अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (4) खंड तीन
नकली अगुआ कार्य की खोज-खबर नहीं लेते, न ही दिशा दिखाते हैं
हमने अभी-अभी अगुआओं और कार्यकर्ताओं की पाँचवीं जिम्मेदारी के इस पहलू पर चर्चा की : “कार्य की प्रत्येक मद की स्थिति पर पकड़ और उसकी समझ बनाए रखना।” इस पहलू पर चर्चा करके हमने नकली अगुआओं की कुछ विशिष्ट अभिव्यक्तियों और साथ ही उनकी मानवता और चरित्र को भी उजागर किया। आओ, अब “कार्य की प्रत्येक मद की स्थिति पर पकड़ और उसकी समझ बनाए रखने” पर गौर करें। निस्संदेह, कार्य की प्रगति कुछ हद तक कार्य की स्थिति से संबंधित होती है और यह रिश्ता अपेक्षाकृत करीबी होता है। अगर कोई कार्य की किसी मद की स्थिति की समझ और उस पर पकड़ को बनाए न रख सके, तो इसी तरह वह कार्य की प्रगति की समझ और उस पर पकड़ भी बनाए नहीं रख सकता। उदाहरण के लिए, कार्य की प्रगति कैसी है, यह किस चरण तक आगे बढ़ चुका है, इससे जुड़े हुए लोगों की स्थितियाँ कैसी हैं, क्या पेशेवर पहलुओं को लेकर कोई कठिनाई है, क्या कार्य के कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जो परमेश्वर के घर की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरते, हासिल किए हुए नतीजे कैसे हैं, क्या कुछ लोग जो कार्य के पेशेवर पहलुओं में अधिक कुशल नहीं हैं वे सीख रहे हैं, सिखाने की व्यवस्था कौन करता है, वे क्या सीख रहे हैं, वे कैसे सीख रहे हैं, इत्यादि—ये सभी विशिष्ट मुद्दे प्रगति से संबंधित हैं। उदाहरण के लिए, क्या भजनों की संगीत रचना करने का कार्य अत्यंत महत्वपूर्ण नहीं है? एक भजन के लिए, परमेश्वर के वचनों के आवश्यक अंशों के प्रारंभिक चयन से लेकर संगीत रचना के पूरे होने तक, इस प्रक्रिया में कौन-से विशिष्ट काम हाथ में लेने की जरूरत होती है? सबसे पहले, भजन बनाने के लिए परमेश्वर के वचनों के उपयुक्त आवश्यक अंशों को चुनना जरूरी है, और ये उपयुक्त लंबाई के भी होने चाहिए। दूसरे कदम में इस बारे में सोच-विचार करना शामिल है कि अंश को कर्णप्रिय और गायन को आनंददायी बनाने के लिए किस शैली का राग उपयुक्त रहेगा। फिर, भजन गाने के लिए सही लोगों को ढूँढ़ना जरूरी है। क्या ये विशिष्ट काम नहीं हैं? (हैं।) किसी भजन की संगीत रचना हो जाने के बाद नकली अगुआ बिल्कुल पूछताछ नहीं करता कि क्या संगीत रचना यथायोग्य है या शैली उपयुक्त है। निगरानी की कमी देखकर संगीतकार को व्यक्तिगत रूप से लगता है कि यह ठीक-ठाक है और वह उसे रिकॉर्ड करने की ओर बढ़ता है। परमेश्वर के वचनों का वह अंश, जिसे सभी लोग एक भजन के रूप में देखना चाह रहे थे, वह अंततः संगीतबद्ध करके एक भजन बना दिया जाता है, लेकिन इसे गाते समय ज्यादातर लोगों को इसमें अभी भी खामियाँ नजर आती हैं। कौन-सी समस्या उत्पन्न होती है? संगीतबद्ध भजन सही स्तर का नहीं है : राग और आकर्षण का अभाव होने के बावजूद उसे संगीतबद्ध कर लिया गया। इसे सुनने के बाद नकली अगुआ पूछता है, “इस भजन की संगीत रचना किसने की? इसकी रिकॉर्डिंग क्यों की गई?” उसके यह सवाल पूछने तक कम-से-कम एक महीना गुजर चुका होता है। इस महीने के दौरान क्या अगुआ को इसकी खोज-खबर नहीं लेनी चाहिए थी और इस कार्य की प्रगति को तुरंत नहीं पकड़ना चाहिए था? उदाहरण के लिए, संगीत रचना कैसी चल रही थी? क्या बुनियादी धुन तय हो चुकी थी? क्या इसमें राग था? क्या इस भजन का राग और शैली परमेश्वर के वचनों से मेल खाती है? क्या उपयुक्त अनुभव वाले व्यक्तियों ने मार्गदर्शन देकर मदद की? इसकी संगीत रचना के बाद क्या इस भजन को व्यापक रूप से गाया जा सकेगा? इसका क्या प्रभाव होगा? क्या धुन अच्छी मानी गई है? नकली अगुआ ऐसे मामलों की खोज-खबर लेने में सिरे से विफल रहा। और खोज-खबर न लेने के लिए उसके पास एक कारण है : “मुझे भजन की संगीत रचना की समझ नहीं है। मैं जिस चीज को नहीं समझता उसकी खोज-खबर कैसे ले सकता हूँ? यह असंभव है।” क्या यह एक वाजिब कारण है? (नहीं।) यह कोई वाजिब कारण नहीं है; तो जो व्यक्ति भजनों को संगीतबद्ध करने से परिचित नहीं है, क्या तब भी वह खोज-खबर ले सकता है? (हाँ।) उसे कैसे खोज-खबर लेनी चाहिए? (वह भाई-बहनों के साथ मिलकर कार्य कर सकता है और सिद्धांतों के आधार पर यह देखने के लिए राग को परख सकता है कि क्या यह उपयुक्त है; अपना पल्ला झाड़कर अलग खड़े रहने के बजाय वह व्यावहारिक रूप से कार्य की खोज-खबर ले सकता है।) नकली अगुआओं के काम की मुख्य विशेषता है धर्म-सिद्धांतों के बारे में बकवास करना और तोते की तरह नारे लगाना। अपने आदेश जारी करने के बाद वे बस मामले से पल्ला झाड़ लेते हैं। वे कार्य के आगे की प्रगति के बारे में कोई सवाल नहीं पूछते; वे यह नहीं पूछते कि कोई समस्या, विचलन या कठिनाई तो उत्पन्न नहीं हुई। वे दूसरों को कोई काम सौंपते ही अपना काम समाप्त हुआ मान लेते हैं। वास्तव में अगुआ होने के नाते कार्य को व्यवस्थित कर लेने के बाद तुम्हें कार्य की प्रगति की खोज-खबर लेनी चाहिए। अगर तुम उस कार्यक्षेत्र से परिचित नहीं हो—यदि तुम्हें इसके बारे में कोई ज्ञान न हो—तब भी तुम अपना काम करने का तरीका खोज सकते हो। तुम जाँच करने और सुझाव देने के लिए किसी ऐसे व्यक्ति को खोज सकते हो, जो इस पर सच्ची पकड़ रखता हो, जो संबंधित पेशे को समझता हो। उसके सुझावों से तुम उपयुक्त सिद्धांत पता लगा सकते हो, और इस तरह तुम काम की खोज-खबर लेने में सक्षम हो सकते हो। चाहे तुम संबंधित पेशे से परिचित हो या नहीं हो या उस काम को समझते हो या नहीं, उसकी प्रगति से अवगत रहने के लिए तुम्हें कम-से-कम उसकी निगरानी तो करनी ही चाहिए, खोज-खबर लेनी चाहिए, उसकी प्रगति के बारे में लगातार पूछताछ करते हुए उसके बारे में सवाल करने चाहिए। तुम्हें ऐसे मामलों पर पकड़ बनाए रखनी चाहिए; यह तुम्हारी जिम्मेदारी है, यह तुम्हारे काम का हिस्सा है। काम की खोज-खबर न लेना, काम दूसरे को सौंपने के बाद और कुछ न करना—उससे पल्ला झाड़ लेना—यह नकली अगुआओं के कार्य करने का तरीका है। कार्य की खोज-खबर न लेना या कार्य के बारे में मार्गदर्शन न देना, आने वाली समस्याओं के बारे में पूछताछ न करना या उनका समाधान न करना और काम की प्रगति या उसकी दक्षता पर पकड़ न रखना—ये भी नकली अगुआओं की अभिव्यक्तियाँ हैं।
नकली अगुआ वास्तविक कार्य नहीं करते, जिससे कार्य की प्रगति लंबित होती है
चूँकि नकली अगुआ कार्य की प्रगति के बारे में जानकारी नहीं हासिल करते, और क्योंकि वे उसमें उत्पन्न होने वाली समस्याएँ तुरंत पहचानने में असमर्थ होते हैं—उन्हें हल करना तो दूर की बात है—इससे अक्सर बार-बार देरी होती है। किसी-किसी कार्य में, चूँकि लोगों को सिद्धांतों की समझ नहीं होती और उसकी जिम्मेदारी लेने या उसका संचालन करने के लिए कोई उपयुक्त व्यक्ति नहीं होता, इसलिए कार्य करने वाले लोग अक्सर नकारात्मकता, निष्क्रियता और प्रतीक्षा की स्थिति में रहते हैं, जो कार्य की प्रगति को गंभीर रूप से प्रभावित करता है। अगर अगुआओं ने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी की होतीं—अगर उन्होंने कार्य का संचालन किया होता, उसे आगे बढ़ाया होता, उसका निरीक्षण किया होता, और कार्य का मार्गदर्शन करने के लिए उस क्षेत्र को समझने वाले किसी व्यक्ति को ढूँढ़ा होता, तो बार-बार देरी होने के बजाय काम तेजी से आगे बढ़ता। तभी, अगुआओं के लिए कार्य की स्थिति को समझना और पकड़ हासिल करना महत्वपूर्ण है। निस्संदेह, अगुआओं के लिए यह समझना और पकड़ना भी बहुत आवश्यक है कि कार्य कैसे प्रगति कर रहा है, क्योंकि प्रगति कार्य की दक्षता और उन परिणामों से संबंधित है जो उस कार्य से मिलने चाहिए। अगर अगुआओं और कार्यकर्ताओं को यह समझ न हो कि कलीसिया का कार्य कैसा चल रहा है, और वे चीजों की खोज-खबर नहीं लेते या उनका निरीक्षण नहीं करते, तो कलीसिया के कार्य की प्रगति धीमी होनी तय है। यह इस तथ्य के कारण है कि कर्तव्य निभाने वाले ज्यादातर लोग बहुत गंदे होते हैं, उनमें बोझ का भाव नहीं होता, वे अक्सर नकारात्मक, निष्क्रिय और अनमने होते हैं। अगर कोई भी ऐसा न हो जिसमें बोझ का भाव और कार्य-क्षमताएँ हों और जो ठोस ढंग से काम की जिम्मेदारी ले सके, समयबद्ध तरीके से कार्य की प्रगति जान सके, और कर्तव्य निभाने वाले कर्मियों का मार्गदर्शन, निरीक्षण कर सके, और उन्हें अनुशासित कर उनकी काट-छाँट कर सके, तो स्वाभाविक रूप से कार्य-दक्षता बहुत कम होगी और कार्य के परिणाम बहुत खराब होंगे। अगर अगुआ और कार्यकर्ता इसे स्पष्ट रूप से देख तक नहीं सकते तो वे मूर्ख और अंधे हैं। इसलिए, अगुआओं और कार्यकर्ताओं को काम पर तुरंत गौर करके उसकी खोज-खबर लेकर उसकी प्रगति को समझना होगा और यह देखना चाहिए कि कर्तव्य करनेवालों की ऐसी कौन-सी समस्याएँ हैं जिन्हें हल करने की आवश्यकता है, और यह समझना चाहिए कि बेहतर परिणाम प्राप्त करने के लिए किन समस्याओं का समाधान किया जाना चाहिए। ये सारी चीजें बहुत महत्वपूर्ण हैं और अगुआ के रूप में कार्य करने वाले व्यक्ति को इनके बारे में स्पष्ट होना चाहिए। अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए, तुम्हें नकली अगुआ की तरह नहीं होना चाहिए, जो कुछ सतही काम करता है और फिर सोचता है कि उसने अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाया है। नकली अगुआ अपने काम में लापरवाह और असावधान होते हैं, उनमें जिम्मेदारी का भाव नहीं होता, समस्याएँ आने पर वे उनका समाधान नहीं करते, और चाहे वे जो भी काम कर रहे हों, वे उसे सिर्फ सतही तौर पर करते हैं, और उससे अनमने दृष्टिकोण से पेश आते हैं। वे सिर्फ भारी-भरकम आडंबरी शब्द बोलते हैं, धर्म-सिद्धांत झाड़ते हैं, खोखली बातें करते हैं और अपना काम बेमन से करते हैं। सामान्य तौर पर, नकली अगुआओं के काम करने की यही स्थिति होती है। हालाँकि, मसीह-विरोधियों की तुलना में, नकली अगुआ खुल्लमखुल्ला बुरे काम और जानबूझकर कुकर्म नहीं करते, लेकिन उनके काम की प्रभावशीलता को देखा जाए, तो उन्हें लापरवाह, बोझ न उठाने वाले, गैर-जिम्मेदार और काम के प्रति वफादारी न रखने वाले व्यक्ति के रूप में निरूपित करना उचित है।
अभी-अभी हमने नकली अगुआओं के वास्तविक कार्य न करने, कार्य की प्रत्येक मद की प्रगति को न समझने और न पकड़ने के बारे में संगति की। कलीसियाई कार्य में आने वाली समस्याओं और कठिनाइयों को लेकर भी यही स्थिति है कि नकली अगुआ इन पर भी बिल्कुल ध्यान नहीं देते या इन्हें दरकिनार करने के लिए बस थोड़े-से धर्म-सिद्धांत बघार देते हैं और कुछ नारे दोहरा देते हैं। कार्य की सभी मदों के लिए, कोई उन्हें काम को समझने और उसकी खोज-खबर लेने की कोशिश करने के लिए कभी भी कार्यस्थल पर खुद आते हुए नहीं देखेगा। कोई उन्हें वहाँ समस्याओं के समाधान के लिए सत्य पर संगति करते हुए नहीं देखेगा, और उससे भी कम कोई उन्हें वहाँ खुद व्यक्तिगत रूप से कार्य का निर्देशन और निरीक्षण करते हुए, उसमें खामियों और विचलनों को होने से रोकते हुए देखेगा। नकली अगुआ जितने अनमने ढंग से कार्य करते हैं यह उसकी सबसे स्पष्ट अभिव्यक्ति है। मसीह-विरोधियों के विपरीत नकली अगुआ भले ही कलीसियाई कार्य में गड़बड़ी पैदा करने और बाधा डालने के लिए कदम आगे नहीं बढ़ाते, न ही वे विभिन्न प्रकार के बुरे कर्म करके अपने खुद के स्वतंत्र राज्य स्थापित करते हैं, फिर भी उनके विभिन्न अनमने व्यवहार कलीसियाई कार्य में जबरदस्त व्यवधान खड़े करते हैं, जिससे अंतहीन रूप से विभिन्न समस्याएँ पैदा होती हैं और अनसुलझी रह जाती हैं। इससे कलीसियाई कार्य की प्रत्येक मद की प्रगति गंभीर रूप से प्रभावित होती है और परमेश्वर के चुने हुए लोगों का जीवन प्रवेश प्रभावित हो जाता है। क्या ऐसे नकली अगुआओं को हटा नहीं दिया जाना चाहिए? नकली अगुआ वास्तविक कार्य करने में असमर्थ होते हैं—वे जो कुछ भी करते हैं उसकी शुरुआत मजबूत होती है, लेकिन अंत में यह टाँय-टाँय फिस्स हो जाता है। वे जो भूमिका निभाते हैं वह समारोह के प्रारंभकर्ता की होती है : वे नारे लगाते हैं, धर्म-सिद्धांतों का उपदेश देते हैं और दूसरों को कार्य सौंप देने और यह व्यवस्थित कर देने के बाद कि इसके लिए कौन जिम्मेदार होगा, वे इतिश्री कर लेते हैं। वे चीन के ग्रामीण इलाकों में दिखने वाले शोर मचाते लाउडस्पीकरों के समान होते हैं—वे इसी सीमा तक भूमिका निभाते हैं। वे बस थोड़ा-सा प्रारंभिक कार्य करते हैं; बाकी काम के लिए वे कहीं नजर नहीं आते। जहाँ तक विशिष्ट प्रश्नों की बात है कि कार्य की प्रत्येक मद कैसी चल रही है, क्या यह सिद्धांतों के अनुरूप है और क्या यह प्रभावी है—उनके पास उत्तर नहीं होते। वे कार्य की प्रत्येक मद की प्रगति और उसकी विशेषताओं को समझने और उन पर पकड़ हासिल करने के लिए कभी भी जमीनी स्तर पर गहराई से नहीं जुड़ते और कार्यस्थल का दौरा नहीं करते। इसलिए संभव है नकली अगुआ अपने अगुआ के कार्यकाल में गड़बड़ी और बाधाएँ पैदा करने के कदम न उठाएँ या तमाम बुराई न करें, मगर सच्चाई यह है कि वे कार्य को पंगु बना देते हैं, कलीसियाई कार्य की प्रत्येक मद की प्रगति को लंबित कर देते हैं और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए अपने कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाना और जीवन प्रवेश प्राप्त करना नामुमकिन कर देते हैं। इस तरह कार्य करके वे परमेश्वर में आस्था के सही मार्ग पर परमेश्वर के चुने हुए लोगों की अगुआई भला कैसे कर सकेंगे? यह दर्शाता है कि नकली अगुआ कोई वास्तविक कार्य नहीं करते। यह सुनिश्चित करने के लिए कि कलीसियाई कार्य सामान्य रूप से प्रगति करे, वे जिस कार्य के लिए जिम्मेदार हैं उसकी खोज-खबर लेने या उसके लिए मार्गदर्शन देने और निरीक्षण करने में वे विफल रहते हैं; वे अगुआओं और कार्यकर्ताओं के वांछित कर्म करने में विफल रहते हैं, और वे अपनी वफादारी और जिम्मेदारियों को निभाने में विफल रहते हैं। इससे यह पुष्टि होती है कि नकली अगुआ जिस प्रकार अपने कर्तव्य निभाते हैं उसमें वे वफादार नहीं होते, कि वे निरे लापरवाह होते हैं; परमेश्वर के चुने हुए लोगों और स्वयं परमेश्वर दोनों को ही धोखा देते हैं और वे उसकी इच्छा का पालन करने पर असर और अड़चन डालते हैं। यह सच्चाई सबके सामने है। हो सकता है कि कोई नकली अगुआ सचमुच कार्य के योग्य नहीं है; यह भी हो सकता है कि वह काम से जी चुरा रहा हो और जानबूझकर लापरवाही बरत रहा हो। चाहे जो भी बात हो, तथ्य यही है कि वह कलीसियाई कार्य को अस्त-व्यस्त कर देता है। कलीसियाई कार्य की प्रत्येक मद में जरा-सी भी प्रगति नहीं होती और संचित समस्याओं का पुलिंदा लंबे समय तक अनसुलझा पड़ा रहता है। इससे न सिर्फ सुसमाचार फैलाने के कार्य पर असर पड़ता है, बल्कि यह परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश में भी भीषण रुकावट पैदा करता है। ये तथ्य यह दिखाने के लिए काफी हैं कि नकली अगुआ न सिर्फ वास्तविक कार्य करने में असमर्थ होते हैं, बल्कि वे सुसमाचार फैलाने के कार्य में भी रोड़े बन जाते हैं और कलीसिया में परमेश्वर की इच्छा का पालन करने में अवरोध बन जाते हैं।
नकली अगुआ वास्तविक कार्य नहीं करते और वास्तविक समस्याओं को हल करने में असमर्थ रहते हैं। इससे न सिर्फ कार्य की प्रगति में देरी होती है और उसके नतीजों पर असर पड़ता है, बल्कि इससे कलीसियाई कार्य को भी गंभीर हानि होती है और बहुत-सी कार्मिक शक्ति, भौतिक संसाधन और वित्तीय संसाधन व्यर्थ हो जाते हैं। इसलिए नकली अगुआओं को आर्थिक हानियों की भरपाई करनी चाहिए। कुछ लोग कहते हैं, “अगर अगुआओं और कार्यकर्ताओं को अपना कार्य अच्छे से न करने से हुई हानियों की भरपाई करनी पड़े, तो कोई भी अगुआ या कार्यकर्ता बनने को तैयार नहीं होगा।” ऐसे गैर-जिम्मेदार लोग अगुआ या कार्यकर्ता बनने योग्य नहीं हैं। जिन लोगों में अंतरात्मा या विवेक नहीं होता, वे बुरे लोग होते हैं—अगर बुरे लोग अगुआ और कार्यकर्ता बनना चाहें तो क्या यह मुसीबत की बात नहीं है? चूँकि परमेश्वर के घर के ज्यादातर कार्यों से आर्थिक खर्चे जुड़े होते हैं तो क्या उनका हिसाब देना जरूरी नहीं है? क्या परमेश्वर की भेंटें कोई ऐसी चीज हैं जिन्हें लोग अपनी मर्जी से बरबाद कर और लुटा सकते हैं? अगुआओं और कार्यकर्ताओं को क्या हक है कि वे परमेश्वर की भेंटों को लुटा दें? आर्थिक हानि होने पर उसकी भरपाई अवश्य होनी चाहिए; यह पूरी तरह से स्वाभाविक और न्यायसंगत है और कोई भी इसे नकार नहीं सकता। उदाहरण के लिए, मान लो कि किसी काम को एक व्यक्ति एक महीने में पूरा कर सकता है। अगर इस काम को करने में छह महीने लग जाते हैं, तो क्या बाकी पाँच महीने के खर्चे नुकसान साबित नहीं होंगे? मैं सुसमाचार प्रचार का एक उदाहरण देता हूँ। मान लो कि कोई व्यक्ति सच्चे मार्ग की छानबीन करना चाहता है और संभवतः सिर्फ एक महीने में उसे राजी किया जा सकता है, जिसके बाद वह कलीसिया में प्रवेश करेगा और सिंचन और पोषण प्राप्त करता रहेगा, और छह महीने के भीतर ही वह अपनी नींव जमा सकता है। लेकिन अगर सुसमाचार प्रचार करने वाला व्यक्ति इस मामले के प्रति अवमानना और अनमनेपन का रवैया अपनाता है और अगुआ और कार्यकर्ता भी अपनी जिम्मेदारियों को अनदेखा करते हैं और अंत में उस व्यक्ति को राजी करने में छह महीने लग जाते हैं तो यह छह महीने का समय उसके जीवन के लिए एक नुकसान नहीं बन जाएगा? अगर वह भीषण आपदाओं का सामना करता है और उसने अब तक सच्चे मार्ग पर अपनी नींव नहीं तैयार की है तो वह खतरे में होगा और तब क्या वे लोग उसे निराश नहीं कर चुके होंगे? ऐसे नुकसान को पैसे या भौतिक चीजों से नहीं मापा जा सकता है। यदि उस व्यक्ति को सत्य समझने से छह महीने तक रोक दिया जाए; और उसके द्वारा एक नींव तैयार करने और अपना कर्तव्य निभाना शुरू करने में छह महीने की देरी हो जाए, तो इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा? क्या अगुआ और कार्यकर्ता इसकी जिम्मेदारी का भार उठा सकते हैं? किसी व्यक्ति के जीवन को रोककर रखने की जिम्मेदारी का भार कोई भी नहीं उठा सकता। चूँकि कोई भी इस जिम्मेदारी का भार नहीं उठा सकता, तो अगुआओं और कार्यकर्ताओं के लिए क्या करना उचित है? चार शब्द : तुम अपना सर्वस्व दो। क्या करने के लिए अपना सर्वस्व दो? अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने के लिए, वह सब कुछ करने के लिए जो तुम अपनी आँखों से देख सकते हो, अपने मन में सोच सकते हो और अपनी काबिलियत से हासिल कर सकते हो। यही अपना सर्वस्व देना है, यही निष्ठावान और जिम्मेदार होना है और यही वह जिम्मेदारी है जो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को निभानी चाहिए। कुछ अगुआ और कार्यकर्ता सुसमाचार प्रचार को गंभीर मामले के रूप में नहीं लेते। वे सोचते हैं, “परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की वाणी सुनेंगी। जो भी खोजबीन कर स्वीकार करेगा उसे आशीष प्राप्त होंगे; जो भी खोजबीन नहीं करेगा और स्वीकार नहीं करेगा, उसे आशीष प्राप्त नहीं होंगे और वह आपदा में मर जाने लायक है!” नकली अगुआ परमेश्वर के इरादों के प्रति कोई विचारशीलता नहीं दिखाते और सुसमाचार कार्य के लिए कोई बोझ नहीं उठाते; वे उन नवागंतुकों की भी कोई जिम्मेदारी नहीं लेते जिन्होंने अभी-अभी कलीसिया में प्रवेश किया है, और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश को गंभीरता से नहीं लेते—वे हमेशा अपने रुतबे के फायदों में लिप्त रहने पर ही ध्यान केंद्रित करते हैं। चाहे जितने भी लोग सच्चे मार्ग की खोजबीन करें, वे जरा भी व्याकुल महसूस नहीं करते, हमेशा खानापूर्ति करने की मानसिकता रखते हैं, वैसे ही काम करते हैं जैसे कि वे कोई अवकाशप्राप्त सम्राट या कोई अधिकारी हों। कार्य चाहे जितना भी अहम या तात्कालिक महत्व का क्यों न हो, वे कभी भी मौके पर दिखाई नहीं देते, वे कार्यस्थिति के बारे में न तो पूछताछ करते हैं न ही उसे समझते हैं या न कार्य की खोज-खबर लेते हैं और न समस्याएँ सुलझाते हैं। वे बस कामों की व्यवस्था करते हैं और सोचते हैं कि उनका काम पूरा हो गया है और वे मानते हैं कि यही कार्य करना है। क्या यह लापरवाह होना नहीं है? क्या यह अपने से ऊपरवालों और नीचेवालों दोनों को ही धोखा देना नहीं है? क्या ऐसे अगुआ और कार्यकर्ता परमेश्वर द्वारा इस्तेमाल किए जाने योग्य हैं? क्या वे महज बड़े लाल अजगर के अधिकारियों जैसे नहीं हैं? वे सोचते हैं, “एक अगुआ या कार्यकर्ता होना ठीक कोई पद सँभालने जैसा है और व्यक्ति को इस रुतबे के फायदों का आनंद लेना चाहिए। पद सँभालने से मुझे यह विशेषाधिकार मिलता है, मुझे सभी मामलों में मौजूद न रहने की छूट मिलती है। अगर मैं हमेशा मौके पर मौजूद रहूँ, कार्य की खोज-खबर लूँ और स्थिति को समझूँ, तो यह कितना थकाऊ होगा, कितना अपमानजनक होगा! मैं ऐसी थकान स्वीकार नहीं कर सकता!” नकली अगुआ और नकली कार्यकर्ता ठीक इसी तरह कार्य करते हैं, कोई भी वास्तविक कार्य किए बिना सिर्फ आरामतलबी और रुतबे के फायदों का आनंद लेने की फिक्र करते हैं और पूरी तरह से अंतरात्मा या विवेक से रिक्त होते हैं। ऐसे परजीवियों को सचमुच हटा देना चाहिए और अगर उन्हें दंडित भी किया जाए तो वे इसी लायक हैं! कुछ अगुआ और कार्यकर्ता कई वर्षों तक कलीसियाई कार्य करने के बावजूद सुसमाचार का प्रचार करना नहीं जानते, गवाही देना तो दूर की बात है। अगर तुम उनसे संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं को परमेश्वर के कार्य के दर्शनों के बारे में सभी सत्यों पर संगति करने को कहते हो, तो वे इसमें अक्षम होते हैं। उनसे यह पूछने पर कि “क्या तुमने दर्शनों के सत्य से खुद को लैस करने का प्रयास किया है?” नकली अगुआ सोच-विचार करने लगते हैं, “मैं ऐसी कड़ी मेहनत क्यों करूँ? मेरा रुतबा ऊँचा है, वह काम मेरा नहीं है; इसे करने के लिए दूसरे बहुत-से लोग हैं।” मुझे बताओ, ये किस प्रकार के प्राणी हैं? वे कई वर्षों से कलीसियाई कार्य करते रहे हैं, फिर भी नहीं जानते कि सुसमाचार का प्रचार कैसे करें। और जब गवाही देने की बात आती है, तो उनका यह काम करने के लिए उन्हें सुसमाचार प्रचारक ढूँढ़ना पड़ता है। अगर अगुआ और कार्यकर्ता के रूप में तुम सुसमाचार का प्रचार न कर सको, गवाही न दे सको या दर्शनों के बारे में सत्य पर लोगों के साथ संगति न कर सको, तो तुम क्या कर सकते हो? तुम्हारी जिम्मेदारियाँ क्या हैं? क्या तुमने उन्हें निभाया है? क्या तुम अपने पास पहले से जो कुछ है उसी पर गुजारा कर रहे हो? तुम्हारे पास आखिर क्या है? तुम्हारे पास पहले से जो है उसी पर गुजारा करने का अधिकार तुम्हें किसने दिया? कुछ सुसमाचार टीम पर्यवेक्षकों ने कभी भी दूसरों को सुसमाचार का प्रचार करते हुए न तो देखा है और न ही सुना है। वे सुनने की परवाह नहीं करते; उन्हें फर्क नहीं पड़ता, उन्हें यह काफी मुश्किल का काम लगता है और उनमें सब्र नहीं होता। क्या तुम्हें नहीं पता कि वे अगुआ हैं—अधिकारी हैं, कुछ कम नहीं—तो वे ये विशिष्ट कार्य नहीं करते; वे भाई-बहनों से ये काम करवाते हैं। मान लो कि कुछ सुसमाचार कार्यकर्ता संयोग से किसी ऊँची काबिलियत वाले व्यक्ति से मिलते हैं जो तमाम चीजों को ईमानदार नजरिये से देखता है और जो दर्शनों के बारे में कुछ विशिष्ट सत्यों को समझना चाहता है। सुसमाचार कार्यकर्ता पूरी स्पष्टता से संगति नहीं कर सकते, इसलिए वे अपने अगुआओं से यह करने को कहते हैं। अगुआओं को शब्द नहीं सूझते, वे यह कहकर बहानेबाजी करने लगते हैं, “मैंने यह कार्य कभी खुद नहीं किया। तुम लोग जाकर करो; मैं तुम लोगों का साथ दूँगा। अगर कोई समस्या खड़ी होगी, तो उन्हें दूर करने में मैं तुम्हारी मदद करूँगा; मैं तुम लोगों का साथ दूँगा। फिक्र मत करो। जब हमारे पास परमेश्वर है तो डरने की क्या जरूरत? जब कोई सच्चे मार्ग को खोजता है तो तुम लोग गवाही दे सकते हो या दर्शनों के सत्यों के बारे में संगति कर सकते हो। मैं सिर्फ जीवन प्रवेश के सत्यों पर संगति करने के लिए जिम्मेदार हूँ। गवाही देने का कार्य तुम लोगों के वहन करने के लिए भारी बोझ है, मेरे भरोसे मत रहो।” सुसमाचार का प्रचार करते समय हर बार जब गवाही देने का अहम वक्त आता है, तो वे छिप जाते हैं। वे पूरी तरह से अवगत हैं कि उनमें सत्य की कमी है, तो वे खुद को इससे लैस करने के लिए प्रयास क्यों नहीं करते? यह पूरी तरह जानते हुए कि उनमें सत्य की कमी है, वे हमेशा बेसब्र होकर अगुआ बनने का प्रयास क्यों करते हैं? उनमें कोई प्रतिभा नहीं है, फिर भी वे एक आधिकारिक पद लेने की हिम्मत करते हैं—अगर तुम उन्हें लेने दो तो वे सम्राट की भूमिका भी हाथ में ले सकते हैं—वे बेहद बेशर्म हैं! वे अगुआई के किसी भी स्तर पर हों, वे कोई वास्तविक कार्य नहीं कर सकते, फिर भी वे अंतरात्मा की पीड़ा महसूस किए बिना रुतबे के फायदों का आनंद लेने की हिम्मत करते हैं। क्या वे बेहद बेशर्म लोग नहीं हैं? अगर तुम्हें किसी विदेशी भाषा में बोलने को कहा जाता और तुम न बोल पाते, तो बात समझी जा सकती थी; लेकिन दर्शनों के सत्यों और परमेश्वर के इरादों पर अपनी देसी भाषा में संगति करना तो तुम्हारे लिए संभव होना चाहिए, है न? जिन लोगों को विश्वास रखते हुए सिर्फ तीन से पाँच वर्ष हुए हैं, अगर वे सत्य पर संगति न कर पाएँ तो उन्हें माफी दी जा सकती है। लेकिन कुछ लोगों को परमेश्वर पर विश्वास रखते हुए लगभग 20 वर्ष हो चुके हैं, फिर भी वे न जाने कैसे दर्शनों के सत्यों के बारे में संगति करने में सक्षम नहीं हैं—क्या ऐसे लोग बेकार व्यक्ति नहीं हैं? क्या वे निकम्मे नहीं हैं? मुझे यह सुनकर आश्चर्य होता है कि किसी ने कई वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखा है, फिर भी वह नहीं जानता कि दर्शनों के सत्यों के बारे में संगति कैसे करे। यह सुनने के बाद तुम लोगों को क्या महसूस होता है? क्या यह कल्पना से परे नहीं है? ये लोग इतने वर्षों से अपना कार्य कैसे करते रहे हैं? जब उनसे संगीत रचना के लिए मार्गदर्शन देने को कहा जाता है तो वे नहीं जानते कि कैसे मार्गदर्शन दें और वे कहते हैं कि यह विशेषज्ञता वाला क्षेत्र बहुत कठिन है और यह ऐसा क्षेत्र नहीं है जिसे कोई औसत व्यक्ति समझ सकता है। जब उनसे कलाकृतियों या फिल्म निर्माण के कार्य में मार्गदर्शन देने को कहा जाता है तो वे दावा करते हैं कि इन कामों को सँभालने के लिए उच्च स्तर के तकनीकी कौशल की जरूरत होती है। जब उनसे अनुभवजन्य गवाही के आलेख लिखने को कहा जाता है, तो वे कहते हैं कि उनका शिक्षा का स्तर बहुत निचला है और वे नहीं जानते कि इन्हें कैसे लिखना चाहिए और उन्होंने उसमें कभी भी प्रशिक्षण नहीं लिया है। अगर वे इस प्रकार के काम नहीं कर सकते तो यह क्षमायोग्य है, लेकिन सुसमाचार कार्य मूल रूप से उनके कर्तव्य का अंश है। वे इस कार्य से और अधिक अवगत नहीं हो सकते—क्या उनके लिए यह आसान नहीं होना चाहिए? दर्शनों के सत्यों के बारे में संगति करने का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है कार्य के तीन चरणों के सत्यों पर स्पष्ट रूप से संगति करना। शुरू में लोगों के पास यह करने का ज्यादा अनुभव नहीं होता और हो सकता है कि वे अच्छे ढंग से संगति न करें, लेकिन समय के साथ इसमें प्रशिक्षण लेकर वे जितनी ज्यादा संगति करते हैं उतने ही मंझ जाते हैं, इतने कि वे एक सधे हुए ढंग से, सटीक और स्पष्ट भाषा में और आकर्षक बोलों के साथ बोलने में सक्षम हो जाते हैं। क्या यह विशेष कार्य का विशिष्ट क्षेत्र नहीं है जिसमें अगुआओं को महारत हासिल करनी चाहिए? यह किसी मछली को जमीन पर रहने के लिए मजबूर करने जैसा नहीं है, है न? (नहीं, ऐसा नहीं है।) लेकिन ऐसे नकली अगुआ यह थोड़ा-सा कार्य करने में भी सक्षम नहीं होते हैं। और फिर भी वे अगुआओं के तौर पर सेवा करते हैं? अभी भी उस पद पर काबिज होकर वे क्या कर रहे हैं? कुछ लोग कहते हैं, “मैं ऐसा व्यक्ति हूँ जिसकी सोच भ्रमित और अस्पष्ट है, मुझमें तर्क का अभाव है और मैं दर्शनों से संबंधित सत्यों के बारे में बोलने में उतना अच्छा नहीं हूँ।” अगर यह स्थिति है तो क्या तुम सुसमाचार कार्य में होने वाली विभिन्न खामियों और विचलनों को पहचान कर उनका समाधान कर सकते हो? अगर तुम उन्हें पहचान नहीं सकते तो तुम उनका समाधान भी नहीं कर सकते। जब नकली अगुआ सुसमाचार कार्य के प्रभारी होते हैं तो वे जाँच या निरीक्षण में कोई भूमिका नहीं निभाते; वे अपने अधीनस्थ लोगों को जैसा चाहे वैसा करने देते हैं, ताकि कोई भी अपनी मर्जी का काम कर सके और वे जिसे भी चाहे उसे उपदेश दे सकें—इसमें कोई भी सिद्धांत या मानक लागू नहीं होता। कुछ लोग अपनी मर्जी के मुताबिक काम करते हैं, काम करते समय विवेक और सिद्धांतों का उपयोग नहीं करते और लापरवाही से गलत कर्म करते जाते हैं। नकली अगुआ इन मसलों को पकड़ने या पहचानने में बिल्कुल विफल होते हैं।
कहा जाता है कि दक्षिण अमेरिका और अफ्रीका में सुसमाचार कार्य के जरिये कुछ गरीब लोगों को अपने मत में शामिल कर लिया गया है। इन लोगों की कोई स्थिर आमदनी नहीं है और उनके सामने पर्याप्त भोजन पाने और जीवित रहने में भी समस्या खड़ी होती है। तो क्या किया जाना चाहिए? अगुआओं ने कहा, “परमेश्वर का इरादा मानवजाति को बचाने का है और बचाए जाने के लिए व्यक्ति के पास पहले खाने के लिए पर्याप्त होना चाहिए, है ना? तो क्या तब परमेश्वर के घर को राहत मुहैया नहीं करानी चाहिए? अगर वे परमेश्वर में विश्वास रखते हैं तो हम उन्हें परमेश्वर के वचनों की कुछ पुस्तकें बाँट सकते हैं। उनके पास कंप्यूटर या फोन नहीं हैं तो अगर वे कर्तव्य निभाने के बारे में पूछें तो हमें क्या करना चाहिए? थोड़ी पूछताछ करो, समझने की कोशिश करो कि क्या वे ईमानदारी से कर्तव्य निभाने को तैयार हैं।” पूछताछ से पता चला कि ये लोग फिलहाल धनहीन हैं, लेकिन अगर उनके पास पैसा हो और वे भरपेट खाना खा सकें तो वे बाहर जाकर सुसमाचार प्रचार करने और अपना कर्तव्य निभाने को तैयार होंगे। इन परिस्थितियों को समझने के बाद अगुआ राहत निधियाँ बाँटने लगे और हर महीने उन्हें पैसा जारी करने लगे। इन लोगों के लिए खाना और रहना और यहाँ तक कि इंटरनेट फीस, फोन, कंप्यूटरों और दूसरे उपकरणों की खरीदारी की कीमत भी परमेश्वर के घर के पैसे से दी जाने लगी। इन लोगों के बीच पैसे का बँटवारा सुसमाचार कार्य को फैलाने के लक्ष्य से नहीं था, बल्कि उनके जीवित रहने हेतु राहत देने के लिए था। क्या यह सिद्धांतों के अनुरूप था? (नहीं, यह नहीं था।) क्या परमेश्वर के घर में ऐसा कोई नियम है कि सुसमाचार प्रचार करने और आजीविका के साधन रहित गरीब लोगों से मिलने पर अगर वे कार्य के इस चरण को स्वीकार कर सकें तो उन्हें सहायता दी जानी चाहिए? क्या ऐसा कोई सिद्धांत है? (नहीं।) तो फिर इन अगुआओं ने किस सिद्धांत के आधार पर उन्हें राहत निधियाँ बाँटीं? क्या इसका कारण यह था कि उन्होंने सोचा कि परमेश्वर के घर के पास पैसा तो है पर खर्च करने का कोई स्थान नहीं है या क्योंकि उन्होंने इन लोगों को अत्यंत दयनीय माना या यह उम्मीद थी कि ये लोग सुसमाचार फैलाने में मदद करेंगे? वास्तव में उनका इरादा क्या था? वे क्या हासिल करना चाह रहे थे? फोन, कंप्यूटर और आजीविका का खर्च बाँटने की बात आने पर वे बहुत अधिक उत्साह दिखा रहे थे; उन्हें ऐसे कार्य में जुटने में आनंद आता था जिससे दूसरों को लाभ पहुँचे, क्योंकि इससे उन्हें इन लोगों को अपनी ओर करने और उनके दिल जीतने का मौका मिलता था, और वे ऐसे कामों में खास तौर पर शामिल होते थे, वे निरंतर और आगे बढ़ते जाते थे और उन्हें जरा भी शर्म नहीं आती थी। यह लोगों को अपनी ओर करने और उनका स्नेह खरीदने के लिए परमेश्वर के पैसे का उपयोग करना था। दरअसल ये गरीब व्यक्ति परमेश्वर में सच में विश्वास नहीं रखते थे; वे बस अपने पेट भरने और आजीविका कमाने का तरीका ढूँढ़ने की कोशिश कर रहे थे। ऐसे लोग सत्य या उद्धार प्राप्त करने की बाट नहीं जोह रहे थे। क्या परमेश्वर ऐसे लोगों को बचाएगा? कुछ लोग भले ही कोई कर्तव्य निभाने को तैयार थे, वे ईमानदार नहीं थे, बल्कि फोन और कंप्यूटरों और जीवन की सुख-सुविधाओं की कामना से प्रेरित थे। लेकिन नकली अगुआओं को इसकी परवाह नहीं थी; अगर कोई व्यक्ति कोई कर्तव्य निभाने को तैयार था, तो वह उसकी देखभाल करता था, न सिर्फ उसके घर-बार और खाने के लिए, बल्कि कंप्यूटर, फोन और विभिन्न उपकरण खरीदने के लिए भी पैसे देता था। लेकिन नतीजा यह निकला कि इन लोगों ने अपने कर्तव्य जरूर निभाए, मगर इनमें जरा भी बदलाव नहीं हुआ। क्या नकली अगुआ बस यों ही पैसे नहीं उड़ा रहे थे? क्या वह परमेश्वर के घर के पैसे का इस्तेमाल अपनी दरियादिली दिखाने के लिए नहीं कर रहा था? (हाँ।) तो क्या अगुआओं और कार्यकर्ताओं को यही कार्य करना चाहिए? (नहीं।) क्या ये नकली अगुआ नहीं थे? नकली अगुआ अच्छाई, परोपकार और दयालुता का दिखावा पसंद करते हैं। अगर तुम दयालुता दिखाना चाहते हो, तो अच्छी बात है, बस अपने पैसे का उपयोग करो! अगर उनके पास कपड़े नहीं हैं तो अपने कपड़े उतारकर उन्हें दे दो; परमेश्वर की भेंटें मत उड़ाओ! परमेश्वर की भेंटें सुसमाचार फैलाने के लिए हैं, कल्याणकारी लाभ बाँटने के लिए नहीं और गरीबों को मदद देने के लिए तो बिल्कुल भी नहीं है। परमेश्वर का घर कोई कल्याणकारी संस्था नहीं है। नकली अगुआ वास्तविक कार्य करने में अक्षम होते हैं और वे सत्य या जीवन की आपूर्ति करने में तो और भी कम सक्षम हैं। वे सिर्फ कल्याणकारी लाभ बाँटने के लिए परमेश्वर की भेंटों का उपयोग करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, ताकि लोगों को अपनी ओर कर सकें और अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा कायम रख सकें। वे बेशर्म फिजूलखर्च होते हैं, है ना? अगर ऐसे नकली अगुआ मिल जाएँ तो क्या कोई उन्हें समय रहते उजागर कर और रोक सकता है? उन्हें रोकने के लिए कोई भी खड़ा नहीं हुआ। अगर ऊपरवाले ने इस बात का पता लगाकर इसे रोका न होता तो लोगों को लाभ देने के लिए परमेश्वर के पैसे का उपयोग करने की परिपाटी कभी खत्म नहीं होती। वे गरीब लोग अपने हाथ और भी लंबे फैलाते रहते हैं, हमेशा और अधिक चाहते हैं। वे अतृप्य हैं; तुम चाहे कितना भी दे दो, यह कभी काफी नहीं होता। जो लोग ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, वे बचाए जाने की खातिर अपने कर्तव्य निभाने के लिए अपने परिवार और करियर पीछे छोड़ने में सक्षम होते हैं, और वे भले ही जीवन में कठिनाइयाँ झेलते हों तो भी परमेश्वर के घर से निरंतर चीजें माँगे बिना खुद इनका समाधान करने के तरीके ढूँढ़ सकते हैं। वे जिन चीजों का समाधान कर सकते हैं उनका समाधान खुद करते हैं और जिनके समाधान में वे असमर्थ होते हैं उनके लिए परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं और अनुभव करने के लिए अपनी आस्था पर भरोसा करते हैं। जो लोग हमेशा परमेश्वर से भीख माँगते हैं, यह उम्मीद करते हैं कि परमेश्वर का घर उनकी आजीविका का खर्च देकर उनका भरण-पोषण करेगा, उनमें विवेक का नितांत अभाव होता है! वे कोई भी कर्तव्य नहीं निभाना चाहते हैं, फिर भी जीवन का आनंद लेना चाहते हैं, वे सिर्फ परमेश्वर के घर से चीजें माँगने के लिए हाथ फैलाना जानते हैं और फिर भी यह कभी काफी नहीं होता। क्या वे भिखमंगे नहीं हैं? और नकली अगुआ—ये मूर्ख—बस लाभ देते रहे, रुके नहीं, लोगों का आभार पाने के लिए निरंतर उन्हें खुश करते रहे और यह भी सोचते रहे कि ऐसे क्रियाकलापों से परमेश्वर का महिमामंडन होता है। ये वे चीजें हैं जिन्हें करने में नकली अगुआओं को सबसे अधिक मजा आता है। तो क्या ऐसा कोई है जो इन मुद्दों को पहचान सके, जो इन समस्याओं के सार की असलियत जान सके? ज्यादातर अगुआ नजर फेर लेते हैं और सोचते हैं, “कुछ भी हो, मैं सुसमाचार कार्य का प्रभारी नहीं हूँ, मैं इन चीजों की परवाह क्यों करूँ? मेरा पैसा तो खर्च नहीं हो रहा है। अगर मेरी जेब सुरक्षित है, तो सब ठीक है। तुम लोग चाहे जिसे देना चाहो दे सकते हो, इसका मुझसे क्या लेना-देना? ऐसा तो है नहीं कि पैसा मेरी जेब में आ रहा हो।” ऐसे बहुत-से गैर-जिम्मेदार लोग आसपास होते हैं लेकिन कितने लोग परमेश्वर के घर के कार्य को कायम रख सकते हैं?
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