अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (27) खंड चार
जो लोग किसी भी समय कलीसिया छोड़ने में सक्षम होते हैं, वे किस तरह के लोग हैं? एक प्रकार के लोग नासमझ, विचारहीन, भ्रमित लोग होते हैं जिन्हें बिल्कुल पता नहीं होता है कि वे परमेश्वर में क्यों विश्वास रखते हैं, चाहे उन्होंने कितने भी वर्षों से विश्वास क्यों न रखा हो। उन्हें बिल्कुल पता नहीं होता है कि परमेश्वर में विश्वास रखने का अर्थ आखिर क्या है। दूसरे प्रकार के लोग छद्म-विश्वासी होते हैं जो परमेश्वर के अस्तित्व पर बिल्कुल भी विश्वास नहीं करते हैं और परमेश्वर में विश्वास रखने का अर्थ या मूल्य नहीं समझते हैं। धर्मोपदेश सुनना और परमेश्वर के वचन पढ़ना उनके लिए धर्मशास्त्र का अध्ययन करने या कुछ पेशेवर ज्ञान हासिल करने जैसा है—एक बार जब वे इसे समझ जाते हैं और इसके बारे में बात कर पाते हैं, तो वे इसे पूरा हो गया मान लेते हैं। वे इसे कभी भी अभ्यास में नहीं लाते हैं। उनके लिए परमेश्वर के वचन सिर्फ एक तरह का सिद्धांत हैं, एक नारा हैं और कभी उनका जीवन नहीं बन सकते हैं। इसलिए इन लोगों को परमेश्वर में विश्वास रखने से जुड़ी कोई भी चीज दिलचस्प नहीं लगती है। अपना कर्तव्य करना, सत्य का अनुसरण करना, परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करना, भाई-बहनों के साथ संगति करना और साथ मिलकर कलीसियाई जीवन जीना, वगैरह जैसी चीजें उन्हें आकर्षक नहीं लगती हैं, और इनमें से कोई भी चीज उन्हें खाने-पीने और मौज-मस्ती करने जैसी खुशी और रोमांच नहीं देती है। दूसरी ओर, परमेश्वर में सच्चे विश्वासियों को लगता है कि सत्य की संगति करने या कलीसियाई जीवन जीने के लिए भाई-बहनों के साथ रहना हमेशा उनके लिए फायदे और प्राप्तियाँ ला सकता है। वैसे तो कभी-कभी वे खतरे और उत्पीड़न का सामना करते हैं या सुसमाचार का उपदेश देने के लिए जोखिम उठाते हैं और अपना कर्तव्य करते हुए कुछ कष्ट सहते हैं, लेकिन चाहे जो भी हो, वे सत्य की समझ प्राप्त करते हैं और कष्ट सहकर और कीमत चुकाकर परमेश्वर को जानने का परिणाम हासिल करते हैं, और इस कष्ट और कीमत से उनके जीवन स्वभाव में एक परिवर्तन आता है। इन सब बातों को तोलने और उनका मूल्यांकन करने के बाद उन्हें लगता है कि परमेश्वर में विश्वास रखना अच्छा है और सत्य को समझ पाना अत्यधिक मूल्यवान है। उनके दिल कलीसिया से विशेष रूप से जुड़ जाते हैं और वे कलीसियाई जीवन छोड़ने के बारे में कभी नहीं सोचते हैं। अगर वे देखते हैं कि कलीसियाई कार्य में बाधा डालने के कारण कलीसिया कुछ व्यक्तियों को बी समूहों में भेज रही है या अलग-थलग या बहिष्कृत कर रही है तो परमेश्वर में सच्चाई से विश्वास रखने वाले लोगों के दिलों में थोड़ा-सा दुःख होता है। वे सोचते हैं, “मुझे अपना कर्तव्य लगन से करने की जरूरत है। मुझे बिल्कुल भी बहिष्कृत नहीं किया जा सकता। बहिष्कृत किया जाना सजा दिए जाने के समान है, जिसका अर्थ है नरक में जाने का परिणाम! फिर जीने का क्या अर्थ रह जाएगा?” ज्यादातर लोग कलीसिया छोड़ने से डरते हैं; उन्हें लगता है कि एक बार जब वे कलीसिया और परमेश्वर को छोड़ देंगे, तो वे सामान्य रूप से जी नहीं पाएँगे और सब कुछ समाप्त हो जाएगा। लेकिन किसी भी समय कलीसिया छोड़ने में सक्षम लोग कलीसिया को छोड़ना काफी सामान्य बात मानते हैं, ठीक एक नौकरी पाने पर दूसरी नौकरी छोड़ने जैसा। वे अंदर से कभी व्यथा महसूस नहीं करते या कोई पीड़ा नहीं भोगते हैं। तुम लोग क्या सोचते हो—क्या किसी भी समय कलीसिया छोड़ने में सक्षम लोगों में कोई जमीर या विवेक होता है? ऐसे लोग वाकई आश्चर्यजनक होते हैं! कुछ लोगों के कर्तव्य का निर्वहन मानक स्तर का नहीं होता है और वे हमेशा अंधाधुँध गलत कर्म करते हैं, जिससे कलीसिया के कार्य में गड़बड़ियाँ और बाधाएँ उत्पन्न होती हैं। फिर कलीसिया उन्हें उनका कर्तव्य करने से रोक देती है और उन्हें एक साधारण कलीसिया में भेज देती है। तो परिणामस्वरूप क्या होता है? अगले ही दिन वे पूरी तरह से एक अलग व्यक्ति की तरह व्यवहार करते हैं, पूरी तरह से एक नया जीवन शुरू करते हैं। कुछ लोग रूमानी मुलाकातें करना शुरू कर देते हैं और शादी कर लेते हैं, कुछ नौकरी तलाशने लगते हैं, दूसरे लोग कॉलेज चले जाते हैं और दूसरे लोग पुराने दोस्तों से फिर से संपर्क करते हैं, रिश्ते बनाते हैं और अमीर बनने के अवसरों की तलाश करते हैं। ये लोग तेजी से विशाल दुनिया में घुलमिल जाते हैं, मानवजाति के सागर में गायब हो जाते हैं—यह इतनी ही जल्दी होता है। कुछ भाई-बहन अपना कर्तव्य निभाने में खराब नतीजों के कारण किसी साधारण कलीसिया में भेजे जाने के बाद दुःख के एक दौर से गुजरते हैं, लेकिन वे आत्म-चिंतन करने और अपनी समस्याएँ पहचानने में समर्थ होते हैं और खुद में परिवर्तन लाने का कुछ रवैया दिखाते हैं। लेकिन किसी भी समय कलीसिया छोड़ने में सक्षम लोग जैसे ही कुछ कठिनाइयों का सामना करते हैं, वे अब अपना कर्तव्य नहीं करना चाहते हैं, अगले ही दिन कलीसिया छोड़ देते हैं और एक अविश्वासी के जीवन में लौट जाते हैं। उन्हें बिल्कुल भी दुःख महसूस नहीं होता है और वे यहाँ तक सोचते हैं, “परमेश्वर में विश्वास रखने में अच्छा है ही क्या? दूसरे लोग तुम्हारा लगातार मजाक उड़ाते रहते हैं और तुम्हारी बदनामी करते रहते हैं, और तुम्हारे गिरफ्तार होने और जेल जाने तक की आशंका रहती है। अगर बड़ा लाल अजगर मुझे पीट-पीटकर मार डाले, तो क्या मेरा जीवन बेकार नहीं जाएगा? मैंने इन सभी वर्षों में परमेश्वर में विश्वास रखने में बहुत सी कठिनाइयाँ सही हैं, लेकिन मुझे मिला ही क्या? अगर मैंने परमेश्वर में विश्वास नहीं किया होता तो अब तक मैं एक अधिकारी बन चुका होता, मैंने खूब पैसे कमा लिए होते और मैं प्रतिष्ठा का जीवन जी रहा होता! अब तक परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद मुझे पछतावा भी होता है—अगर मुझे पता होता कि यह ऐसा होगा तो मैं बहुत पहले ही छोड़ चुका होता! सत्य समझने का क्या फायदा है? क्या यह समझ तुम्हारा पेट भर सकती है या बिलों का भुगतान कर सकती है?” देखा? बात बस इतनी नहीं है कि उन्हें कोई पछतावा नहीं है, वे तो कलीसिया छोड़ने में समर्थ होने के कारण खुद को भाग्यशाली भी मानते हैं। क्या इससे छद्म-विश्वासियों के रूप में उनका असली चेहरा उजागर नहीं हो रहा है? (हाँ।)
कुछ लोग आदतन लापरवाह होते हैं और अपने कर्तव्य के निर्वहन में अंधाधुँध कुकृत्य करते हैं। कलीसिया से बाहर निकाल दिए जाने के बाद जब वे भाई-बहनों को मिलते हैं तो उन्हें ऐसे देखते हैं जैसे वे दुश्मन हों। यहाँ तक कि जब भाई-बहन उनसे सदिच्छा से बात करने का प्रयास करते हैं, तो भी वे उन्हें नजरअंदाज कर देते हैं और उन्हें नफरत भरी नजरों से देखते हैं और कहते हैं, “तुम्हीं लोगों ने मुझे कलीसिया से बाहर निकाला है। अब मुझे देखो! मैं तुम लोगों से बेहतर हाल में हूँ! अब मैं सोने-चाँदी से सज गया हूँ, मैं एक प्रभावशाली व्यक्ति हूँ! मैं दुनिया में बड़े आराम से घूम-फिर रहा हूँ और देखो तुम लोग परमेश्वर में विश्वास रखने में कितने मैले-कुचले और थककर चूर हो गए हो! तुम सब सत्य प्राप्त करने के लिए लगातार प्रयास किए जा रहे हो, लेकिन मुझे नहीं लगता है कि तुम लोग मुझसे कुछ ज्यादा होशियार हो! सत्य प्राप्त करने में इतना अच्छा है ही क्या? क्या इसे भोजन की तरह खाया या पैसे की तरह खर्च किया जा सकता है? सत्य का अनुसरण किए बिना भी मैं बहुत ही अच्छी तरह से जी रहा हूँ, है ना? यह मेरी खुशकिस्मती थी कि तुम लोगों ने मुझे बाहर निकाल दिया—मुझे इसके लिए तुम सभी का धन्यवाद करना चाहिए!” उनके शब्दों से यह स्पष्ट है कि वे छद्म-विश्वासी हैं और उनके कर्तव्य निर्वहन ने उन्हें बेनकाब कर दिया। क्या सिर्फ मौखिक रूप से परमेश्वर में विश्वास रखने वाला अविश्वासी स्वेच्छा से अपना कर्तव्य कर सकता है? अपना कर्तव्य करने का अर्थ है बिना मजदूरी कमाए या धनोपार्जन किए जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे करना। वे इसे नुकसान के रूप में देखते हैं, इसलिए वे अपना कर्तव्य करने के अनिच्छुक होते हैं। छद्म-विश्वासियों के रूप में उनके असली रंग इस प्रकार उजागर हो जाते हैं; यही वह तरीका है जिससे परमेश्वर का कार्य छद्म-विश्वासियों को बेनकाब करता है और हटाता है। कुछ लोग अपना कर्तव्य करते समय हमेशा एक लापरवाह रवैया अपनाए रहते हैं, दिन-ब-दिन बस लक्ष्यहीन होकर चलते रहते हैं। जैसे ही उन्हें दुनिया में धनोपार्जन करने या पदोन्नति हासिल करने का अवसर मिलता है, वे किसी भी समय कलीसिया छोड़ देते हैं—उनके मन में हमेशा से यही इरादा रहा है। अगर आदतन लापरवाह होने और अपना कर्तव्य निभाते हुए अंधाधुँध कुकृत्य करने के कारण उन्हें एक साधारण कलीसिया में भेज दिया जाता है तो वे न सिर्फ आत्म-चिंतन नहीं करते, बल्कि यह भी सोचेंगे, “तुम्हारा मुझे पूर्णकालिक कर्तव्य वाली कलीसिया से दूर कर देना तुम्हारे लिए नुकसान है और मेरे लिए फायदा।” यहाँ तक कि वे खुद से काफी खुश भी होते हैं। क्या ऐसे लोग छद्म-विश्वासी नहीं हैं? मुझे बताओ, जिन छद्म-विश्वासियों को अपने अँधाधुँध गलत कर्मों के जरिए कलीसिया के कार्य में गंभीर रूप से गड़बड़ी और बाधा उत्पन्न करने के कारण दूर कर दिया जाता है, क्या उन्हें इस तरह दूर करना परमेश्वर के घर के सिद्धांतों के अनुरूप है? (हाँ।) यह पूरी तरह से सिद्धांतों के अनुरूप है; यह रत्ती भर भी उनके साथ अन्याय करना नहीं है। परमेश्वर के प्रति और अपना कर्तव्य करने के प्रति उनका रवैया ऐसा है कि वे किसी भी समय उन्हें छोड़ने और उनके साथ विश्वासघात करने में सक्षम हैं। यह चीज यह साबित करने के लिए पर्याप्त है कि अपने दिलों में उन्हें सकारात्मक चीजों में बिल्कुल कोई दिलचस्पी नहीं है। उन्होंने इतने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है और इतने सारे धर्मोपदेश सुने हैं, फिर भी परमेश्वर में विश्वास रखने का कोई भी सत्य या परमेश्वर के चुने हुए लोगों की अनुभवजन्य गवाहियाँ उनके दिलों को रोककर नहीं रख पाती हैं। इनमें से एक भी चीज उन्हें दिलचस्प नहीं लगती है, उन्हें छूती नहीं है या उनमें लगाव पैदा नहीं करती है। यही उनकी मानवता का सार है, जो यह है कि उन्हें सकारात्मक चीजों में बिल्कुल कोई दिलचस्पी नहीं है। तो उनकी किसमें दिलचस्पी है? वे खाने-पीने और मौज-मस्ती करने में, देह के सुखों में, बुरे रुझानों में और शैतान के फलसफे में दिलचस्पी रखते हैं। उन्हें समाज की सभी नकारात्मक चीजों में विशेष रूप से दिलचस्पी होती है; सिर्फ सत्य और परमेश्वर के वचनों में ही उन्हें कोई दिलचस्पी नहीं होती। यही कारण है कि वे किसी भी समय परमेश्वर का घर छोड़ने में सक्षम होते हैं। उन्हें परमेश्वर के घर की सभाओं के दौरान बार-बार परमेश्वर के वचन पढ़ने या बार-बार सत्य की संगति करने में कोई दिलचस्पी नहीं होती है। उन्हें कर्तव्य करने से विशेष रूप से घिन आती है और वे यहाँ तक सोचते हैं कि अपना कर्तव्य करने वाले सभी लोग बेवकूफ होते हैं। यह किस तरह की मानसिकता और किस तरह की मानवता है? उन्हें सत्य में या परमेश्वर द्वारा लोगों के उद्धार में कोई दिलचस्पी नहीं होती है और वे कलीसियाई जीवन से बिल्कुल भी लगाव महसूस नहीं करते हैं। वैसे तो उन्होंने परमेश्वर के वचनों की खुलेआम आलोचना या निंदा नहीं की है, लेकिन उन्होंने कई वर्षों तक रत्तीभर सत्य समझे बिना धर्मोपदेश सुने हैं—यह स्पष्ट रूप से एक समस्या की ओर इशारा करता है। ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जो एक ही समय में सकारात्मक और नकारात्मक दोनों चीजों को नापसंद करता हो। अगर तुम सकारात्मक चीजें पसंद नहीं करते हो, तो तुम्हें नकारात्मक चीजों में विशेष रूप से दिलचस्पी होगी। अगर नकारात्मक चीजों में तुम्हें विशेष रूप से दिलचस्पी है, तो यकीनन सकारात्मक चीजों में तुम्हें दिलचस्पी नहीं होगी। इस प्रकार के व्यक्ति को सकारात्मक चीजों में बिल्कुल भी दिलचस्पी नहीं होती है, इसलिए परमेश्वर के घर में ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे वे लगाव महसूस करते हों, ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे वे पसंद करते हों या जिसके लिए वे लालायित रहते हों। वे सबसे ज्यादा दिलचस्पी दुनिया के बुरे रुझानों, धन-दौलत, शोहरत और फायदा, अफसरशाही, अमीर बनने और विभिन्न लोकप्रिय पाखंडों और भ्रांतियों में रखते हैं। उनका दिल परमेश्वर के घर की नहीं, बल्कि दुनिया की अत्यधिक चाह रखता है, यही कारण है कि वे किसी भी समय परमेश्वर का घर छोड़ने में सक्षम होते हैं। परमेश्वर का घर छोड़ने और कलीसियाई जीवन छोड़ने से उन्हें कोई पछतावा, कोई दुःख या दर्द नहीं होता है, बल्कि उन्हें पूरी राहत मिलती है। वे मन में सोचते हैं : “आखिरकार मुझे अब हर रोज सत्य के बारे में धर्मोपदेश या संगति नहीं सुननी पड़ेगी, मुझ पर अब इन चीजों का अंकुश नहीं रहेगा। अब मैं बेधड़क शोहरत और फायदे के पीछे भाग सकता हूँ, धन-दौलत के पीछे भाग सकता हूँ, सुंदर महिलाओं के पीछे भाग सकता हूँ और अपनी व्यक्तिगत संभावनाओं को पाने की कोशिश कर सकता हूँ। आखिरकार, मैं बेधड़क झूठ बोल सकता हूँ और दूसरों को धोखा दे सकता हूँ, साजिशों और योजनाओं को अंजाम दे सकता हूँ और बेफिक्र होकर सभी प्रकार की दुष्ट युक्तियों का अभ्यास कर सकता हूँ। मैं लोगों से बातचीत करने के लिए किसी भी साधन का उपयोग कर सकता हूँ!” उनके लिए परमेश्वर के घर में धर्मोपदेश सुनना और सत्य की संगति करना दर्दनाक होता है और परमेश्वर का घर छोड़ना राहत जैसा लगता है। इसका अर्थ यह है कि उनके दिलों को इन सकारात्मक चीजों की जरूरत नहीं है। उन्हें जो चाहिए वे सभी दुनिया और समाज की चीजें हैं। इससे यह स्पष्ट है कि उन्होंने जिस कारण से कलीसिया छोड़ा, वह सीधे उनके अनुसरणों और प्राथमिकताओं से संबंधित है।
जो लोग किसी भी समय परमेश्वर का घर छोड़ने में सक्षम होते हैं उनका प्रकृति सार क्या है? क्या अब तुम लोग देख रहे हो कि यह क्या है? (हाँ। वे छद्म-विश्वासी प्रकार के लोग हैं। इनमें से ज्यादातर लोग जानवरों का पुनर्जन्म हैं, वे सभी बिना दिमागों या विचारों वाले भ्रमित व्यक्ति हैं।) सही कहा। उन्हें आस्था के मामले समझ में नहीं आते हैं। वे यह नहीं समझते हैं कि मानव जीवन का वाकई क्या अर्थ है, लोगों को कौन-सा मार्ग अपनाना चाहिए, कौन-सी चीजें करना सबसे सार्थक है, जब आचरण की बात आती है तो अभ्यास के किन सिद्धांतों का पालन करना चाहिए, वगैरह, और वे इन्हें समझने के लिए सत्य की खोज भी नहीं करना चाहते हैं। वे क्या अनुसरण करना पसंद करते हैं? दिन भर उनके दिमाग इस बात पर केंद्रित रहते हैं कि वे फायदे हासिल करने और दूसरों से बेहतर जीवन का आनंद लेने के लिए क्या कर सकते हैं। कुछ लोग बाहरी दुनिया में नौकरी करते समय परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करते हैं। लेकिन जैसे ही उन्हें पर्यवेक्षक या प्रबंधक के पद पर पदोन्नत किया जाता है या वे प्रमुख बन जाते हैं, वे विश्वास रखना बंद कर देते हैं। जब भाई-बहन उनसे संपर्क करते हैं तो वे कहते हैं, “अब मैं एक रुतबे और प्रतिष्ठा वाला, सामाजिक हैसियत वाला व्यक्ति हूँ। तुम लोगों के साथ परमेश्वर में विश्वास रखना बहुत ही अपमानजनक है। तुम सभी को मुझसे दूर रहना चाहिए और फिर से मुझे ढूँढ़ते हुए यहाँ मत आना! तुम लोग अगर चाहो, तो मेरा नाम काट सकते हो या मुझे निष्कासित कर सकते हो। वैसे भी, परमेश्वर में विश्वास रखने का मेरा अध्याय समाप्त हो चुका है और अब मेरा तुम लोगों से कोई लेना-देना नहीं है!” देखा, वे क्या कहते हैं? वे किस तरह के व्यक्ति हैं? क्या तुम लोग अब भी उनसे संपर्क करोगे? (नहीं।) उन्होंने यह बात साफ-साफ कह दी है, लेकिन कुछ कलीसियाई अगुआ जब उन्हें छोड़ते हुए देखते हैं, तो उन्हें अब भी यह खेदजनक लगता है और वे उन्हें राजी करने के लिए उनसे कई बार संपर्क करते हैं : “तुममें इतनी अच्छी काबिलियत है, और तुम तो पहले एक अगुआ और कार्यकर्ता भी हुआ करते थे। तुम्हें सिर्फ इसलिए बर्खास्त कर दिया गया क्योंकि तुमने सत्य का अनुसरण नहीं किया था। अगर तुम लगन से सत्य का अनुसरण करते हो, तो तुम यकीनन बचाए जाओगे और भविष्य में तुम निश्चित रूप से परमेश्वर के घर में एक स्तंभ, एक मुख्य आधार बनोगे!” अगुआ ये बातें जितनी ज्यादा कहते हैं, उतना ही यह दूसरे पक्ष के मन में जुगुप्सा पैदा करता है। कुछ कलीसियाई अगुआ भ्रमित होते हैं और भेद नहीं पहचानते हैं; इस व्यक्ति को दुनिया में पदोन्नत किया गया है, फिर भी ये अगुआ अब भी उससे ईर्ष्या करते हैं और उससे संबंध स्थापित करना चाहते हैं—क्या यह आत्म-सम्मान की कमी नहीं दर्शाता है? सत्य समझने वाले लोग इस मामले को स्पष्ट रूप से देख पाते हैं : समाज में पदोन्नत होना एक अच्छा संकेत नहीं है; यह व्यक्ति के लिए चलने का सही मार्ग नहीं है! कुछ लोग समाज में थोड़ा सा रुतबा हासिल करते ही परमेश्वर में विश्वास रखना बंद कर देते हैं—यह उन्हें बिल्कुल बेनकाब कर देता है और साबित करता है कि वे सच्चाई से परमेश्वर में विश्वास रखने वाले या सत्य से प्रेम करने वाले लोग नहीं हैं। अगर वे सच्चे विश्वासी होते, तो भले ही उन्हें पदोन्नत कर दिया जाता और समाज में उनका भविष्य उज्ज्वल होता, फिर भी वे परमेश्वर को नहीं छोड़ते। अब जब वे परमेश्वर के साथ विश्वासघात कर चुके हैं, तो क्या कलीसिया को उनसे संपर्क करने और उन पर कार्य करने की कोई जरूरत है? इसकी कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि वे पहले ही छद्म-विश्वासियों के रूप में बेनकाब किए जा चुके हैं। परमेश्वर में विश्वास न रखने से उन्हीं का नुकसान है—उनके पास आशीष ही नहीं है। वे बस मनहूस जीव हैं; अगर अब भी तुम उन्हें परमेश्वर में विश्वास रखने के लिए राजी करने पर अड़े रहते हो, तो क्या यह बेवकूफी नहीं है? जितना तुम उन्हें इस तरह से राजी करने का प्रयास करते हो, उतना ही वे तुम्हें नीची नजरों से देखते हैं। उनका मानना है कि परमेश्वर में विश्वास रखने वाले लोगों का सामाजिक रुतबा निम्न होता है और उनमें काबिलियत की कमी होती है। यही कारण है कि वे विशेष रूप से घमंडी और आत्मतुष्ट होते हैं, हर किसी को नफरत भरी नजरों से देखते हैं। अगर कोई उनके बारे में चिंता दर्शाता है या उनकी परवाह करता है, तो उन्हें लगता है कि वह उन्हें खुश करने का प्रयास कर रहा है। यह किस तरह की मानसिकता है? यह भाई-बहनों को सही ढंग से देखने की अक्षमता है। क्या वे कोई सच्चाई से परमेश्वर में विश्वास रखने वाले लोग हैं? इस तरह के व्यक्ति से मिलने पर तुम्हें उसे अस्वीकार कर देना चाहिए। जैसे ही वह कहे, “अब मैं वरिष्ठ पर्यवेक्षक हूँ। फिर से मुझे ढूँढ़ते हुए यहाँ मत आना। अगर तुम मुझसे संपर्क करते रहोगे, तो मैं तुम लोगों के खिलाफ हो जाऊँगा! खासकर मेरी कंपनी में आकर मुझे शर्मिंदा मत करना—ऐसे लोगों से मेरा कोई लेना-देना नहीं है जो परमेश्वर में विश्वास रखते हैं!”—जैसे ही वह ये शब्द कहे, तुम लोगों को तुरंत वहाँ से चले जाना चाहिए, उसका नाम काट देना चाहिए और भविष्य में कभी भी ऐसे व्यक्ति से मेल-मिलाप नहीं रखना चाहिए। वह डरता है कि हम उसकी सफलता का फायदा उठाएँगे; इसलिए हममें कुछ आत्म-जागरूकता जरूर होनी चाहिए। वह फल-फूल रहा है और ऊँचे पदों पर चढ़ता जा रहा है; वह हमारी पहुँच से बाहर है। हम तो बस आम लोग हैं, समाज के निचले तबके के लोग हैं। हमें उससे संपर्क स्थापित करने का प्रयास नहीं करना चाहिए—खुद को इतना नीचे मत गिराओ! कुछ ऐसे लोग भी हैं जिनकी उम्र ज्यादा है और जिनके बच्चे शहर में एक आलीशान घर खरीदते हैं। घर बसाने के बाद वे भाई-बहनों की नजरों से गायब हो जाते हैं और कहते हैं : “फिर से मुझे ढूँढ़ते हुए यहाँ मत आना। तुम सब लोग देहाती हो। अगर तुम लोग मुझे ढूँढ़ते हुए यहाँ आओगे तो लोग सोचेंगे कि मैं भी देहाती हूँ, कि मेरे देहाती रिश्तेदार हैं। वह कितना शर्मनाक होगा! क्या तुम्हें पता है कि मेरा बेटा किस तरह का व्यक्ति है? उसके पास अकूत दौलत है, वह एक रईस है, रसूखदार आदमी है! अगर तुम लोगों ने मुझसे संपर्क रखा, तो क्या यह मेरे बेटे के लिए अपमानजनक नहीं होगा? इसलिए भविष्य में फिर से मुझे ढूँढ़ते हुए यहाँ मत आना।” जैसे ही वे ये शब्द कहें, उन्हें बस यह उत्तर देना : “चूँकि तुम्हारा यह रवैया है, हमें समझ आ गया है। फिर हम तुम्हारी खुशी और आनंद की कामना करते हैं!” उस समय, अगर तुमने एक भी शब्द और कहा तो तुम्हें बेवकूफ और नीच समझा जाएगा। वहाँ से तुरंत चले जाना ही सही है। छद्म-विश्वासियों को कभी भी जबरन समझाने का प्रयास मत करो—वह सिर्फ बेवकूफी भरा व्यवहार है। तुम समझ रहे हो? (हाँ।) कुछ लोग कितने बेवकूफ हो सकते हैं? वे कहते हैं, “उस व्यक्ति का बेटा एक रईस है, समाज में रुतबे वाला दौलतमंद आदमी है। उसके सरकारी अफसरों से भी अच्छे संबंध है। अगर हम उन्हें परमेश्वर में विश्वास रखना जारी रखने के लिए राजी कर लें, तो उनका परिवार भाई-बहनों की मेजबानी भी कर सकता है!” यह विचार कैसा लगता है? अगर तुम कलीसिया के कार्य के प्रति विचारशील होने, भाई-बहनों के प्रति विचारशील होने और सुरक्षा पर विचार करने के परिप्रेक्ष्य से इस बारे में सोचते हो, तो यह बिल्कुल उपयुक्त है। लेकिन तुम्हें यह देखना होगा कि क्या वे सच्चाई से परमेश्वर में विश्वास रखते हैं। अगर वे परमेश्वर में विश्वास रखने को तैयार नहीं हैं और भाई-बहनों के संपर्क में रहना पसंद नहीं करते हैं, फिर भी तुम उन्हें परमेश्वर में विश्वास रखने के लिए राजी करना चाहते हो तो क्या यह बेवकूफी नहीं है? ऐसी चीजें मत करो जो आत्म-सम्मान की कमी दर्शाता हो। परमेश्वर में विश्वास रखने में हमारे पास परमेश्वर की सुरक्षा और परमेश्वर का मार्गदर्शन है। हम चाहे किसी भी परिवेश में रहते हों, यह सब कुछ परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के अधीन है। हम चाहे कोई भी कष्ट सहते हों, हमें सम्मान के साथ जीना चाहिए। कुछ लोग तो परमेश्वर का घर छोड़ने वाले इस व्यक्ति से ईर्ष्या भी करते हैं और कहते हैं कि वह सक्षम है—क्या यह नजरिया सही है? हमें यह मामला कैसे देखना चाहिए? एक बार जब वह एक बड़े घर में रहने चला गया, तो उसने परमेश्वर में विश्वास रखना बंद कर दिया। समाज में उसका रुतबा और हैसियत है और अपने दिल में वह भाई-बहनों को नीची नजर से देखता है, उन्हें समाज के सबसे निचले तबके के ऐसे लोगों के रूप में देखता है जो उससे बातचीत करने के अयोग्य हैं। इसलिए हममें आत्म-जागरूकता होनी चाहिए और हमें ऐसे लोगों से संबंध स्थापित करने या उन्हें पटाने का प्रयास नहीं करना चाहिए, है ना? (हाँ।)
जो लोग किसी भी समय परमेश्वर का घर छोड़ने में सक्षम हैं, चाहे वे छद्म-विश्वासी हों या बस निकम्मे हों, वे परमेश्वर में विश्वास चाहे आशीषें प्राप्त करने के लिए रखते हों या आपदाओं से बचने के लिए—परिस्थिति चाहे जो हो—जब तक वे किसी भी समय परमेश्वर का घर छोड़ने में सक्षम हैं और छोड़ने के बाद उन्हें उनसे संपर्क करने वाले भाई-बहनों से घिन आती है, और उससे भी ज्यादा घिन भाई-बहनों की मदद और सहारे से आती है, और वे ऐसे सभी लोगों के प्रति शत्रुता दिखाते हैं जो उनके साथ सत्य की संगति करते हैं, तो ऐसे लोगों पर ध्यान देने की कोई जरूरत नहीं है। अगर इस प्रकार के छद्म-विश्वासियों का पता चलता है, तो उन्हें समय रहते उजागर कर देना चाहिए और बाहर निकाल देना चाहिए। कुछ लोग हो सकता है कि सत्य से प्रेम न करते हों, लेकिन वे अच्छे लोग बनना पसंद करते हैं और भाई-बहनों के साथ रहने का आनंद लेते हैं; इससे उनका मिजाज अच्छा रहता है और इससे भी बड़ी बात यह है कि वे दुर्व्यवहार किए जाने से बचते हैं। अपने दिलों में वे जानते हैं कि वे सच्चे परमेश्वर में विश्वास रखते हैं और लगन से श्रम करने को तैयार रहते हैं। अगर उनका वाकई इस तरह का रवैया है, तो क्या तुम लोगों को लगता है कि उन्हें अपना कर्तव्य करते रहने की अनुमति देनी चाहिए? (हाँ।) अगर वे श्रम करने को तैयार हैं और गड़बड़ी या बाधा पैदा नहीं करते हैं तो वे श्रम करना जारी रख सकते हैं। लेकिन अगर एक दिन वे अब और श्रम करने को तैयार नहीं होते हैं और यह कहकर परमेश्वर का घर छोड़ना चाहते हैं : “मैं दुनिया में सफलता हासिल करने का प्रयास करने जा रहा हूँ। मैं अब तुम लोगों के साथ परमेश्वर में विश्वास नहीं रखने वाला हूँ। यहाँ बिल्कुल मजा नहीं आता है और कभी-कभी जब मैं अपना कर्तव्य करने में लापरवाह होता हूँ, तो मेरी काट-छाँट की जाती है। यहाँ रहना वाकई कठिन है; मैं छोड़ना चाहता हूँ”—तो क्या ऐसे व्यक्ति को रुकने के लिए राजी करना चाहिए? (नहीं।) हम उससे बस एक प्रश्न पूछ सकते हैं : “क्या तुमने इस बारे में अच्छी तरह से सोचा है?” अगर वे कहते हैं, “मैंने इस बारे में लंबे समय तक सोचा है,” तो तुम कह सकते हो, “तो हम तुम्हें शुभकामनाएँ देते हैं। अपना ख्याल रखना और अलविदा!” क्या यह तरीका ठीक है? (हाँ।) तुम लोगों को क्या लगता है कि ये किस तरह के लोग हैं? वे उस प्रकार के लोग हैं जो सोचते हैं कि वे सामान्य से बेहतर हैं, और जो दुनिया और उसके तौर-तरीकों से नफरत करते हैं, अक्सर मशहूर लोगों की कविताएँ सुनाते हैं, जैसे, “मैं अपनी आस्तीन लहराता हूँ, लेकिन बादल का एक टुकड़ा तक नहीं हटाता।” उन्हें लगता है कि वे खुद को शुद्ध रखते हैं और वे इस दुनिया के अनुरूप नहीं हैं और वे परमेश्वर में विश्वास रखकर कुछ दिलासा खोजना चाहते हैं। वे हमेशा खुद को किसी असाधारण व्यक्ति के रूप में देखते हैं, लेकिन वास्तव में वे सबसे संसारी लोग हैं, जो सिर्फ खाने-पीने और मौज-मस्ती करने के लिए जीते हैं। उनके पास कोई वास्तविक विचार और कोई वास्तविक अनुसरण नहीं हैं। वे खुद को किसी उत्कृष्ट व्यक्ति के रूप में देखते हैं, मानो कोई भी उनके विचारों को समझ नहीं पाता हो या उनके सोचने के तरीके के टक्कर का ना हो। वे अपने मानसिक क्षितिज को औसत व्यक्ति से ऊँचा मानते हैं और इस तरह की चीजें कहते हैं : “तुम सभी साधारण लोग हो, लेकिन मुझे देखो—मैं अलग हूँ। अगर तुम मुझसे पूछो कि मैं कहाँ से हूँ, तो मैं तुम्हें बता दूँगा कि मेरा अपना शहर बहुत दूर है।” क्या उन्होंने तुम्हें बताया कि वे कहाँ से हैं? क्या तुम्हें पता है कि यह तथाकथित “बहुत दूर” जगह कहाँ है? जो लोग किसी भी समय कलीसिया छोड़ने में सक्षम हैं, वे बिल्कुल इसी प्रकार के होते हैं। उन्हें लगता है कि कहीं भी उन्हें संतुष्टि नहीं मिल सकती है और वे हमेशा कुछ अवास्तविक, अस्पष्ट, भ्रामक चीजों के बारे में सोचते रहते हैं। वे वास्तविकता पर ध्यान केंद्रित नहीं करते हैं और यह नहीं समझते हैं कि मानव जीवन क्या है या लोगों को कौन-सा मार्ग चुनना चाहिए। वे इन चीजों को नहीं समझते हैं—वे बस अजीबोगरीब होते हैं। अगर इस प्रकार के किसी व्यक्ति ने कलीसिया छोड़ने का मन बना लिया हो और वह कहे कि उसने लंबे समय तक इस बारे में अच्छी तरह से सोचा है, तो उसे रुकने के लिए राजी करने की कोई जरूरत नहीं है। एक भी शब्द और मत कहो—सिर्फ उसका नाम काट दो, बस। ऐसे लोगों को इसी तरीके से सँभालना चाहिए; यह लोगों के साथ व्यवहार करने के सिद्धांतों के अनुरूप है। इसी के साथ उन लोगों के बारे में संगति समाप्त होती है जो किसी भी समय कलीसिया छोड़ने में सक्षम हैं।
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