अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (27) खंड पाँच
ञ. ढुलमुल होना
दसवीं अभिव्यक्ति है : “ढुलमुल होना।” ढुलमुल लोगों द्वारा कौन-सी विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित की जाती हैं? सबसे पहले, इन लोगों को परमेश्वर में विश्वास रखने के बारे में ये सबसे बड़ी शंकाएँ होती हैं : “क्या परमेश्वर का वास्तव में अस्तित्व है? क्या कोई आध्यात्मिक क्षेत्र होता है? क्या नरक है? क्या परमेश्वर द्वारा बोले गए ये वचन ही सत्य हैं? लोग कहते हैं कि यह व्यक्ति परमेश्वर का देहधारण है, लेकिन मैंने ऐसा कोई पहलू नहीं देखा है जो उसे परमेश्वर के देहधारण जैसा दिखाता हो! तो परमेश्वर की आत्मा वास्तव में है कहाँ? क्या परमेश्वर का वाकई अस्तित्व है या नहीं है?” वे इन प्रश्नों को कभी भी स्पष्ट रूप से समझ नहीं पाते हैं। वे देखते हैं कि परमेश्वर में विश्वास रखने वाले बहुत से लोग हैं और सोचते हैं, “परमेश्वर का अस्तित्व होना ही चाहिए। शायद उसका अस्तित्व है। उम्मीद करता हूँ कि उसका अस्तित्व हो। परमेश्वर में विश्वास रखने से वैसे भी मुझे कोई नुकसान तो नहीं हुआ है; किसी ने भी मेरे साथ बुरा व्यवहार नहीं किया है। मैंने सुना है कि कर्तव्य करने से आशीषें और एक अच्छा गंतव्य मिल सकता है, और इससे ऐसा होगा कि मैं भविष्य में नहीं मरूँगा। इसलिए मेरे ख्याल से मैं बस साथ-साथ अनुसरण करूँगा और विश्वास रखूँगा।” कुछ समय तक विश्वास रखने के बाद वे देखते हैं कि कुछ लोग परीक्षणों और विपत्तियों का सामना करते हैं, और वे विचार करना शुरू कर देते हैं : “क्या परमेश्वर में विश्वास रखने से आशीषें नहीं मिलनी चाहिए? कुछ लोग गंभीर रूप से बीमार पड़ गए और मर गए, कुछ लोगों को बड़े लाल अजगर ने गिरफ्तार कर लिया और सता-सताकर मार डाला, और दूसरे लोग कर्तव्य करते समय बीमार पड़ गए या उनके परिवारों पर आपदाएँ आ गईं। परमेश्वर ने उनकी रक्षा क्यों नहीं की? तो, क्या परमेश्वर का वाकई अस्तित्व है या नहीं है? अगर उसका अस्तित्व है, तो ये चीजें नहीं होनी चाहिए थीं!” कुछ नेकदिल लोग उनके साथ सत्य की संगति करते हैं और कहते हैं : “परमेश्वर सभी चीजों पर संप्रभु है और परमेश्वर का हाथ लोगों की किस्मतों की योजना बनाता है। लोगों को परमेश्वर से ये मामले स्वीकार करने चाहिए और खुद को परमेश्वर के आयोजन के हवाले कर देना चाहिए। परमेश्वर जो कुछ भी करता है, वह अच्छा होता है।” इस पर ये ढुलमुल व्यक्ति कहते हैं : “मुझे नहीं दिखता कि इसमें क्या अच्छा है! आपदाएँ सहना—क्या यह अच्छा है? गंभीर रूप से बीमार पड़ना या लाइलाज बीमारी होना—क्या यह अच्छा है? मर जाना तो और भी बदतर है। परमेश्वर का अस्तित्व है या नहीं है? मुझे नहीं पता।” वे परमेश्वर के बारे में हमेशा शंकाओं से भरे रहते हैं। जब वे बहुत से लोगों को कर्तव्य करते, परमेश्वर के घर का कार्य ज्यादा से ज्यादा फैलते और कलीसिया को दिन-ब-दिन फलता-फूलता देखते हैं, तो उन्हें महसूस होता है कि परमेश्वर का अस्तित्व होना ही चाहिए। विशेष रूप से जब वे भाई-बहनों को परमेश्वर द्वारा दिखाए गए चिह्नों और चमत्कारों की और परमेश्वर से प्राप्त अनुग्रह की गवाही देते सुनते हैं, तो ये ढुलमुल व्यक्ति और जोर से यह महसूस करते हैं कि : “यकीनन परमेश्वर का अस्तित्व है! वैसे तो लोग परमेश्वर की आत्मा देख नहीं पाते हैं, लेकिन लोगों ने देहधारी परमेश्वर द्वारा बोले गए वचन सुने हैं, और मैंने भी कई लोगों को परमेश्वर के वचनों की संगति करते और परमेश्वर के वचनों का अनुभव करते सुना है। इसलिए परमेश्वर का अस्तित्व यकीनन होना चाहिए!” जब कलीसिया फल-फूल रही होती है, उसके लिए सब कुछ सुचारु रूप से चल रहा होता है, वह विकास कर रही होती है, और कलीसिया का कार्य ज्यादा से ज्यादा फैल रहा होता है, और विशेष रूप से जब भाई-बहन कुछ विशेष हालातों और विशेष मामलों का अनुभव करते हैं और इन चीजों के जरिए परमेश्वर की सुरक्षा, संप्रभुता और अगुवाई देखते हैं, तो उन्हें महसूस होता है कि परमेश्वर का अस्तित्व है और परमेश्वर सही मायने में अच्छा है। लेकिन कुछ समय बाद वे कुंठाओं और बुरे दौर का अनुभव कर सकते हैं, कुछ को असफलताओं और बाधाओं का अनुभव हो सकता है या परमेश्वर का घर कुछ लोगों को हटा सकता है; ये चीजें, विशेष रूप से आखिरी चीज, उनकी धारणाओं का बहुत ज्यादा खंडन करती हैं और उनकी उम्मीदों से परे होती हैं। उन्हें लगता है, “अगर परमेश्वर का अस्तित्व है, तो ये चीजें कैसे हो सकती हैं? ये नहीं होनी चाहिए! अविश्वासियों के बीच ऐसी चीजें होना सामान्य बात है, लेकिन ये परमेश्वर के घर में भी कैसे हो सकती हैं? अगर परमेश्वर का अस्तित्व है तो उसे इन मामलों का निपटारा करना चाहिए और इन चीजों को होने से रोकना चाहिए, क्योंकि वह सर्वशक्तिमान है, उसके पास अधिकार है और उसके पास सामर्थ्य है! क्या वाकई परमेश्वर का अस्तित्व है या नहीं है? लोग परमेश्वर की आत्मा नहीं देख पाते हैं। जहाँ तक देहधारी परमेश्वर द्वारा बोले गए वचनों की बात है, तो सभी लोग कहते हैं कि वे ही सत्य हैं, मार्ग हैं, और कि वे लोगों का जीवन हो सकते हैं। लेकिन मुझे क्यों ऐसा महसूस नहीं होता है कि वे ही सत्य हैं? मैंने बहुत लंबे समय से धर्मोपदेश सुने हैं, लेकिन मेरा जीवन बिल्कुल भी परिवर्तित नहीं हुआ है! मैंने बहुत कष्ट सहा है—मुझे क्या प्राप्त हुआ है?” उन्हें परमेश्वर के बारे में शंकाएँ होने लगती हैं और अपना कर्तव्य करने के लिए उनका उत्साह कम हो जाता है और ठंडा पड़ जाता है। फिर वे एक प्रतिष्ठित जीवन जीने के लिए नौकरी करने जाने और पैसे कमाने के लिए परमेश्वर का घर छोड़ने के बारे में सोचते हैं—ये सक्रिय विचार प्रकट होने लगते हैं। वे मन में सोचते हैं : “अगर मैं जिस परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ वह सच्चा परमेश्वर नहीं है, तो इतने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखते हुए मेरे नौकरी नहीं करने या पैसे नहीं कमाने से बहुत ही बड़ा नुकसान हुआ है! नहीं, इस तरीके से सोचना गलत है। मुझे अब भी उचित रूप से विश्वास रखने की जरूरत है। मैंने लोगों को यह कहते सुना है कि परमेश्वर के और अधिक वचन पढ़ने से व्यक्ति सत्य समझने, सभी समस्याएँ सुलझाने में सक्षम हो जाएगा और फिर कमजोर नहीं रहेगा। लेकिन मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े हैं और अब भी मुझे सत्य समझ नहीं आया है। मैं अब भी नकारात्मक क्यों महसूस करता हूँ? मुझे हमेशा ऐसा क्यों लगता है कि मेरे पास अपना कर्तव्य करने की ऊर्जा नहीं है? परमेश्वर मुझमें कार्य नहीं कर रहा है! मेरी बहुत सी कठिनाइयाँ हैं, लेकिन परमेश्वर ने मेरे लिए कोई रास्ता नहीं खोला है। तो क्या वाकई परमेश्वर का अस्तित्व है या नहीं है? अगर यही सच्चा मार्ग है, तो परमेश्वर को उन लोगों को धन्य करना चाहिए जो शांति, सहजता और सामान्यता से अपना कर्तव्य करते हैं। तो सुसमाचार का उपदेश देने और कर्तव्य करने में अब भी इतनी बड़ी-बड़ी कठिनाइयाँ क्यों आती हैं? वैसे तो मुझे पता है कि धार्मिक संसार पिछड़ गया है और सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास रखना राज्य के युग में प्रवेश कर रहा है, लेकिन मैंने यह क्यों नहीं देखा है कि पवित्र आत्मा कैसे कार्य करता है?” ये किस तरह के लोग हैं? ये वे लोग हैं जिनमें आध्यात्मिक समझ बिल्कुल नहीं होती है। वे परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं, लेकिन सत्य नहीं समझते हैं। सत्य पर चाहे कितनी भी संगति क्यों न की जाए, वे इसका अर्थ नहीं समझ पाते हैं। वे चीजों को हमेशा अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर देखते हैं और परमेश्वर के बारे में लगातार शंकाओं से भरे रहते हैं। आखिर ऐसा व्यक्ति सत्य कैसे समझ सकता है? कुछ लोग देखते हैं कि सुसमाचार का उपदेश देना काफी कठिन है, इसलिए वे सोचते हैं : “अगर यही सच्चा मार्ग होता, तो पवित्र आत्मा बढ़िया कार्य कर रहा होता। भाई-बहन जहाँ भी सुसमाचार का उपदेश देने जाते, वहाँ यह सहज और अबाधित होता। इससे भी बढ़कर यह होता कि सरकारी अफसर भी विश्वास करना शुरू कर देते और हर चीज को अनुमति दे देते। यह वाकई सच्चे परमेश्वर का कार्य होता। लेकिन अब, तथ्यों को देखा जाए, तो मामला ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। दुनिया भर के विभिन्न देशों के राष्ट्रपति और अफसर न सिर्फ परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते हैं, बल्कि वे परमेश्वर में विश्वास का समर्थन भी नहीं करते हैं। कुछ देशों में तो सरकारें विश्वासियों को सताती भी हैं और लोगों द्वारा परमेश्वर में विश्वास रखने में बाधा भी डालती हैं। तो, क्या हम जिस परमेश्वर में विश्वास रखते हैं वह वाकई सच्चा परमेश्वर है? मुझे नहीं पता; यह कहना कठिन है।” उनके दिलों में हमेशा एक बड़ा प्रश्नचिह्न रहता है। हर बार जब वे किसी तरह की खबर सुनते हैं, तो यह उन्हें एक ऐसे “भूकंप” जैसा महसूस होता है जिसका प्रभाव न तो बहुत बड़ा होता है और न ही ध्यान देने लायक होता है, जिससे वे ढुलमुल हो जाते हैं। कुछ लोग कहते हैं : “क्या वे हमेशा इसलिए ढुलमुल होते हैं क्योंकि उन्होंने सिर्फ थोड़े समय से ही परमेश्वर में विश्वास रखा है?” ऐसी बात नहीं है—कुछ लोगों ने तीन वर्ष, पाँच वर्ष या यहाँ तक कि दस वर्षों से भी ज्यादा समय से विश्वास रखा है। क्या इसे थोड़ा समय माना जाता है? अगर किसी ने अनुग्रह के युग के कार्य के दौरान तीन या पाँच वर्षों तक विश्वास रखा था, तो इसे लंबा समय नहीं माना जाएगा, क्योंकि उन्होंने अंत के दिनों में परमेश्वर के कथन और वचन नहीं सुने थे; उन्होंने बाइबल और लोगों के धर्मोपदेशों से सिर्फ थोड़ा सा बाइबल-संबंधी ज्ञान और आध्यात्मिक सिद्धांत ही समझा था। यह बहुत ही कम प्राप्ति है। जब कोई इस मौजूदा चरण का कार्य स्वीकार करता है, तो बात अलग होती है—जब तक वह अपना कर्तव्य करता है और तीन वर्षों तक परमेश्वर का अनुसरण करता है, तब तक वह जो अनुभव करता है, समझता है और प्राप्त करता है वह उससे कहीं बढ़कर होता है जो कोई व्यक्ति अनुग्रह के युग में बीस या तीस वर्षों तक या यहाँ तक कि पूरे जीवनकाल तक प्रभु में विश्वास रखने से प्राप्त कर पाता। लेकिन ये लोग जो तीन, पाँच या दस वर्षों से भी ज्यादा समय से विश्वास रखने के बाद भी ढुलमुल होते हैं, वे अब भी यह तय नहीं कर पाते हैं कि कार्य का यह चरण परमेश्वर द्वारा किया गया है या नहीं, और उन्हें परमेश्वर के अस्तित्व के बारे में भी शंकाएँ होती हैं। क्या तुम कहोगे कि ऐसे लोग बहुत परेशान करने वाले होते हैं? क्या उनमें सत्य समझने की क्षमता होती है? (नहीं।) क्या उनके पास सामान्य मानवता के सोचने का तरीका होता है? (नहीं।) वे सत्य समझने में असमर्थ होते हैं। कलीसिया में चाहे कोई भी परिस्थिति क्यों ना उत्पन्न हो, वह हमेशा उनके ढुलमुल होने का कारण बन सकती है—उनके दिलों के प्रश्नचिह्न उनके लिए लगातार “भूकंप” शुरू करते रहते हैं। अगर मसीह-विरोधी कलीसिया में बाधाएँ उत्पन्न करते हैं और कुछ लोग गुमराह हो जाते हैं, या अगर कोई व्यक्ति जिसे वे पूजते हैं, कुछ ऐसा करता है जिसकी उन्होंने उम्मीद नहीं की थी—जैसे कि चढ़ावा चुराना या व्यभिचारी गतिविधियों में शामिल होना—और उसे निष्कासित कर दिया जाता है, तो इससे उनके दिल ढुलमुल होने लगते हैं और वे परमेश्वर पर शंका करना शुरू कर देते हैं : “क्या यह परमेश्वर के कार्य की धारा नहीं है? फिर कलीसिया में ऐसी अराजक चीजें कैसे हो सकती हैं? परमेश्वर मसीह-विरोधियों और बुरे लोगों के प्रकट होने की अनुमति कैसे दे सकता है? क्या यह वाकई सच्चा मार्ग है?” कलीसिया में उनकी धारणाओं के खिलाफ जो भी होता है, उसके कारण उनके मन में शंकाएँ उत्पन्न होती हैं और वे प्रश्न करने लगते हैं कि क्या यही सच्चा मार्ग है, क्या यह परमेश्वर का कार्य है, और क्या वाकई परमेश्वर का अस्तित्व है। वे मामले को सही ढंग से देखने के लिए सत्य की तलाश ही नहीं करते हैं। यह अकेले ही यह साबित करने के लिए पर्याप्त है कि शुरू से आखिर तक उन्होंने मूल रूप से कभी यह विश्वास ही नहीं किया कि कार्य का यह चरण परमेश्वर द्वारा किया गया है। शुरू से आखिर तक उन्होंने कभी यह नहीं जाना कि सत्य क्या है, और न ही यह जाना कि परमेश्वर सत्य क्यों व्यक्त करता है। परमेश्वर ने बहुत से वचन कहे हैं और बहुत से कार्य किए हैं—यह सब कुछ परमेश्वर का ही किया हुआ है। इतने सारे लोग इसकी पुष्टि कर चुके हैं और इस बारे में निश्चित हो गए हैं, लेकिन वे इन चीजों के आधार पर मामलों को देखने से इनकार करते हैं। वे राय बनाने के लिए हमेशा मानवीय परिप्रेक्ष्यों और मानवीय सोच का उपयोग करते हैं—वे खुद पर बहुत ही ज्यादा भरोसा करते हैं। जब कलीसिया के कार्य या कलीसियाई जीवन में कुछ झोल या विचलन होते हैं, या जब कलीसिया को सरकार द्वारा दबाया और सताया जाता है, तो वे फिर से प्रश्न करना शुरू कर देते हैं : “क्या यह वाकई सच्चा मार्ग है?” जब कलीसिया में मसीह-विरोधी और नकली अगुआ प्रकट होते हैं, तो वे भी प्रश्न करना शुरू कर देते हैं। वे कहते हैं : “धार्मिक कलीसियाओं में उन पादरियों और एल्डर्स को देखो—वे सही मायने में प्रभु से प्रेम करते हैं, और उनकी कलीसियाओं में मसीह-विरोधी वाली कोई घटना नहीं होती है। सच्चा मार्ग तो बस वही है। अगर तुम लोगों के पास यहाँ जो है वही सच्चा मार्ग है, तो ये चीजें अब भी क्यों हो रही हैं?” वे इस तरह से तुलनाएँ करते हैं। और कुछ दूसरे बेवकूफ लोग कैसे तुलनाएँ करते हैं? वे कहते हैं : “जरा थ्री-सेल्फ कलीसिया में परमेश्वर में विश्वास रखने वाले लोगों को देखो—उनके पास राज्य की स्वीकृति है, और राज्य उन्हें प्रमाण पत्र भी जारी करता है और कलीसिया बनाने के लिए उन्हें जमीन भी देता है। यह सब कुछ जायज और कानूनी है। क्या तुम लोगों के पास कोई सार्वजनिक कलीसिया है? क्या तुम्हारी कलीसियाएँ पंजीकृत हैं? राज्य थ्री-सेल्फ कलीसियाओं के लिए पादरियों की नियुक्ति भी करता है और उन पादरियों के पास लाइसेंस हैं। क्या तुम लोगों के अगुआओं और कार्यकर्ताओं के पास लाइसेंस हैं? राज्य तुम लोगों को परमेश्वर में विश्वास रखने की अनुमति नहीं देता है; वह तुम लोगों को गिरफ्तार कर लेता है और सताता है। तुम लोगों के पास सभाओं तक के लिए कोई निश्चित जगह नहीं है; तुम हमेशा सबसे छिपकर इकट्ठा होते हो। क्या यह वाकई सच्चा मार्ग है? अगर यह सच्चा मार्ग होता, तो तुम हमेशा ऐसे सबसे छिपकर क्यों इकट्ठा होते और अपना कर्तव्य करते?” वे इस मामले की भी असलियत नहीं जान पाते हैं। कोई भी परिस्थिति उन्हें ढुलमुल होने और परमेश्वर के बारे में शंकाएँ उत्पन्न करने का कारण बन सकती है। मुझे बताओ, क्या ऐसा व्यक्ति दृढ़ रह सकता है? (नहीं।) वैसे तो बाहर से उसने कलीसिया नहीं छोड़ी है, लेकिन अपने दिल में वह खतरे की कगार पर है। वह परमेश्वर के कार्य और परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्यों के बारे में कभी भी निश्चित नहीं हो सकता और वह हमेशा आधा विश्वास करता है और आधी शंका करता है; इससे उसके लिए सच्ची आस्था रखना असंभव हो जाता है। ऐसे लोग यह नहीं देख पाते हैं कि परमेश्वर के कार्य के इन वर्षों में जो भी उत्पीड़न, दमन और गिरफ्तारियाँ हुई हैं, वे सब कुछ परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन हुई हैं, और ये सभी परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के अंतर्गत आती हैं। इसलिए उनके मन में धारणाएँ होती हैं और वे यह प्रश्न कर लेते हैं कि क्या परमेश्वर सभी चीजों पर संप्रभु हो सकता है। वे हमेशा यही मानते हैं कि परमेश्वर के घर का सारा कार्य मनुष्यों द्वारा किया जाता है, वे परमेश्वर के कर्मों का रत्ती भर चिन्ह देखने में असमर्थ हैं। क्या वे छद्म-विश्वासी नहीं हैं? अगर ऐसा व्यक्ति सिर्फ छह महीने या एक वर्ष से ही नया-नया विश्वास रख रहा है और उसने विभिन्न सत्यों को स्पष्ट रूप से नहीं समझा है, तो जब वह ऐसी चीजें देखता है जो उसकी धारणाओं के खिलाफ जाता है, तो उसे शंकाएँ होने और उसके ढुलमुल होने की बात तो समझ में आती है। लेकिन कुछ लोगों ने कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है, उन्होंने ढेरों धर्मोपदेश सुने हैं और कठिनाइयों का सामना करने पर उन्होंने अपने साथ सत्य की संगति करवाई है। उस समय उन्होंने जो सुना उसे धर्म-सैद्धांतिक रूप से समझ लिया था। लेकिन बाद में फिर से मामलों का सामना करने पर वे अब भी परमेश्वर और परमेश्वर के कार्य पर प्रश्न उठाते हैं। इससे पता चलता है कि ऐसे लोगों में सत्य समझने की कोई क्षमता नहीं है, उनमें सामान्य मानवता की सोच की कमी है और वे मनुष्य होने का मानक पूरा नहीं करते हैं।
ढुलमुल लोगों को कैसे सँभालना चाहिए? मानवता के मामले में ये लोग बुरे लोगों के समान तो नहीं हैं, लेकिन वे सचमुच परेशान करने वाले प्रकार के लोग हैं, क्योंकि उनमें सत्य समझने की क्षमता नहीं होती है और उनमें सामान्य मानवता की सोच नहीं है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वे परमेश्वर द्वारा व्यक्त कई सत्यों की पुष्टि भी नहीं कर पाते हैं, और न ही वे जानते हैं कि क्या ये वचन सत्य हैं या क्या वे परमेश्वर की अभिव्यक्ति और परमेश्वर का कार्य हैं। उनकी समझने की क्षमता देखी जाए तो वे किस तरह के लोग हैं? यह कहना सही है कि वे छद्म-विश्वासी हैं और यह कहना भी सही है कि वे भ्रमित लोग हैं। वैसे तो इस तरह के लोगों ने कोई स्पष्ट बुराई नहीं की है और वे बुरे लोगों की श्रेणी में नहीं आते हैं, लेकिन चूँकि वे इस हद तक भ्रमित हैं और ऐसी बहुत सी चीजें कर सकते हैं जो गड़बड़ी और बाधा पैदा करती हैं तो क्या वे निकम्मे नहीं हैं? (हाँ।) ऐसे लोगों ने चाहे कितने भी वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा हो या उन्होंने कितने भी धर्मोपदेश सुने हों, वे कभी भी सत्य नहीं समझ सकते हैं। वे परमेश्वर के अस्तित्व या परमेश्वर की संप्रभुता की पुष्टि तक नहीं कर सकते हैं। यह किस तरह की काबिलियत है? इन लोगों में सत्य समझने की बिल्कुल भी क्षमता नहीं होती है। वे बहुत खराब काबिलियत वाले लोग हैं; या तुम कह सकते हो कि उनमें बिल्कुल भी काबिलियत नहीं होती है—वे बेअक्ल निकम्मे होते हैं। मुझे बताओ, निकम्मे लोग कौन-सा कर्तव्य कर सकते हैं? (वे कोई कर्तव्य नहीं कर सकते हैं।) वे कोई कर्तव्य नहीं कर सकते हैं और हमेशा शंकालु और ढुलमुल होते हैं। तो इस तरह के लोगों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए और उन्हें कैसे सँभालना चाहिए? ऐसे लोगों को सँभालने का सबसे उचित तरीका यह है कि उन्हें कोई कर्तव्य न करने दिया जाए। भले ही वे कर्तव्य करने का अनुरोध करें, उन्हें अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। क्यों नहीं? क्योंकि एक बार जब इस तरह के लोग कर्तव्य करना शुरू करते हैं, विशेष रूप से जब उन्होंने कष्ट सहन किया हो और कुछ कीमत चुकाई हो, तो देर-सवेर वे परमेश्वर के घर से हिसाब चुकता करना चाहेंगे। अगर उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाता है या वे प्राकृतिक आपदाओं या मानव निर्मित आपदाओं का सामना करते हैं, तो वे परमेश्वर के लिए खुद को खपाने पर पछताएँगे; वे कड़वाहट भरी शिकायत करेंगे और इस तरह की टिप्पणियाँ फैलाएँगे : “मैंने कलीसिया के कार्य के लिए और अपना कर्तव्य करने के लिए बहुत कुछ सहा है। मैं सामान्य मात्रा से इतना कम भोजन करता हूँ, इतनी कम नींद लेता हूँ और इतना कम पैसा कमाता हूँ। अगर मैंने कर्तव्य नहीं किया होता, तो मैं अपने कमाए पैसे बैंक में जमा कर सकता था और मुझे उस पर ब्याज मिलता! मैंने बहुत सारे जोखिम उठाए हैं—जोखिम के हर घंटे की कीमत कितनी है? श्रम शुल्क कितना है?” वे परमेश्वर के घर से पैसों का हिसाब चुकता करने का प्रयास करेंगे और यह धमकी तक दे डालेंगे कि अगर परमेश्वर के घर ने उन्हें मुआवजा न दिया, तो वे परमेश्वर के घर की रिपोर्ट कर देंगे। ऐसे लोगों को कर्तव्य निभाने देने से क्या अंतहीन परेशानी नहीं आती रहेगी? ऐसे नीच व्यक्तियों से निपटना एक ऐसी उलझन उत्पन्न करेगा जिसे हल करना असंभव है। वे कलीसिया के लिए चाहे कितनी भी चीजें क्यों न सँभालें, वे अपने दिल में एक छोटा सा बहीखाता रखते हैं, जिसमें वे हर हिसाब-किताब साफ-साफ दर्ज करते हैं। वे कलीसिया के लिए जो भी करते हैं, वे उसे कभी भी खुशी से नहीं करते हैं। क्योंकि वे अनिच्छुक हैं, इसलिए वे हिसाब चुकता करना चाहते हैं। ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है क्योंकि वे अपने दिलों में परमेश्वर का अस्तित्व नहीं मानते हैं या परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते हैं। वे यह नहीं मानते हैं कि परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं या परमेश्वर का कार्य लोगों को बचा सकता है। तो उन्हें किस तरह का इनाम दिया जाए ताकि वे अपने मन में जिस तथाकथित परमेश्वर की कल्पना करते हैं उसके लिए थोड़ी कीमत चुकाकर, थोड़ा कष्ट सहकर, कुछ कर्तव्य करके और कुछ मानवीय और भौतिक संसाधन खर्च करके संतुष्ट महसूस करें? अगर उन्हें बदले में कुछ नहीं मिला, तो क्या वे संतुष्ट होंगे? अगर किसी दिन उन्हें यह एहसास हो जाता है कि सत्य का अनुसरण न करने के कारण उन्हें हटा दिया गया है, तो क्या परिणाम होंगे? वे सोचेंगे कि परमेश्वर के घर ने उन्हें चकमा दिया है, कि अगुआओं और कार्यकर्ताओं ने उन्हें चकमा दिया है और कि उन्हें अँधेरे में रखा गया और वे एक घोटाले का शिकार हो गए। फिर वे परमेश्वर के घर को अपनी नाराजगी जताएँगे और मुआवजा माँगेंगे, और मामले को लगातार खींचते रहेंगे। क्या तुम्हें लगता है कि परमेश्वर का घर ऐसे व्यक्ति से उलझना चाहेगा? परमेश्वर का घर ऐसी बेवकूफी भरी चीज बिल्कुल नहीं करेगा! परमेश्वर के चुने हुए लोग सृजित प्राणियों की जिम्मेदारी पूरी करने के लिए अपना कर्तव्य करते हैं—यह पूरी तरह से उनकी अपनी पसंद है, कुछ ऐसा है जिसे वे करने के इच्छुक रहते हैं। परमेश्वर का घर कभी किसी के साथ जबरदस्ती नहीं करता है या किसी को मजबूर नहीं करता है। लेकिन एक बार जब छद्म-विश्वासी कर्तव्य करना शुरू कर देते हैं, तो परेशानी उत्पन्न होने में ज्यादा समय नहीं लगता है। जब उनका मिजाज खराब होता है तो वे यकीनन बड़बड़ाना और शिकायत करना शुरू कर देते हैं और दूसरों से कहते हैं : “तुम लोगों ने इतनी अच्छी तरह बात की और मुझे चकमा दिया, कहा कि परमेश्वर में विश्वास रखने से मुझे सत्य और अनंत जीवन प्राप्त करने की अनुमति मिलेगी। लेकिन तुम लोगों में से किसी ने भी यह नहीं बताया कि कलीसिया में लोगों को गुमराह करने वाले मसीह-विरोधी होंगे, कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी और बाधा उत्पन्न करने वाले बुरे लोग होंगे या कि कलीसिया लोगों को बहिष्कृत या निष्कासित करेगी। तुम लोगों ने मुझे कभी नहीं बताया कि कलीसिया में इनमें से कुछ भी होगा!” यहाँ तक कि वे वापस मुड़ सकते हैं और तुम्हीं पर आरोप लगा सकते हैं और कह सकते हैं : “तुमने मुझे कभी भी ये बातें स्पष्ट रूप से नहीं बताईं। मैंने परमेश्वर में विश्वास रखने और अपना कर्तव्य निभाने में बस तुम लोगों का अनुसरण किया। फलस्वरूप, अब दुनिया में मेरे लिए कोई संभावना नहीं है; तुम लोगों ने मुझे ढेरों पैसे कमाने से रोक दिया है। तुम लोगों को मेरे नुकसानों के लिए मुझे मुआवजा देना होगा!” जब वे तुमसे हिसाब चुकता करना शुरू कर देते हैं, तो क्या तुम्हें यह घिनौना नहीं लगता है? क्या तुम लोग उनसे उलझने को तैयार हो? (नहीं।) कौन संभवतः इस तरह के लोगों को चीजें स्पष्ट कर सकता है? वे सत्य स्वीकार नहीं करते हैं, वे परमेश्वर का अस्तित्व नहीं देख पाते हैं और वे अपने अनुभवों के जरिए परमेश्वर का अस्तित्व महसूस नहीं कर पाते हैं। मुझे बताओ, कौन यह सच्चाई उनके मन में ठसाठस भर सकता है? कोई नहीं कर सकता है। उनके पास सत्य स्वीकार करने की क्षमताएँ नहीं हैं, इसलिए उनसे सत्य का अनुसरण करने के लिए कहने से चीजें उनके लिए बहुत कठिन हो जाएँगी, यह उन्हें एक कठिन परिस्थिति में डाल देगा—ऐसा करना बिल्कुल ही अवास्तविक है। वे सिर्फ आशीषें प्राप्त करने के लिए परमेश्वर में विश्वास रखते हैं। अगर वे थोड़ा-सा भी कर्तव्य निभाते हैं तो वे इनाम माँगते हैं। अगर उनकी इच्छा पूरी नहीं की जाती है, तो वे गालियाँ देना शुरू कर देते हैं : “मुझे चकमा दिया गया है और मेरे साथ धोखाधड़ी हुई है! तुम लोग धोखेबाज हो!” मुझे बताओ, क्या तुम लोग वह गाली-गलौज सहना चाहोगे? (नहीं।) किसने उन्हें चकमा दिया? क्या ऐसा नहीं है कि उनकी अपनी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ हैं और वे आशीषें प्राप्त करना चाहते हैं? क्या ठीक-ठीक आशीषें प्राप्त करने के लिए ही उन्होंने परमेश्वर में विश्वास नहीं रखा? उन्हें अब आशीषें नहीं मिली हैं, लेकिन क्या ऐसा इसलिए नहीं है क्योंकि वे सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं? क्या यह उनकी अपनी समस्या नहीं है? वे परमेश्वर में विश्वास तक नहीं रखते हैं, फिर भी वे परमेश्वर से आशीषें प्राप्त करना चाहते हैं—आशीषें प्राप्त करना इतना आसान कैसे हो सकता है? क्या ये मामले उन्हें कर्तव्य करना शुरू करने से बहुत पहले ही स्पष्ट रूप से नहीं समझा दिए गए थे? (हाँ।) लेकिन क्या तुम लोग तर्क देकर उन्हें समझा सकते हो? तुम यह नहीं कर सकते—वे बस यही कहेंगे कि तुमने उन्हें चकमा दिया है। मुझे बताओ, परमेश्वर के घर में, भाई-बहनों ने चाहे कितने भी लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास क्यों ना रखा हो, उनमें से कौन स्वेच्छा से कर्तव्य नहीं कर रहा है? भले ही ऐसे दुर्लभ मामले भी होते हैं जिनमें बच्चे परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते और उन्हें उनके माता-पिता या रिश्तेदारों द्वारा विश्वास रखने और कर्तव्य करने के लिए घसीटा जाता है, फिर भी इनकी संख्या बहुत ही कम है। भले ही तुम्हारे माता-पिता तुम्हें इसमें घसीटें, यह तुम्हारे अपने भले के लिए ही है—तुम्हें यह बात समझनी चाहिए। लेकिन तुम्हें इसमें घसीटने वाला तुम्हारा अपना परिवार ही है—परमेश्वर के घर के भाई-बहन तुम्हें नहीं घसीटते हैं या तुम्हें मजबूर नहीं करते हैं। परमेश्वर में विश्वास रखना और कर्तव्य करना पूरी तरह से स्वैच्छिक है। अभी जो कोई छोड़ना चाहता है, वह छोड़ सकता है; परमेश्वर के घर के दरवाजे हमेशा खुले हैं। लेकिन एक बार जब तुम छोड़ दोगे, तो वापस आना इतना आसान नहीं होगा। परमेश्वर के घर में पूर्णकालिक कर्तव्य करने वाले लोगों को सावधानी से चुना जाता है—बस यूँ ही किसी को स्वीकार नहीं कर लिया जाता है। इसके लिए जरूरी मानक और सिद्धांत हैं, और सिर्फ वही लोग पूर्णकालिक कर्तव्य वाली कलीसिया में रह सकते हैं जो योग्यताएँ पूरी करते हैं। ढुलमुल लोग सोचते हैं, “तुम लोगों ने मुझे इतना महत्वपूर्ण मामला स्पष्ट रूप से नहीं समझाया। उस समय, मैंने सिर्फ इसलिए कर्तव्य किया क्योंकि मैं उलझन में था।” स्पष्ट रूप से क्या नहीं समझाया गया था? भाई-बहन अपना कर्तव्य करते हुए रोज एक साथ सत्य की संगति करते हैं—अगर इन लोगों को समझ नहीं आया, तो इसका कारण यह है कि वे भ्रमित और अंधे हैं। वे इसके लिए किसी और को दोष नहीं दे सकते हैं। लेकिन वे इस बारे में तर्क देकर तुम्हें नहीं समझाएँगे; उन्हें बस यह लगता है कि उन्होंने बहुत बड़ा नुकसान उठाया है और वे हिसाब चुकता करना चाहते हैं और परमेश्वर के घर से बहस करना चाहते हैं। क्या ऐसे लोग अविवेकी और बेहद घिनौने नहीं हैं? तो एक बार जब तुम सब ऐसे लोगों के असली रंग जान जाते हो और तुम्हें स्पष्ट रूप से यह दिखाई देता है कि वे भ्रमित हैं, पूरी तरह से बेकार हैं, कोई कर्तव्य नहीं कर पाते हैं और लगातार आशीषें प्राप्त करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, उनके दिल आशीषें प्राप्त करने के विचारों के वश में रहते हैं, और कि वे सिर्फ इतना जानते हैं कि कर्तव्य करने से आशीषें, उद्धार, राज्य में प्रवेश और अमरता मिल सकती है, और वे कुछ भी और समझे बिना सिर्फ ये थोड़े से वाक्यांश ही जानते हैं—यह नहीं जानते हैं कि सत्य क्या है, सत्य का अभ्यास कैसे करना है या परमेश्वर के प्रति कैसे समर्पण करना है—तो भले ही वे कर्तव्य करना चाहें या कर्तव्य करने का अनुरोध करें, क्या ऐसा करने के लिए उन्हें लगाया जा सकता है? (नहीं।)
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