अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (4) खंड चार
अब विदेशों में सब जगह सुसमाचार कार्य चल रहा है। कुछ देशों में सत्य को स्वीकार सकने वाले लोग अधिक हैं जबकि दूसरे देशों में कम काबिलियत वाली आबादियाँ हैं, जिसके फलस्वरूप सत्य स्वीकार कर सकने वाले लोग कम हैं। कुछ देशों में विश्वास की स्वतंत्रता का अभाव होता है, जो सच्चे मार्ग और परमेश्वर के कार्य के प्रति तीव्र प्रतिरोध दर्शाता है और वहाँ ज्यादा लोग सत्य को स्वीकार नहीं कर सकते। इसके अलावा, कुछ देशों की आबादियाँ बेहद पिछड़ी हुई होती है और उनकी काबिलियत इतनी कम होती है कि सत्य पर चाहे जैसे संगति की जाए वे उसे नहीं समझ सकते और ऐसा लगता है कि वहाँ लोगों में सत्य की कमी है। ऐसी जगहों में सुसमाचार प्रचार नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन सुसमाचार प्रचार करने वाले लोग समस्या का सार समझने में विफल होते हैं; वे उन लोगों को उपदेश नहीं देते जो सत्य को स्वीकार सकते हैं, इसके बजाय वे आसान लोगों को नजरअंदाज कर कठिन लोगों को खोजने पर जोर देते हैं। वे उन स्थानों पर प्रचार नहीं करते जहाँ सुसमाचार कार्य पहले से फैलाया जा रहा है और जहाँ प्रचार करना आसान है। इसके बजाय, वे सुसमाचार का प्रचार उन गरीब और पिछड़े स्थानों में करने पर जोर देते हैं, सत्य को न समझ सकने वाले बेहद खराब काबिलियत वाले लोगों के समूहों और सबसे भारी-भरकम धार्मिक धारणाओं वाले और परमेश्वर का तीव्रतम प्रतिरोध करने वाले जातीय समूहों के बीच प्रचार करते हैं। क्या यह एक भटकाव नहीं है? उदाहरण के लिए, यहूदी धर्म और गहरे पैठे कुछ नस्ली धर्मों को ले लो जो ईसाई धर्म को दुश्मन मानते हैं और इसका उत्पीड़न तक करते हैं। इस प्रकार के देशों और जातीय समूहों में सुसमाचार का बिल्कुल प्रचार नहीं किया जाना चाहिए। क्यों नहीं? क्योंकि प्रचार करना बेकार है। भले ही तुम पूरी कार्मिक शक्ति, वित्तीय संसाधन और भौतिक संसाधन इसमें लगा दो, फिर भी हो सकता है कि तीन, पाँच या फिर दस साल गुजर जाएँ और कोई अहम नतीजे देखने को न मिलें। इस स्थिति के मद्देनजर क्या किया जा सकता है? शुरुआत में बेहतर जानकारी न होने के कारण कोई व्यक्ति कोशिश कर सकता है; लेकिन परिस्थितियों को स्पष्ट रूप से देखने के बाद—कि भारी कीमत पर उनके बीच सुसमाचार का प्रचार करने से जरूरी नहीं कि अंत में अच्छे नतीजे निकलें—किसी को फिर कोई दूसरा मार्ग चुनना चाहिए, एक ऐसा मार्ग जो नतीजे हासिल कर सके। क्या यह ऐसी चीज नहीं है जिसे अगुआओं और कार्यकर्ताओं को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए? (हाँ।) लेकिन नकली अगुआ इस बात को नहीं समझते। विदेशों में सुसमाचार को कहाँ फैलाना है इस विषय पर, कुछ लोग कहते हैं, “इस्राएल से शुरू करो। चूँकि इस्राएल परमेश्वर के कार्य के प्रथम दो चरणों का आधार-स्थल था, इसलिए उसका प्रचार वहाँ जरूर करना चाहिए। चाहे यह कितना भी कठिन हो, हमें उनके बीच प्रचार करने में लगे रहना चाहिए।” लेकिन लंबे समय तक प्रचार करने के बाद भी कोई अहम नतीजे नहीं निकलते, जिससे निराशा होती है। ऐसे समय में अगुआओं को क्या करना चाहिए? अगर यह काबिलियत और दायित्व वाला कोई अगुआ हो तो वह कहेगा, “हमारे सुसमाचार प्रचार में कोई सिद्धांत नहीं है; हम नहीं जानते कि बहाव के साथ कैसे बहना है, बल्कि हम अपनी कल्पनाओं के आधार पर चीजों को देखते हैं—हम इस मामले में बहुत भोले हैं! हमने उम्मीद नहीं की थी कि इन लोगों में ऐसी मूर्खता, अड़ियलपन और बेतुकापन होगा। हमें लगता था कि ये लोग हजारों वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखते रहे हैं, इसलिए परमेश्वर का सुसमाचार सुनने वाले सर्वप्रथम लोग ये ही होने चाहिए, मगर हमने गलत सोचा था; वे बेहद बेतुके हैं! दरअसल, जब परमेश्वर छुटकारे का कार्य कर रहा था तो वह उन लोगों को पहले ही छोड़ चुका था। हम लोगों के लिए अब वापस जाकर उनके बीच प्रचार करना व्यर्थ का प्रयास करना होगा; यह व्यर्थ ही श्रम करना और मूर्खतापूर्ण ढंग से कार्य करना होगा। हमने परमेश्वर के इरादों को गलत समझ लिया है। परमेश्वर इस मामले पर कार्य नहीं करता तो हम इंसान कौन-से उपायों से यह करते हैं? हमने एक कोशिश कर ली है, लेकिन हम चाहे जैसे प्रचार करें, वे सच्चे मार्ग को स्वीकार नहीं करते। हमें अभी के लिए हार मान लेनी चाहिए, उन्हें एक तरफ छोड़ देना चाहिए और फिलहाल उन पर कोई ध्यान नहीं देना चाहिए। अगर ऐसे लोग हैं जो खोजने को तैयार हैं तो हम उनका स्वागत करेंगे और उनके लिए परमेश्वर के कार्य की गवाही देंगे। अगर खोजने वाला कोई भी नहीं है तो हमारे लिए ऐसे लोगों को सक्रिय होकर खोजना जरूरी नहीं है।” क्या यह सुसमाचार का प्रचार करने का सिद्धांत नहीं है? (हाँ।) तो क्या कोई नकली अगुआ सिद्धांतों का पालन कर सकता है? (नहीं।) नकली अगुआओं में काबिलियत कम होती है और वे समस्या के सार को अच्छी तरह नहीं समझ सकते; वे कहेंगे, “परमेश्वर ने कहा है कि इस्राएली उसके चुने हुए लोग हैं। हम उन पर कभी प्रयास करना नहीं छोड़ सकते। उन्हें सबसे पहले रखना चाहिए; इससे पहले कि हम अन्य देशों के लोगों के बीच प्रचार करें, सबसे पहले हमें उनके बीच प्रचार करना चाहिए। अगर परमेश्वर के कार्य को इस्राएल में फैलाया जाए तो यह कितनी महिमा की बात होगी! परमेश्वर इस्राएल से महिमा लेकर पूर्व में आया और हमें पूर्व से वापस इस्राएल में उस महिमा को लाना चाहिए और उन्हें देखने देना चाहिए कि परमेश्वर लौट आया है!” क्या यह महज एक नारा नहीं है? क्या यह तथ्यों से मेल खाता है? जिन लोगों में आध्यात्मिक समझ नहीं है वे यही कहेंगे। जरा-सा भी वास्तविक कार्य न करने वाले उन नकली अगुआओं का क्या? वे इन चीजों पर ध्यान नहीं देते। सुसमाचार प्रचार करने वाले लोग लंबे समय से इस समस्या से परेशान रहे हैं, छोड़ देने और प्रचार करते रहने की दुविधा में फँसे हुए, इस बारे में अनिश्चित कि अभ्यास कैसे करना है। नकली अगुआ पूरी तरह अनजान होते हैं कि यह एक समस्या है। इन लोगों के पास मार्ग न होने पर परेशान होते हुए देखकर वे कहते हैं, “चिंता करने की क्या बात है? हमारे पास सत्य और अनुभवजन्य गवाही है; बस उन्हें उपदेश दे दो!” कोई कहता है, “तुम नहीं समझते, इन लोगों को उपदेश देना वास्तव में कठिन है।” कार्य में जब महत्वपूर्ण मसले उत्पन्न होते हैं, जिनके समाधान की अगुआओं से अपेक्षा की जाती है, तब भी अगुआ नारे लगाते रहते हैं और खोखले शब्द बोलते रहते हैं। क्या अगुआओं से इसी व्यवहार की उम्मीद की जाती है? यह पूछने पर कि क्या ऐसे संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं के बीच प्रचार किया जाना चाहिए, वे कहते हैं, “सबके बीच प्रचार किया जाना चाहिए, खास तौर पर इस्राएलियों के बीच निश्चित रूप से प्रचार किया जाना चाहिए।” क्या तुम लोगों को इन शब्दों में कोई समस्या सुनाई देती है? क्या वे जानते हैं कि यह एक भटकाव है, सुसमाचार कार्य की एक खामी है जिससे उन्हें निपटना चाहिए? ये निकम्मे लोग नहीं जानते और अभी भी ऊँची-ऊँची आडंबरी भाषा में चीखते-चिल्लाते और नारे लगाते हैं, वे सच में फालतू कचरा हैं! और फिर भी वे सोचते हैं कि वे दक्ष हैं, उनमें काबिलियत है और वे चालाक हैं। वे यह भी नहीं जानते कि कार्य में ऐसी बड़ी खामी और भटकाव आ चुका है; क्या वे इसका समाधान करना शुरू कर भी सकते हैं? इसकी संभावना और भी कम है। जो लोग सुसमाचार का प्रचार करते हैं, वे सभी बहुत चिंतित हैं; सुसमाचार कार्य प्रभावित हुआ है, उसमें रुकावट आई है और वह सुचारु रूप से आगे नहीं बढ़ सकता और नकली अगुआओं को कार्य में होने वाले भटकाव के बारे में जरा भी भनक नहीं है। कार्य में समस्याओं या भटकावों का सामना होने पर ज्यादातर लोग अक्सर परवाह नहीं करते, उन पर उनका ध्यान नहीं जाता और वे अभी भी जबरदस्त लापरवाही से अड़ियलपन के साथ गलत दृष्टिकोण अपनाए रहते हैं। अगर अगुआ और कार्यकर्ता भी तुरंत स्थिति को समझकर उसे नहीं पकड़ पाते तो जब तक समस्या गंभीर होकर कार्य को प्रभावित कर दे और ज्यादातर लोग उस समस्या का पता लगा सकें, तब तक अगुआ और कार्यकर्ता हक्के-बक्के रहते हैं। यह अगुआओं और कार्यकर्ताओं द्वारा जिम्मेदारी की उपेक्षा के कारण होता है। तो वे ऐसे गंभीर परिणामों से कैसे बच सकते हैं? अगुआओं और कार्यकर्ताओं को नियमित रूप से कार्य की जाँच करनी चाहिए और कार्य की मौजूदा स्थिति और प्रगति को तुरंत समझना चाहिए। अगर यह पता चले कि कार्य दक्षता ऊँची नहीं है तो उन्हें देखना चाहिए कि किस भाग में खामियाँ और समस्याएँ हैं और सोच-विचार करना चाहिए : “अभी ये लोग व्यस्त दिखाई देते हैं, लेकिन कोई स्पष्ट दक्षता क्यों नहीं है? जैसे कि सुसमाचार टीम का कार्य; इतने सारे लोग हर दिन इस कार्य में सहयोग करने वालों के साथ मिलकर सुसमाचार प्रचार करते हैं और गवाही देते हैं तो हर महीने बहुत-से लोग प्राप्त क्यों नहीं किए जाते हैं? किस भाग में समस्या है? समस्या कौन खड़ी कर रहा है? यह भटकाव कैसे आया? यह कब शुरू हुआ? यह पता लगाने के लिए कि अभी सब लोग क्या कर रहे हैं, मौजूदा संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता कैसे हैं और क्या सुसमाचार का प्रचार करने की दिशा सटीक है, मुझे प्रत्येक समूह के पास जाना होगा; मुझे इन सबका पता लगाना होगा।” परामर्श, संगति और विचार-विमर्श के जरिये कार्य के भटकाव और खामियाँ धीरे-धीरे स्पष्ट हो जाती हैं। समस्या का पता चल जाने पर उसे वैसे ही नहीं छोड़ा जा सकता; इसका समाधान होना चाहिए। तो किस प्रकार के अगुआ कार्य में दिखाई पड़ने वाली समस्याओं, भटकावों और खामियों का पता लगा सकते हैं? इन अगुआओं को बोझ वहन करना चाहिए, मेहनती होना चाहिए और विशिष्ट कार्य की हर बारीकी से जुड़ा होना चाहिए; हर अंश की खोज-खबर लेनी चाहिए, उसे समझना और उसकी पकड़ हासिल करनी चाहिए; पता लगाना चाहिए कि प्रत्येक व्यक्ति क्या कर रहा है, किस काम के लिए कितनी संख्या में लोग उपयुक्त हैं, पर्यवेक्षक कौन हैं, इन लोगों की काबिलियत क्या है, वे अपना कार्य अच्छे ढंग से कर रहे हैं या नहीं, उनकी दक्षता कैसी है, कार्य की प्रगति कैसी है, इत्यादि—इन सभी चीजों का पता लगाना चाहिए। इसके अतिरिक्त, सुसमाचार कार्य का सबसे अहम हिस्सा यह है कि क्या सुसमाचार प्रचारकों के पास सत्य है, क्या वे लोगों की धारणाओं और समस्याओं का समाधान करने के लिए दर्शनों के सत्यों पर स्पष्ट रूप से संगति कर सकते हैं, क्या वे संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं में जिस चीज का अभाव है उसकी आपूर्ति कर सकते हैं जिससे कि वे उन्हें अच्छी तरह से आश्वस्त कर सकें और क्या वे सत्य पर अपनी संगति में एक बोलचाल का तरीका अपना सकते हैं, जिससे कि संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता परमेश्वर की वाणी और अधिक सुन सकें। उदाहरण के लिए, अगर कोई संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता परमेश्वर के देहधारण की महत्ता से संबंधित सत्यों को जानना चाहता है, लेकिन अगर कोई सुसमाचार प्रचारक हमेशा परमेश्वर के कार्य की महत्ता और धर्म-संबंधी धारणाओं के बारे में बात करता है तो क्या यह एक समस्या नहीं है? अगर कोई व्यक्ति सिर्फ यह जानना चाहता है कि वह कैसे बचाया जा सकता है और मानवजाति को बचाने की परमेश्वर की प्रबंधन योजना की विषयवस्तु क्या है तो क्या यह परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों से संबंधित दर्शन सत्यों के बारे में संगति करने का समय नहीं है? (हाँ।) लेकिन यह सुसमाचार प्रचारक परमेश्वर की ताड़ना और न्याय और उसके प्रकाशन के बारे में ही यह बात करता रहता है कि लोगों के भ्रष्ट स्वभावों में अहंकार, कपट और दुष्टता और ऐसे ही दूसरे विषय शामिल होते हैं। दूसरा पक्ष परमेश्वर के कार्य को स्वीकार करे उससे पहले ही सुसमाचार प्रचारक उसके साथ ताड़ना और न्याय और उसके भ्रष्ट स्वभावों को उजागर करने के बारे में बातें करने लगता है। नतीजतन, वह व्यक्ति विकर्षित हो जाता है, उसे चाही हुई चीज नहीं मिलती और उसकी जिन समस्याओं का समाधान होना चाहिए वे अनसुलझी ही रहती हैं; वह दिलचस्पी खो देता है और खोजबीन करते रहने को तैयार नहीं होता। क्या यह सुसमाचार प्रचारक के साथ एक समस्या नहीं है? सुसमाचार प्रचारक सत्य को नहीं समझता या उसमें आध्यात्मिक समझ की कमी होती है और इसलिए वह इस बात से पूरी तरह से अनभिज्ञ होता है कि दूसरे व्यक्ति की जरूरत क्या है, जिससे वह बोलते समय मुद्दे की बात नहीं कर पाता, देर तक बड़बड़ाता रहता है और संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता की समस्याओं का बिल्कुल भी समाधान नहीं करता—इस प्रकार से सुसमाचार का प्रचार करके वह संभवतः लोगों को कैसे प्राप्त कर सकता है?
नकली अगुआ अपने कार्य में जिन भी मसलों का सामना करते हैं उनकी अनदेखी करते हैं। सुसमाचार कार्य में चाहे जो भी समस्याएँ खड़ी होती हों, बुरे लोग चाहे जैसे भी इस कार्य को बाधित कर उसे प्रभावित करते हों, वे किसी भी बात पर ध्यान नहीं देते, मानो इसका उनके साथ कोई लेना-देना न हो। नकली अगुआ अपने कार्य में भ्रमित रहते हैं; चाहे किसी व्यक्ति विशेष के कर्तव्य में कोई नतीजे निकलें या न निकलें या वे सत्य सिद्धांतों का पालन करें या न करें, वे पर्यवेक्षण या जाँच नहीं करते और नतीजे चाहे जो भी हों, वे लोगों को खुला छोड़कर कार्य करने देते हैं। इससे सुसमाचार कार्य में दिखाई देने वाले भटकावों और खामियों का कभी समाधान नहीं हो पाता और सच्चे मार्ग को खोजने वाले अनगिनत लोग आखिरकार हाथ से फिसलकर निकल जाते हैं और उन्हें यथाशीघ्र परमेश्वर के सामने नहीं लाया जा सकता है। परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकारने के बाद कुछ लोग कहते हैं, “वास्तव में, किसी ने तीन वर्ष पहले मुझे सुसमाचार का उपदेश दिया था। ऐसा नहीं है कि मैं उसे स्वीकार नहीं करना चाहता था या मैं नकारात्मक प्रचार में यकीन करता था; जिस व्यक्ति ने मुझे उपदेश दिया वही वास्तव में बेहद गैर-जिम्मेदार था। वह मेरे प्रश्नों का उत्तर नहीं दे पा रहा था और जब मैंने सत्य खोजना चाहा तो वह उस बारे में संगति करने में अस्पष्ट था, सिर्फ कुछ बेकार के शब्द बोल रहा था। परिणामस्वरूप, मुझे निराश होकर वहाँ से जाना पड़ गया।” तीन वर्ष बाद ऑनलाइन खोजबीन करने के बाद और फिर भाई-बहनों के साथ खोजने और संगति करने से इन लोगों ने बारी-बारी से अपने दिलों की सभी धारणाओं और भ्रांतियों को दूर किया और इस बात की पूरी तरह से पुष्टि की कि यह परमेश्वर का प्रकट होना और कार्य करना है और फिर उसे स्वीकार किया। यह उनका अपनी खुद की खोज और खोजबीन के जरिये परमेश्वर के कार्य को स्वीकारना है। अगर सुसमाचार प्रचार करने वाले व्यक्ति ने तीन वर्ष पहले स्पष्ट रूप से सत्य पर संगति करके उनकी धारणाओं और प्रश्नों का समाधान किया होता तो उन्होंने तीन साल पहले ही इसे स्वीकार लिया होता। इन तीन वर्षों में जीवन के विकास में कितनी देरी हो गई है! इसे सुसमाचार प्रचार करने वालों की अपनी जिम्मेदारी की उपेक्षा माना जाना चाहिए और यह सीधे तौर पर उनके सत्य को न समझने से जुड़ा हुआ है। कुछ सुसमाचार कार्यकर्ता स्वयं को सत्य से लैस करने पर ध्यान केंद्रित ही नहीं करते, वे लोगों की धारणाओं या वास्तविक मसलों का समाधान करने में सक्षम हुए बिना सिर्फ कुछ धर्म-सिद्धांत बघार पाते हैं। नतीजतन, बहुत-से लोग सुसमाचार सुनते समय इसे समय रहते स्वीकार नहीं करते और अपने जीवन विकास को कई वर्ष पीछे धकेल देते हैं। यह जरूर कहा जाना चाहिए कि सुसमाचार कार्य के प्रभारी अगुआ अपने अपर्याप्त मार्गदर्शन और अपर्याप्त निगरानी के चलते इसके लिए उत्तरदायी होते हैं। अगर अगुआ और कार्यकर्ता सच में बोझ उठाएँ और थोड़ा और अधिक कष्ट सह पाएँ, सत्य की संगति करने का थोड़ा अधिक अभ्यास करें और थोड़ी ज्यादा वफादारी दिखाएँ, सत्य के सभी पहलुओं पर स्पष्ट रूप से संगति करें जिससे वे सुसमाचार कार्यकर्ता लोगों की धारणाओं और शंकाओं के समाधान के लिए सत्य पर संगति करने में सक्षम हो सकें तो सुसमाचार प्रचार करने के परिणाम अधिकाधिक बेहतर होते जाएँगे। इससे सच्चे मार्ग की खोजबीन करने वाले और भी ज्यादा लोगों को परमेश्वर के कार्य को पहले ही स्वीकार करने और परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करने के लिए परमेश्वर के सामने जल्दी लौट आने का अवसर मिलेगा। कलीसिया का कार्य सिर्फ इसलिए रुक जाता है क्योंकि नकली अगुआ गंभीर रूप से अपनी जिम्मेदारियों की उपेक्षा करते हैं, वास्तविक कार्य नहीं करते या कार्य की खोज-खबर नहीं लेते और उसकी निगरानी नहीं करते और समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य पर संगति करने में असमर्थ होते हैं। बेशक, इसका यह कारण भी है कि नकली अगुआ रुतबे के लाभों में लिप्त होते हैं, सत्य का लेशमात्र भी अनुसरण नहीं करते और सुसमाचार फैलाने के कार्य की खोज-खबर लेने, पर्यवेक्षण या निर्देशन करने को तैयार नहीं होते—लिहाजा कार्य धीमी गति से आगे बढ़ता है और बहुत-से मानव-जनित भटकाव, बेतुकेपन और लापरवाह गलत काम मुस्तैदी से सुधारे या सुलझाए नहीं जाते, जिससे सुसमाचार फैलाने की प्रभावशीलता पर गंभीर असर पड़ता है। जब ऊपरवाले को इन समस्याओं का पता चलता है और अगुआओं और कार्यकर्ताओं को बताया जाता है कि उन्हें इनको ठीक करना चाहिए, तभी ये समस्याएँ सुधारी जाती हैं। अंधे लोगों की तरह ये नकली अगुआ किसी भी समस्या का पता नहीं लगा पाते, उनके काम करने के तरीके में कोई भी सिद्धांत नहीं होता तो भी वे अपनी ही गलतियों का एहसास करने में अक्षम होते हैं और ऊपरवाले द्वारा काट-छाँट किए जाने के बाद ही वे अपनी त्रुटियाँ स्वीकार करते हैं। तो इन नकली अगुआओं द्वारा पहुँचाई गई हानि की जिम्मेदारी भला कौन उठा सकता है? उन्हें उनके पदों से हटाने के बावजूद वे जो हानि पहुँचा चुके हैं उसकी भरपाई कैसे की जा सकती है? इस प्रकार जब यह पता चले कि कोई भी वास्तविक कार्य करने में अक्षम नकली अगुआ मौजूद हैं तो उन्हें तुरंत बरखास्त कर देना चाहिए। कुछ कलीसियाओं में सुसमाचार कार्य खासी धीमी गति से आगे बढ़ता है और यह केवल नकली अगुआओं के वास्तविक कार्य न करने और साथ ही उनकी ओर से उपेक्षा और गलतियाँ करने के अनेक उदाहरणों के कारण होता है।
नकली अगुआओं द्वारा किए जाने वाले कार्य की विभिन्न मदों में दरअसल ऐसे अनगिनत मसले, भटकाव और खामियाँ होती हैं जिनका उन्हें समाधान करने, दुरुस्त करने और उपचार करने की जरूरत है। लेकिन ये नकली अगुआ बोझ का भाव नहीं रखते, कोई वास्तविक कार्य किए बिना सिर्फ रुतबे के लाभों में लिप्त रहते हैं और इस कारण कार्य को अस्त-व्यस्त कर देते हैं। कुछ कलीसियाओं में लोग एक-मन नहीं होते, सभी लोग दूसरों पर शक करते हैं, एक-दूसरे से सतर्क रहते हैं, एक-दूसरे को नीचे गिराते हैं और पूरा समय परमेश्वर के घर द्वारा हटा दिए जाने से डरते रहते हैं। इन स्थितियों का सामना होने पर नकली अगुआ उनका समाधान करने के लिए कदम नहीं उठाते और कोई भी वास्तविक, विशिष्ट कार्य करने में विफल होते हैं। कलीसियाई कार्य ठप हो जाता है, फिर भी नकली अगुआ इससे जरा भी परेशान नहीं होते, अभी भी मानते हैं कि उन्होंने स्वयं काफी कार्य किया है और उन्होंने कलीसियाई कार्य में देर नहीं की है। ऐसे नकली अगुआ बुनियादी रूप से जीवन आपूर्ति का कार्य करने में अक्षम होते हैं, न वे सत्य के अनुसार वास्तविक समस्याओं को सुलझा सकते हैं। वे बस थोड़ा-सा सामान्य मामलों का कार्य करते हैं जो ऊपरवाला उन्हें विशेष रूप से सौंपता और बताता है, मानो कि उनका कार्य सिर्फ ऊपरवाले के लिए होता हो। कलीसिया के बुनियादी कार्य की बात आने पर जिसकी ऊपरवाले ने हमेशा अपेक्षा की है—जैसे कि जीवन आपूर्ति करने और लोगों को विकसित करने का कार्य—या ऊपरवाले द्वारा निर्देशित कुछ विशिष्ट काम, वे नहीं जानते कि इसे कैसे करें और वे इसे नहीं कर सकते। वे ये काम सिर्फ दूसरों को सौंप देते हैं और फिर मान लेते हैं कि उनका काम पूरा हो चुका है। वे ठीक उतना ही करते हैं जितना निर्देश ऊपरवाला उन्हें देता है और तभी थोड़े क्रियाकलाप करते हैं जब उन्हें कोंचा जाता है; वरना वे निष्क्रिय और अनमने होते हैं—ये नकली अगुआ हैं। नकली अगुआ क्या होता है? संक्षेप में कहें तो यह वह व्यक्ति है जो कोई वास्तविक कार्य नहीं करता, जो एक अगुआ के रूप में अपना काम नहीं करता, अहम और बुनियादी कार्य में जिम्मेदारी की घोर उपेक्षा दिखाता है और कोई कार्रवाई नहीं करता—यही एक नकली अगुआ होता है। नकली अगुआ खुद को सिर्फ सतही सामान्य मामलों में व्यस्त रखते हैं, इसी को वास्तविक कार्य मानने की गलती करते हैं और वास्तव में, जब एक अगुआ के तौर पर उनके काम और परमेश्वर के घर द्वारा उन्हें सौंपे गए अहम कार्य की बात आती है तो वे इनमें से कुछ भी अच्छे ढंग से नहीं करते। इसके अतिरिक्त कलीसिया के कार्य की विभिन्न मदों में अक्सर ऐसे मसले उत्पन्न होते हैं, जिनके लिए अगुआ द्वारा समाधान की जरूरत होती है, फिर भी वे उन्हें सुलझा नहीं सकते, अक्सर टालमटोल वाला रवैया अपनाते हैं और भाई-बहन जब कोई मसला हल करना चाहते हैं तो वे उन्हें नहीं मिलते। अगर उन्हें अगुआ किसी तरह मिल भी जाता है तो भी वह बहुत व्यस्त होने का बहाना करके उनसे किनारा कर लेता है और पल्ला झाड़ लेने का दृष्टिकोण अपनाकर भाई-बहनों से स्वयं ही परमेश्वर के वचन पढ़ने और स्वतंत्र रूप से अपनी समस्याएँ हल करने को कहता है। इससे अंततः बहुत सारे अनसुलझे मसलों की बकाया सूची बन जाती है, कार्य की सभी मदों की प्रगति थम जाती है और कलीसियाई कार्य ठप पड़ जाता है। यह नकली अगुआओं के वास्तविक कार्य न करने का परिणाम है। नकली अगुआ अपनी मुख्य जिम्मेदारियों को लेकर कभी भी ईमानदार या मेहनती नहीं होते, न ही वे विभिन्न मसले सुलझाने के लिए सत्य खोजते हैं। इसका अर्थ है कि नकली अगुआओं का वास्तविक कार्य करने और कोई भी मसला सुलझाने में अक्षम होना लाजिमी है। नकली अगुआ जिस चीज में अग्रणी होते हैं वह है शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का प्रचार करना, नारे लगाना, दूसरों को प्रोत्साहित करना और स्वयं को केवल सामान्य मामलों के कार्य में व्यस्त रखना। जहाँ तक परमेश्वर के घर द्वारा उन्हें सौंपे गए बुनियादी कार्यों का संबंध है, जैसे कि जीवन आपूर्ति करना और समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य पर संगति करना, वे नहीं जानते कि इन्हें कैसे करना है, इसका तरीका सीखने के लिए प्रशिक्षण नहीं लेते और किसी भी वास्तविक समस्या को सुलझा नहीं सकते—ये नकली अगुआ हैं।
कुछ नकली अगुआओं से जब यह कहा जाता है कि वे पटकथा लिखने, अनुभवजन्य गवाहियों के लेख लिखने जैसे पाठ-आधारित कार्य और दूसरे विशिष्ट कामों के लिए मार्गदर्शन दें तो वे सोचते हैं कि चूँकि यह महज मार्गदर्शन है, इसलिए उन्हें कोई ठोस काम नहीं करना पड़ेगा, इसलिए वे बस घूमते-फिरते रहते हैं। वे कहते हैं, “झांग, तुम्हारा लेख कितना तैयार हो गया है?” “लगभग पूरा हो चुका है।” “ली, क्या वह आलेख लिखने में तुम्हें कोई कठिनाई हो रही है?” “हाँ, क्या तुम उनका समाधान करने में मेरी मदद कर सकते हो?” “तुम सभी लोग आपस में चर्चा कर लो। थोड़ी और प्रार्थना करो।” ये नकली अगुआ भाई-बहनों को मार्गदर्शन देने और उनकी सहायता करने में न सिर्फ विफल होते हैं, बल्कि वे अपना काम भी अच्छे से करने पर ध्यान केंद्रित नहीं करते, हमेशा घूमते-फिरते रहते हैं और एक फुरसत वाला आरामदेह जीवन जीते हैं। सतह पर ऐसा दिखाई देता है कि वे कार्य का निरीक्षण कर रहे हैं, लेकिन वास्तव में वे कोई भी समस्या नहीं सुलझाते—वे वास्तव में कलम घसीटने वाले होते हैं! गैर-विश्वासी दुनिया के कुछ देशों के सक्षम अधिकारी भी समान रूप से भ्रष्ट इंसान होते हैं, लेकिन वे भी इन नकली अगुआओं से कहीं अधिक श्रेष्ठ होते हैं, इनमें तो इन अधिकारियों वाली जिम्मेदारी की भावना का भी अभाव होता है। उदाहरण के लिए, महामारी फैलने के बाद दुनिया भर के देशों ने रोकथाम के उपाय लागू करने शुरू कर दिए। अंततः इनमें से अधिकतर देश सहमत हो गए कि ताइवान के रोकथाम के प्रयास प्रभावी थे, जो यह संकेत देता है कि ताईवानी सरकारी अधिकारियों ने उच्चतम मानकों के स्तर और अत्यधिक विस्तृत ढंग से महामारी के विरुद्ध प्रतिक्रिया की। लौकिक दुनिया के किसी देश के लिए, भ्रष्ट मानवजाति में अधिकारियों और राजनीतिज्ञों के लिए, उच्चतम मानक के स्तर पर और ऐसे विस्तृत ढंग से किसी काम को अंजाम देना सचमुच सराहनीय है। अनेक यूरोपीय अधिकारी ताइवान जाकर सीखने को तैयार थे; इस परिप्रेक्ष्य से ताइवान के सरकारी अधिकारी दूसरे राष्ट्रों के अधिकारियों के मुकाबले कहीं अधिक श्रेष्ठ थे। सिर्फ इस कारण से कि उनके ज्यादातर अधिकारी ठोस कार्य करने में सक्षम थे और लगन से अपनी जिम्मेदारियाँ निभाते थे, यह साबित होता है कि ये अधिकारी मानक स्तर के थे। कलीसिया के कुछ अगुआ और कार्यकर्ता अपना कर्तव्य निभाते समय हमेशा लापरवाह रहते हैं और उनकी काट-छाँट चाहे जैसे भी की जाए, इसका असर नहीं पड़ता। मैं पाता हूँ कि इन अगुआओं और कार्यकर्ताओं का चरित्र वास्तविक कार्य कर सकने वाले गैर-विश्वासी दुनिया के अधिकारियों की बराबरी भी नहीं कर सकता है। इनमें से ज्यादातर परमेश्वर में विश्वास रखने और सत्य का अनुसरण करने का दावा करते हैं, लेकिन असलियत में वे कीमत चुकाने को तैयार नहीं होते। उन्हें इतने अधिक सत्य की आपूर्ति की जाती है, फिर भी अपना कर्तव्य निभाने को लेकर उनका रवैया ऐसा है। नतीजा यह होता है कि वे सबके-सब नकली अगुआ बन जाते हैं जो सरकारी अधिकारियों की तुलना में बहुत पीछे रह जाते हैं! लोगों से मेरी माँगें वास्तव में ज्यादा ऊँची नहीं हैं; मैं यह माँग नहीं करता कि लोग बहुत सारे सत्यों को समझें या उनकी काबिलियत बहुत ऊँची हो। न्यूनतम मानक है अंतरात्मा के साथ कार्य करना और अपनी जिम्मेदारी निभाना। अगर और कुछ न कर पाओ तो कम-से-कम तुम्हें अपनी रोजाना रोटी के लायक और परमेश्वर के सौंपे हुए आदेश पर खरा उतरना चाहिए; यही पर्याप्त है। लेकिन परमेश्वर का कार्य अब तक चल रहा है तो क्या बहुत-से लोग अंतरात्मा के साथ कार्य कर सकते हैं? मैं देखता हूँ कि लोकतांत्रिक देशों के कुछ अधिकारी ईमानदारी से बोलते और कार्य करते हैं। वे अतिशयोक्तियाँ नहीं करते या ऊँचे सिद्धांत नहीं बघारते, उनकी बातों में खास तौर पर मेहनत और सच्चाई दिखाई देती है और वे अनेक वास्तविक मामले सँभालने की योग्यता रखते हैं। उनका कार्य सच में बहुत अच्छा है, यह वास्तव में उनकी सत्यनिष्ठा और मानवता को परिलक्षित करता है। अब कलीसिया के अधिकतर अगुआओं और कार्यकर्ताओं को देखें तो अपने कार्य में वे खानापूर्ति करते हैं और अनमने होते हैं, उन्होंने कोई बहुत अच्छे नतीजे हासिल नहीं किए हैं और उन्होंने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी तरह से नहीं निभाई हैं। अगुआ बनने के बाद वे धर्माधिकारियों में तब्दील हो जाते हैं, वे अपने अहंकार के ऊँचे आसनों पर बैठ कर आदेश देते हैं और कलम घसीटने वाले बन जाते हैं। वे सिर्फ अपने रुतबे के फायदों में लिप्त रहने पर ध्यान केंद्रित करते हैं और यह पसंद करते हैं कि सभी लोग उनका अनुसरण करें और उनके चक्कर लगाते रहें। वे वास्तविक समस्याओं को सुलझाने के लिए शायद ही कभी कलीसिया के जमीनी स्तर के साथ गहराई से जुड़ते हैं। अपने दिलों में वे परमेश्वर से दूर और दूर होते जा रहे हैं। इस प्रकार के नकली अगुआ और नकली कार्यकर्ता सुधार के बिल्कुल भी योग्य नहीं होते हैं! मैंने अत्यंत कष्ट के साथ सत्य पर संगति की है, फिर भी ये अगुआ और कार्यकर्ता इसे आत्मसात नहीं करते, वे अड़ियलपन के साथ अपने गलत विचारों से चिपके रहते हैं और टस से मस नहीं होते। अपने कर्तव्यों के प्रति उनका रवैया हमेशा लापरवाही का होता है और उनके मन में प्रायश्चित्त करने का लेशमात्र भी इरादा नहीं होता। मैं देखता हूँ कि इन लोगों में अंतरात्मा नहीं है, विवेक नहीं है, वे बिल्कुल भी इंसान नहीं हैं! फिर मैं सोच-विचार करता हूँ : क्या ऐसे लोगों के लिए इन सत्यों पर बारंबार संगति करना अभी भी जरूरी है? क्या मुझे संगति को इतना अधिक विशिष्ट बनाने की जरूरत है? क्या मुझे यह कष्ट सहने की जरूरत है? क्या ये वचन फालतू हैं? थोड़े सोच-विचार के बाद मैं फैसला लेता हूँ कि मुझे अब भी अवश्य बोलना चाहिए, क्योंकि लेशमात्र भी अंतरात्मा या विवेक से रिक्त लोगों पर भले ही इन वचनों का कोई प्रभाव नहीं होता, ये उन लोगों के लिए उपयोगी हैं जो थोड़ी कम काबिलियत वाले होने के बावजूद सत्य को स्वीकार कर सकते हैं और अपने कर्तव्य ईमानदारी से निभा सकते हैं। नकली अगुआ वास्तविक कार्य नहीं करते और अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभाते, लेकिन जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं वे सबक सीखेंगे, प्रेरित होंगे और इस वचनों और कार्यों से अभ्यास करने का मार्ग तलाश लेंगे। जीवन प्रवेश इतना आसान नहीं है; सहारा और आपूर्ति देने वाले के बिना, सत्य के प्रत्येक पहलू के बारीकी से विश्लेषण और स्पष्टीकरण के बिना लोग बहुत कमजोर होते हैं, अक्सर खुद को असहायता और हैरानी, नकारात्मकता और निष्क्रियता की स्थिति में पाते हैं। इसलिए कई बार जब मैं इन नकली अगुआओं को देखता हूँ, मैं उनके साथ संगति करने का उत्साह नहीं जुटा पाता। लेकिन जब मैं परमेश्वर में ईमानदारी से विश्वास रखने वाले और वफादारी से अपने कर्तव्य निभाने वाले लोगों द्वारा सहे हुए कष्टों और चुकाई गई कीमत के बारे में सोचता हूँ तो मैं अपना मन बदल लेता हूँ। इसके अलावा और कोई दूसरा कारण नहीं है : भले ही 30-50 लोग—या कम-से-कम 8-10 लोग—ईमानदारी से खुद को खपा सकें और अपने कर्तव्य निभाने में वफादार रह सकें और सुनने और समर्पण करने को तैयार हो सकें तो ये वचन सुनाना सार्थक है। जिन लोगों में अंतरात्मा और विवेक नहीं है, उनके साथ बात करने और संगति करने की मुझमें कोई अभिप्रेरणा नहीं होगी; इन लोगों के साथ बातचीत करना थकाऊ और निष्फल होता है। तुममें से ज्यादातर सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं और अपने कर्तव्यों में कीमत नहीं चुकाते हैं—तुममें कोई बोझ का भाव या वफादारी नहीं है, अपने क्रियाकलापों में तुम सिर्फ खानापूर्ति करते हो और आशीष प्राप्त करने की आशा में अनिच्छा से कार्य करते हो। ये वचन सुनना तुम लोगों के लिए वास्तव में एक नाहक कृपा है। तुम सब उन लोगों की पीठ पर सवार होकर आगे बढ़ रहे हो जो ईमानदारी से अपने कर्तव्य निभाते हैं, जो सच में कीमत चुकाते हैं, जिनमें वफादारी और बोझ है और जो सत्य का अभ्यास करने को तैयार हैं। ये वचन उन लोगों के लिए हैं और तुम लोग इन्हें सुनकर नाहक ही कृपा प्राप्त कर रहे हो। इस परिप्रेक्ष्य से देखने पर—कि तुम लोगों में से ज्यादातर के पास अपने कर्तव्यों में जरा-सी भी ईमानदारी के बिना खानापूर्ति करने का रवैया है—तो तुम लोग ये वचन सुनने के लायक नहीं हो। तुम लायक क्यों नहीं हो? क्योंकि भले ही तुम लोग सुन लो, यह सब निरर्थक होगा; चाहे जितना भी ज्यादा या विस्तार से कहा जाए, तुम लोग सिर्फ आधे-अधूरे मन से सुनते हो, इन वचनों को सुनने के बाद तुम चाहे जितना भी समझ लो इनका अभ्यास नहीं करते हो। ये वचन किन लोगों से बोलने चाहिए? कौन इनको सुनने योग्य है? सिर्फ वे जो कीमत चुकाने को तैयार हों, जो ईमानदारी से खुद को खपा सकें और जो अपने कर्तव्यों और दिए हुए आदेश के प्रति वफादार हों, वे ही इन्हें सुनने लायक हैं। मैं क्यों कहता हूँ कि वे सुनने के लायक हैं? क्योंकि जब वे सुनने के बाद थोड़ा-सा सत्य समझ लेते हैं तो वे उसे अभ्यास में ला सकते हैं और वे जो समझते हैं उसका अभ्यास करते हैं; वे धूर्त और आलसी नहीं होते हैं; और सत्य और परमेश्वर की अपेक्षाओं को ईमानदारी और ललक के रवैये के साथ लेते हैं और सत्य से प्रेम करने और उसे स्वीकारने में सक्षम हैं। इस तरह उनके सुनने के बाद ये वचन उन पर प्रभाव डालते हैं और उन्हें परिणाम प्राप्त होते हैं।
13 फरवरी 2021
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