अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (28) खंड एक

मद चौदह : सभी प्रकार के बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों को तुरंत पहचानो और फिर बहिष्कृत या निष्कासित कर दो (भाग सात)

अगुआओं और कार्यकर्ताओं की चौदहवीं जिम्मेदारी है, “सभी प्रकार के बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों को तुरंत पहचानो और फिर बहिष्कृत या निष्कासित कर दो।” पिछली बार हमने विभिन्न प्रकार के बुरे लोगों को पहचानने की दूसरी कसौटी के बारे में संगति की थी, जो उनकी मानवता पर आधारित है, जिसमें तीन अभिव्यक्तियाँ शामिल हैं। ये तीन अभिव्यक्तियाँ पढ़ो। (आठवाँ, किसी भी समय विश्वासघात करने में सक्षम होना; नौवाँ, किसी भी समय छोड़ने में सक्षम होना; दसवाँ, ढुलमुल होना।) इन तीनों अभिव्यक्तियों के बारे में संगति करने के बाद क्या तुम इन्हें समझ गए हो? (हाँ।) जिन लोगों को ये समस्याएँ हैं उनमें से ज्यादातर लोगों में आम तौर पर सत्य समझने की क्षमता नहीं होती है; वे नहीं समझते हैं कि सत्य क्या है, ना ही वे यह समझते हैं कि परमेश्वर में विश्वास रखने का क्या अर्थ है। इसके अलावा, उनमें से कुछ लोग यह असलियत जान नहीं पाते हैं कि परमेश्वर में विश्वास रखने का क्या अर्थ है। उन्हें लगता है कि परमेश्वर में विश्वास रखना सिर्फ धार्मिक आस्था है और इसके लिए सिर्फ धार्मिक कर्मकांडों का पालन करना ही काफी है। वे परमेश्वर में विश्वास रखने का महत्व नहीं समझते हैं, और ना ही वे कर्तव्य करने का महत्व समझते हैं; वे अपने दिलों में इस बारे में भी अस्पष्ट हैं कि परमेश्वर का अस्तित्व है भी या नहीं और वे निश्चित नहीं हैं कि क्या परमेश्वर का अनुसरण करने का मार्ग सही है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि उन्होंने कितने वर्षों से विश्वास रखा है या उन्होंने कितने धर्मोपदेश सुने हैं, वे कभी भी सच्चे मार्ग में एक नींव स्थापित करने में समर्थ नहीं होते हैं। फलस्वरूप, वे ढुलमुल होते हैं और अगर कुछ ऐसा होता है जो उन्हें नाखुश कर देता है, तो वे किसी भी समय कलीसिया छोड़ सकते हैं या कलीसिया के साथ विश्वासघात भी कर सकते हैं। परमेश्वर के घर में इन कई प्रकार के लोगों से निपटने के लिए विशिष्ट सिद्धांत हैं। उनकी अलग-अलग परिस्थितियों के आधार पर उनसे निपटने और उनका समाधान करने के लिए विशिष्ट योजनाएँ हैं; जिन लोगों को निष्कासित कर देना चाहिए उन्हें निष्कासित किया जाएगा और जिन्हें बहिष्कृत कर देना चाहिए उन्हें बहिष्कृत किया जाएगा। भले ही इनमें से कुछ लोग बुरे लोग ना हों और वे मसीह-विरोधी तो बिल्कुल भी ना हों, लेकिन उनकी इन अभिव्यक्तियों की प्रकृति और परमेश्वर में विश्वास रखने के प्रति उनके रवैयों के आधार पर वे परमेश्वर के घर के लोग नहीं हैं और ना ही वे सच्चे भाई-बहन हैं। अगर वे कलीसिया में रह भी जाएँ, तो भी उनके लिए सत्य समझना बहुत कठिन होगा। उनके लिए सत्य समझना कठिन होने के क्या आशय हैं? इसका आशय यह है कि क्योंकि वे कभी भी परमेश्वर के वचन समझने में समर्थ नहीं होते हैं और कभी भी सत्य समझने में समर्थ नहीं होते हैं, इसलिए अंत में, वे उद्धार प्राप्त करने में विफल हो जाएँगे और परमेश्वर द्वारा प्राप्त किए जाने में विफल हो जाएँगे। यानी, अंत में वे परमेश्वर के घर के लोग नहीं बन सकते हैं, सच्चे सृजित प्राणी नहीं बन सकते हैं और सृजित प्राणियों का कर्तव्य पूरा नहीं कर सकते हैं और परमेश्वर के सामने नहीं लौट सकते हैं। साथ ही, वे अक्सर कलीसिया में नकारात्मक भूमिका निभाते हैं। वे ना सिर्फ सकारात्मक प्रभाव डालने में विफल रहते हैं, बल्कि वे समय-समय पर बाधाओं और विनाश का कारण भी बनते हैं, जिससे कुछ लोगों की दशाएँ प्रभावित होती हैं और अपना कर्तव्य करने वाले कुछ लोग परेशान हो जाते हैं। इसलिए, कलीसिया को अनुरूप उपाय करने चाहिए ताकि उन्हें सँभाला जा सके, चाहे ऐसा उन्हें छोड़ने के लिए राजी करके या उन्हें बहिष्कृत या निष्कासित करके ही क्यों न किया जाए। जो भी हो, उन्हें कलीसिया में गड़बड़ियाँ और बाधाएँ पैदा करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है।

विभिन्न प्रकार के बुरे लोगों को पहचानने के मानक और आधार

II. व्यक्ति की मानवता के आधार पर

ञ. ढुलमुल होना

जो लोग ढुलमुल होते हैं वे कभी भी यह पुष्टि करने में समर्थ नहीं होते हैं कि क्या सही मायने में परमेश्वर का अस्तित्व है और वे इस बात की पुष्टि करने में तो बिल्कुल भी समर्थ नहीं होते हैं कि वे जिस परमेश्वर में विश्वास रखते हैं क्या वही सच्चा परमेश्वर है। आज वे यहाँ तलाशना चाहते हैं और कल वे वहाँ जाकर चीजों की छान-बीन करना चाहते हैं, वे यह नहीं जानते हैं कि सच्चा मार्ग कौन-सा है, हमेशा प्रतीक्षा करके पता लगाने वाला रवैया रखते हैं। इस तरह के लोगों के मामले में उन्हें जल्दी से छोड़कर जाने के लिए राजी करो, उनसे कहो : “तुम कभी भी यह पुष्टि करने में समर्थ नहीं होते हो कि परमेश्वर का कार्य ही सच्चा मार्ग है और तुम अपनी कठिनाइयाँ हल करने के लिए सत्य की तलाश नहीं करते हो। इस तरह से विश्वास रखते रहने से क्या नतीजा मिल सकता है? चूँकि तुम्हें सत्य से प्रेम नहीं है और तुम्हें कलीसियाई जीवन जीने में आनंद नहीं आता है, इसलिए अपनी पसंद के आधार पर तुम्हें जहाँ भी दिलचस्पी हो वहीं चले जाना चाहिए। क्या तुम बाकी लोगों से ऊपर उठने और बड़ी सफलता हासिल करने का अनुसरण नहीं करना चाहते? तो तुम्हें बाहर दुनिया में जाकर इसके लिए प्रयास करना चाहिए। हो सकता है कि तुम अमीर आदमी या कोई अधिकारी बन सको और दुनिया में अपने सपने साकार कर सको। तुम्हें परमेश्वर के घर में अब और नहीं ठहरना चाहिए।” ऐसे लोगों के मामले में तुम्हें उन्हें रुकने के लिए किसी भी तरीके से मजबूर नहीं करना चाहिए या उनसे आग्रह करने का प्रयास नहीं करना चाहिए। अगर वे कलीसिया छोड़ना चाहते हैं तो उन्हें जाने दो। इन छद्म-विश्वासियों को लगातार प्रोत्साहन देना और उनसे रुकने का आग्रह करना परमेश्वर के इरादों के अनुरूप नहीं है। परमेश्वर का कार्य कभी भी लोगों को मजबूर नहीं करता है और जब तुम उन लोगों को घसीटते और खींचते रहते हो जो ढुलमुल हैं, तो इसमें मजबूर किए जाने का तत्व होता है। ये लोग कार्य करने, पैसे कमाने और एक अच्छा जीवन जीने या उन चीजों का अनुसरण करने के लिए बाहर जाना चाहते हैं जिन्हें वे व्यक्तिगत रूप से पसंद करते हैं। उनके हमेशा से यही इरादे रहे हैं और उनकी हमेशा से अपनी आकांक्षाएँ और योजनाएँ रही हैं। वैसे तो कोई भी यह नहीं जानता है, लेकिन उनके व्यवहार ने इसे पहले ही प्रकट कर दिया है। मिसाल के तौर पर, अपना कर्तव्य करते समय वे अक्सर अनमने रहते हैं या वे अक्सर भुलक्कड़, लापरवाह होते हैं और बस औपचारिकताएँ पूरी करते हैं। वे अक्सर अपना कर्तव्य करने में विशेष अनिच्छा दिखाते हैं, हमेशा ऐसा महसूस करते हैं जैसे वे हारते जा रहे हैं, सोचते हैं कि अपना कर्तव्य करना उन्हें पैसे कमाने से रोक रहा है। ऐसे लोगों को यह कहकर छोड़ने के लिए राजी करना चाहिए : “तुम हमेशा अपने कर्तव्य करने में अनमने और लापरवाह रहते हो और अंत में तुम सत्य प्राप्त करने में विफल रहोगे और परमेश्वर तुम्हें स्वीकार नहीं करेगा—वह कितना बड़ा नुकसान होगा! चूँकि तुम्हें सत्य में दिलचस्पी नहीं है, तुम परमेश्वर के अस्तित्व या उसकी संप्रभुता की पुष्टि करने में असमर्थ हो और सोचते हो कि दुनिया शानदार है, यह मानते हो कि अगर तुम दुनिया का अनुसरण करोगे, तो तुम बहुत ही सफल हो सकते हो और बाकी लोगों से ऊपर उठ सकते हो, इसलिए तुम्हारे लिए यही बेहतर होगा कि तुम दुनिया में वापस चले जाओ और वहाँ प्रयास करो। यहाँ यह कष्ट सहने का क्या फायदा?” विशेष रूप से, ये लोग अक्सर यह महसूस करते हैं कि उन्हें किसी विशेष क्षेत्र में निपुणता हासिल है, उनके पास कुछ कौशल और क्षमता है और वे मानते हैं कि अगर वे समाज या दुनिया की तरफ बढ़ें, तो वे शोहरत और दौलत दोनों ही हासिल कर सकते हैं, ऊँचे रुतबे और पारिश्रमिक का आनंद ले सकते हैं। लेकिन, परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करने और कुछ वर्षों तक दिशाहीन रहकर काम करने के बाद उन्हें कोई पदोन्नति नहीं मिली है या किसी महत्वपूर्ण पद के लिए नहीं चुना गया है। बाकी लोगों से बेहतर बनने में असमर्थ होने के कारण वे अपने दिलों में बहुत दुखी और बहुत अनिच्छुक महसूस करते हैं। वे परमेश्वर में विश्वास रखने के मार्ग पर चलने के अनिच्छुक हैं और अपना कर्तव्य करने के तो बिल्कुल भी इच्छुक नहीं हैं। उनका दिल हमेशा बेचैन रहता है और मन भटकता रहता है और वे सनकी और अस्थिर होते हैं। समय-समय पर वे सोचते हैं कि कैसे उनके सहपाठियों और दोस्तों ने बहुत अच्छी नौकरियाँ हासिल कर ली हैं, बहुत ऊँचे पदों पर बैठ गए हैं और दूसरों से बेहतर जीवन जी रहे हैं, जिससे उन्हें यह विशेष रूप से महसूस होता है कि परमेश्वर में विश्वास रखकर वे अपने साथ बहुत बड़ा अन्याय कर रहे हैं और सोचते हैं कि वे किसी काम के नहीं हैं, अयोग्य हैं और परमेश्वर में विश्वास रखने के कारण असफल व्यक्ति हैं, वे इतना अधिक शर्मिंदा महसूस करते हैं कि अपने माता-पिता और पूर्वजों का सामना तक नहीं कर सकते हैं। यह उन्हें और भी ज्यादा परेशान और अनिच्छुक बना देता है और उन्हें इस बात का बहुत ही बुरी तरह से पछतावा होता है कि आखिर उन्होंने परमेश्वर में विश्वास रखने का चुनाव किया ही क्यों! इसलिए फिर उनका मन और भी ज्यादा ढुलमुल होने लगता है। परमेश्वर में विश्वास रखने और अपना कर्तव्य करने के वर्षों में ना सिर्फ उनकी आस्था मजबूत नहीं हुई है, बल्कि उन्होंने वह शुरुआती उत्साह भी खो दिया है जो कभी उनमें हुआ करता था। तुम लोगों की राय में ऐसे लोगों को कैसे सँभालना चाहिए? (उन्हें छोड़ने के लिए राजी करना चाहिए।) अगर तुम उन्हें छोड़ने के लिए राजी करते हो, तो वे कह सकते हैं, “मैंने इतने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है, मैंने अपनी पढ़ाई, शादी और संभावनाएँ छोड़ दीं। अब तुम मुझे कलीसिया छोड़ने के लिए कह रहे हो—क्या इसका अर्थ यह नहीं है कि मैंने इन वर्षों में जो कष्ट सहे हैं वे सभी यूँ ही बेकार गए हैं? क्या इससे मैं भविष्य के किसी भी गंतव्य के बिना नहीं रह जाऊँगा? यह दोनों मोर्चों पर हार होगी। क्या यह आत्महत्या करने जैसा नहीं है?” क्या उन्हें कलीसिया छोड़ने के लिए राजी करना बहुत ही निर्दयी होना है? क्या ऐसा करना उचित है? (अव्वल तो ऐसे लोग कभी परमेश्वर में विश्वास ही नहीं रखना चाहते थे। उन्होंने सिर्फ आशीषें प्राप्त करने के लिए आँखों में धूल झोंककर कलीसिया में प्रवेश किया। जब वे देखते हैं कि कलीसिया हमेशा परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने और सत्य पर संगति करने पर केंद्रित रहती है, तो वे इन चीजों के प्रति विमुख महसूस करने लगते हैं और छोड़ना चाहते हैं। ऐसे लोगों को छोड़ने के लिए राजी करना चाहिए। वैसे तो तुम उन्हें पकड़कर रख सकते हो, लेकिन तुम उनके दिलों को पकड़कर नहीं रख सकते।) अगर वे अपना कर्तव्य थोड़ी ईमानदारी से करते हैं, लेकिन उनमें सत्य पर स्पष्टता नहीं है या वे थोड़े समय के लिए कुछ हद तक नकारात्मक और कमजोर हो जाते हैं क्योंकि वे बाधाओं और असफलताओं का सामना करते हैं या उनकी काट-छाँट की जाती है, तो इन मामलों में तुम उनकी मदद करने और उन्हें सहारा देने के लिए सत्य पर संगति कर सकते हो। लेकिन, मान लो कि उनकी कमजोरी कुछ समय के लिए नहीं है, बल्कि वे लगातार लापरवाह होते हैं और अपना कर्तव्य करने में औपचारिकताएँ पूरी करते हैं और इसे अनमने होकर करते हैं और वे बस इस बात से संतुष्ट हैं कि उन्हें वापस नहीं भेजा गया; और मान लो कि वे अपना कर्तव्य ईमानदारी या प्रेरणा के बिना करते हैं या इसे और सटीकता से कहें तो उनके पास अनुसरण करने के लिए कोई लक्ष्य नहीं है और वे बस दिन गुजार रहे हैं—अगर यह स्पष्ट हो जाता है कि वे इस प्रकार के व्यक्ति हैं, तो उन्हें छोड़ने के लिए राजी किया जा सकता है।

कुछ लोग छद्म-विश्वासी होते हैं। अगर तुम स्पष्ट रूप से देख पाते हो कि वे वास्तव में ऐसे लोग हैं जो सत्य से प्रेम नहीं करते हैं और यहाँ तक कि श्रम करने के भी अनिच्छुक हैं, तो उन्हें छोड़ने के लिए राजी करना चाहिए। उनकी मुख्य अभिव्यक्तियाँ यह हैं कि वे कभी परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ते हैं, कभी भजन नहीं सीखते हैं, कभी धर्मोपदेश नहीं सुनते हैं और कभी सत्य की संगति नहीं करते हैं या आत्म-ज्ञान के बारे में बात नहीं करते हैं। वे भाई-बहनों की अनुभवजन्य गवाहियाँ सुनना भी पसंद नहीं करते हैं। वे कभी परमेश्वर के घर द्वारा निर्मित फिल्में या भजन वीडियो या अनुभवजन्य गवाही वीडियो नहीं देखते हैं; अगर वे देखते भी हों, तो भी यह सिर्फ मनोरंजन के लिए या जिज्ञासावश देखते हैं, वे केवल अनिच्छा से थोड़ा-सा ही देखते हैं और यह पूरी तरह से उनके अपने जीवन प्रवेश के लिए किसी दायित्व की भावना से नहीं होता है, बल्कि वे सिर्फ मौज-मस्ती और रोमांच के लिए देखते हैं। वे अपना ज्यादातर समय क्या करने में बिताते हैं? फिजूल की बातें करना, गपशप करना या अपनी पसंद की चीजें देखने के लिए ऑनलाइन जाना। मिसाल के तौर पर, उनमें से कुछ लोगों को शेयर बाजार पसंद है और वे लगातार ऑनलाइन शेयर के रुझान देखते रहते हैं; कुछ लोगों को कार या इलेक्ट्रॉनिक उत्पाद पसंद हैं और वे हमेशा ऑनलाइन यह देखते रहते हैं कि किस ब्रांड ने बाजार में नए मॉडल उतारे हैं या कोई नई तकनीक विकसित की है; दूसरे लोगों को सेल्फ-मीडिया द्वारा निर्मित ऑनलाइन समाचार रिपोर्ट देखना पसंद है; और कुछ लोगों को सौंदर्य, प्रसाधन या स्वास्थ्य की देखभाल पसंद है और वे अक्सर सौंदर्य, स्वास्थ्य की देखभाल या अच्छा स्वास्थ्य बनाए रखने और लंबा जीवन हासिल करने के तरीकों के बारे में ऑनलाइन पढ़ते रहते हैं। इन लोगों को उन विभिन्न सत्यों में कोई दिलचस्पी नहीं है जिनमें विश्वासियों को अपने बचाए जाने के लिए प्रवेश करने की जरूरत है या उन्हें भाई-बहनों की अनुभवजन्य गवाहियों में कोई दिलचस्पी नहीं है। अनिच्छा से थोड़ा-सा कर्तव्य करने के अलावा वे और प्रकार से हमेशा अविश्वासी दुनिया की बदलती परिस्थिति पर और दुनिया में चल रहे नए रुझानों और महत्वपूर्ण समाचार पर और अपने देश में हो रही घटनाओं पर ध्यान केंद्रित करते हैं। वे बस इस तरह की जानकारी देखते हैं। हर समय इन चीजों को देखते रहने के कारण उनके दिल सिर्फ ऐसे मामलों से भरे रहते हैं और वे उन सत्यों को पूरी तरह से अनदेखा कर देते हैं जिन्हें उन्हें परमेश्वर में विश्वासियों के रूप में समझना चाहिए। उनके साथ चाहे कोई भी संगति क्यों ना करे, वे इसे स्वीकार नहीं पाते हैं। वे जीवन प्रवेश से संबंधित मामलों में ना तो दिलचस्पी रखते हैं और ना ही उनके बारे में चिंतित रहते हैं, जैसे कि अपना कर्तव्य करते समय उन्हें किन सिद्धांतों का पालन करना चाहिए, वे कौन-से भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं और अपना कर्तव्य करते समय उनके सामने कौन-सी समस्याएँ मौजूद रहती हैं और लोगों के लिए परमेश्वर की विभिन्न अपेक्षाओं में से वे कौन-सी अपेक्षाएँ पूरी कर चुके हैं और कौन-सी नहीं। वैसे तो वे अपना कर्तव्य करते हैं, लेकिन वे सिर्फ औपचारिकताएँ पूरी करते हैं, सत्य सिद्धांतों की रत्ती भर भी तलाश नहीं करते हैं। ऐसे लोग भले ही यह दावा करते हैं कि वे परमेश्वर में विश्वासी हैं, लेकिन वे अंदर से पैसा, रुतबा और अविश्वासी दुनिया के रुझान पसंद करते हैं और इन्हीं चीजों पर ध्यान केंद्रित करते हैं और उन लोगों से जुड़ना पसंद करते हैं जो अविश्वासी दुनिया के रुझानों का अनुसरण करते हैं। अविश्वासी दुनिया के मामलों के बारे में वे बड़े जोश और अथक उत्साह से बोलते हैं, वाक्पटुता से बात करते हैं और इस बारे में लगातार बोलते ही रहते हैं, लेकिन जब वे उन लोगों से मिलते हैं जिन्हें सत्य के बारे में संगति करना पसंद है, तो उनके पास कहने के लिए कुछ नहीं होता है। किसी भाई या बहन के यह कहने पर, “एक बहुत ही सुंदर भजन है, मैंने उसके सारे बोल याद कर लिए हैं,” वे सतही रूप से कहते हैं, “तुमने इसे याद कर लिया है। यह अच्छी बात है।” किसी भाई या बहन के यह कहने पर, “अमुक बहन की अनुभवजन्य गवाही वाकई अच्छी है!” वे कहते हैं, “अब तो इतने सारे अनुभवजन्य गवाही वीडियो आ गए हैं, कौन-सा अच्छा नहीं है? वे सभी बहुत अच्छे हैं।” वे बस इसी सतही तरीके से उत्तर देते हैं; दरअसल, उन्हें सत्य में कोई दिलचस्पी नहीं है और वे भाई-बहनों के साथ किसी भी समान भाषा में बात नहीं करते हैं। जब कोई उनसे पूछता है, “क्या तुम परिस्थितियों का सामना करने पर प्रार्थना करते हो?”, तो वे जवाब देते हैं, “कैसे प्रार्थना करें? किस बारे में प्रार्थना करें?” वे प्रार्थना नहीं करते हैं और ना ही उनके पास परमेश्वर से कहने के लिए कुछ होता है। इन लोगों को परमेश्वर में विश्वास रखने से संबंधित किसी भी चीज में कोई दिलचस्पी नहीं होती है और उनके दिल अविश्वासी दुनिया की सभी प्रकार की चीजों से भरे हुए हैं। तुम लोग क्या सोचते हो—क्या ऐसे लोगों में कोई समस्या है? (हाँ, है।) अगर तुम देखते हो कि वे अपना कर्तव्य करने में हमेशा अनमने रहते हैं और जब उन्हें कोई कार्य सौंपा जाता है, तो वे बहुत बेसब्र हो जाते हैं, जैसे ही उन्हें थोड़ा-सा भी कष्ट सहना पड़ता है, वे शिकायत करने लगते हैं और परमेश्वर में विश्वास रखने के कुछ वर्षों बाद वे अक्सर इस तरह के विचार प्रकट करते हैं, जैसे कि “मैंने परमेश्वर में विश्वास रखकर बहुत कुछ खो दिया है। अगर मैंने परमेश्वर में विश्वास नहीं रखा होता, तो अब तक मेरा वेतन अमुक राशि तक बढ़ गया होता और मैं अमुक रुतबा और अमुक आलीशान जीवनशैली का आनंद ले पाता,” तो ऐसे लोगों से कैसे निपटना चाहिए? (उन्हें छोड़ने के लिए राजी करना चाहिए।) ऐसे लोगों को बस छोड़ने के लिए राजी करो और उनसे अब कोई कर्तव्य करने के लिए मत कहो क्योंकि वे श्रम करने को भी तैयार नहीं हैं। उन्हें लगता है कि एक विश्वासी के रूप में सिर्फ सभाओं में भाग लेना ही सहनीय है, लेकिन अपना कर्तव्य करना और परमेश्वर का अनुसरण करना उनके महान उपक्रमों के रास्ते में आता है। उन्हें लगता है कि अपना कर्तव्य करना और परमेश्वर का अनुसरण करना उनकी खुशहाली के मार्ग में एक बड़ी बाधा है। वे यह मानते हैं कि अगर वे अपना कर्तव्य नहीं कर रहे होते, तो वे पहले ही बाकी लोगों से ऊँचा उठ चुके होते, उच्च-पदस्थ अधिकारी बन चुके होते और दुनिया में बहुत सारे पैसे कमा रहे होते। तो हम उन्हें क्यों रोककर रखें? इसलिए, उन्हें छोड़ने के लिए राजी करना सभी के लिए अच्छा है। उन्हें रहने के लिए मजबूर करना या इसके लिए उनसे आग्रह करना बहुत बड़ी गलती होगी। तुम्हें ऐसे लोगों को इस तरह से राजी करना चाहिए : “तुमने परमेश्वर में विश्वास रखना क्यों चुना? अगर तुम्हें सत्य में दिलचस्पी नहीं है और परमेश्वर के बारे में तुम हमेशा संदेह से भरे रहते हो, तो क्या तुम कभी सत्य प्राप्त कर पाओगे? तुम विचारों, डिप्लोमा और प्रतिभा वाले व्यक्ति हो—अगर तुम दुनिया में कड़ी मेहनत कर रहे होते, तो तुम यकीनन किसी कंपनी के प्रेसिडेंट या सीईओ बन सकते थे या करोड़पति या अरबपति बन सकते थे। पहली बात, परमेश्वर के घर में बस इस तरह से भटककर तुम बाकी लोगों से ऊँचा नहीं उठ सकते; दूसरी बात, तुम बड़ी सफलता हासिल नहीं कर सकते; और अंत में, तुम अपने पूर्वजों को गौरव नहीं दिला सकते। इसके अलावा, अपना कर्तव्य करते समय तुम हमेशा लापरवाह होते हो जिसके कारण तुम्हारी काट-छाँट की जाती है जिससे तुम हर समय हताश रहते हो। यह दुःख सहना ही क्यों है? तुम्हें बाहर दुनिया में चले जाना चाहिए, चाहे राजनीति में जाओ या कारोबार में, और यकीनन तुम्हें अपने लिए एक निश्चित स्तर की सफलता हासिल होगी। तुम हमसे अलग हो : तुम्हारे पास डिप्लोमा और प्रतिभा दोनों हैं और तुम एक कुलीन व्यक्ति हो—क्या हम जैसे साधारण लोगों के साथ रहकर परमेश्वर में विश्वास रखना तुम्हारी शान के खिलाफ नहीं है? जैसा कि अविश्वासी लोग अक्सर कहते हैं, ‘दुनिया तुम्हारी मुट्ठी में है’—तुम्हें इस तथ्य का फायदा उठाना चाहिए कि दुनिया में कुछ शोहरत, फायदे और रुतबे का अनुसरण करने के लिए अब भी समय बचा है, इस मौके का तुम्हें फायदा उठाना चाहिए। यहाँ रहकर अपने साथ अन्याय मत करो।” क्या उन्हें राजी करने का यह उचित तरीका है? ये शब्द काफी उचित हैं, है ना? (हाँ।) इससे उन्हें ठेस नहीं पहुँचती और वही बात कही जाती है जो वे सुनना चाहते हैं। मुझे लगता है कि यह तरीका उचित है, इससे उनके लिए यह सलाह स्वीकारना आसान हो जाता है और वे बिना किसी चिंता के बेधड़क छोड़कर जा सकते हैं। इस तरह के लोगों से निपटते समय अगर तुम्हें यकीन है कि वे छद्म-विश्वासी हैं और तुम देखते हो कि उनमें परमेश्वर में विश्वास रखने के बारे में बिल्कुल भी उत्साह नहीं है, वे अपना कर्तव्य करने में कभी ईमानदार नहीं होते हैं और उन्होंने कभी कोई जीवन प्रवेश प्राप्त नहीं किया है—ना ही लंबे समय में उनका इसे प्राप्त करने की संभावना है—तो उन्हें छोड़ने के लिए राजी करना चाहिए। अगर तुम उन्हें छोड़ने के लिए राजी नहीं करते हो, तो वे अपना कर्तव्य करने में हमेशा लापरवाह और उदासीन रवैया रखेंगे और ऐसा समय भी आ सकता है जब उनके कारण कोई बड़ी आपदा आ जाए।

ट. कायर और संदेही होना

हमने दसवीं अभिव्यक्ति—ढुलमुल होना—के बारे में संगति पूरी कर ली है। अब चलो हम ग्यारहवीं अभिव्यक्ति—कायर और संदेही होना—पर एक नजर डालें। कायर लोगों की अभिव्यक्तियाँ क्या हैं? (कायर लोग गिरफ्तारी और उत्पीड़न का सामना करते समय डरने लगते हैं। वे अपना कर्तव्य करना तो चाहते हैं, लेकिन हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं।) यह सिर्फ एक छोटा सा पहलू है। मुख्य मुद्दा यह है कि परमेश्वर में विश्वास रखने के बारे में उनका एक दृष्टिकोण है : उन्हें हमेशा यही लगता है कि परमेश्वर में विश्वास रखने वाले इस दुनिया में अनुपयुक्त लगते हैं; उन्हें लगता है कि परमेश्वर में उनका विश्वास शर्मनाक है। विशेष रूप से कुछ सत्तावादी देशों या धार्मिक स्वतंत्रता से रहित देशों में, जहाँ परमेश्वर में विश्वास रखने वाले ना सिर्फ कानून द्वारा असंरक्षित होते हैं, बल्कि उनका उत्पीड़न भी किया जाता है, वहाँ कुछ लोग यह स्वीकारने की हिम्मत ही नहीं करते हैं कि वे परमेश्वर में विश्वास रखते हैं और डरते हैं कि दूसरों को इसका पता चल जाएगा। उन्हें लगता है कि परमेश्वर में विश्वास रखना कोई ईमानदार और सम्मानजनक बात नहीं है। वैसे तो वे जानते हैं कि वे सच्चे परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, लेकिन उन्हें इसमें कोई सम्मान महसूस नहीं होता है, ना ही उनमें आत्मविश्वास होता है। जब किसी परेशानी का संकेत मिलता है या जब वे सरकार को विश्वासियों को गिरफ्तार करते, सताते, दमन करते और बहिष्कृत करते देखते हैं, तो वे विशेष रूप से चिंतित हो जाते हैं कि उन्हें फँसाया जा सकता है। ऐसी परिस्थितियों में कुछ लोग जल्दी से खुद को कलीसिया से अलग कर लेते हैं, यहाँ तक कि जल्दी से परमेश्वर के घर किताबें लौटाने चले जाते हैं। दूसरे लोग गिरफ्तार किए जाने के डर से अब सभाओं में शामिल होने की हिम्मत नहीं करते हैं और भाई-बहनों से मिलने पर उनका अभिवादन करने की हिम्मत नहीं करते हैं। विशेष रूप से जो लोग अपने विश्वास के लिए अपेक्षाकृत मशहूर हैं या जिन्हें पहले गिरफ्तार किया जा चुका है, इन लोगों से तो वे बातचीत करने की हिम्मत नहीं करते हैं—वे इस हद तक कायर होते हैं। इससे भी बदतर यह सुनने पर होता है कि सरकार ने बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियाँ शुरू कर दी है, वे खुद ही आगे बढ़कर जल्दी से अधिकारियों के पास यह स्वीकारने चले जाते हैं कि वे पहले परमेश्वर में विश्वास रखते थे और जानते हैं कि कौन से लोग विश्वास रखते हैं, वे खुद ही आगे बढ़कर उनके साथ विश्वासघात करते हैं और नरमी बरते जाने के बदले में परमेश्वर के वचनों की किताबें और परमेश्वर में विश्वास से संबंधित दूसरी सामग्री अधिकारियों को सौंप देते हैं जिसका एकमात्र उद्देश्य अपना बचाव करना होता है। मुझे बताओ, क्या ये कायर होने की अभिव्यक्तियाँ नहीं हैं? (हाँ।) विशेष रूप से कुछ लोग परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद हमेशा इस बात से डरते हैं कि दूसरों को उनकी आस्था के बारे में पता चल जाएगा और वे इस बात से और ज्यादा डरते हैं कि अगर कोई गिरफ्तार हो गया, तो उनके साथ विश्वासघात किया जाएगा। जैसे ही किसी को पता चलता है कि वे परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, वे जल्दी से उसे यह समझाने चले जाते हैं कि वे अब विश्वास नहीं रखते हैं, यहाँ तक कि अविश्वासियों को उनके विश्वासी होने का संदेह करना बंद करवाने के लिए जल्दी से चीजें करने लगते हैं। मिसाल के तौर पर, वे अविश्वासियों के साथ संबंधों को मजबूत करते हैं, उनके साथ खाना खाते हैं, जश्न मनाते हैं, जुआ खेलते हैं, शराब पीते हैं, वगैरह-वगैरह। जरा-सी भी परेशानी का संकेत मिलने पर वे सभाओं में शामिल होने की हिम्मत नहीं करते हैं और अब अपना कर्तव्य नहीं करते हैं, उन सभी लोगों को अनदेखा कर देते हैं जो उनसे संपर्क करने का प्रयास करते हैं। जब सब कुछ शांतिपूर्ण होता है, तो वे सोचते हैं कि कैसे परमेश्वर में विश्वास रखने से आशीषें मिलती हैं, व्यक्ति मृत्यु से बच सकता है, स्वर्ग जा सकता है और एक अच्छा गंतव्य प्राप्त कर सकता है—तब वे परमेश्वर में विश्वास रखने के लिए ऊर्जा से भरे होते हैं। लेकिन जैसे ही वे किसी ऐसे परिवेश का सामना करते हैं जो थोड़ा खतरनाक होता है, वे बिना कोई सुराग छोड़े छूमंतर हो जाते हैं। फिर जब परिस्थिति गुजर जाती है और सब कुछ फिर से शांत हो जाता है, तो वे वापस आ जाते हैं। इस तरह का व्यक्ति अक्सर अचानक गायब हो जाता है। उसे सौंपा गया कर्तव्य चाहे कितना भी महत्वपूर्ण क्यों ना हो, जैसे ही जरा-सा खतरा उत्पन्न होता है, वह कार्य जारी रखने की कोई भी व्यवस्था किए बिना ही तुरंत उसे छोड़ सकता है और उसके बाद कोई भी उससे संपर्क नहीं कर पाता है। जब दूसरे लोगों को इसी तरह के किसी खतरनाक हालात का सामना करना पड़ता है, तो वे इसके बाद की स्थिति को सही तरीके से सँभालने के लिए सभी तरह के तरीके सोच पाते हैं। अगर फिलहाल हालात बहुत ज्यादा प्रतिकूल है और गिरफ्तारी का जोखिम ज्यादा है, तो वे कार्य जारी रखने से पहले खतरा टल जाने की प्रतीक्षा करते हैं। अगर वे विश्वासियों के रूप में बहुत मशहूर हैं और कार्य करने के लिए अपना चेहरा दिखाने पर उन्हें आसानी से गिरफ्तार किया जा सकता है, तो वे किसी और से इसे करवाने की व्यवस्था करते हैं। लेकिन जब इन कायर लोगों को जरा-सी भी परेशानी का आभास होता है, तो वे छिपने की हड़बड़ी मचाते हैं और अपने सिर छिपाने और खुद को बचाने के लिए हाथ-पैर मारने लगते हैं, कलीसिया के कार्य और संपत्ति को पूरी तरह से नजरअंदाज कर देते हैं और उनकी अवहेलना करते हैं, कलीसिया के कार्य को बचाने या भाई-बहनों की रक्षा करने का कोई प्रयास नहीं करते हैं। परमेश्वर में अपने विश्वास में उन्हें सबसे ज्यादा किस बात का डर होता है? पहली बात, वे डरते हैं कि सरकार को उनके विश्वास के बारे में पता चल जाएगा। दूसरी बात, वे डरते हैं कि उनके पड़ोसी जान जाएँगे। तीसरी बात, उन्हें गिरफ्तार होने और जेल में बंद किए जाने या पीट-पीटकर मार डाले जाने का सबसे ज्यादा डर होता है। इसलिए, जब भी कुछ होता है, तो सबसे पहले वे इसी बारे में सोचते हैं कि क्या उन्हें गिरफ्तार किया जा सकता है या क्या उन्हें मार डाला जा सकता है। अगर इनमें से किसी के होने की 1% भी संभावना हो, तो वे भागने का कोई ना कोई रास्ता निकाल ही लेंगे। मिसाल के तौर पर, सभा के दौरान हो सकता है कोई भाई या बहन यह कहे, “यहाँ आते समय मैंने पास में किसी को देखा जो अजनबी लग रहा था। क्या यह हो सकता है कि कोई अविश्वासी हम पर नजर रखे हुए है?” सिर्फ यह टिप्पणी सुनकर ही कायर लोग अगली सभा में शामिल नहीं होंगे और सभी से संपर्क तोड़ देंगे। क्या तुम इसे सावधान रहना कहोगे? (यह सामान्य सावधानी नहीं है, यह कायरता है—उनके दिलों में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं है।) यह सावधानी को चरम सीमा तक ले जाना है। जिन देशों या क्षेत्रों में हालात विशेष रूप से प्रतिकूल है, वहाँ यह सच है कि विश्वासियों को सावधान रहना चाहिए, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि उन्हें गिरफ्तार होने के डर से अपना कर्तव्य करना या सभाओं में शामिल होना बंद कर देना चाहिए, इतना सावधान हो जाना चाहिए कि उनके दिलों में परमेश्वर के लिए कोई जगह ही ना रहे। सावधान रहने के लिए कायर लोगों का सिद्धांत क्या है? चाहे कुछ भी हो जाए—घटना बड़ी हो या छोटी—वे यह बिल्कुल भी नहीं मानते हैं कि सब कुछ परमेश्वर के हाथ में है। उन्हें लगता है कि कोई भी भरोसेमंद नहीं है और वे अपनी रक्षा करने के लिए खुद पर भरोसा करते हैं। यही उनका सिद्धांत है। वे यह नहीं मानते हैं कि सब कुछ परमेश्वर के हाथ में है; सभी चीजें परमेश्वर द्वारा आयोजित और व्यवस्थित हैं; अगर कुछ सही मायने में होता है, तो यह परमेश्वर की अनुमति से होता है और अगर परमेश्वर की अनुमति नहीं है, तो किसी को भी गिरफ्तार नहीं किया जाएगा। उन्हें इस संबंध में बिल्कुल भी आस्था नहीं है। इसके बजाय, उनके दिलों में सिर्फ कायरता भरी हुई है। इसके अलावा, उनकी कायरता में एक घातक दोष है और यह उनके बारे में सबसे घिनौनी बात भी है : अपनी रक्षा करने और ऐसे हर हालात से निपटने के लिए, जो उन्हें दब्बू महसूस करवाता है, वे उस चीज का अनुसरण करते हैं जिसे वे अपनी “सर्वोच्च बुद्धि” के रूप में देखते हैं, जो यह है कि चाहे कुछ भी हो जाए—चाहे उन पर नजर रखी जा रही हो या उन्हें गिरफ्तार करके जेल में डाला जा रहा हो—एक बार जब कोई गड़बड़ी हो जाती है और उनकी सुरक्षा को खतरा होता है, एक तो वे इस बात से इनकार कर देते हैं कि वे परमेश्वर में विश्वास रखते हैं और दूसरा, वे बिना कुछ भी छिपाए जो कुछ भी जानते हैं वह सब उगल देते हैं। वे ऐसा क्यों करते हैं? बस खुद को शारीरिक कष्ट से बचाने के लिए; इस प्रकार, वे जो कुछ भी जानते हैं उसे प्रकट कर देते हैं। सबसे पहले, वे कलीसिया अगुआओं के साथ विश्वासघात करते हैं और यह भी खुलासा कर देते हैं कि जिला अगुआ और क्षेत्रीय अगुआ कौन हैं और वे कहाँ रहते हैं, वे अपने पास मौजूद सारी जानकारी का खुलासा कर देते हैं। यहाँ तक कि वे यातना दिए जाने से पहले ही सब कुछ उगल देते हैं। इसके अलावा, अगर उनसे “तीन कथनों” पर हस्ताक्षर करने के लिए कहा जाता है तो वे बेहिचक तुरंत हस्ताक्षर कर देते हैं—जैसे वे इसके लिए हमेशा से तैयार बैठे थे। ऐसा इसलिए है ताकि वे जेल में डाले जाने से बच सकें, यातना से बच सकें और मृत्यु के किसी भी खतरे से दूर रह सकें। वे इतने ज्यादा कायर होते हैं। वे ना तो परमेश्वर की संप्रभुता पर विश्वास करते हैं और ना ही वे अपनी जान जोखिम में डालने में समर्थ होते हैं। बल्कि वे अपनी रक्षा करने के लिए हर संभव तरीके के बारे में सोचते हैं। उनके लिए सबसे अच्छा तरीका है दूसरे लोगों और कलीसिया के साथ विश्वासघात करना—यह सबसे प्रभावी तरीका है। वे दूसरों के प्रति विश्वासघात का उपयोग अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करने और किसी भी यंत्रणा से बचने की कीमत के रूप में करते हैं। यह कुछ ऐसा है जिसकी योजना उन्होंने बहुत पहले से बना ली थी—यह उनकी “सर्वोच्च बुद्धि” है। मुझे बताओ, क्या इस तरह के व्यक्ति की कायरता सामान्य कायरता है? (नहीं।) तो फिर यहाँ समस्या क्या है? (वे इतने कायर हैं कि वे यहूदा बन जाते हैं, किसी भी समय और किसी भी जगह भाई-बहनों और कलीसिया के साथ विश्वासघात करने को तैयार रहते हैं। ऐसे लोग सच्चे विश्वासी नहीं होते हैं।) चलो हम अभी के लिए इस बात को एक तरफ रख दें कि वे सच्चे विश्वासी हैं या झूठे विश्वासी। बस उनकी मानवता देखो—वे सोचते हैं कि परमेश्वर में विश्वास रखना एक ईमानदार और सम्मानजनक बात होने के बजाय कुछ गुप्त और शर्मनाक बात है और वे परमेश्वर में विश्वास रखने के मामले को, जो इतनी ईमानदार, सम्मानजनक और सकारात्मक चीज है, नकारात्मक चीज मानते हैं—तुम्हारे विचार से वे किस तरह के लोग हैं? (वे भ्रमित लोग हैं, जो अपेक्षाकृत दुष्ट होते हैं।) चीजों पर उनका परिप्रेक्ष्य और उन्हें समझने का उनका तरीका सामान्य लोगों से अलग होता है। कभी-कभी वे सच को झूठ भी कह सकते हैं, सही और गलत में भेद करने में असमर्थ होते हैं। यह कैसे संभव है कि परमेश्वर में विश्वास रखने वाले लोग जानबूझकर गुप्त हो सकते हैं? ऐसा इसलिए है क्योंकि यह दुनिया बहुत ही बुरी है—कानून धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा नहीं करता है और इससे भी ज्यादा हद तक शैतानी शासन परमेश्वर से नफरत करता है और परमेश्वर के कार्य को शत्रुतापूर्ण नजरों से देखता है। यह सकारात्मक चीजों को अस्तित्व में नहीं रहने देता है और परमेश्वर में विश्वास रखने वालों को सताने के लिए किसी भी हद तक जाता है। इसलिए, ऐसे सामाजिक हालात में विश्वासियों के पास सभाएँ करते और अपना कर्तव्य करते समय सावधानी से कार्य करने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं होता है; वे इसे खुलेआम करने की हिम्मत नहीं करते हैं। बाहर से ऐसा लग सकता है कि वे चोरों की तरह गुप्त बन रहे हैं, लेकिन वास्तव में यह पूरी तरह से सताए जाने के संदर्भ के कारण है, है ना? (हाँ।) तो बड़ा लाल अजगर परमेश्वर में विश्वास रखने और व्यक्ति द्वारा अपना कर्तव्य करने के क्रियाकलापों का वर्णन कैसे करता है? “संदिग्ध व्यवहार” के रूप में। क्या यह संदिग्ध व्यवहार है? (नहीं।) यह संदिग्ध व्यवहार नहीं है—यह कुछ ऐसा है जो लोग इसलिए करते हैं क्योंकि उनके पास कोई और विकल्प नहीं होता है। क्या इन लोगों ने कोई गैर-कानूनी कार्य किया है? (नहीं।) उन्होंने कोई गैर-कानूनी कार्य नहीं किया है या सरकार का विरोध करने के लिए कुछ नहीं किया है, उन्होंने कानून तो बिल्कुल नहीं तोड़ा है या सार्वजनिक व्यवस्था को बिल्कुल भी अस्त-व्यस्त नहीं किया है। फिर ये लोग क्या कर रहे हैं? वे बस सृजित प्राणियों का कर्तव्य कर रहे हैं। यह कार्य दुनिया का सबसे मूल्यवान, सार्थक और न्यायोचित उपक्रम है। लेकिन, क्योंकि यह दुनिया बुरी और अँधेरी है और सच को झूठ घोषित करती है, इसलिए यह सबसे न्यायोचित, मूल्यवान और सार्थक उपक्रम को “संदिग्ध” कहती है। यह शैतान की व्याख्या है। क्या शैतान की व्याख्या ही सत्य है? क्या यह सकारात्मक है? (नहीं।) यह यकीनन ऐसा नहीं है। लेकिन, जब कायर लोग यह व्याख्या सुनते हैं, तो वे ना सिर्फ अपने दिलों में इससे पूरी तरह से सहमत होते हैं, बल्कि वे शैतान की इस व्याख्या को स्वीकार भी करते हैं। फलस्वरूप, वे भी यही सोचते हैं कि परमेश्वर में विश्वास रखना और गुप्त रूप से अपना कर्तव्य करना अनुचित है और यह गलत ही होगा। वे हमेशा डरते हैं कि एक दिन उन्हें भी समाज और सरकार द्वारा सताया जाएगा, उनके बचाव में बहस करने के लिए कोई जगह नहीं होगी और उनकी मदद करने या उन्हें बचाने के लिए कोई नहीं होगा। इस प्रकार, वे इस बात से विशेष रूप से डरते हैं कि लोगों को परमेश्वर में उनके विश्वास के बारे में पता चल जाएगा। वे अपने दिलों में यह स्वीकार नहीं करते हैं कि परमेश्वर ने जो वचन व्यक्त किए हैं वे ही सत्य हैं या परमेश्वर लोगों को जिस मार्ग पर ले जाता है वही सही मार्ग है, फिर भी वे परमेश्वर से आशीषें प्राप्त करना चाहते हैं। क्या यह विरोधाभासी नहीं है? अंत में, वे ऐसे परिवेश में परमेश्वर में विश्वास रखने और ये कष्ट सहने के कारण ऐसा महसूस करते हैं कि उनके साथ अन्याय हुआ है। वे ऐसा क्यों महसूस करते हैं कि उनके साथ अन्याय हुआ है? क्योंकि वे इस दुनिया के दुष्ट शासन से और राक्षसों और शैतान की बुरी शक्तियों से बहुत अधिक डरते हैं; वे हमेशा इस बात से डरते हैं कि राक्षस और शैतान उन्हें सताएँगे और उनकी जान ले लेंगे। चूँकि परमेश्वर में उनकी कोई वास्तविक आस्था नहीं होती है, इसलिए वे विशेष रूप से कायरतापूर्ण ढंग से काम करते हैं, यहाँ तक कि अपना कर्तव्य करना ही छोड़ देते हैं। अगर बिल्कुल भी कोई खतरा ना हो, तो वे सभाओं में शामिल होंगे या भाई-बहनों से बातचीत करेंगे या कलीसिया के लिए कुछ चीजें करेंगे, लेकिन वे यह बात मानने की हिम्मत ही नहीं करते हैं कि वे परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, वे कलीसिया का हिस्सा हैं या परमेश्वर की गवाही देने या अपना कर्तव्य करने के लिए खड़े होते हैं—वे बहुत अधिक भयभीत रहते हैं। उनकी परमेश्वर में सच्ची आस्था बिल्कुल नहीं है, फिर भी वे परमेश्वर से आशीषें और एक अच्छा गंतव्य प्राप्त करना चाहते हैं। क्या तुम लोग कहोगे कि यह विरोधाभासी है? (हाँ।) क्या अपने निजी हितों पर ध्यान केंद्रित करने से उनके मन भ्रमित नहीं हो गए हैं? (हाँ।) निजी फायदे के लालच ने उनके दिल और दिमाग पर कब्जा कर लिया है। वे यह नहीं मानते हैं कि परमेश्वर सभी चीजों पर संप्रभु है, फिर भी वे परमेश्वर से आशीषें प्राप्त करना चाहते हैं। वे यह नहीं मानते हैं कि कलीसिया का कार्य और भाई-बहनों द्वारा किया जाने वाला कर्तव्य न्यायोचित, मूल्यवान और सार्थक है। वे महत्वपूर्ण कर्तव्य करने से विशेष रूप से डरते हैं या इस बात से डरते हैं कि अगुआ और कार्यकर्ता अक्सर उन्हें बाहर जाकर मामले सँभालने के लिए कहेंगे, वे डरते हैं कि अगर कुछ गड़बड़ हुआ, तो उन्हें फँसा दिया जाएगा। खतरों का सामना करने पर ये कायर लोग यहूदा बन सकते हैं और कलीसिया के साथ विश्वासघात कर सकते हैं—यह भी एक प्रकार का खतरनाक व्यक्ति है।

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