परे होना है। तो उनके साथ व्यवहार का सबसे उचित तरीका क्या है? उन्हें सामान्य लोगों की तरह ही समझना, और जब तुम्हें किसी समस्या के संदर्भ में किसी को तलाशने की आवश्यकता हो, तो उनके साथ संगति करना और एक-दूसरे के मजबूत पक्षों से सीखना और एक-दूसरे का पूरक होना। इसके अतिरिक्त, अगुआ और कार्यकर्ता का यह देखने के लिए निरीक्षण करना कि वे वास्तविक कार्य कर रहे हैं या नहीं, वे समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य का इस्तेमाल कर सकते हैं या नहीं, इस पर नजर रखना सभी की जिम्मेदारी है; अगुआ या कार्यकर्ता मानक स्तर का है या नहीं, इसे मापने के ये मानक और सिद्धांत हैं। अगर कोई अगुआ या कार्यकर्ता आम समस्याओं से निपटने और उन्हें सुलझाने में सक्षम है, तो वह सक्षम है। लेकिन अगर वह साधारण समस्याओं से भी नहीं निपट सकता, उन्हें हल नहीं कर सकता, तो वह अगुआ या कार्यकर्ता बनने के योग्य नहीं है, और उसे फौरन उसके पद से हटा देना चाहिए। किसी दूसरे को चुनना चाहिए, और परमेश्वर के घर के काम में देरी नहीं की जानी चाहिए। परमेश्वर के घर के काम में देरी करना खुद को और दूसरों को आहत करना है, इसमें किसी का भला नहीं है।

कुछ लोगों को कलीसिया द्वारा पदोन्नत किया जाता है और उनका संवर्धन किया जाता है, उन्हें प्रशिक्षित होने का एक अच्छा मौका मिलता है। यह अच्छी बात है। यह कहा जा सकता है कि उन्हें परमेश्वर द्वारा ऊँचा उठाया और अनुगृहीत किया गया है। तो फिर, उन्हें अपना कर्तव्य कैसे करना चाहिए? सबसे पहले जिस सिद्धांत का उन्हें पालन करना चाहिए, वह है सत्य को समझना—जब वे सत्य को न समझते हों, तो उन्हें सत्य की खोज करनी चाहिए, और अगर अपने आप खोजने के बाद भी वे इसे नहीं समझते, तो वे संगति और खोज करने के लिए किसी ऐसे इंसान की तलाश कर सकते हैं, जो सत्य समझता है, इससे समस्या का समाधान अधिक तेजी से और समय पर होगा। अगर तुम केवल परमेश्वर के वचनों को अकेले पढ़ने और उन वचनों पर विचार करने में अधिक समय व्यतीत करने पर ध्यान केंद्रित करते हो, ताकि तुम सत्य की समझ प्राप्त कर समस्या हल कर सको, तो यह बहुत धीमा है; जैसी कि कहावत है, “धीमी गति से किए जाने वाले उपाय तात्कालिक जरूरतों को पूरा नहीं कर सकते।” अगर सत्य की बात आने पर तुम शीघ्र प्रगति करना चाहते हो, तो तुम्हें दूसरों के साथ सामंजस्य में सहयोग करना, अधिक प्रश्न पूछना और अधिक तलाश करना सीखना होगा। तभी तुम्हारा जीवन तेजी से आगे बढ़ेगा, और तुम समस्याएँ तेजी से, बिना किसी देरी के हल कर पाओगे। चूँकि तुम्हें अभी-अभी पदोन्नत किया गया है और तुम अभी भी परिवीक्षा पर हो, और वास्तव में सत्य को नहीं समझते या तुममें सत्य वास्तविकता नहीं है—चूँकि तुम्हारे पास अभी भी इस आध्यात्मिक कद की कमी है—तो यह मत सोचो कि तुम्हारी पदोन्नति का अर्थ है कि तुममें सत्य वास्तविकता है; यह बात नहीं है। तुम्हें पदोन्नति और संवर्धन के लिए केवल इसलिए चुना गया है, क्योंकि तुममें कार्य के प्रति दायित्व की भावना और अगुआ होने की क्षमता है। तुममें यह विवेक होना चाहिए। अगर पदोन्नत किए जाने और अगुआ या कार्यकर्ता बन जाने के बाद तुम अपना रुतबा दिखाना चालू करते हो और मानते हो कि तुम सत्य का अनुसरण करने वाले इंसान हो और तुममें सत्य वास्तविकता है—और अगर, चाहे भाई-बहनों को कोई भी समस्या हो, तुम दिखावा करते हो कि तुम उसे समझते हो, और कि तुम आध्यात्मिक हो—तो यह बेवकूफी करना है, और यह पाखंडी फरीसियों जैसा ही है। तुम्हें सच्चाई के साथ बोलना और कार्य करना चाहिए। जब तुम्हें समझ न आए, तो तुम दूसरों से पूछ सकते हो या ऊपर वाले से संगति की माँग कर सकते हो—इसमें कुछ भी शर्मनाक नहीं है। अगर तुम नहीं पूछोगे, तो भी ऊपर वाले को तुम्हारे वास्तविक आध्यात्मिक कद का पता चल ही जाएगा, और वह जान ही जाएगा कि तुममें सत्य वास्तविकता नदारद है। खोज और संगति ही वे चीजें हैं, जो तुम्हें करनी चाहिए; यही वह विवेक है जो सामान्य मानवता में पाया जाना चाहिए, और यही वह सिद्धांत है जिसका पालन अगुआओं और कार्यकर्ताओं को करना चाहिए। यह शर्मिंदा होने की बात नहीं है। अगर तुम्हें यह लगता है कि अगुआ बन जाने के बाद सिद्धांतों को न समझना, या हमेशा दूसरों से या ऊपर वाले से सवाल पूछते रहना शर्मनाक है, और डरे रहना कि दूसरे लोग तुम्हें नीची निगाह से देखेंगे और नतीजतन तुम यह दिखावा करते हुए ढोंग करते हो कि तुम सब कुछ समझते हो, सब कुछ जानते हो, कि तुममें काम करने की क्षमता है, कि तुम कलीसिया का कोई भी काम कर सकते हो, और किसी को तुम्हें याद दिलाने या तुम्हारे साथ संगति करने, या किसी को तुम्हें पोषण प्रदान करने या तुम्हारी सहायता करने की आवश्यकता नहीं है, तो यह खतरनाक है, और तुम बहुत अहंकारी और आत्मतुष्ट हो, विवेक की बहुत कमी है। तुम अपना माप तक नहीं जानते—क्या यह तुम्हें भ्रमित व्यक्ति नहीं बनाता? ऐसे लोग वास्तव में परमेश्वर के घर द्वारा पदोन्नत और विकसित किए जाने के मानदंडों को पूरा नहीं करते और देर-सवेर उन्हें बरखास्त कर दिया जाएगा और हटा दिया जाएगा। और इसलिए नए-नए पदोन्नत हर अगुआ या कार्यकर्ता को स्पष्ट होना चाहिए कि उसमें सत्य वास्तविकता नहीं है, उसमें यह आत्म-जागरूकता होनी चाहिए। तुम अब अगुआ या कार्यकर्ता इसलिए नहीं हो कि तुम्हें परमेश्वर ने नियुक्त किया है, बल्कि इसलिए हो कि तुम्हें दूसरे अगुआओं और कार्यकर्ताओं ने पदोन्नत किया या परमेश्वर के चुने हुए लोगों ने चुना था; इसका यह मतलब नहीं है कि तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता और सच्चा आध्यात्मिक कद है। जब तुम यह बात समझ लोगे तो तुममें थोड़ा विवेक आ जाएगा, यह विवेक अगुआओं और कार्यकर्ताओं में अवश्य होना चाहिए। क्या तुम अब समझ पाए हो? (हाँ।) तो वास्तव में तुम लोगों को किस तरह से काम करना चाहिए? तुम्हें सामंजस्यपूर्ण सहयोग को अभ्यास में कैसे लाना चाहिए? जब भी समस्याओं से तुम्हारा सामना हो, तो तुम्हें उन्हें सुलझाने के लिए सत्य को कैसे खोजना चाहिए? इन चीजों को समझना जरूरी है। अगर भ्रष्ट स्वभावों का खुलासा होता है, तो सत्य को खोजकर उन्हें यथाशीघ्र दूर करो। अगर उन्हें समय से दूर नहीं किया गया, और तुम्हारे कार्य पर उनका प्रभाव पड़ा, तो यह एक समस्या है। अगर तुम किसी पेशे से परिचित नहीं हो, तो तुम्हें बिना विलंब के सीखना शुरू कर देना चाहिए। क्योंकि कुछ कर्तव्यों में पेशेवर ज्ञान शामिल होता है, इसलिए अगर तुम किसी पेशेवर ज्ञान को समझे बिना सिर्फ सत्य को समझते हो, तो इससे तुम्हारे कार्य परिणामों पर भी असर पड़ेगा। कम-से-कम, तुम्हें कुछ पेशेवर ज्ञान को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए ताकि तुम लोगों के कार्य की खोज-खबर लेकर उसे रास्ता दिखाने में प्रभावी हो सको। अगर तुम किसी पेशे में सिर्फ माहिर हो मगर सत्य को नहीं समझते, तो तुम्हारे कार्य में भी उसी प्रकार खामियाँ होंगी, इसलिए तुम्हें सत्य का अनुसरण करने की भी जरूरत पड़ेगी और सत्य को समझने वाले लोगों के साथ सहयोग करना पड़ेगा ताकि तुम अपना कर्तव्य उचित ढंग से निभा सको। सिर्फ इसलिए कि पेशेवर कौशल या ज्ञान के किसी खास क्षेत्र में तुम्हें महारत हासिल है, इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम सिद्धांतों के अनुसार चीजें करने में सक्षम हो, इसलिए सत्य समझने वाले लोगों से संगति का प्रयास करना अनिवार्य है—यह वह सिद्धांत है जिसका तुम लोगों को पालन करना चाहिए। तुम चाहे जो भी करो, तुम्हें ढोंग नहीं करना चाहिए। तुम प्रशिक्षण और विकास के दौर में हो, तुम्हारा स्वभाव भ्रष्ट है और तुम सत्य को बिल्कुल भी नहीं समझते। मुझे बताओ, क्या परमेश्वर इन चीजों के बारे में जानता है? (हाँ।) तो अगर तुम दिखावा करोगे तो क्या तुम मूर्ख नहीं लगोगे? क्या तुम लोग मूर्ख होना चाहते हो? (नहीं, हम ऐसा नहीं चाहते।) यदि तुम मूर्ख नहीं होना चाहते तो तुम्हें किस तरह का व्यक्ति बनना चाहिए? विवेकशील बनो, जो विनम्रतापूर्वक सत्य खोज सके और सत्य को स्वीकार कर सके। दिखावा मत करो, पाखंडी फरीसी मत बनो। तुम जो जानते हो वह केवल थोड़ा सा पेशेवर ज्ञान है, वह सत्य सिद्धांत नहीं है। तुम्हें सत्य सिद्धांतों को समझने के आधार पर अपनी पेशेवर खूबियों का उचित लाभ उठाने और अपने अर्जित ज्ञान और सीखने की प्रक्रिया का सदुपयोग करने का तरीका खोजना होगा। क्या यह एक सिद्धांत नहीं है? क्या यह अभ्यास का मार्ग नहीं है? एक बार जब तुम इसे करना सीख जाओगे तो तुम्हारे पास अनुसरण का एक मार्ग होगा और तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकोगे। तुम जो भी करो, उसमें हठी मत बनो और दिखावा न करो। हठी होना और दिखावा करना काम करने का तर्कसंगत तरीका नहीं है। बल्कि यह चीजों को करने का सबसे मूर्खतापूर्ण तरीका है। जो लोग अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जीते हैं, वे सबसे मूर्ख लोग होते हैं। जो लोग सत्य खोजते हैं और सत्य सिद्धांतों के अनुसार मामलों को सँभालते हैं, सिर्फ वे ही सबसे बुद्धिमान होते हैं।

इस संगति के जरिये, क्या अब तुम लोगों के पास परमेश्वर के घर द्वारा सभी प्रकार के प्रतिभाशाली लोगों को पदोन्नत और विकसित किए जाने के बारे में सही समझ और दृष्टिकोण है? (हाँ।) अब चूँकि तुम्हारे पास इस बारे में सही दृष्टिकोण है, क्या तुम इन लोगों के प्रति सही दृष्टिकोण अपना सकते हो? तुम्हें उनकी खूबियों और साथ ही उनकी मानवता, कार्य, पेशे और विभिन्न अन्य पहलुओं से जुड़ी कमियों और खामियों के प्रति सही दृष्टिकोण अपनाना ही चाहिए—इन सभी चीजों के प्रति सही दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त, चाहे तुम्हें अगुआओं और कार्यकर्ताओं के रूप में पदोन्नत और विकसित किया गया हो, या चाहे तुम विभिन्न पेशों के प्रतिभाशाली लोग हो, तुम सब साधारण हो, शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए हो और तुममें से कोई भी सत्य को नहीं समझता। इसलिए तुममें से किसी को भी मुखौटा पहनना या खुद को छिपाना नहीं चाहिए; इसके बजाय तुम्हें संगति में खुद को खुलकर पेश करना सीखना चाहिए। अगर तुम नहीं समझते हो, तो मान लो कि तुम नहीं समझते हो। अगर तुम नहीं जानते कि कोई काम कैसे करना है, तो स्वीकार करो कि तुम नहीं कर सकते। चाहे जो भी समस्याएँ और मुश्किलें उत्पन्न हों, सभी को साथ मिलकर संगति करके समाधान पाने के लिए सत्य को खोजना चाहिए। सत्य के सामने हर कोई एक शिशु की तरह होता है, हर कोई कमजोर, दयनीय और पूरी तरह अभावग्रस्त होता है। जरूरत इस बात की है कि लोग सत्य के सामने समर्पित हों, एक विनयशील और लालसा-पूर्ण हृदय रखें, और सत्य को खोजकर उसे स्वीकार करें, और सत्य का अभ्यास करें और परमेश्वर के प्रति समर्पण करें। अपने वास्तविक जीवन में और अपने कर्तव्य निभाते हुए ऐसा करके लोग परमेश्वर के वचनों के सत्य की वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हैं। सत्य के सामने हर कोई एक समान है। जो लोग पदोन्नत और विकसित किए जाते हैं, वे दूसरों से बहुत बेहतर नहीं होते। हर किसी ने लगभग एक ही समय तक परमेश्वर के कार्य का अनुभव किया है। जिन लोगों को पदोन्नत या विकसित नहीं किया गया है, उन्हें भी अपने कर्तव्य करते हुए सत्य का अनुसरण करना चाहिए। कोई भी दूसरों को सत्य का अनुसरण करने के अधिकार से वंचित नहीं कर सकता। कुछ लोग सत्य की अपनी खोज में अधिक उत्सुक होते हैं और उनमें थोड़ी काबिलियत होती है, इसलिए उन्हें पदोन्नत और विकसित किया जाता है। यह परमेश्वर के घर के कार्य की जरूरतों के कारण होता है। तो फिर लोगों को पदोन्नत करने और उनका उपयोग करने के लिए परमेश्वर के घर में ऐसे सिद्धांत क्यों होते हैं? चूँकि लोगों की काबिलियत और चरित्र में अंतर होता है, और प्रत्येक व्यक्ति एक अलग मार्ग चुनता है, इसलिए परमेश्वर में लोगों की आस्था के परिणाम अलग होते हैं। जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं वे बचाए जाते हैं और वे राज्य की प्रजा बन जाते हैं, जबकि जो लोग सत्य को बिल्कुल स्वीकार नहीं करते, जो अपना कर्तव्य करने में वफादार नहीं होते, वे हटा दिए जाते हैं। परमेश्वर का घर इस आधार पर लोगों का विकास और उपयोग करता है कि वे सत्य का अनुसरण करते हैं या नहीं, और वे अपना कर्तव्य करने में वफादार हैं या नहीं। क्या परमेश्वर के घर में विभिन्न लोगों के पदानुक्रम में कोई अंतर होता है? फिलहाल, विभिन्न लोगों के स्थान, मूल्य, रुतबे या अवस्थिति में कोई पदानुक्रम नहीं है। कम-से-कम उस अवधि के दौरान जब परमेश्वर लोगों को बचाने और मार्गदर्शन देने के लिए कार्य करता है, विभिन्न लोगों की श्रेणियों, स्थानों, या रुतबे के बीच कोई अंतर नहीं होता। अंतर केवल कार्य के विभाजन और कर्तव्य की भूमिकाओं में होता है। निस्संदेह, इस दौरान, कुछ लोगों को, अपवाद के तौर पर, कुछ विशेष कार्य करने के लिए पदोन्नत और विकसित किया जाता है, जबकि कुछ लोगों को अपनी काबिलियत या पारिवारिक परिवेश में समस्याओं जैसे विभिन्न कारणों से ऐसे अवसर नहीं मिलते। लेकिन क्या परमेश्वर उन लोगों को नहीं बचाता, जिन्हें ऐसे मौके नहीं मिले हैं? ऐसा नहीं है। क्या उनका मूल्य और स्थान दूसरों से कम है? नहीं। सत्य के सामने सभी समान हैं, सभी के पास सत्य का अनुसरण करने और उसे प्राप्त करने का अवसर होता है, और परमेश्वर सबके साथ निष्पक्ष और उचित व्यवहार करता है। लोगों के पदों, मूल्य और रुतबे में ध्यान देने योग्य अंतर किस मुकाम पर दिखाई देते हैं? ये तब दिखाई देते हैं जब लोग अपने मार्ग के अंत पर पहुँचते हैं, परमेश्वर का कार्य समाप्त हो जाता है, और प्रत्येक व्यक्ति द्वारा उद्धार का अनुसरण करने की प्रक्रिया और अपना कर्तव्य निभाने के दौरान प्रदर्शित रवैयों और विचारों और साथ ही परमेश्वर के प्रति उनकी विभिन्न अभिव्यक्तियों और रवैयों पर अंततः एक निष्कर्ष तैयार हो जाता है—यानी जब परमेश्वर की नोटबुक में एक पूरा रिकॉर्ड दर्ज हो जाता है—उस वक्त, क्योंकि लोगों के नतीजे और मंजिलें अलग होंगी, इसलिए उनके मूल्य, पदों और रुतबे में भी अंतर होंगे। केवल तभी इन तमाम चीजों की झलक मिल सकेगी और करीब-करीब जाँचकर उनका पता लगाया जा सकेगा, जबकि फिलहाल सभी लोग एक समान हैं। क्या तुम समझ गए? क्या तुम लोग उस दिन का इंतजार कर रहे हो? क्या तुम लोग उसका इंतजार कर रहे हो और साथ ही उससे भयभीत भी हो रहे हो? तुम जिसका इंतजार कर रहे हो वह यह है कि उस दिन अंततः एक परिणाम निकलेगा, और तमाम मुश्किलों के बावजूद तुम अंततः उस दिन तक पहुँच गए होगे; और तुम्हें जिसका भय है वह यह है कि तुम मार्ग पर उचित ढंग से नहीं चल पाओगे, बीच रास्ते में गिरकर विफल हो जाओगे, और अंतिम परिणाम असंतोषजनक होगा, तुम जैसी कल्पना और उम्मीद करते हो उससे कहीं बदतर—वह कितना दुखदायी, कितना दर्दनाक और कितना निराशाजनक होगा! उतने आगे की मत सोचो, उतने आगे की सोचना अव्यावहारिक है। पहले उसे देखो जो तुम्हारी आँखों के सामने है, अपने पाँव के नीचे की जमीन पर सही ढंग से चलो, हाथ में लिया हुआ काम अच्छे से करो, और परमेश्वर द्वारा सौंपे गए कर्तव्यों और जिम्मेदारियों को पूरा करो। सबसे अहम और सबसे महत्वपूर्ण यही है। अपना कर्तव्य करने के लिए उस सत्य और उन सिद्धांतों को समझो जिन्हें तुरंत समझना चाहिए, और उन पर तब तक संगति करो जब तक वे सुस्पष्ट न हो जाएँ—ताकि वे तुम्हारे मन में पूरी तरह से तैयार हों, और तुम स्पष्ट रूप से और सटीकता से जान लो कि तुम्हारे हर काम में क्या सिद्धांत हैं—और यह सुनिश्चित करो कि तुम सिद्धांतों का उल्लंघन नहीं कर रहे हो, या उनसे भटक नहीं रहे हो, या गड़बड़ियाँ नहीं कर रहे और बाधाएँ नहीं डाल रहे हो, या ऐसा कुछ भी नहीं कर रहे हो जो परमेश्वर के घर के हितों को हानि पहुँचाता हो—तुम लोगों को इन सभी में तुरंत प्रवेश करना चाहिए। हमें आगे की किसी और चीज के बारे में बात करने की जरूरत नहीं है, और न ही तुम लोगों को इस बारे में पूछने या सोचने की जरूरत है। इतना आगे की सोचना बेकार है—यह वह चीज नहीं है जिसके बारे में तुम्हें सोचना चाहिए। कुछ लोग पूछ सकते हैं : “हम इस बारे में क्यों न सोचें? विपदा की स्थिति अब इतनी बड़ी हो चुकी है, क्या अभी वह वक्त नहीं है कि हम ऐसी चीजों के बारे में सोचें?” क्या वक्त हो गया है? क्या यह तथ्य कि विपदा बड़ी है, सत्य में तुम्हारे प्रवेश को प्रभावित करता है? (नहीं, यह प्रभावित नहीं करता।) विपदा की स्थिति बहुत बड़ी हो गई है, फिर भी मैं विपदा को लेकर कब सभाएँ करता हूँ या विशेष रूप से उपदेश देता हूँ? मैं कभी भी विपदा के मामले पर ध्यान केंद्रित नहीं करता, मैं हमेशा बस सत्य के बारे में बोलता हूँ, ताकि तुम लोग सत्य को समझ सको, और परमेश्वर के इरादों को समझ सको, ताकि तुम लोग अपने कर्तव्य को अच्छे से करने और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने का तरीका समझ सको। आजकल, कुछ लोग यह भी नहीं समझते कि सत्य वास्तविकता क्या है, और धर्म-सिद्धांत क्या हैं। वे हर दिन बस वही कुछ शब्द और धर्म-सिद्धांत और खोखली बातें बोलते हैं, और फिर भी उन्हें लगता है कि उन्होंने सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर लिया है। मैं उनको लेकर चिंतित हूँ, लेकिन वे अपने बारे में चिंता नहीं करते। वे अभी भी भविष्य की उन दूरस्थ चीजों के बारे में सोचते हैं—उन चीजों के बारे में सोचना व्यावहारिक नहीं है।

सभी प्रकार के प्रतिभाशाली लोगों को पदोन्नत और विकसित करने का लक्ष्य उन्हें सक्रिय लोगों में तब्दील करना नहीं है, न ही उनके लिए यह योजना बनाना है कि वे भविष्य में किसी किस्म के मुख्य आधार बन जाएँ, बल्कि कुछ ऐसे लोग देना है जो सापेक्ष शब्दों में सत्य का अधिक अनुसरण करें और जो पदोन्नत और विकसित किए जाने और उपयुक्त परिवेशों में और अधिक अनुकूल स्थितियों के तहत प्रशिक्षण लेने की कसौटियों पर खरे उतरें। सबसे महत्वपूर्ण चीज यह है कि वे परमेश्वर के वचनों और सत्य को समझने और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने में सक्षम हों। क्या यह वो चीज नहीं है जो लोगों को परमेश्वर में विश्वास रखने के द्वारा हासिल करनी चाहिए? क्या यह वो चीज नहीं है जो लोगों को परमेश्वर में विश्वास रखने के द्वारा प्राप्त करनी चाहिए? सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए, तुम लोगों को फिलहाल किस मुख्य चीज का अनुसरण करना चाहिए? क्या तुम्हारे पास इसे करने की कोई योजनाएँ या कदम हैं? मैं तुम लोगों को एक तरकीब बताऊँगा जो सरल, आसान और तेज है। सरल शब्दों में, सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना वास्तव में सत्य का अभ्यास करना है। सत्य का अभ्यास करने के लिए यह जरूरी है कि पहले अपने भ्रष्ट स्वभावों से निपटा जाए। अपने भ्रष्ट स्वभावों को दूर करने के लिए सबसे शीघ्र शुरुआती बिंदु क्या है? तुम लोगों के लिए, सरलतम, शीघ्रतम, और सबसे निरापद तरीका पहले अपना कर्तव्य निभाने में लापरवाही दिखाने की समस्या को दूर करना है, अपने भ्रष्ट स्वभावों को कदम-दर-कदम दूर करना है। इसे दूर करने में तुम लोगों को कितना समय लग सकता है? क्या तुम्हारी कोई योजना है? ज्यादातर लोगों के पास कोई योजना नहीं होती, वे बस अपने दिमाग में ही इस पर काम करते हैं, यह जाने बिना कि आधिकारिक तौर पर इसे कब शुरू करना है। हालाँकि वे जानते हैं कि वे लापरवाह हैं, वे इसे दूर करने की शुरुआत नहीं करते, और उनके पास कोई विशिष्ट हल नहीं होता। अपना कर्तव्य निभाने में आलसी होना, सतर्क न होना, गैर-जिम्मेदार होना और उसे गंभीरता से न लेना—ये सब लापरवाह होने की अभिव्यक्तियाँ हैं। पहला कदम लापरवाह होने की समस्या को दूर करना है। दूसरा कदम अपनी ही इच्छा के अनुसार कार्य करने की समस्या को दूर करना है। जहाँ तक अन्य चीजों, जैसे कि कभी-कभार बेईमानी से बोलने, या कपटपूर्ण या अहंकारी स्वभाव का खुलासा करने की बात है, उनके बारे में फिलहाल चिंता न करो। क्या लापरवाह होने और अपनी ही इच्छा से कार्य करने से पहले निपटना ज्यादा व्यावहारिक और असरदार नहीं होता? क्या इन दो मसलों का पता लगाना सबसे आसान नहीं है? क्या इन्हें दूर करना आसान नहीं है? (हाँ, है।) जब तुम लापरवाह होते हो, तो क्या तुम्हें पता होता है? जब तुम आलसी होने के बारे में सोच रहे होते हो, तो क्या तुम्हें एहसास होता है? जब तुम चालें चलने के बारे में या चालबाजी से साँठ-गाँठ करने और अपना फायदा करने के बारे में सोचते हो, तो क्या तुम्हें एहसास होता है? (हाँ।) अगर तुम्हें सचमुच एहसास होता है, तो इसका समाधान करना आसान है। उन समस्याओं को दूर करने से शुरुआत करो जिनका तुम आसानी से पता लगा सकते हो, और जिनके बारे में तुम अंतर्मन से अवगत हो। अपने कर्तव्य में लापरवाह होना एक बहुत जाहिर और आम समस्या है, मगर साथ ही यह अड़ियल भी है जिसे दूर करना बहुत कठिन है। कोई कर्तव्य निभाते समय, व्यक्ति को कर्तव्यनिष्ठ और मेहनती होना, सतर्कता से काम करना और जिम्मेदार होना सीखना चाहिए, और इसे दृढ़ता से स्थिर होकर करना चाहिए, यानी एक कदम दूसरे के आगे रखते हुए करना चाहिए। व्यक्ति को उस कर्तव्य को अच्छे ढंग से निभाने में अपनी पूरी शक्ति लगा देनी चाहिए, जब तक कि वे अपने निर्वहन से संतुष्ट न हो जाएँ। अगर कोई सत्य को नहीं समझता, तो उसे सिद्धांत खोजने चाहिए, और उनके अनुसार और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करना चाहिए; उसे स्वेच्छा से अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने में अधिक प्रयास लगाने चाहिए, और उसे कभी भी लापरवाही से नहीं करना चाहिए। सिर्फ इस प्रकार से कार्य करके ही अंतरात्मा की फटकार खाए बिना किसी के दिल को सुकून मिल सकता है। क्या लापरवाही को दूर करना आसान है? अगर तुममें अंतरात्मा और विवेक है, तो तुम उसे दूर कर सकते हो। पहले तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए : “हे परमेश्वर, मैं अपना कर्तव्य शुरू कर रहा हूँ। अगर मैं लापरवाह हूँ, तो मैं विनती करता हूँ कि तुम मुझे अनुशासित करो और मेरे मन में मुझे फटकारो। मैं यह भी निवेदन करता हूँ कि तुम मेरा कर्तव्य अच्छे से करने और लापरवाह न होने में मेरी अगुआई करो।” हर दिन इस तरह से अभ्यास करो और देखो कि लापरवाही की तुम्हारी समस्या के दूर होने, तुम्हारी लापरवाह दशाओं के कम होने, तुम्हारे कर्तव्यों में मिलावटों के कम होने, तुम्हारे वास्तविक परिणामों में सुधार आने और तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन में तुम्हारी दक्षता के बढ़ने में कितना समय लगता है। लापरवाह हुए बिना अपना कर्तव्य निर्वहन करना—क्या यह ऐसी कोई चीज है जो तुम खुद पर भरोसा करके हासिल कर सकते हो? लापरवाह होने पर क्या तुम उस पर काबू कर सकते हो? (यह आसान नहीं है।) तो फिर यह पेचीदा है। अगर इस पर नियंत्रण करना तुम्हारे लिए सचमुच कठिन है, तो तुम लोगों के सामने एक बहुत बड़ी समस्या है! फिर वे कौन-सी चीजें हैं जो तुम लोग लापरवाह हुए बिना कर सकते हो? कुछ लोग इस बारे में बहुत सतर्क होते हैं कि वे क्या खाते हैं; अगर कोई भोजन उनकी पसंद का न हो, तो सारा दिन उनका मिजाज ठीक नहीं रहेगा। कुछ महिलाओं को शानदार कपड़े पहनना और साज-सिंगार करना बहुत अच्छा लगता है; एक बाल भी उनकी नजर से बच नहीं पाता। कुछ लोग व्यापार-व्यवसाय में अच्छे होते हैं; वे पाई-पाई का हिसाब रखते हैं। अगर तुम लोग ऐसे कर्तव्यनिष्ठ रवैये से काम करो, तो तुम लापरवाह होने से बच सकते हो। पहले, लापरवाह होने की समस्या को दूर करो, फिर अपनी ही इच्छा के अनुसार काम करने की समस्या को सुलझाओ। अपनी ही इच्छा के अनुसार काम करना एक आम समस्या है, और यह एक अन्य ऐसी समस्या है जिसका वे खुद में आसानी से पता लगा सकते हैं। थोड़ा आत्म-चिंतन करके व्यक्ति यह पहचान सकता है कि वह अपनी ही इच्छा के अनुसार काम करता है, जोकि सत्य सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है। लोग जिन समस्याओं को पहचान सकते हैं उन्हें सुलझाना आसान होता है। पहले खुद को इन दो मसलों को सुलझाने में लगाओ, एक है लापरवाह होने की समस्या और दूसरी अपनी ही इच्छा के अनुसार कार्य करने की समस्या। एक-दो साल के भीतर नतीजे पाने, लापरवाह न रहने, अपनी ही इच्छा से कार्य न करने और जो भी करो उसमें अपनी इच्छा की मिलावट न करने का प्रयास करो। एक बार ये दोनों समस्याएँ दूर हो जाएँ, तो तुम मानक स्तर से अपना कर्तव्य निर्वहन करने से दूर नहीं रहोगे। और अगर तुम लोग इन्हें दूर भी नहीं कर सकते, तो तुम लोग अभी भी परमेश्वर के प्रति समर्पण करने या उसके इरादों के प्रति विचारशील होने से बहुत दूर हो—तुमने इसकी सतह को बिल्कुल खरोंचा भी नहीं है।

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